05 March 2009

ये निराली होलियां

धमाल हो, गींदड़ नृत्य हो या न्हाण राजस्थानी फिजाओं में होली के लिए अलग-अलग परंपराएं हैं। आइए हम भी डूबते हैं राजस्थानी होली के रंगों में-
राजस्थान में होली। भई ब्रज की होली देख ली, पर अगर कभी धोरां री धरती पर होली के नजारे नहीं देखे, तो समझो जीवन में उल्लास की असली तस्वीर ही नहीं देख पाए। यहां होली का मतलब खुद को भुलाकर मस्ती में डूबना है, तो भगवान को याद करना भी है। अपनी पूरी ऊर्जा के साथ यहां के लोग होली को सबसे बड़ा त्योहार मानते हैं। यहां होली हर क्षेत्र में अलग-अलग तरह से मनाई जाती है। धमाल, गींदड़ नृत्य और न्हाण की परंपरा यहां बरसों पुरानी हैं।

गाओ रे धमाल
राजस्थान में एक जिला है-अलवर। वहां के खैरथल कस्बे में रह रहे पुष्करणा समाज के लोगों के लिए फागुन का मतलब होता है- कृष्ण रस में डूब जाना। समाज के लोग होली के अद्भुत रसिये रहे हैं व इस रस का राज छुपा है 'धमाल' में। धमाल मतलब ढोलक पर धम-धम करते हुए मस्ती और उल्लास के गीत। भगवान की फाग लीलाओं को अनुभूत करने के बाद भक्त कवियों ने ही ये रचनाएं लिखी थीं। खैरथल में होली का उत्सव बहुत पहले ही शुरू हो जाता है। बसंत पंचमी के दिन सभी बुजुर्ग और युवा मिलकर होली के स्वागत में श्री राधाकृष्ण मंदिर में धमाल शुरू करते हैं। फिर शिवरात्रि को धमाल रस की गंगा बहती है व शुक्ल पक्ष की अष्टमी के बाद तो यहां हरेक फागुन के रंग में रम जाता है व शाम से देर रात तक हर रोज 'धमाल' रस की होलियां गाई जाती हैं। महिलाएं भी अपने समूह में पूरे फागुन मास में शाम के समय 'धमाल' गाती हैं। सैकड़ों लोग घेरे में बैठ कर ताशों, मंजीरों व विशिष्ट शैली से बज रहे ढोलक की मीठी तान में जब तल्लीन होकर धमाल गाते हैं, तो एक अलग ही नजारा होता है। हर धमाल की अलग गायन शैली होती है। केसर, सुरंगी, गूजरी सहित करीब 20 से ज्यादा विशिष्ट धमाल हैं। इनमे सबसे मधुर होरिया की तान पर तो मानों देवता भी रीझ जाएं। एक धमाल 20 मिनट से 1 घंटे तक गाई जाती है व बीच के अंतरालों में भक्त कवियों के 'सवैये' गाये जाते हैं। 'सवैयों' में सभी बारी-बारी से उच्च स्वर में विशिष्ट शैली से गायन करते हैं व एक अनूठा रसमय माहौल बन जाता है। एकादशी से तो रोज रात को धमाल समाप्त होने के बाद देर रात तक सभी युवक समूह बनाकर फाग गाते हुए गांव की गलियों में निकलते हैं व होलिका दहन स्थल तक जाते हैं। धमाल के बाद हर रोज चने की विशेष प्रसादी जिसे 'फगुआ' कहते हैं, का वितरण किया जाता है। कहते हैं कि जब भगवान श्रीकृष्ण होली मनाते थे, तब भी यह विशिष्ट फगुआ प्रसादी ही बनती थी। यहां के लोग चाहे देश के किसी भी कोने में क्यों ना हो होली के अवसर पर धमाल में जरूर शामिल होते हैं। धुलंडी की शाम की धमाल के बाद पूरा समाज मंदिर के प्रांगण में बैठता है व सामूहिक प्रार्थना जिसे 'पल्लो' कहते हैं, में भगवान द्वारकाधीश से सुख, शांति व समृद्धि की अर्ज करता है। है ना होली मनाने का अद्भुत उल्लास।
चंग संग गींदड़
चलिए अब शेखावाटी की ओर रुख करते हैं। यहां का गींदड़ नाच। फतेहपुर, रामगढ़-शेखावाटी, राजलदेसर, सुजानगढ़ कस्बों में फागुन में क्या गजब नजारा रहता है। सांझ ढलते ही गली, मोहल्ले, चौक, गुवाड़ और चौराहों पर लोगों का जमावड़ा। फिर देर रात तक चलता फाग और मस्ती का दौर। एक से बढ़कर एक लोकगीत, स्वांग, ढप की ताल में ताल मिलाते मंजीरे, नगारी और बांसुरी की सुरीली आवाज, मानो अंचल की लोक संस्कृति की तस्वीर खींच रहे हों।'आज मान्ह रमता ने लाडूड़ों सो लाध्यो ये माय, म्हारी गींदड़ रमबा ने द्गयास्या' यह लोकगीत बताता है कि अंचलवासियों को गींदड़ नृत्य लड्डूओं से भी प्यारा लगता है। गींदड़ नृत्य का कार्यक्रम पांच-छह दिन तक चलता है। इसमें महिला के वस्त्र पहने पुरुष नृत्य करते हैं। गींदड़ में पुरुष दोनों हाथों में डंडे लेकर एक गोल घेरे में घूमते हुए नृत्य करते हैं। नर्तक आपस में लयबद्ध तरीके से डंडे टकराते चलते हैं। घेरे के बीच में कुछ लोग बांसुरी, नगारी, मंजीरे व चंग बजाते हुए लोकगीत गाते हैं। नृत्य की विशेषता है कि इसमें डंडों के टकराव, पैरों की गति व चंग की ताल का सामंजस्य होता है। गींदड़ नृत्य में वेशभूषा से लेकर हाव-भाव सब कुछ एक ही लय में होता है। लोग मेहरी बनते हैं, स्वांग रचते हैं जो देखने में अच्छा लगता हैं। चूरू जिले के सुनहरे धोरों की धरती के बीच रचे बसे राजलदेसर में चंग, झांझ और नगाड़े की धमक-छमक से मुखरित, गौरवमय परम्परा का मूर्त रूप फाल्गुनी नृत्य गींदड़ राजस्थान का ही नहीं वरन सम्पूर्ण देश के लिए अनुठा एवं बसंतोत्सव के आयोजनों का हार श्रृंगार है। कहा जाता है कि राव बीका के सुपुत्र राजसी ने सन्‌ 1607 में राजलदेसर की जागीर मिलने पर खुश होकर गींदड नृत्य का पहली बार आयोजन करवाया था, जो आज भी जारी है। गींदड़ नृत्य में बंदनवारों और रोशनी से सजे-धजे गोलाकार इन गींदड़ स्थलों के मध्य लगभग पन्द्रह फीट ऊंची-ऊंची बांस की बल्लियों के सहारे पाट्टे-तख्तों से बनाये मंच देखते ही बनते है। विभिन्न वेशभूषाओं में स्वांग धार, पांवों में घुंघरू बांधकर और हाथ में डंडियां लेकर गींदड़ के गेड़ (घेरे) के अंग बन जाते है जहां नगाड़ों की धमक, घुंघरूओं की छमक, डंडिये की तड़क, नारी रूप नृतक के घाघरे के घेर की घमक और अंग संचालन की ठसक के साथ लोक गीतों की सुरीली तान पर पूरा घुमाव ले-ले कर एक दूसरे से डंडिया भिड़ाते हुए रसिये रात-रात भर आनन्द लेते रहते है । दुग्ध ध्वल पूर्णिमा की चांदनी रात्री में गींदड़ रमते रसियों व दर्शकों की मौज मस्ती देखते ही बनती है।
किन्नरों का न्हाण
चलिए अब आपको हाडोती ले चलते हैं। हाडोती में न्हाण की परंपरा सालों पुरानी है। होली के दूसरे दिन से ही पड़ोसी व रिश्तेदारों के घर रंग डालने की परंपरा है। यह होली के द्वाद्वश तक जारी रहती है। कई जगह इसे धूमधाम और शोभायात्रा के रूप में मनाया जाता है। इनमें सांगोद का न्हाण खास है। इसकी शुरुआत 1632 में हुई। कहा जाता है कि पन्द्रहवीं शताब्दी में होली की पंचमी के दिन सांगा नामक योद्धा ने 12 कस्बों के योद्धाओं से एक साथ युद्ध किया और शहीद हो गया। उसके बलिदान दिवस पर न्हाण की सवारी निकाली जाने लगी। जिसमें लोगों पर रंग डालते शोभायात्रा निकालती। न्हाण के दिन यहां राज्य के बाहर से भी किन्नर शोभायात्रा में शामिल होते हैं। इनकी महासभा भी होती है। किन्नर इस न्हाण में शामिल होना सौभाग्य मानते हैं और वीरता के प्रति प्रतिबद्धता दोहराते हैं। ऐसी मान्यता है कि किन्नर ब्रह्माणी माता को मानते हैं और न्हाण में हर शोभायात्रा ब्रह्माणी माता मंदिर से शुरू होती है। न्हाण में काला जादू के हैरतअंगेज करतब और बादशाह की सवारी को बहुत तवज्जो दी जाती है। जिसमें सांगोद के ही एक परिवार के बच्चे को बादशाह बनाकर सोने से लादा जाता है और सजे धजे हाथी पर शोभायात्रा निकाली जाती है। देवविमान तडक़े दो तीन घंटे काला जादू में कच्चे धागे से बैलगाड़ी का पहिया बांधना, उल्टे चाकू में नींबू अटका कर मटका बांधना, बारह भालों की लागे और किन्नारों के नृत्य भी लोगों का मन मोह लेते हैं। तो भई अब तो आप भी जान गए ना कि किस तरह धोरों की धरा पर होली अपनी मस्ती के रंग बिखेरती है।
-आशीष जैन

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