29 April 2009

नेतागिरी का इलेक्शन लोचा

नेता बन गए पर कुछ खास नाम नहीं किया, तो चलो मंच पर और बक दो कुछ भी उल्टा-पुल्टा। फिर देखो कमाल। चुनावी दंगल में मंगल करवाना चाहते हो, तो कोई न कोई जुगत बैठानी ही पड़ेगी। अब लोग-लुगाई कौनसा 'उनचास ओ' को जानते ही हैं, तो मचाओ धमाल।
हम लाएं हैं तूफान से कश्ती निकालके... इस देश को रखना बच्चो संभालके। रेडियो पर गाना बज रहा था। बहुत ही पुराना गीत है। बचपन से सुनते आ रहे हैं। अब क्या करें? हमने तो बहुत ही कोशिश की थी, देश बचाने की। पर हमारे भीडू लोग चाहते ही नहीं। उनका तो एक ही नारा है... अपना काम बनता और भाड़ में जाए जनता। भीड़ू कौन? अरे वो ही भीडू लोग... जो आ रहे हैं दरवज्जों पे, आपके और हमारे माथा ढोकने। हम कोई कम थोड़े ही ना हैं। डंडे को तेल पिलाकर बैठे हैं चौक में। आने दो करमजले नेताओं को। पिछली बार धोखा दिया था ना ससुर के नातियों ने। अब की बार तो पूरी लिस्ट ही बना ली है हमने भी। कब-कब और कैसे-कैसे खून चूंसा था हमारा। सारा हिसाब करेंगे। कहा था कि शहर को स्वर्ग बना देंगे और अब देखते हैं, तो पता लगता है कि मोहल्ला तक गंदगी के मारे नरक बन चुका है। नल में पांच साल पहले भी पानी नहीं आता था और आज भी बेचारा प्यासा ही है। सड़क पे उस वक्त दो गड्ढे थे और आज तो गड्ढों में ढूंढऩा पड़ता है कि आखिर सड़क है कहां। अब आप ही बताओ कि वोट दें, तो किसे दें। सब एक से बढ़कर एक धूर्त। कोई चार सौ बीसी के चलते जेल में बंद हुआ है, तो किसी के लिए खून-खराबा रोज की बात। कोई मुद्दे की बात को करते नहीं। चूं-चपड़ कितनी ही करा लो। अपने राहुल बाबा थोड़ा सा चमकने लगे, तो ससुरी बीजीपे ने अपने 'गांधी' को मोर्चा संभला दिया। बको मंच पर कुछ भी। लूट-खसूट लो सारे वोटों को। हम गरीबन के पास है ही क्या संपदा। इकलौता वोट ही तो है। ऊ भी पांच बरस में एक ही बार तो मौका मिले है। वो भी हथिया लो भई। 'काट दूंगा' अरे मुन्नालाल, राजनीति में मार-काट करने आए थे क्या? मार-काट करनी है, तो बन जाओ मुंबई के डॉन। फिर कौन रोकेगा तुम्हें? अपने पीएम इन वेटिंग आडवाणीजी को तो वे पोस्टर बॉय ही नजर आने लगा है उसमें। न जाने कब से प्रधानमंत्री बनने का सपना पाले बैठे थे। क्या मुद्दा बनाएं केंद्र की सरकार को हटाने के लिए। अब लगता है कि वापस पुराने रास्ते पर लौट ही आते हैं। अपना ही बच्चा है, वरुण। अब तक गांधियों से डरते थे, अब खुशी है कि एक 'गांधी' हमारे पास भी है। एक बात और। मुए दूर से ही अलग-अलग लगते हैं। पास जाके देखो, तो एक ही थाली के चट्टे-बट्टे। कौन सोच सकता था कि जो कल्याण सिंह कल तक बीजेपी का तारणहार दिखता था, वो आज सपा को पूजने लगगे। जो उमा भारती आडवाणी का दामन छोड़कर चली गई, वही आज बीजेएसपी से वापस बीजेपी-बीजेपी की रट लगाने लगेगी।अब तो संजूबाबा की भी फूंक निकल गई। अरे, वे खुद ही 'मामू' बन गए। अब क्या करें? ये इलेक्शन का लोचा अच्छे-अच्छे नहीं संभाल पाते, तो संजूबाबा कौनसा तीर मारते। महाराष्ट्र के सबसे बड़े गुंडे को तो आप जानते हैं ना। अरे बाल ठाकरे और कौन? आप कहेगा क्यों सबके सामने उसे गुंडा कह रहे हो? तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? अरे ये गुंडे नहीं, तो क्या हैं? बेचारी अंजलि बाघमारे। वही जो अजमल कसाब का केस लड़ने वाली थी। बोल दिया ठाकरे के गुंड़ों ने हमला। पर अंजलि कम थोड़े ही ना हैं। हिम्मत दिखाई है और हो गई हैं तैयार केस लड़ने को। ये सरेआम गुंडगर्दी नहीं तो और क्या है? टिकट देने में भी ये नेता कौनसी कसर रख रहे हैं? अभी अपन को रामप्यारे जन प्रतिनिधि अधिनियम पढ़ा रहे थे। बोले ये उनचास ओ भी कमाल है। हमने कहा ये क्या बला है? बोला गुस्सा निकालने का नया तरीका है भई। हमने पूछा- क्या होता है भई इसमें। तो बोले, भैया ये छोटी-सी धारा नेताओं की धार बदल सकती है। अगर वोटिंग मशीन में कोई उम्मीदवार पसंद ना आवै, तो नया कॉलम 'कोई पसंद नहीं' को दबा दो। यही है 'उनचास ओ'। ये तो कमाल है भई। चलो मन की भड़ास तो निकाल लेंगे। एक तो हमारे वो दोस्त हैं, जो वोट देने ही नहीं जाएंगे। अरे हम तो जाएंगे वोट देने, पर अगर कोई उम्मीदवार मन को नहीं भाया, तो 'उनचास ओ' का सहारा लेंगे जी। मेरा कहा मानो और आप भी आ जाओ आगे। इन नेताओं को छोड़ना मत। अगर अबके बख्श दिया, तो पूरे पांच साल में दर्शन होंगे। आगे आपकी मर्जी।
-आशीष जैन

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तेरा जूता मेरे सिर

आप अपने फटे-पुराने जूतों को संभालकर रख लीजिए जनाब। हो सकता है कि आने वाले वक्त में मार्केट में इनकी डिमांड बढ़ जाए। आपको नहीं पता, ना जाने कैसे-कैसे जूते आजकल छोटे परदे पर शोभायमान हैं।
आज फिर हमारा सपूत स्कूल से बिना पढ़े लौटा है। हमने पूछा, 'क्या हुआ लल्लू' तो वो बोला, 'पापा, स्कूल वालों को आप इतनी फीस देते हो। फिर भी उन्हें तो बस मेरे जूतों से प्यार है।' फिर रोते-रोते बोला कि स्कूल वाले कहते हैं, 'पहले ढंग के जूते पहनकर आओ। तभी क्लास में घुसने देंगे।' कुछ दिन पहले ही उसे नए जूते दिलाए थे, पर कमबख्त ने बरसात में भीगोकर खराब कर दिए। ये स्कूल वाले किसी की सुनते ही थोड़े ना है। अब मेरे पास तो पैसे हैं नहीं, जो मैं उसे नए दिलाऊं। चलो, इसी बहाने क्यों ना आपको जूता कथा ही बांच दूं। अगर कथा पसंद आए, तो सप्रेम जूते देना और बुरा लगे, तो भी जूते ही देना। मुझे तो काम ही जूतों से हैं। तो भई 21 वीं सदी में जंबूद्वीप के भारतक्षेत्र में एकाएक बात चली, स्वतंत्रता की। लोगों के हुजूम चौक-चौराहों पर इकट्ठा होकर मांग करने लगे- हम आजाद तो कई साल पहले हो गए। पर मजा नहीं आता। लगता ही नहीं कि कुछ कर पाने की हालत में हैं या नहीं। हमें अपनी बात कहने की स्वतंत्रता हासिल ही करनी होगी। नेताओं को उनकी नानी याद दिलानी ही होगी। कोई मंच पर चढ़ बैठा, तो कोई रव्डियो पर लपक लिया। अब रह गए गज्जू भैया। अरे पत्रकार गज्जू भैया। वही जो सारे शहर को उनकी बात कहने के लिए मंच उपलब्ध कराते हैं। अखबार का मंच। दीन-दुखी उन्हें लाख आशीष देते हैं। अब लोगों को कौन बताए कि खाली आशीर्वाद से आज के टाइम में होता क्या है। वो बोलते रह जाते पर उन बेचारे महाशय का दर्द कोई सुनता ही नहीं था। उनका गुस्सा जायज था। क्या करें, कब तक कलम घिसते रहें। आज तक पड़ोसी अखबार का एडीटर तक तो शक्ल से पहचान नहीं पाया। चाहे हजारों प्रेस क्रांफेंसों में शामिल हो गए। पर कोई भाव ही नहीं देता। आज मौका मिला, तो पेश कर दिया जलवा। फैंक मारा जूता। चमक गई किस्मत। अब तो हमारा रोज का जागरण ही उनके नाम से होगा। प्रणाम करेंगे, रोज सुबह जागकर उन्हें। मार्क्सवादियों की समस्या ही हल कर दी भई। अब देखिए जूता भी किसे मारा, अपने चंदू भैया को। घर वाले मंत्री को घर में ही कोई जूता मार गया। हम तो हंस-हंसके लोट-पोट हुए जा रहे हैं। अरे, शान भी तो देखिए, जूता फैंका है और इतनी मस्ती में कुर्सी पर टिके हुए हैं, मानो कह रहे हों, 'आओ अब मेरी आरती भी तो उतारते जाओ।' एक तो अपने रामजी थे। जिनके खड़ाऊं से ही भरत भैया धाप गए थे। अब तो आडवाणी बाबू भी खड़ाऊं का असर देख चुके हैं। हमारे रामूकाका ने तो अपनी पूरी उमरिया ही लिगतरों में ही गुजार दी। फिर जूती, सैंडल ना जाने क्या-क्या चीजों का फैशन ही आ गया। जवानी के दिनों में हम एक गाना बड़े चाव से गाया करते थे- मेरा जूता है जापानी...। जूतों की शान थी उस वक्त। फिर तो जूतों के लेन-देन की भारतीय परंपरा पर भी गीत बन गया जी- 'जूते ले लो, पैसे दे दो...' ये लेन-देन फिल्मों तक तो ठीक था। अब तो असल जिंदगी में भी जूते का जादू चलने लगा है। जैदी ने क्या फार्मूला ईजाद किया पॉपुलर होने का। बुश पर जूता फेंका और छा गए पूरी दुनिया में। तो फिर उनके हिंदुस्तानी भाई कैसे पीछे रहते। वो ही कलमची... वो ही जूते... वो ही प्रेस कॉफे्रंस। बस थोड़े से फेरबदल से जूता कथा का पूरी तरह से भारतीयकरण हो गया। तैयार हो गई नई चाट। तो अब घबराना मत। रोज चटकारे लगाने को तैयार हो जाओ। अब तक तो आप जूतों को यूं ही पैरों में डालने की चीज ही समझते आए हैं। पर तैयार रहना, ये घर में बीवी का हथियार हो सकता है, तो घर के बाहर भी पॉपुलरटी तो दिला ही सकता है। चलते-चलते आपको बता देते हैं कि हरियाणा में भी नवीन जिंदल साहब पर भी जूता चल ही गया। हम कहते ना थे, ये जूता शास्त्र एक न एक दिन जरूर क्रांति लाकर रहेगा और देख लीजिए अब इसकी शुरुआत भी होने लगी है। अब तो हमें लगता है कि हर बड़ी सभा के बाहर एक बोर्ड जरूर टंगा मिलेगा- आपका जूता हमारा सिर सहर्ष स्वीकार कर लेगा, पर थोड़ा-सा पहले बताकर मारिएगा।
-आशीष जैन

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चट्टान को चुनौती

रोहतांग दर्रे की सपाट चट्टानों पर क्लाइबिंग करके छोड़ दीजिए अपने हौसलों के निशान।
तेज होती सांसें... चोटी पर पहुंचने का जुनून... नीचे गहरी खाई से उठता धुआं... ऊपर खुला विशाल आसमान। ये सब नजारव् हैं रॉक क्लाइंबिंग के। चट्टान की चुनौतियां स्वीकार ली हैं, तो अब घबराने से काम नहीं चलने वाला है। सपाट चट्टान की छाती पर हौसलों के निशान बनाते हुए आगे बढ़ने का मजा ही कुछ और है। हवाएं आपको बेचैन कर रही हैं कि कब टॉप पर पहुंचेंगे। वहीं चट्टान पर रेंगते छोटे कीड़े आपको आगे लगातार बढ़ने को कह रहे हैं। दरारों से झांकती हुई काई, तह दर तह तक जमी बर्फ। कभी फिसलन तो कभी रपटन। विश्राम का कोई नामलेवा नहीं। किसी का नाम आप पुकारने लगे, तो बार-बार वही नाम चारों ओर से गूंजने लगे। ऊपर से लुढ़कते पत्थरों से घबराना भी मना है। एक बात तो इस सबमें तय है कि पहाड़ पर चढ़ने के लिए ताकत की बजाय हिम्मत ज्यादा जरूरी है। कुल्लू जिले में 13050 फीट की ऊंचाई पर स्थित रोहतांग दर्रे को रॉक क्लाइबिंग के लिए बहुत मुफीद माना जाता है। लाहौल घाटी जाने के लिए आपको रोहतांग दर्रे से होकर गुजरना पड़ता है। रोहतांग दर्रा ही कुल्लू और लाहुल को आपस में जोड़ता है। इस दर्रे का पुराना नाम है- भृग-तुंग। यह दर्रा तेजी से मौसम बदलाव के लिए भी बहुत मशहूर है। बर्फबारी के चलते अक्सर नवंबर से अप्रेल तक इस दर्रे को बंद कर दिया जाता है। यहां की चट्टानों पर चढ़ाई करते वक्त आपको चारों और ग्लेशियरों, छोटी-बड़ी चोटियों, लाहौल घाटी से बहती चंद्रा नदी और प्रकृति के मनोरम दृश्यों का लुत्फ आसानी से मिलेगा। रॉक क्लाइंबिंग के लिए कई लोग बिना किसी बाहरी मदद से उंगलियों से ही ऊपर चढ़ने की जुगत करते हैं। आजकल कई उपकरणों की मदद से रॉक क्लाइबिंग आसान हो गई है। रस्सी और जीवन रक्षक उपकरण आपको थामे रहते हैं और आप ऊपर चढ़ते जाते हैं। कमर में बंधी रस्सी के सहारे ऊपर चढ़ते हुए आपको खयाल रखना होगा कि आप बिल्कुल चोटी की बजाय मात्र दो फुट आगे ही निगाह रखें। इस तरह आप धीरे-धीरे बिना घबराए अपनी मंजिल पा लेंगे। इसके लिए शरीर में लचक होना भी बहुत जरूरी है। रॉक क्लाइबिंग में संतुलन, शक्ति और हलन-चलन पर नियंत्रण जैसी चीजों पर ध्यान रखना जरूरी है। चढ़ाई करते वक्त आपको कपड़ों और जूतों के चयन का खास खयाल रखना होगा। माउंट आबू, सरिस्का, पावागढ़, मनाली घाटी, मणिकर्ण, रोहतांग दर्रा, हंपी, दार्जिलिंग और स्पिति जैसी जगहों पर आप रॉक क्लाइबिंग की योजना बना सकते हैं।
कैसे पहुंचें- निकटतम सड़क मार्ग, रेलमार्ग और एयरपोर्ट मनाली (51 किलोमीटर)।
-आशीष जैन

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आसमान में तैराकी


बीलिंग की हवाओं में ग्लाइडर के सहारे तैरने को तैयार हो जाइए विशाल आसमान में।
क्या आपका मन पंछियों की तरफ बेफ्रिक उड़ने का नहीं करता? क्या आप भी आसमां की बुलंदियों को छूना चाहते हैं, तो सोचिए मत, पैराग्लाइडिंग का निराला संसार आपकी बाट जोह रहा है। जिंदगी की फुल फॉर्म जाननी है, तो ग्लाइडर से हाथ मिला ही लीजिए। 50 से 60 फुट ऊंचे घने देवदार के दरख्तों से घिरा खुला लंबा मैदान हो, मैदान पर हरी मखमली घास की चादर बिछी हो, चारों ओर बादलों से ढके पर्वत हों, तो समझ लीजिए आपके पास मौका है एक नई उड़ान भरने का। आपकी आंखों के सामने एकाएक एक छतरी हवा में उड़ती है और मस्ती से नील गगन में हिचकोले खाने लगती है। छतरी के सहारे एक इंसान कभी पंछियों तो कभी बादलों से बातें करने लगता है। है ना वाकई रोमांच का दूसरा नाम- पैराग्लाइडिंग। हिमाचल की घाटियों में ये उड़नखटोले रोज नजर आते हैं। बर्फीले पहाड़ों की भव्यता में जमीन से ऊपर उठकर जमीन पर झांकने की इस कोशिश में कई लोग हिमाचल प्रदेश की कांगड़ा घाटी के बिलिंग तक पहुंचते हैं। बिलिंग पहुंचने के लिए बीड़ से होकर जाना पड़ता है। बीड़ से गुजरने के दौरान चाय के बागानों की सौंधी-सौंधी महक और बौद्ध मंदिरों की घंटियों की आवाज साफ सुनाई देती है। इस घाटी में इस साथ दर्जनों पैराग्लाइडर खड़े किए जा सकते हैं। धौलाधार पहाडिय़ों के पीछे की तरफ बनी जगह पर बनी जगह पर हवा का रुख कुछ इस तरह से रहता है कि सब कुछ आसान लगता है। धौलाधार की पहाड़ियों में आप 150 किलोमीटर के क्षेत्र में 5500 मीटर की ऊंचाई तक आराम से उड़ान भर सकते हैं। इस तैरते रोमांच में जोश, जुनून और उमंग के साथ हर वो चीज शामिल है, जो जिंदगी जीने के लिए निहायती जरूरी है। 1978 में फ्रांस में पैराग्लाइडिंग की शुरुआत हुई। वहां पहली बार एल्प्स पर्वत की ऊंचाई पर जाकर उड़ान भरी गई। हमारव् देश में यह खेल 1991 में उस वक्त आया, जब कुछ विदेशी पैराग्लाइडिंग पायलट्स ने कुल्लू घाटी में पैराग्लाइडर के सहारव् उड़ान भरने की योजना बनाना शुरू की। पैराग्लाइडिंग सीखना बस कुछ घंटों का काम है। अगर पैराग्लाइडिंग में लॉन्चिंग, टर्निंग और लैंडिंग का तरीका आपने अच्छे से सीख लिया, तो बस यकीन मानिए आपको आसमान में उड़ने से कोई नहीं रोक सकता। एक ग्लाइडर का वजन लगभग 7 किलोग्राम के करीब होता है। इसे 10 मिनट में आसानी से फोल्ड किया जा सकता है। ग्लाइडर में कपड़े से बनी दो सतह होती हैं। इन्हें सिलकर छोटे-छोटे हिस्सों में बांट दिया जाता है। आप आराम से ग्लाइडर में टिककर दौड़ लगाते हैं, इसमें हवा भरने लगती है और आप हवा में तैरने लगते हैं। इससे आप आसानी से तीन घंटे तक 15 हजार फीट की ऊंचाई से आसमान की सैर कर सकते हैं। घाटियों के जादुई सौंदर्य में पैराग्लाइडिंग का अलग ही मजा है। हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा जिले की चामुंडा पीक और बिलिंग, बिलासपुर की बंदला घाटी, मंडी की जोगिंद्रनगर घाटी और कुल्लू की सोलंग घाटी पैराग्लाइडिंग के जानी जाती हैं। वहीं मध्यप्रदेश में महू, मैसूर में चामुंडा पहाडिय़ां और बैंगलूर में कोनिकट के साथ-साथ राजस्थान में अरावली पर्वत श्रेणियां भी पैराग्लाइडिंग करने वालों की पसंदीदा जगह हैं।
कैसे पहुंचें- निकटतम रेलवे स्टेशन पठानकोट। निकटतम एयरपोर्ट गुग्गल। धर्मशाला (70 किमी.), मंडी (70 किमी.) से बसें।

-आशीष जैन

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लहरें ललकारती हैं


गंगा की लहरों पर सवार होकर निकल पड़िए पनीले सफर पर और लुत्फ लीजिए राफ्टिंग का।
लहरों की अठखेलियों के बीच खुद को मुक्त छोड़ दीजिए... कुछ देर आराम से पानी पर सरपट आगे बढ़ते जाइए... अरे ये क्या पानी की लहरें ऊंची हो गई... तो घबराना कैसा। पैडलर का सहारा और खुद की हिम्मत.. लो हो गए पार। यही है रिवर रॉफ्टिंग का असल रोमांच। पहाड़ों से निकलते पानी की तेज धार में रफ्टिंग करने पर ही आपकी दिलेरी साबित होती है। राफ्टिंग करते वक्त रास्ते में उबड़-खाबड़ चट्टानों से थोड़ा बचकर रहिएगा। कभी सीधा, तो कभी टेड़ा हर रास्ते पर डटा रहना है। जरूरी नहीं कि आप रॉफ्टिंग के मास्टर ही हों, गाइड आपकी मदद करने को तैयार हैं। रिवर रॉफ्टिंग करने वाले के लिए ऋषिकेश से लेकर श्रीनगर तक का पनीला रास्ता स्वर्ग के समान है। इस रास्ते पर पड़ती है एक जगह शिवपुरी। वहां गंगा के किनारे आपको राफ्टिंग करवाने वाले कैंप बरबस ही नजर आने लगेंगे। यहां राफ्टिंग करने में दो से तीन घंटे तक लगते हैं। शुरुआत में 15 से 18 किलोमीटर की राफ्टिंग आप आराम से कर सकते हैं। राफ्टिंग के लिए ऋषिकेश जाइए, वहीं हैं बुकिंग ऑफिस। रॉफ्टिंग करने के साथ-साथ कैंप में रुकने का खर्चा अधिकतम 5000 रुपए है। दिलचस्प बात बताते चलें कि इसके लिए तैराकी आना जरूरी नहीं है। उम्र की भी कोई पाबंदी नहीं है, बस आपकी फिटनेस लाजबाव होनी चाहिए। हां, तीन दिन की राफ्टिंग करना चाहते हैं, तो तैराकी सीखने में ही भला है। भई, आपको पैडलिंग जो लगातार करनी पड़ेगी। तीन दिन में आप 135 किलोमीटर का राफ्टिंग ट्रिप आराम से पूरा कर लेंगे। राफ्टिंग करते वक्त सुरक्षा के लिहाज से नदी में कम से कम दो राफ्ट होनी चाहिए। इस दौरान आपका लाइफ जैकेट और एक हैलमेट पहनना निहायती जरूरी है। राफ्ट पर अगर एक-दो वाटरप्रूफ बैग होंगे, तो अच्छा रहेगा, ताकि उसमें प्राथमिक उपचार का सामान रखा जा सके। राफ्टिंग करते-करते थक जाएं, तो नदी किनारे बने कैंपों में आराम फरमाइए। मौसम के लिहाज से देखें, तो गर्म मौसम में जाना सही रहेगा क्योंकि गर्मियों में पहाड़ों के बीच कल-कल बहते गंगा नदी के जल की शीतलता के सामने सूर्यदेव भी एक बारगी नतमस्तक हुए जाते हैं। देश में ऋषिकेश की गंगा नदी, जम्मू-कश्मीर के लद्दाख क्षेत्र में सिंध नदी, लद्दाख की जांसकर वैली, उत्तरप्रदेश में अलकनंदा नदी रिवर राफ्टिंग के लिए काफी मशहूर हैं। राफ्टिंग के लिए अपने पांच-छह दोस्तों का गु्प बनाइए, जिसमें एक रिवर गाइड भी मौजूद हो। और चप्पू खेते हुए दीजिए लहरों को चुनौती। कैसे पहुंचें- निकटतम एयरपोर्ट देहरादून (50 किमी.), निकटतम रेलमार्ग वाया हरिद्वार
-आशीष जैन

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गुफ्तगू मछलियों से


लक्षद्वीप के बरगरम और कदमत द्वीप में स्कूबा डाइविंग से लीजिए पानी के अंदर की दुनिया का आनंद।
हम बात इस दुनिया की बजाय समंदर के नीचे की रोमांचक दुनिया की करें, तो कैसा लगेगा? बरबस ही आपके मुंह से निकल पड़ेगा.... वाह.. अद्भुत। समंदर की लहरों को देखने का अपनी ही मजा है... कभी रात्रि की तरह एकदम शांत, तो कभी भूचाल की मानिंद सब कुछ उथल-पुथल। गोताखोरी या स्कूबा डाइविंग एक ऐसी ही विधा है, जिसमें आप समंदर की लहरों के नीचे की दुनिया से रूबरू होते हैं। छोटे-छोटे घोंघों, रंग-बिरंगी मछलियों और भयानक शार्क से नजर मिलाने के साथ-साथ अनगिनत समुद्री जीवों को जानने का मौका। खूबसूरत मूंगा-चट्टान, अजीबोगरीब शैवाल और समुद्री पादपों को नजदीक से देखने का लुत्फ। जहां तक आपकी निगाह जाएगी, बस आपको नीला और सपनीला पानी ही नजर आएगा। इन सबके बीच में खुद की हस्ती बड़ी छोटी महसूस होगी आपको। लक्षद्वीप में बरगरम और कदमत द्वीप में स्कूबा डाइविंग की सुविधाएं उपलब्ध हैं। बरगरम द्वीप 128 एकड़ में फैला एक छोटा और सुंदर द्वीप है। यह दुनिया के 10 सबसे अच्छे 'सीक्रेट बीच' में शामिल है। नारियल और मछलियों के इस स्वर्ग में क्रीम रंग की बालू रेत में आप जब चांदी की तरह चमकते तटों पर जाएंगे और गोताखोरी करेंगे, तो वहां से कभी ना लौटने का मन करव्गा। यहां स्कूबा डाइविंग सिखाने के लिए कई केंद्र हैं। यहीं पर मशहूर एड गुरू प्रहलाद कक्कड़ का डाइविंग प्रशिक्षण केंद्र भी है। यहां स्कूबा डाइविंग का तीन दिन का कोर्स करवाया जाता है। स्कूबा का मतलब होता है- सेल्फ कन्टेंड अंडरवाटर ब्रीदिंग अपरेटस और डाइविंग का अर्थ है- गोताखोरी। यानी जब आप गोताखोरी के लिए खास उपकरणों की मदद से पानी के नीचे जाते हैं। स्कूबा डाइविंग के पहले उपकरण की खोज 1943 में फ्रेंच गोताखोर जैक्स कोस्टीयू ने एमिले गागनान के साथ मिलकर की। हिंद महासागर में लक्षद्वीप और बंगाल की खाड़ी में स्थित अंडमान द्वीप और गोवा स्कूबा डाइविंग के लिए पूरी दुनिया में मशहूर हैं। स्कूबा उपकरण में एक फेसमास्क, उत्पलावन जैकेट, मछलीनुमा पर, गोताखारी टैंक (जिसमें संपीडित हवा भरी रहती है) और सांस लेने का उपकरण शामिल होता है। खास बात है कि समंदर में 8 मीटर से ज्यादा गहराई में उतरने पर आक्सीजन विषैली हो जाती है। ऐसे समय में संपीडित हवा काम में आती है। शुरुआत में आप 20 मीटर तक की गहराई में डुबकी लगा सकते हैं। स्कूबा डाइविंग के लिए आपको शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत होना चाहिए। ह्दय रोगी, उच्च-निम्न रक्तचाप वाले लोगों को इससे बचना ही चाहिए। 10 साल के छोटे बच्चों को स्कूबा डाइविंग नहीं करनी चाहिए। तैराकी में माहिर होने की बजाय तैराकी की आधारभूत योग्यता होनी चाहिए।कैसे पहुंचें- कोच्चि से अगत्ती पहुंचकर हेलीकॉप्टर से बरगरम द्वीप। कोच्चि से शिप से भी। रेल और सड़क मार्ग से लक्षद्वीप नहीं पहुंचा जा सकता।
-आशीष जैन

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रोमांच की सैरगाह


सैर कर दुनिया की गाफिल जिंदगानी फिर कहां
जिंदगी गर मिल भी जाए तो नौजवानी फिर कहां।
सैर करने में क्या रस छुपा है, यह इस्माइल मेरठी ने अपने शब्दों में बखूबी बयां किया है। यायावर राहुल सांकृत्यायन ने तो घर-बार छोड़कर दुनिया की सैर की ठान ली थी। घूमने पर लिखना शुरू किया, तो घुमक्कड़ शास्त्र से हमें रूबरू करवाया। हमने भी सोचा क्यों ना गर्मियों की छुट्टियों में घूमने-फिरने का मजा लिया जाए। हमने जब ट्यूरिज्म में एडवेंचर का तड़का लगाया, तो आंखों के सामने पैराग्लाइडिंग के लिए खुले बीलिंग के मैदान थे, दूसरी ओर फूलों की घाटी से आती सुगंध। मन किया अपने आराध्य को याद करने का, तो बद्रीनाथ और अमरनाथ तक पहुंच गए। सूरज सिर पर चढ़कर तांडव करने लगा, तो स्कूबा डाइविंग के बहाने पानी की गहराइयों में तांकझांक कर ली। थोड़ी मस्ती और रंगीनी की चाह वाले क्रूज तलाशने लगे। स्वर्ग की सुंदरता के मुरीद श्रीनगर को खोजने लगे, वहीं रफ्तार पसंद साथी रिवर रॉफ्टिंग के लिए गंगा किनारे शिवपुरी को रवाना हो लिए। इस सबके लिए ट्यूर पैकेजेज और कुछ खास जानकारी वाली वेबसाइट्स ने हमारी सारी उलझन एक बार में हल कर दी। कुछ का हौसला चट्टान की तरह मजबूत था, तो वे रॉक क्लाइंबिंग में मशगूल रहे। कुछ जोग फॉल इस तमन्ना के साथ पहुंचे कि गिरते पानी में कुदरत के खूबसूरत रंगों को तलाश सकें। आखिर में लगा कि ये पूरी दुनिया ही एक सैरगाह है और हम मुसाफिर। हम रूक कैसे सकते हैं। तो फिर आप भी तैयार हो जाइए हमारे साथ कुदरत के नायाब रोमांच से हाथ मिलाने के लिए। अब सोचिए मत, आलस छोड़कर हमारे साथ निकल पड़िए रोमांच की सैरगाह पर।

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18 April 2009

सविता भाभी और इमोशनल अत्याचार


जमाने के इमोशनल अत्याचार से तंग आकर हम लोग किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। सविता भाभी की भड़ास हो या पिंक चड्डी की चुगली। इस देश में हर किसी को अपने मन की बात अपने अंदाज में निकालने की आजादी कब की ही मिल चुकी है। अब तो हालात यह है कि पता ही नहीं चलता कि हम रो रहे हैं या हंस रहे हैं।
'अरे ये क्या? लड़कियों के पीछे गुंडे पड़ गए और तुम हाथ पर हाथ धरे बैठे हो। मुकाबला करो जी' हमारी बीवी ने कल ही तो हमसे कहा था। पर भई अपन तो एक बात जानते हैं। हम तो वहीं मदद करने जाते हैं, जहां कोई हमें आवाज देकर बुलाता है। क्या पता वो जो दूर से दिख रहा है, लड़ाई-भिड़ाई, झेड़झाड़ ना हो, प्यार करने का ही दूसरा तरीका हो। आपको तो पता है ना कि जमाना कितना खराब है। आज होता कुछ है, दिखता कुछ है। एम्नेशिया को भूल गए क्या। अरे वही मंगलौर का पब। वहां क्या हुआ था। हमारे दद्दा की जुबानी सुनिए-'अब हमरे गांव में तो रात-बिरात चोर-डांकून से ही इतनो भय लागो रहवै कि हम तो सूरज छुपनते ही घर में दुबक जात। पर आज के छोरा-छोरीन कू सौक चढ़ जात, तो आधी रातन में भी दारू पीर केनी नाचे करें। और मां- बापन नै तो कतई भूल जात हैं। अब कौनू वानर सेना आर केनी उन्ने धून देत, तो हंगामो मच जात। यामै कौनसी बड़ी बात होगी। छोरा-छोरी भी गलत, तो बे सेना वाढ़े भी गलत। और ससुरा ई गलत-सलत का फेर में हम जरूर हर बार फंस जात हैं। सो अपन ने तो फटे में टांग अड़ावै से तौबा ही कर ली है।' अब रेणु दीदी की तो आदत ही है, बयान देना। दे दिया बयान, भर दो पब। और ये कलमचियों की जमात भी तो कमाल की है। कह दिया कि अगर कोई प्यार करने से रोके, तो दे दो उसे पिंक चड्डी। अरे भई चड्डी दे दोगे, तो क्या बचेगा। कौनू लाज-शरम है या नाहीं। खैर छोड़ो, मुद्दे की बात है कि प्यार करना जरूरी है। दिल मांगता है भई। चलो, प्यार भी कर लिया। तो अब देर की बात की। कर दो खुलासा मीडिया के सामने ब्याह रचाने का। मां-बाप सब सन्न। ई का, अपन को लल्लू तो गयो हाथन से। गजब होगो रे। सारी इज्जत नीलाम कर दी। साथ तो रह लोगो, पर क्या निभा पाओगे। तुम भी अपने चंदू भाई की तरह देश छोड़ कौनू इलाज वास्ते मत चले जाना। या फिजा भाभी की तरह रो- रोकर जमानेभर में अपना दर्द बांटते मत फिरना। हमें तो पहले से पता है कि ये ससुरे जमाने के सताए निरीह प्राणी हैं। बेचारे अपनों के इमोशनल अत्याचार से तंग आ चुके हैं और अब कुछ भी करने को तैयार हैं। इन्हें हंसते देख अक्सर हमें रोना आता है और कमबख्त इनके आंसू टपकते ही मुंह से हंसी छूटने लगती है। क्या करें, आदत पुरानी है जी।चलिए छोड़िए ये बेसिर पैर की बातें। अब हम सुनाते हैं, एक मजेदार खबर। शरीर का नाश करने वाले जहर के बारे में तो आपने खूब सुना होगा, पर अब बाजार में मन का नाश करने वाला जहर भी खुले आम बिक रहा है। महिलाओं को मनचाहे कार्टून कैरक्टर में ढालो। खूब धन कूटो। भाभी जैसे पवित्र नाम को भी बेच डालो। यही सब तो इन दिनों हो रहा है। सविता भाभी नाम का काल्पनिक पात्र इन दिनों इंटरनेट की मदद से लोगों की दिलोदिमाग पर छा रहा है। गले में मंगलसूत्र, माथे पर लाल बिंदिया और मांग में सिंदूर यही है सविता भाभी की पहचान। अब आप पूछेंगे, ये सविता भाभी, आखिर किस चिड़िया का नाम है। तो चलिए हम बता देते हैं। सविता भाभी अपने पति से संतुष्ट नहीं है। होने को तो यह कार्टून कैरेक्टर है, पर लोगों को देखिए पगलाए जा रहे हैं, इसके पीछे। कहा तो ये भी जा रहा है कि सविता भाभी देश की पहली महिला पोर्न स्टार है। ये भाभीजी हर किसी पर फिदा होने को आतुर हैं। इसे देखने के लिए सौ-पचास नहीं, 2 लाख लोग रोजाना इंटरनेट पर पहुंचते हैं। अब भाषा की भी तो कोई दिक्कत नहीं है जी। इसकी कहानियां अंग्रेजी के साथ दस भारतीय भाषाओं में पेश की जा रही हैं। मजे की बात ये कि इसे देखने के लिए अलग से कोई पैसे खर्च नहीं पड़ेंगे, तो फिर इसे देखने वालों की संख्या में भी तेजी से इजाफा हो रहा है। अब आपका सवाल होगा कि यह गुल खिला कौन रहा है। तो भाईजी, इतना धांसू आइडिया तो हम हिंदुस्तानियों को ही आ सकता है। इंडियन पोर्न अंपायर नाम की कंपनी इस बेवसाइट की मालिक है। इस पात्र को देशमुख नाम के व्यक्ति के दिमाग की उपज माना जा रहा है। साइट के मालिक तो इस कार्टून पात्र को लेकर वे एक एनिमेटेड फिल्म बनाने फिराक में हैं। एक तरफ भारतीय सुरक्षा एजेंसियां इस वेबसाइट को ब्लॉक करने की जुगत भिड़ाने में लगी हैं, वहीं इसके मालिकों का कहना है कि सायबर ब्रांच को एक कार्टून साइट पर अपना समय बर्बाद करने की बजाय अपराधियों और आतंकवादियों की गतिविधियों पर नजर रखनी चाहिए, जो अपराध के लिए इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं। क्या गजब सलाह है, मान गए उस्ताद। इन लोगों का तो यह भी कहनाना है कि अब देश में वयस्क मनोरंजन को कानूनी रूप से मान्यता दे ही दो। जानकार लोग बताते हैं कि सविता भाभी की बेवसाइट देश की 45वीं सबसे मशहूर साइट में शुमार हो चुकी है, तो इससे आप आसानी से पता लगा सकते हैं कि हम हिंदुस्तानी कामदेव और रति को कितना मानते हैं। अब बंगलौर में तो एक पांचवी क्लास के बच्चे ने इस कैरव्क्टर को देखकर अपनी टीचर को अश्लील एमएमएस तक कर डाला। गजब का असर है, अब तो सोचना ही पड़ेगा।
-आशीष जैन

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17 April 2009

झूमो जमके झूमो


भई रेडियो है, खूब बजाओ। नई-नई बातें सीखो। आज से कुछ समय पहले या यूं कहें, पिताजी के समय में तो घर पर रेडियो का मतलब था जानकारी का खजाना। क्रिकेट की सीधी खबरें। एक चौके पर पूरा गांव तालियां बजाने लगता था। अगर मैं कहूं कि गावस्कर और कपिल दादा का नाम रेडियो ने गांव-गांव तक पहुंचाया और उन्हें अमर कर दिया, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। ताजातरीन समाचार। महिलाओं की प्यारी, सखी-सहेली। स्वास्थ्य, खान-पान और घर की देख-रव्ख। उस वक्त का युवा या कहें यूथ रेडियो को दोयम दर्जे का और महिलाओं व बुजुर्गों के लिए बनाया गया टाइमपास साधन समझता था।
भूल जाओ हर गम
समय बदला, देश में एफ एम का जमाना आया। नए गाने बजने लगे। युवाओं की बोली, नए ट्रेंड और नए जमाने की भाषा। यूथ दीवाना हो गया। बौरा गया, क्या है ये? मानो सपनों की उड़ान को आसमान को मिल गया। चौबीसों घंटे, बस झूमते रहो। नाचते रहो, हर गम को भूलकर बस खुशियों को अपने दामन में भर लो। दुख और दुश्वारियां तो इस दुनिया में हैं ही नहीं। भूल जाओ देश को, समाज को, शहर को, गांव को और अपने परिवार को। बस सितारों के नजारों को महसूस करते रहो। क्या यही जिंदगी है?क्या ये सही हुआ? क्या सब कुछ भूलकर खुद को ऐसे भंवर में डुबो देना जायज है, जहां सिर्फ रंग हों, महफिल हो, चुटकले हों। पर संवेदनाओं के लिए कोई जगह न हो? सुबह उठते ही एफ एम पर लड़का-लड़की, प्यार-मोहब्बत-इश्क और एक-दूसरे को फ्लर्ट करने की ही बातें होने लगती हैं? कस्बाई लड़के-लड़कियां इन सबको ही जिंदगी समझने लगते हैं। भूल जाते हैं माता-पिता का आशीर्वाद पाना। उन्हें याद रहती है मॉम-डैड से मांगी गई पॉकेट मनी। भूल जाते हैं मंदिर जाना और याद रहता है मूवी जाना।क्या आपको पता है?मैं आज की युवा पीढ़ी को देखता हूं, तो अचरज से भर जाता हूं। उन्हें देखकर-सुनकर एक बार भी पता नहीं लगता कि वे हिंदुस्तान की संतान हैं। बातों से लेकर पहनावा, स्टाइल और यहां तक कि सपने भी पूरी तरह बाहर की दुनिया से प्रभावित। वे नहीं जानते कि बापू कौन हैं? हां, एफ एम सुन-सुनकर उन्हें शाहरुख खान के बच्चों तक के नाम रट गए हैं। उन्हें नहीं पता कि पड़ोस की चाची को क्या बीमारी है? पर उन्हें गजनी फिल्म में आमिर खान के पंद्रह मिनट में याददाश्त भूलने वाली खास बीमारी के बारे में विस्तार से पता है। उन्हें पता नहीं कि अलसुबह दादा-दादी के साथ उंगली पकड़कर सैर पर जाने से क्या मिल जाएगा। पर उन्हें याद है कि इस साल कौन-कौनसे मॉडल कहां-कहां रैंप पर चहलकदमी करेंगे? ये सब बातें एकाएक युवाओं के दिमाग में घर नहीं की हैं। सालों से एफ एम की बातों ने उन्हें प्रभावित किया है। वे चारों ओर झूठी दुनिया को खोजते रहते हैं। एफ एम रेडियो ने उनके लिए सितारा शख्सियतों को भगवान बना दिया है। उनके आदर्श विवेकानंद नहीं रह गए हैं। युवाओं की बातों में देश गायब है, तो इसकी वजह भी एफ एम रेडियो ही है। क्या सुना रहा है, एफ एम रेडियो। यही ना कि किसी को बकरा कैसे बनाएं? किसी की खिल्ली कैसे उड़ाएं? कैसे लड़के-लड़कियों पर अपनी स्टाइल से जादू चलाएं? कैसे मम्मी-पापा से झूठ बोलकर मूवी के लिए घर से निकला जाए?
शौक है या कुछ और
मैंने जब भी एफ एम सुनने के लिए रेडियो ट्यून किया है, तो लगता है आखिर ये सब क्या है? युवा तो मैं भी हूं। पर ये किन युवाओं की बात कर रहे हैं? ये युवाओं को सपने दिखा रहे हैं। ऐसे सपने जिनका वास्तविकता के धरातल से कोई सरोकार नहीं है। आधुनिक युवाओं को गौर से देखें, तो पता लगेगा कि उनका ज्यादातर समय एफ एम सुनने में जाया जाता है। वे पढऩे-लिखने की आदतों को कभी का बिसरा चुके हैं। सद्साहित्य से उनका वास्ता नहीं पड़ता है। इस रेडियो पर जब-जब नए प्रॉडक्ट की बात होती है, तो युवा कैसे न कैसे उन्हें पाने के सपने संजोने लगते हैं। अपनी पॉकेटमनी की बचत करने के बजाय उनका रुख फिजूलखर्ची की बढऩे लगता है। खान-पान की बात करें, तो एफ एम की चटपटी बातों की तरह उन्हें बस कुछ चटपटा ही चाहिए। पौष्टिक खाने से उनका कोई सरोकार नहीं है। रात भर बजने वाले एफ एम रेडियो से वे रात में भी उल्लुओं की तरह जागते रहते हैं और बिस्तर पर पड़े-पड़े ही घंटों कान में इयरफोन डालकर पड़े रहते हैं। कॉलेज-स्कूल में पहुंचने पर इन युवाओं की भाषा में टपोरी अंदाज रहता है। ओए भीड़ू, क्या भाई बिंदास है... जैसे जुमले आसानी से सुनने को मिल जाते हैं। अपने अध्यापकों के नाम बदलकर उन्हें चिढ़ाना जैसे उनका शगल बन गया है। क्या यह सांस्कृतिक रूप से किसी इंसान का उत्थान कहा जा सकता है? मेरा मानना है कि अगर किसी इंसान की बोली में नकारात्मक बदलाव आने लगता है, तो समझ लेना चाहिए कि अब वह अपने सांस्कृतिक सरोकारों को खोने लगा है। बुजुर्गों को सम्मान देने की बजाय एफ एम सुनकर अगर कोई युवा उन्हें खड़ूस या मामू कहकर पुकारे, तो क्या वह असल मायने में युवा कहलाने लायक भी रह जाता है? कतई नहीं। युवा शक्ति है, पर यह शक्ति झूठे दिखावे और फैशनपरस्ती से त्रस्त है। इस सब की जिम्मेदारी उनके तथाकथित दोस्त एफ एम रेडियो की ही है।
सब कुछ गलत नहीं
ऐसा नहीं है कि एम एम रेडियो का कोई सामाजिक संदर्भ नहीं है। राजस्थान में सामुदायिक एफ एम रेडियो भी हैं। ज्ञानवाणी को ही लीजिए। यह भी तो युवाओं के लिए ही है। पर फिर युवा इसे सुनकर अपने कॅरियर की दिशा को संवारते क्यों नहीं है? सामुदायिक रेडियो में भागीदारी करके समाज को नई दिशा क्यों नहीं देते हैं? एफ एम वालों को अक्सर कहना होता है कि आज के यूथ की बस यही डिमांड है। इसलिए हम प्यार-मोहब्बत और नोंक-झोंक को तरजीह देते हैं। पर मेरा सवाल है कि आपने युवाओं की रुचि पता करने के लिए अब तक क्या कोई सर्वे भी करवाए हैं? मुझे पता है कि इसका जवाब ना में होगा। एम एम वाले अपनी बातें युवाओं पर थोप रहे हैं। युवा भी दिग्भ्रमित हो रहे हैं। ऐसे में मेरी तो यही राय है कि एफ एम रेडियो पर कोई न कोई नियामक प्राधिकरण होना चाहिए, जो भाषा और कंटेंट पर पैनी निगाह रखे और युवाओं के बीच सही कार्यक्रमों को ही पहुंचने दे।
-आशीष जैन

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15 April 2009

बैंकिंग से पॉलिटिक्स तक

बैंकिंग के शानदार जॉब को छोड़कर राजनीति में आकर समाज सुधार करना चाहती हैं मीरा सान्याल।
'मुझे लगता है कि यह समय बैंकिंग के क्षेत्र में रहने का नहीं है। अब मुझे राजनीतिक जागरूकता लाने के लिए भी कुछ करना चाहिए।' ये हैं एबीएन एमरो बैंक की कंट्री हैड मीरा सान्याल। दक्षिण मुंबई में एबीएन एमरो का कार्यालय होटल ताजमहल पैलेस के पीछे है। पिछले 26 नवंबर को जब ताज होटल पर हमला हुआ, तो बैंक के कर्मचारी दंग रह गए थे। मीरा का कहना है कि 26/11 की घटना ने मेरे मन पर गहरा असर डाला और मुझे लगा कि समाज की सोच में बदलाव लाने के लिए मुझे राजनीति में जाना ही होगा। ग्रेजुएशन करने के बाद उन्होंने जर्नलिज्म का कोर्स करने वाली मीरा का बैंकिंग इंडस्ट्री में 25 साल का अनुभव रहा है, अब इस क्षेत्र को छोड़कर देश की जनता को जागरूक करना चाहती हैं। वे कहती हैं, 'लोगों के पास वोट डालने के लिए सही शख्स का विकल्प ही मौजूद नहीं होता, ऐसे में वे वोट डालने ही नहीं जाते।' मीरा ने अपने बैंक से 15 मई तक की छुट्टी ले ली है और अब वे लोकसभा चुनावों के लिए दक्षिण मुंबई से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में खड़ी हुई हैं। वे खुद को 'मध्यवर्गीय लोगों का उम्मीदवार' कहलाना पसंद करती हैं। वे पांच बिंदुओं (निवेश लाना, रोजगार निर्माण, आधारभूत ढांचा, सुरक्षा और शिक्षा) की कार्ययोजना लेकर जनता के सामने जाएंगी। उनका मुख्य संदेश है कि वे मुंबई को वापस अमन की नगरी की पहचान दिलाएंगी।
-आशीष जैन

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राजनीति की आंखों का ऑपरेशन

38 साल की नेत्र सर्जन मोना शाह शिक्षित लोगों को राजनीति से जोडऩे के लिए लड़ रही हैं चुनाव।

'मेरा पेशा है, लोगों की नजर सही करना। मैं चाहती हूं कि राजनीति की दृष्टि में भी कुछ सुधार करूं।' ऐसी ही कुछ सोच है दक्षिण मुंबई के मुन्सिपल अस्पताल की नेत्र सर्जन 38 साल की मोना शाह की। मोना दक्षिण मुंबई से लोकसभा का चुनाव लड़ रही हैं। बकौल मोना, 'अब प्रोफेशनल्स को राजनीति में ज्यादा से ज्यादा आना होगा। अगर पढ़े-लिखे लोग राजनीति में आएंगे, तो विकास की संभावना ज्यादा रहेगी। वे सही और त्वरित फैसले ले सकेंगे। संसद में जाने वाले एमपी को अपनी जिम्मेदारियों का एहसास होना चाहिए। मेरा लक्ष्य नोन-वोट बैंक के संपर्क में आना है। मैं दक्षिण मुंबई के उन शिक्षित लोगों से वोट डालने की अपील कर रही हूं, जो अपने काम के चलते वोट डालने को ज्यादा तरजीह नहीं देते। मैं चाहती हूं कि वे राजनीतिक नेतृत्व की अहमियत को समझें।' वे इस ओर ध्यान दिलाती हैं कि पिछले आम चुनावों में दक्षिण मुंबई में केवल 37 फीसदी मध्यवर्गीय मतदाता वोट देने पहुंचे थे। अगर मैं इस आंकड़े को 70 फीसदी तक पहुंचाने में कामयाब हो जाती हूं, तो मेरी जीत पक्की है। उन्होंने दिसंबर से ही अपना प्रचार अभियान शुरू कर दिया था। पहले वे निर्दलीय खड़ा होने का मानस बना चुकी थी। पर फिर पीपीआई (प्रोफेशनल पार्टी ऑफ इंडिया) से चुनाव लड़ना तय किया। 2007 में स्थापित पुणे की इस पार्टी का गठन कुछ प्रोफेशनल्स के एक समूह ने किया है। इसका मकसद उन लोगों को चुनावों के लिए प्रोत्साहित करना है, जिनके पास चुनाव लड़ने का कोई अनुभव नहीं है। शाह के प्रचार में दो खास मुद्दों की झलक साफ दिखाई दे रही है। वे सुरक्षा और आधारभूत ढांचे में सुधार को मुंबई की सबसे बड़ी जरूरत बताती हैं। वे राजनेताओं से सवाल पूछती हैं कि करोड़ों रुपए टैक्स में देने के बावजूद भी आधारभूत ढांचे में कोई बदलाव नहीं आया है। साथ ही वे पिछले साल 26 नवंबर को मुंबई पर हुए हमलों को लेकर भी जनता की आंखें खोलना चाहती हैं। वे एलान करती हैं, 'अब समय आ गया है, जब हमें राजनीतिक रूप से जागरुक हो जाना चाहिए।'
-आशीष जैन

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बदलाव का बिगुल

ना मेरे पास मनी है, न मशीनरी और न ही मसल पावर। पर वंचितों को उनका हक दिलाने की मुहिम के लिए ही मैं राजनीति में आई हूं। मुझे यकीन है कि बदलाव होकर रहेगा।

मल्लिका साराभाई। कुचिपुड़ी और भारतनाट्यम जैसे नृत्य के क्षेत्र में जाना-माना चेहरा। मशहूर वैज्ञानिक विक्रम साराभाई और शास्त्रीय नृत्यांगना मृणालिनी की बेटी। थिएटर और सिनेमा जिनमें रचे-बसे हैं। माता-पिता की बनाई 'दर्पण एकेडमी' के जरिए वे कला को नए आयाम प्रदान कर रही हैं। क्या 56 वर्षीय मल्लिका का परिचय पूरा हो गया। जी नहीं, अब जानिए उनकी शख्सियत का एक और नया पहलू। वे चुनाव लड़ रही हैं, वह भी पीएम इन वेटिंग लालकृष्ण आडवाणी के खिलाफ और बिना किसी पार्टी से जुड़े हुए। उनका कहना है कि मैं डमी कैंडिडेट नहीं हूं। मैं जीतने के लिए जी-जान लगा दूंगी। अब शायद आईआईएम अहमदाबाद से किए गए एमबीए का इस्तेमाल वे अपने चुनावी प्रबंधन में करेंगी।
राजनीति में अपराधी
जानना दिलचस्प रहेगा कि 1984 में राजीव गांधी ने मल्लिका को पार्टी टिकट की पेशकश की थी। उस वक्त उनका मानना था कि राजनीति में प्रवेश किए बिना ही वे गलत चीजों पर खुलकर विरोध दर्ज करेंगी। पर पिछले 25 सालों में राजनीति का जिस तरह अपराधीकरण हुआ, उसे देखकर अब उन्हें महसूस होता है कि अगर बदलाव लाना है, तो राजनीति में शामिल होना ही होगा। बकौल मल्लिका, 'मैं किसी पार्टी से जुड़ी नहीं हूं, क्योंकि हर पार्टी में भ्रष्टाचार और अपराध का बोलबाला है। लोग मुझसे पूछते हैं कि आपको लालकृष्ण आडवाणी के खिलाफ चुनाव लड़ने की क्या सूझी, तो मेरा जवाब होता है कि मैं गांधीनगर में ही पैदा हुई हूं। यहीं पली-बढ़ी और पिछले 20 साल से यहां के लोगों के साथ मिलकर काम कर रही हूं। फिर आडवाणीजी जिस रथयात्रा को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानते हैं, मेरी नजर में उसने ही देश के सामाजिक ताने-बाने को सबसे ज्यादा क्षति पहुंचाई है।'
बदलाव का बिगुल
जब मल्लिका गांधीनगर कलेक्टर के पास अपना चुनावी नामांकन भरने के लिए गई, तो बांस की टोकरी में इसके लिए 10 हजार रुपए इकट्ठे किए। आगे भी चुनावी प्रचार के लिए पारिवारिक मदद लेने की बजाय जनता से ही चंदा प्राप्त करेंगी। मल्लिका ने अपना चुनाव चिह्न नगाड़ा चुना है। इसका संदेश है कि अब बदलाव का बिगुल बज चुका है और बदलाव होकर रहेगा। उनका मानना है कि अब राजनीति में पढ़े-लिखे लोगों को आना चाहिए। देश की सबसे बड़ी समस्याओं में सांप्रदायिकता भी अहम मुद्दा है। अगर लोग राजनीति में सुधार चाहते हैं, तो उन्हें राजनीति में आना चाहिए और अपनी बात खुलकर लोगों तक पहुंचानी चाहिए। आज नेता इस तरह व्यवहार करते हैं, मानो लोकतंत्र उनके पास गिरवी रखा हो। हमें बदलाव चाहिए और इसके लिए हमें ही पहल करनी होगी। मैं चाहती हूं कि राजनीति में भी पारदर्शिता आए और लोगों के नेताओं के प्रति नजरिए में बदलाव आए। मैं लोगों को यकीन दिलाना चाहती हूं कि आम जिंदगी में आज भी विचारधारा और आदर्शों के लिए उचित स्थान बचा हुआ है। मेरा मकसद है कि समाज के उन चंद ठेकेदारों को सबक सिखाऊं, जो निजी स्वार्थ के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार रहते हैं। महिलाओं को उचित सम्मान दिलाना भी मेरी प्राथमिकता है।
-आशीष जैन

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09 April 2009

मैं नहीं डरूंगी

भारी विरोध के बीच भी मुंबई हमलों के दौरान पकड़े गए आतंकी अजमल कसाब का केस लड़ने का हौसला दिखाया वकील अंजलि वाघमारे ने।
क्या आप तुकाराम आंबले को जानते हैं? सहायक हवलदार तुकाराम मुंबई हमलों के दौरान शहीद हो गए थे। मुठभेड़ के दौरान उनके पास कोई हथियार नहीं था। वे आतंकी कसाब को पकड़ने के लिए निहत्थे ही उसकी राइफल पर झपट पडे़ थे। शहीद तुकाराम की पत्नी तारा आंबले आज भी गहरे सदमे में हैं। उन्हें सबसे ज्यादा दुख इस बात का है कि जिस कसाब ने उसके पति को मारा उसका केस उसके पड़ोस में रहने वाली वकील अंजलि वाघमारे लड़ रही हैं। तारा की तरह ही अंजलि भी वर्ली पुलिस क्वाटर्स में ही रहती हैं। क्योंकि अंजलि के पति रमेश वाघमारे भी एक पुलिस अधिकारी हैं। एक पुलिस अधिकारी की बीवी होकर अंजलि उस व्यक्ति का मुकदमा लड़ रही हैं, जिसने मुंबई के कर्तव्यपरायण पुलिसकर्मियों को गोलियों से भून दिया था, तारा के दर्द को अंजलि समझती हैं और इसीलिए पसोपेश में हैं कि क्या वाकई उनका अजमल कसाब की तरफ से मुकदमा लड़ने का फैसला सही है?

जिंदगी दांव पर
अंजलि वाघमारे। कुछ दिन पहले तक यह नाम मुंबईवासी भी शायद नहीं जानते थे। आज यह नाम पूरे देश में चर्चित हो चुका है। एक खतरनाक मुलजिम जिसने मुंबई सहित पूरे देश को हिला दिया, उसका मुकदमा लड़ने जा रही हैं 40 वर्षीया अंजलि वाघमारे। अंजलि की शुरुआती कशमकश शिवसैनिकों की धमकी की वजह से कम और शहीद पुलिसकर्मियों की विधवाओं और उनके परिवार को लेकर ज्यादा थीं। लेकिन जल्द ही वह इस भावनात्मक अवसाद से निकलकर वास्तविकता के धरातल पर आ पहुंचीं। मुंबई हमलों के बाद वकीलों ने कसाब का केस लड़ने से मना कर दिया था।
बात रखने का मौका सबको
अंजलि का मानना है, 'अगर कसाब को सरकारी वकील नहीं मिलता, तो मुंबई हमलों का मामला और उलझ सकता है। मैं भी चाहती हूं कि शहीद पुलिसकर्मियों की विधवाओं को जल्द से जल्द न्याय मिले। अगर मैं कसाब का मुकदमा लड़ने को तैयार नहीं होती, तो मामला लंबा भी खिंच सकता था। मेरे कानूनी कॅरियर का यह सबसे चुनौतीपूर्ण मामला है। यह एक भावनात्मक मुद्दा है और मेरा विरोध करने वालों को मेरी बात समझने में थोड़ा समय लग सकता है। मैं देश और देशवासियों की भलाई के लिए अपनी जिंदगी दांव पर लगाकर यह काम हाथ में ले रही हूं। भारतीय कानून सबको अपना पक्ष रखने का मौका देता है और कसाब को भी अपनी बात रखने का मौका मिलना चाहिए। मैं कसाब का समर्थन नहीं करती, लोगों को भी मेरी असल भावनाओं को समझना चाहिए।' कसाब के वकील की मांग पर विशेष अदालत ने महाराष्ट्र सेवा कानूनी प्राधिकार की अंजलि वाघमारे को सरकारी वकील के तौर पर नियुक्त किया था। वाघमारे ने अपने ऊपर हुए हमले को लेकर पुलिस में भी कोई शिकायत दर्ज नहीं कराई।
चार्जशीट पढ़ना शुरू
अंजलि का जन्म पुणे में हुआ। वहां के सिम्बॉयोसिस संस्थान से शुरुआती पढ़ाई के बाद कानून की पढ़ाई उन्होंने पुणे यूनिवर्सिटी से की। अंजलि पिछले 10 सालों से वकालत कर रही हैं। उन्होंने अपनी ज्यादातर प्रेक्टिस पुणे में की है। 2000 की शुरुआत में शादी के बाद वे मुंबई आ गईं। उच्च न्यायालय और सेशन कोर्ट में कानूनी प्रेक्टिस के साथ-साथ उन्होंने पुलिसकर्मियों की पत्नियों के कल्याण के लिए एक संगठन 'महिला सतकर्म सेवा संघ' भीबनाया था। अब वाघमारे ने 11 हजार पेजों की केस की चार्जशीट पढ़ना शुरू कर दिया है। उन्हें इस बात का पूरा भरोसा है कि ट्रायल शुरू होने तक वे सभी आंकड़ों को जुबानी याद कर लेंगी। अंजलि मामले की सुनवाई के दौरान पुलिस आरोप पत्र पढ़ने में कसाब की मदद करेंगी क्योंकि अंजलि को अंग्रेजी और मराठी दोनों भाषाओं का ज्ञान है।
-आशीष जैन





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08 April 2009

कलम-कूंची कमाल की

राजनीति का तेज-तर्रार चेहरा ममता बनर्जी अपनी कोमल भावनाओं को लेखन और चित्रों के माध्यम से पेश करती हैं।
पैरों में हवाई चप्पल, सादगीभरा रहन-सहन और शरीर पर साधारण-सी साड़ी। यहां देहात की किसी महिला की नहीं, पश्चिम बंगाल की शेरनी ममता बनर्जी की बात की जा रही है। ममता जहां खड़ी होती हैं, वहीं रणक्षेत्र बन जाता है। जहां मजलूमों के साथ अन्याय है, वहां ममता हैं। दीदी के नाम से मशहूर ममता की गोद में जब कोई पीड़ित औरत सिर रखकर अपने आंसू बहाती है, तो खुद को बहुत हल्का महसूस करती है। कम ही लोग जानते हैं कि ममता का साहित्य से भी गहरा लगाव है। वे लेखक होने के साथ-साथ चित्रकार भी हैं। पश्चिम बंगाल के सबसे प्रतिष्ठित प्रकाशन समूह 'देज पब्लिशिंग' से उनकी अब तक 21 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी बेस्टसेलर किताबों में से कुछ हैं- मां, नागोल, जन्मायनी, सरनी, आज के घड़ा, मां माटी मानुष, जनता दरबार। मशहूर लेखिका महाश्वेता देवी को ममता की यह कविता बेहद पसंद है- 'मृत्यु कौन डरता है तुमसे? तुमको चुनौती देने का साहस नहीं है किसी में? इसीलिए तो कहती हूं सामने आओ।' राजनीतिक व्यस्तताओं के चलते ममता ने कभी अपने भीतर के सृजक को मरने नहीं देती। लेखन और चित्रों के जरिए अपने मन की बात कहती रहती हैं। दो साल पहले कोलकाता में उनकी चित्राकृतियों की प्रदर्शनी लगी थी। इन चित्रों की बिक्री से जो रकम उन्हें हासिल हुई, वह उन्होंने नंदीग्राम के पीड़ित लोगों को दान में दे दी। उनके बनाए चित्रों में कोमलता है। राजनीति का उग्र चेहरा तो नदारद ही है। उनके चित्रों की थीम की बानगी देखिए- कई फूल हैं, मां का चेहरा है, जगन्नाथ और गणेश हैं, तो मयूर नृत्य भी। पेंटिंग करते वक्त ममता कैनवास पर वाकई ममता उड़ेलने लगती हैं। कोई भी कभी भी उनसे मिलने को जा सकता है। उनके दरवाजे सभी के लिए चौबीसों घंटे खुले रहते हैं। सबसे मिलने की गांधीजी की परंपरा को ममता बनर्जी आज भी जीवित रखे हुए हैं। वाकई मानना पड़ेगा ममता के आत्मबल को।

-आशीष जैन

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05 April 2009

हम-तुम जुदा-जुदा

महिला और पुरुष की सोच अक्सर अलग-अलग होती है, आइए थोड़ा करीब से देखते हैं-

गुणों की बहार
महिलाओं को पुरुषों की पद, प्रतिष्ठा और दरियादिली बहुत पसंद आती है। पुरुष सबसे पहले महिलाओं के सौंदर्य और फिर उसके गुणों के कायल होते हैं। पुरुष अक्सर हर फैसले में दिमाग से काम लेते हैं, जबकि महिलाएं भावुक होकर दिल से काम लेती हैं। महिलाएं समय की पाबंदी को बखूबी समझती हैं और पुरुषों के स्वभाव में आलसीपन होता है। पुरुषों को जो अच्छा लगता है वे वही काम करते हैं पर महिलाएं खुद की इच्छा के साथ-साथ दूसरों की बात को भी तवज्जो देती हैं।
याद नहीं क्या हुआ
महिलाओं की याददाश्त बड़ी तेज होती है। पुरुष अक्सर कई मुलाकातें और बर्थडे भूल जाते हैं। महिलाएं अक्सर अपने साथी को याद दिलाती हैं कि आपकी और मेरी पहली मुलाकात तो इस जगह पर ही हुई थी। आपने ब्लू शर्ट पहना था, याद है आज मेरे भाई का बर्थडे है।
क्या अंदाज है
महिलाएं ड्रेसअप के मामले में पुरुषों से बेहतर होती हैं। पुरुष ड्रेसअप के मामले में परफेक्शन नहीं दिखाते। किसी भी शर्ट के साथ कोई भी पैंट या टाई लगाकर ऑफिस चले आना उनकी आदत होती है। अक्सर पत्नियां अपने पतियों से झगड़ती रहती हैं कि आपको ठीक से कपड़े पहनना नहीं आते। मैं क्या करूं पुरुष किसी भी बात पर गंभीरता से विचार कर उसका संतोषजनक हल निकालते हैं जबकि महिलाएं छोटी-छोटी मुसीबत आने पर अपना धैर्य और संयम खो देती हैं तथा घबरा उठती हैं, हालांकि वे बड़ी विपदाओं का सामना हंसते-हंसते कर लेती हैं।
मन की बात
महिलाएं मन ही मन चाहती हैं कि पुरुष उसे कोई सरप्राइज या उपहार दे पर पुरुष उसके मन की किसी भी बात को नहीं समझ पाते हैं और हमेशा यह कह देते हैं, 'काश तुम मुझे कहती तो मैं ले आता।' पुरुष महिलाओं की तुलना में बहुत ज्यादा शक्की स्वभाव के होते हैं। महिलाएं भी शक करती हैं, पर वह बहुत जल्दी भूल भी जाती हैं। अवसाद या कुंठा होने पर पुरुष अक्सर खामोश रहते हैं पर ऐसी स्थिति आने पर महिलाएं खूब बोलने लगती हैं।
महिलाएं यथार्थवादी
अक्सर माना जाता है कि पुरुष यथार्थवादी होते हैं और वास्तविकता के धरातल पर रहना अधिक पसंद करते हैं, पर यह सच नहीं है। अक्सर पुरुष ऐसी काल्पनिक कहानियों को प्राथमिकता देते हैं, जिसमें नायक बहादुरी से चुनौतियों पर जीत हासिल करता है जबकि महिलाएं सच्ची लगने वाली कहानियों को देखना पसंद करती हैं। महिलाएं और पुरुष भावनात्मक मनोरंजक कार्यक्रम या कहानियों को देखने के बाद अलग-अलग प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। पुरुष भावनात्मक और काल्पनिक पात्रों को सच मानकर वैसी ही दुनिया में खोना पसंद करते हैं।
-आशीष जैन

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01 April 2009

पहाड़ सा बुलंद हौसला

जब हौसला बड़ा हो, तो उम्र कभी बाधा नहीं बनती। मिलिए पचपन साल की वासुमती श्रीनिवासन से। वे साल में तीन बार पहाड़ों पर चढ़ती हैं और कई साहसिक कारनामों को अंजाम देती हैं।

उनकी बेटी की शादी का मौका है। अपनी नौ गज लंबी कांचीपुरम की सिल्क साड़ी को वे पारंपरिक तरीके से पहने हुए हैं। वासुमती श्रीनिवासन हर तरह से एक दक्षिण भारतीय मध्यमवर्गीय परिवार की घरेलू महिला लग रही हैं। पर जब वे पहाड़ों पर चढ़ती हैं या बर्फ की चोटी पर जाती हैं, तो उनका पहनावा भी उसी के अनुरूप हो जाता है। मूल रूप से बंगलौर की वासुमती ने पिछले साल महिलाओं के ऊंट सवारी कार्यक्रम में हिस्सा लिया था। इस दल में माउंट एवरव्स्ट पर चढ़ने वाली पहली भारतीय महिला बछेंद्री पाल भी शामिल थीं। इस दौरान उन्होंने 35 दिन ऊंट पर सवारी करके थार के रव्गिस्तान और कच्छ के रन को पार किया। साथ ही वासुमती और उनकी बेटी स्मिथा पहली ऐसी मां-बेटी हैं, जो देश की हिमालय की 6,553 मीटर ऊंची कुलू पूमोरी चोटी पर चढ़ी हैं। उनके इस कारनामे को लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में भी जगह मिली है।अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए वासुमती कहती हैं, 'मुझे हमेशा से इस बात की उत्सुकता रहती थी कि पहाड़ियों के दूसरी ओर क्या है? जब मैं बंगलौर के लोगों की पसंदीदा जगह नांदी हिल्स पर पिकनिक मनाने जाती थीं, तो वहीं रहने को मन करता था। एक बार मैं (1968 में) अपने मम्मी-पापा के साथ नांदी हिल्स आई थीं, तो वहीं कहीं झाड़ियों में छुप गई ताकि पूरा परिवार वापस बंगलौर न जा सके और मैं पूरे दिन पहाड़ियों पर चढ़ती-उतरती रहूं।'1976 में एडवांस्ड माउंटनियरिंग कोर्स पूरा करने के बाद उनका चयन माउंट एवरेस्ट पर चढ़ाई के चौथे अभियान में हो गया। उस वक्त कुल 6 महिलाएं चुनी गईं। पर आखिरी चरण में उनका चयन नहीं हो पाया। लेकिन 1981 में उन्होंने कर्नाटक की महिलाओं की बंदरपुंछ पर चढ़ाई के अभियान पर नेतृत्व किया। वे कहती हैं, 'पहाड़ वाकई रहस्यमयी, अनुमान से परे और आश्चर्यजनक होते हैं। हालांकि रोमांच भरी माउंटनियरिंग में जान का जोखिम रहता है। पर जब पहाड़ों पर चढ़ने जाती हूं, तो पूरी तरह ध्यान उसी पर केंद्रित होता है। जब भी मैं किसी साहसिक अभियान में जाती हूं, तो यही सोचती हूं कि वापस आकर परिवार को संभाल लूंगी।' किसी चोटी को फतह करने के अपने अनुभव के बारे में वासुमती बताती हैं, 'किसी भी चोटी पर पहुंचने पर मैं काफी भावुक हो जाती हूं। काफी मशक्कत के बाद कामयाबी हासिल होती है, तो आंखें खुशी से छलक जाती हैं। वहां पहुंचकर हम पूजा-आराधना भी करते हैं और ईश्वर को धन्यवाद देते हैं।' वासुमती इस बात को लेकर चिंतित हैं कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते पहाड़ों को नुकसान पहुंच रहा है। वे समय-समय पर अभियानों के माध्यम से लोगों को जागरूक करने की अपील करती हैं कि हमें प्रकृति और पहाड़ों को बचाने के लिए प्रयत्न करने चाहिए।
-आशीष जैन

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मूर्खता या मिसाल

अक्सर हम पहली नजर में किसी इंसान की बात को मूर्ख कहकर नकार देते हैं। इतिहास में ऐसे कई महान वैज्ञानिक हैं, जिन्हें शुरू में लोगों में मूर्ख समझा, पर बाद में वे उनके मुरीद हो गए।
नाम- आर्कमिडीज

मिसाल- आपेक्षिक घनत्व का सिद्धांत
राजा हीरों ने सुनार से खूबसूरत सोने का मुकुट बनवाया। उसे संदेह था कि सुनार ने जो मुकुट बनाया है, उसमें कुछ मिलावट की है। उसने आर्कमिडीज को बुलाया और कहा कि इस मुकुट को तोड़े बिना पता लगाओ कि इसमें कितनी मिलावट है? आर्कमिडीज ने खूब सोचा लेकिन कोई हल समझ में नहीं आ रहा था। एक दिन वे सार्वजनिक स्नानागार में नहाने गए थे। टब पानी से लबालब भरा था। जैसे ही वे पानी में घुसे, तो कुछ पानी टब से बाहर आ गया। इतने में क्या सूझा, वे दौड़ते हुए वहां से निकले। बिना वस्त्रों के ही वे सड़क पर भागने लगे और यूरेका, यूरेका (खोज लिया) चिल्लाते रहे। लोगों ने समझा कि आर्कमिडीज पागल हो गया है। राजदरबार जाकर उन्होंने टब की तरह एक बर्तन को पानी से पूरा भरा और उसमें मुकुट को डुबोया। बर्तन से बाहर निकले पानी को मापा। बर्तन को फिर पूरा भरकर मुकुट के बराबर सोना डुबाया। अब जो पानी बाहर आया, वह पहले जितना नहीं था। इससे साबित हो गया कि सुनार ने मुकुट में मिलावट की है।
नाम- गुग्लील्मो मारकोनी
मिसाल- बेतार के तार का आविष्कार
मारकोनी सोचते थे कि रेडियो तरंगों का इस्तेमाल संदेश भेजने के लिए किया जा सकता है। वे दिनरात घर के ऊपर बने कमरे में प्रयोग करते रहते थे। पिताजी सोचते थे कि मेरा बेटा मूर्ख है, जो खाना खाने भी नीचे नहीं उतरता। एक रात मारकोनी अपने कमरे से नीचे आए और मां को जगाया। मां गहरी नींद में थीं। वे हड़बड़ा गईं। मारकोनी बोला कि मां मैंने चमत्कार कर दिया। आप मेरे साथ ऊपर के कमरे में चलें। मां को गुस्सा आ गया। वे बोलीं, 'तू पागल हो गया है, जो इतनी रात को चमत्कार की बात कर रहा है।' वे उसके साथ ऊपर आईं। वहां मारकोनी ने मां को उपकरणों में रखी एक घंटी के पास खड़ा रहने को कहा और खुद कमरव् के दूसरे कोने में जाकर एक बटन दबाया। चिंगारियों की चटचट के साथ ही तीस फुट दूर रखी घंटी बज उठी। बिना किसी तार के इतनी दूर रखी घंटी बजने पर मारकोनी खुशी से उछल पड़े। नींद में ऊंघती मां ने कहा, 'तेरे पिताजी सही कहते हैं, तू वाकई मूर्ख है। घंटी की आवाज सुनाने के लिए तूने मेरी नींद खराब कर दी।' पर बाद में जब इसी प्रयोग के आधार पर बेतार से संदेशों को एक जगह से दूसरी जगह भेजा गया, तब मां को लगा कि वाकई वह अद्भुत प्रयोग था।
नाम- फ्रैडरिक ऑगस्ट कैकुले
मिसाल- बैंजीन की संरचना की खोज
कैकुले कार्बनिक पद्धार्थ 'बैंजीन' की संरचना खोजना चाहते थे। बैंजीन के एक अणु में कार्बन के 6 परमाणु होते हैं, यह तो सर्वमान्य था, पर वे एक-दूसरे से किस तरह जुड़े रहते हैं, यह किसी को पता नहीं था। एक रात कैकुले को सपना आया कि एक सांप ने अपनी पूंछ को मुंह में ले रखा है, तो उन्होंने सोचा कि बैंजीन में कार्बन के अणु वृत्ताकार रूप में ही होंगे। यह बात उन्होंने सुबह मित्रों को बताई, तो वे कैकुले की मूर्खता पर हंसने लगे। कैकुले को लगने लगा कि मैं इसे साबित करके रहूंगा। एक बार कैकुले अपनी प्रयोगशाला में जल रही अंगीठी के पास बैठे थे। तभी उन्हें लगा कि कार्बन के छहों अणु उनकी प्रयोगशाला में हाथ में हाथ डालकर गोल-गोल नाच रहे हैं। तब उन्हें पक्का यकीन हो गया कि बैंजीन में कार्बन वृत्ताकार रूप में ही रहते हैं। इस बात पर पीठ पीछे लोग उन्हें बेवकूफ मानने लगे। कैकुले अपनी बात पर कायम रहे और प्रयोग करते-करते एक दिन साबित कर दिया कि वे सही थे।
नाम- गैलीलियो गैलिली
मिसाल- जमीन पर वस्तुओं के गिरने का सिद्धांत
एक साथ टकराएंगे23 साल की उम्र में गैलीलियो ने किसी धार्मिक पुस्तक में पढ़ा था कि यदि समान ऊंचाई से अलग-अलग भार की दो वस्तुएं एक साथ गिराई जाएं, तो अधिक भार की वस्तु जमीन पर पहले गिरेगी। गैलीलियो ने सोचा कि ऐसा कैसे हो सकता है? मैं इसे गलत साबित करके दिखाऊंगा। उन्होंने फैसला किया कि वे 180 फुट ऊंची पीसा की झुकी हुई मीनार पर चढ़कर यह बात साबित करेंगे। दोस्तों ने सोचा कि गैलीलियो पागल हो गया है। उनके इस मूर्खतापूर्ण कृत्य को देखने हजारों लोगों की भीड़ मीनार के नीचे खड़ी हो गई। कई लोग ऐसे भी थे, जो जोर-जोर से गैलीलियो को गालियां देने लगे और कहा, 'यह मूर्ख इंसान हमारी धार्मिक किताब को गलत साबित नहीं कर सकता।' गैलीलियो ऊपर जाते समय अपने साथ धातु के दो गोले लेकर गए। एक का वजन सौ पौंड था, दूसरे का सिर्फ एक पौंड। छज्जे की मुंडेर पर जाकर उन्होंने दोनों गोलों को एक साथ नीचे गिराया। सबने कहा, 'चलो अब इसकी बेवकूफी साबित हो जाएगी।' पर सबकी आंखों के सामने दोनों गोले एक साथ जमीन पर आकर टकराए। गैलीलियो की इस बात से गुरुत्वाकर्षण की बात को बल मिला।
-आशीष जैन

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मूर्खता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है


हमारे देश के लोगों को सबसे ज्यादा मजा ही खुद मूर्ख बनने में आता है। धन्य हैं हम हिंदुस्तानी, जो हर रोज अप्रेल फूल मनाते हैं।
'अरे ताऊ, गोपी की मां गुजर गई और आप यहां खाट पर टांग फैलाए हुक्का पी रहे हो। जल्दी करो, गोवर्धन चाचा आपको बुला रहे हैं।' मुआ रामू जैसे ही ये बोला मानो पूरे शरीर में 440 वॉट का करंट सा दौड़ गया। वक्त-बेवक्त नाशपीटा ऐसे समाचार लाता है कि दिल कुरते की जेब फाड़कर बाहर निकलने लगता है। ये उमरिया भी तो ऐसी है कि गांव में सबकी खैर-खबर रखनी पड़ती है। कौन जिया कौन मरा, कौन आया कौन गया। चाहे हम पंच पटेल ना हों, पर आज भी गांव के सारे लोग इत्ती इज्जत करते हैं कि दिल की बगिया में गुलाब सी खुशबू रहती है। तो मैंने तो अपनी लाठी उठाई और दौड़ा चला गोपी के घर की तरफ। वहां पहुंचते हैं, तो क्या देखते हैं कि गोपी की मैय्या तो सही-सलामत सिलबट्टे पर चटनी पीस रही है। पहले-पहल तो आंखों को भरोसा ही नहीं हुआ कि अरे क्या ये भूतनी तो नहीं बन गई। तभी ठकुराइन बोली, 'गज्जू, तू कैसे हांफते-हांफते आ रहा है, कोई बात हो गई क्या।' फिर तो हम समझ गए कि ये सब ऊ रामू की कारस्तानी है। हम तो उल्टे पांव दौड़ पड़े रामू को ढूढऩे वास्ते। चौपाल के रास्ते में क्या देखते हैं कि रामू मजे से पेड़ पर बैठकर आम चूस रहा है। हम बोले, 'उतर नीपूते। झूठ बोलकर पागल बनाता है।' जबरदस्ती उसे उतारकर दो चपत रसीद कर दी। रामू तो रोने की बजाय हम पर ही चढ़ बैठा और बोला, 'का ताऊ, ई तो फैशन है। आज एक अप्रेल है। आज तो बहुत लोगन को हमने बावला बना दिया और आप हमें मारत हो।' अब सोचने की हमारी बारी थी। एक और नया दिन। अंग्रजों का एक और गिफ्ट। कमबख्तन ने ये कैसे-कैसे दिन बना रखे हैं। कभी मदर्स डे, कभी फादर्स डे तो प्यार करने वालों के लिए वैलेंटाइन डे। अरे मां-बापन के साथ तो रोज ही रहते हो, फिर उनका तो रोज सम्मान करो भई। दिन मनावै से कौनसो मां-बाप निहाल हुए जा रहे हैं। और हम हिंदुस्तानी तो लोगों को हर रोज ही पागल बनाते हैं और दूसरे देशों से रोज पागल बनते हैं। इसमें एक अप्रेल को कौनसी बड़ी बात हो जाती है। अभी-अभी तो पागल बने हैं पाकिस्तान से। पहले उसने ही मुंबई में कांड करवाए, फिर खुद ही हमदर्दी का नाटक करता है। मियां जरदारी कहते रहे कि मदद करेंगे जांच में। फिर बोले कि कसाब पाकिस्तानी ही नाहीं। ई का है। पागल बनावो नाहीं, तो और का है। चीन कहत रहत कि ऊ हमार दोस्त है और अरूणाचल प्रदेश पर कब्जा करने की कोशिश। का ई पागल बनवो नाहीं। और हम कौनसे सीधे हैं। पूरी दुनिया से कह देत हैं कि यहां आओ, घूमो-फिरो। बेचारे पर्यटक भी मजे-मजे में चले आते हैं। फिर देखो कैसे मूर्ख बनाते हैं उन्हें। एक का माल दस में। पूरी लूटखसोट। भगवान झूठ ना बुलाए। पर हमने तो कइयों को पागल बनाया है। तस्लीमा नसरीन, एम एफ हुसैन तो याद ही होंगे। एक तो हमारे यहां मेहमान थीं, दूसरा तो घर का ही बच्चा था। पहले तो कहा था कि सब बराबर है। कोई अत्याचार नहीं। फिर कहने लगे कि हम नहीं संभाल सकते। बहुत ही पंगा है। चलो खुद ही बंदोबस्त करो अपना। ये क्या कम मजाक करा हमने। एक और बात ये बड़े-बड़े लोग हम जनता को वाकई बेवकूफ ही तो समझते हैं। तभी तो हमेशा नौटंकी चलती रहती है। कभी संसद में नोट लहराएंगे, फिर कहेंगे हमारा लोकतंत्र महान। एक बार कहेंगे बापू महान, फिर आंखों के सामने बापू की विरासत को बिकते देखेंगे। महिला आरक्षण के लिए जंग लड़ेंगे और चुनाव में महिलाओं को टिकट देंगे, ना के बराबर। कभी सत्यम को छूट देंगे, फिर उसी रामलिंगम को गाली देंगे। हम तो भई मूर्ख बनते-बनते अजीज आ चुके हैं। लगता है कि मूर्ख बनना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। बनो मूर्ख और हंसते रहो खुद पर। अब चुनाव आ रहे हैं और मौका मिलेगा मूर्ख बनने-बनाने का। मैं तो लाठी ठोककर दावा कर रहा हूं आप मूर्ख बनोगे, जरूर बनोगे। नेता आएंगे, आपके दरवाजे। लगाएंगे थोड़ा-सा मसका और आप बाअदब उनके झांसे में आओगे। फिर बाद में पछताओगे। हां, एक जुगत है, जिससे आप खुद उनको बावला बन सकता हो। अबकी बार नेता आएं, तो पकड़कर पूछ लेना, पिछली बार वोट दिया, उसका हिसाब दे दो और ले लो हमारा वोट। फिर उनका हिसाब आपकी गणित से फले, तो ठीक, वरना जै रामजी की।

-आशीष जैन


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