31 December 2008

सुना मैंने नया साल आया


खिड़कियों के पुराने परदे बदल दो।
पुराना मेजपोश अब दिल को नहीं भाता।
गर्द जमी रहती है कुर्सियों पर
मुझसे मिलने अब कोई नहीं आता।
अंगीठी की आंच धीमी पड़ गई है
रोटियों का स्वाद कसैला सा है।
दीवारों पर स्याही के छीटें हैं
मेरा प्यारा पीकदान मैला सा है।
बचपन के प्यारे एलबम में सारी फोटूएं
न जाने क्यों आपस में चिपककर धुंधली हो गई हैं।
वो चिडिया का घोसला अब खाली है
बचा है, तो बस घास-फूंस का ढेर।
पुराने अखबारों के पुलिंदों के बीच में
दबा सा मैं सोचता हूं- ये सब क्या है?
मेरे मोजे, रूमाल, तौलिया सब रूठे हुए
बोलते हैं तू घिस गया है हमें इस्तेमाल करते-करते।
बल्ब जो सालों से टिमटिमा रहा है बंद-बदबूदार कमरे में
अब आजाद होना चाहता है।
किवाड़ सारे चरमराते रहते हैं
वक्त की सुइयां टूटी हुई हैं।
क्या यही वाजिब समय है
जब मैं बदल दूं अपना कलैंडर।
ले आऊं चंद खुशियां।
क्या वो 2009 में लटक रहा नो
मेरी जिंदगी में उम्मीदों को यस कह पाएगा।
हां थोड़ी आशा तो है कि मैं सपनों को सपनों से ज्यादा कुछ तो मानूंगा।
मैं भरोसा करूंगा कि मैं मौजूद तो हूं इस दुनिया में चाहे
उसी नाम से जिससे बचपन से मेरे मां-बाप मुझे बुलाते हैं
और अब दोस्त पुकार लेते हैं गाहे-बगाहे।
हां, मैं झिलमिलाती रोशनी हूं 2009 की।
मैं बदल तो सकता हूं खुद को
पर शर्त है कि तुम मेरे रूप से नाराज नहीं होओगे, चिढ़ाओगे नहीं मुझे।
नहीं तो मैं अपने खोल में वापस घुस जाऊंगा
और अगले साल तक वापस नहीं निकल पाऊंगा।
मुझे भरोसा है कि इस बार आप मेरी मदद करोगे
मेरी सारे कूड़े-करकट को बाहर का रास्ता दिखलाने में।
- आशीष जैन

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29 December 2008

ख्वाब हो या हो कोई हकीकत


पार्वती ओमानकुट्टन मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता में बनीं फर्स्ट रनरअप।

सुंदरता को कोई रंगों के माध्यम से चित्र में संजोने की कोशिश करता है, तो कोई छंदों के जरिए गीत में कहने की कोशिश करता है पर केरल की 21 वर्षीय सुंदरी पार्वती ओमानकुट्टन के रूप को रंगों या छंदों के माध्यम से बांधने की हर कोशिश जाया जाती है। आखिर वे हैं ही इतनी सुंदर। पूरे 8 साल बाद कोई भारतीय सुंदरी मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता के फाइनल राउंड में पहुंची। पार्वती हाल ही हुई मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता में मिस वर्ल्ड बनते-बनते रह गईं और फर्स्ट रनरअप बनीं। मिस वर्ल्ड में भारतीय सुंदरियों की फेहरिस्त पर नजर डालें, तो कोई लंबी सूची नहीं बनती। सबसे पहले 1966 में रीता फारिया ने मिस वर्ल्ड के सिलसिले को शुरू किया, वह ऐश्वर्या राय (1994), डायना हेडेन (1997), युक्ता मुखी (1999) से होता हुआ प्रियंका चोपड़ा (2000) पर आकर रुक गया। इस साल पूरे देश को पार्वती से उम्मीदें थीं, उन्होंने इसके लिए कड़ी मेहनत भी की और इसी की बदौलत वे प्रतियोगिता में फर्स्ट रनर अप बनीं और सफलता से सिर्फ एक पायदान दूर रह गईं।

हौले-हौले सफर

पार्वती केरल के कोट्टयम में चंगानाचेरी में 13 जुलाई 1987 को पैदा हुई। जब वे छह महीने की थीं, तभी पूरा परिवार मुंबई में आकर बस गया। उन्होंने अपनी पढ़ाई मुंबई में ही की। मुंबई के मीठीबाई कॉलेज से अंग्रेजी साहित्य की पढ़ाई करने वाली पार्वती की मम्मी हाउस वाइफ हैं और पिता एक प्राइवेट कंपनी में काम करते हैं। उनका छोटा भाई अभी क्लास 11 में पढ़ता है। बकौल पार्वती, 'मैं हमेशा से ही मिस इंडिया बनने का सपना देखा करती थी। फिर मैं फैशन शोज में भाग लेने लगी। फिर मिस मलयालम बनकर ही दम लिया। जब मैंने ऐश्वर्या राय को टीवी पर मिस वर्ल्ड बनते देखा, तो पापा से कहा कि मैं भी मिस वर्ल्ड बनकर दिखाऊंगी। वे बडे़ खुश हुए और मेरी मदद के लिए तैयार हो गए। '

तैयार पूरी है

पांच फुट नौ इंच लंबी पार्वती ने मिस इंडिया कंपीटीशन में जहां 28 भारतीय लड़कियों को हराकर ताज हासिल किया वहीं दक्षिण अफ्रीका के जोहांसबर्ग शहर में आयोजित 58वीं मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता में उनका मुकाबला 108 लड़कियों के साथ था। मुकाबले के लिए पार्वती ने अपने ट्रेनर्स के साथ काफी पसीना बहाया। पर्सनेलिटी डवलपमेंट गुरुओं से लेकर ड्रैस डिजाइनर्स तक की हर बात पर अमल किया। अप्रेल में मिस इंडिया प्रतियोगिता जीतने के बाद से ही वे इसके लिए जुट गईं। मम्मी-पापा से सीखापार्वती के मुताबिक, 'प्रतियोगिता में रंग-रूप से साथ-साथ दिमाग पर भी काफी ध्यान देना पड़ता है। हाजिरजवाबी तो मुझमें पहले से ही थी, इसी की बदौलत मैं फाइनल तक पहुंच सकी। मम्मी से जहां मैंने सादगी सीखी, तो पापा से बड़प्पन।' पार्वती को संगीत सुनने, नाचने, पेंटिंग और किताबें पढ़ने का बहुत शौक है। भारतीय क्लासिकल डांस में उन्हें महारत हासिल है। साथ ही उन्हें तैराकी, बास्केटबॉल और बैडमिंटन खेलना बहुत भाता है। दूसरी सुंदरियों की तरह वे भी फिल्मों में अपनी किस्मत आजमाना चाहती हैं। बकौल पार्वती, 'मैं सलमान खान और रितिक रोशन की बहुत बड़ी फैन हूं। उनके साथ फिल्में करने की मेरी दिली इच्छा है। पर इससे पहले मैं अपनी एमबीए की पढ़ाई पूरी करना चाहती हूं।' मिस इंडिया बनने के बाद के दिनों को याद करते हुए वे कहती हैं, 'जब मैं मिस इंडिया बन गई, तो मेरे प्रति लोगों का नजरिया ही बदल गया। लोग मेरे ऑटोग्राफ के लिए पीछे पड़ने लगे।'

सपने सोने नहीं देते

पार्वती को सबसे ज्यादा सब्यसाची के ड्रैस किए हुए डिजाइन पसंद आते हैं। अपने माता-पिता को अपनी ताकत मानने वाली पार्वती आत्मविश्वास और भगवान में आस्था को अपनी सबसे बड़ी पूंजी मानती हैं। जब उनसे उनकी कमजोरी के बारे में पूछा जाता है, तो वे बेबाकी से कहती हैं,'मुझे गलत चीज पर गुस्सा बहुत जल्दी आता है।' अपने सपनों के राजकुमार के बारे में उनका मानना है कि वह शख्स मेरी भावनाओं को समझने वाला होना चाहिए। पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम का एक वाक्य, 'सपने वो नहीं होते, जो सोते समय आते हैं, सपने तो वो होते हैं, जो आपको सोने ही नहीं देते।' उन्हें बहुत अच्छा लगता है। मां के हाथ के बने खाने को वे अपने व्यस्त शिड्यूल में बहुत मिस करती हैं। खूबसूरती के बारे में उनका कहना है, 'मैं बाहर की बजाय मन की सुंदरता को ज्यादा तरजीह देती हूं। सुंदरता के लिए मैं मेकअप की बजाय हैल्थ पर ध्यान देती हूं।'

- आशीष जैन

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26 December 2008

नई उमंगों का सवेरा



नए साल पर जीवन में कुछ खास बातों को साकार करना अच्छा रहेगा, तो क्यों न मशहूर साहित्यकारों के लेखन पर एक नजर डाली जाए-




उल्लास


स्वागत! जीवन के नवल वर्ष


आओ, नूतन-निर्माण लिए


इस महा जागरण के युग में


जाग्रत जीवन अभिमान लिए


दीनों दुखियों का त्राण लिए


मानवता का कल्याण लिए।


सोहनलाल द्विवेदी (नववर्ष)


स्वप्न


जा तेरे स्वप्न बड़े हों।


भावना की गोद से उतर कर


जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें।


चांद तारों सी अप्राप्य ऊंचाइयों के लिए


रूठना मचलना सीखें।


दुष्यंत कुमार (एक आशीर्वाद)


विश्वास


मैं बढ़ा ही जा रहा हूं,


पर तुम्हें भूला नहीं हूं ।


चल रहा हूं, क्योंकि चलने से थकावट दूर होती,


जल रहा हूं, क्योंकि जलने से तमिस्त्रा चूर होती,


गल रहा हूं, क्योंकि हल्का बोझ हो जाता हृदय का,


ढल रहा हूं, क्योंकि ढलकर साथ पा जाता समय का ।


शिवमंगल सिंह सुमन (मैं बढ़ा ही जा रहा हूं)


संघर्ष


तप रे मधुर-मधुर मन !


विश्व वेदना में तप प्रतिपल,


जग-जीवन की ज्वाला में गल,


बन अकलुष, उज्ज्वल औ' कोमल


तप रे विधुर-विधुर मन !


सुमित्रानंदन पंत (गुंजन(कविता संग्रह))


निश्चय


प्रातः होगा, होगा निश्चय,


अंधेरे को छंटना ही है,


तुम्हारी स्वर्णिम वाणी को,


दूर नभ से फटना ही है!


रवींद्रनाथ टैगोर (गीतांजलि)


शुभकामना


नए साल की शुभकामनाएं !


खेतों की मेड़ों पर धूल भरे पांव को


कुहरे में लिपटे उस छोटे से गांव को


नए साल की शुभकामनाएं...


इस पकती रोटी को बच्चों के शोर को


चौके की गुनगुन को चूल्हे की भोर को


नए साल की शुभकामनाएं !


सर्वेश्वरदयाल सक्सेना (नए साल की शुभकामनाएं ! )


हौसला


वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नहीं है


थक कर बैठ गए क्या भाई मंजिल दूर नहीं है


चिंगारी बन गई लहू की बूंद गिरी जो पग से


चमक रहे पीछे मुड़ देखो चरण-चिह्न जगमग से


बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नहीं है


थक कर बैठ गए क्या भाई मंजिल दूर नहीं है


रामधारी सिंह दिनकर (आशा का दीपक)

आशा


शैशव के सुंदर प्रभात का


मैंने नव विकास देखा...


जग-झंझा-झकोर में


आशा-लतिका का विलास देखा।


आकांक्षा, उत्साह, प्रेम का


क्रम-क्रम से प्रकाश देखा॥


सुभद्राकुमारी चौहान (उल्लास)


प्रस्तुति- आशीष जैन







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15 December 2008

मैं रफ्तार हूं



मिलते हैं देश की अकेली महिला सुपर बाइक रेसर अलीशा अब्दुल्लाह से।



दौ सौ किलो वजनी 600 सीसी की होंडा सीबीआर बाइक। उसे बच्चों के किसी खिलौने की तरह दौड़ाने के लिए तैयार है वह। पलक झपकते ही 210 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार छूना उसका शगल है। उसका कहना है,'मैं रफ्तार हूं। सबसे तेज। बिजली-सी कौंधने वाली रफ्तार। मेरी जिंदगी बाइक के लिए है और मैं मरूंगी भी बाइकिंग के लिए। बाइकिंग मेरव् खून में है।' यह है चेन्नई की 19 वर्षीय अलीशा अब्दुल्लाह। बाइकिंग के लिए दीवानगी की झलक उसके ईमेल आईडी 'लिवफॉरस्पीड' से मिलती है।


मजा है लड़कों को हराने में


देश की सबसे कम उम्र की महिला सुपर बाइक रव्सर अलीशा अब्दुल्लाह ने आठ साल की उम्र से ही बाइक चलाना शुरू कर दिया था। वह बताती है, 'पुरुषों के साथ मुकाबला वाकई रोमांचक रहता है क्योंकि 110 सीसी और 600 सीसी बाइकिंग में कोई भी महिला प्रतिभागी नहीं होती। मुझे लड़कों को हराने में बहुत मजा आता है। मुझे तब ज्यादा खुशी मिलती है, जब लड़के गर्दन झुकाए खड़े रहते हैं। उनमें से कुछ तो रोने तक लगते हैं, पर जीत मुझे मिलती है। जब लोग मुझसे पूछते हैं कि तुम्हारा सबसे बड़ा सपना क्या है, तो मेरा जवाब रहता है, 'मुझे दुनिया का सबसे तेज बाइकर बनना है।'


शौक मरने नहीं दूंगा


उसके पिता आर. ए. अब्दुल्ला भी जाने-माने बाइकर रह चुके हैं और सात बार राष्ट्रीय चैंपियनशिप जीत चुके हैं। वे ही अलीशा को बाइकिंग की टे्रनिंग देते हैं। बकौल अलीशा, 'जब कभी रव्सिंग करते हुए मैं घायल हो जाती हूं तो पापा कहते हैं कि तुम एक रव्सर हो, तुम हार नहीं सकती। इससे मुझे गजब का हौसला मिलता है।' उसके पिता बताते हैं, 'मुझे बचपन में ही उसकी क्षमताओं का पता लग गया था। मैं उसे खूब सिखलाता और प्रोत्साहित करता, पर उसके लायक कार और बाइक्स का इतंजाम नहीं कर पाता था। फिर भी मैंने बेटी के शौक को मरने नहीं दिया और कार रव्सिंग की बजाय बाइकिंग में किस्मत आजमाने की सलाह दी और तब अलीशा हर रविवार रव्सटै्रक पर नजर आने लगी। आज उसकी बाइकिंग वाकई शानदार हो गई है। रेसिंग के दौरान हमेशा उसका नजरिया करो या मरो का रहता है। हार उसे कतई मंजूर नहीं है। पर जब कभी उसकी रेस में थोड़ी चूक रह जाती है, तो मैं उसे धीरज का सबक देता हूं। मैं हमेशा उससे कहता हूं कि अगर तुम गति पर नियंत्रण रखना सीख लोगी, तो रेस में आधी जंग खुद-ब-खुद जीत जाओगी।'


बस जोश चाहिए


बाइक को अपनी जिंदगी बताते हुए अलीशा कहती है, 'बाइक, हैलमेट और जंपसूट मिलने पर लगता है कि मैं पूरी हो गई हूं। इनके बिना लगता है कि मैं अधूरी-सी हूं।' जब उससे पूछा जाता है कि सुपर बाइकिंग जैसा खतरनाक काम तो खास तौर पर लड़के ही कर सकते हैं, तो वे तपाक से कहती हैं, 'क्या सारे जोखिम वाले काम करने का ठेका लड़कों ने ही ले रखा है? जिसमें जोश है, वह सब कुछ कर सकता है। मैं कभी लड़कियों के साथ रेस नहीं लगाती बल्कि सबसे तेज बाइक चलाने वाले लड़कों को हराने के बारे में सोचती हूं। मैं ऑटोक्रॉस रेसेज, गो कार्टिंग और फामूर्ला रेसेज तक में प्रतिस्पर्धा कर चुकी हूं।' पढ़ाई में भी अलीशा कभी कमजोर नहीं रही। अभी वह समाजशास्त्र में स्नातक की पढ़ाई कर रही है। आगे उसकी एमबीए करने की इच्छा है।


दुआओं का असर


अलीशा को टेनिस खेलने का भी बहुत शौक है। उसके पिता मुस्लिम हैं और मां ईसाई। वह कहती है कि पिताजी से अच्छी बाइक चलाते आज तक मैंने किसी को नहीं देखा। मुझे अभी काफी कुछ सीखना है तभी मैं रव्सिंग की बेताज बादशाह बन पाऊंगी। उसने 2003 में एमआरएफ नेशनल गोकार्टिंग चैंपियनशिप जीती। उसके बाद वह फार्मूला वन कार रव्सिंग की तरफ मुड़ गई और 2004 में जेके टायर नेशनल चैंपियनशिप में पांचवा स्थान हासिल किया। उसका कहना है , 'अब मेरा मकसद जेके टायर नेशनल रोड रेसिंग चैंपियनशिप जीतना है। फिर मैं अंतरराष्ट्रीय चैंपियनशिप में हिस्सा लूंगी।' अभी हाल ही उसे यंग अचीवर्स अवार्ड से भी सम्मानित किया गया है। बाइकिंग के उसके जुनून के चलते एक नामी कंपनी ने उसे अपने उत्पाद का ब्रांड एंबेसेडर भी बनाया है।


- प्रस्तुतिः आशीष जैन

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11 December 2008

कहां गया मेरी बगिया का फूल?


मुंबई में हुए आतंकी हमलों ने पूरे देश की रूह को छलनी किया है। आज देश जवाब मांगता है दुश्मनों से। आखिर क्या हासिल हुआ, हमारी बगिया के फूलों को उजाड़कर।


क्या लहू का कोई मजहब हो सकता है? क्या अश्कों में तड़पती आह से राम या रहीम को अलग-अलग दर्द होता है? अगर नहीं, तो फिर क्यों गुलशन को उजाड़ने पर आमादा है आतंक। सपनों की पोटली लिए मुंबई में घूमते सैकड़ों बेगुनाह ही नहीं, पूरी दुनिया की रूह को कंपाने की कोशिश है हाल में मुंबई में हुआ आतंकी हमला। रोज की भागदौड़, हजारों परेशानियां और अब उसमें शामिल है एक डर। आतंक का डर। कब किस ठौर विस्फोट हो और जिंदगी की रोशनी बेनूर होकर हजारों परिवारों के घरों को हमेशा के लिए अंतहीन अंधेरा दे जाए। पर कभी न थमने की हम देशवासियों की शपथ हमेशा रंग लाती है और हम फिर खुशी की बहार को अपने आंगन में बिखरने के लिए बुला लेते हैं।

बाबुल का ये घर बहना...

22 साल की जसमीन की आंखों में भी गजब की चमक थी, तो बातों में कुछ कर गुजरने की तमन्ना। घरवालों के सपनों को परवाज देने के लिए मोहाली से मुंबई के सफर के लिए रवाना हुई पर वापस फिर कभी अपने घर ना लौट सकी। उसका कसूर सिर्फ इतना था कि वह मुंबई में उस काली रात ओबरॉय के रिसेप्शन पर बैठी हुई थी। होटल मैनेजमेंट में ग्रेजुएट जसमीन दो महीने पहले ही मास्टर डिग्री के कोर्स के लिए सपनों की नगरी मुंबई आई थी। पापा डीआईजी भुर्जी अपनी लाडली को तन्नू कहकर पुकारते थे। जब उन्होंने टीवी पर मुंबई पर आतंकी हमले की खबर देखी, तो बेटी को फोन मिलाया। पर फोन उठाने वाले हाथ हमेशा के लिए निस्तेज हो चुके थे। तन्नू की मां दीप कौर और भाई परमीत की जुबान खामोश और आंखों में छलकते दर्द के सिवा कुछ नहीं बचा। परमीत को वो ख्वाब तो अधूरा ही रह गया, जिसमें दिन-रात वो अपनी फूल सी नाजुक बहन की डोली को सजाने की सोचा करता था। मम्मी-पापा ने जिस लाडो का हर नाज इस उम्मीद से उठाया कि एक दिन उसे घर से विदा करना है, वो तो दुनिया से ही रूखसत ले चुकी थी।

सोचा था मुस्कान देंगे

उनकी बातों में गजब का जोश था। अपने काम में माहिर। दिल में बस एक ख्वाहिश कैसे इस देश में अमन कायम रहे। वे शायद अकेले ऐसे पुलिस अफसर जिनके चाहने वालों ने उनके नाम से सोलापुर में करकरव् फैन क्लब तक बना रखा है। महाराष्ट्र के एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे, जिन्हें अपने काम और ईमानदारी के लिए जाना जाता था। अब वे इस दुनिया के लिए मिसाल बन चुके हैं। कामा अस्पताल में जाते वक्त उन पर पीछे से गोलीबारी हुई और वे मोबाइल पर अपनी बात पूरी न सके। पीछे छोड़ गए पत्नी कविता, दो बेटियां और एक बेटा। अभी कुछ दिनों पहले ही तो उन्होंने अपनी बड़ी बेटी के हाथ पील किए थे। लंदन में पढ़ने वाली दूसरी बेटी और मुंबई में पढ़ रहे बेटे को देश के हवाले कर अपने अनजाने सफर पर निकल गए। पूरा देश हेमंत के बलिदान को नहीं भूल पाएगा पर उन बच्चों को क्या दोष है, जो अपने पापा को जहान भर की खुशियां देना चाहते थे। सोचा था कि आने वाले समय में जब उनके पिता बुढ़ापे की दहलीज पर होंगे, तो उन्हें मुस्कान देते रहेंगे। ताउम्र देश की सेवा करने वाले करकरे की आंखों में भी सपना था कि काश वो दिन जल्द से जल्द आए जब इस देश में कोई आंख नम ना हो। हर तरफ बस खुशियों का डेरा हो। करकरे की शहादत को सच्चा सलाम तभी होगा, जब उनका सपना पूरा करने के लिए हम सब एक हो जाएं और दुश्मनों को दिखा दें कि जब देश का एक बेटा शहीद होता है, तो अपनी फर्ज निभाने हजारों सपूत और पैदा हो जाते हैं।

कहीं छुप गया है वो

मेरा इकलौता बेटा था जहीन। उसने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था हैवानों। मेरी उम्मीदों को कफन उठाकर तुम्हें आखिर क्या हासिल हुआ। ये तो बता देते। मां सलमा के दामन में अब आंसुओं के सैलाब के सिवा बचा भी क्या है? भीलवाड़ा से चलकर घर का चिराग मुंबई पहुंचा और हमेशा के लिए बुझ गया। ताज होटल में एक्जीक्यूटिव कुक जहीन अब इस दुनिया में नहीं है। पर दादा मोईनुद्दीन को अब भी लगता है कि घर के किसी कोने में छुपा हुआ नटखट जहीन उन्हें आवाज देगा, 'बाबा, आप मुझे नहीं पकड़ पाओगे। मैं छुप गया हूं। आपको नजर नहीं आऊंगा।' दादी कर रही है, 'मेरा पोता कहीं नहीं गया। वो तो सबसे नाराज है। इसलिए कहीं छुप गया है।' वाकई जहीन कहीं छुप गया। दादा-दादी की आंखें अब उसे कैसे ढूंढ़ेंगी। क्या गुजर रही होगी सलमा पर जब शादी के सेहरे की जगह आज अपने जिगर के टुकड़े के जनाजे को टकटकी लगाए देख रही होगी? किसी की दुनिया को उजाड़ कर आखिर मौत के सौदागरों को क्या मिला? क्या कोई बता पाएगा तन्नू, हेमंत या जहीन के घरवालों को।

-आशीष जैन

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रिंग की रानी को सलाम


विश्व महिला मुक्केबाजी चैंपियनशिप में लगातार चौथी बार स्वर्ण पदक जीतकर मैरी कोम ने किया देश का सिर गर्व से ऊंचा।


रिंग में एक के बाद एक बरसते फौलादी पंच। बॉक्सिंग ग्लव्स और दो खिलाडिय़ों के हौसलों की भिडंत। बचाव के लिए हैं सिर्फ दो हाथ। अगर जरा सी चूक हुई, तो नाक या मुंह पर जबरदस्त चोट। यह रोमांच है बॉक्सिंग खेल का। इसी के सहारव् खुद का नाम मणिपुर की वादियों से पूरी दुनिया में फैलाने वाली महिला बॉक्सर हैं- एम.सी. मैरी कोम। उनके नाम में एम.सी. का मतलब है- मांगते चुन्गनेईजंग। हाल ही चीन में संपन्न हुई विश्व महिला मुक्केबाजी चैंपियनशिप में 46 कि.ग्रा. वर्ग में लगातार चौथी बार गोल्ड मैडल जीतकर उन्होंने देश का सिर गर्व से ऊंचा कर दिया है।

पेट भरने के लिए खेल

मणिपुर के ग्रामीण इलाके के मोइरंग लमखाई के कांगाथेई गांव में 1 मार्च 1983 को मांगते टोन्गपा कोम और मांगते सानेईखोम कोम के घर मैरी कोम का जन्म हुआ। 5 फुट 2 इंच लंबी मैरी अपनी गजब की फुर्ती से सामने वाले बॉक्सर को इस कदर परेशान कर देती है कि उसे आखिरकार घुटने टेकने ही पड़ते हैं। मैरी कहती हैं, '2000 में ही देश में आधिकारिक रूप से महिला मुक्केबाजी की शुरुआत हुई। तब लोग महिलाओं को इसके काबिल नहीं समझते थे। मैं एक किसान की बेटी हूं। अपने परिवार का पेट भरने के लिए इस खेल में आई। मैं चाहती थी कि अपने परिवारवालों को एक घर दिला सकूं और मैं तो बारहवीं तक ही पढ़ सकी पर अपने तीन बहनों और एक भाई की पढ़ाई अच्छी से अच्छी हो सके।' स्कूल के दिनों में मैरी को सारे खेल ही लुभाते थे। फुटबॉल और एथलेटिक्स उसे बहुत पसंद थे। उन दिनों उसने मोहम्मद अली के बारे में सुन रखा था और उनकी बॉक्सर बेटी लैला अली को एक बार उन्होंने टीवी पर देखा, तो बॉक्सिंग के बारे में सोचने लगी। उन्हीं दिनों 1998 में मणिपुर के डिंकू सिंह बैंकाक एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतकर लौटे, तो मैरी ने ठान लिया कि अब तो वे भी मुक्केबाजी में मैडल हासिल करके रहेंगी। एक दिन वह बिना किसी से कहे स्थानीय इंडिया सेंटर खेल अथोरिटी में बॉक्सिंग कोच से मिलने पहुंच गईं और मुक्केबाजी की अपनी इच्छा के बारे में उन्हें बताया। इस तरह सन 2000 में उन्होंने मुक्केबाजी शुरू की। इससे पहले वे जैवेलियन थ्रो जैसे खेलों में भी हिस्सा ले चुकी थीं। खेल में जल्द ही महारत हासिल करके वे जिला और राज्य स्तरीय बॉक्सिंग प्रतियोगिताओं में भाग लेने लगी। शुरू में माता-पिता को मैरी की बॉक्सिंग के बारे में पता नहीं था। एक बार राज्य चैंपियनशिप जीतने के बाद उनका फोटो अखबारों में छपा, तो घरवालों को जानकारी हुई। पिताजी नाराज भी हुए पर मैरी ने कह दिया कि बॉक्सिंग के बिना उनकी जिंदगी अधूरी है। जब मैरी को पूरे देश में प्रतियोगिताओं के सिलसिले में जाना पड़ता, तो उन्हें भाषा और भोजन की भी दिक्कतें आतीं। पर उन्होंने एक ही चीज ठान रखी थी कि हर कीमत में बॉक्सिंग में महारत हासिल करनी ही है। बैंकाक में पहली एशियाई महिला बॉक्सिंग चैंपियनशिप के सलैक्शन कैंप में भाग लेने जाते वक्त उनका सारा सामान और पासपोर्ट तक चोरी हो गया था। माता-पिता ने कहा, 'घर वापस लौट आओ।' पर मैरी ने हार नहीं मानी। वहां से खाली हाथ लौटने पर वे फिर अपने खेल में निखार लाने में जुट गईं। मैरी को सबसे ज्यादा दुख इस बात का होता है कि महिला बॉक्सिंग ओलंपिक खेलों में शामिल नहीं है। जीत का सिलसिला 2001 में अमरीका में पहली विश्व महिला मुक्केबाजी चैंपियनशिप में उन्हें रजत पदक से संतोष करना पड़ा। अगले साल तुर्की में हुई महिला बॉक्सिंग में तो उन्होंने गोल्ड मैडल लेकर ही दम लिया। फिर तो लगातार स्वर्ण पदक जीतने का सिलसिला चल ही पड़ा और अब नवंबर में चीन में लगातार चौथा स्वर्ण पदक हासिल कर पूरे देश को खुशी का मौका दिया। नई दिल्ली में हुई विश्व महिला मुक्केबाजी चैंपियनशिप जीतने के बाद उन्होंने अपने जुड़वां बच्चों की देखरेख के लिए दो साल के लिए खेल से अपना ध्यान हटा लिया। पर सिर्फ चार महीने के प्रशिक्षण के बाद वापसी इतना शानदार होगी यह किसी को भरोसा नहीं था।

मैरी बताती हैं, 'इस वापसी में मेरे पति के. ओनखोलेर कोम का बहुत बड़ा हाथ रहा। मेरे खेल को चमकाने में मेरे कोच इबोमचा, नरजीत, किशेन और खोइबी सलाम का भी सहयोग रहा।' मैरी कोम को उनके बेहतरीन खेल के लिए साल 2003 में अर्जुन अवार्ड से सम्मानित किया गया। यह पुरस्कार पाने वाली वह पहली महिला मुक्केबाज बनीं। इसके बाद 2006 में उन्हें प्रतिष्ठित पद्मश्री पुरस्कार दिया गया। पिछले साल उन्हें राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार के नामांकित भी किया गया था। मणिपुर सरकार ने मैरी कोम के बेहतरीन खेल प्रदर्शन को देखते हुए खेल गांव की एक सड़क का नाम मैरी कोम रोड रखा। यह वाकई उनके लिए बड़ी उपलब्धि है।

-आशीष जैन

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छोटी जेब, बड़ा खर्च



'द ग्रेट मिडिल क्लास' अब और बड़ी 'ग्रेटनैस' की तरफ अग्रसर है। एसोचैम के सर्वे के मुताबिक देश के शहरी मध्यम वर्ग के बच्चों के जेबखर्च में भारी बढ़ोतरी हुई है। चारों तरफ छाई आर्थिक मंदी के इस दौर में बच्चों की बढ़ती जेबखर्ची कितनी बढ़ी है, सुनकर चौंक जाएंगे आप। 486 करोड़ रुपए। कार्टून नेटवर्क की ओर से देश के 14 शहरों में सात से चौदह साल की उम्र के 6000 बच्चों पर करवाए गए एक सर्वे के मुताबिक देश में हर साल करीब 486 करोड़ रुपए पॉकेटमनी के नाम पर खर्च कर दिए जाते हैं। एसोचैम के सर्वे के मुताबिक पिछले दस सालों में बच्चों की पॉकेटमनी में छह गुना इजाफा हुआ है।


एक माह का औसतन खर्चा

मोबाइल- 350 रुपए

मिठाई, चॉकलेट, क्रिस्प और कोल्ड ड्रिंक- 200 रूपए

मूवीज- 150 रुपए

घूमने पर - 250 रुपए

गिफ्ट्स- 250 रूपए

मैग्जीन- 50 रुपए

डीवीडी या वीडियो- 100 रुपए

कंप्यूटर गेम्स- 100 रुपए


याद कीजिए प्रेमचंद की कहानी 'ईदगाह' के नन्हे पात्र हामिद मियां को। कैसे वह दोस्तों के साथ ईद के मेले में जाकर अपनी बचत के तीन पैसों से मिठाई और खिलौने नहीं खरीदता बल्कि बूढ़ी दादी अमीना के लिए चिमटा लेकर जाता है। उसे अपनी दादी की जरूरतों का खयाल रहता है। वहीं आज के बच्चे बचत की बजाय खुद की जरूरतों और इच्छाओं को पूरा करने के लिए पैसा पानी की तरह बहा रहे हैं।
पैसा आया फिर खर्च किया

उदारीकरण और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आने से लोगों की आय में गजब का इजाफा हुआ है। पैसा बढ़ेगा, तो तय है कि उसे बेतरतीब ढंग से खर्च भी किया जाएगा। शुरू में लगा कि मध्यमवर्गीय परिवार ही पैसे से मालामाल हुए हैं। पर अब एसोचैम का सर्वे बताता है कि इसका असर बच्चों पर भी पड़ा है। महानगरीय बच्चों को अब पहले की तुलना में छह गुना ज्यादा पॉकेट मनी मिल रही है। एक दशक पहले जहां शहरी बच्चों को औसतन 300 रूपए प्रति माह पॉकेट मनी मिलती थी, वहीं अब मध्यमवर्गीय परिवारों के बच्चों को औसतन 1800 रूपए प्रति माह पॉकेट मनी के रूप में मिलने लगे हैं। महानगरों के 2500 बच्चों पर किए एसोचैम के सर्वे में यह बात सामने आई है कि सबसे ज्यादा पैसा दिल्ली के बच्चों को मिलता है। इसके बाद बंगलौर, चेन्नई, मुंबई और कोलकाता के बच्चों को। सर्वे के अनुसार देश में लगभग 65 फीसदी बच्चों को पॉकेट मनी दी जाती है। साथ ही यह भी कि लड़कों से ज्यादा पैसे लड़कियों को मिल रहे हैं। लड़के जहां वीडियो गेम्स और गिफ्ट पर ज्यादा पैसे खर्च करते हैं, वहीं लड़कियां अपनी पॉकेट मनी का 58 फीसदी हिस्सा कपड़ों पर खर्च कर रही हैं। कार्टून नेटवर्क की ओर से करवाए गए एक सर्वे से भी इस बात की पुष्टि होती है कि देश के 98 फीसदी बच्चे टीवी के आदी हो चुके हैं और टीवी पर देखे गए उत्पादों को मनमाने ढंग से खरीदने लगे हैं। ऐसे में बच्चों के कदम बहकना स्वाभाविक है।

बचत एक सपना

नई पीढ़ी के पास पैसों को खर्च करने के लिए विज्ञापनों का सहारा है। आज के दौर के विज्ञापनों का खास फोकस भी बच्चे ही होते हैं। विज्ञापन की लुभावनी भाषा के पीछे छुपी सच्चाई को बच्चे समझ नहीं पाते हैं और उस उत्पाद पर पैसे खर्च करने से खुद को रोक नहीं पाते। सर्वे में बच्चों ने यह बात भी स्वीकारी है कि हमें पैसे खर्च करने के लिए मिलते हैं, बचाने के लिए नहीं। अब बच्चों के लिए बचत कोई मायने नहीं रखती है। कक्षा 10 में पढऩे वाले शुभम का मानना है कि पढ़ाई के सारे खर्च तो मम्मी-पापा उठा ही लेते हैं। फिर जब पैरंट्स पैसे दे रहे हैं, तो इसे कहीं न कहीं खर्च भी तो करेंगे ही ना। इसमें गलत क्या है? पैसे को तुरंत खर्च करने के पीछे साथियों की देखादेखी और दिखावा अहम वजह है। अपने ग्रुप के बच्चों में वे खुद को बेहतर साबित करने के लिए तरह-तरह की चीजें खरीद लाते हैं। मम्मी-पापा के सामने उनका एक ही जवाब रहता है कि इसे मैंने अपनी पॉकेट मनी से खरीदा है। तब पैरेंट्स भी बच्चों की इन बातों को नजरअंदाज कर देते हैं। सिर्फ पैसे देकर माता-पिता अपनी जिम्मेदारियों को इतिश्री समझ रहे हैं। उनके पास पैसा तो है, पर बच्चों के लिए समय नहीं है। महंगे शौक हैंएक मल्टीनेशनल कंपनी में एग्जीक्यूटिव ऑफिसर महेंद्र सिंह के मुताबिक हम बच्चों को समझा सकते हैं कि पैसे किस चीज पर खर्च करने चाहिए। पर हर समय उनके साथ तो हम भी नहीं रह सकते हैं ना। इस माहौल में मोबाइल फोन के जादू से बच्चे भी नहीं बच पाए हैं। वे महंगे मोबाइल फोन पर अपनी पॉकेट मनी खर्च कर रहे हैं। अधिकतर स्कूलों में मोबाइल फोन लाने पर प्रतिबंध है फिर भी बच्चे चोरी छुपे अपने साथ मोबाइल फोन लाते हैं और अपने अपने दोस्तों के बीच रौब गांठते हैं। वहीं आज ज्यादातर बच्चे इंटरनेट और चैटिंग पर भी काफी खर्च कर रहे हैं। कक्षा 9 में पढ़ने वाले अंकुर जायसवाल घंटों साइबर कैफे में बैठे रहते हैं और दोस्तों से चैटिंग करते हैं। मम्मी-पापा के नौकरी पर जाने के बाद अंकुर घर पर अकेला रह जाता है और अपना समय गुजारने के लिए अक्सर चैटिंग करता है।
हमारा मानना है

कई बच्चे तो स्कूल में टिफिन ले जाने की बजाय कैंटीन से खरीदकर खाना पसंद करते हैं। उन्हें घर के पौष्टिक खाने की बजाय पिज्जा, बर्गर और पेटीज पसंद आते हैं। बच्चों की इस सोच पर स्कूल्स के नियंत्रण की बात भी सामने आती है। जयपुर के केंद्रीय विद्यालय नं. 1 की प्रिंसिपल राज अग्रवाल के मुताबिक हम इस बात पर पूरी निगाह रखते हैं कि हर बच्चा अपना टिफिन लाए और समय पर खाना खा ले। कैंटीन में भी द्गयादा महंगा सामान नहीं रखा जाता है। पर साथ ही माता-पिता को इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिए कि अगर वे बच्चों को जरूरत से ज्यादा पैसे दे रहे हैं तो इसमें हम क्या कर सकते हैं? बच्चा उसे गलत चीजों पर खर्च करेगा ही।समाजशास्त्री ज्योति सिडाना कहती हैं कि आज बाजार संस्कृति के बढ़ावे की वजह से बच्चों की इच्छाएं काफी बढ़ गई हैं। उन्हें हर चीज ब्रांडेड चाहिए। माता-पिता भी बच्चों को यही सिखा रहे हैं, 'जो है, आज है। कल का कोई भरोसा नहीं है। इसलिए पैसे को कल के लिए बचाने की बजाय खर्च करना ही ज्यादा अच्छा है।' यह सोच बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ करने वाली है। इससे बच्चे मेहनत का महत्त्व भूलने लगे हैं। उन्हें बस शौक पूरा करने के लिए ज्यादा से ज्यादा पैसे चाहिए।

समाजशास्त्री रश्मि जैन के मुताबिक बच्चों में निर्णय लेने की क्षमता उम्र के साथ-साथ ही बढ़ती है। उनका बालमन पैसों की अहमियत समझे बिना उन्हें खर्च करने लगता है। माता-पिता को उन्हें समझाना चाहिए कि जेबखर्च आपकी मासिक कमाई है और उसका कुछ हिस्सा हमेशा बचाकर रखना चाहिए। बच्चे किस चीज पर पैसा खर्च कर रहे हैं, यह ब्यौरा भी समय-समय पर उनसे लेते रहना चाहिए। उन्हें पैसे का सदुपयोग सिखाने से कोई समस्या नहीं आएगी।

-आशीष जैन

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