नेता बन गए पर कुछ खास नाम नहीं किया, तो चलो मंच पर और बक दो कुछ भी उल्टा-पुल्टा। फिर देखो कमाल। चुनावी दंगल में मंगल करवाना चाहते हो, तो कोई न कोई जुगत बैठानी ही पड़ेगी। अब लोग-लुगाई कौनसा 'उनचास ओ' को जानते ही हैं, तो मचाओ धमाल।
हम लाएं हैं तूफान से कश्ती निकालके... इस देश को रखना बच्चो संभालके। रेडियो पर गाना बज रहा था। बहुत ही पुराना गीत है। बचपन से सुनते आ रहे हैं। अब क्या करें? हमने तो बहुत ही कोशिश की थी, देश बचाने की। पर हमारे भीडू लोग चाहते ही नहीं। उनका तो एक ही नारा है... अपना काम बनता और भाड़ में जाए जनता। भीड़ू कौन? अरे वो ही भीडू लोग... जो आ रहे हैं दरवज्जों पे, आपके और हमारे माथा ढोकने। हम कोई कम थोड़े ही ना हैं। डंडे को तेल पिलाकर बैठे हैं चौक में। आने दो करमजले नेताओं को। पिछली बार धोखा दिया था ना ससुर के नातियों ने। अब की बार तो पूरी लिस्ट ही बना ली है हमने भी। कब-कब और कैसे-कैसे खून चूंसा था हमारा। सारा हिसाब करेंगे। कहा था कि शहर को स्वर्ग बना देंगे और अब देखते हैं, तो पता लगता है कि मोहल्ला तक गंदगी के मारे नरक बन चुका है। नल में पांच साल पहले भी पानी नहीं आता था और आज भी बेचारा प्यासा ही है। सड़क पे उस वक्त दो गड्ढे थे और आज तो गड्ढों में ढूंढऩा पड़ता है कि आखिर सड़क है कहां। अब आप ही बताओ कि वोट दें, तो किसे दें। सब एक से बढ़कर एक धूर्त। कोई चार सौ बीसी के चलते जेल में बंद हुआ है, तो किसी के लिए खून-खराबा रोज की बात। कोई मुद्दे की बात को करते नहीं। चूं-चपड़ कितनी ही करा लो। अपने राहुल बाबा थोड़ा सा चमकने लगे, तो ससुरी बीजीपे ने अपने 'गांधी' को मोर्चा संभला दिया। बको मंच पर कुछ भी। लूट-खसूट लो सारे वोटों को। हम गरीबन के पास है ही क्या संपदा। इकलौता वोट ही तो है। ऊ भी पांच बरस में एक ही बार तो मौका मिले है। वो भी हथिया लो भई। 'काट दूंगा' अरे मुन्नालाल, राजनीति में मार-काट करने आए थे क्या? मार-काट करनी है, तो बन जाओ मुंबई के डॉन। फिर कौन रोकेगा तुम्हें? अपने पीएम इन वेटिंग आडवाणीजी को तो वे पोस्टर बॉय ही नजर आने लगा है उसमें। न जाने कब से प्रधानमंत्री बनने का सपना पाले बैठे थे। क्या मुद्दा बनाएं केंद्र की सरकार को हटाने के लिए। अब लगता है कि वापस पुराने रास्ते पर लौट ही आते हैं। अपना ही बच्चा है, वरुण। अब तक गांधियों से डरते थे, अब खुशी है कि एक 'गांधी' हमारे पास भी है। एक बात और। मुए दूर से ही अलग-अलग लगते हैं। पास जाके देखो, तो एक ही थाली के चट्टे-बट्टे। कौन सोच सकता था कि जो कल्याण सिंह कल तक बीजेपी का तारणहार दिखता था, वो आज सपा को पूजने लगगे। जो उमा भारती आडवाणी का दामन छोड़कर चली गई, वही आज बीजेएसपी से वापस बीजेपी-बीजेपी की रट लगाने लगेगी।अब तो संजूबाबा की भी फूंक निकल गई। अरे, वे खुद ही 'मामू' बन गए। अब क्या करें? ये इलेक्शन का लोचा अच्छे-अच्छे नहीं संभाल पाते, तो संजूबाबा कौनसा तीर मारते। महाराष्ट्र के सबसे बड़े गुंडे को तो आप जानते हैं ना। अरे बाल ठाकरे और कौन? आप कहेगा क्यों सबके सामने उसे गुंडा कह रहे हो? तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? अरे ये गुंडे नहीं, तो क्या हैं? बेचारी अंजलि बाघमारे। वही जो अजमल कसाब का केस लड़ने वाली थी। बोल दिया ठाकरे के गुंड़ों ने हमला। पर अंजलि कम थोड़े ही ना हैं। हिम्मत दिखाई है और हो गई हैं तैयार केस लड़ने को। ये सरेआम गुंडगर्दी नहीं तो और क्या है? टिकट देने में भी ये नेता कौनसी कसर रख रहे हैं? अभी अपन को रामप्यारे जन प्रतिनिधि अधिनियम पढ़ा रहे थे। बोले ये उनचास ओ भी कमाल है। हमने कहा ये क्या बला है? बोला गुस्सा निकालने का नया तरीका है भई। हमने पूछा- क्या होता है भई इसमें। तो बोले, भैया ये छोटी-सी धारा नेताओं की धार बदल सकती है। अगर वोटिंग मशीन में कोई उम्मीदवार पसंद ना आवै, तो नया कॉलम 'कोई पसंद नहीं' को दबा दो। यही है 'उनचास ओ'। ये तो कमाल है भई। चलो मन की भड़ास तो निकाल लेंगे। एक तो हमारे वो दोस्त हैं, जो वोट देने ही नहीं जाएंगे। अरे हम तो जाएंगे वोट देने, पर अगर कोई उम्मीदवार मन को नहीं भाया, तो 'उनचास ओ' का सहारा लेंगे जी। मेरा कहा मानो और आप भी आ जाओ आगे। इन नेताओं को छोड़ना मत। अगर अबके बख्श दिया, तो पूरे पांच साल में दर्शन होंगे। आगे आपकी मर्जी।
-आशीष जैन
29 April 2009
नेतागिरी का इलेक्शन लोचा
तेरा जूता मेरे सिर
आप अपने फटे-पुराने जूतों को संभालकर रख लीजिए जनाब। हो सकता है कि आने वाले वक्त में मार्केट में इनकी डिमांड बढ़ जाए। आपको नहीं पता, ना जाने कैसे-कैसे जूते आजकल छोटे परदे पर शोभायमान हैं।
आज फिर हमारा सपूत स्कूल से बिना पढ़े लौटा है। हमने पूछा, 'क्या हुआ लल्लू' तो वो बोला, 'पापा, स्कूल वालों को आप इतनी फीस देते हो। फिर भी उन्हें तो बस मेरे जूतों से प्यार है।' फिर रोते-रोते बोला कि स्कूल वाले कहते हैं, 'पहले ढंग के जूते पहनकर आओ। तभी क्लास में घुसने देंगे।' कुछ दिन पहले ही उसे नए जूते दिलाए थे, पर कमबख्त ने बरसात में भीगोकर खराब कर दिए। ये स्कूल वाले किसी की सुनते ही थोड़े ना है। अब मेरे पास तो पैसे हैं नहीं, जो मैं उसे नए दिलाऊं। चलो, इसी बहाने क्यों ना आपको जूता कथा ही बांच दूं। अगर कथा पसंद आए, तो सप्रेम जूते देना और बुरा लगे, तो भी जूते ही देना। मुझे तो काम ही जूतों से हैं। तो भई 21 वीं सदी में जंबूद्वीप के भारतक्षेत्र में एकाएक बात चली, स्वतंत्रता की। लोगों के हुजूम चौक-चौराहों पर इकट्ठा होकर मांग करने लगे- हम आजाद तो कई साल पहले हो गए। पर मजा नहीं आता। लगता ही नहीं कि कुछ कर पाने की हालत में हैं या नहीं। हमें अपनी बात कहने की स्वतंत्रता हासिल ही करनी होगी। नेताओं को उनकी नानी याद दिलानी ही होगी। कोई मंच पर चढ़ बैठा, तो कोई रव्डियो पर लपक लिया। अब रह गए गज्जू भैया। अरे पत्रकार गज्जू भैया। वही जो सारे शहर को उनकी बात कहने के लिए मंच उपलब्ध कराते हैं। अखबार का मंच। दीन-दुखी उन्हें लाख आशीष देते हैं। अब लोगों को कौन बताए कि खाली आशीर्वाद से आज के टाइम में होता क्या है। वो बोलते रह जाते पर उन बेचारे महाशय का दर्द कोई सुनता ही नहीं था। उनका गुस्सा जायज था। क्या करें, कब तक कलम घिसते रहें। आज तक पड़ोसी अखबार का एडीटर तक तो शक्ल से पहचान नहीं पाया। चाहे हजारों प्रेस क्रांफेंसों में शामिल हो गए। पर कोई भाव ही नहीं देता। आज मौका मिला, तो पेश कर दिया जलवा। फैंक मारा जूता। चमक गई किस्मत। अब तो हमारा रोज का जागरण ही उनके नाम से होगा। प्रणाम करेंगे, रोज सुबह जागकर उन्हें। मार्क्सवादियों की समस्या ही हल कर दी भई। अब देखिए जूता भी किसे मारा, अपने चंदू भैया को। घर वाले मंत्री को घर में ही कोई जूता मार गया। हम तो हंस-हंसके लोट-पोट हुए जा रहे हैं। अरे, शान भी तो देखिए, जूता फैंका है और इतनी मस्ती में कुर्सी पर टिके हुए हैं, मानो कह रहे हों, 'आओ अब मेरी आरती भी तो उतारते जाओ।' एक तो अपने रामजी थे। जिनके खड़ाऊं से ही भरत भैया धाप गए थे। अब तो आडवाणी बाबू भी खड़ाऊं का असर देख चुके हैं। हमारे रामूकाका ने तो अपनी पूरी उमरिया ही लिगतरों में ही गुजार दी। फिर जूती, सैंडल ना जाने क्या-क्या चीजों का फैशन ही आ गया। जवानी के दिनों में हम एक गाना बड़े चाव से गाया करते थे- मेरा जूता है जापानी...। जूतों की शान थी उस वक्त। फिर तो जूतों के लेन-देन की भारतीय परंपरा पर भी गीत बन गया जी- 'जूते ले लो, पैसे दे दो...' ये लेन-देन फिल्मों तक तो ठीक था। अब तो असल जिंदगी में भी जूते का जादू चलने लगा है। जैदी ने क्या फार्मूला ईजाद किया पॉपुलर होने का। बुश पर जूता फेंका और छा गए पूरी दुनिया में। तो फिर उनके हिंदुस्तानी भाई कैसे पीछे रहते। वो ही कलमची... वो ही जूते... वो ही प्रेस कॉफे्रंस। बस थोड़े से फेरबदल से जूता कथा का पूरी तरह से भारतीयकरण हो गया। तैयार हो गई नई चाट। तो अब घबराना मत। रोज चटकारे लगाने को तैयार हो जाओ। अब तक तो आप जूतों को यूं ही पैरों में डालने की चीज ही समझते आए हैं। पर तैयार रहना, ये घर में बीवी का हथियार हो सकता है, तो घर के बाहर भी पॉपुलरटी तो दिला ही सकता है। चलते-चलते आपको बता देते हैं कि हरियाणा में भी नवीन जिंदल साहब पर भी जूता चल ही गया। हम कहते ना थे, ये जूता शास्त्र एक न एक दिन जरूर क्रांति लाकर रहेगा और देख लीजिए अब इसकी शुरुआत भी होने लगी है। अब तो हमें लगता है कि हर बड़ी सभा के बाहर एक बोर्ड जरूर टंगा मिलेगा- आपका जूता हमारा सिर सहर्ष स्वीकार कर लेगा, पर थोड़ा-सा पहले बताकर मारिएगा।
-आशीष जैन
चट्टान को चुनौती
तेज होती सांसें... चोटी पर पहुंचने का जुनून... नीचे गहरी खाई से उठता धुआं... ऊपर खुला विशाल आसमान। ये सब नजारव् हैं रॉक क्लाइंबिंग के। चट्टान की चुनौतियां स्वीकार ली हैं, तो अब घबराने से काम नहीं चलने वाला है। सपाट चट्टान की छाती पर हौसलों के निशान बनाते हुए आगे बढ़ने का मजा ही कुछ और है। हवाएं आपको बेचैन कर रही हैं कि कब टॉप पर पहुंचेंगे। वहीं चट्टान पर रेंगते छोटे कीड़े आपको आगे लगातार बढ़ने को कह रहे हैं। दरारों से झांकती हुई काई, तह दर तह तक जमी बर्फ। कभी फिसलन तो कभी रपटन। विश्राम का कोई नामलेवा नहीं। किसी का नाम आप पुकारने लगे, तो बार-बार वही नाम चारों ओर से गूंजने लगे। ऊपर से लुढ़कते पत्थरों से घबराना भी मना है। एक बात तो इस सबमें तय है कि पहाड़ पर चढ़ने के लिए ताकत की बजाय हिम्मत ज्यादा जरूरी है। कुल्लू जिले में 13050 फीट की ऊंचाई पर स्थित रोहतांग दर्रे को रॉक क्लाइबिंग के लिए बहुत मुफीद माना जाता है। लाहौल घाटी जाने के लिए आपको रोहतांग दर्रे से होकर गुजरना पड़ता है। रोहतांग दर्रा ही कुल्लू और लाहुल को आपस में जोड़ता है। इस दर्रे का पुराना नाम है- भृग-तुंग। यह दर्रा तेजी से मौसम बदलाव के लिए भी बहुत मशहूर है। बर्फबारी के चलते अक्सर नवंबर से अप्रेल तक इस दर्रे को बंद कर दिया जाता है। यहां की चट्टानों पर चढ़ाई करते वक्त आपको चारों और ग्लेशियरों, छोटी-बड़ी चोटियों, लाहौल घाटी से बहती चंद्रा नदी और प्रकृति के मनोरम दृश्यों का लुत्फ आसानी से मिलेगा। रॉक क्लाइंबिंग के लिए कई लोग बिना किसी बाहरी मदद से उंगलियों से ही ऊपर चढ़ने की जुगत करते हैं। आजकल कई उपकरणों की मदद से रॉक क्लाइबिंग आसान हो गई है। रस्सी और जीवन रक्षक उपकरण आपको थामे रहते हैं और आप ऊपर चढ़ते जाते हैं। कमर में बंधी रस्सी के सहारे ऊपर चढ़ते हुए आपको खयाल रखना होगा कि आप बिल्कुल चोटी की बजाय मात्र दो फुट आगे ही निगाह रखें। इस तरह आप धीरे-धीरे बिना घबराए अपनी मंजिल पा लेंगे। इसके लिए शरीर में लचक होना भी बहुत जरूरी है। रॉक क्लाइबिंग में संतुलन, शक्ति और हलन-चलन पर नियंत्रण जैसी चीजों पर ध्यान रखना जरूरी है। चढ़ाई करते वक्त आपको कपड़ों और जूतों के चयन का खास खयाल रखना होगा। माउंट आबू, सरिस्का, पावागढ़, मनाली घाटी, मणिकर्ण, रोहतांग दर्रा, हंपी, दार्जिलिंग और स्पिति जैसी जगहों पर आप रॉक क्लाइबिंग की योजना बना सकते हैं।
आसमान में तैराकी
क्या आपका मन पंछियों की तरफ बेफ्रिक उड़ने का नहीं करता? क्या आप भी आसमां की बुलंदियों को छूना चाहते हैं, तो सोचिए मत, पैराग्लाइडिंग का निराला संसार आपकी बाट जोह रहा है। जिंदगी की फुल फॉर्म जाननी है, तो ग्लाइडर से हाथ मिला ही लीजिए। 50 से 60 फुट ऊंचे घने देवदार के दरख्तों से घिरा खुला लंबा मैदान हो, मैदान पर हरी मखमली घास की चादर बिछी हो, चारों ओर बादलों से ढके पर्वत हों, तो समझ लीजिए आपके पास मौका है एक नई उड़ान भरने का। आपकी आंखों के सामने एकाएक एक छतरी हवा में उड़ती है और मस्ती से नील गगन में हिचकोले खाने लगती है। छतरी के सहारे एक इंसान कभी पंछियों तो कभी बादलों से बातें करने लगता है। है ना वाकई रोमांच का दूसरा नाम- पैराग्लाइडिंग। हिमाचल की घाटियों में ये उड़नखटोले रोज नजर आते हैं। बर्फीले पहाड़ों की भव्यता में जमीन से ऊपर उठकर जमीन पर झांकने की इस कोशिश में कई लोग हिमाचल प्रदेश की कांगड़ा घाटी के बिलिंग तक पहुंचते हैं। बिलिंग पहुंचने के लिए बीड़ से होकर जाना पड़ता है। बीड़ से गुजरने के दौरान चाय के बागानों की सौंधी-सौंधी महक और बौद्ध मंदिरों की घंटियों की आवाज साफ सुनाई देती है। इस घाटी में इस साथ दर्जनों पैराग्लाइडर खड़े किए जा सकते हैं। धौलाधार पहाडिय़ों के पीछे की तरफ बनी जगह पर बनी जगह पर हवा का रुख कुछ इस तरह से रहता है कि सब कुछ आसान लगता है। धौलाधार की पहाड़ियों में आप 150 किलोमीटर के क्षेत्र में 5500 मीटर की ऊंचाई तक आराम से उड़ान भर सकते हैं। इस तैरते रोमांच में जोश, जुनून और उमंग के साथ हर वो चीज शामिल है, जो जिंदगी जीने के लिए निहायती जरूरी है। 1978 में फ्रांस में पैराग्लाइडिंग की शुरुआत हुई। वहां पहली बार एल्प्स पर्वत की ऊंचाई पर जाकर उड़ान भरी गई। हमारव् देश में यह खेल 1991 में उस वक्त आया, जब कुछ विदेशी पैराग्लाइडिंग पायलट्स ने कुल्लू घाटी में पैराग्लाइडर के सहारव् उड़ान भरने की योजना बनाना शुरू की। पैराग्लाइडिंग सीखना बस कुछ घंटों का काम है। अगर पैराग्लाइडिंग में लॉन्चिंग, टर्निंग और लैंडिंग का तरीका आपने अच्छे से सीख लिया, तो बस यकीन मानिए आपको आसमान में उड़ने से कोई नहीं रोक सकता। एक ग्लाइडर का वजन लगभग 7 किलोग्राम के करीब होता है। इसे 10 मिनट में आसानी से फोल्ड किया जा सकता है। ग्लाइडर में कपड़े से बनी दो सतह होती हैं। इन्हें सिलकर छोटे-छोटे हिस्सों में बांट दिया जाता है। आप आराम से ग्लाइडर में टिककर दौड़ लगाते हैं, इसमें हवा भरने लगती है और आप हवा में तैरने लगते हैं। इससे आप आसानी से तीन घंटे तक 15 हजार फीट की ऊंचाई से आसमान की सैर कर सकते हैं। घाटियों के जादुई सौंदर्य में पैराग्लाइडिंग का अलग ही मजा है। हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा जिले की चामुंडा पीक और बिलिंग, बिलासपुर की बंदला घाटी, मंडी की जोगिंद्रनगर घाटी और कुल्लू की सोलंग घाटी पैराग्लाइडिंग के जानी जाती हैं। वहीं मध्यप्रदेश में महू, मैसूर में चामुंडा पहाडिय़ां और बैंगलूर में कोनिकट के साथ-साथ राजस्थान में अरावली पर्वत श्रेणियां भी पैराग्लाइडिंग करने वालों की पसंदीदा जगह हैं।
कैसे पहुंचें- निकटतम रेलवे स्टेशन पठानकोट। निकटतम एयरपोर्ट गुग्गल। धर्मशाला (70 किमी.), मंडी (70 किमी.) से बसें।