18 June 2009

गंदी, मंदी और नजरबंदी

बचपन से ही हमें एक अजीब किस्म का शौक है। हम खाली टाइम में कॉपी और पेन लेकर नए-नए शब्दों से खेलते रहते हैं। कभी कुछ बनाते हैं, कभी कुछ मिटाते हैं। कभी समय मिले, तो घर आइएगा, सारी दीवारें इन्हीं कारस्तानियों का नमूना दिखाई देंगी। राम को टाम बना दिया। रावण को चांवण बना दिया और फिर उनका अर्थ खोजने लग जाते हैं। हमें हमेशा से अक्षरों से मिलकर शब्द और शब्दों से मिलकर वाक्य बनाने की प्रक्रिया को कौतुकता से देखने का शौक है। अब हमें लगता है कि वाकई शब्द ब्रह्म होता है। नहीं तो क्या कभी ऐसा होता है कि कुंती की बिंदी हटते ही ये शब्द एक गाली नजर आने लगे। दादाजी में से जी शब्द हटाते ही गली के गुंडे की याद आने लगे। राम, काम, नाम... बड़ा, कड़ा, लड़ा... एक अक्षर बदलने से पूरा मतलब ही बदल जाता है। शब्दों में वाकई बड़ी ताकत होती है।

इसी तरह इन दिनों एक शब्द 'दीÓ हमें बड़ा परेशान किए हुए है। दी ने पूरी दुनिया का जीना हराम कर रखा है। दरअसल हम शुरू से मानते थे कि हमारी वाइफ बड़ी गंदी है। ना तो घर में सफाई, ना बातों में सच्चाई और दिल में सफाई। जब बोलेगी, कुछ गंदा ही बोलेगी। अब सोच रहे होंगे कि हम अपनी ही धर्मपत्नी के सरेबाजार बुराई कर रहे हैं। पर ऐसा नहीं है कि उसके जन्मजात दुश्मन हैं। हम क्या करें, उसके अत्याचार दिलोदिमाग में घूम-फिरकर जुबान से ही तो निकलेंगे। अगर हम झूठ बोलते हैं, तो किसी भी वक्त सप्रेम हमारे घर आकर देख लीजिए। अपने आप समझ में आ जाएगा। वैसे चीजें तो और भी कई गंदी होती हैं, पर हमें तो गंदी का एक ही अर्थ नजर आता है- हमारी बीवी। अब कई लोग दीदी को शार्ट फॉर्म में दी कहने लगे हैं। तो ये ममता दी कौनसा भला करने वाली हैं। देख लीजिएगा, अगले रेल बजट में किराया बढ़ाकर ही दम लेंगी। ये उनका कसूर नहीं है, ये तो उन्हें दी... दी... पुकारने वालों का दोष है।
दी का काला जादू आज पूरी दुनिया पर चढ़ चुका है। अब मंदी को ही देख लीजिए। मंदी ने क्या कहर ढहा रखा है। कसम से सारे कॉन्फिडेंस का तेल निकाल कर रख दिया है। पहले हमें लगता था कि नौकरी हमारे पीछे घूमती है। पर आज हमें लग रहा है कि कहीं मंदी की चपेट में आ गए, तो लोगों को कई सालों के बाद डायनासोर की तरह हमारे अवशेष ही मिल पाएंगे, वो भी आधे-अधूरे। अमरीका के युवाओं की तो वैसे ही बोलती बंद है। कुछ भी करने को तैयार हैं नौकरी के लिए। चाहें तो इस वक्त आप उनसे अपने घर की सफाई भी करवा सकते हैं। मंदी की रेल बड़ी सरपट चली, सबका मुंह बंद है। ऐसे लगता है कि खाना तो है, पर पानी गायब है। भोजन पचता ही नहीं है। क्या काम करें, सूझता ही नहीं है। क्या कोई अमीर सेठ हमारी फरियाद सुनकर हमें मक्खी मारने के धंधे में लगा सकता है क्या। इन दिनों मक्खी मारने में महारत हासिल कर ली है। जब भी मंडी जाते हैं, तो मंदी याद आती है। मंडी में आम है, अंगूर हैं, पपीते और चीकू भी हैं। हम उन्हें हाथ में लेते हैं, तो वे कहते हैं कि अबे हमें ले चल अपने घर। पर हम तो सिर्फ उनकी खुशबू ही घर तक ले जा पाते हैं। जेब में पुराने कागजों के सिवा बचा ही क्या है। जेब भी सोचती होगी कि कैसा मालिक मिला है, महीनों से सौ की नोट की गंध तक नहीं लेने दी।
अब तो बस एक लाल नोट ही ऊपर ही जेब में रखा रहता है, लाल नोट मतलब बीस का नोट और क्या। कल रात को जब घर लौट रहे थे, तो एक गुंडे ने पकड़ लिया। कसम से उसको हमारी मंदी पर इतना दर्द आया कि पूरे हफ्ते की वसूली हमें दे दी। इन दिनों उसे से तो जिंदगी कट रही है। ऐसा नहीं है कि हम जन्मजात भिखारी थे। वो तो बॉस की नजर लग गई। बॉस ने ऑफिस में ही नजरबंद करके रख दिया था। पास के पान वाले के गुटखा खाने जाता, तो टोक देते थे। हमने भी कह दिया कि लानत है, ऐसी नौकरी से। ठोकर मार दी नौकरी को। हमें क्या आंग सान सूकी, समझकर नजरबंद ही रखोगे क्या। वो म्यांमार हैं भाईजान। जुंटा तो जी-जान से जुटा है कि सूकी को जेल में सड़ा-सड़ाकर मार डाले, पर सूकी भी तो गांधीजी की पक्की चेली है। उससे बढिय़ा सत्याग्रह भला कोई कर सकता है। लोकतंत्र की हिमायती ऐसी महिला को देखकर ही तो हमने भी ऑफिस में विद्रोह किया था। अब हम भी सूकी की जमात में शामिल हो गई हैं। हमें अब कोई डर नहीं है। सूकी ही हमारी रक्षा करेगी। अब हम पहले से थोड़ा ज्यादा निर्भीक हो गए हैं। अब हमें मंदी, नजरबंदी या हमारी गंदी वाइफ कोई नहीं डरा सकता।
-आशीष जैन

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17 June 2009

बेटी पर फख्र है

धारावाहिक 'सबकी लाडली बेबो' में पिता का किरदार निभाने वाले कंवलजीत बता रहे हैं पिता और बेटी के अनोखे रिश्ते के बारे में -
मेरे लिए बेटियां ईश्वर का वरदान हैं। बेटों के लिए अक्सर कहा जाता है कि बेटे तब तक ही बेटे हैं, जब तक कि बीवियां नहीं आतीं, जबकि एक बेटी ताउम्र अपने पिता का साथ निभाती है। मेरी बेटी मरियम गॉड गिफ्टेड है। दिल्ली में शूटिंग के वक्त 8 साल की उम्र में नन्ही मरियम ने मुझे कुक्कू अंकल कहकर पुकारा। मैं उसे घर ले आया, बाद में वो मुझे डैड कहने लगी। अभी वो अमरीका में है।

जब किसी घर में बेटी होती है, तो पिता खुशी से फूला नहीं समाता। वही बेटी आगे जाकर किसी की मां, बहन या बीवी बनती है, ऐसे में सबको उसकी इज्जत करना सीखना चाहिए। लड़की घर में होने पर पिता को उसे पूरी तरह सुरक्षा का एहसास देना चाहिए। मैं अपने दोनों बच्चों सिद्धार्थ और आदित्य को भी यही सिखाता हूं कि लड़कियों का पूरा रेस्पेक्ट करना चाहिए। साइकॉलोजी के हिसाब से देखें, तो बेटी के सबसे करीब उसका पिता होता है। बेटी की सबसे ज्यादा चिंता एक पिता को ही होती है। जब तक वह शादी करके उसे विदा नहीं कर देता, वह बेटी के भविष्य को लेकर चिंतित रहता है। मेरे कोई बहन नहीं थी, इसलिए मुझे पता नहीं था कि किस तरह एक भाई अपनी बहन की हिफाजत के लिए परेशान रहता है।
परदे पर बेटियों को ज्यादा लाड़ दिया जाता है, क्योंकि मेरे मानना है कि ऐसा करने से लोगों के पास संदेश जाता है कि बेटियां भी बेटों की तरह ही हैं। लोग बेटों के पीछे पागल होने की बजाय बेटियों को ही पढ़ा-लिखाकर अपने पैरों पर खड़ा करें। एक पिता को मैं यही राय देना चाहता हूं कि अपनी बेटियों की पढ़ाई पर पूरा ध्यान दें। उसके शौक को मरने ना दें, फिर देखिए वो अपना नाम ऊंचा करके रहेगी। आज जमाना ऐसा है कि अगर लड़कियां शादी करके ससुराल भी चली जाएं, तो घर-गृहस्थी के साथ अपना कॅरियर भी संवार लेती हैं। इसलिए लड़कियों को पूरी शिक्षा का हक मिलना ही चाहिए। जहां तक दहेज जैसी समस्या की बात है, तो अब तो लड़कियां इतनी होनहार हो गई हैं कि लड़की के पिता को अपनी बेटी की शादी के लिए लड़कों से दहेज लेना चाहिए। मैं तो लड़कियों से यही कहना चाहता हूं कि अपने ऊपर भरोसा रखो, डरो मत, आगे बढ़ो, तुम्हारे पापा तुम्हारे साथ हैं।
-आशीष जैन

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16 June 2009

कसम से कोई सगा नहीं

पता नहीं आजकल हमें हो क्या गया है? कहीं मन नहीं लगता। मन करता है कि किसी दूसरी दुनिया में चलें जाएं। चारों तरफ परेशानी ही परेशानी है। बीवी मायके गई है। खाने तक के लाले पड़ गए हैं। ऊपर से घर की बिजली हमेशा गुल रहती है। ये सब सोचते-सोचते हमें लगा कि आज तो हम अपने दोस्त कन्फ्यूजन सिंह के घर ही हो आते हैं। कन्फ्यूजन की सबसे बड़ी समस्या है कि वह खुद तो कन्फ्यूज रहता ही है, हमें भी कान फ्यूज कर देता है। मतलब उसकी बातें सुन-सुनकर हमारे कानों में दर्द होने लगता है। वैसे भी उसकी बातें बेसिर-पैर की ही होती हैं। कभी कहता है कि मैं पानी में आग लगा सकता हूं। कभी कहता है कि भ्रष्टाचार मिटाने का फार्मूला है मेरे पास। कभी-कभी तो कहता है कि मैं सबके मन की बात जान सकता हूं।

अब तो मैंने ठान ही लिया कि उसकी सच्चाई जानकर रहूंगा। वैसे भी आधा बावला वो खुद नजर आता है और रही-सही कसर उसकी बातें पूरी कर देती हैं। मैं उसके घर पहुंचा और पूछने लगा कि चल बता इस वक्त मेरे मन में क्या चल रहा है? तो बोला, 'अभी तो तू मुझे गालियां दे रहा है और सोच रहा है कि आज इसकी सच्चाई पता लगाकर रहूंगा।Ó मैं तो भौचक्का रह गया। मैंने पूछा कि मेरे मन की बात कैसे जान गया तो उसका जवाब था- टैलीपेथी से। 'अरे ये क्या बला है? टेलीविजन का विकसित रूप है क्या?Ó 'नहीं यार, तू बस इतना समझ ले कि जादू है जादू।Ó
हमने सोचा, 'हमें इससे क्या? हम तो इसे दूसरों की सच्चाई पता करने में इस्तेमाल करेंगे?Ó हमने पूछा, 'चल बता, तेरी भाभी मतलब मेरी बीवी उबटन, इस वक्त पीहर में बैठी-बैठी क्या सोच रही है?Ó कन्फ्यूजन बोला, 'उबटन भाभी तो अभी टीवी देख रही है और सोच रही है कि कैसे पति के पल्ले पड़ गई, जो मुझे मायके में छोड़कर खुद मजे उड़ता है। वो तुझ पर शक करती है और सोचती है कि जरूर तेरा किसी दूसरी औरत के साथ चक्कर है, तभी मुझे मायके छोड़ रखा है। इसीलिए वो तेरी पड़ोसन मंथरा को फोन करके तेरी जासूसी करती है।Ó यह सुनकर तो हमारे होश फाख्ता हो गए। हमने कहा कि तू सच तो कह रहा है ना। वो बोला, 'सोलह आना सच बोल रहा हूं मेरे दोस्त।Ó एक बारगी तो हमने उसे भी शक की निगाह से देखा, पर अगले ही पल हमें अपनी पड़ोसन मंथरा याद आ गई, जो वाकई मौके-बेमौके मेरे घर के इर्द-गिर्द पाई जाती है। जब मैं उसे टोकता हूं, तो कहती है कि भाईसाहब घर में चीनी खत्म हो गई थी, सो मैं तो आपसे चीनी लेने आ रही थी।
अब जब बात चली थी, तो मैंने सोचा क्यों ना अपने बॉस उघाड़मल की सच्चाई भी पता कर लूं। जब मैंने अपने बॉस के मन की बात जाननी चाही, तो कन्फ्यूजन सिंह बोला, 'भई देखो, वैसे तो तुम्हारा बॉस बड़ा नेक दिल है, पर अभी मंदी के दौर में वो तुम पर टेढ़ी निगाह रखे हुए है। वो वैसे तो भोला कबूतर है, पर इन दिनों मंदी के चलते उसमें बिल्ली की आत्मा घुस गई है। वो घात लगाकर बैठा है कि कब तुम गलती करो, कब वो तुम्हें बर्खास्तगी का लैटर थमाए। यूं तो और लोग भी उसकी निगाह में थे, पर उन्होंने तो बॉस को मक्खन लगाकर अपनी कुर्सी बचा ली। पर तुम चूक गए। कल-परसों तुम्हें नौकरी से हमेशा के लिए छुट्टी मिलने वाली है।Ó अब तो कन्फ्यूजन ने वाकई हमें कन्फ्यूज कर दिया था। वाकई इन दिनों बॉस का बर्ताव हमारे प्रति बदल गया था। अब वो हमारी हर गलती पर मुस्कारता है। कभी-कभी तो हमारे हाल-चाल भी पूछ लेते हैं। पहले तो बिल्कुल शांत रहता था। इन दिनों ही ज्यादा फडफ़ड़ा रहा है। मतलब साफ है कि कन्फ्यूजन के कहे मुताबिक वो मुझे नौकरी से निकालने की पूरी बिसात बिछा चुका है।
अब जब पूरे का पूरा आसमान खुद पर गिरता दिख रहा था, तो हमने कन्फ्यूजन से पूछा कि तू ये तो बता कि मेरी गर्लफ्रैंड चिंचपोकली तो मेरे साथ ही रहेगी ना। इस बात पर कन्फ्यूजन हंसने लगा और बोला, 'तू भी क्या चिंचपोकली के पीछे पड़ा हुआ है। इतनी अच्छी उबटन भाभी है और तू कॉलेज के जमाने की महबूबा पर ही जान छिड़कता है। पर अब चिंचपोकली तेरे झांसे में नहीं फंसने वाली। थोड़े ही दिनों में उसे पता लगने वाला है कि तेरी शादी हो चुकी है। फिर अब तेरी नौकरी जाने के बाद तो उस पर पैसे भी नहीं उड़ा पाएगा, तो फिर वो तुझे ठोकर मारकर आगे बढ़ जाएगी।Ó अब तो हमारी जान गले तक आ चुकी थी। हम सोच रहे थे कि कन्फ्यूजन को हम यूं ही बेवकूफ समझते थे। अब हमें याद आया कि क्यों चिंचपोकली हर मुलाकात में हमारे पर्स की तरफ दौड़ती थी। उसे तो है ही पैसों से मतलब। सोचते-सोचते मेरी हार्टबीट बढऩे लगी। डर के मारे मुझे चक्कर से आने लगे। कन्फ्यूजन सिंह बोला, 'अरे, क्या हुआ? तूने ही तो कहा था सच्चाई बता।Ó मैं निस्तब्ध और एकदम शांत सोच रहा था कि मैं इसके पास आया ही क्यों? इसकी टेलीपेथी इसी को मुबारक कर देता। अब होशियारी के चक्कर में मैं परेशान होता रहूंगा और मेरी पत्नी, नौकरी और महबूबा तीनों मेरे हाथ से निकल जाएंगी। मेरे धन्य हो टेलीपेथी विद्या।
-आशीष जैन

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15 June 2009

मियां गुमसुम और बत्तोरानी का तबादला

या खुदा, ये दिन किसी को देखना ना पड़े। सब हंसते-खेलते रहें, तो मन को अच्छा लगता है। हम तो चाहते हैं कि इस झुलसती गर्मी में किसी भी प्राणी मात्र को कोई भी वेदना ना झेलनी पड़े। जीते-जी मरन का सा एहसास होने लगता है। छुईमुई से चेहरों की हवाइयां सी उड़ जाती हैं। सारे कसमें-वादे अधूरे से रह जाते हैं। जिंदगी अधरझूल सी लगने लगती है। ऐसा लगता है कि खाना खाते-खाते मुंह में कंकड़ आ गया हो। सारा स्वाद किरकिरा हो जाता है। अब क्या बताएं कल तक अपने ऑफिस में बादशाह की तरह थे मियां गुमसुम और बत्तोरानी।

जो उन्होंने कह दिया, कर दिया, वही सबके सिर-माथे। किसी की क्या मजाल, जो उनके काम पर उंगली तो उठाए। जो यह गलती करता था, वो तो समझो गया काम से। उसका तो जीना हराम हो जाता था। सौ बातें सुननी पड़ती थीं और रहते वही थे ढाक के तीन पात। रहो बेटा, कुढ़ते। खुद काम करते रहो और उनको फायदे की मलाई खाते देखते रहो। काम में कोई गलती हो जाए, तो हमारे सिर और तारीफ सारी उनके खाते में। गधे की तरह पिदें हम और घोड़े की तरह घास चरें वो। उनकी हर बात को खुदा की सलाह की तरह मानकर दिन-रात घुसे रहते थे अपने काम में। हमें लगता था कि यही है जिंदगी। हम सोचते थे कि ये ही हमारे तारणहार हैं। पर उन तारणहार की तो खुद की ही किश्ती डूब गई। किसी ने कहा है ना कि खुदा मेहरबान तो गधा पहलवान। तो हम भी कौनसे सदा के लिए गधे रहने वाले थे। वो खिसक लिए और हम जम गए। खुदा कसम, शुरू में अखबार में ये मंदी-मंदी सुनकर हमें डर नहीं लगता था। सोचते थे कि ऐसा भी कहीं होता है कि अमरीका में मंदी और फर्क पड़े हमारे देश पर। नौकरियां जा रही हैं, तो जाएं। अमरीका से हमें क्या वास्ता। पर जब अपन के देश को ये बीमारी लगी, तो गाज तो अपने साथी लोगों पर ही आकर गिरी। उनका तबादला हो गया। हमें लगा कि ये क्या हुआ, गाज तो हम पर गिरनी चाहिए थी। सबकी नजर में गधे तो हम ही थे ना। पर मंदी की मार तो सारे घोड़ों को ले मरी। किसी को कहां फेंका, किसी को कहां। कोई जंगल में डाल दिया गया, तो किसी को बार्डर एरिया मिल गया। अब चरो बैठकर आराम से घास। कसम ऑफिस में चलते कूलर और पंखों की। आज तक हमने कभी उनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं देखी। उन्हें देखकर लगता था कि क्या कूल लाइफ है इनकी। काम की कोई टेंशन ही नहीं और एक हम हैं कि कूलर के सामने बैठकर भी पसीने में तरबतर रहते हैं। काम की टेंशन के चलते हांफते हुए कुत्ते बन जाते हैं। कसम से जब वे जा विदाई ले रहे थे, तो हमने कइयों की आंखों में आंसू तक देखे हैं। कुछ का उनसे स्नेह का संबंध का था, तो किसी का वास्ता प्यार के रिश्ते से। अब कैसे दिन कटेगा। हमारे मियां गुमसुम और बत्तोरानी तो अब विदा हो रहे हैं। मियां गुमसुम का चेहरा देखकर हंसी के फव्वारे छूटते थे और बत्तोरानी की बातें हमारे चांद-सितारों की सैर करा देती थी। ऑफिस में उनके बिना तो 'बिन पानी सब सूनÓ वाली कहावत चरितार्थ हो जाएगी। गम तो हमें भी था कि इतने दिनों हमारे साथ काम किया, अब एकदम से सारा काम हमें ही करने पड़ेगा। पर हमें यह ज्यादा लग रहा था कि जान बची, तो लाखों पाए। वे तो समझ नहीं पाए कि कब, क्यूं और कैसे ये हुआ। कल तक तो सब सही था। फिर एकदम से घंटी बजी और ट्रांसफर का लैटर हाथ में। मन ही मन सोचने लगे, 'कहां कमी रह गई, सारी सेटिंग तो ठीक थी। कोई बयानबाजी नहीं, कोई हंसी-मजाक नहीं। सोचा था कि ये सारी खुराफातें तो तबादलों के दौर के बाद में कर लेंगे। बॉस की भी खूब चापलूसी की थी। हो ना हो, जरूर किसी ने हमारी शिकायत की है।Ó इन सब बातों के बीच में वे ये भूल गए कि ये जो बॉस नाम की जीव होता है, वो यूं तो हमेशा आपकी तारीफ करेगा, हमेशा मुस्कराता रहेगा, पर जब आखिरी दांव लगाना पड़ेगा, तो निखट्टुओं को ही आगे करेगा। उसे पता है कि अगर गधों की तरह पिदने वालों को बाहर भेज दिया, तो फिर ऑफिस का काम कौन करेगा। दरअसल हमें हमारे गुरु ने पहले ही एक मंत्र दे रखा था कि ये बॉस नामक जीव कभी किसी का सगा नहीं होता। अगर वो आपकी तारीफ नहीं कर रहा, तो घबराने की जरूरत नहीं है। भई, ये बॉस चिंघाड़ते मतलब बोलते तब ही हैं, जब आपसे कोई गलती हो गई हो। तो भाईजान, हम तो तबादलों की चक्की में पिसने से बच गए। पर मियां गुमसुम और बत्तोरानी अपने गमजदा चेहरे पर हंसने की भाव-भंगिमा बनाकर हमें यह दिखाने की कोशिश कर रहें कि लल्लू, हमारे ऊपर कोई असर नहीं पड़ता, हम तो जहां जाएंगे, वहां एक नया चमन बना लेंगे।
-आशीष जैन

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नया नवेला आइडिया

हमारे एक परम मित्र हैं, गफलत कुमार। वे हमेशा इसी गफलत में रहते हैं कि वे कुछ नया करने वाले हैं। उनका तो तकिया कलाम बन चुका है- हम कुछ नया करने वाले हैं। देश-दुनिया से जब भी किसी नाम काम या किसी नए आविष्कार की खबर आती है, तो वह चहक उठते हैं और बोलते हैं कि देखो, हमारी बिरादरी के लोग बढ़ते जा रहे हैं और नए-नए कामों को अंजाम दे रहे हैं। हम उसे बस देखते रह जाते हैं और वो अपनी हर पुरानी चीज पर नए की मोहर लगाकर सबको उल्लू बनाते रहते हैं। नया-नया चिल्लाने से कोई चीज नई नहीं हो जाती है।

नई चीज पाने के लिए मेहनत करनी पड़ती है और ये ही एकमात्र चीज है, जो गफलत कुमार से कभी नहीं हो सकती। हमें पता है, वो आइडिया चुराने में बहुत माहिर है और हम तो बचपन से मानते हैं कि ये पूरी दुनिया गोल है। जो एक छोर से चलता है, वही आपको दूसरी छोर पर बैठा मिलेगा। पूरी दुनिया गोल चक्कर में दौड़े जा रही है। कुछ नया नहीं है। अगर आपको उनको पकडऩा है, तो कहीं जाने की जरूरत ही नहीं है। बंदा चक्कर लगाते हुए आपके पास से तो गुजरेगा ही, बस वहीं उसे थाम लीजिएगा। हम तो यह भी पक्की तौर पर जानते हैं कि इतिहास अपने आप को दोहराता है, तो फिर नई चीज कैसे हो सकती है। नई तो नजर होती है जी। आंखों में जब तक नई नजर का चश्मा पहने रखोगे, तभी तक चीजें नई नजर आएंगी। हमारी बातों पर भरोसा नहीं है, तो अपने चारों ओर नजर उठाकर देख लीजिए। राजनीति में राहुल बाबा वही बात कह रहे हैं, जो सालों पहले उनके पापा राजीव गांधी कह चुके। बस पंद्रह पैसे को पांच पैसे में बदल दिया। राज ठाकरे वही कर रहे हैं, जो बाल ठाकरे कर चुके। और तो और वरुण गांधी कौनसा नया नुस्खा खोजकर लाए, वही पुरानी चाल। गठबंधन पहले भी होते थे, आगे भी जरूर होएंगे।
बाजार में चले जाइए, वही पुराने माल को नए पैकेट में पैक करके बेचा जा रहा है। एक से साथ एक फ्री की तरकीब पुरानी हो गई, तो एक के साथ पांच माल मुफ्त में दे रहे हैं। अरे! दुकानदार तो फिर भी खूब धन कूट रहा है और ग्राहक तो आज भी पहले की तरह ही दुखी है। बाजार में पहले भी बीवी नखरे दिखाकर सस्ते माल को महंगे में खरीद लाती थी और आज तो पूरा परिवार ही ऐसा करने में लगा है। राशन के पहले लाइनें लगती थी, पर आज तो राशन ही गायब हो जाता है। पहले लोग आपस में मिल-बैठकर दुख-सुख की बातें किया करते थे, आज भी मिलते हैं, पर इसकी जगह टीवी सीरियल्स के कपड़ों और गहनों ने ले ली है। गफलत कुमार को कौन समझाए कि जिस दिन से इंसान एक धरती पर आया है, उसने कुछ नया नहीं किया है। अगर उसे कुछ नया करना होता, तो वो ना जाने कब का भ्रष्टाचार मिटा चुका होता। कब का धर्म के नाम पर लडऩा बंद कर देता। पर उसे कुछ नया करने की सूझती ही नहीं। जैसे पहले परीक्षाओं में नकल हुआ करती थी, उससे ज्यादा हो रही है, पेपर ही आउट हो रहे हैं। आप अगर कोई किताब लिखते हैं, तो दो रोज बाद ही उससे मिलती-जुलती एक नई किताब मार्केट में आपको चिढ़ाती हुई नजर आने लग जाती है। फैशन में बदलाव की बात कहने वालों को शायद इतिहास का ज्ञान नहीं है। पुराने फैशन में दो-चार बदलाव का नाम नया फैशन है। क्रिएटिविटी के नाम पर पुराने की धज्जियां उठाते चलो और उस रहे-सहे में भी अपनी टांग फंसा दो। दसियों बार देवदास फिल्म बना लो। अमिताभ को डॉन बना दिया, तो अब शाहरुख को भी बना दो। यह है नयापन। सास-बहू के सीरियल कभी पुराने हुए क्या। हर बार दावा करते हैं कि नया-नया है और जब पास जाकर पैकेट खोलो, तो वही पुराना माल।
अरे गलती इन नया-पुराना बनाने वालों की नहीं है जी। हमें ही बासी खाना खाने की आदत हो गई है। कुछ भी नया पचता ही नहीं है। नए को नकारना हमारी आदत हो चुकी है। कोई नया विचार, नई सोच हमसे कहेगा, तो हम कहेंगे, ससुरा पागल हो गया है। उसे चैन से जीने नहीं देंगे। जब तो वो ढर्रे पर चलने का आदी नहीं हो जाएगा, उसे चैन नहीं लेने देंगे। हम नया करने के नाम पर बस इतना ही कर सकते हैं कि अपने नए माल की पोल ना खुलने दें कि इसे आखिर चुराया कहां से है। अब तो कोई इंसान कोई नया काम या नई खोज करता है, तो गुणीजन उसकी दाद नहीं देते बल्कि उसे शक की निगाह से देखते हैं और कुछ तो ये भी पूछ लेते हैं कि कहां से जुगाड़ लगाया इस प्लान का। लोगों को आज उम्मीद ही नहीं है कि कुछ नया हो सकता है क्या। ऐसे में वाकई जो लोग मेहनत करके कुछ नया पैदा करने की सोचते होंगे, उनका क्या हाल होता होगा, खुदा ही जाने।
- आशीष जैन

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14 June 2009

एनजीओ: एक अद्भुत जीव

इन दिनों हमारे भारत विशाल में एक नई किस्म की मकड़ी अवतरित हुई है। क्या मकड़ी है, जी। हमें तो लग रहा है कि इस प्रजाति के बिना पूरा मकड़ी समुदाय ही बैचेन था। कब से आस लगाकर बैठी थीं मकडिय़ां कि हमारी तारणहार मकड़ी जल्द से जल्द स्वर्ग से उतरे और धरा पर आए। इसकी खूबी देखिए कि इसका बनाया जाल पूरे के पूरे शहर को अपने शिकंजे में कस सकता है। इसे भोजन करने के लिए कभी परेशान नहीं होता पड़ता। बेचारे भोले-भाले छोटे-छोटे जीव खुद-ब-खुद चलकर इसके जाल में फंसते हैं और ये मजे से उनका आहार करती है और आराम करती है। मुझे लोग अक्सर कहते हैं कि हम तो इसे एनजीओ पुकारते हैं, फिर तुम इसे मकड़ी क्यों कहते हो। हमने उनसे कहा कि जिस दिन तुम इसके जाल में फंसोगे, तुम सब समझ में आ जाएगा कि एनजीओ वाकई एक विशालकाय मकड़ी ही है।

यूं तो धरती पर अनादिकाल से विद्यमान है, पर कलियुग में इसका प्रचार-प्रसार बहुत तेजी से हो रहा है। गांव-शहर-कस्बे, गली-नुक्कड़-चौराहे हर जगह इसकी की चर्चा है। इस मकड़ी को सरकार अपनी पाले में कभी नहीं आने देती। इसीलिए इसे गैर सरकारी मकड़ी कहा जाता है। पर यह गैर सरकारी मकड़ी अपनी बासी तरकारी बड़े ही सरकारी ढंग से लोगों को मुहैया कराती है। लोगों का दिल बहलाने के लिए इसके पास कई सारी कैटेगिरी हैं। दुख-सुख, लाभ-हानि, पाप-पुण्य जो आपको पसंद है, बोलिए। ये मुफ्त में सेवा प्रदान कराने के लिए भी काफी मशहूर है। इन सब कामों के लिए ये इंसानी रूप धारण करके इंसानी भाषा भी बोल लेती है। आपका दिल जीतने के लिए क्या नहीं करती। सबकी मदद करने के बहाने सबका सब कुछ लेने की जो अदा ऊपरवाले ने इसे दी है, वो वाकई कमाल है।
एनजीओ आजकल फैशनबेल भी हो गई है। हर चमक-दमक का सामान इसके पास मौजूद है। देखकर लगता ही नहीं कि ये कोई मकड़ी की प्रजाति का जीव है। दुनिया में सबसे प्यारा व्यक्ति एनजीओ को पत्रकार लगता है। अगर आप पत्रकार हैं, तो आपको बिना काटे आपके साथ घंटों बिता सकती है। इस दौरान आपको इसके कारनामों और करामातों की लंबी लिस्ट सुनने के लिए तैयार रहना चाहिए। एनजीओ को अपना फोटू अखबार में छपवाना बहुत भाता है। इसलिए आपको सख्त हिदायत है कि पत्रकार होने के नाते जब भी आप इससे मिलने जाएं, आपके गले में कैमरा जरूर टंगा होना चाहिए। वरना यह क्रोधित हो सकती है। वार्ता के अंत में दो-चार क्लिक अगर आप ज्यादा कर देंगे, तो आपको अलग से पुरस्कृत करने की व्यवस्था भी इसने करवा रखी है। एनजीओ से सरकार चलती है। इसे शायद भगवान शिव से वशीकरण मंत्र भी मिला हुआ। जिससे ये सारे नेता, अभिनेताओं को अपने वश में कर लेती है। नेता और अभिनेता के बहाने लोगों को सीरियस काम में भी लगातार मनोरंजन तत्व मिलता रहता है। उनका इस्तेमाल यह अपने महिमामंडन के लिए करती है। इसके लिए सबसे तुच्छ चीज है- पैसा। इसे तो रुपयों से मतलब रहता है, हां, अगर बात डॉलर और पौंड की हो, तो इसके मुंह में लार आसानी से देखी जा सकती है।
एनजीओ नियम-कायदे कानून को भी दिल से मानती है। ये औरतों को काम-धंधा खोलने के लिए पैसे देती है और बदले में मोटा ब्याज लेती है। ये किसी से भेदभाव भी नहीं करती। मकड़ी होने पर भी ये हर इंसान की बात को पूरे ध्यान से तब तक सुनती है, जब तक कि इसका मतलब पूरा ना हो जाए। ये दिखावा पसंद भी है। अंदर से चाहे थकी हो, पर चेहरे पर हमेशा स्माइल रखती है, पता नहीं कब कोई फोटू ही खींच ले। यूं इसका कोई परिवार नहीं है। पर अलग-अलग जगहों पर ये किसी को अपना भाई, किसी को भतीजा बनाती हुई पाई जाती है। जो एक बार इसके पास आता है, इसी का होकर रह जाता है। ये खुद पूरा इंसान को चबाकर मंच पर शाकाहार की वकालात करती है। एक बार इसने देश में कन्याभ्रूण हत्या के बढ़ते मामलों से चिंतित होकर एक गोष्ठी का आयोजन करवाया और बाद में वहां आए डॉक्टरों को अल्ट्रासाउंड की नई तकनीक भी सप्लाई कर दी। इसे कहते हैं, एक तीर से दो निशाने। बच्चों से भी इसे बड़ा प्यार है। बच्चों के हर मामले पर इसका बयान तीर की तरह तुरंत आता है।
इसकी देश की हर गतिविधि पर पूरी नजर रहती है। चुनावों में किसने-क्या किया, खेलों में कौन हारा-कौन जीता इत्यादि, इत्यादि। इस नजर रखने का इसे बहुत फायदा मिलता है। नजर रखने के दौरान अगर कहीं दाल में कुछ काला पाया जाता है, तो उसे सफेद बनाए रखने के लिए ये करोड़ों रुपए चट करने में उस्ताद है। हां, एक जरूरी बात। वैसे इसके पास अपने कामों की बड़ी लिस्ट है। हर टाइम उन्हें करने में लगी रहती है, पर परिणाम कुछ खास नहीं मिलता। दरअसल इसे काम करने में बड़ा आलस आता है। इसे तो बस माल चाहिए। काम के बजाय आप इससे सुनहरे सपनों की संपूर्ण व्याख्या सुन सकते हैं। इन दिनों यह अपना मकडज़ाल पहले से भी मजबूत कर चुकी है। तो अगर आप अपनी जिंदगी से नाखुश हैं, तो इसके जाल में फंस जाइए और ताउम्र जाल में औंधे मुंह लटके रहिए। बाकी आपकी मर्जी, धन्यवाद।
-आशीष जैन

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13 June 2009

मायका मार गया

भरी गर्मी में जब कोई किसी को तड़पता छोड़ दे, तो क्या उस शख्स स्वर्ग नसीब हो सकता है? स्वर्ग तो क्या उसे तो नरक में भी जगह नहीं मिलेगी। अब क्या बताएं आपको, कहां-कहां तड़पना नहीं पड़ता हमें। बीवी मायके में जाकर जम चुकी है, ऑफिस से बिजली गायब है और पता नहीं शहर में कहां से इतनी भीड़ आ गई है कि बस में कदम रखने को जगह नहीं मिलती। पता नहीं ऊपर वाले ने ये ग्रीष्म ऋतु किससे पूछकर बनाई थी। जरूर पैसे वालों ने रिश्वत दी होगी उन्हें। उनका क्या है, एसी कारों में घूमते हैं। मोबाइल फोन पर बीवियों से बतियाते हैं। हम क्या करें, लू के थपेड़े खाएं, पत्नी को चिट्ठी लिखेंगे, तो क्या होगा? दस दिन में उसे मिलेगी और उसका जबाव पंद्रह दिनों में लौटकर आएगा। जब तक तो हमारा अंत ही हो जाएगा। हम तो आप से ही एक सवाल करते हैं, सच-सच बताना, क्या जून का महीना आपको रास आता है। हमें पता है कि चाहे वजह कोई भी हो, पर पूरी दुनिया इस जून के महीने से तंग आ चुकी है।

अब क्या बताएं कि क्या-क्या दर्द हैं, इस जिया में। जब से हमारी घरवाली मायके गई, घर का सारा काम हमको ही करना पड़ता है। बर्तन धोते समय लगता है कि अगर मैं इतने अच्छे तरह से बर्तन मांजता जाऊं, तो फिर तो मुझे किसी अच्छे फाइव स्टार होटल में वेटर की नौकरी मिलते देर नहीं लगेगी। ऊपर वाले ने मायका एक ऐसी जगह बनाई है, जहां जाकर हर बीवी खुद को शहंशाह समझने लगती है, फिर तो वो खुदा की भी नहीं सुनती। काम-धाम तो करना नहीं पड़ता, बस इधर-उधर की बातें बनवा लो। गर्मी क्यों आती है? यह हम आज तक नहीं समझ पाए। अगर मैं खुदा होता, तो सबसे पहले इस गर्मी के मौसम को मौसम की लिस्ट में से निकाल फेंकता। गर्मी तो है ही, उस पर ये छुट्टियां और खाज का काम करती हैं। कसम से कहने को तो ये छुट्टियां बच्चों के लिए आई हैं, पर इसका सारा मजा बीवियां ही लूटती हैं। अब लगो रहो घर की दीवारों से बात करने में।
अब इधर-उधर मुंह मारने के दिन भी तो नहीं रहे। आजकल हर बीवी सर्तक है। ऐसे में पतियों की निगरानी करने के लिए पड़ोसन को बाकायदा ड्यटी देकर जाती है। पड़ोसन को तो उसकी बात माननी ही पड़ती है। आखिर उसका भी तो सांड सा पति है और वो भी तो मायके जाएगी, फिर उसकी निगरानी हमारी बीवी रखा करेगी। तभी हमारी पड़ोसन दिनभर दरवाजे पर पहरेदार की तरह बैठी रहती है। बीवियों की ये जो बिरादरी होती है ना, ये अपने अच्छे भले पति को बिगाड़ देती हैं। अगर पति दिनभर काम करके थका-हारा घर पर आता है, तो सोचती हैं कि जरूर दाल में कुछ काला है और जब यही पति किसी के साथ मजे उड़ाकर घर आता है और बीवी से मीठी-मीठी बातें करता है, तो पत्नी रहती है खुश। हमारे सालों रिसर्च करके एक बात तो पता कर ली है कि ये पत्नियां मायके जाती क्यों हैं? पत्नियां मायके जाए बिना भी खुश रह सकती हैं और मां-बाप से मिलना तो एक बहाना है। वो तो मायके जाकर पति को अंगूठे के नीचे रखने की नई-नई विचार-गोष्ठियों का आयोजन करती है और ऐसी तकनीकें ईजाद करती हैं कि पति नाम का जीव सदा उसके चंगुल में फंसा रहे। मायके में सारी सुविधाएं हैं, किसी भी मंथरा को घर पर आमंत्रित करो और योजनाएं बनाओ।
मैंने कहीं सुना था कि पत्नियां मायके रिचार्ज होने जाती हैं, अरे, मैं कहता हूं कि पत्नियां तो मायके हमें डिस्चार्ज करने जाती हैं। गर्मी में हमें अमरस पिए हुए कितने दिन हो गए, अगर बीवी होती, तो कितने प्यार से जूस निकालकर पिलाती। हम तो एक योजना बना चुके हैं, कलैंडर के किसी तरह से जून का महीना ही गायब कर दें। इसके लिए चाहे हमें एक नया महीना ईजाद करना पड़े, पर हम हार नहीं मानेंगे। मैं तो इस पक्ष में पूरे देश के पीडि़त पति मेरा साथ दें और कानून से मांग करें कि बीवियों के मायके जाने पर कानूनन रूप से रोक लगाई जाए। बीवियों के मायके जाने से पति वर्ग परेशान हो जाता है और इससे देश की अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ता है। हमें पूरी आशा है कि आप हमारी बात को समझ रहे होंगे और जल्द से जल्द हमारे पति पीडि़त संघ में शामिल होकर अपना दर्द हमारे साथ बांटेंगे।
-आशीष जैन

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पिटाई और धुनाई में अंतर

मुझे बड़ा गर्व है कि मैं हिंदुस्तानी हूं और अपने ही देश में रहता हूं। ये देश वाकई कमाल का है। यहां के लोग बड़े सहिष्णु होते हैं। यहां पत्थरों को भगवान समझकर पूजा जाता है। आप क्या सोच रहे हैं। हम भाट नहीं हैं। देश की स्तुति भी नहीं कर रहे हैं। वाकई ये सच्चाई है कि अपना देश महान है। इस देश ने गांधी को जन्म दिया है, तो भगतसिंह को भी। यहां शांति और पौरुषता का अनोखा मेल देखने को मिलता है, जो पूरी दुनिया में कहीं नजर नहीं आता। पूरी दुनिया हमें घूरने मतलब घूमने आती है। उनकी यहां की दिलकश जगहों को देखने की बजाय यहां रहने वालों में ज्यादा दिलचस्पी है। उन्हें आश्चर्य इस बात पर है कि किस तरह हर तरह के संकट से जूझते हुए हम खुशी-खुशी अपनी-अपनी जिंदगी में मगन रहते हैं।

हम जब-जब इन विदेशी पर्यटकों को देखते हैं, तो सोचते हैं कि ये आखिर खाते क्या हैं। खा-पीकर बिल्कुल सांड रहते हैं। क्या आपने कभी कोई ऐसा विदेशी देखा है, जो मरियल हो, बीमार दिखाता हो। तो हम तो उन्हें देखकर डर जाते हैं कि कहीं अगर किसी दिन किसी विदेशी ने गलती से हमारे कंधे पर हाथ रख दिया, तो उस दिन तो सीधा खड़ा रहना ही मुश्किल हो जाएगा। जिस जगह पर हमें ये नजर आ जाते हैं, हम तो दस फुट दूर खिसक लेते हैं। इसका यह मतलब कतई नहीं कि हम कमजोर हैं। ये तो हमारा सीधापन है जी। वरना... हम तो...। अब रहने भी दीजिए।
वैसे हम अगर किसी से डरते हैं, तो एकमात्र अपनी बीवी से। रोज हमारी बीवी खुद को आस्ट्रेलिया समझकर हम पर हमला बोल देती है, पर हम आह तक नहीं भरते। उसके शस्त्र बदलते रहते हैं, पर हमारी खाल तो वही रहती है ना। पिटते-पिटते तो एक बार गधा भी अपने मालिक को दुलत्ती मारकर भाग छूटता है और एक हम हैं कि बस पिटे जाते हैं। यूं तो पिटने और पीटने में बस एक मात्रा को उल्टा-सीधा करने की देर रहती है। पर यह कदम पता नहीं, हम आज तक क्यों नहीं उठा पाए? जब भी मात्रा को बड़ा करने की कोशिश करते हैं, छोटी मात्रा की मात्रा हम पर इस कदर हावी होती है कि पूरा शरीर दर्द से कराहने लगता है। हम भी आस्ट्रेलिया रहने वाले भारतीय स्टूडेंट्स की तरह थोड़ा-सा हल्ला-गुल्ला मचाकर शांत पड़ जाते हैं और हमारी बीवी के हौसले बढ़ते ही जाते हैं। आप समझ रहे हैं ना कि हम क्या कह रहे हैं।
मेरा एक दोस्त आस्ट्रेलिया में रहता है। कुछ दिनों पहले उसका फोन आया। कहने लगा कि यार हम हिंदुस्तानी क्या इतने कमजोर हैं कि हर कोई हमें तंग करके चला जाता है और हम देखते रह जाते हैं। ये आस्ट्रेलिया के गोरे पता नहीं अपने आप को समझते क्या हैं? आज दुनिया कहां की, कहां पहुंच गई और ये अभी भी काले-गोरे के चक्कर में फंसे हुए हैं। मैंने उसे समझाया और कहा कि पिटते तो हम भी हैं। वो बोला कि तुम पिटते हो और हमारी तो धुनाई ही हो जाती है। हम उससे पिटाई और धुनाई का अंतर पूछने लगे, तो वो बात घुमा गया और दुखी होने लगा। हमने उसे शांत करने के लिए लगे हाथ एक कहानी सुना डाली।
कहानी दरअसल यूं है कि एक बार भगवान ने सोचा कि क्यों ना मैं भी रोटी सेक कर देखूं। उन्होंने रोटी बेलना शुरू किया। जो पहली रोटी उन्होंने तवे पर सेकी, वो एकदम जली हुई थी। तब भगवान ने दूसरी रोटी सेकनी शुरू की। दूसरी रोटी अच्छी सेकने के चक्कर में वो कच्ची ही रह गई। तब आखिर में जाकर भगवान ने एकदम परफेक्ट रोटी सेकी। ना जली हुई और ना ही कच्ची। फिर भगवान ने रोटियां जमीन पर फेंक दीं। जली हुई रोटी जहां गिरी, वहां अफ्रीका बन गया। जहां कच्ची रोटी फेंकी, वहां इंग्लैंड जैसे देश बस गए और जहां एकदम गेहुंआ रोटी गिरी, वहां हिंदुस्तान बस गया। मतलब साफ है कि जहां साफ-सुथरे, गेहुंआ लोग रहते सकते हैं, वो जगह हिंदुस्तान ही है। तो ये कहानी सुनकर हमारा दोस्त भी मान गया वाकई हिंदुस्तानियों का कोई मुकाबला ही नहीं हो सकता। अब अगर आस्ट्रेलिया में हम पर हमला होता है, तो हमें खाली हाथ पर हाथ धरे तो बैठा नहीं रहना चाहिए। कब तक हम हमले सहते रहेंगे, संसद पर हमला हुआ, तो क्या हुआ था। मेरे देश के कर्णधारों, कम से कम इस बार तो उन्हें बता दो, वो पढऩे के लिए आए हैं, उनकी रक्षा करो। वैसे हमें लगता है कि जब आस्ट्रेलिया की क्रिकेट टीम ही हमारे भज्जियों को भाजी बनाकर खा जाती है, तो ये तो देश का मामला है, इसमें वो कोई कोर-कसर थोड़े ही रखेंगे। हमें तो पूरा शक है कि जहां-जहां हिंदुस्तानी स्टूडेंट्स पर हमले हुए, उन कॉलोनियों में जरूर ऑस्ट्रेलियन क्रिकेट टीम के सदस्य भी रहते होंगे। क्या पता खेल-खेल में 'खेलÓ कर गए हों।
घर जाकर जब हमने बीवी को ये सारी बातें सुनाईं, तो भड़क गईं। वो बोली कि तुम भी किस मिट्टी के बने हो। पिटाई और धुनाई का अंतर नहीं समझ पाए। वो कहने लगी कि गलती मेरी ही है। मैंने ही कभी तुम्हें धुनाई से रूबरू नहीं करवाया। चलो आज तुम्हें धुनाई से मिलवा ही देती हूं। फिर जो उसने मेरा हाल किया, वो मैं अभी आपको बता नहीं पाऊंगा। दरअसल मैं बड़ा कमजोर दिल इंसान हूं। हो सकता है कि बताते-बताते रोने लगूं। पर उस धुनाई से मुझे पता लग गया कि पिटाई और धुनाई में बेसिक अंतर क्या होता है। आप भी जानना चाहते हैं, तो लीजिए सुनिए। पिटाई तो वो है, जो किसी बात पर की जाए। सामने वाले को बताकर की जाए। जबकि धुनाई तभी की जाती है, जब कोई वजह तो होती नहीं है, बिना कारण से बस खुन्नस निकाली जाती है और सामने वाले की एक भी सुनी नहीं जाती। यही सब तो आस्ट्रेलिया रहने वाले मेरे भारतीय दोस्तों के साथ हुआ है। चलिए, अब ये बात अपने तक ही रखना, किसी को बताना मत। वरना मैं पिटाई या धुनाई कुछ भी कर सकता हूं।
-आशीष जैन

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12 June 2009

यार टाइम नहीं है

भई हम तो परेशान हो गए हैं, ये रोज-रोज एक ही बात सुनते-कहते। कभी-कभी तो लगता है कि यह सत्य वाक्य तो वेद वाक्य से भी ज्यादा शाश्वत है। कभी आपने गौर किया कि आप रोजमर्रा की जिंदगी में कितनी बार कहते हैं- अरे, यार टाइम ही नहीं है। मैं पक्के से दावा कर सकता है कि इस अखिल ब्रह्मांड में ऐसा कोई प्राणी नहीं है, जिसने इस मंत्र का उच्चारण नहीं किया हो। आज सुबह तो हद ही हो गई है। हम अपनी घड़ी साथ लाना भूल गए और जब बस से उतरते सज्जन से पूछा कि टाइम कितना हुआ, तो वे महाशय बोले- अभी टाइम नहीं है, मैं नहीं बता सकता। तो जनाब देखा आपने टाइम बताने के लिए भी टाइम नहीं है। आपको लग रहा होगा कि मैं तो मजाक कह रहा हूं।

ऐसा भी भला कहीं होता है। साथ में आप मुझे यह तर्क भी देगो कि लाले दी जान, ये इंडिया है। यहां सब के पास टाइम ही टाइम है। इतनी बेरोजगारी है, काम है नहीं। तो फिर लोगों के पास टाइम ही टाइम पड़ा है। जितना चाहो, थोक के भाव ले लो। गली-नुक्कड़ पर कई प्यारेलाल मिल जाएंगे, जिनके पास इस संपदा का भंडार है। पर मैं आपसे शर्त लगा सकता हूं कि मैं सही हूं। चाहे बूढ़ा हो या जवान, गोरा हो काला, उत्तर भारतीय हो या दक्षिण भारतीय, सब के पास इस अनमोल धन की कमी है। दूर से देखने से ही लगता है कि लोगों के पास टाइम है। पर अगर पास जाकर उनसे तनिक-सा टाइम मांग लिया, तो फिर देखिए, कैसे बरसते हैं आप पर। आपको उनकी तोहमत सुन-सुनकर यकीन हो जाएगा कि आपने दुनिया का सबसे बड़ा पाप कर दिया है।
हमें तो पहले के दिन याद करके खुद पर ही दया-सी आने लगती है। जाने कहां गए वो दिन। जब मैं गांव में रहा करते थे और सुबह-सुबह नीम की अच्छी दातुन की खोज में सैर करते-करते कहां से कहां चले जाया करते थे। दूर खेत में जाकर ही निपट भी लिया करते थे। सब काम तसल्ली से। और एक हमारा बेटा है। जो एक तो सुबह तो नौ बजे उठेगा। और उठते ही अखबार उठाकर भागेगा, लैट-बाथ की तरफ। हमने एक दिन पूछा कि ये अखबार साथ में क्यों ले जाते हो लल्लू। तो बोला- पापा, एक साथ दो काम करता हूं। निपटने के साथ-साथ अखबार भी चाट डालता है। उसकी बात सुनकर हमें तो बड़ी घिन्न-सी आई। उससे पूछो- लेट क्यों उठा, तो कहेगा, रात को इतना काम जो किया था। अरे क्या पहले के लोग काम नहीं करते थे क्या। काम भी ज्यादा करते थे और खुद के हाथों से करते थे। अब तो ससुरे कई तरीके ईजाद हो गए हैं। कपड़े धोने की वाशिंग मशीन आ गई है, रोटी बेलने की मशीन आ गई है। फिर भी टाइम नहीं है। ये अचरज नहीं है, तो और क्या है। अब ये कमबख्त मोबाइल फोन भी खूब करामात दिखा रहे हैं। खाते-पीते, नहाते-धोते, चलते-फिरते, उठते-बैठते और भी ना जाने कितने 'ते-तेÓ में ये मोबाइल घुस गया है। सारे काम मोबाइल पर पूरे हो रहे हैं। फिर भी पता नहीं कहां पहुंचने की जल्दी है। हमें तो लगता है कि टाइम नहीं करते-करते ही एक दिन पूरी दुनिया अपना टाइम पूरा कर लेगी। फिर लोग कहेंगे- अरे, यार टाइम तो था, पर अब हाथ से निकल गया। अब क्या करें। घर में कोई हमारी सुनता ही नहीं है। सब बस भागे जा रहे हैं। घर आते हैं, तो फिर वही रट- अभी टाइम नहीं है। और कभी पूछे कि किस काम में बिजी हो, तो कहेंगे कि काम ही तो कर रहा हूं।
'टाइम इज मनीÓ का फार्मूला इजाद करने वाला मुझे मिल जाए, तो उसके दो चपत लगाए बिना नहीं रहूंगा। उससे पूछेंगे कि क्यों लोगों को भरमाते हो। हम हिंदुस्तानियों के लिए तो टाइम और मनी दोनों से ज्यादा अहमियत तो रिश्ते रखते हैं। अगर बूढ़े बाप के पास बैठने के लिए दो पल नहीं बचे, तो ऐसे टाइम और मनी क्या करोगे? बच्चों की किलकारी सुने बिना मां अगर 'टाइम नहीं हैÓ चिल्लाती हुआ ऑफिस निकल जाएगी, तो क्या जिंदगी में कोई रस रह पाएगा। बचपन में दद्दा कहते थे कि दुनिया में आपसी प्यार से बड़ी अहमियत किसी चीज की नहीं हो सकती। किसी का टाइम कभी खराब होता है, तो कभी सही। पर अगर सबसे बनाकर चलोगे, तो बुरे टाइम को अच्छा बना लोगे। पर अब हमें लगता है कि इस दुनिया में टाइम से महंगी कोई चीज हो ही नहीं सकती। और मजेदार बात देखिए, ये महंगी चीज जिस के पास भरपूर मात्रा में होगी, वही सबसे निट्ठला कहलाएगा। सब कहेंगे- हमारे पास तो टाइम नहीं है। उसके पास खूब है, उसी के करा लो काम। सारा दिन टाइम पास ही तो करता है। तो जनाब, टाइम की सच्चाई हमें आज तक समझ में नहीं आई। एक तरफ टाइम ना होने का रोना रोते हो और दूसरी तरफ टाइम होने पर टाइमपास का ठप्पा लगाते हो। हम जैसे बेचारे क्या करें। लगता है कि हमारा ही टाइम खराब है, जो टाइम की थ्योरी हमारे समझ में नहीं आती। हम तो पूरी दुनिया से कहते हैं कि टाइम हम इंसानों ने ही बनाया है, तो फिर इसे अपने सिर पर सवार मत होने दो। अपने टाइम के मालिक खुद बनो। ऐसे काम मत करो कि खुद ही टाइम के गुलाम बनकर रह जाओ और बाद में पछताओ।
-आशीष जैन

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परिसाईजी का पुनर्जन्म

मेरा मुल्क बड़ा महान है और उसमें भी मेरा शहर जयपुर शहरों में जानदार शहर है। आप हमें अपने मुंह मियां मिट्ठू मत समझना, पर अब बात चली है, तो बता ही दें कि हमारा मोहल्ला और उसमें भी हमारी गली का तो कहना ही क्या। एक से एक फनकार बसे हैं, हमारी पतली-सी गली में। यूं ही मत समझना इस गली को। इस गली में तो एक बार चचा गालिब भी आए थे। आप कहेंगे, गालिब और जयपुर! मैं मजाक नहीं कर रहा जनाब। हुआ यूं कि एक बार चचा के पायजामे का नाड़ा एक चोर चुराकर भाग लिया और भागते-भागते हमारी गली में छुप गया। चचा भी उसे खोजते-खोजते यहीं तक आ पहुंचे थे। कुछ-कुछ ऐसे ही वाकये हरिशंकर परसाई, हरिवंशराय बच्चन और रामधारी सिंह दिनकर के साथ हुए थे। अरे! ये हम नहीं कहते, हमारी गली के बड़े-बुजुर्ग कहते हैं।

तो जब शुरू से इतने बड़े-बड़े लेखक हमारी गली में आ चुके थे, तो उनके गुण भी हमारी गली में आने ही थे। कसम से एक से बढ़कर एक लेखक पैदा होते गए। वो तो जमाने की नजर ही नहीं पड़ी, वरना एक से एक नायाब हीरे थे हमारे यहां, हीरे भी क्या थे, कोहिनूर थे, कोहिनूर। अब हम उसी परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। लेखक बन गए हैं। लेखक भी ऐसे-वैसे नहीं, व्यंग्य लिखते हैं। क्या करें, जब भी किसी से दिल की बात बयान करने जाते हैं, पिट कर आते हैं। ये दुनिया के लोग कभी अपनी बुराई सुन ही नहीं सकते, तो हमने तो ठान ही लिया कि व्यंग्य लिखेंगे। इस बहाने दिल की भड़ास निकालते रहेंगे। आज इतनी प्रॉब्लम हैं। आपको तो पता ही है, नल में पानी गायब है, घर में बिजली नदारद है और महंगाई सिर पर बैले डांस करती है, तो ये सारी बातें भी तो किसी से कहनी ही पड़ेंगी ना। अब अपनी बीवी से कहें, तो कहती है कि जब भी बोलते हो, बुरा ही बोलते हो। दोस्त लोगों को अपनी जिंदगानी से ही टाइम नहीं बचता, तो लगा कि क्यों ना कलम-कागज लेकर बैठ जाएं और दिल का दर्द कागज पर उतारते रहें। बेरोजगारी में इससे बढिय़ा टाइम पास और क्या हो सकता है। अब कैरेक्टर खोजने के लिए कहीं जाना भी तो नहीं पड़ता। घर में बीवी, बाहर पड़ोसी, देश में मंत्री, विदेश में अमरीका। कुछ भी उठा लो और लग जाओ कलम घिसने में। कसम से बड़ा मजा आता है, अंदर की बात बाहर लाने में। ये सब यूं ही चलता रहता, पर एक दिन तो गजब होना ही था। हम व्यंग्य लिखते हैं, ये बात हमारी बीवी से पड़ोस की सहेली से कह दी। उसने अपने पति से बोला और पति ने गली में सबसे। सब अगले ही दिन घर के बाहर हुजूम लगाकर इकट्ठा हो गए। एक बाबा टाइप का आदमी लकड़ी टेकता हुआ आया और बोला, 'बेटा, हमने सुना है कि तुम व्यंग्य लिखते हो। कहां हैं तुम्हारे व्यंग्य। मैं पढऩा चाहता हूं।Ó मैंने उनसे पूछा कि मैं तो सीधा सा आदमी हूं, ये सब अफवाह है। वो बोला कि मुझे तुम्हारी शक्ल और अक्ल परसाईजी जैसी लगती है। परसाईजी सालों पहले जब अपनी गली में आए थे, तो इस गली को देखकर उन्होंने कहा था कि काश! मेरा अगला जन्म इसी गली में हो। और देखो उनकी बात सच हो गई। हो ना हो, तुम परसाईजी के पुनर्जन्म रूप हो। अब तो मैं घबरा चुका था। मैंने उनके पैर पकड़ लिए और गिड़गिड़कर बोला कि आप मुझे चैन से जी लेने दें। क्यों पूरे शहर में मुझे बातचीत मुद्दा बनाना चाहते हो। वो बोला कि बेटा बताओ, तो सही कि तुम लिखते कैसा हो। मैं किसी से कुछ नहीं कहूंगा। मैं मन ही मन सोच रहा था कि मैं लिखता तो इन गली वालों के ऊपर ही हूं। मेरे व्यंग्य में सारे पड़ोसियों को कोसने के सिवा और होता ही क्या है। मैंने तय कर लिया कि किसी भी कीमत पर अपनी पोल नहीं खुलने दूंगा। पर वो तो अपनी बात पर अड़ा ही रहा। उसके साथ-साथ पूरी भीड़ भी मेरे जयकारे लगाने लगी और कहने लगी कि हमें भी लगता है कि परसाईजी ने आपके रूप में दुबारा जन्म लिया है। हम सब आपके व्यंग्य पढऩा चाहते हैं। मैंने डरते-डरते अपने लिखे सारे व्यंग्य उनके सामने कर दिए और खुद घर में जाकर दुबक गया। पर वो टस से मस नहीं हुए और अंदर घुसकर मुझे घेर लिया। एक व्यंग्य में पड़ोसी पपीताराम और उसकी पत्नी इमलीबाई के खट्टे रिश्तों पर मजाक था, तो एक व्यंग्य इमरती लाल के बेटे लड्डू सिंह और कचौरीकुमार की बेटी जलेबी कुमारी के प्यार के किस्से। मुझे लग रहा था कि पपीताराम, इमरती लाल और कचौरीकुमार ये सब पढ़कर मेरा कचूमर निकाल देंगे। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। उन्होंने तो मुझे लगे लगा लिया और कहा कि तुम्हारे हमारे घर-परिवार, बाल-बच्चों की सच्चाई को जिस निर्भकता और कटाक्ष के साथ कागज पर लिखा है, उससे हम बहुत खुश हैं। सबने शहर में फोन घुमाना शुरू कर दिया। पूरे शहर ने मुझे परसाईजी का पुनर्जन्म समझकर मुझ पर फूल मालाएं लादना शुरू कर दिया। सारे अखबारों के एडिटर मेरे चरण कमलों में विराजने लगे। मेरी हर बात में वे व्यंग्य खोजने लगे और वो दिन था और आज का दिन। ससुरों ने व्यंग्य लिखवा-लिखवाकर मेरी उंगलियों का कचूमर निकाल दिया है। अब मैं दिन-रात उनके लिए व्यंग्य लिखने की कोशिश करता रहता हूं और वे मुझे परसाईजी समझकर छापते रहते हैं। धन्य हो परसाईजी और उनके व्यंग्य।
-आशीष जैन

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रिपोर्टर की रपटन

हे दुनिया के तुच्छ जीवों! मैं सर्वशक्तिमान हूं। मैं अनादि-अनंत हूं। मैं सर्वज्ञ हूं। और भी पता नहीं मैं क्या-क्या हूं। दरअसल मेरी उपमाएं अभी तैयार हो रही हैं। कुछ मुझे ज्ञात थी, सो मैंने कह दी। पर ये पक्का मानना कि मैं इस दुनिया में सबसे अद्भुत है। मेरा स्वरूप हर इंसान में है, पर जो मेरे भावों को अंगीकार कर लेता है, वही इंसान मुझ जैसा बन पाता है। मैं सुबह सवेरे से लेकर रात-बिरात तुम्हारे दिमाग पर कब्जा किए हुए रहता हूं। पापी मुझसे डरते हैं। वैसे तुम मुझे दुनिया का सबसे बड़ा पापी भी मान सकते हो, पर क्या करूं, मेरा काम भी तो अनोखा है। मेरे पास दुनिया के हर पल, हर कोने की सारी छोटी-बड़ी जानकारियां आंख झपकते ही पहुंच जाती हैं।

अगर इतना पढऩे के बाद भी तुम नहीं पहचान पाए कि मैं कौन हूं, तो तुम वाकई क्षुद्र बुद्धि के इंसान हो। जरा गौर करना, अलसुबह से जो अखबार तुम्हारे हाथों में रहता है, वही मेरा कर्मक्षेत्र है, वही मेरा दाता, मेरा ईश्वर है। मैं ही तो अखबार के लिए खबरें जुटाता हूं। मैं रिपोर्टर हूं। कुछ मुझे खबरनवीस, तो कुछ पत्रकार भी कहते हैं। पर मुझे खुद को जर्नलिस्ट कहलवाना ज्यादा पसंद है। इस शब्द से मुझे ज्यादा प्यार है। पत्रकार और रिपोर्टर शब्द सुनकर मैं भड़क जाता हूं, ये शब्द मुझे गाली की तरह लगते हैं। कोरेसपोंडेंट शब्द थोड़ा सोफिस्टिकेटेड है, इसी नाम से मुझे पुकारना। मात्र तुम्हारे पुकारने की देर है, मैं पल में तुम्हारे सामने हाजिर हो जाऊंगा। फिर तुम्हारे साथ घंटों बिताऊंगा और बतियाऊंगा। तुम्हें लगेगा कि मेरे पास टाइम ही टाइम है। मैं फालतू ही तुम्हारे पास बैठा हूं। पर ऐसा नहीं है। मैं घंटों बैठकर कोई काम की खबर तुमसे निकलवा ही लूंगा। अगर कोई तुम्हें परेशान कर रहा है, तो मुझे बताओ। उस बदमाश को अभी चित्त कर दूंगा और ज्यादा चूंचपड़ की तो, उसका बड़ा सा फोटो पहले पन्ने पर छापकर उसे बदनाम कर दूंगा। मेरा तो काम ही है, लोगों की मदद करना। पर इस महंगाई के जमाने में ये मत समझना कि सारे काम मुफ्त में हो जाएंगे। कुछ ना कुछ दक्षिणा तो देनी ही पड़ेगी। वैसे मेरी न्यूनतम फीस दो हजार रुपए है, पर तुम्हारी सूरत देखकर मुझे तुम पर तरस आ रहा है, इसलिए मैं सौ-दौ सौ में काम निपटा दूंगा। चाहे तुमने कोई तीर ना मार हो, पर अगर तुम्हारी दिलीइच्छा है कि तुम्हारा गुणगान भी लोग गाएं, तो मेरे पास आना। मैं शब्दों का मायाजाल रचूंगा और लोगों को भरमा दूंगा कि तुम जैसा इंसान तो दुनिया में पैदा ही एकाध बार होता है। शब्द माया ही तो मेरी असल ताकत है। लोगों को लगेगा कि तुम ही हो इस युग के युगपुरुष।
मुझे तुमसे बस एक चीज और चाहिए। तुम हर हफ्ते मुझे अपने सरकारी ऑफिस में बैठे बॉस की एक-दो ताजातरीन कारस्तानियां लाते रहना। चाहे उसमें आधी सच्चाई हो, पर उसे सत्यापित करके छापने की जिम्मेदारी मेरी है। जब चुनाव होते हैं, तो बिना सभा के ही मैं अखबार में नेताजी के लिए भीड़ की फोटू का जुगाड़ लगा देता हूं, तो ये तो मेरा चुटकियों का काम है। किसी को भी सेलिब्रिटी बनाकर पेश करने में मुझे मजा आता है। बाजार में चाहे कोई ट्रेंड सालों पहले खत्म हो चुका हो, मैं उसे इस तरह अखबार में छापता हूं कि लोगों को लगता है कि नया फैशन आया है। चाहे युवा सो रहे हों, पर मैं लिखता हूं कि युवा क्रांति की ओर अग्रसर हैं। मैं देश की अर्थव्यवस्था के बारे में उन लोगों की राय प्रकाशित करता हूं, जिन्हें देश के वित्तमंत्री तक का नाम मालूम नहीं होता।
मुझे तिल को ताड़ बनाने में महारत हासिल है। किसी की पर्सनल लाइफ में को भी मैं उछाल सकता हूं। मुझसे सब छिपते रहते हैं। चाहे दुनिया में सब ट्रेफिक रूल तोडऩा बंद कर दें, पर मैं कभी हेलमेट लगाकर नहीं चलता। जर्नलिस्ट हूं, तो अपनी गाड़ी पर प्रेस भी लिखवा रखा है। इससे मैं सड़क पर बेखौफ हो जाता हूं। हर उल्टा-सीधा काम कर सकता हूं। सब डरते हैं। पूरे देश में सूचना का अधिकार कानून लागू हो चुका है। हर बाबू से आप उसके काम का हिसाब मांग सकते हो, पर मुझे कंट्रोल करने की कभी कोई सोच भी नहीं सकता।
मैं ज्यादा पढ़ा-लिखा भी नहीं हूं। बचपन से ही आवारा था, पिताजी हमेशा कहते थे कि कुछ किया कर, नहीं तो मेरा नाम डूब जाएगा, पर अब भरा-पूरा घर देखकर वे भी मेरी तारीफ करते हैं। दारू और सिगरेट से ही मेरी जिंदगी चलती है। शुरू में मुझे देश में बदलाव और समाज-सुधार का शौक चर्राया था। पर अब मैं मशीन बन गया हूं। किसी के घर मौत होने पर मैं रोता नहीं हूं, बल्कि अपनी खबर खोजता हूं। मैं चलता-फिरता सहायता केंद्र बन गया हूं। किसी के बच्चे को पास करना है, किसी को प्लॉट दिलाना है, किसी को मंत्री से नौकरी की सिफारिश लगवानी है, इन सब कामों की मेरी प्राइज लिस्ट तैयार है। तुम्हें जब भी कोई जरूरत हो, मुझे याद करना।
-आशीष जैन

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11 June 2009

ओबामा और ओसामा की प्रेमकथा

क्या हुआ शीर्षक पढ़कर क्या सोचने लगे। अरे! ओबामा और ओसामा तो हमारे पड़ोस में रहने वाले दंपती हैं जी। अब क्या बताएं, उनकी जिंदगी के बारे में। एक से एक रोचक काम करते रहते हैं दोनों। दोनों एक-दूसरे से बहुत प्यार करते हैं। एक-दूसरे के बिना एक पल भी नहीं रह सकते। ओसामा से बात करो, तो ओबामा का नाम बातचीत में जरूर आएगा और ओबामा की हर गुफ्तगू की शुरुआत ही ओसामा की कारास्तानियों से होगी। पर ओबामा महाशय तो हरदम अपनी हेकड़ी दिखाते रहते हैं और ओसामा रानी हमेशा मौका तलाशती है कि कब पतिदेव ओबामा को बता सके कि वो भी किसी से कम नहीं है। अलसुबह से ही दोनों झगडऩा शुरू कर देते हैं।

ओबामा की तो आदत पड़ गई है बेचारी ओसामा को बात-बात में झिड़कने की। ओसामा तो कभी घर से बाहर नहीं निकलती। हमेशा अपने ही खोल में छुपी रहती है। आप इसका मतलब आप ये मत लगा लीजिएगा कि ओसामा कमजोर है। अरे, जब-जब मौका मिलता है, ओबामा को वो भी बहुत चिढ़ाती है। कभी हवाईजहाज को बेलन का रूप देकर ओबामा के सिर पर मारती है, तो कभी-कभी अपनी सहेलियों से ओबामा की बुराई कर आती है। दरअसल देखा जाए, तो वे रहते तो एक घर में हैं, पर दोनों ने अपने-अपने पक्ष में कई लोग खड़े कर रखे हैं। ये लोग सिपहसालार की तरह उन्हें सलाह देते हैं कि कैसे एक-दूसरे को नीचा दिखाया जाए, अपनी धौंस जताई जाए।
अब इनके इकलौते बच्चे पाकिस्तान को ही ले लीजिए। यूं तो पाकिस्तान के लिए ओसामा और ओबामा दोनों ही माता-पिता हैं, पर पाकिस्तान अपनी मां ओसामा का ज्यादा साथ देता है। ओबामा अक्सर सोचता है कि इसे मौज-मस्ती, सैर-सपाटे के लिए जेबखर्च तो मैं देता हूं, फिर ये अपनी मां के इतनी नजदीक कैसे है। पर वो ये भूल जाते हैं कि ओसामा ने बचपन से ही पाकिस्तान को इतना प्यार किया है, तो वो कैसे उन्हें भूल जाए। पाकिस्तान एक दिन हमारे घर आया था। हमसे कह रहा था, 'ओबामा पापा तो कभी-कभी डांट भी देते हैं और जेबखर्ची के लिए दिए पैसों का हिसाब भी मांग लेते हैं, फिर कैसे मैं उनका कहा मानूं। दूसरी तरह मम्मी ओसामा मेरी हर गलती छुपाती है। जब भी पापा मुझे मारने दौड़ते हैं, तो मैं मम्मी की गोद में छुप जाता हूं और बच जाता हूं।Ó ओसामा और ओबामा भी एक-दूसरे पर आरोप लगाते रहते हैं कि पाकिस्तान को तुमने ही बिगाड़ा है। ओसामा कहती है कि तुम बच्चे को फालतू खर्चे के लिए इतने पैसे देते हो, इसीलिए वो बिगड़ गया है, वहीं ओबामा बोलता है कि ये तो तुम्हारे लाड़-प्यार की वजह से बिगड़ा है। ओबामा तो आम पतियों की तरह ही ज्यादातर चुप ही रहता है। उसे पता है कि अगर वो ज्यादा बोलेगा, तो ओसामा नाराज होकर अपने पीहर चली जाएगी। ओसामा के पिताजी तालिबान बड़े खूंखार हैं। अपने बेटी को ब्याह तो दिया मॉर्डन परिवार में, पर वे अभी भी पुराने ख्यालों के ही हैं। बात-बात में अपनी बंदूक तान देते हैं, अपने दामाद के ऊपर। अब ओसामा घर-गृहस्थी के फेर में यूं फंसा कि यार दोस्तों को ही भूल गया। बचपन का एक दोस्त है- हिंदुस्तान। पड़ोस में ही रहता है। उसके साथ खेलता-कूदता था ओबामा, पर अब तो हारी-बीमारी में भी हाल-चाल पूछने नहीं जाता। और एक तरह हिंदुस्तान है, जो आज भी अपनी हर खुशी में ओबामा को शरीक करता है। यूं ओबामा के लिए बहुत पैसा है, पर उसका सही इस्तेमाल नहीं कर पाता। उसकी बीवी ओसामा हमेशा ऐसी व्यवस्था करके रखती है कि सारे पैसे उसी पर खर्च हो जाते हैं। एक बार की बात है। ओसामा ने ओबामा से बड़े प्यार से कहा कि आओ जी, कहीं घूमकर आएं। पर ओबामा को ये सब पसंद नहीं था, तो उसने ओसामा से ही पूछा- तुम ही बताओ इस भरी गर्मी में कहां चलें। फिर तय हुआ कि चांद पर होकर आते हैं। चांद पर जो दोनों गए थे, तो अपना सामान ही वहीं भूल आए और लौटकर वापस लड़ाई करने लगे। यूं दोनों की गृहस्थी काफी अच्छी चल रही है, पर ओबामा थोड़ा शक्की मिजाज का इंसान है, सो अपनी पत्नी के दोस्त माओवादी से बहुत चिढ़ता है। माओवादी से चिढऩे की एक खासी वजह है। एक दिन ओबामा रात को पान खाने गया था, तो रास्ते में माओवादी गली के गुंडे लिट्टे के साथ बैठकर सिगरेट पी रहा था। तभी से वो ओसामा को समझाता रहता है कि तुम माओवादी से दूर रहा करो। पर ओसामा कहती है कि वो मेरे बचपन का दोस्त है। मुझे पता है कि वो सिगरेट पीता है, पर इससे क्या फर्क पड़ता है।
एक बात और बताते चलें कि ऊपर की गई व्याख्या से लग रहा होगा कि ओबामा और ओसामा तो बहुत बुरे पति-पत्नी हैं। पर असलियत में इन दोनों ने प्रेम विवाह किया है। दोनों एक ही कॉलेज में पढ़ते थे। पर कहानी में एक पेंच था। कॉलेज में पढऩे वाले रशिया को ओसामा बहुत चाहती थी। ओसामा बहुत अमीर थी। ऐसे में ओबामा खुद ओसामा को पटाकर करोड़पति बनना चाहता था। तब ओबामा ने चाल चली और रशिया और ओसामा के बीच में दरार डालना शुरू कर दी और आखिर में ओसामा को शादी के लिए मना लिया। वो तो शादी के बाद ओसामा को पता चल गया कि ओबामा ने मेरे साथ धोखा किया है और तभी से दोनों पति-पत्नी रहकर भी एक-दूसरे से दुश्मनों की तरह लड़ते हैं। हमें तो सोचते हैं कि इस प्रेमकथा और शादी के दुखद प्रसंग तो हम ही भले, जो आज तक कुंवारे हैं।
-आशीष जैन

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10 June 2009

हाय! हम उसके बिना कैसे रहें?

वो हमारी जान है। हाय! हम उसके बिना कैसे रहें? हमने उसके साथ कितना समय बिताया। और अब वो हमसे दूर है। गली-गली, कूचे-कस्बे सब जगह ढूंढ़ लिया, पर वो कहीं नहीं है। हमने लाख उपाए किए कि वो वापस आ जाए, पर पता नहीं किसकी नजर लग गई। मंदिर, मस्जिद हर जगह माथा टेका, पर शायद ऊपरवाले को भी मंजूर नहीं कि वो हमें नसीब हो। उसके बिना ना रातों की नींद है और ना ही दिन का करार। उसके लिए हम ही नहीं, हमारे दोस्त, हमारे शुभचिंतक यहां तक कि हमारे दुश्मन भी दुआ कर रहे हैं कि उसे पाना है। वही तो हमारी इज्जत है, वही हमारी शान है। सच-सच बताना, कल तक जो आपका हो, अगर वो किसी और के पास जाकर रहने लगे, तो क्या आपको बुरा नहीं लगेगा क्या?

हाय! हम उसके बिना कैसे रहें? कमबख्तों ने देश को खोखला कर दिया। यहां का सारा पैसा विदेशी बैंकों में ले जाकर ठूस दिया। इन नेताओं का बस नहीं चलता, वरना ये तो स्विट्जरलैंड में जाकर ही बस जाएं। इन्हें पांच बरस देते हैं, हम लोग, अपने विकास के लिए। पर देश का विकास तो जाए भाड़ में, इनकी आस तो अपने संतानों के सुख से जुड़ी है। हमारे लालजी इस चुनाव में बढिय़ा मुद्दा खोजकर लाए कि स्विस बैकों में जमा पैसा वापस भारत लाएंगे। एकबारगी तो इन नेताओं की जान पर बन आई होगी। हम तो ये चाहते हैं कि काश! वो पैसा जल्दी से जल्दी भारत वापस आ जाए। फिर देखते हैं कि किस नेता ने कितनी गद्दारी की है? छोड़ेंगे नहीं करमजलों को। मलाई खा-खाकर तुंदिया गए हैं। बुजुर्ग हो जाएंगे, पर नेतागिरी का भूत सिर से नहीं उतरेगा। युवाओं को टिकट देने के नाम से ही जान जाती है। अब जिस देश में करोड़ों लोग एक वक्त का खाना खाकर जिंदगी काट रहे हों, उस महान, भारत विशाल में अगर ऐसी धूर्तता चलती रहेगी, तो जल्द ही हम सबका बेड़ा गर्क हो जाएगा। हम तो मनमोहन भाई से इतना ही कहना चाहते हैं कि सरदारजी, आप इन पांच सालों में कुछ करें या ना करें, पर प्लीज विदेशी बैंकों में जमा नेताओं के पैसे को जरूर वापस ले आइए। ये देश आपका सदा ऋणी रहेगा।
हाय! हम उसके बिना कैसे रहें? गर्मी की छुट्टियां आते ही हमारी लख्तेजिगर, शरीकेहयात हमें छोड़ अपने मायके जा बसी है। मायका भी कहां अमरीका, इत्ती दूर। अब इस भरी दुपहरी में किससे दिल लगाएं, किससे अपने मन की बात कहें। वो होती थी कि गर्मी में भी ठंडक का एहसास होता था। चाहे वो हमें घर का काम ना करने के लाख ताने मारती थी, पर उसके बिना बहुत सूना लगता। राम कसम कपड़े धोने से लेकर खाना बनाने तक की मशक्कत में तेल ही निकल जाता है। दिनभर काम करने के बाद जब घर लौटकर उसकी गालियों की बौछार सुनता था, उसकी फरमाइशों की लिस्ट देखता था, तो लगता था कि ये भी कोई जिंदगी है। पर आज लग रहा है कि यह सुख भी बड़ी किस्मत वालों को ही नसीब होता है। कोई हमें बताए कि हम क्या जतन करें कि वो लौट आए। उससे फोन पर बात करने की कोशिश की, तो ससुरे ने फोन उठा लिया। हमने तो तपाक से अपनी आवाज बदल ली। और क्या करते? ससुरजी मिलिट्री में हैं। क्या पता भड़क उठें और बंदूक सिर पर तानकर बोलें कि मेरी बेटी पर अत्याचार करता है, दबाव डालता है। सो हम तो शांत हैं जी। हम तो अपने मन को यूं तसल्ली देते हैं कि जब उसे हम जैसे निरीह प्राणी पर तरस आएगा, तब खुद-ब-खुद लौट आएगी।
हाय! हम उसके बिना कैसे रहें? हमारा कोहिनूर हीरा तो इंग्लैंड की रानी के ताज में ही अटक कर रह गया है। कब से हमारी सरकारें चाह रही हैं कि वो वापस आ जाएं। मजे की बात बताएं कि सब सरकारें बस चाह रही हैं, कोई उसे वापस ला नहीं रहा। इतना शानदार हीरा अगर हमारे पुराने आकाओं की जमीन पर पड़ा रहेगा, तो कैसे लगेगा कि हम आजाद हैं। जो हमारा है, उस पर हम अपना हक दिखा सकते हैं। ये तो कोई बात नहीं हुई जी। अब गांधी बाबा की विरासत को ही देख लो। कहीं चश्मा, कहीं घड़ी। कुछ-कुछ दिन छोड़कर अखबारों में खबर पढऩे को मिलती हैं कि नीलामी के लिए गांधीजी की फलां चीज सामने आई है। यूं तो हमारे राष्ट्रपिता हैं बापू। पर ये जोर कोई नहीं लगाता कि एक बार में छानबीन करके गांधीबाबा की सारी चीजें भारत ले आएं। सच कहें, बापू की चीजों की नीलामी होते देख, हमारा दिल तो बहुत दुखता है जी। जिन गांधीजी को शराब से नफरत थी, उसकी चीजों को देश में शराब बेचने वाला व्यापारी वापस लेकर आए, ये हमें कतई नहीं सुहाता। गांधी की विरासत अपनी जमीन पर वापस आएगी, तो हमें लगेगा कि हमारे लोगों की नजर में भी संस्कृति और धरोहर कोई मायने रखता है। नहीं तो ये दिल यूं ही मचलता-तड़पता रहेगा।
हाय! हम उसके बिना कैसे रहें? लगता है कल-परसों की ही तो बात है। हमारा भतीजा मोनू आईआईटी करने मुंबई गया था। पूरे घर ने सोचा था कि अपन का सपूत तो पूरे खानदान को निहाल कर देगा। पर वही हुआ, जिसका हमें डर था। ना जाने क्या सोचकर मोनू विदेश चला गया, नौकरी करने। यूं तो नौकरी उसे अपन के देश में भी कई मिल रही थी, पर वो होता है ना विदेश सैर का चस्का। अब आसानी से यह लत नहीं छूटेगी। अब तो बिल्कुल बदल गया है। फोन पर जब करते हैं, तो वही अंग्रेजी लटके-झटके। हाय मॉम-डैड। मुझे अंकल कहने लगा। खान-पान, संस्कृति सब कुछ भूल गया। साल में एक बार अपनी शक्ल दिखा जाता है। अरे, ये भी कोई जिंदगी है। मां-बाप ने पाला-पोसा, बढ़ा किया और तुम हो कि पैसे के पीछे भागते-भागते अपनी जमीन को छोड़कर। अरे लल्ला, एक बार अपने देश की सौंधी मिट्टी की महक लेकर तो देखो, फिर वापस नहीं जा पाओगे। और हमें क्या चाहिए? रुपए-पैसे तो हमारे पास भी बहुत हैं। देश ने तुम्हारे लिए कितना कुछ किया है, तो क्या तुम उसे वापस कुछ नहीं लौटाना चाहते। चलो और किसी के लिए नहीं, तो अपनी मां के लिए ही आ जाओ, जो तुम्हें कई दिनों से गले लगाने के लिए तड़प रही है।
-आशीष जैन

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जन-गण का रण

आपको तो पता है कि गर्मी कितनी पड़ रही है? पारा कितना ऊपर चढ़ चुका है। ऐसे में लोगों का मगज भी ठिकाने पर नहीं है। उनका पारा किसी भी बात से चढ़ सकता है। पूरा देश छोटी-छोटी सी बात पर बौखला सकता है। सब चाहते हैं कि रेल की पटरी की तरह जिंदगी सब सीधी-सपाट चलती रहे। अब अगर क्रिकेट में मास्टर ब्लास्टर नहीं चला, राजनीति में कमल का फूल मुरझा गया और नौकरी पर संकट छा रहा है, तो इसमें हम क्या करें। क्या बोलना-लिखना छोड़ दें। किसी से कहो कि तसल्ली रखो, तो भड़क उठता है। अरे, क्या जमाना है भई, हम कह रहे हैं कि नौकरी गई नहीं है, सब अफवाह है और तुम हो कि अफवाहों को सुन-सुनकर ही पतले हुए जा रहे हो। सोच रहे हो, अब मेरा ही नंबर है नौकरी से निकलने का।
किंगखान का तो क्रिकेट का नशा उतर गया लगता है। कितनी तालियां बजाई थीं, अपने खिलाडिय़ों के चौक्के-छक्कों पे। पर फिर कुछ काम नहीं आया।

महारानी ने चुनौती दी थी 'जादूगर' भाई को। कहा था कि विधानसभा जैसा प्रदर्शन लोकसभा में करके बताओ, तो दम मानें। अपने 'जादूगर' गहलोत ने भी बता दिया कि हम चाहे पिछली बार की भाजपा का 21 का आंकड़ा ना छू पाए, पर आपको तो चार पर ही सिमेट दिया न। अब महारानी की बोलती बंद है। बाबोसा ने भ्रष्टाचार का राग अलापा, तो सबकी बोलती बंद। अब पुराने चिट्ठे खुल रहे हैं, तो बदले की राजनीति का नाम लेकर मुंह क्यों फेर रहो हो। पता है बहुत गर्मी है। पर इसमें हमारा क्या दोष। कूलर-एसी में बैठो। धूप में निकलते ही क्यों हो, जो गर्मी सिर में चढ़ जाए।
अपने फिल्म वाले रामू भैया भी कमाल है। राष्ट्रगान के शब्दों में उलटफेर करने चले थे। अरे भई, एक अदद अच्छा गीतकार नहीं खोजा जा रहा था क्या, जो दिल की बात को शब्दों में ढाल सके। तर्क भी तो देखिए जनाब का- इससे फिल्म की मूलभावना झलकती है। मूलभावना के लिए कोई और तरीका नहीं बचा क्या। सब चीजों को पैसे के तराजू पे तोलकर अपने इस्तेमाल की फितरत बदल डालो रामू भैया। अब लग गई ना सुप्रीम कोर्ट की रोक इस गीत पर। रामू को गुस्सा तो बहुत आ रहा होगा, पर किस पर निकालें।
अब देश के जन-जन ने सोचा था कि हमने स्पष्ट जनादेश दिया है, तो फिर केंद्र में कोई बवाल नहीं होगा। पर ये नेता हैं ना, अपनी आदत से बाज थोड़े ही ना आएंगे। करूणा की भावना कठोर हो गई है और ममता का पता नहीं, कब पलीता लगा दे। उसे अपनी संतानों का मोह है, तो उसे बंगाल चाहिए। मंत्रालयों की बंदरबांट के लिए यूं लालायित हैं, मानो देश नहीं चलाना, उसे लूटना-खसोटना है।
लोगों ने वोट किस बात के लिए दिया है, पहले ये समझो। लोग चाहते हैं कि जो विकास के काम पिछली सरकार ने किए हैं, वे लगातार चलते रहें। और ये सारे काम तभी लगातार चलते रहेंगे, जब सरकार के साथी उनके काम में कोई टांग ना अडाएं। जो भी विभाग मिले, उस में भी ही बैस्ट काम करें।
जन-जन का मन जानने के लिए उनकी बातों को ध्यान से सुनना जरूरी है। आज लोग युवा नेता चाहते हैं। 61 महिलाएं पहली बार संसद के गलियारों में पहुंचेंगी, तो संभव है कि अब राजनीति के स्तर में मौजूद गिरावट में कमी आए। यूं तो ये सारी महिलाएं किसी ना किसी दिग्गज नेता की बेटी या पोती हैं, पर उनसे ही आस है कि ये महिलाओं के मन की बात समझेंगी और महिला आरक्षण विधेयक को अपनी मंजिल तक पहुंचाएंगी। आज राजनीति के सुधार पर गली-मोहल्ले में चर्चा हो रही है, तो कहीं ना कहीं जनता की सोच में बदलाव तो है ही। अब वे चाहते हैं कि अगर कोई नेता संसद में नालायकी दिखाए, तो उसे वापस जनता के पास भेज देना चाहिए। जनता खुद-ब-खुद निपट लेगी।
-आशीष जैन

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महिलाओं ने हिला दिया

आज हमारी घरवाली बड़ी खुश है। खूब प्यार से बात कर रही है, खाना भी बहुत स्वादिष्ट बनाया है। आज तो ऑफिस से लेट आने पर ताने भी नहीं मारे। क्या बात है, ये सूरज पश्चिम से कैसे उग रहा है। जरूर हो ना हो, दाल में कुछ काला है। रोज तो अपने दुख-दर्द का पिटारा लेकर बैठ जाती थी, कहती थी कि तुम मर्दों ने हमारी जिंदगी तबाह कर रखी है। तुमने हमें दबाकर रखा हुआ है। हमें आगे बढऩा चाहती हैं। और आज कह रही है कि तुम बहुत अच्छे हो, मेरा हर कहा मानते आए हो। मुझे तुम्हारा साथ बहुत भाता है। ये सुनकर मैं वैसे ही उलझन में था, इतने में ही उसने एक सवाल भी दाग दिया कि आगे भी मेरा साथ दोगे ना। मैं सोच में पड़ गया कि कैसे साथ देने की बात कर रही है ये। जरूर कोई बड़ा फंदा लाई है, ये मुझे फंसाने के लिए। मैं सर्तक हो गया। सोचने लगा कि इन दिनों में कुछ खास तो नहीं हुआ।

तभी हमें याद आया कि 100 दिन की मियाद में सरकार महिलाओं को देश की सबसे बड़ी पंचायत में आरक्षण देने जा रही है। जरूर इसे किसी ने बता दिया हो। अब तो ये जरूर चुनाव लडऩे की प्लानिंग बना रही होगी। दरअसल जब भी हमारी बीवी खुश होती है, मायावती और ममता बनर्जी के गुणगान करने लगती है। बोलती है, काश! मुझे भी मौका मिलता चुनाव लडऩे का। तुम जैसे पतियों की तो अकल ठिकाने पर लगा देती। हमें तो शुरू से ही पता है कि स्त्री शक्ति का कोई सानी नहीं है। अगर स्त्री जाग गई, तो सबको सुला देगी। आज जब बिना आरक्षण के ही महिलाओं ने अपना डंका चहुंओर मचा रखा है, तो फिर तो पुरुषों के बोलती ही बंद हो जाएगी।
मेरी पत्नी को तो मीरा कुमार की आवाज में भी कोयल की बोली नजर आती है, कहती है, कितना मीठा बोलती है। अब मीठा बोल-बोलकर संसद में सबको चुप कराएगी। हैडमास्टरनी बन गई है, सब नेताओं की। देखा ना बस एक पोस्ट बची थी, जिस पर महिला नहीं थी, अब तो वो भी पूरी हो गई। अपनी प्रतिभा ताई, सोनिया मैडम और इंदिरा गांधी की तरह ये भी अपना परचम लहराएगी। वैसे मेरा मानना है कि यूं अगर महिलाओं को आरक्षण नहीं भी मिलेगा, तो जल्द ही वो दिन भी आएगा, जब पूरी संसद में महिलाएं नजर आएंगी और जो बचे-कुचे पुरुष होंगे, वे सब मौन में चले जाएंगे। उन्हें ये डर हमेशा सताएगा कि कहीं ये औरतें अपने बैगों में बेलन छुपाकर ना लाई हों। अगर ज्यादा भड़भड़ाहट की, तो तपाक से बेलन निकालकर मारेंगी। अब देख लीजिए शुरुआत तो हो चुकी है, उनसठ महिलाओं ने बाजी मार ली ना इस बार के चुनावों में।
आरक्षण आएगा, तो ऐसी महिला क्रांति लाएगा, जिसकी उम्मीद तो शायद महिला सशक्तिकरण करवाने वाली संस्थाओं ने भी नहीं की होगी। पुरुषों की बजाय अब महिलाएं चाय की थडिय़ों का मंच हथिया लेंगी। सारी औरतें मिलकर वहीं कंट्री के फ्यूचर की प्लानिंग करेंगी। पनवाड़ी की दुकान पर महिला पान बेचती नजर आएंगी, रैलियों में महिलाओं की भीड़ उमड़ेगी, बसों में पुरुष आरक्षित सीटें नजर आएंगी, महिला आयोग के दफ्तर पर ताला लग जाएगा और सारे पुरुष मिलकर पुरुष आयोग की मांग करने लगेंगे। दहेज पीडि़त महिलाएं नदारद हो जाएंगी और महिलाओं द्वारा उत्पीडि़त पुरुषों की संख्या में भारी इजाफा देखने को मिलेगा। राष्ट्रपिता, राष्ट्रपति जैसे शब्दों की तरह ही संविधान में राष्ट्रमाता, राष्ट्रपत्नी जैसे शब्दों को शामिल करने की पुरजोर वकालत की जाएगी। आतंकवादियों की नई फौज में महिला आतंकवादियों का वर्चस्व बढऩे लगेगा... इत्यादि इत्यादि। यूं तो मेरे पास भावी परिवर्तनों की बहुत लंबी लिस्ट है, पर उन सब बातों का यहां उल्लेख करना ठीक नहीं रहेगा। वरना लाखों पुरुष शरद यादव की तरह ही आत्महत्या करने की योजना बना लेंगे। मैं नहीं चाहता कि मेरी जात मतलब पुरुष बिरादरी घबराहट में कुछ गलत उठा ले। भाईयो, अभी डरने की नहीं धैर्य करने की जरूरत है। हम आपको यकीन दिलाते हैं कि आप पर ज्यादा आंच नहीं आएगी। हम अपनी माताओं-बहनों-बीवियों से फरियाद करेंगे कि वे अपने बाप-भाई-पति का पूरा ध्यान रखेंगी। हम उनके साथ समझौता करने को तैयार हैं। वो हमें समय पर चारा मतलब भोजन मुहैया करवाएंगी बदले में हम घर की सफाई कर दिया करेंगे। वो हमसे थोड़ा प्यार से बात कर लिया करेंगी और हम बदले में बच्चों की पोटी साफ कर दिया करेंगे।
हम इतना सोच कर पसीने-पसीने हो गए और मन किया कि अपनी पत्नी के पांव छू लें और उसे अभी से पटा लें। पर क्या देखते हैं कि पत्नी कलैंडर लेकर सामने खड़ी थी। बोले बस कुछ ही दिन तो बचे हैं। हमने सोचा कि इसने 100 दिनों में से उल्टी गिनती शुरू कर दिया दिखता है। पर वो बोली कि मुझे मायका जाना है, बच्चों की छुट्टियां खत्म होने में कुछ दिन ही बचे हैं। आप घर का ध्यान रखना, मैं जल्द ही आ जाऊंगी। इतना कहकर वो मायके जाने की तैयारी करने लगी और हम सकुचाए से अपने भविष्य के संकट के बारे में दुबारा विचारमग्न हो गए।
-आशीष जैन

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03 June 2009

बाखबर बरखा

बरखा दत्त टीवी पत्रकारिता का एक मशहूर चेहरा। करगिल वार जैसी मुश्किल कवरेज इनके खाते में दर्ज है। आइए जानते हैं, इनके कॅरियर और निजी जिंदगी के दिलचस्प वाकयों के बारे में, खुद उनकी जुबानी-
इस बात से मैं बेहद खुश हूं कि लोग मेरे काम को इतना पसंद करते हैं। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं जर्नलिस्ट बनूंगी। मैं तो डॉक्यूमेंटी फिल्ममेकर या वकील बनना चाहती थी। अभी भी वकील बनने का मेरा ख्वाब जिंदा है। मेरी मां प्रभा दत्त भी पत्रकार थीं। उन्होंने जंग तक की कवरेज की थी। इसलिए न्यूज में मेरी शुरू से ही दिलचस्पी थी। मैंने शुरू में रिपोर्टिंग के साथ प्रोडक्शन का काम भी किया था। जामिया मिलिया के साथ-साथ कोलंबिया के पत्रकारिता संस्थान से भी मास्टर्स पूरा किया था। कोलंबिया जाने के समय मैंने पत्रकारिता के कॅरियर से डेढ़ साल की छुट्टी ले ली थी।

पत्थर के पीछे कई रातें
जर्नलिज्म में नौकरी को लेकर काफी असुरक्षा रहती है, पर फिर भी मैंने रिस्क लिया और वहां गई। और देखिए, मेरी वापसी के आठ महीने बाद ही करगिल की लड़ाई शुरू हो गई थी। करगिल वार की कवरेज के दौरान मेरे पास एक ही जींस रह गई थी, मैं 15 दिन तक उसी को पहने रही। करगिल में मेरे किरदार को फिल्म 'लक्ष्यÓ में प्रीति जिंटा ने बखूबी निभाया। लड़ाई का कवरेज करते वक्त डर तो लगता है, पर वहां घटनाक्रम इतनी तेजी से बदलता है कि डर पीछे छूट जाता है। उस वक्त आपको समझ नहीं आता कि आप किस तरह का जोखिम ले रहे हैं, पर बाद में उन दिनों को याद करके हैरान रह जाती हूं कि मैंने इतने ज्यादा रिस्क लिए थे।
मुझे आज भी याद है कि करगिल वार के दौरान हम जिस गाड़ी में थे, उस पर गोलीबारी हो गई और हमने कई रातें एक बड़े पत्थर के पीछे छुपकर गुजारीं। दिल-दिमाग पर बस लड़ाई का कवरेज छाया हुआ था, ना खाने की फिक्र, ना नहाने की। जो हेलीकॉप्टर्स शवों को ले जाते थे, हम उनसे कवरेज के टेप साथ में ले जाने की गुजारिश करते थे। वहां पर मोबाइल की बजाय सैटेलाइट फोन थे। बंकरों में छुपकर मैंने सैटेलाइट फोन से रिपोट्र्स भेजीं।
थोड़ा-सी सनक चाहिए
मेरा बचपन नई दिल्ली और न्यूयार्क में गुजरा। बचपन के कई साल मैंने न्यूयॉर्क में गुजारे थे। मेरे पिताजी एयर इंडिया में काम करते थे और उनके ट्रांसफर के चलते हमें न्यूयार्क जाना पड़ा था। मैंने दुनिया बहुत घूमी है। पर मैं बचपन में शरारती नहीं थी बिल्कुल खामोश रहती थी। उस वक्त भी मैं बहुत किताबें पढ़ती थीं। आज भी खाली समय में किताबें ही पढ़ती हूं। मैं अपनी मां और उनके काम से बहुत प्रभावित थी। पर जब मैं मात्र तेरह साल की थी, तो ब्रेन हैमरेज से उनका देहांत हो गया। मुझमें आज भी न्यूज को लेकर बहुत ज्यादा भूख है। या यूं कहूं कि न्यूज को लेकर थोड़ा-सा पागलपन भी है। एक बार मैंने किसी लेख में लिखा था कि टीवी जर्नलिज्म होने के लिए आपको थोड़ा सनकी भी होना चाहिए और यह बात मुझ पर सटीक बैठती है।
मैं असल जिंदगी में जो स्टाइल अपनाती हूं, वही तरीका मैं कैमरा फेस करते हुए भी इस्तेमाल करती हूं। शुरुआती दौर में एक बार मैंने राहुल द्रविड़ से कह दिया कि मुझे क्रिकेट में दिलचस्पी नहीं है। इसके बाद मुझे कभी इंटरव्यू नहीं मिला। मैं जिंदगी में जैसे बात करती हूं, वैसे ही टीवी पर बात करती हूं। करगिल पर मेरे बेहतरीन काम को देखकर एक बार अमिताभ बच्चन ने मुझे फोन करके बधाई दी।
मेहनती होना चाहिए
मैं सद्दाम हुसैन के जमाने में इराक गई थीं। वहां अमरीकी सैनिकों ने हमें पकड़ लिया और टेप ले लिए। फिर जैसे-तैसे वहां से छूटी। मेरे साथ ऐसे कई वाकए कॅरियर के हर मोड़ पर हुए हैं। जब मैंने सलमान रुश्दी का इंटरव्यू किया, तो मैं बहुत घबराई हुई थी। मुझे इस बात का डर था कि चाहे मैं कुछ भी पूछ लूं, वे इतने चतुर हैं कि अपनी बात को सही साबित कर देंगे। रतन टाटा का इंटरव्यू लेना भी काफी मुश्किल है, वह अंतर्मुखी हैं और बहुत कम बोलते हैं। सोनिया गांधी बहुत ही शर्मीली महिला हैं। मैंने बेनजीर भुट्टो की हत्या के तीन दिन बाद आसिफ अली जरदारी से लरकाना में इंटरव्यू किया। उस वक्त मुझे समझ नहीं आ रहा था कि इंटरव्यू में निजी बातें कितनी पूछूं और राजनीतिक कितनी।
पद्मश्री मिलने पर मैं बहुत अभिभूत महसूस कर रही थी। मैंने कभी नहीं सोचा था कि उम्र के तीसरे दशक में मुझे पद्मश्री जैसा पुरस्कार मिलेगा। मैं आलोचनाओं को भी काफी ईमानदारी से लेती हूं, पर उसमें झूठ शामिल नहीं होना चाहिए। खाली समय में बहुत-सी फिल्में देखती हूं। मुझे मर्डर मिस्ट्री और जासूसी सीरीज देखना बेहद पसंद है। फिल्मों में शशि कपूर मेरे फेवरिट हैं। लोगों को लगता है कि टीवी जर्नलिज्म बड़ा ग्लैमर वाला प्रोफेशन है, पर ऐसा नहीं है। इस पेशे में वही टिक सकता है, जो बहुत मेहनती है। मैं बहुत भावुक हूं। गुस्सा जल्दी आ जाता हूं, तो आंसू भी जल्दी आते हैं।
-आशीष जैन

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