06 October 2008

उजाला जिंदगी में


अलवर की दलित महिलाएं अमरीका के मशहूर स्टैच्यू आफ लिबर्टी के नीचे खुशी की इजहार करते हुए।



अंधेरी रात में जिस तरह एक नन्हा सा सितारा आसमान को रोशनी से लबरेज कर देता है। उसी तर्ज पर राजस्थान के अलवर और टोंक जिले की मैला ढोने वाली महिलाओं ने भी अब इस कुप्रथा को छोड़कर अपनी जिंदगी को खुशियों से लबरेज कर लिया है।
कुछ लोग जिंदगी में सब कुछ सह लेते हैं जबकि कुछ बदलाव का बीड़ा उठाते हैं। उन्हीं में शुमार हैं राजस्थान के अलवर और टोंक जिले की मैला ढोने वाली दलित महिलाएं। आज वे सदियों पुरानी बेड़ियों को उतारकर फैंक चुकी हैं और अपनी आगे की जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए जुटी हैं। उनके सूने जीवन में रोशनी की किरण लेकर आई सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गेनाइजेशन की 'नई दिशा'। 'नई दिशा' ने सही मायनों में इन दलित महिलाओं के जीवन को नई दिशा दी है।
'नई दिशा' से जुड़कर ये महिलाएं आत्मनिर्भर बनने के लिए सिलाई, कढ़ाई, फूड प्रोसेसिंग, ब्यूटी केयर, सॉफ्ट टॉयज और बत्तियां बनाने का प्रशिक्षण ले रही हैं। नई दिशा ट्रेनिंग कम प्रोडक्शन सेंटर से इन महिलाओं की ओर से तैयार सामान गुड़गांव, अलवर और तिजारा के बाजारों में जाता है। इसके अलावा दिल्ली से आयात किए कपड़े आते हैं, जिन पर ये महिलाएं कढ़ाई का काम करती हैं। यह सामान विदेशों में भी निर्यात किया जाता है। संस्था इन महिलाओं को 2 हजार रुपए मासिक भत्ता भी देती है।


गुमनामी से रैंप तक का सफर
हाल ही न्यूयार्क स्थित जनरल एसेंबली में दो जुलाई को आयोजित कैटवॉक में अलवर की इन दलित महिलाओं को शामिल होने का अवसर मिला। वहां 36 महिलाओं के समूह में से 11 महिलाओं ने भारत के मशहूर मॉडलों के साथ रैंप पर कदम से कदम मिलाते हुए कैटवॉक किया। इस आयोजन की तैयारी इन महिलाओं ने काफी पहले से शुरू कर दी थी। कैटवॉक के दौरान पहनी कारीगरी की गई बॉर्डर की नीली साड़ियां माइकल जैक्सन के कपड़े डिजाइन करने वाले फैशन डिजाइनर अब्दुल हल्दार की देखरेख में तैयार किए गए।



होंगे कामयाब एक दिन
न्यूयार्क में अपनी सफलता का परचम लहराकर दुनिया में भारत का नाम रोशन करने वाली ये महिलाएं वहां से लौटने के बाद आत्मविश्वास से लबरेज हैं और भविष्य संवारने के मकसद से उन्होंने अपने-अपने हुनर के दम पर काम को आगे बढ़ाने की ठान ली है।

हमने कर दिखाया
अब हम सभी अपना अलग व्यवसाय खोलना चाहती हैं। ब्यूटी केयर का प्रशिक्षण लेने के बाद मैं भी अपनी अन्य बहनों के साथ मिलकर अपना ब्यूटी पार्लर खोलना चाहती हूं। प्रेसीडेंट के पद पर होने के नाते मैला ढोकर जीवन बिताने वाली देशभर की अन्य महिलाओं को इस घृणित कार्य से मुक्ति दिलाने का प्रयास करूंगी।
- उषा चौमर, प्रेसीडेंट, सुलभ इंटरनेशनल मिशन फाउंडेशन, अलवर



सिलाई और कढ़ाई से लेकर साड़ियों और सूट पर सितारे सजाने का काम मुझे अच्छा लगता है। अब मैं अपना बुटिक खोलना चाहती हूं। किसी नए काम को शुरू करने में परेशानी तो आएगी, पर हम भी पूरी तरह से तैयार हैं।
- लक्ष्मी नंदा, अलवर

सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक डॉ. बिंदेश्वर पाठक से बातचीत के कुछ अंश-
- आपको इन दलित महिलाओं को मैला ढोने जैसी कुप्रथा से छुटकारा दिलाने की प्रेरणा कहां से मिली?
यह तो गांधीजी का सपना था। हमने तो बस प्रयास किए हैं। कुछ समय पहले अलवर जाना हुआ, वहां कुछ महिलाओं को सिर पर मैला ले जाते हुए देख बहुत दुख हुआ। उनसे बात करने की कोशिश की, तो शुरुआत में कोई भी तैयार नहीं हुई। सबने चेहरे पर लंबा घूंघट डाला हुआ था। काफी समझाने पर इनमें से एक बात करने के लिए तैयार हुई।



-पर क्या अपने काम को छोड़ देने के लिए वे सहजता से तैयार हो गई?
जब इस काम के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने स्वीकारा कि यह काम गंदा और अपमानजनक है। लेकिन काम नहीं किया, तो खाएंगे क्या? इस पर हमने कहा कि खाना हम देंगे, तुम काम छोड़ दो। काफी समझाने पर सब तैयार हो गईं।



- इसके बाद आपका अगला कदम क्या रहा?
इन महिलाओं के लिए अलवर शहर में ही सुलभ इंटरनेशनल की ओर से संचालित 'नई दिशा' नामक सेंटर खोला गया। शुरुआत में तीन महीनों तक नकद राशि दी गई और साथ में इनको शिक्षित करना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे इन्हें संस्था में ही सिलाई, कढ़ाई, ब्यूटी केयर, अचार, पापड़ आदि का प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया।



भविष्य के लिए क्या योजनाएं हैं?
इनके समूह में तीन तरह की महिलाएं हैं। पहली वे, जिनमें नेतृत्व की क्षमता है। ऐसी महिलाएं भविष्य में अपना कामकाज ठीक से संभाल लेंगी। दूसरी ऐसी महिलाएं हैं, जो नौकरी कर सकने योग्य हैं। इन महिलाओं को उनकी रुचि के अनुसार अन्य जगहों पर बतौर प्रशिक्षण नौकरी के लिए भेजा जाएगा, जिसका खर्चा सुलभ वहन करेगा। तीसरी वे महिलाएं हैं, जो केवल सामान तैयार कर सकती हैं, लेकिन बेच नहीं सकतीं। इनके लिए सामान बेचने के लिए मार्केटिंग आदि की व्यवस्था की जाएगी। इसके साथ ही दलित परिवारों के बच्चों के लिए 1 अप्रेल 2009 तक स्कूल की योजना है और पतियों को रुचि के आधार पर ड्राइविंग, बिजली आदि प्रशिक्षण दिए जाने हैं।


...और एक नया कदम
केंद्र सरकार के एक आकलन के मुताबिक भारत में 3.42 लाख लोग सिर पर मैला ढोने के काम से जुड़े हुए हैं। इनके लिए सन्‌ 2007 में सरकार ने प्रधानमंत्री स्वच्छकार पुनर्वास एवं प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू किया। इस कार्यक्रम को राजस्थान में अनुसूचित जाति एवं जनजाति वित्त एवं विकास निगम संचालित करता है। अलवर में 'सुलभ इंटरनेशनल' के 'नई दिशा' कार्यक्रम की सफलता को देखते हुए निगम ने टोंक में भी 190 महिलाओं को स्वरोजगार प्रशिक्षण देने का जिम्मा सुलभ इंटरनेशनल को सौंपा। निगम की महाप्रबंधक शुचि शर्मा के मुताबिक राजस्थान में पुनर्वासित करने योग्य हथ सफाईकर्मी लगभग 1326 हैं। मार्च, 2009 तक इन सभी को पुनर्वासित करने की योजना है। निगम हथसफाई कर्मियों को मैला ढोने का काम छोड़कर दूसरा काम शुरू करने के लिए ऋण भी देता है।
अलवर की तर्ज पर सुलभ इंटरनेशनल ने टोंक में वहां के मशहूर नमदों के निर्माण, आरी-तारी साड़ियां और सिलाई-कढ़ाई का प्रशिक्षण देना शुरू किया। सुलभ इंटरनेशनल की सलाहकार सुमन चाहर के मुताबिक कई टीमों ने उन लोगों की काउंसलिंग की। उन्हें मैला ढोने के काम को छोड़ने के लिए तैयार किया। आज वे खुद अपने पैरों पर खड़ी हैं और कमा रही हैं। टोंक के 'नई दिशा' सेंटर पर साक्षरता कार्यक्रम, साफ-सफाई, टीकाकरण और बैंकिंग के बारे में जानकारी दी जाती है। सुबह 9 बजे से 4 बजे तक प्रशिक्षण दिया जाता है। यह एक साल का प्रशिक्षण कार्यक्रम है। इस दौरान उन्हें एक हजार रुपए प्रतिमाह भत्ता भी दिया जाता है। कमाई की बचत के गुर भी सिखाए जाते हैं। समय-समय पर महिला उत्पादों की प्रदर्शनी भी लगाई जाती है। इन लोगों की मॉनिटरिंग भी की जाती है कि परिस्थितिवश ये दुबारा मैला ढोने के काम से तो नहीं जुड़ गई हैं।

मेरा नाम- मेरा काम
मैंने 'नई दिशा' में आरी-तारी और कशीदे का काम सीखा है। पहले मुझे घबराहट होती थी कि कैसे इस नए काम को सीख पाऊंगी। पर अब सारा काम मैं बहुत सफाई से करती हूं। अभी मुझे 6 माह का ही समय हुआ है, पर अब लगता है कि खुद के बूते कुछ कर रही हूं। अब तो घर वाले भी साथ देते हैं। सेंटर पर काम का ऑर्डर आता है, इससे आय में भी इजाफा हो रहा है।
- सुनीता, उम्र 27 वर्ष, टोंक



मैंने नई दिशा से सिलाई का काम सीखा है। इसकी बदौलत अपने तीन बच्चों को पाल रही हूं। अब मैं वापस उस घृणित काम को करना नहीं चाहती। समाज में महिलाओं की स्थिति बदल रही है। ऐसे में हमें मौका मिला है, तो हम भी बता देना चाहते हैं कि हम किसी से कम नहीं। अब हमारे काम को लेकर कोई हमसे घृणा नहीं कर सकता।
- उगंता, उम्र 32 वर्ष, टोंक




-आशीष जैन के साथ अलवर से ऋचा माथुर

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