30 November 2009

रीता न जाए बचपन !

बच्चों के नाजुक हाथों को चांद-सितारे छूने दो,
चार किताबें पढ़कर वो भी हम जैसे हो जाएंगे...
निदा फाजली के इस शेर में आज की सच्चाई छुपी है। बच्चों के मन में छुपी कोमलता आज गायब है। भावनाओं की गगरी खाली होती जा रही है और उसमें जानकारी के कंकड़ बढ़ते जा रहे हैं। अब वे न चांद को मामा मानते हैं, न ही उन्हें घर के नीचे भूत नजर आता है और न ही बाबा ले जाएंगे की बात पर वे डरते हैं। उन्हें हर सच्चाई पता है। वे हर चीज को तर्क की तराजू पर तौल रहे हैं। यहां तक कि रिश्तों को भी। उन्होंने इंटरनेट पर बैठकर जमानेभर से जुडऩा तो सीख लिया, पर अपने दद्दू के पास दो पल बिताने की कला से वे अनभिज्ञ हैं, जिससे बातों-बातों में वे संस्कारों की घुट्टी पी सकें। सवाल उठता है क्या उनके इमोशंस को खत्म करके हम उन्हें इंटेलीजेंट कह पाएंगे?


'बचपन! बारिश की रिमझिम फुहारों-सा निर्मल, निश्छल , बहती नदी पर खेलती सूरज की ज्योतिर्मय किरणों- सा उज्ज्वल ... बर्फीली चादरों से ढके पर्वतों पर खिलने को आतुर नन्ही कली- सा बचपन।' आज यह बचपन कहीं गुम हो गया है। बच्चों को बड़प्पन की चादर ओढ़ा दी गई, धीर-गंभीर और श्रेष्ठता का चोला पहनते-पहनते बच्चे भूल गए हैं कि बचपना होता क्या है? आज के बच्चे बड़े सपने देखते हैं, पर आंगन में दौड़ती नन्ही गिलहरी की अठखेलियों को देखने का समय उनके पास नहीं है। वेे चांद को मामा नहीं मानते। वे कहते हैं, 'मुझे सब है पता मेरी मां!' जानकारियों के बोझ ने उनके जज्बात को लील लिया है। बच्चों को लगता है कि यही जिंदगी है। पर क्या सिर्फ नॉलेज के बल पर बचपन को संवारा जा सकता है या फिर अपने आस-पास की दुनिया से जुड़कर, कल्पनाओं को परवाज देकर, कुदरत के साथ समय बिताकर व्यक्तित्व का विकास किया जा सकता है।
क्या सिर्फ होशियारी चाहिए?
पिछले दिनों एक चैनल के किए गए सर्वे के नतीजों से पता लगता है कि आज बच्चों में समय से पहले ही एक खास तरह की समझ विकसित होती जा रही है। नई दिल्ली, मुंबई, बंगलौर, चेन्नई, कोलकाता, अहमदाबाद, हैदराबाद, लुधियाना, जयपुर, लखनऊ, गुवाहाटी, नासिक, इंदौर, कोच्चि और मदुरै समेत देश के तमाम बड़े शहरों के 4 से 14 साल की उम्र के बच्चों के बीच किए गए इस सर्वे में कई चौंकाने वाली बातें सामने आईं। सर्वे में हिस्सा लेने वाले 7 हजार से ज्यादा बच्चों को देश और दुनिया के बारे में महत्तवपूर्ण जानकारी थी। पहली नजर में यह चीज सबको अच्छी लग सकती है। आप और हम कह सकते हैं कि आज के बच्चे पहले से कहीं ज्यादा होशियार हो गए हैं। पर... इस बुद्धिमानी की वाहवाही के पीछे हम उनके बरबाद होते बचपन को नहीं देख रहे हैं। तभी तो सर्वे के दौरान 58 फीसदी बच्चों ने देश से गरीबी और भुखमरी दूर करने की चाहत जताई।
बच्चा होना अपराध नहीं!
जब बच्चों से सवाल किया गया कि 30 साल की उम्र तक वे क्या हासिल करना चाहेंगे, तो सबसे ज्यादा 90 फीसदी बच्चों ने सफल कॅरियर हासिल करने की बात कही। नतीजे बताते हैं कि बच्चे अपने कॅरियर का चयन काफी सोच-समझ कर करते हैं। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि डॉक्टर और मूवी स्टार में से चॉइस मांगने पर करीब 70 फीसदी ने डॉक्टर और सिर्फ 30 फीसदी ने फिल्म स्टार बनने की बात कही। इसी तरह लीडर और आर्मी में चॉइस मांगने पर एक तिहाई से भी कम बच्चों ने लीडर, तो दो तिहाई से ज्यादा ने आर्मी में जाने की बात कही। खास बात यह है कि लड़कियों में हाउस वाइफ बनने की कोई चाहत नहीं है। हाउस वाइफ और पाइलट में से चॉइस मांगने पर सिर्फ 12 फीसदी लड़कियों ने हाउस वाइफ बनने की बात कही।
अब अगर बच्चों को कोई बात समझाई जाए, तो वे कहते हैं, 'अब हम बच्चे नहीं है।' वे जल्द से जल्द बड़ा बनना चाहते हैं और मम्मी-पापा के सामने यह जताने की कोशिश करते हैं कि देखो, मॉम-डैड मैं बड़ा हो गया हूं। माता-पिता भी कहीं न कहीं चाहते हैं कि बच्चे जल्दी से बड़े होकर उनके सपनों को पूरा करने की रेस में शामिल हो जाएं।
कुदरत के करीब ले जाएं
आधुनिक दौर में बचपन सिकुड़ता जा रहा है। यह बच्चों की कंप्रेश्ड एज है। बॉयोलॉजिकली तो वे बच्चे ही हैं, पर उनकी मेंटली एज बढ़ती जा रही है। मीडिया और इंटरनेट से वे नित नई चीजें तेजी से सीख रहे हैं। पहले दसवीं कक्षा के बच्चे को जो चीजें पता होती थीं, वे चीजें आज चौथी क्लास के बच्चों को मालूम हैं। दरअसल पहले बच्चेे किताबों और घर के बड़े-बुजुर्गों से जानकारी हासिल करते थे। एकल परिवारों के चलते घरों में बुजुर्ग भी नहीं रहते और माता-पिता नौकरी के कारण घर से बाहर रहते हैं। ऐसे में बच्चा किताबों की बजाय टीवी और इंटरनेट से जानकारी हासिल करता है। इन सबका गहरा असर उन पर होता है। शारीरिक विकास के मुकाबले मानसिक विकास तेजी से होने पर उनमें टेंशन और अवसाद घर करने लगते हैं।
समाजशास्त्री डॉ. ज्योति सिडाना का कहना है, 'बच्चों को उनका खोया हुआ बचपन लौटाने के लिए कुछ खास कोशिशें करनी होंगी। इसके लिए स्कूलों के पाठ्यक्रम में बदलाव जरूरी है। तीसरी-चौथी क्लास में बच्चों को कंप्यूटर की जानकारी देने की बजाय उन्हें खेलना सिखाना चाहिए। उन्हें कुदरत के करीब स्वछंद छोड़ देना चाहिए। योग और एक्सरसाइज करवानी चाहिए, ताकि वे चीजों को बारीकी से समझ सकें और मशीनी न बनें। साथ ही उन्हें वीडियो गेम्स की बजाय कैरम, लूडो और पार्क में जाकर खेलने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए, ताकि उनमें सामाजिकता की भावना पनप सके।'
बोझ न बने जानकारी
अब जानकारी बच्चों के लिए बोझ बनती जा रही है। उनको अपनी क्रिएटिविटी दिखाने का ना तो समय मिल रहा है और ना ही मौका। धीरे-धीरे वे भूलते जा रहे हैं कि ये उनके खेलने-कूदने, सीखने-समझने और नादानी करने के दिन हैं। माता-पिता उन पर अपनी इच्छाएं थोपे जा रहे हैं। कंपीटीशन इतना है कि उन्हें किताबों के सिवा कुछ नहीं सूझता। इससे वे मशीनी जिंदगी जीने लगे हैं और उनका इमोशनल कोशेंट कम हुआ है।
मनोचिकित्सक आरके सोलंकी का मानना है, 'परिवार और सोसाइटी को बचपन पर बोझ लादने की बजाय उनके नैसर्गिक विकास में मदद करनी चाहिए। स्कूल भेजने की जल्दबाजी दिखाने की अपेक्षा पैरेंट्स को उनके साथ ज्यादा से ज्यादा समय गुजारना चाहिए। सामाजिक गतिविधियों में भाग लेने के लिए उन्हें प्रोत्साहित करना चाहिए। इससे बच्चे समाज में घुलना-मिलना सिखेंगे और उनका संतुलित विकास होगा।'
-आशीष जैन

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26 November 2009

हां, हम एचआईवी पॉजिटिव हैं

कौशल्या पेरियासामय पहली ऐसी हिंदुस्तानी महिला हैं, जिन्होंने पूरी दुनिया के सामने कबूला, 'हां, मैं एचआईवी पॉजिटिव हूं।' आज वे अपने जैसी हजारों महिलाओं के कारवां को साथ लेकर लड़ रही हैं, एड्स और एचआईवी पॉजिटिव के खिलाफ जंग।


'जब दर्द के लिए कोई भी दवा काम नहीं कर पाती, तो दुआएं असर करती हैं। आइए, हम सब मिलकर इन महिलाओं के दर्द को समझें, कोशिश करें कि इनका दर्द कम हो और कुछ नहीं कर सकते, तो कम से कम एचआईवी पॉजिटिव महिलाओं के लिए दुआ करें।' कौशल्या खुद एचआईवी पॉजिटिव हैं, पर अपने दर्द को भूलकर आज वे अपने जैसी हजारों महिलाओं की आवाज को बुलंद कर रही हैं। एचआईवी पॉजिटिव महिलाओं के लिए वे दवा और दुआ दोनों हैं। उनका कारवां बढ़ता जा रहा है। जब वे एड्स या एचआईवी के बारे में बोलती हैं, तो उनकी पीछे लगभग 7000 महिलाओं का हौसला बोलता है।

पति से मिला एचआईवी
कौशल्या पेरियासामय चेन्नई स्थित पॉजिटिव वुमंस नेटवर्क की अध्यक्ष हैं। 20 साल की उम्र में जब उनकी शादी हुई, तो वे आने वाली जिंदगी को लेकर काफी उत्साहित थीं। पर शायद भाग्य को यह मंजूर नहीं था। उनका पति एचआईवी पॉजिटिव था और किसी को इस बारे में खबर नहीं थी। 34 साल की कौशल्या पिछले दिनों को याद करते हुए बताती हैं, 'मेरी शादी के कुछ दिनों बाद मुझे पता लगा कि मेरे पति एचआईवी पॉजिटिव हैं। 1995 में शादी के कुछ हफ्ते बाद ही यह बात मुझे पता लग गई थी। मेरे पति ने शादी से पहले यह बात मुझे नहीं पता लगने दी। उस समय तक मुझे पता नहीं था कि एचआईवी क्या होता है? हालांकि मैंने नर्सिंग का कोर्स कर रखा था। मुझे बस इतना पता था कि एड्स का मतलब मौत है।' अपने पति से मिले धोखे से दुखी होकर कौशल्या अपनी नानी के घर आई गईं। उन्होंने आखिरी बार अपने पति को उस समय देखा, जब उसे पता लगा कि वह दूसरी शादी करने जा रहा है, हालांकि उनका पति दूसरी शादी नहीं कर पाया। सात महीने बाद उसकी मौत हो गई।
मकसद है चेहरे पर मुस्कान
जब उन्हें पता लगा कि उनके पति से अनजाने में वे भी एचआईवी पॉजिटिव हो गई हैं, तो उन्होंने तमिलनाडु में पैतृक निवास नामक्कल जाकर लड़कियों को इसके बारे में शिक्षित करना शुरू कर दिया। उन्होंने एड्स और एचआईवी पॉजिटिव महिलाओं के बारे में पता लगाना शुरू किया। उन्हें पता लगा कि नामक्कल में 75 फीसदी से ज्यादा विधवा औरतों के पति एचआईवी पॉजिटिव थे और लगभग 98 फीसदी महिलाओं भी अपने पति के माध्यम से एचआईवी पॉजिटिव हो चुकी थीं। ज्यादातर महिलाएं अपनी परेशानियों को किसी के साथ बांटना पसंद नहीं करती थीं। ऐसे में कौशल्या ने उन्हें जागरुक करने का बीड़ा उठाया और उन्हें एड्स और एचआईवी के बारे में अपने अनुभव लोगों को बताने की अपील की। कौशल्या ने अपनी जैसी महिलाओं को इकट्ठा करना शुरू किया और अक्टूबर, 1998 में चार महिलाओं के साथ स्वयं सहायता समूह 'पॉजिटिव वुमंस नेटवर्क' बना लिया। इसका मकसद साफ है- एचआईवी पॉजिटिव के साथ जिंदगी गुजार रही महिलाओं के चेहरे पर मुस्कान लाना। सिर्फ 18 महिलाओं को साथ लेकर शुरू किया गया नेटवर्क आज एचआईवी पॉजिटिव महिलाओं के लिए एक मंच बन चुका है। इस मंच की मदद से इन महिलाओं को जिंदगी का मुकाबला करने की ताकत मिलती है। नेटवर्क एड्स के बारे में जागरूकता के साथ-साथ बेहतर उपचार और सुविधाओं के लिए काम कर रहा है। आज कई अंतरराष्ट्रीय संगठन जैसे यूनिफेम और यूएनएड्स उनके काम को सहयोग दे रहे हैं।
समाज को सोच बदलनी होगी
कौशल्या का मानना है कि हम महिलाओं को अपनी लड़ाई खुद लडऩी है। हम मदद के लिए किसी की चौखट पर जाने की बजाय खुद अपने पैरों पर खड़ा होने में भरोसा रखती है। शुरुआत में महिलाओं को कौशल्या के साथ खुलकर अपनी आवाज बुलंद करने में झिझक महसूस होती थी, पर वे जान चुकी हैं कि महिलाओं को डरकर नहीं, लड़कर अपना हक हासिल करना होगा। राजस्थान में श्रीगंगानगर, अजमेर, टोंक, सीकर और जयपुर में इस नेटवर्क का मकसद है कि एचआईवी पॉजिटिव महिलाओं को जागरुक करे,ताकि उनसे बच्चों में यह न फैले। नेटवर्क से जुड़ी महिलाएं अपनी समस्याओं एक-दूसरे से साझा करती हैं और एड्स से जुड़ी भ्रांतियों के बारे में सच्चाई बताती हैं। कौशल्या का मानना है, 'एचआईवी पॉजिटिव महिलाओं को आज भी समाज में गलत निगाह से देखा जाता है। हम चाहते हैं कि लोगों की धारणाएं बदलें। पति के अपराधों की सजा औरत को देना गलत बात है। हम सब मिलकर समाज को बताना चाहती हैं कि एचआईवी पॉजिटिव के साथ भी जिंदगी गुजारी जा सकती है। हमें तो शुरुआत में इसके बारे में जानकारी नहीं थी, पर अब हम समाज में दूसरी महिलाओं और लड़कियों को एड्स के बारे में सचेत करना चाहते हैं।' वाकई कौशल्या का कहना सही है कि एचआईवी पॉजिटिव होने पर महिलाओं को शर्मसार होने की जरूरत नहीं है, बल्कि अपने अनुभवों से दूसरी महिलओं को जागरूक बनाने की आवश्यकता है। आज यह नेटवर्क महिलाओं की काउंसलिंग करता है और उन्हें इस बीमारी के बारे में जरूरी जानकारी मुहैया कराता है। ऐसी एचआईवी पॉजिटिव महिलाएं, जिनके पति गुजर चुके हैं, उन्हें आर्थिक रूप से मजबूत करने के लिए भी कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। महिलाओं को सरकारी योजनाओं का पूरा लाभ पहुंचाने के लिए भी यह नेटवर्क काम कर रहा है।
-आशीष जैन

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14 November 2009

रीता न जाए बचपन !

बच्चों के नाजुक हाथों को चांद-सितारे छूने दो,
चार किताबें पढ़कर वो भी हम जैसे हो जाएंगे...
निदा फाजली के इस शेर में आज की सच्चाई छुपी है। बच्चों के मन में छुपी कोमलता आज गायब है। भावनाओं की गगरी खाली होती जा रही है और उसमें जानकारी के कंकड़ बढ़ते जा रहे हैं। अब वे न चांद को मामा मानते हैं, न ही उन्हें घर के नीचे भूत नजर आता है और न ही बाबा ले जाएंगे की बात पर वे डरते हैं। उन्हें हर सच्चाई पता है। वे हर चीज को तर्क की तराजू पर तौल रहे हैं। यहां तक कि रिश्तों को भी। उन्होंने इंटरनेट पर बैठकर जमानेभर से जुडऩा तो सीख लिया, पर अपने दद्दू के पास दो पल बिताने की कला से वे अनभिज्ञ हैं, जिससे बातों-बातों में वे संस्कारों की घुट्टी पी सकें। सवाल उठता है क्या उनके इमोशंस को खत्म करके हम उन्हें इंटेलीजेंट कह पाएंगे?


'बचपन! बारिश की रिमझिम फुहारों-सा निर्मल, निश्छल , बहती नदी पर खेलती सूरज की ज्योतिर्मय किरणों- सा उज्ज्वल ... बर्फीली चादरों से ढके पर्वतों पर खिलने को आतुर नन्ही कली- सा बचपन।' आज यह बचपन कहीं गुम हो गया है। बच्चों को बड़प्पन की चादर ओढ़ा दी गई, धीर-गंभीर और श्रेष्ठता का चोला पहनते-पहनते बच्चे भूल गए हैं कि बचपना होता क्या है? आज के बच्चे बड़े सपने देखते हैं, पर आंगन में दौड़ती नन्ही गिलहरी की अठखेलियों को देखने का समय उनके पास नहीं है। वेे चांद को मामा नहीं मानते। वे कहते हैं, 'मुझे सब है पता मेरी मां!' जानकारियों के बोझ ने उनके जज्बात को लील लिया है। बच्चों को लगता है कि यही जिंदगी है। पर क्या सिर्फ नॉलेज के बल पर बचपन को संवारा जा सकता है या फिर अपने आस-पास की दुनिया से जुड़कर, कल्पनाओं को परवाज देकर, कुदरत के साथ समय बिताकर व्यक्तित्व का विकास किया जा सकता है।
क्या सिर्फ होशियारी चाहिए?
पिछले दिनों एक चैनल के किए गए सर्वे के नतीजों से पता लगता है कि आज बच्चों में समय से पहले ही एक खास तरह की समझ विकसित होती जा रही है। नई दिल्ली, मुंबई, बंगलौर, चेन्नई, कोलकाता, अहमदाबाद, हैदराबाद, लुधियाना, जयपुर, लखनऊ, गुवाहाटी, नासिक, इंदौर, कोच्चि और मदुरै समेत देश के तमाम बड़े शहरों के 4 से 14 साल की उम्र के बच्चों के बीच किए गए इस सर्वे में कई चौंकाने वाली बातें सामने आईं। सर्वे में हिस्सा लेने वाले 7 हजार से ज्यादा बच्चों को देश और दुनिया के बारे में महत्तवपूर्ण जानकारी थी। पहली नजर में यह चीज सबको अच्छी लग सकती है। आप और हम कह सकते हैं कि आज के बच्चे पहले से कहीं ज्यादा होशियार हो गए हैं। पर... इस बुद्धिमानी की वाहवाही के पीछे हम उनके बरबाद होते बचपन को नहीं देख रहे हैं। तभी तो सर्वे के दौरान 58 फीसदी बच्चों ने देश से गरीबी और भुखमरी दूर करने की चाहत जताई।
बच्चा होना अपराध नहीं!
जब बच्चों से सवाल किया गया कि 30 साल की उम्र तक वे क्या हासिल करना चाहेंगे, तो सबसे ज्यादा 90 फीसदी बच्चों ने सफल कॅरियर हासिल करने की बात कही। नतीजे बताते हैं कि बच्चे अपने कॅरियर का चयन काफी सोच-समझ कर करते हैं। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि डॉक्टर और मूवी स्टार में से चॉइस मांगने पर करीब 70 फीसदी ने डॉक्टर और सिर्फ 30 फीसदी ने फिल्म स्टार बनने की बात कही। इसी तरह लीडर और आर्मी में चॉइस मांगने पर एक तिहाई से भी कम बच्चों ने लीडर, तो दो तिहाई से ज्यादा ने आर्मी में जाने की बात कही। खास बात यह है कि लड़कियों में हाउस वाइफ बनने की कोई चाहत नहीं है। हाउस वाइफ और पाइलट में से चॉइस मांगने पर सिर्फ 12 फीसदी लड़कियों ने हाउस वाइफ बनने की बात कही।
अब अगर बच्चों को कोई बात समझाई जाए, तो वे कहते हैं, 'अब हम बच्चे नहीं है।' वे जल्द से जल्द बड़ा बनना चाहते हैं और मम्मी-पापा के सामने यह जताने की कोशिश करते हैं कि देखो, मॉम-डैड मैं बड़ा हो गया हूं। माता-पिता भी कहीं न कहीं चाहते हैं कि बच्चे जल्दी से बड़े होकर उनके सपनों को पूरा करने की रेस में शामिल हो जाएं।
कुदरत के करीब ले जाएं
आधुनिक दौर में बचपन सिकुड़ता जा रहा है। यह बच्चों की कंप्रेश्ड एज है। बॉयोलॉजिकली तो वे बच्चे ही हैं, पर उनकी मेंटली एज बढ़ती जा रही है। मीडिया और इंटरनेट से वे नित नई चीजें तेजी से सीख रहे हैं। पहले दसवीं कक्षा के बच्चे को जो चीजें पता होती थीं, वे चीजें आज चौथी क्लास के बच्चों को मालूम हैं। दरअसल पहले बच्चेे किताबों और घर के बड़े-बुजुर्गों से जानकारी हासिल करते थे। एकल परिवारों के चलते घरों में बुजुर्ग भी नहीं रहते और माता-पिता नौकरी के कारण घर से बाहर रहते हैं। ऐसे में बच्चा किताबों की बजाय टीवी और इंटरनेट से जानकारी हासिल करता है। इन सबका गहरा असर उन पर होता है। शारीरिक विकास के मुकाबले मानसिक विकास तेजी से होने पर उनमे टेंशन और अवसाद घर करने लगते हैं।
समाजशास्त्री डॉ. ज्योति सिडाना का कहना है, 'बच्चों को उनका खोया हुआ बचपन लौटाने के लिए कुछ खास कोशिशें करनी होंगी। इसके लिए स्कूलों के पाठ्यक्रम में बदलाव जरूरी है। तीसरी-चौथी क्लास में बच्चों को कंप्यूटर की जानकारी देने की बजाय उन्हें खेलना सिखाना चाहिए। उन्हें कुदरत के करीब स्वछंद छोड़ देना चाहिए। योग और एक्सरसाइज करवानी चाहिए, ताकि वे चीजों को बारीकी से समझ सकें और मशीनी न बनें। साथ ही उन्हें वीडियो गेम्स की बजाय कैरम, लूडो और पार्क में जाकर खेलने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए, ताकि उनमें सामाजिकता की भावना पनप सके।'
बोझ न बने जानकारी
अब जानकारी बच्चों के लिए बोझ बनती जा रही है। उनको अपनी क्रिएटिविटी दिखाने का ना तो समय मिल रहा है और ना ही मौका। धीरे-धीरे वे भूलते जा रहे हैं कि ये उनके खेलने-कूदने, सीखने-समझने और नादानी करने के दिन हैं। माता-पिता उन पर अपनी इच्छाएं थोपे जा रहे हैं। कंपीटीशन इतना है कि उन्हें किताबों के सिवा कुछ नहीं सूझता। इससे वे मशीनी जिंदगी जीने लगे हैं और उनका इमोशनल कोशेंट कम हुआ है।
मनोचिकित्सक आरके सोलंकी का मानना है, 'परिवार और सोसाइटी को बचपन पर बोझ लादने की बजाय उनके नैसर्गिक विकास में मदद करनी चाहिए। स्कूल भेजने की जल्दबाजी दिखाने की अपेक्षा पैरेंट्स को उनके साथ ज्यादा से ज्यादा समय गुजारना चाहिए। सामाजिक गतिविधियों में भाग लेने के लिए उन्हें प्रोत्साहित करना चाहिए। इससे बच्चे समाज में घुलना-मिलना सिखेंगे और उनका संतुलित विकास होगा।'
-आशीष जैन

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