15 June 2009

मियां गुमसुम और बत्तोरानी का तबादला

या खुदा, ये दिन किसी को देखना ना पड़े। सब हंसते-खेलते रहें, तो मन को अच्छा लगता है। हम तो चाहते हैं कि इस झुलसती गर्मी में किसी भी प्राणी मात्र को कोई भी वेदना ना झेलनी पड़े। जीते-जी मरन का सा एहसास होने लगता है। छुईमुई से चेहरों की हवाइयां सी उड़ जाती हैं। सारे कसमें-वादे अधूरे से रह जाते हैं। जिंदगी अधरझूल सी लगने लगती है। ऐसा लगता है कि खाना खाते-खाते मुंह में कंकड़ आ गया हो। सारा स्वाद किरकिरा हो जाता है। अब क्या बताएं कल तक अपने ऑफिस में बादशाह की तरह थे मियां गुमसुम और बत्तोरानी।

जो उन्होंने कह दिया, कर दिया, वही सबके सिर-माथे। किसी की क्या मजाल, जो उनके काम पर उंगली तो उठाए। जो यह गलती करता था, वो तो समझो गया काम से। उसका तो जीना हराम हो जाता था। सौ बातें सुननी पड़ती थीं और रहते वही थे ढाक के तीन पात। रहो बेटा, कुढ़ते। खुद काम करते रहो और उनको फायदे की मलाई खाते देखते रहो। काम में कोई गलती हो जाए, तो हमारे सिर और तारीफ सारी उनके खाते में। गधे की तरह पिदें हम और घोड़े की तरह घास चरें वो। उनकी हर बात को खुदा की सलाह की तरह मानकर दिन-रात घुसे रहते थे अपने काम में। हमें लगता था कि यही है जिंदगी। हम सोचते थे कि ये ही हमारे तारणहार हैं। पर उन तारणहार की तो खुद की ही किश्ती डूब गई। किसी ने कहा है ना कि खुदा मेहरबान तो गधा पहलवान। तो हम भी कौनसे सदा के लिए गधे रहने वाले थे। वो खिसक लिए और हम जम गए। खुदा कसम, शुरू में अखबार में ये मंदी-मंदी सुनकर हमें डर नहीं लगता था। सोचते थे कि ऐसा भी कहीं होता है कि अमरीका में मंदी और फर्क पड़े हमारे देश पर। नौकरियां जा रही हैं, तो जाएं। अमरीका से हमें क्या वास्ता। पर जब अपन के देश को ये बीमारी लगी, तो गाज तो अपने साथी लोगों पर ही आकर गिरी। उनका तबादला हो गया। हमें लगा कि ये क्या हुआ, गाज तो हम पर गिरनी चाहिए थी। सबकी नजर में गधे तो हम ही थे ना। पर मंदी की मार तो सारे घोड़ों को ले मरी। किसी को कहां फेंका, किसी को कहां। कोई जंगल में डाल दिया गया, तो किसी को बार्डर एरिया मिल गया। अब चरो बैठकर आराम से घास। कसम ऑफिस में चलते कूलर और पंखों की। आज तक हमने कभी उनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं देखी। उन्हें देखकर लगता था कि क्या कूल लाइफ है इनकी। काम की कोई टेंशन ही नहीं और एक हम हैं कि कूलर के सामने बैठकर भी पसीने में तरबतर रहते हैं। काम की टेंशन के चलते हांफते हुए कुत्ते बन जाते हैं। कसम से जब वे जा विदाई ले रहे थे, तो हमने कइयों की आंखों में आंसू तक देखे हैं। कुछ का उनसे स्नेह का संबंध का था, तो किसी का वास्ता प्यार के रिश्ते से। अब कैसे दिन कटेगा। हमारे मियां गुमसुम और बत्तोरानी तो अब विदा हो रहे हैं। मियां गुमसुम का चेहरा देखकर हंसी के फव्वारे छूटते थे और बत्तोरानी की बातें हमारे चांद-सितारों की सैर करा देती थी। ऑफिस में उनके बिना तो 'बिन पानी सब सूनÓ वाली कहावत चरितार्थ हो जाएगी। गम तो हमें भी था कि इतने दिनों हमारे साथ काम किया, अब एकदम से सारा काम हमें ही करने पड़ेगा। पर हमें यह ज्यादा लग रहा था कि जान बची, तो लाखों पाए। वे तो समझ नहीं पाए कि कब, क्यूं और कैसे ये हुआ। कल तक तो सब सही था। फिर एकदम से घंटी बजी और ट्रांसफर का लैटर हाथ में। मन ही मन सोचने लगे, 'कहां कमी रह गई, सारी सेटिंग तो ठीक थी। कोई बयानबाजी नहीं, कोई हंसी-मजाक नहीं। सोचा था कि ये सारी खुराफातें तो तबादलों के दौर के बाद में कर लेंगे। बॉस की भी खूब चापलूसी की थी। हो ना हो, जरूर किसी ने हमारी शिकायत की है।Ó इन सब बातों के बीच में वे ये भूल गए कि ये जो बॉस नाम की जीव होता है, वो यूं तो हमेशा आपकी तारीफ करेगा, हमेशा मुस्कराता रहेगा, पर जब आखिरी दांव लगाना पड़ेगा, तो निखट्टुओं को ही आगे करेगा। उसे पता है कि अगर गधों की तरह पिदने वालों को बाहर भेज दिया, तो फिर ऑफिस का काम कौन करेगा। दरअसल हमें हमारे गुरु ने पहले ही एक मंत्र दे रखा था कि ये बॉस नामक जीव कभी किसी का सगा नहीं होता। अगर वो आपकी तारीफ नहीं कर रहा, तो घबराने की जरूरत नहीं है। भई, ये बॉस चिंघाड़ते मतलब बोलते तब ही हैं, जब आपसे कोई गलती हो गई हो। तो भाईजान, हम तो तबादलों की चक्की में पिसने से बच गए। पर मियां गुमसुम और बत्तोरानी अपने गमजदा चेहरे पर हंसने की भाव-भंगिमा बनाकर हमें यह दिखाने की कोशिश कर रहें कि लल्लू, हमारे ऊपर कोई असर नहीं पड़ता, हम तो जहां जाएंगे, वहां एक नया चमन बना लेंगे।
-आशीष जैन

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नया नवेला आइडिया

हमारे एक परम मित्र हैं, गफलत कुमार। वे हमेशा इसी गफलत में रहते हैं कि वे कुछ नया करने वाले हैं। उनका तो तकिया कलाम बन चुका है- हम कुछ नया करने वाले हैं। देश-दुनिया से जब भी किसी नाम काम या किसी नए आविष्कार की खबर आती है, तो वह चहक उठते हैं और बोलते हैं कि देखो, हमारी बिरादरी के लोग बढ़ते जा रहे हैं और नए-नए कामों को अंजाम दे रहे हैं। हम उसे बस देखते रह जाते हैं और वो अपनी हर पुरानी चीज पर नए की मोहर लगाकर सबको उल्लू बनाते रहते हैं। नया-नया चिल्लाने से कोई चीज नई नहीं हो जाती है।

नई चीज पाने के लिए मेहनत करनी पड़ती है और ये ही एकमात्र चीज है, जो गफलत कुमार से कभी नहीं हो सकती। हमें पता है, वो आइडिया चुराने में बहुत माहिर है और हम तो बचपन से मानते हैं कि ये पूरी दुनिया गोल है। जो एक छोर से चलता है, वही आपको दूसरी छोर पर बैठा मिलेगा। पूरी दुनिया गोल चक्कर में दौड़े जा रही है। कुछ नया नहीं है। अगर आपको उनको पकडऩा है, तो कहीं जाने की जरूरत ही नहीं है। बंदा चक्कर लगाते हुए आपके पास से तो गुजरेगा ही, बस वहीं उसे थाम लीजिएगा। हम तो यह भी पक्की तौर पर जानते हैं कि इतिहास अपने आप को दोहराता है, तो फिर नई चीज कैसे हो सकती है। नई तो नजर होती है जी। आंखों में जब तक नई नजर का चश्मा पहने रखोगे, तभी तक चीजें नई नजर आएंगी। हमारी बातों पर भरोसा नहीं है, तो अपने चारों ओर नजर उठाकर देख लीजिए। राजनीति में राहुल बाबा वही बात कह रहे हैं, जो सालों पहले उनके पापा राजीव गांधी कह चुके। बस पंद्रह पैसे को पांच पैसे में बदल दिया। राज ठाकरे वही कर रहे हैं, जो बाल ठाकरे कर चुके। और तो और वरुण गांधी कौनसा नया नुस्खा खोजकर लाए, वही पुरानी चाल। गठबंधन पहले भी होते थे, आगे भी जरूर होएंगे।
बाजार में चले जाइए, वही पुराने माल को नए पैकेट में पैक करके बेचा जा रहा है। एक से साथ एक फ्री की तरकीब पुरानी हो गई, तो एक के साथ पांच माल मुफ्त में दे रहे हैं। अरे! दुकानदार तो फिर भी खूब धन कूट रहा है और ग्राहक तो आज भी पहले की तरह ही दुखी है। बाजार में पहले भी बीवी नखरे दिखाकर सस्ते माल को महंगे में खरीद लाती थी और आज तो पूरा परिवार ही ऐसा करने में लगा है। राशन के पहले लाइनें लगती थी, पर आज तो राशन ही गायब हो जाता है। पहले लोग आपस में मिल-बैठकर दुख-सुख की बातें किया करते थे, आज भी मिलते हैं, पर इसकी जगह टीवी सीरियल्स के कपड़ों और गहनों ने ले ली है। गफलत कुमार को कौन समझाए कि जिस दिन से इंसान एक धरती पर आया है, उसने कुछ नया नहीं किया है। अगर उसे कुछ नया करना होता, तो वो ना जाने कब का भ्रष्टाचार मिटा चुका होता। कब का धर्म के नाम पर लडऩा बंद कर देता। पर उसे कुछ नया करने की सूझती ही नहीं। जैसे पहले परीक्षाओं में नकल हुआ करती थी, उससे ज्यादा हो रही है, पेपर ही आउट हो रहे हैं। आप अगर कोई किताब लिखते हैं, तो दो रोज बाद ही उससे मिलती-जुलती एक नई किताब मार्केट में आपको चिढ़ाती हुई नजर आने लग जाती है। फैशन में बदलाव की बात कहने वालों को शायद इतिहास का ज्ञान नहीं है। पुराने फैशन में दो-चार बदलाव का नाम नया फैशन है। क्रिएटिविटी के नाम पर पुराने की धज्जियां उठाते चलो और उस रहे-सहे में भी अपनी टांग फंसा दो। दसियों बार देवदास फिल्म बना लो। अमिताभ को डॉन बना दिया, तो अब शाहरुख को भी बना दो। यह है नयापन। सास-बहू के सीरियल कभी पुराने हुए क्या। हर बार दावा करते हैं कि नया-नया है और जब पास जाकर पैकेट खोलो, तो वही पुराना माल।
अरे गलती इन नया-पुराना बनाने वालों की नहीं है जी। हमें ही बासी खाना खाने की आदत हो गई है। कुछ भी नया पचता ही नहीं है। नए को नकारना हमारी आदत हो चुकी है। कोई नया विचार, नई सोच हमसे कहेगा, तो हम कहेंगे, ससुरा पागल हो गया है। उसे चैन से जीने नहीं देंगे। जब तो वो ढर्रे पर चलने का आदी नहीं हो जाएगा, उसे चैन नहीं लेने देंगे। हम नया करने के नाम पर बस इतना ही कर सकते हैं कि अपने नए माल की पोल ना खुलने दें कि इसे आखिर चुराया कहां से है। अब तो कोई इंसान कोई नया काम या नई खोज करता है, तो गुणीजन उसकी दाद नहीं देते बल्कि उसे शक की निगाह से देखते हैं और कुछ तो ये भी पूछ लेते हैं कि कहां से जुगाड़ लगाया इस प्लान का। लोगों को आज उम्मीद ही नहीं है कि कुछ नया हो सकता है क्या। ऐसे में वाकई जो लोग मेहनत करके कुछ नया पैदा करने की सोचते होंगे, उनका क्या हाल होता होगा, खुदा ही जाने।
- आशीष जैन

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