18 November 2008

बड़ी खूबसूरत है ये दुनिया





मशहूर अभिनेता फारूक शेख खुलासा कर रहे हैं अपनी जिंदगी के चंद अनछुए पहलुओं का।
सिनेमा, रंगमंच और टेलीविजन के कामयाब कलाकार फारूक शेख उन चंद लोगों में से हैं जो समाज से जुड़े हर विषय पर अपनी बेबाक राय रखते हैं। उनकी आवाज में गर्मजोशी है, तो बातों में नर्म दिल होने की झलक। पिछले दिनों जयपुर आगमन पर हमने उनसे अपनी जिंदगी के बारे में कुछ खास बातें की। पेश है उनसे हुई अंतरंग बातचीत के खास अंश-




आपके लिए खुशी के मायने...।


खुशी का राज सबको साथ लेकर चलने में है। परिवार से ऊपर उठकर समाज के बारे सोचने में है। आदमी अपनी जिंदगी दुनिया या बाजार में नहीं गुजारता बल्कि दिमाग के अंदर गुजारता है। अगर दिल और दिमाग संतुष्ट है, तो हजारों अभाव होने पर भी हम खुद को खुश पाएंगे। अगर मैं यह सोचने लगूं कि पूरी दुनिया मेरी जरूरतों को पूरा करने के लिए बनी है, तो यह गलत होगा। हम दुनिया नहीं, दुनिया का एक हिस्सा हो सकते हैं। यही तसल्ली तो असली खुशी देती है।


शायर ने कहा भी है-


चमन में इख्तिलाफे रंगो-बू से बात बनती है


हम ही हम हैं, तो क्या हम हैं


तुम ही तुम हो, तो क्या तुम हो।



परिवार को कितना समय दे पाते हैं?


मेरी बीवी ही घर की गृहमंत्री हैं। हम अपनी दोनों बेटियों साहिस्ता और सना को बेहद प्यार करते हैं। बेटी साहिस्ता एक सॉफ्टवेयर कंपनी में काम करती है और सना एनजीओ से जुड़ी हुई है। जब मैं घर पर होता हूं, तो एक आम आदमी की तरह अपनी जिम्मेदारियां निभाने की कोशिश करता हूं। पर जब शहर से बाहर होता हूं, तो मेरी बीवी सब संभाल लेती है।



परदे पर और असल जिंदगी के फारूक में क्या फर्क है?


जाहिरा तौर पर एक बड़ा फर्क है। हम चाहें खुद कितने ही परेशान क्यों न हों, परदे पर अगर लोगों को हंसाना है, तो हंसाना पड़ेगा। असल जिंदगी मुश्किलों से भरी है। यहां हम अपने भावों को कितनी देर तक छुपा पाएंगे। इसलिए अपनी सोच को विशाल दायरा देकर सारी जिम्मेदारियों को समझना पड़ता है। असल जिंदगी में एक आम आदमी हूं, जो इस खूबसूरत दुनिया और इसके बाशिंदों को बेहद प्यार करता है।
छोटे परदे पर आपका शो 'जीना इसी का नाम है' बड़ा मशहूर हुआ था। आपका क्या कहना है?


यह शो मेरे दिल के करीब है। दर्शकों ने शो के लिए मुझे बहुत सराहा। शो के दौरान कई शख्सियतों के बारे में करीब से जानने का मौका मिला। अगर प्रोड्यूसर दुबारा यह शो लेकर मेरे पास आते हैं, तो मैं जरूर करूंगा।


फिल्मों से इतर आपके आदर्श कौन हैं?


गांधीजी ने मुझ पर खासा असर डाला है। उन्होंने कहा था- मेरी जिंदगी ही मेरा संदेश है। हमें भी अपनी जिंदगी को इस तरह जीना चाहिए कि दिखावे के लिए कोई जगह ना हो।


क्या आप राजनीति में आना चाहेंगे?


नहीं भई, नौजवान, शिक्षित, मेहनती और समझदार नेता ही देश की किस्मत बदल सकते हैं। मैं आम आदमी की तरह देश की राजनीति में रुचि रखता हूं, पर इसमें आना नहीं चाहता।


इन दिनों छोटे परदे पर आ रहे कार्यक्रमों के बारे में आपकी क्या राय है?


हर इक शै से जुड़ी है हर इक शै यहां


इक फूल को तोड़ो तारे का दिल हिलेगा।


छोटे परदे पर पेश होने वाले कार्यक्रमों का समाज पर गहरा असर पड़ता है। चाहे सीरियल्स हों या कोई रियलिटी शो, एक सीमा रव्खा तय की जानी जानी चाहिए। इन्हें देखकर लगता है, मानो यही हमारी संस्कृति है। बिना किसी को नीचा दिखाए भी तो लोगों को हंसाया जा सकता है। अब समय आ गया है कि दर्शकों को जागरूक हो जाना चाहिए। उन्हें प्रोड्यूसर्स को ऐसे कार्यक्रम बंद करने के लिए खत लिखने होंगे और फोन करने होंगे। गलत कार्यक्रमों के आते ही चैनल बदलना होगा। निजी चैनल लोगों की प्रतिक्रिया पर ध्यान देंगे और अपने कार्यक्रमों के स्तर को सुधारने पर मजबूर हो जाएंगे।


आज की फिल्मों के बारे में क्या कहेंगे?


भई, आजकल फिल्में भी फास्टफूड की तरह बन रही हैं। मल्टीप्लैक्स की बाढ़ के चलते फिल्में पूरी तरह प्रॉडक्ट बनकर रह गई हैं। सैकड़ों फिल्मों में से एकाध ही ऐसी होती हैं, जिन्हें हम लंबे समय तक याद रख पाते हैं। हास्य फिल्मों में फूहड़ता आ गई है, मैसेज गायब है। आज की कॉमेडी देखकर मुझे बड़ा दुख होता है। मैंने हाल में अनुपम खेर अभिनीत 'खोसला का घोसला' देखी, इस का प्रजेंटेशन मुझे बेहद पसंद आया।


लंबे अरसे के बाद आपकी फिल्म 'सास, बहू और सेंसेक्स' रिलीज हुई है...।


मेरा मानना है कि कलाकार को अपना काम पूरी ईमानदारी से करना चाहिए और फिर सारा फैसला जनता के हाथ में छोड़ देना चाहिए। अगर फिल्म फ्लॉप हो जाती है, तो कमियों पर ध्यान देकर अगली बार सुधार करना चाहिए। अब तो मैंने फैसला कर लिया है कि अगर अच्छी स्क्रिप्ट और बेहतरीन डायरव्क्टर का साथ मिलता है, तो साल में एक फिल्म जरूर करूंगा।



आपकी सहकलाकार रह चुकीं दीप्ति नवल डायरव्क्शन के फील्ड में आ गई हैं, आप भी निर्देशन करने की सोच रहे हैं...?


दीप्ति बड़ी अच्छी कलाकार हैं। अपनी फिल्म 'दो पैसे की धूप, चार आने की बारिश' में वे अपना बेहतर काम पेश करेंगी, मुझे पूरा यकीन है। और जहां तक मेरे डायरव्क्शन का सवाल है, मैं खुद को इस काबिल नहीं समझता कि मुझमें लोगों से काम निकलवाने की समझ है। मैं तो एक्टर ही ठीक हूं।


युवाओं के लिए कोई संदेश।


कभी सैलेरी के लिए अपनी सोच और ईमानदारी को मत बेचो। पैसा ही जिंदगी नहीं है। काम के लिए जिओगे, तो पैसा पीछे भागेगा। जिंदगी का मकसद सारे समाज की खुशहाली होना चाहिए। आज अगर आपको आगे बढ़ने के अच्छे अवसर मिल रहे हैं, तो कुछ काम करने चाहिए कि आने वाली पीढिय़ों को भी कुछ अच्छा हासिल हो सके।


- आशीष जैन

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दिल में धड़के हिंदुस्तान



सोनल शाह अमरीका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बराक ओबामा की खास सलाहकार बनने जा रही भारतीय मूल की अमरीकी नागरिक सोनल शाह को जानते हैं खुद उन्हीं की जुबानी-


मेरा काम मेरी पहचान है


यह नवंबर माह मेरे लिए सबसे खुशी का महीना साबित हुआ है। अब मुझे दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश अमरीका के राष्ट्रपति के साथ काम करने का मौका मिलेगा। अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा ने मुझे अपने 15 सदस्यीय सलाहकार मंडल में बतौर सदस्य शामिल किया है। यह समिति निजी और सार्वजनिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण अनुभव रखने वाले लोगों से मिलकर बनाई गई है। मैं ओबामा को प्रशासन चलाने के लिए काबिल लोगों के नामों की सिफारिश करूंगी। यह मेरे लिए वाकई गर्व की बात है। मैं एक अमरीकी अर्थशास्त्री हूं। अभी मैं गूगल डॉट ओरआरजी के साथ वैश्विक विकास दल में काम कर रही हूं। इससे पहले मैं गोल्डमैन एंड कंपनी की वाइस प्रेसीडेंट थी। वहां मैंने गोल्डमेन सोक्स की पर्यावरण संबंधी प्रोजेक्ट को पूरा करने में अहम भूमिका निभाई। मैं सेंटर ऑफ अमरीकन प्रोग्रेस में राष्ट्रीय सुरक्षा और आर्थिक नीति विभाग की सहायक निदेशक भी रह चुकी हूं। इसके साथ ही मैंने बोसनिया और कोसावो के युद्ध पीड़ित लोगों के लिए भी काम किया है और वहां से मुझे धैर्य, समर्पण जैसे कई गुण सीखने को मिले। कोई भी शख्स लगातार काम करके ही सीखता है, मैंने भी कई जगह और कई लोगों के साथ काम किया है। इसी की बदौलत आज इस मुकाम हैं।


देश के लिए जज्बात


मूलतः मैं गुजरात के साबरकांठा की हूं। मेरा जन्म 1968 में मुंबई में हुआ। सन्‌ 1970 में मेरव् पिताजी रमेश शाह गुजरात से जाकर न्यूयार्क में स्थायी तौर पर बस गए। 1972 में मैं भी अपनी मां कोकिला शाह के साथ न्यूयार्क जाकर बस गई। वहीं मेरी पढ़ाई-लिखाई हुई। मेरे भाई आनंद और बहन रूपल के साथ मिलकर मैंने 2001 में इंडीकॉप्स नाम के एक गैर सरकारी संस्था की स्थापना की। यह संस्था प्रवासी भारतीय को आपस में जोड़कर भारत में विकास के कामों में भागीदार बनाती है और भारत में डवलपमेंट प्रोजेक्ट्स के लिए भारतीय मूल के लोगों को एक साल की फैलोशिप देती है। मेरा मानना है कि देश से बाहर रहने वाले भारतीयों के मन में भी देश के लिए जज्बात होते हैं और वे हिंदुस्तान में सामाजिक कामों में भागीदारी करना चाहते हैं, पर उन्हें कोई मौका नहीं मिल पाता। इंडीकॉप्स के तहत युवा प्रवासी स्वेच्छा से भारतीय ग्रामीण लोगों की शिक्षा, जागृति, स्वास्थ्य जैसे विषयों पर एक साल तक भारत में काम करने के लिए आते हैं। इससे उन्हें ग्रामीण भारत की नई तस्वीर देखने का मौका मिलता है। सन्‌ 2003 में इंडिया एब्रोड प्रकाशन ने मुझे मेरे काम और नेतृत्व क्षमता के लिए 'पर्सन ऑफ द ईयर' घोषित किया।


आसमान छू सकते हैं


मुझे ओबामा की सोच और काम करने का तरीका बेहद पसंद है। वे बहुत स्पष्टवादी हैं। उनकी तरह मैं भी कहे हुए काम को अंजाम तक पहुंचाने के लिए प्रतिबद्ध रहती हूं। मुझे किताबें पढ़ने का बहुत शौक है और अच्छी एथलीट भी हूं। खासकर टेनिस और बॉलीबॉल तो मुझे बहुत भाते हैं। मैं स्वामी विवेकानंद को अपना आदर्श मानती हूं। वे कहा करते थे कि भयमुक्त होने पर ही इंसान कोई बड़ा काम कर सकता है। साथ ही मैं अपनी सफलता का श्रेय समाजसेवी पांडुरंग आठवाले को भी देती हूं। उन्हीं से मुझे समाज से करीब से जुड़ने की प्रेरणा मिली। मैं खुद को धन्य मानती हूं कि मुझे इतने अच्छे माता-पिता मिले, जिन्होंने सदा मेरा साथ दिया और हम काम में मेरी हौसला अफजाई की। मैं भारतीय युवाओं को हमेशा यही बात समझाती हूं कि उनमें क्षमता है बदलाव लाने की। वे समाज को एक नई दिशा दे सकते हैं। अगर आप आसमान के बारे में सोच सकते हैं, तो आसमान पा भी सकते हैं।


- आशीष जैन

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