29 July 2009

निरूपमा का जवाब नहीं


एक अगस्त से देश के विदेश सचिव का पद संभालने वाली निरूपमा राव की जिंदगी के कुछ अनछुए पहलू-
एक ओर विदेश सेवा के संजीदा काम की धूप और दूसरी ओर काव्य और संगीत की ठंडी छांव। जब ये धूप-छांव मिलती हैं, तो ऐसे व्यक्तित्व का सृजन होता है, जो हर परिस्थिति में उचित निर्णय लेता है। देश की नई विदेश सचिव निरूपमा राव की यही खूबी उन्हें भीड़ से जुदा करती है। वे 1973 बैच की आईएफएस टॉपर हैं। 21 साल की उम्र में विदेश सेवा से जुडऩे वाली निरूपमा को विदेश मंत्रालय की पहली महिला प्रवक्ता होने का गौरव हासिल है।

संवेदनाओं से लबरेज
वे अपने साथियों के बीच अच्छे ड्रेसअप के लिए जानी जाती हैं। उनके पास ज्वैलरी का अच्छा कलैक्शन है। वे एक प्रशिक्षित क्लासिकल डांसर हैं और सावर्जनिक रूप से परफॅार्मेंस दे चुकी हैं। वे गिटार भी बजाती हैं। उन्हें कविताएं लिखने का शौक है। उनकी कई कविताएं छप भी चुकी हैं। साथ ही वे कर्नाटक संगीत की भी अच्छी जानकार हैं। काव्य और संगीत का असर उनके व्यक्तित्व में साफ झलकता है। उनकी आवाज में कवियों के ओज और नारी की कोमलता का अद्भुत मिश्रण है। एक कवयित्री के तौर पर वे संवेदनाओं और भावनाओं से लबरेज हैं। पर जब वे बड़े फैसले लेती हैं, तो अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखती हैं। छह दिसंबर, 1950 को केरल में जन्मीं निरूपमा एक आर्मी अफसर की बेटी हैं। उन्होंने महाराष्ट्र की मराठा यूनिवर्सिटी से अंग्रेजी साहित्य में एमए किया है। उनके पति सुधाकर राव भी भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी हैं। उनके दो बेटे हैं। दिलचस्प बात है कि लोकसभा की पहली महिला स्पीकर मीराकुमार और निरुपमा एक ही आईएफएस बैच से थीं।
खरी-खरी सुनाती हैं
बतौर विदेश सचिव उनके सामने कई बड़ी चुनौतियां हैं। पड़ोसी देशों पाकिस्तान, नेपाल, म्यांमार और बांग्लादेश में अशांति के माहौल में अपना दृढ़ पक्ष रखना एक प्रमुख काम है, वहीं अमरीका की कूटनीतिक चालों का जवाब देने में भी उन्हें अपना कौशल दिखाना होगा। वे इस पद को पाने वाली देश की दूसरी महिला होंगी। इससे पहले 2001 में कुछ समय के लिए चोकिला अय्यर भी विदेश सचिव के पद पर काम कर चुकी हैं। 58 साल की निरुपमा अभी चीन में भारत की राजदूत हैं। चीन में राजदूत बनने से पहले वे बतौर विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता दुनिया को खरी-खरी बातें सुनाने के लिए मशहूर रहीं। उन्होंने पाकिस्तान, चीन, नेपाल, अमरीका जैसे देशों के सामने देश का पक्ष बड़ी मजबूती और बेहद विनम्रता से रखा, बिल्कुल तनाव मुक्त होकर। वे श्रीलंका में उच्चायुक्त और पेरू में देश की राजदूत रह चुकी हैं। वे मॉस्को स्थित भारतीय मिशन में भी काम कर चुकी हैं। साथ ही विदेश मंत्रालय में पूर्वी एशिया मामलों की संयुक्त सचिव भी रह चुकी हैं।
-प्रस्तुति: आशीष जैन

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08 July 2009

सुअरों से फ्लू: स्वाइन फ्लू

स्वाइन फ्लू का नाम कुछ दिनों पहले शायद डॉक्टरों या इतिहासकारों को ही पता था, पर अब इस बीमारी से पूरी दुनिया वाकिफ है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) इसे विश्व महामारी घोषित कर चुका है। स्वाइन फ्लू या इन्फ्लुएन्जा या एक अत्यन्त संक्रामक किस्म के जुकाम के खिलाफ अब पूरी दुनिया में छठे स्तर का अलर्ट जारी है। पिछले चालीस सालों में पहली बार किसी बीमारी को वैश्विक स्तर पर खतरे की उच्चतम छठी अवस्था तक आंका गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का आश्वासन है कि इस बीमारी का टीका सितंबर तक आ जाएगा। हमारे देश में इस वक्त स्वाइन फ्लू से पीडि़तों की संख्या 70 के करीब बताई जा रही है और तेजी से संख्या में इजाफा भी हो रहा है।

स्वाइन फ्लू का वायरस दुनिया के 80 देशों में फैला हुआ है और करीब 50 हजार लोग इससे पीडि़त हैं। इस बीमारी से 200 लोगों की मौत भी हो चुकी है। हमारे देश के नीतिनिर्धारकों को इस बीमारी पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है। पोलियो, मलेरिया जैसी पुरानी बीमारियों के बीच इस नई बीमारी पर नियंत्रण के लिए हमें कुछ ठोस कदम उठाने होंगे। गौरतलब बात है कि जिन देशों में स्वाइन फ्लू का असर ज्यादा देखने में आया है, वे सभी विकसित राष्ट्र रहे हैं, इन देशों की स्वास्थ्य प्रक्रिया का पूरा विकसित तंत्र है। ऐसे में विकासशील देशों को अपने सीमित संसाधनों को ध्यान में रखते हुए कुछ खास कदम उठाने होंगे।
नया फ्लू है ये
स्वाइन फ्लू सुअरों से उत्परिवर्तित वायरस से हुआ है। सुअरों को एविएन और ह्यूमन एन्फ्लूएंजा स्ट्रेन दोनों का संक्रमण हो सकता है। इसलिए उसके शरीर में एंटीजेनिक शिफ्ट के कारण नए एन्फ्लूएंजा स्ट्रेन का जन्म हो सकता है। किसी भी एन्फ्लूएंजा के वायरस का मानवों में संक्रमण श्वास प्रणाली के माध्यम से होता है। इस वायरस से संक्रमित व्यक्ति का खांसना और छींकना या ऐसे उपकरणों का स्पर्श करना जो दूसरों के संपर्क में भी आता है, उन्हें भी संक्रमित कर सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक सुअर (स्वाइन), पक्षी और इंसान तीनों के जीन मिलने से बना एच1एन1 वायरस सामान्य स्वाइन फ्लू वायरस से अलग है। पिछले कुछ सालों में मनुष्य में संक्रमित होने वाले इंन्फ्लुएंजा वायरस से इसका कोई वास्ता नहीं है। वैज्ञानिक अभी इस खोज में लगे हुए हैं कि इस वायरस का मूल स्रोत क्या है। बर्ड फ्लू और मानवीय फ्लू के विषाणु से सुअरों में संक्रमण शुरू हुआ। फिर सुअर के राइबोन्यूक्लिक एसिड (आरएनए) से मिलकर नए वायरस स्वाइन इन्फ्लुएंजा ए (एच1एन1) का जन्म हुआ। तब इन्फ्लुएंजा ए (एच1 एन1) का सुअर से मनुष्य में संक्रमण संभव हो सका। वैज्ञानिकों का कहना है कि यह वायरस किसी भी मौसम में फैल सकता है और हर आयुवर्ग के लोगों को आसानी से अपनी चपेट में ले सकता है। स्वाइन फ्लू के दौरान बुखार, तेज ठंड लगना, गला खराब हो जाना, मांसपेशियों में दर्द होना, तेज सिरदर्द होना, खांसी आना, कमजोरी महसूस करना आदि लक्षण तेजी से उभरने लगते हैं। एन्फ्लूएंजा वायरस लगातार अपना स्वरूप बदलने के लिए जाना जाता है। यही वजह है कि एन्फ्लूएंजा के वैक्सीन का भी इस वायरस पर असर नहीं होता। विशेषज्ञों का कहना है कि छींक के दौरान सभी लोगों को अपनी नाक पर रुमाल या कपड़ा रखना चाहिए। बाहरी खान-पान से ही परहेज ही रखना चाहिए। इस बीमारी में यह शंका गलत है कि हमें यात्रा से बचना चाहिए, नहीं तो हमें यह फ्लू हो सकता है। सुअर का मांस खाने से स्वाइन फ्लू नहीं होता। स्वाइन फ्लू खाने के जरिए नहीं फैलता। इसलिए सुअर के मांस से बने फूड प्रोडक्ट इस मामले में सुरक्षित हैं। कुछ एंटी वायरल दवाइयां स्वाइन फ्लू से राहत देने में असरकारक साबित हुई हैं। टेमिफ्लू तथा रेलेंजा जैसी दवाईयां इस फ्लू में फायदा देती हैं।

कैसे पड़ा नाम
इन्फ्लुएंजा ए वायरस की सतह पर दो प्रोटीन हीमाग्लूटीनिन (एच) और न्यूरामिनिडेज (एन) होते हैं। आनुवांशिक उत्परिवर्तन के कारण इन प्रोटीनों की संरचना में परिवर्तन होता है और वायरस की दूसरी किस्में तैयार हो जाती हैं। हर किस्म का नाम एक एच और एक एन संख्या के आधार पर तय किया जाता है। मनुष्यों में एच की 1,2,3 और एन की 1 और 2 किस्में पाई जाती हैं।

इंसान में स्वाइन फ्लू की अवस्थाएं-
स्थापित रोगी (कन्फम्र्ड)- ऐसे रोगी जिनमें स्वाइन फ्लू रोग के सारे लक्षण होते हैं। वे स्थापित रोगी होते हैं। इनके रोग की पुष्टि रियल टाइम पी.सी.आर. या वाइरस कल्चर या एच1एन1 वाइरस स्पेसिफिक न्यूट्रलाइजिंग एंटीबॉडीज के स्तर में चार गुना इजाफे की बात एक या सब जांचों से पता हो चुकी होती है।
संभावित रोगी (सस्पेक्टेड)- वे रोगी जिनमें स्थापित रोगी के संपर्क में आने के सात दिन के अंदर-अंदर फ्लू के लक्षण उत्पन्न हुए हों और जिनकी जांच से पुष्टि होना शेष हो।
निकट संपर्क वाले रोगी (क्लोज कॉन्टेक्ट)- स्थापित और संभावित रोगी के आस-पास 6 फुट के दायरे में रहने वाले व्यक्ति जो अभी प्रकट रूप से स्वस्थ दिख रहे हों।

कौनसी बीमारी है महामारी
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक किसी बीमारी को महामारी घोषित करने के छह चरण तय किए गए हैं।
1. जब इंसान में संक्रमण की वजह किसी जानवर से आया इन्फ्लुएंजा वायरस नहीं होता।
2. जब पालतू या जंगली जानवर में फैल रहे वायरस से मनुष्य में संक्रमण फैलता है।
3. जब जानवरों में फैल रहा कोई वायरस या इंसान और जानवर के जीनों के मिलने से बना कोई वायरस एक बड़े समूह के बीच संक्रमण का कारण बनता है।
4. जब इंसान से इंसान में संक्रमण फैलने की पुष्टि हो जाती है।
5. विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक क्षेत्र के ही दो या दो से अधिक देशों में संक्रमण बड़े पैमाने पर फैलने लगे।
6. विश्व स्वास्थ्य संगठन के ही किसी दूसरे क्षेत्र का कम से कम एक और देश जब इसी संक्रमण की चपेट में आ जाए।

स्वाइन फ्लू का इतिहास
1918 की ब्लैक डेथ डिजीज- 1918 में स्वाइन फ्लू की बीमारी इंफ्लुएंजा वाइरस एच1एन1 की वजह से फैली थी। रोग का वायरस सुअरों से इंसानों में फैला और फिर इंसानों के इंसानों में संपर्क में आने से पूरी दुनिया को चपेट में लेता गया। दुनियाभर में इससे करीब दो करोड़ लोगों की मौत हुई। तब इस बीमारी को ब्लैक डैथ का नाम दे दिया गया।
अमरीका में 1976 का स्वाइन फ्लू- 5 फरवरी, 1976 को अमरीका के फोर्ट डिक्स में अमरीकी सेना के सैनिकों को थकान की समस्या होने लगी। बाद में पता लगा कि यह बीमारी स्वाइन फ्लू ही है और एच1एन1 वायरस के नए स्ट्रेन की वजह से फैल रही है। इस वायरस का प्रकोप 19 जनवरी से 9 फरवरी तक ही रहा। यह वायरस फोर्ट डिक्स से बाहर नहीं फैल पाया। उस दौरान इसका टीका तैयार किया गया, जो तकरीबन 4 करोड़ लोगों को लगाया गया। इस टीके से कुछ लोगों की मौत भी हुई, तो तत्कालीन सरकार ने इस पर रोक लगा दी।
1988 का वॉलवर्थ काउंटी स्वाइन फ्लू- 1988 में जब एक दंपती बारबरा वीनर्स और एड वॉलवर्थ काउंटी में सुअरों के मेले में गए, तो वापस लौटने पर उन्हें फ्लू हो गया। डॉक्टर गर्भवती बारबरा को नहीं बचा पाए, पर उसका बच्चे को जीवित बचा लिया गया। बाद में सुअरों के साथ रहने वाले सैकड़ों लोगों में संक्रमण पाया गया। यह बीमारी गंभीर रूप धारण नहीं कर पाई। बाद में वैज्ञानिकों को पता लगा कि यह वायरस स्वाइन फ्लू वाइरस स्टे्रन एच1एन1 में उत्परिवर्तन के कारण सुअरों में विकसित हुआ था, जो बाद में इंसानों तक पहुंच गया था।
2007 का फिलीपींस का स्वाइन फ्लू- फिलीपींस में 20 अगस्त 2007 में नुयेवा एसिजा और सेंट्रल ल्यूजोन में स्वाइन फ्लू फैला था। इसमें रोगियों को भयंकर रूप से उल्टियां और दस्त होने लगे। स्थानीय लोगों ने इसे हॉग कॉलरा कहकर पुकारा। फिलीपींस में रेड अलर्ट जारी किया गया और यह विश्वव्यापी महामारी बनने से बच गया।
2009 का मैक्सिको का स्वाइन फ्लू- मैक्सिको से शुरू हुआ स्वाइन फ्लू इस बार फिर पूरी दुनिया में फैल चुका है और इससे पीडि़त लोगों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस बीमारी को अब विश्वस्तरीय महामारी भी घोषित कर दिया है।

महामारियां अब तक
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक 1889 से अब तक दुनिया में पांच बार महामारियों का प्रकोप हो चुका है। 1889 में रशियन फ्लू से तकरीबन 10 लाख लोगों की मौत हुई। 1918 में फैले स्पेनिश फ्लू से लगभग दो-तीन करोड़ लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। 1957 के एशियन फ्लू में लगभग 30 लाख लोगों की जानें गईं। 1968 के हांगकांग फ्लू में 15 लाख लोग मरे और 2009 में इन्फ्लुएंजा ए (एच1एन1) वायरस से लगभग 200 लोगों की मौत हो चुकी है।

भारत में महामारी
बंगाल में हैजा
1816 से 1826 के बीच बंगाल में हैजा महामारी से दस हजार से ज्यादा लोगों की जानें गई थीं।
स्पेनिश फ्लू
1918 से 1919 के दौरान भारत में फैले स्पेनिश फ्लू से तकरीबन एक लाख से ज्यादा लोगों को अपने हाथ से जान गंवानी पड़ी।
कोढ़ की बीमारी
1980 के दशक में चीन और इजिप्ट के साथ-साथ हमारे देश में फैली कोढ़ की बीमारी से बीस लाख से ज्यादा लोग विकलांग हो गए थे।
प्लेग
1994 में गुजरात के सूरत में फैले प्लेग से 52 लोगों की जानें गईं।

कुछ खास संक्रमित बीमारियां
सार्स
सार्स का पूरा नाम है- सीवियर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम। यह बीमारी चीन में 2002 और 2003 के बीच में फैली थी। इस बीमारी ने 37 देशों को जकड़ लिया था और लगभग एक हजार लोगों की मौतें हुईं।
एंथे्रक्स
2001 में अमरीका में एथे्रक्स के बायोलॉजिकल आक्रमण होने लगे और हजारों अमरीकी इससे संक्रमित हो गए।
-आशीष जैन

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लेबनान में लोकतंत्र की बहार

पूरी दुनिया की निगाह हमेशा की तरह दक्षिण एशिया पर टिकी हुई है। अमरीका के नए राष्ट्रपति बराक ओबामा और विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन चाहते हैं कि मध्यपूर्व में उनकी सत्ता हमेशा कायम रहे। मध्य पूर्व के इराइराल-फिलिस्तीन, ईरान, लेबनान, सीरिया जैसे देशों की राजनीतिक गणित दरअसल अमरीका ने ही बिगाड़ रखी है। इन सब देशों में भी मध्य-पूर्व में बसे लेबनान देश पर पूरी दुनिया की निगाह हमेशा से टिकी रहती हैं। खासकर इन दिनों दुबारा उस पर अमरीका सहित दुनिया के देशों का ध्यान है। हाल ही लेबनान में संपन्न आम चुनावों में लेबनान में सत्तारूढ़ मार्च 14 गठबंधन ने भारी बहुमत हासिल किया और फिर से सरकार बनाने का दावा पेश किया। इस गठबंधन को अमरीका, फ्रांस, इजिप्ट और सऊदी अरब का समर्थन हासिल था। अमरीका और उसके समर्थक देश चाहते थे कि सत्तारूढ़ गठबंधन इस बार भी विजय प्राप्त करे और उसे लेबनान के लिए अपनी नीतियों में ज्यादा फेरबदल ना करना पड़े। जबकि दूसरी ओर इन चुनावों में सीरिया और ईरान समर्थित हिजबुल्लाह गठबंधन था। चुनावों में इसको करारी हार का सामना करना पड़ा। मार्च 14 गठबंधन के अध्यक्ष साद हरीरी के प्रधानमंत्री बनने की उम्मीद जताई जा रही है। लेबनान की संसद में कुल मिलाकर 128 सीट हैं। जिनमें 64 मुसलमानों के लिए और 64 ईसाइयों के लिए हैं। इन चुनावों में मार्च 14 गठबंधन को 71 सीटें मिली हैं। चरमपंथी हिजबुल्लाह समर्थित क्रिस्चियन पार्टी को 57 सीटें ही मिलीं। हिज्बुल्लाह को शिया उग्रवादी समूह माना जाता रहा है। दरअसल लेबनान का ईसाई समुदाय दोनों खेमों के बीच बंटा रहता है। हिजबुल्लाह को भी ईसाइयों और शियों के समर्थन से इस चुनाव में जीत की उम्मीद थी। लेबनान में मतदान करने के योग्य लोगों की संख्या तकरीबन 30 लाख है।

इतना मतदान पहली बार
खास बात है कि साद हरीरी के नेतृत्व में सत्तारूढ़ मार्च 14 गठबंधन ने ही 2005 में भारी जीत के साथ सरकार बनाई थी। साद हरीरी लेबनान के पूर्व प्रधानमंत्री रफीक हरीरी के बेटे हैं। उसी वर्ष साद हरीरी के पिता और पूर्व प्रधानमंत्री रफीक हरीरी की बेरूत में एक कार बम धमाके में मौत हो गई थी। इस कार बम धमाके के बाद सीरिया को करीब 29 वर्ष बाद लेबनान से हटना पड़ा था क्योंकि उस पर कार बम धमाके में शामिल होने के आरोप लगे थे। हालांकि सीरिया इसका खंडन करता रहा है। रफीक हरीरी की मौत के बाद सीरिया विरोधी पार्टियों ने मिलकर मार्च 14 गठबंधन का एलान किया था। इस गठबंधन का एजेंडा लेबनान की सरकार में सीरिया के हितों के लिए काम कर रहे तत्वों को खत्म करना और लेबनान में तैनात सीरिया के सैनिकों को वापस भेजना था। सीरिया ने 1976 में लेबनान में चल रहे गृह युद्ध को खत्म करने के लिए वहां अपने 40,000 सैनिक तैनात किए थे। लेकिन गृह युद्ध खत्म होने के बाद भी सीरिया के सैनिक लेबनान में ही रहे। रफीक हरीरी की मौत के बाद बने दबाव के चलते सीरिया ने 2005 में अपने सारे सैनिकों को वापस बुला लिया था। इतना मतदान लेबनान के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ। साल 2005 के मुकाबले इस बार ज्यादा लोगों ने मतदान में हिस्सा लिया और चुनावों में करीब 52 फीसदी मत पड़े। इन नतीजों से अमरीका को राहत मिली है, क्योंकि उसने स्पष्ट किया था कि अगर विपक्षी गठबंधन को चुनाव में जीत मिलती है तो अमरीका लेबनान से अपने रिश्तों की समीक्षा करेगा। ऐसे में अमरीका चुनावी नतीजों से बेहद खुश है।
हिजबुल्लाह को जनता का समर्थन
लेबनान सालों से युद्ध की विभीषिका, सम्प्रदायिक हिंसा और राजनीतिक अस्थिरता को झेल रहा है। ऐसे में स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रणाली से दुबारा स्थायी सरकार का बनना देश के भविष्य के लिए सुखद संदेश है। लेबनान की घटनाएं मध्यपूर्व की सामरिक स्थिति में बदलाव का संकेत प्रस्तुत करती हैं। 2006 की बात करें, तो उस वक्त इजराइल ने लेबनान पर हमला कर दिया था। ऐसे में हिजबुल्लाह ने ही इजराइल को मुंह की खाने पर विवश कर दिया था। इजराइल अमरीका का समर्थन प्राप्त करके लेबनान पर धावा बोल चुका था और अमरीका लोकतंत्र का छद्म चेहरा दुनिया के सामने बेनकाब हो चुका था। ऐसे में हिजबुल्लाह ने राष्ट्रवादी नीतियों को तवज्जोह देते हुए लेबनान को संकट से बचाया था। ऐसे में अगर अमरीका दुनिया के सामने यह कहता है कि अगर इन चुनावों में हिजबुल्लाह की जीत हो जाती, तो लेबनान में नए संकट आ सकते थे, पूरी तरह गलत है। 2006 के हमले के दौरान इजराइल ने लेबनान को तहस-नहस करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। लेबनान के एक हजार से ज्यादा नागरिकों की जानें गई थीं। ऐसे में लेबनानी सरकार ने इजराइल को सबक सिखाने की बजाय हिजबुल्लाह के निशस्त्रीकरण की मांग शुरू कर दी थी। यह सब अमरीका की ही कारगुजारियां थीं। ऐसे में हिजबुल्लाह ने भी सरकार में एक तिहाई भागीदारी की मांग की। उस वक्त सिनोरिया सरकार अड़ी रही और हिजबुल्लाह के खिलाफ ही मोर्चा खोल दिया। पर हिजबुल्लाह ने भी सिनोरिया सरकार को धूल चटा दी क्योंकि हिजबुल्लाह को भी लेबनान में जनता का भारी समर्थन प्राप्त है।
राष्ट्रपति चुनाव अभी बाकी हैं
सिनोरिया सरकार की चाल थी कि वह अपने देश लेबनान की सेना को इजराइल के खिलाफ नहीं बल्कि हिजबुल्लाह के खिलाफ उतारना चाहती थी। सिनोरिया सरकार समर्थक पार्टियों में उस वक्त सबसे बड़े घटक के नेता साद हरीरी एक बड़ी निर्माण कंपनी के मालिक हैं, इस कंपनी की गणना दुनिया की 500 सबसे बड़ी कंपनियों में होती है। साद हरीरी ने संभवत यही सोचा होगा कि इजराइली हमलों से लेबनान के विध्वंस से उनकी कंपनी को बहुत सा कारोबारी फायदा हो सकता है। इसके साथ ही अब मार्च 14 गठबंधन चाहता है कि किसी तरह राष्ट्रपति पद भी उनके कब्जे में आ जाए। अभी लेबनान में सीरिया समर्थक राष्ट्रपति एमीले लाहोद सत्ता में हैं। 2004 में सीरिया के दबाव के चलते लेबनान में संविधान में संशोधन करते हुए लाहोद के कार्यकाल को विवादास्पद रूप से तीन सालों से लिए बढ़ाया था। तब से लेकर लगातार मांग उठ रही है कि राष्ट्रपति लाहोद को अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिए। यह मुद्दा अभी सुलझना बाकी है। मार्च 14 गठबंधन ने अपना नाम इस तर्ज पर रखा है कि जब 2005 में रफीफ हरीरी की हत्या हुई थी, तो 14 मार्च को ही बेरूत में सीरिया के प्रभाव को लेबनान से कम करने के लिए इस गठबंधन ने भारी विरोध प्रदर्शन किए थे। इन चुनावों में मार्च 14 गठबंधन को जिताने में अमरीका सरकार ने जी-जान लगा दी थी। उसने लेबनान के लोगों को चेतावनी भी दी थी कि अगर हिजबुल्लाह को वे जीताते हैं, तो अमरीका द्वारा दी जाने वाली सारी मदद रोकी जा सकती है। लेबनानी लोगों को भी पता था कि जब फिलीस्तीन में हमास की जीत हुई थी, तो अमरीका ने उसे आर्थिक मदद देना बंद कर दिया और इजराइल को उस पर हमला करने की छूट दे दी थी। ऐसे में देखना दिलचस्प रहेगा कि लेबनान के राष्ट्रपति चुनावों का क्या हाल रहता है और सीरिया की दखलअंदाजी को खत्म करके गठबंधन 14 मार्च किस तरह लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करता है।
-आशीष जैन

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07 July 2009

बीमारियां बड़ी मस्त-मस्त

मैंने जिंदगी में कुछ नहीं किया। यूं ही जिया और लगता है कि यूं ही मर जाऊंगा। काम मैं भी करता हूं, पर नाम नहीं होता। अब तो कई बीमारियों ने भी घेर लिया है। वैसे कुछ बीमारियां होती ही इतनी दिलचस्प हैं कि आदमी खुद जाकर उनसे चिपक जाता है। मुझे खुद की तारीफ करने की नई बीमारी लग चुकी है। जब तक रोज सुबह और सांझ ढले खुद की कीर्ति का गुणगान ना कर लूं, खाना हजम ही नहीं होता। मैं हरदम इस फिराक में रहता हूं कि कोई मिले और मैं उसे पकड़कर अपनी तारीफ के कम से कम दो बोल तो उछाल ही दूं। बदले में मिली वाहवाही से मेरा भोजन आसानी से पच जाता है। जैसे बंद नाक होने पर आप-हम दिनभर जोर लगाते रहते हैं कि किसी तरह नासिक से हवा का प्रवाह सतत हो जाए, उसी तरह मैं भी अपने रोज के कामों में से इतिहास सर्जन के पल खोजता रहता हूं। मुझे पता है कि कुछ लोग मुझसे चिढ़ते हैं, इसीलिए वे मेरी तारीफ सुनना पसंद नहीं करते और मुझे देखते ही दूर से ही भाग खड़े होते हैं। वैसे लोग बीमारियों से चिंताग्रस्त रहते हैं, पर मैं अपनी इस बीमारी से बहुत खुश हूं।

मार्केट में जो बीमारी इन दिनों सबसे ज्यादा बिक रही है, वो है स्वाइन फ्लू। सुना है कि इस बीमारी का मूल विषाणु सुअर से आया। वैसे हमारी गली में तो बड़े प्यारे-प्यारे सुअर हैं। वे स्वच्छता पसंद हैं, इसलिए उन्हें डरने की कोई जरूरत ही नहीं है। कुछ आवारा सुअरों को जरूर ये बीमारी हो सकती है, पर मैं आज शाम ही उन सब की मीटिंग लेकर उन्हें इस बीमारी के बारे में विस्तार से समझा दूंगा और कह दूंगा कि किसी भी तरह से ये बीमारी हमारी गली में ना घुस पाए। वैसे कुछ लोगों को बोलने की बीमारी होती है। और ये बीमारी खासकर हमारे देश में पाई जाती है। बोलना वाकई एक नशे की तरह होता है। बतोड़ों से पूछिए कि लगातार बोलने में कितना मजा छुपा है। कोई सुने ना सुने, उन्हें तो बस धाराप्रवाह बोलते जाना होता है। बोल-बोल के चाहे मुंह में दर्द हो जाए, जब तक सुनने वाला रोने नहीं लगेगा, ये उस निरीह जीव को छोडेंग़े नहीं। बोलने की परिणाम तो आप हाल के चुनावों में भी देख चुके हैं। ससुरे शुरू से अंत तक बोलते ही गए हमारे नेता और एकाध तो ऐसे हैं कि हार गए, पर बोलना नहीं छोड़ा। चाहे पार्टी से निकलने की नौबत आ जाए, पर लगातार अनाश-शनाप बोलने की आदत नहीं छूटी।
अब हाल देख लीजिए बीजेपी का। सुधीजन तो कह रहे हैं कि अगर शताब्दी एक्सप्रेस की तरह पार्टी के नेताओं के बयान आते रहे, तो आने वाले सालों में पता भी नहीं लगेगा कि कोई इस नाम की पार्टी भी भारतवर्ष में हुआ करती थी। हमने सुना है कि जब अंग्रेज लोग बीमार होते हैं, तो दारू पीने लगते हैं। जर्मन लोगों को दर्द लगता है, तो वे नाचने लगते हैं। पर हम हिंदुस्तानी जब भी बीमार पडऩे लगते हैं, तो वे बोलने की आदत से ग्रस्त हो जाते हैं। बीमारी से ज्यादा बीमारी तो बोलने में नजर आने लगती है। वैसे हमारी घरवाली को तो शापिंग की तगड़ी बीमारी है। चाहे जरूरत हो या ना हो, हर हफ्ते जब तक हजार रुपए खर्च ना करे, उसे उल्टियों का सा मन करने लगता है। अब हम उल्टी की बजाय पैसे फुंक जाना ज्यादा पसंद करते हैं। वहीं बच्चों को कभी कंप्यूटर चाहिए, तो कभी वीडियो गेम्स। क्या ये बीमारी नहीं है। हम तो बिना बिजली खर्च करे ही घर के आंगन में दिनभर खेला करते थे। वैसे इन बीमारियों को कोई अंत नहीं है। पाकिस्तान को भारत को परेशान करने की बीमारी है, तो अमरीका को पूरी दुनिया को धौंस दिखाने की बीमारी, अमीर को दिखावा करने की बीमारी, तो गरीब तो दिनभर फालतू ही अपना रोना रोने की बीमारी। मेरा तो मानना है कि मन जब किसी काम को लगातार करने लगता है, तो धीरे-धीरे वो काम लत बनता है और फिर बीमारी बनने लगता है। भई, मेरी तो यही राय है कि हम सबको कुछ ना कुछ नया करते रहना चाहिए ताकि कोई भी चीज दिलोदिमाग पर हावी ना हो पाए और हम खुशी-खुशी अपनी जिंदगी गुजार सके।
-आशीष जैन

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महिलाओं ने हिला दिया

आज हमारी घरवाली बड़ी खुश है। खूब प्यार से बात कर रही है, खाना भी बहुत स्वादिष्ट बनाया है। आज तो ऑफिस से लेट आने पर ताने भी नहीं मारे। क्या बात है, ये सूरज पश्चिम से कैसे उग रहा है। जरूर हो ना हो, दाल में कुछ काला है। रोज तो अपने दुख-दर्द का पिटारा लेकर बैठ जाती थी, कहती थी कि तुम मर्दों ने हमारी जिंदगी तबाह कर रखी है। तुमने हमें दबाकर रखा हुआ है। हमें आगे बढऩा चाहती हैं। और आज कह रही है कि तुम बहुत अच्छे हो, मेरा हर कहा मानते आए हो। मुझे तुम्हारा साथ बहुत भाता है। ये सुनकर मैं वैसे ही उलझन में था, इतने में ही उसने एक सवाल भी दाग दिया कि आगे भी मेरा साथ दोगे ना। मैं सोच में पड़ गया कि कैसे साथ देने की बात कर रही है ये। जरूर कोई बड़ा फंदा लाई है, ये मुझे फंसाने के लिए। मैं सर्तक हो गया। सोचने लगा कि इन दिनों में कुछ खास तो नहीं हुआ।

तभी हमें याद आया कि 100 दिन की मियाद में सरकार महिलाओं को देश की सबसे बड़ी पंचायत में आरक्षण देने जा रही है। जरूर इसे किसी ने बता दिया हो। अब तो ये जरूर चुनाव लडऩे की प्लानिंग बना रही होगी। दरअसल जब भी हमारी बीवी खुश होती है, मायावती और ममता बनर्जी के गुणगान करने लगती है। बोलती है, काश! मुझे भी मौका मिलता चुनाव लडऩे का। तुम जैसे पतियों की तो अकल ठिकाने पर लगा देती। हमें तो शुरू से ही पता है कि स्त्री शक्ति का कोई सानी नहीं है। अगर स्त्री जाग गई, तो सबको सुला देगी। आज जब बिना आरक्षण के ही महिलाओं ने अपना डंका चहुंओर मचा रखा है, तो फिर तो पुरुषों के बोलती ही बंद हो जाएगी।
मेरी पत्नी को तो मीरा कुमार की आवाज में भी कोयल की बोली नजर आती है, कहती है, कितना मीठा बोलती है। अब मीठा बोल-बोलकर संसद में सबको चुप कराएगी। हैडमास्टरनी बन गई है, सब नेताओं की। देखा ना बस एक पोस्ट बची थी, जिस पर महिला नहीं थी, अब तो वो भी पूरी हो गई। अपनी प्रतिभा ताई, सोनिया मैडम और इंदिरा गांधी की तरह ये भी अपना परचम लहराएगी। वैसे मेरा मानना है कि यूं अगर महिलाओं को आरक्षण नहीं भी मिलेगा, तो जल्द ही वो दिन भी आएगा, जब पूरी संसद में महिलाएं नजर आएंगी और जो बचे-कुचे पुरुष होंगे, वे सब मौन में चले जाएंगे। उन्हें ये डर हमेशा सताएगा कि कहीं ये औरतें अपने बैगों में बेलन छुपाकर ना लाई हों। अगर ज्यादा भड़भड़ाहट की, तो तपाक से बेलन निकालकर मारेंगी।
अब देख लीजिए शुरुआत तो हो चुकी है, उनसठ महिलाओं ने बाजी मार ली ना इस बार के चुनावों में।
आरक्षण आएगा, तो ऐसी महिला क्रांति लाएगा, जिसकी उम्मीद तो शायद महिला सशक्तिकरण करवाने वाली संस्थाओं ने भी नहीं की होगी। पुरुषों की बजाय अब महिलाएं चाय की थडिय़ों का मंच हथिया लेंगी। सारी औरतें मिलकर वहीं कंट्री के फ्यूचर की प्लानिंग करेंगी। पनवाड़ी की दुकान पर महिला पान बेचती नजर आएंगी, रैलियों में महिलाओं की भीड़ उमड़ेगी, बसों में पुरुष आरक्षित सीटें नजर आएंगी, महिला आयोग के दफ्तर पर ताला लग जाएगा और सारे पुरुष मिलकर पुरुष आयोग की मांग करने लगेंगे। दहेज पीडि़त महिलाएं नदारद हो जाएंगी और महिलाओं द्वारा उत्पीडि़त पुरुषों की संख्या में भारी इजाफा देखने को मिलेगा। राष्ट्रपिता, राष्ट्रपति जैसे शब्दों की तरह ही संविधान में राष्ट्रमाता, राष्ट्रपत्नी जैसे शब्दों को शामिल करने की पुरजोर वकालत की जाएगी। आतंकवादियों की नई फौज में महिला आतंकवादियों का वर्चस्व बढऩे लगेगा... इत्यादि इत्यादि। यूं तो मेरे पास भावी परिवर्तनों की बहुत लंबी लिस्ट है, पर उन सब बातों का यहां उल्लेख करना ठीक नहीं रहेगा। वरना लाखों पुरुष शरद यादव की तरह ही आत्महत्या करने की योजना बना लेंगे। मैं नहीं चाहता कि मेरी जात मतलब पुरुष बिरादरी घबराहट में कुछ गलत उठा ले। भाईयो, अभी डरने की नहीं धैर्य करने की जरूरत है। हम आपको यकीन दिलाते हैं कि आप पर ज्यादा आंच नहीं आएगी। हम अपनी माताओं-बहनों-बीवियों से फरियाद करेंगे कि वे अपने बाप-भाई-पति का पूरा ध्यान रखेंगी। हम उनके साथ समझौता करने को तैयार हैं। वो हमें समय पर चारा मतलब भोजन मुहैया करवाएंगी बदले में हम घर की सफाई कर दिया करेंगे। वो हमसे थोड़ा प्यार से बात कर लिया करेंगी और हम बदले में बच्चों की पोटी साफ कर दिया करेंगे।
हम इतना सोच कर पसीने-पसीने हो गए और मन किया कि अपनी पत्नी के पांव छू लें और उसे अभी से पटा लें। पर क्या देखते हैं कि पत्नी कलैंडर लेकर सामने खड़ी थी। बोले बस कुछ ही दिन तो बचे हैं। हमने सोचा कि इसने 100 दिनों में से उल्टी गिनती शुरू कर दिया दिखता है। पर वो बोली कि मुझे मायका जाना है, बच्चों की छुट्टियां खत्म होने में कुछ दिन ही बचे हैं। आप घर का ध्यान रखना, मैं जल्द ही आ जाऊंगी। इतना कहकर वो मायके जाने की तैयारी करने लगी और हम सकुचाए से अपने भविष्य के संकट के बारे में दुबारा विचारमग्न हो गए।
-आशीष जैन

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बारिश आई किस्मत चमकाई

अल्लाह मेघ दे..मेघ दे.. पानी दे..। टिप-टिप बरसा पानी... पड़ोस में रहने वाले पपीताराम के घर से लगातार ऊंची-ऊंची आवाजें आ रही थीं। मैं घबरा गया, सोचने लगा कि वैसे तो हमारा पूरा मोहल्ले की संगीतकारों से भरा पड़ा है, पर ये भरी गर्मी में पानी को याद करके कौन हमारे जख्मों को हरा कर रहा है। उससे पूछें, तो जवाब मिलेगा कि तुम्हारा क्या ले रहा हूं। मैं तो गीत गा रहा हूं। हमसे पूछो, तो वो एक नंबर का गधा है। सबको अपनी बेसुरी आवाज से घायल करना चाहता है। उसे हमारा सुख नहीं देखा जाता। लगा रहता है किसी ना किसी सिंगिंग कंपीटीशन की तैयारी में। कहता है कि मैं तो अपनी आवाज से रियाज कर रहा हूं।

वैसे आज के उसके गीत में कुछ ना कुछ राज छुपा हुआ है। नहीं तो वो तपती धूप में कैसे एकाएक पानी को याद करने लगा और उसने तो घर में ही बोरिंग खुदवा रखी है, पानी की तो वैसे भी उसके घर में कोई कमी नहीं है। वैसे उसकी नजरों में जरा पानी नहीं है, ये दूसरी बात है। उससे एक बाल्टी पानी मांगने जाओ, इस तरह एहसास जताकर देता है, मानो बाल्टी भरकर नोट दे रहा हो। यूं आषाण के महीने में ही सावन को याद करने की उसकी अदा वाकई बड़ी निराली है। घर की सारी खिड़कियां खोलकर पानी आ, पानी आ यूं चिल्ला रहा है, मानो उसके कहने से बादल अपनी सारी सप्लाई हमारे मोहल्ले की तरफ मोड़ देंगे।
दरअसल वो एक पीडब्ल्यूडी का ठेकेदार है। हर साल सावन आते-आते वो पूरा हरा नजर आने लगता है। बारिश की पहली बंूद इस धरा पर टपकती है, तो लगता है कि उसे पुनर्जन्म मिल गया हो। पता नहीं पानी से उसे इतना प्यार क्यों है। हम इस बात को सोचकर बहुत परेशान रहते हैं। पर जब देखा कि वो सड़क बनवाने के लिए सरकार से टेंडर लेता है, तो हमारे मगज में एक बार में ही सारी बात फिट बैठ गई कि क्यों वो पानी से इतना प्यार करता है। दरअसल वो ज्यादातर टेंडर लेता ही, बरसात के दिनों में है। सड़क के नाम पर रोड पर डामर बिछा देता है। बारिश आती है और उसके सारे पापों को धो जाती है। तभी वो बारिश के पानी को गंगाजल समझकर प्रणाम करता है। सड़कों टूटती हैं, गड्ढ़े होते हैं, उसका क्या जाता है, बारिश उसके सारे कुकर्मों को ढक लेती है। फिर दूसरी बार वो टेंडर लेता है, गड्ढे भरने का। गड्ढे भरने के नाम पर नोटों से उसका घर भरता जाता है। बारिश खत्म होती है, तो पता लगता है कि पपीताराम ने नई कार ले ली है। अमरीका जा रहा है घूमने इत्यादि। वैसे इसमें एक मजेदार बात है कि सरकार उसी को टेंडर क्यों देती है? क्या कोई उसकी शिकायत नहीं करता कि बेकार सड़क बनाने में उसी का हाथ है। इसके पीछे साफ थ्योरी काम करती है। कहेगा कौन, सुनेगा कौन। कहेंगे ये चट्टू पत्रकार, तो उनकी तो पहले से ही जेबें गर्म करके रखो और अगर ज्यादा प्रेशर आ भी जाए, तो साफ कह दो, इस काम में मेरा नहीं मजदूरों का हाथ है। और सुनने वालों को तो कान बंद रखने के लिए पहले ही सोने के सिक्के थमा दो। उनकी आवाज के सामने जनता की आवाज भला नेता कभी सुन पाए हैं, जो अब सुनेंगे। वैसे जब नेताओं की गाडिय़ां पपीताराम की बनाई सड़कों से गुजरती है, तो उनकी तोंद का सारा पानी बराबर हो जाता है, तब उन्हें पता लगता है कि वाकई गोलमाल ज्यादा ही है और कमीशन कम। पपीताराम तो चाहता है कि मैं भी उसके धंधे में पार्टनर बन जाऊं, पर हिम्मत नहीं होती। मैं उससे कहता हूं कि क्या होगा, पाप की कमाई से। इस बात पर पपीताराम हंसता है और बोलता है कि अब सीधे का जमाना कहां रह गया है जी। जैसे भी माल हाथ लगे, बस बटोरो और चलते बनो। वैसे भी ये तो सीजनेबल धंधा है। हम कौनसा बारहों महीने माल सूतते हैं। हमसे बड़े कई पापी हैं, जो साल के 365 दिन बस सरकारी नोट गिनने में लगे रहते हैं। हम सोच रहे थे कि कह तो इसकी सही है कि कलयुग में जब सत्य बचा ही नहीं है, तो फिर थोड़ा-बहुत पाप करने में जाता क्या है। हम बड़ा फैसला करने के मूड में ही थे कि इतने में कमबख्त हमारी आत्मा आडे आ गई और अपने बापू की बचपन में सिखाई बातें याद करा गई और हम दुबारा सदाचार की पटरी पर आ गए। अब तो शायद अगले सावन में ही हम पपीताराम के पाले में आ पाएंगे, चलो तब तक क्यों ना सावन की ठंडी फुहारों का मजा लेकर ही दिल को तसल्ली दी जाए।
- आशीष जैन

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01 July 2009

इस जवानी की जय हो

उम्र के 97 पड़ाव पूरे कर चुकीं वरिष्ठ रंगकर्मी, अभिनेत्री और डांसर जोहरा सहगल आज भी गुनगुनाती हैं- अभी तो मैं जवान हूं। उन्हें देखकर लगता है कि जिंदगी का दूसरा नाम जोहरा ही है। जानते हैं उनकी जिंदगी के अनछुए पहलुओं को खुद उनकी जुबानी-


जब 1983 में मैं पाकिस्तान गई थी, तो लोगों ने मुझे कहा था कि आप पाकिस्तानी शायर हफीज जालंधरी की लिखी पंक्तियां- अभी तो मैं जवान हूं- सुनाइए ना। फिर तो मैं भूल गई कि कहां खड़ी हूं और मेरे सामने कौन लोग हैं। मैं नज्म की उन पंक्तियों को गुनगुनाने लगी। चीनी कम और सांवरिया के बाद मैं परदे पर नजर नहीं आई, लोग मुझसे सवाल पूछने लगे। मैं आपको बताना चाहती हूं कि जब तक मैं अपने पात्र और चरित्र के साथ आत्मीय संबंध नहीं बना लेती, तब तक मैं फिल्म मंजूर नहीं करती।
सपनों की सीढिय़ां चढ़ती रही
फिल्मी परदे पर मैं ज्यादातर ऐसी मां या दादी की भूमिकाएं निभाई हैं, जो अपने बच्चों को अंत में जाकर जीने की आजादी देती है। दरअसल ये भूमिकाएं मेरी जिंदगी के सचों से जुड़ी हुई हैं। मैं रोहिल्ला पठान परिवार में पैदा हुई थी। वहां मुझे अपने सपनों के मुताबिक जीने की आजादी नहीं थी। मेरे परिवार में बुर्का जरूरी था। मैं तो नीलगगन में उडऩा चाहती थी। गाना और नाचना चाहती थी। एक दिन यूरोप में रहने वाले मेरे चाचा ने ब्रिटेन के एक कलाकार के बारे में मुझे बताया और कहा कि अगर तुम वहां जाओगी, तो तुम्हारे सपने पूरे हो जाएंगे। तब मैंने ईरान, मिस्र होते हुए यूरोप तक सड़क और पानी के रास्तों से अपना सफर पूरा किया। मेरे घरवाले मुझे सात भाई-बहनों में सबसे अलग मानते थे। वे अक्सर कहते थे कि तुम्हें लड़की नहीं, लड़का होना चाहिए। और इस तरह यूरोप जाना मेरे सपनों तक पहुंचने की सीढ़ी साबित हुआ। जब कोई इंसान अपने मन के मुताबिक चलता है, तो सब उसका विरोध करते हैं, सो मेरा विरोध भी हुआ। लेकिन धीरे-धीरे सब बदल जाता है। यूरोप में पहली बार मैंने उदय शंकर का बैले शिव-पार्वती देखा। वहीं मेरी मुलाकात कामेश्वर सहगल से हुई। प्रेम हुआ और शादी कर ली। मुझे लगता है कि वाकई ऊपरवाला हमारी किस्मत लिखकर भेजता है। जब पंडित जवाहर लाल नेहरु मेरी शादी में आए, तो उन्होंने पूछा कि तुम खुश तो हो ना। यह सुनकर मैं रोमांचित हो उठी थी।
रचनात्मकता पर तकनीक हावी
पिछले सत्तर सालों में मैंने लाहौर से मुंबई और फिर यूरोप से लेकर फिल्म, टीवी और रंगमंच का एक लंबा सफर तय किया। वैसे मैं शुरू में केवल कोरियोग्राफर बनना चाहती थी। मैंने राजकपूर की 'आवाराÓ का ड्रीम्स सीक्वेंस कोरियोग्राफ किया था। तब सब कुछ हमने अपने हाथों से किया था। अब तो रचनात्मकता पर तकनीक हावी हो गई है। शायद इसीलिए ये लोग लोगों के मन के साथ पूरी तरह नहीं जुड़ पाते। बाजी, सीआईडी और आवारा में भूमिकाएं करते-करते तो मैं अभिनय के फील्ड में भी आ गई। विभाजन के बाद मैं बच्चों के साथ मुंबई आ गई और पृथ्वी थिएटर के साथ इप्टा के नाटकों में काम करना शुरू कर दिया। जिंदगी को हम लोग बांध नहीं सकते। साठ के दशक में भारत आई, तो अल्मोड़ा में उदय शंकर के स्कूल में पढ़ाने चली गई। फिर मेरे पति कामेश्वर का निधन हो गया। मैं लंदन लौटकर बच्चों में बिजी हो गई। इस दौरान एक बार्बर शॉप में लोगों के बाल भी काटे थे। फिर मेरी वापसी सही मायने में जेम्स आयवरी के साथ हुई। यह मेरे कॅरियर की दूसरी शुरुआत थी। उस दौरान ज्वेल इन द क्राउन, तंदूरी नाइट्स मेरे लोकप्रिय शो थे।
हंसते-मुस्कराते कट जाएं रस्ते
मेरे लिए भाषा हमेशा एक समस्या रही। अंग्रेजी में कोई दिक्कत नहीं थी, पर हिंदी में काम करने के लिए मुझे संवादों को उर्दू या रोमन में लिखवाना पड़ता था। मैं राजकपूर और चेतन आनंद को कभी भुला नहीं सकती। हां, गोविंदा के साथ फिल्म चलो इश्क लड़ाएं में बड़ा मजा आया। उसमें मुझे हर पांच मिनट में उसे एक जोर का थप्पड़ लगाना था और गोविंदा शॉट के बाद चुपचाप एक तरफ जाकर बैठ जाता था। इस फिल्म में मुझे मोटर साइकिल चलाने का मौका भी मिला। लोग अक्सर पूछते हैं कि आप उम्र का शतक पूरा करने जा रही हैं, ऐसे में जिंदगी को किस नजरिए से देखती हैं, तो मेरा एक ही जवाब रहता है कि जिंदगी तो खुश रहने के लिए ही मिली है। फिर फालतू टेंशन लेकर क्यों इसे बर्बाद किया जाए। उम्र आपके शरीर में नहीं दिमाग में होती है और खुशी दिल में समाई रहती है। इसलिए मैं हमेशा हंसने और मुस्कराने के सामान ढूंढ ही लेती हूं। वैसे मैं एक सख्त नियम वाली इंसान हूं। आज भी मैं अपनी आवाज को बनाए रखने के लिए रियाज करती हूं। अब मैं नाच नहीं पाती, पर अपनी बेटी किरण सहगल के साथ अभिव्यक्ति और प्रभावों के लिए रोज प्रैक्टिस करती हूं।
-प्रस्तुति- आशीष जैन

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मस्ती की रेल पढ़ाई की पटरी पर

बच्चों के छोटे हाथों को चांद-सितारे छूने दो/ चार किताबें पढ़कर ये भी हम जैसे हो जाएंगे.......बचपन की उम्र ही ऐसी होती है, जब दुनिया बड़ी हसीन और रंगीन नजर आती है। और माहौल जब छुट्टियों का हो, तो मस्ती का कोई ओर-छोर नहीं होता। लेकिन जनाब अब खत्म हो चली हैं छुट्टियां और फिर से शुरू हो गए हैं स्कूल। मिट्टी के घरौंदे बनाने वाले नन्हे, नाजुक हाथ अब किताबों का बोझ उठाते नजर आएंगे और जिन मासूम आंखों में अब तक थे फूल, तितली, झूले और चांद-सितारों के सतरंगी सपने, उनमें होगी एक जद्दोजहद.....जिंदगी की दौड़ में आगे, और आगे निकलने की। यहीं उठता है यह अहम सवाल कि बच्चों की कोमल भावनाओं को किताबों और हमारी उम्मीदों के बोझ तले दबाकर कहीं हम कोई गंभीर अपराध तो नहीं कर रहे?

याद रखें कि पढ़ाई जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए है। अगर हम अपने बच्चों को ऐसी बेहतरी नहीं दे पाते, तो यकीनी तौर पर हम एक ऐसा अपराध कर रहे हैं, जिसका असर आने वाले कई सालों तक हमें नजर आएगा। माता-पिता के पास अगर बच्चे के मन में झांकने की फुरसत होगी, तो वे जान पाएंगे कि किताबी दुनिया से ही समझ विकसित नहीं होती। न्यूटन से लेकर एडीसन तक कई बड़े वैज्ञानिक पढ़ाई में कमजोर थे, पर उनकी सोच और चीजों को देखने का नजरिया बिल्कुल जुदा था। क्यों ना हम भी अपने बच्चों को एक ऐसा माहौल दें, जहां वे खुलकर सोच सकें और चीजों को अपने नजरिए से पेश कर सकें। बच्चे तो आज भी सपनीले संसार में रहकर ही सीखना-पढऩा और आगे बढऩा चाहते हैं। उनके सपने बड़े नहीं हैं, सुंदर हैं। वे चाहते हैं कि बैट-बॉल और बस्ते के बीच की दीवार ढहा दी जाए, प्ले ग्राउंड और प्रेयर हॉल को मिला दिया जाए। वे माहौल को समझ सकें, ढल सकें और अपनी पूरी एनर्जी से एक बार फिर पढ़ाई में जुट जाएं।
स्कूल बने दूसरा घर
फिल्म तारे जमीं पर और उसका लीड कैरेक्टर ईशान अवस्थी तो आपको याद होगा। दिनभर शरारत और मस्ती के बाद पढ़ाई का नंबर सबसे आखिर में। फिर जब निकुंभ सर क्लास में आते हैं, तो बच्चों को पढ़ाई में भी मजा आने लगता है। क्या तारे जमीं पर की तरह कोई ऐसा तरीका नहीं हो सकता कि बच्चों को स्कूल में भी मजा आए, स्कूल ही उनके लिए दूसरा घर बन जाए। छुट्टियां होने पर भी वे स्कूल की तरफ भागें। यह सब हो सकता है, बस हम सबको मिलकर थोड़ा सा प्रयास करने की जरूरत है।
नन्हे की बातें सुनें
समाजशास्त्री ज्योति सिडाना का कहना है, 'आजकल बच्चों को छुट्टियां नाममात्र की मिलती हैं और इन छुट्टियों में भी उन पर हॉबी क्लासेज ज्वाइन करने का प्रेशर डाल दिया जाता है। ऐसे में ना तो वे आउटडोर गेम्स का मजा उठा सकते हैं और ना ही दोस्तों के साथ मस्ती कर सकते हैं। छुट्टियों में भी माता-पिता एक पूरे दिन का शैड्यूल उन्हें थमा देते हैं। इससे बच्चे को लगता है कि क्या सिर्फ लगातार पढ़ाई ही उनकी जिंदगी का मकसद रह गया है? हम सबकी जिम्मेदारी है कि बच्चों को एहसास कराएं कि पढ़ाई जिंदगी के लिए है, जिंदगी पढ़ाई के लिए नहीं है।Ó पांंच साल के रोहित के पिता अमन शर्मा रात में उसके साथ बैठते हैं और स्कूल में होने वाली हर एक्टिविटी को बड़े ध्यान से सुनते हैं। इससे बच्चे को लगता है कि उसकी पढ़ाई में मम्मी-पापा की भी रुचि है और उसे कोई परेशानी आएगी, तो वह मम्मी-पापा के साथ आसानी से शेयर कर सकता है।
शर्म की बात होगी
हाल ही मानव विकास संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल ने भी माना है कि बच्चों पर पढ़ाई का बड़ा दबाव है और हमें एजुकेशन सिस्टम में बदलाव की जरूरत है। वे नवीं और दसवीं क्लास की बोर्ड परीक्षाएं खत्म करके ग्रेडिंग सिस्टम शुरू करने के लिए जरूरी कदम उठाने की वकालत कर रहे हैं। शिक्षाविदों और समाजशास्त्रियों के कई अध्ययन इस बात का खुलासा करते हैं कि बच्चे पढ़ाई के तनाव में घुलकर अपना जीवन तबाह कर रहे हैं। इन आंकड़ों पर जरा गौर कीजिए- पिछले तीन सालों के अंदर लगभग 16 हजार बच्चे परीक्षा परिणाम के दिनों में खुदकुशी कर चुके हैं। हालांकि इन सारे बच्चों ने सिर्फ परीक्षा के नतीजों की वजह से जिंदगी को अलविदा नहीं कहा, लेकिन कहीं ना कहीं पढ़ाई का तनाव उनके अवचेतन में जरूर रहा होगा। अगर पढ़ाई के नाम पर इसी तरह हमारे नौनिहाल आत्महत्या के रास्ते पर चलते रहें, तो यह वाकई हमारे लिए शर्म की बात है।
जिंदगी की पाठशाला
माता-पिता को उन्हें बताना चाहिए कि स्कूल कोई हौवा नहीं है, बल्कि जिंदगी की पाठशाला है। यहां सिर्फ किताबों को चाटने से कुछ नहीं होगा। यहीं से बच्चों को सामाजिकता और व्यावहारिकता के वे गुर मिलेंगे, जो ताउम्र उनके काम आएंगे। इस सबके बीच में शिक्षक का भी अहम रोल है। पहले दिन ही कोर्स की बात करने की बजाय उनसे दोस्ती करनी चाहिए। हर बच्चे से उसका शौक पूछना चाहिए। इससे बच्चे के मन को भी शिक्षक आसानी से समझ पाएगा। तभी तो हम अक्सर अपने बच्चों के मुंह से सुनते हैं कि उन्हें फलां मैम बहुत पसंद हैं... क्योंकि वह टीचर भी बालमन के कौतुक को समझकर उनके धैर्य से उनके हर सवाल का जवाब देती है।

मुश्किल नहीं है कोई

आज के बच्चों का दिमाग कंप्यूटराइज्ड हो गया है। वे कॅरियर ओरिएंटेड हैं और जानते हैं कि स्कूल खुलते ही उन्हें पढ़ाई में लगना है। ऐसे में उन्हें कोई दिक्कत नहीं आती। हमारे यहां बच्चे जल्द से जल्द स्कूल आना चाहते हैं। उन्हें टीचर्स से डर नहीं लगता, वे स्कूल में भी घर की तरह ही मस्ती करते हैं।
- राज अग्रवाल, प्रिंसिपल, केंद्रीय विद्यालय नंबर 1, जयपुर
आलेख- आशीष जैन

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