19 September 2008

कितने रीयल रियलिटी शो

टेलीविजन का एक रियलिटी शो..... डिजाइनर परिधान में लकदक, स्टाइलिश ढंग से नाचते-गाते, अपने हुनर को पेश करते बच्चे। लगता है वाकई क्या खूब हैं ये नौनिहाल। पर चकाचौंध में डूबे इस बचपन की असलियत कुछ और ही है। बच्चों की मासूमियत और भोलेपन के पीछे कौन-सा दर्द छुपा है, आइए, जानने की कोशिश करते हैं।

पहला वाकया- एक बांग्ला टीवी चैनल के रियलिटी शो के दौरान जजों ने 16 साल की शिंजिनी सेनगुप्ता की इतनी आलोचना की कि वह सदमे से लकवे का शिकार हो गई।

दूसरा वाकया- झारखंड के 12 साल के दीपक तिर्की ने दर्द की गोलियां खा-खाकर अपनी प्रस्तुति दी।

तीसरा वाकया- सारेगामापा लिटिल चैंप्स की विजेता 12 वर्षीय अनामिका चौधरी की तबियत कार्यक्रम के दौरान बिगड़ गई। क्योंकि उसके साथ कार्यक्रम में भाग ले रही दूसरी लड़की स्मिता नंदी के पिता को बेटी के शो से बाहर होने पर दिल का दौरा पड़ गया था।

इन दिनों छोटे परदे पर बच्चे छाए हुए हैं। कोई नाचता है, तो कोई आवाज से सबको झुमाता है। उनकी हर अदा से दर्शक खुश हैं। प्रोडक्शन हाउस और टीवी चैनल वालों के लिए बच्चे एक नए प्रॉडक्ट की तरह साबित हुए हैं। वे बड़ों की तरह हर लटके-झटके से लैस हैं। वे डिजाइनर मुस्कान देते हैं, शेर सुनाते हैं। इन बच्चों को देखकर एक बार भी नहीं लगता कि ये वाकई 'बच्चे' हैं। माता-पिता की आकांक्षाओं को पूरा करने के चलते बच्चे अब बचपन, अपनी मासूमियत को भुलाकर गलाकाट प्रतिस्पर्धा का अंग बन गए हैं। मेकअप, चमकदार कपड़े और बड़ों जैसे लटके-झटके के बीच बच्चे बार-बार यही कह रहे हैं कि हमें लगातार काम करना है और थकना नहीं है। मानो थक गए, तो हार गए। इस तरह की सोच से वे खुद को ही नुकसान पहुंचा रहे हैं। देर रात तक चलने वाले शूटिंग शिड्यूल्स के बीच इन बच्चों के अति उत्साह को संभालने वाला कोई व्यक्ति नहीं होता। इससे स्वास्थ्य और मनोदशा पर विपरीत असर होता है। माता-पिता और दर्शक समझते हैं कि बड़ा समझदार बच्चा है। कोई मासूम ब्रिटनी स्पीयर्स बनना चाहती है, तो कोई सोनू निगम। ऐसा नहीं कि इसके लिए वे मेहनत नहीं कर रहे हैं या उनमें प्रतिभा की कमी है। पर कहीं न कहीं लगता है कि इन सबके बीच बचपन कहीं खोता जा रहा है।

नहीं चलेगी मनमानी
ऐसे ही एक रियलिटी शो 'छोटे उस्ताद' के दौरान एक दर्शक द्वारा खास मेहमान इमरान हाशमी को चूमने से खफा होकर एक संगीत निर्देशक कार्यक्रम से वॉकआउट कर गए। उनके मुताबिक बच्चों के कार्यक्रम में इस तरह की हरकत गलत है। टीवी चैनलों और रियलिटी शोज को मशहूर बनाने के लिए बच्चों पर जिस तरह मनमानी की जाती है, उसकी तरफ सरकार का कोई ध्यान नहीं है। शिंजनी की घटना के बाद थोड़ी सी हलचल जरूर हुई है। केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्री रेणुका चौधरी कहती हैं, 'देश में जानवरों तक के लिए कानून है। सरकार इस तरह के बालश्रम को नजरअंदाज नहीं करेगी और टीवी पर नाच-गानों के ऐसे कार्यक्रमों में बच्चों के काम के तौर-तरीके तय करेगी। सरकार ने इसकी जिम्मेदारी राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग को सौंपी है और शोज में बच्चों के काम के तौर-तरीकों की जांच के लिए 10 सदस्यीय कमेटी बना दी है।' आयोग की सदस्या संध्या बजाज का कहना है, 'हम इन शोज में जजों के लिए सीमाएं निर्धारित करेंगे और यह पता करेंगे कि इनसे बच्चों की पढ़ाई पर कितना असर हो रहा है। अगर बच्चों पर दबाव में माता-पिता की भूमिका भी पाई गई, तो उनसे भी सवाल किए जाएंगे।' इस पूरी कवायद पर बचपन बचाओ आंदोलन के राष्ट्रीय संयोजक कैलाश सत्यार्थी का कहना है, ' सरकार चाहे, तो बालश्रम कानून के तहत रियलिटी शोज के लिए अध्यादेश भी लाया जा सकता है। बालश्रम अधिनियम 1986 में 10 अक्टूबर 2006 को संशोधन किया गया। इसके अनुसार घरेलू बाल मजदूरी, ढाबों के साथ-साथ मनोरंजन क्षेत्र में भी बच्चों से काम नहीं लिया जा सकता और ये शोज भी बच्चों को मनोरंजन का एक जरिया ही बनाते हैं, तो फिर इन पर तुरंत रोक क्यों नहीं लगाई जा रही है?'

हर चीज है बिकाऊ
कैलाश सत्यार्थी का कहना है कि आज बाजार में हर चीज बिकाऊ है। प्रोडक्शन हाउस और चैनल वाले बचपन का बाजारीकरण करने पर तुले हैं। उन्हें घंटों कोल्हू के बैल की तरह जोता जा रहा है। रियलिटी शो वाले बच्चों और माता-पिता को रातों-रात सुपर स्टार बनने के सपने दिखा रहे हैं। इससे बच्चे भी अपनी सुध-बुध खोकर घंटों खुद को परव्शान करके भी शूटिंग और रियाज कर रहे हैं। उन्हें शूटिंग के दौरान घंटों काम करना पड़ता है, जिससे वे न समय पर खा पाते हैं और न सो पाते हैं। हकीकत यह है कि 100 में से एक बच्चा जीतता है, बाकी 99 बच्चे हार जाते हैं। कुछ बच्चे डिप्रेशन का शिकार हो जाते हैं, जिसका गहरा असर भी हो सकता है। दो बच्चों में तुलना भी नुकसान पहुंचाती है। मसलन 'देखो, ये कितना होशियार बच्चा है। तुम भी ऐसा ही किया करो।' आम बच्चों पर कुछ खास करने का दबाव बढ़ता जाता है।

हमारे साथ ऐसा नहीं
चैनल नाइन एक्स पर चल रहे शो 'चक दे बच्चे' में भाग ले रही उदयपुर की निष्ठा के पिता ए. के. नाग चौधरी कहते हैं,' हमने अपनी बच्ची को खेल भावना से कार्यक्रम में भाग लेने की सलाह दी है। हमने उसमें कभी भी कंपीटिशन की भावना पनपने नहीं दी। उसकी मम्मी मुंबई में चौबीसों घंटे उसके साथ रहती है और उसे संबल देती है। उसके लिए तो यह एक सीखने का मंच साबित हो रहा है। हां, अगर कुछ शोज में गलत हो रहा है, तो यह वाकई दुर्भाग्यपूर्ण है।' उनकी कही इन सारी बातों में कितनी सच्चाई है, यह तो वही जानते हैं। अब तो निष्ठा चक दे बच्चे की विजेता भी बन चुकी हैं।

बुरा असर सेहत पर
वरिष्ठ मनोचिकित्सक आर. के. सोलंकी बताते हैं कि अठारह घंटे काम करने वाले बच्चों पर दिन-रात अच्छे प्रदर्शन का बोझ रहता है। यह बात वे किसी से नहीं कह पाते और मन ही मन परेशान रहते हैं। शोज में होने वाली प्रतियोगिताओं को जीवन-मरण का प्रश्न बनाने की बजाय प्रतिभा निखार के मौके के रूप में देखना चाहिए। अगर बच्चे लगातार ऐसे तनाव भरे माहौल में रहते हैं, तो उन्हें हिस्टीरिया के दौरे तक पड़ सकते हैं। बच्चों को चाहिए कि वे बिना किसी दबाव के रिलेक्स होकर अपनी स्वाभाविक कला का प्रदर्शन करें और झूठे दिखावे से बचें।

आजाद छोड़ दो
समाजशास्त्री ज्योति सिडाना कहती हैं कि माता-पिता बच्चों को बिना किसी मेहनत के रातों-रात लखपति-करोड़पति बनाने के सपने दिखा रहे हैं। यह पूरी तरह गलत है। माता-पिता को इन कार्यक्रमों में बच्चों को भेजने से पहले उनकी प्रतिभा का सही आकलन करना चाहिए। इसी के साथ दूसरा पहलू यह भी है कि आजकल बच्चे जल्दी ही किसी भी बात को दिल से लगा लेते हैं । ऐसे में अगर उन्हें धैर्य का गुण सिखाया जाए, तो जिंदगी में कभी कोई मुश्किल नहीं आएगी। बच्चे पर किसी खास काम के लिए दबाव डालने की बजाय उनकी प्रतिभा को नैसर्गिक रूप से बढ़ने का मौका देना चाहिए। बच्चों में नैतिक मूल्य सिखाने पर ही वे स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के काबिल बन पाएंगे और किसी भी तरह के तनाव से दूर रहेंगे।

'सरकार इस तरीके के बालश्रम को नजरअंदाज नहीं करेगी और टीवी पर नाच-गानों के ऐसे कार्यक्रमों में बच्चों के काम के तौर-तरीके तय करेगी। हमने इसकी जिम्मेदारी राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग को सौंपी है। आयोग ने रियलिटी शोज में बच्चों के काम के तौर-तरीकों की जांच के लिए एक कमेटी बनाई है।' - रेणुका चौधरी, केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्री

'सरकार चाहे, तो बालश्रम कानून के तहत रियलिटी शोज के लिए अध्यादेश भी लाया जा सकता है। बालश्रम अधिनियम 1986 में 10 अक्टूबर 2006 को संशोधन किया गया। इसके अनुसार घरेलू बाल मजदूरी, ढाबों के साथ-साथ मनोरंजन क्षेत्र में भी बच्चों से काम नहीं लिया जा सकता और ये शोज भी बच्चों को मनोरंजन का एक जरिया ही बनाते हैं, तो फिर इन पर तुरंत रोक क्यों नहीं लगाई जा रही है?' - कैलाश सत्यार्थी, राष्ट्रीय संयोजक, बचपन बचाओ आंदोलन
-आशीष जैन

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गांव चलें हम

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मन करता है एक ऐसी जगह उड़ चलें, जहां कुदरत ने अपना हर रंग बिखेरा हो, जहां प्राकृतिक सुषमा के साथ विरासत का आकर्षण हो। जहां खुली हवा, नीले आसमान और हरी-भरी वसुंधरा की त्रिवेणी मिलकर मन को लुभा जाए। कला और संगीत फिजाओं में महकते हों। तो फिर आओ चलें शहर की रोशनी से दूर गांवों की ओर। यहीं मिलेगा आपको यह सब।

मैं तो जाता अपने गांव, सबको राम-राम राम। जी हां, गांवों की ओर लौट चलने का मन कर रहा है, तो देर मत लगाइए। गांव का सुकून तो बस वहां जाकर ही महसूस किया जा सकता है। गांव की मस्ती चूल्हे पर बनी मोटी रोटी और लहसुन की चटनी में ही मिल सकती है। दरअसल आज शहरों में आदमी का दम घुट रहा है। अब हमें उन बड़े-बड़े कारखानों, धुआं उगलती चिमनियों से दूर एक ऐसा गांव याद आता है, जहां हम सदा के लिए बस जाएं। पहले हम परेशान होते थे, तो याद आती थी पहाड़ों की। हम शिमला, मसूरी, दार्जिलिंग, श्रीनगर या फिर मनाली की तरफ भागते थे। पर अब तो वहां भी अजीब नजारा देखने को मिलता है। सड़कों पर चलने को जगह नहीं है। होटलों में कमरे नहीं हैं। पानी भी बूंद-बूंद करके आता है। सब तरफ परेशानियां हैं। ऐसे में हमें गांव-देहात में कुछ पल गुजारने की इच्छा होती है। मन में शायर की ये पंक्तियां गूंजने लगती हैं-
शहर की रोशनी से अब मेरा दिल भर गया यारो
चलो फिर से वहीं पुराने गांव चलते हैं।
मन चाहता है, कुछ ऐसे पल, जो सदा के लिए उसके हृदय में बस जाएं। वो पल कानों में बांसुरी की मधुर धुन की तरह गूंजते रहें। आज फिर गांव लौटने का मन कर रहा है। आप और हम ही नहीं, पूरी दुनिया के लोगों को गांव की मिट्टी की सौंधी सुगंध भा रही है। सांसों में बहती हुई शांति, दिलों में बसता हुआ लोगों का विश्वास और प्यार, पूरी दुनिया में किसी मोल में नहीं मिल सकते। गांव में आप बरगद के पेड़ नीचे बैठे-बैठे कब सुबह से शाम के सफर पर पहुंच जाते हैं, पता ही नहीं चलता।
हां, भारत के लिए ग्रामीण पर्यटन की बात कुछ नई हो सकती है। पर यह अब धीरे-धीरे विकसित हो रहा है। लोग वाकई गांव का माहौल पसंद कर रहे हैं। पर्यटन से जुड़े लोग भी इस ओर ध्यान देने लगे हैं। देसी से लेकर विदेशी पर्यटक कड़ाही में पकती हरी सब्जियों का आनंद लेना चाहते हैं। वे तंदूर की रोटी को खेजड़ी के पेड़ के तले पूरे इत्मीनान से खाना चाहते हैं। चाहे गांवों में बिजली ना हो, सड़कें ना हों, पर कं क्रीट के जाल से निकलकर वहां की झोपड़ियों में जाते ही दिल को आराम मिलता है। गांव वाले भी इस बात से खुश हो रहे हैं कि लोग आ रहे हैं। इस बहाने उनका भी रोजगार बढ़ रहा है। उन्हें भी आमदनी हो रही है। वे मन ही मन पावणों का स्वागत करके भाव-विभोर हो रहे हैं। इसी तरह विदेशी पर्यटक भी कहते हैं कि यहां के कण-कण में आत्मीयता छुपी है। यहां आज भी ग्रामीण लोगों में 'अतिथि देवो भव' की भावना बसी हुई है। वे पर्यटकों को अपने परिवार का सदस्य मानकर सेवा करते हैं। यह विचार सिर्फ रॉबर्ट का ही नहीं है बल्कि राजस्थान में आने वाला हर पर्यटक यहां के सत्कार व आवभगत से अभिभूत है। इस तरह लोगों के ग्रामीण पर्यटन की ओर बढ़ते रुझान को देखकर सरकार भी वहां के लोगों को तो रोजगार के अवसर मुहैया करा ही रही है, साथ ही इस बहाने पर्यटकों को भी हर तरह की सुविधा मिल रही है। 'राजग्राम्य योजना' और 'ब्रेड एंड ब्रेकफास्ट योजना' इसी तरह की योजनाएं हैं, जो ग्रामीण पर्यटन को बढ़ावा देने के मकसद से लागू की गई हैं।

क्या है राजग्राम्य योजना
राजस्थान सहकारिता विभाग ने 30 दिसम्बर 2007 से जिले के हर्ष गांव व फतेहपुर के ढांढ़ण गांव को ग्रामीण सहकार पर्यटक योजना में शामिल करते हुए राजग्राम्य योजना की शुरूआत की गई है। योजना में राज्य के 26 पर्यटक स्थलों को चिह्नित किया गया है।
राजग्राम्य योजना में देशी विदेशी पर्यटक अनुभवी ट्यूर ऑपरेटर्स के प्रयासों से 30 सदस्यों के पर्यटक दल को भ्रमण के लिए लाया जाएगा। गांव के रहन-सहन जानने के लिए भ्रमण के दौरान पर्यटकों को गांव का पैदल या बैलगाड़ी से दौरा करवाकर वहां की कला-संस्कृति एवं रहन-सहन व परम्पराओं से अवगत कराया जाएगा। इस दौरान ठहरने की व्यवस्था ग्राम सेवा सहकारी एजेन्सी करव्गी।

साफा पहनाकर किया जाएगा स्वागत
योजना के तहत गांव में आने वाले देशी-विदेशी पर्यटकों का तिलक लगाकर, लोकगीत गाकर, माला व राजस्थानी पगड़ी अर्थात्‌ साफा पहनाकर उनका स्वागत किया जाएगा।

झोंपड़ी में होगी चारपाई
ग्राम सेवा सहकारी समिति भ्रमण दल के सदस्यों के लिए झोंपडिय़ों में व्यवस्था की जाएगी। बैठने के लिए मिट्टी से बनी सीटों अथवा मुड्डों की व्यवस्था होगी।

संस्कृति व लोक कलाकारों की प्रस्तुति
भ्रमण दल को गांव की कला एवं संस्कृति से रूबरू करने के लिए स्थानीय लोक कलाकारों द्वारा भोपा-भोपी नृत्य, कालबेलिया नृत्य, सपेरा नृत्य, शेखावाटी का प्रसिद्ध कच्ची घोड़ी नृत्य, बग्गी की सवारी, ऊँट व घोड़ी नृत्य दिखाया जाएगा।
गांव सहकार पर्यटक योजना के तहत गांवों में मिट्टी के बने बर्तन, लकड़ी, कपड़े, हस्तनिर्मित सामान, नमदे, खेस, बादले, राजस्थानी जूतियां, मोजड़ी उपलब्ध कराए जाएंगे।

गांव के परिवारों से जुडऩे का सीधा मौका
गांव में आने सभी पर्यटकों को ग्रामीण जीवन के रहन-सहन व उनके बारे में जानने का सीधा मौका मिल सकेगा। इसके अलावा यहां आने वाले पर्यटकों को ग्रामीण जीवन की झलक भी देखने को मिलेगी।

ब्रेड एंड ब्रेकफास्ट योजना
भारत सरकार के पर्यटन मंत्रालय ने देश में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए 'ब्रेड एंड ब्रेकफास्ट योजना' नाम की एक नई योजना शुरू की है। इस के तहत कोई भी मकान मालिक इसमें भाग लेकर अपने मकान का कमरा/कमरे पर्यटकों को रहने के लिए दे सकेगा, जिसमें मकान मालिक को भी आय होगी और पर्यटकों को भी अच्छी जगह सस्ते दामों पर मिल सकेगी। वैसे तो यह योजना पूरे भारत वर्ष में लागू है परन्तु ऐसे इलाकों में इसका खास महत्त्व होगा, जहां होटल के कमरों की कमी है। इस योजना में भाग लेने के लिए मकान मालिकों को पहले पर्यटन मंत्रालय/पर्यटन विभाग के पास स्वयं को पंजीकृत कराना होगा कि वे अपने कमरे पर्यटकों को रहने के लिए देना चाहते हैं तथा उनके पास पर्यटकों के रहने लायक गुणवत्ता वाले आवास हैं।

योजना में भाग लेने की शर्तें
योजना में भाग लेने के लिए सबसे पहली शर्त तो यह है कि घर का मालिक घर में रहता हो, उसके खिलाफ कोई आपराधिक मामला न हो, कम से कम एक तथा अधिक से अधिक पांच कमरे किराए पर दे सकता है।

योजना के लाभ
यदि आपका घर पहले से ही सभी सुविधाओं से सुसज्जित है, तो कम खर्चे में आप यह व्यापार शुरू कर सकते हैं। इसके अलावा पर्यटक बहुत ही कम समय के लिए ठहरते हैं। मंत्रालय ने कोई दरें निर्धारित नहीं की हैं। 'गोल्डन वर्ग' में आने वाले कई घरों के मालिक, पर्यटकों से 1500 से 2500 रूपए प्रतिदिन लेते हैं। मेजबानों के लिए मेहमान कोई बोझ नहीं है। मेजबान को उन्हें सिर्फ सुबह का नाश्ता देना होता है। अधिकांश मेहमान पूरा दिन बाहर रहते हैं और रात को लौटते हैं। महिलाओं के लिए तो यह कारोबार बहुत ही लाभकारी है क्योंकि वे घर से बाहर निकले बिना ही कमा सकती हैं और इसके लिए खास प्रशिक्षण की भी आवश्यकता नहीं होती।

योजना में कैसे भाग लें
योजना में भाग लेने के लिए एक आवेदन-पत्र है जिसे पर्यटन मंत्रालय की वेबसाइट www.incredible india.org से प्राप्त किया जा सकता है। फार्म प्राप्त करने के बाद पुलिस सत्यापन के लिए स्थानीय पुलिस स्टेशन में आवेदन करना होगा। पुलिस की क्लियरेंस मिलने में लगभग दो दिन लगते हैं।
इसके बाद आवेदनकर्ता को अपना आवेदन (जिसके साथ उन सुविधाओं की सूची लगी हो, जो आपके घर में उपलब्ध हैं) फार्म प्रस्तुत करना होगा जिसके साथ पुलिस का क्लीयरेंस लगा हो तथा घर के स्वामित्व का प्रमाण पत्र भी संलग्न हो, आवेदनकर्ता को मंत्रालय को पंजीकरण शुल्क भी जमा कराना होगा, जो 'गोल्ड कैटेगरी' के लिए 5,000 रूपए तथा सिल्वर वर्ग के लिए 3,000 रूपए हैं।
इसके बाद मंत्रालय की एक समिति उस घर का दौरा यह सुनिश्चित करने के लिए करेगी कि बताई गई सभी सुविधाएं उपलब्ध हैं या नहीं। समिति तब यह निर्णय करेगी कि घर 'स्वर्ण (गोल्ड)' वर्ग में आएगा या 'रजत (सिल्वर)' वर्ग में।
(उर्मिला राजौरिया, अतिरिक्त निदेशक, पर्यटन विभाग से बातचीत के आधार पर)

- आशीष जैन (रतन सिंह के सहयोग से)

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16 September 2008

ये बंधन है दोस्ती का

दुनिया में जब हम आते हैं, तो अनायास ही एक-एक रिश्ते में बंधते चले जाते हैं। सिर्फ दोस्ती ही ऐसा रिश्ता है, जो हम खुद बनाते हैं। लेकिन जब रिश्तेदारी में दोस्ती भी शुमार हो, तो क्या कहना।

दोस्ती की आंच पर पके रिश्तों की मजबूती गजब की होती है। एकदम खिले हुए, सहज और भरोसे के लायक। ऐसा होगा, तो आपको कभी रिश्तों में जटिलता या जकड़न महसूस नहीं होगी, बल्कि विचारों के खुलेपन की नई तस्वीर नजर आएगी। दिल की बात जुबां पर आसानी से आएगी और इसका फायदा आपके संबंधों को ही मिलेगा, फिर चाहे कोई भी रिश्ता हो। कुछ इसी फलसफे के साथ अपने रिश्तों में दोस्ती को जीते हुए लोगों की दास्तां-

जाने कब दोस्त बन गए
सचिवालय में कार्यरत माला जैन का कहना है कि मैं जितनी धूम-धाम और खुशी से बहू लाई थी, वह खुशी आज भी कम नहीं हुई। मैंने तो ज्यादातर सास-बहू को आपस में बुराइयां करते ही सुना है। मैं मानती थी कि यह रिश्ता कभी दोस्ताना नहीं बन सकता। लेकिन मेरी सोच गलत थी। हम कब सास-बहू से दोस्त बन गए, पता ही नहीं चला। यदि उसे कोई काम नहीं आता, तो मैं बिना डांटे या ताना दिए उसे प्यार से समझा देती हूं। कभी मैं कुछ गलत करती हूं, तो वह भी दोस्त की तरह मुझे समझाती है। हम कभी एक-दूसरे की बात का बुरा नहीं मानते। संस्कार के साथ-साथ मेरी बहू में रिश्तों को निभाने की समझ भी है। दूसरी तरफ बहू कविता का कहना है कि जब मैं शादी होकर इस घर में आई थी, तो बहुत झिझक रही थी। जैसा कि हर बहू के साथ होता है। लेकिन सास का ऐसा साथ मिला कि न जाने कब यह घर अपना लगने लगा। मुझे घर का काम करने की आदत नहीं थी। लेकिन कभी मेरी सास ने इस बात को मुद्दा नहीं बनाया। घर के बाकी लोगों को तो यह भी नहीं पता कि मुझे क्या बनाना आता है और क्या नहीं। कभी मेरी सास ने किसी तरह की शिकायत नहीं की। इतना ही नहीं, उन्होंने मुझे कॅरियर बनाने की भी सलाह दी। फिलहाल मैं बैंक परीक्षा की तैयारी कर रही हूं और इसमें मेरी सास का पूरा सहयोग मिल रहा है। वे मेरे खान-पान से लेकर हर चीज का ध्यान रखती हैं। आज मुझे यह कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि वे मेरी सास कम और दोस्त ज्यादा हैं।
माला जैन, कविता जैन(सास-बहू)

बुरा होता नहीं देख सकता
लोग हमें पिता-पुत्र कम और दोस्त ज्यादा मानते हैं। इसमें उनकी गलती नहीं, हमारा रहन-सहन ही कुछ ऐसा है। हम जहां भी जाते हैं फुल मस्ती करते हैं। ये कहना है ट्यूरिस्ट कोच से जुड़े सुरेंद्र शर्मा का। वे अपने बेटे अमन को दोस्त समझकर हर बात में उससे सलाह लेते हैं। वे कहते हैं कि चाहे अमन का कॉलेज में एडमिशन हो या मोबाइल खरीदना हो, मैंने कभी अपनी मर्जी नहीं थोपी। हमने आज तक हर छोटी-छोटी बात एक-दूसरे से शेयर की है। खाली समय में हम किसी भी विषय पर चर्चा करने लगते हैं। मेरव् साथ रहकर उसे दोस्तों की कमी नहीं खलती। एक बार ग्यारहवीं क्लास में उसका अपने दोस्तों के साथ मनमुटाव हो गया था। इस वजह से वह काफी डिप्रेशन में था। मैंने उस वक्त एक दोस्त की तरह मानसिक रूप से सपोर्ट किया। कभी मोबाइल पर कोई अच्छा मैसेज आता है, तो मैं उसे अमन को फॉरवर्ड कर देता हूं। बड़ी से बड़ी गलती करने पर भी उसे डांट दूं, तो बाद में दिल मेरा ही दुखता है। वहीं बेटे अमन का कहना है कि पापा शुरू से ही क्रिकेट खेलते थे। उन्होंने मुझे एक दोस्त की तरह क्रिकेट की बारीकियां सिखाईं। उन्होंने मुझे क्लब क्रिकेट खेलने की सलाह भी दी। मैंने जयपुर क्लब में क्रिकेट जॉइन किया। लेकिन पढ़ाई के चलते उसे निरंतर नहीं रख पाया। इस बारे में पापा को पता चला, तो उन्होंने मुझे वापस क्लब जॉइन करने को कहा। मैं भी उनका कहा टाल न सका। एक अच्छे दोस्त की यही निशानी होती है कि वह अपने दोस्त का बुरा होता नहीं देख सकता और यही मेरे पापा ने किया।
सुरेंद्र शर्मा, अमन शर्मा (पिता-पुत्र)

दो जिस्म एक जान हैं हम
कौन कहता है कि हम दो बहनें हैं। हम तो दुनिया की सबसे अच्छी दोस्त हैं। दोस्ती के इस रिश्ते से ही हमारे चेहरों पर मुस्कान बनी रहती है। यह कहना है जीएनएम नर्सिंग कर रही शमा का। वह बताती है कि मेरी छोटी बहन पिंकू बहुत सीधी है। किसी से कुछ नहीं कहती। मन की हर बात छुपा कर रखती है। लेकिन मैं उसका चेहरा पढ़ लेती हूं। वह भी मम्मी-पापा और दोस्तों की बजाय मुझसे हर बात शेयर करती है। हम दोनों बहनें जरूर हैं लेकिन दोस्तों की तरह कॉम्पिटीशन भी रखते हैं। एक-दूसरे से शिकायत करते हैं तो कभी नोंक-झोंक भी हो जाती है। लेकिन एक सच्चे दोस्त की तरह मैं अपना हर फर्ज निभाने की पूरी कोशिश करती हूं। जब कभी पिंकू की तबियत खराब होती है या वो किसी परेशानी में होती है, तो मैं अपना काम छोड़कर उसके पास पहुंच जाती हूं। दूसरी ओर छोटी बहन पिंकू का कहना है कि मैं पहले बहुत सीधी-सादी लड़की थी। लेकिन दीदी ने मुझे समझाया कि आज की दुनिया में इतना सीधापन अच्छा नहीं होता। उन्होंने मेरी हर आदत को सुधारकर मेरे व्यक्तित्व को निखारा है। उन्होंने मुझे इतना प्यार और भरोसा दिया कि मैं हर बात उनसे खुलकर कर सकती हूं। यह काम कोई दोस्त ही कर सकता है। मैंने भी कभी उनकी बात का बुरा नहीं माना और जैसा उन्होंने कहा, वैसा ही किया।
शमा पंवार, पिंकू पंवार (बहनें)

पूरा ध्यान रखता हूं
ज्वैलरी का काम करने वाले विनोद शर्मा बड़े भाई की भूमिका में तो सभी को नजर आते हैं लेकिन अपने छोटे भाई कमलेश के लिए वे दोस्त भी हैं। वे बताते हैं कि वह मनचला है। या यूं कहें कि उसमें बचपना ज्यादा है। होने को तो उसकी शादी हो गई है लेकिन उसमें उतनी परिपक्वता नहीं है, जितनी होनी चाहिए। यही वजह है कि मैं बिजनेस और उसके व्यक्तिगत जीवन का पूरा ध्यान रखता हूं। वह भी हर काम मुझसे पूछकर करता है। काम को लेकर कभी तकलीफ नहीं हुई। छोटे भाई कमलेश का कहना है कि जितने सीधे और सरल भाईसाहब हैं, उतनी ही चंचलता मुझमें है। यूं तो हमारा बिजनेस एक है लेकिन सारा ध्यान वे ही रखते हैं। मुझे पार्टियां करने का शौक है। यदि मैंने घर में अपनी ओर से कोई कार्यक्रम रखा है, तो उसे पूरी तरह संभालते वे ही हैं। कभी कोई काम करने से मना नहीं करते। जब भी मैं किसी परेशानी में होता हूं, तो वे मुझे दोस्त की तरह संभाल लेते हैं। मेरे पूरे परिवार को लगता है कि वे मेरे साथ हैं, तो मुझे कुछ नहीं हो सकता। मेरा विश्वास भी यही है। सच कहूं तो मैंने भाई के रूप में सच्चा दोस्त पाया है।
विनोद शर्मा, कमलेश शर्मा (भाई)

प्रीति स्वर्णकार, आशीष जैन

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12 September 2008

पापा मेरे पापा

विशाल वृक्ष के साए में जिस तरह हर मौसम की मार से महफूज नन्हे पौधे बेफिक्री से झूमते हैं और हवा-पानी पाकर बढ़ते जाते हैं। उसी तरह जिंदगी के संघर्षों की तीखी धूप से हमें राहत देता है पिता का प्यार। ज्यों ज्यों हम बड़े होते जाते हैं, उनके वात्सल्य की गहराई समझ आती जाती है। उम्र के हर दौर में हमें याद आता है पिता के साथ हुआ अनमोल लेन-देन। कुछ इसी तरह की यादों के जरिए अपने दिल की बात कह रहा है एक युवक।

आज मैं अपनी उम्र के 30 बसंत देख चुका हूं। इतने सालों में कई चीजें बदल गईं, कई अच्छे-बुरे दौर गुजर गए पर एक चीज कभी नहीं बदली। वह है मेरे पिता का स्नेह, दुलार, विश्वास और उनकी बांहों में मिली सुरक्षा, जो आज भी हर मुश्किल समय में मुझे हमेशा महसूस होती है। मुझे धुंधली सी याद है, जब मैं बहुत छोटा था। उस वक्त पिताजी मुझे अपनी उंगली पकड़कर धीरे-धीरे चलना सिखाते थे। मैं कई बार गिरता, पर हर बार वे मुझे संभाल लेते और बदले में मैं उन्हें एक प्यारी सी मुस्कान दे दिया करता था। वे मुझे कभी गिरने नहीं देते थे। शायद इसीलिए मेरे नन्हे कदम जल्दी ही सध गए और मैं कब दौड़ने लगा, पता ही नहीं चला। जब मैं चार साल का हुआ, तो अपने पापा का हाथ पकड़कर पहली बार सहमता हुआ स्कूल गया। पापा मुझे वहां छोड़कर जा रहे थे, तो मैं दौड़कर वापस उनके पास आया और उन्हें कसकर पकड़ लिया। पापा ने मुझे प्यार से समझाया और मैं मान गया।

जब पापा साइकिल लाए
जब कुछ बड़ा हुआ और मैंने 12 साल की उम्र में साइकिल की जिद की, तो पापा मेरे लिए तुरंत बाजार से सुंदर सी साइकिल लाए थे। मैं दिन भर उस पर बैठकर पार्क के चक्कर लगाता रहता और पापा को बताया कि मैं इससे पूरी दुनिया का चक्कर काटूंगा। पापा भी मेरी पीठ थपथपाकर कहते, 'क्यों नहीं बेटा, जरूर चक्कर लगाना पूरी दुनिया का।'

मैंने गिफ्ट दिया
उसी दौरान एक बार पापा मेरे लिए पेंसिल कलर लेकर आए थे। मैंने उनसे घर की पूरी दीवारें रंग दी थीं। बाद में मुझे लगा कि पापा डांटेंगे। पर पापा जब ऑफिस से आए, तो पीठ पर हाथ रखकर मुस्कुराते हुए बोले, 'ड्रॉइंग बहुत अच्छी करते हो, पेंटर बनने का इरादा है क्या?' मैंने कुछ नहीं कहा और अपने कमरे से एक पेपर लाकर पापा से बोला,'यह रहा आपका गिफ्ट।' पापा ने पेपर देखा। मैंने उसमें पापा की ही पेंटिंग बना रखी थी। उन्होंने मुझे गले लगा लिया। उस वक्त मुझे लगा, मानो पूरी दुनिया भर की खुशियां एक ही पल में मुझे मिल गई हों।

उन्हें लिखा पहला खत
जब मैं 15 साल का हुआ, तो एक समर कैम्प के लिए दस दिन के लिए अपने शहर जयपुर से दूर जाना पड़ा। उस वक्त पापा ने अपने हाथों से मेरे लिए बैग जमाया और मिठाई का डिब्बा भी रखा और कहा, 'घबराना मत, मन लगाकर चीजें सीखना।' मैं घर से दूर तो जा रहा था, पर मन ही मन उनसे बिछुड़ने का गम था। वहां जाकर मैंने पिताजी को एक चिट्ठी लिखी। वह चिट्ठी आज भी पिताजी मुझे दिखाते हैं कि किस तरह मैंने अपने बचकाने शब्दों में ढेर सारा प्यार उंडेला था।

कहां खोए हो बेटा !
जब बचपने से जवानी की दहलीज पर कदम रखा, तो पड़ोस में रहने वाली हमउम्र लड़की को पसंद करने लगा। रात-दिन उसी के ख्यालों में खोया रहने लगा। एक दिन जब पापा ने पूछा, 'बेटा, कहां खोए रहते हो? कोई बात है क्या?' तो मन की बात जुबान पर आ ही गई। मैंने डरते-डरते पापा को उसके बारे में बताया। पर उस वक्त भी पापा के चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी। उन्होंने अपना हाथ मेरे कंधे पर रखा और कहा, 'बेटा, वह अच्छी लड़की है, पर इस उम्र में होने वाली आकर्षण स्थायी नहीं होता। अभी तुम्हारी उम्र करियर की तरफ ध्यान देने की है। उम्र के इस दौर में अगर तुम बहकोगे, तो खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारोगे।' पापा ने बताया कि क्यों मुझे इस उम्र में वह अच्छी लगती है। मुझे क्या करना चाहिए। इस समझाइश से पापा के लिए मेरे मन में बसी इज्जत और भी बढ़ गई। उस दिन से उनका व्यकि्तत्व मुझे बहुत विशाल लगने लगा।

रातभर जागते थे
जब मैंने 18 साल की उम्र में एम्स में डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए प्रवेश परीक्षा के लिए तैयारी शुरू की, तो पापा भी मेरे साथ रात भर जागते रहते थे। मेरी छोटी-छोटी बातों का ख्याल रखते थे। वे मेरा हौसला बढ़ाते रहते थे। मैंने भी मन ही मन ठान लिया था कि मेडिकल कॉलेज में दाखिला लेकर दिखाना है। जिस पल मेडिकल कॉलेज में एडमिशन की बात पिताजी को पता लगी, उनकी आंखों से आंसू बह निकले थे। इतना संतोष, इतना गर्व उनके चेहरे पर देखकर लगा कि वाकई मेरे पिताजी दुनिया के सबसे अच्छे पिता हैं। कुछ दिनों बाद मैं एम्स में आ गया और पढ़ाई में रम गया। फिर तो छुट्टियों में ही मिलना होता। टेलीफोन और खत ही हमारे बीच संवाद के सेतु का काम करते थे। जब-जब मैं घर आता, तो रात को पापा के पास आकर लेट जाता। उनका सान्निध्य पाकर लगता कि दुनिया की कोई परेशानी मुझे कमजोर नहीं कर सकती। हम घंटों पक्के दोस्तों की तरह बातें किया करते। बात करते-करते हम कब नींद के आगोश में डूबते, पता ही नहीं चलता।

डांट में था सबक
जब कभी दिल्ली से आता, तो उनके लिए कुछ न कुछ जरूर लेकर आता। पर जो चीज आज भी पिताजी के पास रखी है, वह है- उस वक्त मेरा लाया हुआ चश्मा। न जाने क्यों मुझे हर वक्त उनकी चिंता लगी रहती थी। तभी तो एक बार उनकी बीमारी की खबर लगते ही मैं एग्जाम बीच में ही छोड़कर चला आया था। हालांकि बाद में पापा ने बहुत डांटा था, पर मैं कैसे खुद को रोक सकता था। उनकी डांट में एक सबक था।

मैं हूं ना...
जब 24 साल की उम्र में पढ़ाई पूरी की, तो गांव आकर ही क्लिनिक खोली। उस वक्त पिताजी पूरे गांव में शान से कहते थे, 'मेरा बेटा डॉक्टर है। इलाज बहुत अच्छा करता है।' और जब कभी कोई मरीज सही होकर उनसे मेरी थोड़ी सी भी तारीफ कर देता, तो उनका सीना गर्व से चौड़ा हो जाता था। उन दिनों हम किराए के मकान में रहते थे। एक दिन जब मेरी शादी की बात चली, तो लड़की वालों ने कहा, 'आपका खुद का घर तो है नहीं, ऐसे में हम अपनी बेटी आपको कैसे दे दें?' पिताजी को यह बात चुभ गई। रात को बातों ही बातों में मुझसे कहने लगे,'मैं ताउम्र क्लर्क की नौकरी करता रहा। कभी सोचा ही नहीं कि खुद का मकान भी बनवाना है।' यह कहते-कहते वे थोड़ा भावुक हो गए। उस वक्त मैंने उन्हें गले लगाते हुए कहा, 'पापा, चिंता मत करो। मैं हूं ना। सब ठीक हो जाएगा। आपका मकान भी बनेगा और मेरी शादी भी धूमधाम से होगी।' उस वक्त उनके चेहरे पर वही भाव थे, जो कभी उनके मुझे सहारा देने पर होते थे।

पूरी की इच्छा
कुछ दिनों बाद ही उन्होंने मेरी शादी कर दी। बहू को आशीर्वाद देते वक्त उन्होंने कहा, 'मेरा बेटा मेरे लिए एक 'बेटी' लेकर आया है।' शादी के कुछ समय बाद मां का देहांत हो गया। पिताजी दुखी थे पर मुझसे कभी कुछ नहीं बोले। मैंने पिताजी को धीरज बंधाने की पूरी कोशिश की। हमने चारों धाम की यात्रा करने की सोची। मैं, मेरी पत्नी और पापा चारों धाम की यात्रा पर निकल गए। पिताजी की शुरू से ही चारों धामों के दर्शन की इच्छा थी, सो वह भी पूरी हो गई। जब हमारे घर 'नया मेहमान' आया और पिताजी दादाजी बने, तो उन्होंने पूरे गांव को न्योता दिया। ढेरों खुशियां मनाईं।

बस आपका प्यार चाहिए
मैं सोचता कि पिताजी ने मुझे इस काबिल बनाया और मैं किस तरह अपना 'पितृ ऋण' चुकाऊं? कुछ ही दिन पहले की बात है। मेरा जन्मदिन था। मैं 30 साल पूरे कर चुका था। शाम को पार्टी हुई। पार्टी के बाद पिताजी मेरे पास आए और उन्होंने कहा, 'बता, तुझे क्या गिफ्ट दूं?' मैंने कहा, 'मुझे तो बस आपका प्यार चाहिए और कुछ नहीं।' इसके बाद उन्होंने एक कागज का पुर्जा मुझे थमा दिया। उनके जाने के बाद मैंने उसे पढ़ा। उसमें लिखा था, 'बेटा, तू मेरी पहली और आखिरी पूंजी है। सदा ऐसा ही खुश रहना।' यह पढ़कर मेरी आंखें छलक पड़ीं।

संतुष्ट हूं मैं
अगले दिन मैं पिताजी के साथ सैर पर जा रहा था। वे लाठी टेकते हुए चल रहे थे। एकाएक एक पत्थर से उनकी लाठी टकराई और वे लड़खड़ा गए। तभी मैंने उन्हें संभाल लिया। उस समय मैं उनके चेहरे पर वही मासूम मुस्कान देख रहा था, जो आज से लगभग तीस साल पहले मैंने उन्हें दी होगी जब उन्होंने मुझे संभाला था। आज मैं संतुष्ट हूं कि मुझे मौका मिला अपने पिता की सेवा करने का और बचपन में मिले दुलार का अंश भर लौटाने का।

-आशीष जैन

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11 September 2008

वो जब याद आए, बहुत याद आए



जैसे वृक्ष के साए में नन्हे पौधे बेफिक्री से झूमते हैं और स्नेह की हवा पाकर बढ़ते जाते हैं। इसी तरह जिंदगी की तपती-तीखी धूप में भी हमें याद आती है पिता के प्यार की ठंडी फुहार। बचपन में पिता के साथ गुजारे पलों को हर कोई बार-बार याद करना चाहता है। पेश है ऐसे ही कुछ सेलिब्रिटीज की बचपन में पिताजी के साथ जुड़ी रोचक यादें-

शबाना आजमी-कैफी आजमी
बचपन में मेरे एक दोस्त ने बताया कि उसने मेरे अब्बा का नाम अखबार में पढ़ा था। चालीस बच्चों वाली क्लास में सिर्फ मेरे अब्बा का नाम अखबार में आया था और इस घटना से मैंने मान लिया कि अब्बा कुछ अलग तरह के इंसान हैं। अब मुझे उनका कुर्ता-पाजामा पहनना बुरा नहीं लगता था। यहां तक कि मैंने वो काली गुड़िया भी बाहर निकाली, जो उन्होंने बचपन में मुझे दी थी। तब मैं चाहती थी कि वो मुझे नीली आंखों वाली सुनहरे बालों की गुड़िया खरीदकर देते, पर अब्बा ने मुझे प्यार से समझाया कि काला रंग भी खूबसूरत है और मुझे अपनी गुड़िया पर नाज करना चाहिए। तब मैं सात साल की थी और यह बात मेरी समझ में नहीं आई, पर मैंने चुपचाप वह गुड़िया ले ली और छुपा दी। तीन साल बाद मैंने उसे बाहर निकाल लिया, क्योंकि वो ही इस बात का पहला प्रमाण थी कि मैं अलग तरह के पिता की अलग तरह की बेटी हूं।जब मैं बड़ी हुई, तो अब्बा ने मेरी जिंदगी के हर फैसले में मेरा साथ दिया और जरूवरत लगी, तो मार्गदर्शन भी किया। जब मैं साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए दिल्ली से मेरठ तक एक पदयात्रा में शामिल होने जा रही थी, तो मैं थोड़ा नर्वस थी। मैं अब्बा के कमरे में गई, तो उन्होंने मुझे खींचकर अपने सामने बैठाया और कहा, 'मेरी बहादुर बेटी भला क्यों डर रही है। जाओ तुम्हें कुछ नहीं होगा। यह सुनकर मेरा सारा डर निकल गया था।

अमिताभ बच्चन-हरिवंशराय बच्चन
आज बॉलीवुड में अमिताभ बच्चन जिस मुकाम पर हैं, वहां उन्हें थमकर जरा सा सुस्ताने की फुर्सत नहीं है। कभी न थकने का यह माद्दा अमिताभ को अपने पिता हरिवंशराय से मिला। बकौल अमिताभ 'बाबूजी को कैरम खेलना, क्रिकेट खेलना वगैरहा पसंद नहीं था। वे पढ़ाई पर ज्यादा जोर दिया करते थे। पर वे क्रिकेट प्रेम को बखूबी जानते थे। उन दिनों वे लंदन में थे और बंकिंघम पैलेस में एक कार्यक्रम में निमंत्रित किए थे। वहां भारत की क्रिकेट टीम भी गई हुई थी। उन्होंने तुरंत एक कागज वीनू मांकड़ को दिया और कहा कि कृपा करके पूरी टीम से ऑटोग्राफ ले दें। वीनू अचंभित कि इतना बड़ा कवि ऑटोग्राफ मांग रहा है, तो उन्होंने बताया कि मेरा बेटा बहुत खुश होगा और सचमुच वह ऑटोग्राफ वाला कागज जब बाबूजी ने मुझे पत्र में भेजा और मैंने दोस्तों को दिखाया, तो पूरे स्कूल में अचानक मैं बहुत मशहूर हो गया था।मेरे फिल्मों में आने के बाद बाबूजी ने मेरी सभी फिल्में देखी। अपने मित्रों में फिल्म का प्रचार भी करते थे। फलां फिल्म जरू र देखने जाना, अमित ने अच्छा काम किया है।'

लिएंडर पेस-वीस पेस
बचपन में मैं सॉकर खेला करता था। हमारी टीम का नाम था- कोला कोला। एक बार हमने गोल्ड स्पॉट टीम से फाइनल खेला था। मैच निर्णायक मोड़ पर था। ऐसे में मुझे पेनल्टी किक लगाने का मौका मिला, पर मैं चूक गया। हम मैच हार गए। मुझे लगा सब खत्म हो गया। सभी मुझे ही हार का जिम्मेदार मान रहे थे। ऐसे समय में मेरे पापा मेरे पास आए, मुझे उठाया और कंधे पर बिठाया। फिर पीठ पर झुलाते हुए सॉकर रू म तक ले गए। वे कहते रहे, 'सुनो, तुम सबसे अच्छे थे, तुम हो सकते हो और यही तुम्हें होना है। कभी-कभी चीजें आपके हाथ में नहीं होतीं और कभी उन्हें वैसा ही छोड़ देना चाहिए, जैसा कि वे असल में हैं।'

नितिन राय-रघु राय
जब मैं छोटा था, मुझे फोटोग्राफी की जगह संगीत ज्यादा आकर्षित करता था। मैं उन दिनों संगीतकार बनने का सपना देखता था। पर मेरे पिता के कलात्मक फोटोग्राफ मेरे अवचेतन मन को प्रभावित करते रहे। धीरे-धीरे उनका कैमरा बैग टांगकर मैं उनके फोटो शूट में उनका साथ देने लगा। डार्क रूम में भी उनके इर्द-गिर्द ही घूमता रहता और मेरे अंदर चित्रों के प्रति कलात्मक समझ पैदा होती गई। मम्मी पत्रकार थी, उनकी स्टोरीज के लिए मैं फोटोग्राफ उपलब्ध कराने लगा। हाई स्कूल में 'टारगेट' मैग्जीन के लिए फोटोग्राफ खींचने लगा। पिताजी अक्सर कहते, 'पहले काम की पूरी बारीकियां सीखो, फिर उसमें हाथ आजमाओ।' आज मुझे उनकी वे बातें याद आती हैं।

प्रिया दत्त-सुनील दत्त
मैं सिर्फ 13 साल की थी, तभी मेरी मां का निधन हो गया। उस वक्त पापा ही हमारे लिए मां बन गए थे। हमारे स्कूलों में जाना, नाटकों में जाना... वे सब कुछ करते थे। इतने बिजी शेड्यूल में भी वे हमारे लिए समय निकालते थे। सन 1987 में पिताजी दंगों से झुलसे भारत देश में शांति के उद्देश्य से मुंबई से अमृतसर पदयात्रा पर निकले। मैंने कहा, 'पापा, मैं भी आपके साथ आना चाहती हूं।' पापा ने मुझे इसी बात के साथ इजाजत दी कि मैं अगले साल कॉलेज रिपीट करूं। मैंने इस यात्रा में पापा से जो मानवीय मूल्य ग्रहण किए, वे आज भी काम आ रहे हैं।

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ये भी खूब है



1. ममता बनर्जी की हर अदा निराली है

कड़वी स्पीच भी लगती मीठी कव्वाली है

थोड़ी अडिय़ल, थोड़ी तुकनमिजाज है

नंदीग्राम हिंसा पर सख्त एतराज है

पहले भी दे चुकी लोकसभा से इस्तीफा

इस बार फिर अपनी भड़ास निकाली है


2. राहुल बाबा देश के नए तारणहार हैं

इस युवराज पर सारे मुल्क का भार है

महासचिव की पगड़ी बांधे

गुजरात में लगा रहे हैं नारे

कांग्रेसिए चल रहे पीछे

सोच के अब होंगे वारे-न्यारे।


3. हैदराबाद हरिकेन विवादों का दूसरा है नाम,

जलवाए खास का, मक्का मस्जिद है नया मुकाम

टेनिस परी ने सैकड़ों बार, कैमरा किया फेस

मीडिया हरदम करती चेंज

इस बार मामले को तूल ना दिया

मांफी मांगी, कहा भूल चूक में गुनाह किया


4. कॉलम लिखने पर बात बिगड़ गई

क्रिकेटिया बीसीसीआई कर्नल पर चढ़ गई

पहले कदम खींच लिए पीछे

फिर किया आत्ममंथन, मैं क्यों रहूं नीचे

पलटवार कर जबानी चाबुक मारा

कलमचियों पर प्रहार किया करारा


5. पहले हाथ का साथ छोड़ा

फिर कमल को पूरा निचोड़ा

किया था वादा येदूरिप्पा से

राज करेंगे थोड़ा-थोड़ा

खुद की ट्वेंटी पारी खेल ली

अब मुकर गए देवगौड़ा


6. तुझ संग प्रीत लगाई सजना

गीत शाहिद को नहीं सुहाया

लोलो को छोटे नवाब का साथ है भाया

'जब वी मैट' तो हो गई हिट

शाहिद-करीना की जोड़ी नहीं रही फीट

अब दीपिका पादुकोण से दिल मिलाएंगे

करीना को शाहिद खूब चिढ़ाएंगे


7. हमरा बाजीगर, खेल रहा है कौनसी बाजी

डर में जंचा था, दुल्हनिया आज भी ताजी

कभी के बी सी में जात हो धमक

कभी कर जात हो भारत कुमार की नकल

हद हो गई अब तो धोनी का बल्ला लिया पकड़


8. महाराजा ने भी हल्ला बोल दिया

बल्ले का मुंह खोल दिया

अख्तर एंड कंपनी को खूब धुना

तभी तो मैन ऑफ दी सीरीज चुना

वन डे में दादा दस हजारी हैं

टेस्ट में जलवे दिखाने की तैयारी है

पाक के बाद कंगारुओं की बारी है


9. परदेसन माधुरी नेने की वापसी करारी हुई,

आडियंस में पहले जमके खुमारी हुई,

शो छूटा, तो सबके ख्वाब टूट गए

दर्शकों ने सिर पीट लिया

'आजा नच ले' को भूल गए।


10. मोनिका भाभी लौट आई है गांव,

आसमां की बुलंदियों को छूने चले थे पांव,

कदम चले थे फिल्मी रास्ते पर

फिर डॉन की गलियों में मुड गए।

हसीना शिखर की जगह पहुंची जेलखाने

दुनिया भर के सुनने पड़े ताने

कमबख्त पहले समझ जाती, तो ये नौबत ना आती।


11. बडक़े अंबानी ने कामयाबी की लिखी नई इबारत है

बना रहे 27 मंजिला इमारत हैं।

शरीके ध्यात को जन्मदिन पर 242 करोड़ का तोहफा दे डाला

इस देश में जहां, लाखों को नसीब नहीं होता निवाला।

धन कुबरों के अजीबोगरीब शौक हैं

ये हकीकत है, ना कि जोक है


12. पिता कवि, बुद्धिजीवी हैं,

खुद महानायक बन गए हैं

चश्मे नूर भी बढ़ा रहे हैं शान

जमीन खरीदी बनके किसान

आफत में फंसे, तो जमीन कर दी दान।


(भाई संजय सोनगरा का योगदान साल 2008 आने पर )

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ए वतन ए वतन

1.मेरे वतन से अच्छा कोई वतन नहीं है।
सारे जहां में ऐसा कोई रतन नहीं है॥

2.शहीदों के मजारों पर, लगेंगे हर बरस मेले।
वतन पर मरने वालों का, बाकी यही निशां होगा॥

3. कदम-कदम बढ़ाए जा, खुशी के गीत गाए जा।
ये जिंदगी है कौम की, तू कौम पे लुटाए जा॥

4.तू शेरे हिंद आगे बढ़, मरने से तू कभी न डर।
उड़ा के दुश्मनों का सर, जोशे वतन बढ़ाए जा॥

5.दिल से निकलेगी न मरकर वतन की उल्फत
मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आएगी॥


6. ऐ शहीदे- मुल्को- मिल्लत, तेरे जज्बो के निसार।
तेरी कुरबानी का चर्चा गैर की महफिल में है॥

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बातें खरीदारी की

खरीदारी करते समय हमें कुछ खास बातों का खयाल रखना चाहिए, ताकि अपने पैसे का सदुपयोग हो सके।
1हर वस्तु का बिल जरूर प्राप्त करें और संभालकर रखें।
2वस्तु के साथ मिलने वाली गारंटी या वारंटी के अंतर को भली-भांति समझ लें।
3एम आर पी पर भी तौल-मोल करके उचित मूल्य ही चुकाएं।
4मेडिकल वस्तुओं जैसे- दवाइयों की खरीदारी करते समय एक्सपायरी डेट जरूर जांच लें।
5वस्तु की खरीद करते समय उसके निर्माता, विक्रेता, ब्रांड नाम, गुणवत्ता, टिकाऊपन, टेक्नोलॉजी और उपयोगिता पर भी ध्यान दें।
6 ब्रिकी के बाद की सेवाओं की जानकारी भी लें। इलेक्ट्रोनिक उत्पाद खरीदते समय ध्यान रखें कि इसके पार्ट्स कहां मिलेंगे, उनकी सेवा कहां कराई जा सकेगी इत्यादि।
7 अगर उपहार योजना के तहत खरीद करते हैं, तो उपहार के बारे में भी पूरी जानकारी लें।
8. नकद खरीद और फायनेंस से खरीद में मूल्य का अंतर पता करें।
9. छुपे हुए मूल्यों की पड़ताल खरीद से पहले ही कर लें।
10. विज्ञापनों से प्रभावित होकर बिना सही जांच-पड़ताल के उत्पाद न खरीदें।
- आशीष जैन

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10 September 2008

ख्वाबों के पंखों तले हकीकत

क्या आपके मन की पतंग गाहे-बेगाहे कल्पना की उड़ान भरने लगती है? क्या आपको कल्पना के संसार में डूबे रहना अच्छा लगता है? खुश हो जाइए, क्योंकि कल्पना के परों से ही हकीकत का संसार मिल पाता है। वाकई कल्पना से सब कुछ हासिल करिए।


कहा जाता है कल्पना की उड़ान सबसे तेज वायुयान से भी अधिक है। हम सब भी कल्पना की उड़ानें भरते हैं। इंसान की कल्पना की पतंग आसमान छू लेना चाहती है। इंसान इन्हें साकार करने की इच्छा संजोता है हर पल। लेकिन कल्पना की पतंग उड़ाना कुछ के लिए कोरी और सतही बात हो सकती है। पर असलियत में कल्पना एक इंसान के लिए बहुत मायने रखती है। कल्पना इंसान के व्यक्तित्व का कायाकल्प कर देती है। कल्पना हमें सिखाती है कि हम खुद अपने भाग्य निर्माता हैं। अगर खुद को ऊंचाइयों पर ले जाना चाहते हैं, तो कल्पना की शक्ति को पहचानना होगा। मन और मस्तिष्क को अगर कल्पना के पंखों का सहारा मिल जाए, तो सफलता का हर दरवाजा खुलने लगता है। कल्पना करें, अपने सपनों को मन की गहराइयों से महसूस करें और फिर आप पाएंगे कि धीरे-धीरे हर ख्वाब हकीकत बनता जा रहा है। आज के समय में कल्पना के सहारे व्यक्तित्व विकास की अवधारणा तेजी से फैलती जा रही है। दरअसल व्यक्तित्व विकास में सबसे अहम भूमिका मन, मस्तिष्क और शरीर की होती है। अगर कल्पना के सहारे हम मन, मस्तिष्क और शरीर का विकास कर अपने लक्ष्य की ओर केन्द्रित कर सकें, तो निश्चित ही सकारात्मक परिणाम मिलेंगे। कल्पना पुरुष, महिला, युवा या बुजुर्ग सबके लिए अहमियत रखती है। व्यक्तित्व विकास का मूल हम सभी के भीतर ही निहित है, पर हम सब इस गुण को बाहरी संसार में खोजते रहते हैं। सोचें, पूरी शिद्दत से सोचें और मन की गहराइयों में डूब जाएं। आप देखेंगे कि कल्पना ने न केवल आपका शरीर बल्कि मन की आपकी हर सोच को पूरा करने में आपकी मदद कर रहा है। आपका व्यक्तित्व निखर रहा है। तो फिर खो जाइए कल्पना के महासागर में।

कल्पना का मन

आप चाहे कुछ भी हासिल कर लें, मन में एक न एक इच्छा फिर भी शेष रहती ही है। ऐसे में कल्पना के घोड़े दौड़ाते रहें, मन में अपने सपनों को पलने दें। मन की उड़ान को रोकें नहीं। ओशो के अनुसार, 'हर बीज अपने अंदर एक विशाल वृक्ष की संभावना लिए पैदा होता है। जब एक बीज वृक्ष बन सकता है, तो सारे बीज वृक्ष बन सकते हैं। बस जरूरत बीज की चाहत को हमेशा संजोकर रखने की है।' बचपन में हम सब कल्पना का एक विशाल संसार लेकर पैदा होते हैं। दिनभर उसी संसार में खेलते-कूदते हैं। धीरे-धीरे हमारा यह गुण लुप्त होने लगता है और हम अपनी कल्पना को तिलांजलि देकर तर्क को महत्त्व देने लगते हैं। तर्क से हम अपनी सीमाओं में बंधकर रह जाते हैं। हर चीज में हमें लाभ-हानि नजर आने लगती है। हम खुलकर सपने नहीं देख पाते। जिंदगी भर हमारे मस्तिष्क में ख्वाबों की अधूरी तस्वीर रहती है। हमें सपने बेकार लगते हैं। उनमें जीना और उन्हें महसूस करना बचपना लगने लगता है। अगर हम तर्क में थोड़ा सा कल्पना का रंग घोल दें, तो हमारी सोच का दायरा विशाल हो जाता है। कल्पनाशील व्यक्ति पहले दिल की सुनता है, फिर अपने दिमाग की। वह समस्या आने पर अपनी कल्पनाओं के परों को खोलता है। हर दिशा और पहलू से चिंतन-मनन करने के बाद मन उस हल को मान लेता है और फिर हकीकत में भी समस्या सुलझ जाती है। हम अनंत शक्ति लेकर पैदा हुए हैं। आइंस्टीन के मुताबिक, 'कल्पना ज्ञान से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।' ऐसे में अगर आप मन की कल्पनाओं की सम्मान करना सीख जाएं और उनके मुताबिक अपना जीवन ढाल लें, फिर आप भी यही कहेंगे, 'मन के जीते जीत है, मन के हारे हार।'

कल्पना से सेहत

लेखक रव्मेज सासन के एक लेख के अनुसार नवीनतम शोधों के परिणाम बतलाते हैं कि कल्पनाशीलता हमारी सेहत को प्रभावित करती है। एक कल्पनाशील व्यक्ति खुशियों को कहीं बेहतर ढंग से महसूस करता है और जीवन की छोटी-छोटी बातों में खुशियां खोज लेता है। वह ऐसे लोगों की अपेक्षा स्वस्थ रहता है, जो जीवन में हर बात को तर्क के आधार पर लेते हैं। कल्पना की उड़ान क्रियाशीलता बढ़ाती है। सपनों और कल्पनाओं से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है और भयंकर बीमारियों से बाहर निकलने की ताकत मिलती है। जो लोग कल्पना करते हैं, उनका तनाव भी जल्दी दूर होता है। शरीर में रक्त का प्रवाह भी कल्पना से प्रभावित होता है। शोध में देखा गया है कि कल्पना के सहारे कई लोग सालों तक युवा बने रहे और जीवन का आनंद बेहतर ढंग से उठा पाए। जापान के वृद्ध लोगों से जब उनकी दीर्घायु का राज पूछा गया तो उनका जवाब था, 'हमने तो अपनी कल्पनाओं में अपने स्वस्थ जीवन की छवि बना रखी है।हम कल्पना करते हैं और वो साकार होने लगती है।'

सामाजिक गुणों की खान

ऐसा नहीं है कि कल्पनाशील व्यक्ति सिर्फ अपने खयालों में खोया रहता है। कल्पनाशील इंसान सामाजिक जिम्मेदारियों को बखूबी निभा पाते हैं। व्यक्ति की एकाग्रता, धैर्यशीलता, हास्यबोध और आत्मविश्वास जाग्रत करने के लिए मनोवैज्ञानिक कल्पना-शक्ति का सहारा लेने की सलाह देते हैं। लेखक स्टेप जोन्स कहते हैं, 'इंसान कल्पना की मदद से संवेदनाओं को बेहतर तरीके से महसूस कर पाता है। दूसरों के दर्द और तकलीफ में भी शामिल होने के लिए एक सच्चा दिल चाहिए, जो कल्पनाशीलता से ही हासिल होता है।'

समस्याओं का हल

मनोवैज्ञानिक विषयों के लेखक मार्टिन रोसमैन के अनुसार, 'कल्पनाशीलता एक तरह की पॉजिटिव सोच होती है। इसमें हम अपने आने वाली हर चीज के बारव् में विस्तार से सोचते हैं। फिर उसका हल निकालते हैं। व्यक्ति को यह पता होता है कि यह सब वास्तविक नहीं है। पर असलियत में उन परिस्थितियों का सामना करने पर समस्या हल करने के कई विकल्प सामने होते हैं। कल्पना के सागर में गोता लगाते हुए उन्हें कोई न कोई ऐसा मोती मिलता है, जो उनका काम आसान बना देता है।'

लक्ष्य बनाए आसान

मनुष्य अपने जीवन काल में मस्तिष्क का पांच फीसदी हिस्सा ही इस्तेमाल कर पाता है। ऐसे में दिमाग के तार खोलने में भी कल्पना की अहम भूमिका है। थॉमस एडिसन, न्यूटन हों या जॉर्ज बनार्ड शॉ, ये सभी लोग किसी आविष्कार या कृति को वास्तविकता के धरातल पर उतारने से पहले मस्तिष्क में गहन कल्पना करते थे। अमरीकी मनोवैज्ञानिक दौड़ से पहले धावकों को कल्पना करने की प्रेरणा देते कि वे दौड़ जीत चुके हैं। इस कल्पना से उनका मस्तिष्क आने वाली बाधाओं पर केन्द्रित हो जाता और हल खोज लेता। इससे धावक जीत के लक्ष्य को आसानी से पा लेते। हेलेन केलेर बचपन से ही न सुन सकती थी, न देख सकती थी। फिर भी उनका मस्तिष्क मात्र कल्पनाओं के सहारे कई भाषाओं को सीखने में सक्षम हुआ। इससे साबित होता है कि कल्पना में आया एक आइडिया वाकई दुनिया बदलने की ताकत रखता है। हर मर्ज की एक दवाएक गृहिणी दिनभर अपने काम में इस तरह मशगूल रहती है कि अगर कुछ पल के लिए कल्पना के संसार में जीए, तो सारी थकान पलभर में दूर हो जाती है। ऑफिस में काम करता एक पुरुष अगर अपने काम लेकर थोड़ा सा हवाई हो जाए और कल्पना के सहारे खुद को थोड़ा बेहतर महसूस करे, तो उसकी कार्यक्षमता में इजाफा होता है। युवावर्ग जहां अपने करियर को लेकर चिंतित रहता है, वहीं बुजुर्ग अपने भविष्य को लेकर परेशान। ऐसे में अगर हम अपने जीवन में कल्पना के लिए थोड़ा सा समय निकाल पाएं, तो जिंदगी आसान लगने लगती है। हम सबके लिए जरूरी है कि हम बच्चों का भोलापन उधार लें और कल्पनाओं के संसार में खो जाएं। इससे हम खुद को जान पाएंगे। क्या हैं हम, क्या हैं हमारी इच्छाएं और क्या हैं उनका समाधान!

कल्पना को दें नई उड़ान

डॉ. विन वेनगेर अपनी पुस्तक 'दी आइंस्टीन फैक्टर' में कल्पनाशीलता को विकसित करने की तकनीक बतलाते हैं।

1. एक शांत जगह आरामदायक स्थिति में बैठ जाएं और आंखें बंद कर मन को शांत रखें। कल्पनाओं के सागर में गोता लगाने के लिए एक अलग कमरा तय करें।

2. अब आप अपनी कल्पनाओं के द्वार खोल दें और आप जो कुछ अनुभव कर रहे हैं, उसे जोर-जोर से बोलें। जहां तक हो, किसी व्यक्ति से अपनी बात कहें या अपने सामने एक टेपरिकॉर्डर भी रख सकते हैं।

3. अपनी कल्पनाओं के इस कमरे में जो कुछ भी आप अनुभव करते जा रहे हैं, उसे बोलते जाएं। स्वाद, सुगंध, माहौल से जो कुछ आप ग्रहण कर रहे हैं, उसे बोलें।

4. बिना किसी दबाव के जो कुछ आप अनुभव कर रहे हैं चाहे वो चित्र हो, रंग हो, जोर से बोलें।

5. लगातार रोज यह प्रक्रिया 20 मिनट तक दोहराएं।

6. यह प्रक्रिया कम से कम 3 सप्ताह तक करें।

7. इस अभ्यास से आपका मस्तिष्क आपकी कल्पनाओं के अनुकूल ढलेगा और आपकी बुद्धिमता में इजाफा होगा।

एक्टिव इमेजिनेशन का कमाल

मनोवैज्ञानिक कार्ल जुंग ने 'एक्टिव इमेजिनेशन' पद्धति द्वारा व्यक्तित्व विकास की अवधारणा पेश की। इस पद्धति से व्यक्ति खुद के अवचेतन मन से संपर्क कर सकता है।

1. जुंग खुद से जुड़ने की सलाह देते हैं। अपने अंतर्मन का सम्मान करते हुए बुद्धिमता का महत्त्व आंकना चाहिए। हंसी से भी व्यक्ति का व्यवहार झलकता है। कभी भी खुद को जरू रत से ज्यादा गंभीरता से न लें। अपने अंतर्मन की यात्रा को सहजता से लें। आंखें बंद कर चित्रों की कल्पना करें। यह आपके सपनों का रास्ता हो सकता है। मन के चित्रों को स्पष्ट से अधिकतम स्पष्ट करें। अगर आपका अवचेतन इस चित्र में बदलाव चाहता है, तो उसे होने दें। स्वप्न, कल्पनाएं प्रतिपल बदलती हैं। इसलिए बिना घबराए चित्रों को चलने दें। इसके बाद अवचेतन आपसे बात करता जाएगा।

2. किसी व्यक्ति या वस्तु, जिससे आपको लगता है कि मदद मिल सकती है, उससे वार्तालाप करें। धीरे-धीरे करके जोर से बोलते जाएं। अपने संवाद लिखें। इन्हें अपने दिमाग में साकार करते जाएं। इसके बाद अपने मस्तिष्क को शांत करें और अवचेतन मन के बहाव को दुबारा स्थापित करें।3. कुछ समय बाद अवचेतन मन से भेजी गई सूचनाएं और अधिक साफ हो जाती हैं। इससे कल्पनाओं और वास्तविकता का भेद मिटने लगता है।

-आशीष जैन

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09 September 2008

धुआं धुआं होती नारी

आज जहां पूरी दुनिया तंबाकू से होने वाले नुकसान से चिंतित है। वहीं युवा पीढ़ी खासकर लड़कियां इससे होने वाले खतरों को धता बताकर इसे शौकिया अपना रही हैं। नई रिपोर्ट्स भारतीय शहरी महिलाओं और लड़कियों में धूम्रपान का बढ़ता चलन दर्शा रही हैं। यह संकेत घातक है। देश का स्वास्थ्य इससे बिगड़ सकता है। क्योंकि जब जननी ही धूम्रपान करने लगेगी, तो कैसे आने वाली पीढ़ी सुरक्षित रह पाएगी? विश्व तम्बाकू निषेध दिवस पर पेश है महिला धूम्रपान पर एक रिपोर्ट-

'अमिता, तुम भी किस जमाने की लड़की हो! कॉन्वेन्ट स्कूल में हमारे साथ पढ़ती हो, हॉस्टल में रहती हो और सिगरेट पीने से इस तरह घबराती हो।' नीता यह बात अपनी सहेली अमिता से कह रही थी। नीता और अमिता आज के समय की सच्चाई हैं। भारतीय शहरी महिलाएं और लड़कियां धूम्रपान के मामले में पुरुषों की बराबरी तक लगभग पहुंच गई हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के नए अध्ययन 'फर्स्ट रिपोर्ट ऑन ग्लोबल टोबैको यूज' के मुताबिक आज शहरी भारत में 10 में से एक महिला धूम्रपान करती है या तंबाकू चबाती है। अंतरराष्ट्रीय शोध दर्शाते हैं कि धूम्रपान के कारण महिलाएं उत्पादन जीवन के लगभग आठ साल खो देती हैं। इस विषय पर केन्द्रीय स्वास्थ्य संगठन मंत्रालय के 'राष्ट्रीय तंबाकू नियंत्रण कार्यक्रम' की रिपोर्ट बताती है कि दुनियाभर में तंबाकू का सेवन करने वाली महिलाओं की संख्या बढ़ रही है। अंतरराष्ट्रीय शोध दर्शाते हैं कि धूम्रपान के कारण महिलाएं अपनी प्रॉडक्टिविटी के लगभग आठ साल खो देती हैं। आज देश के नामी स्कूल-कॉलेजों की लड़कियां आसानी से खुल्लमखुल्ला सिगरेट के कश खींचती नजर आ जाती हैं। धूम्रपान करने वाली 62 फीसदी भारतीय महिलाएं धूम्रपान न करने वाली 38 फीसदी की तुलना में अपने 'प्रॉडक्टिविटी इयर' में मर जाएंगी। यह अध्ययन इसी साल फरवरी में 'न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन' में प्रकाशित हुआ है। इस अध्ययन से जुड़े प्रभात झा कहते हैं, 'तंबाकू खासकर महिलाओं को ज्यादा क्षति पहुंचाता है। भारत में सन्‌ 2010 के दशक में 30 से 59 साल के बीच की महिलाओं की कुल मौतों में से 5 फीसदी मौतें अकेले धूम्रपान के कारण होंगी।' धूम्रपान करने से गर्भावस्था के दौरान कई समस्याएं सामने आ सकती हैं। मृत शिशु, प्रीमैच्योर बेबी या फिर गर्भपात भी हो सकता है।

तनाव को बताती हैं वजह
जयपुर की एक मशहूर बीपीओ कंपनी में काम करने वाली 24 वर्षीय अनन्या सिगरेट के बारे में अपने विचार खुलकर पेश करती है। उसके मुताबिक, 'कॉलेज के दिनों में ही मैंने बीपीओ जॉइन कर लिया था। यहां काम का दबाव जबर्दस्त रहता था। रात की शिफ्ट्स में भी लगातार काम करना पड़ता था। जिसके चलते मैंने सिगरेट पीनी शुरू कर दी। अब तो सिगरेट खून में समा गई है और मैं इसे नहीं छोड़ सकती। अनन्या जैसी लड़कियां बदलती अर्थव्यवस्था से पैदा हुए माहौल की एक बानगी भर हैं। आज महानगरों में लड़कियां खूब पैसा कमा रही हैं, ऐसे में इस तरह के शौक उनके लिए आम हो चुके हैं। एनईजेएम 2008 के मुताबिक आश्चर्यजनक रूप से 25 प्रतिशत भारतीय स्त्रियां रोजाना दस से भी ज्यादा सिगरेट फूंक रही हैं। हावर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के एक शोध के अनुसार वैवाहिक जीवन में होने वाली खट-पट से परेशान होकर भी महिलाएं धूम्रपान की ओर मुड़ रही है।

ग्लैमर, दिखावा और इंप्रेशन
जयपुर में एमबीए की 22 वर्षीय छात्रा पायल के मुताबिक सिगरेट तो ग्लैमर का एक प्रतीक है। अगर आपको अपने बॉस या दोस्तों को इंप्रेस करना है, तो सिगरेट के कश तो लेने ही पड़ेंगे। जब हमने उससे सिगरेट शुरू करने की वजह पूछी, तो उसका कहना था, 'शुरुआत में तो मैं सिगरेट से नफरत करती थी। पर मैंने देखा कि जो लड़कियां बॉस और दोस्तों के साथ सिगरेट पी रही हैं, उनका इंप्रेशन अच्छा है, तो मैंने भी सिगरेट पीना शुरू कर दिया। पर अब मैं इस लत को छोड़ना चाहती हूं। मुझे दुख है कि लाख कोशिशों के बाद भी मैं वापस सिगरेट पीने लगती हूं।' आज के दौर में विज्ञापनों और फिल्मों में नायिकाओं को धूम्रपान करते दिखलाया जाता है। ऐसे में पायल जैसी लड़कियां दिग्भ्रमित हो जाती हैं और सिगरेट को स्टेटस सिंबल से जोड़ने लगती हैं। सिगरेट कंपनियां भी अपने लुभावने विज्ञापनों से इस तरह का माहौल पैदा कर देती हैं, मानो सिगरेट के कश में एक जादुई संसार छुपा है। 'बंटी और बबली' फिल्म की विम्मी की तर्ज पर अधिकतर विज्ञापन और फिल्में धूम्रपान को आजाद ख्यालों से जोड़ती हैं। आज भी 26 फीसदी फिल्मों में हीरोइन धूम्रपान करते आसानी से नजर आती है।

क्या राज है इसमें
जयपुर के मालवीय नगर में लगभग 22 वर्षीय सुषमा और 21 वर्षीय निधि बतौर पेइंग गेस्ट रहती हैं। एक बार मुंबई में रहने वाली उनकी मित्र अंजलि उनसे मिलने आई। बातों ही बातों में उनमें शर्त लगी कि सुषमा सिगरेट नहीं पी सकती। सुषमा यह बात सुनकर भड़क उठी। उसने कहा, 'मैं भी पी सकती हूं।' अंजलि ने तुरंत उसके सामने सिगरेट पेश कर दी। सुषमा भी जोश में सिगरेट पीने लगी। धीरे-धीरे यह लत में तब्दील हो गई। अंजलि कहती है, 'मैंने उस वक्त गलती से सिगरेट पी ली थी। पर अब मैं सिगरेट पीना लगभग छोड़ चुकी हूं। मेरी दोस्तों ने मुझे इस बारे में बहुत समझाया। तब जाकर मैंने संकल्प लिया कि अब कभी सिगरेट को हाथ भी नहीं लगाऊंगी। सही बात भी है। अक्सर दोस्तों के उकसाने पर भी लड़कियां इस आदत का शिकार होती हैं। पश्चिमी संस्कृति के अनुरूप खुद को पेश करने की चाह भी इसके पीछे एक खास वजह है। डॉक्टरी शोध बताते हैं कि धूम्रपान करने वाली महिलाओं में कैंसर होने की आशंका 25 गुना ज्यादा होती है। साथ ही इससे महिलाओं की प्रजनन प्रणाली भी गड़बड़ाने की आशंका रहती है। जयपुर के कॉन्वेट स्कूल के पास होकर अभी कॉलेज के प्रथम वर्ष में दाखिला लेने वाली अंतिमा एक बार पिकनिक पर अपनी फ्रैंड्स के साथ गई थी। ग्रुप में एक लड़की को सिगरेट पीने की आदत थी। अंतिमा ने भी जिज्ञासावश सिगरेट पी ली। मस्ती और मजाक से शुरू हुआ यह दौर कब आदत बन गया, खुद उसे नहीं पता। आज भी अंतिमा इस बात से डरती है कि यह बात कहीं उसके माता-पिता को पता न लग जाए।

पता नहीं था
जयपुर में रहने वाली 20 वर्षीय प्रिया के पिताजी का जवाहरात का बिजनेस है। एक बार वह एक अच्छे होटल में डिनर के लिए गई। वहां एक जगह फ्लेवर्ड हुक्का था। दोस्तों और उसने मिलकर इसे एक बार आजमाने के लिए सोचा। उस वक्त को सबको थोड़ा अजीब लगा। पर धीरे-धीरे प्रिया का उस होटल में आना-जाना बढ़ा। हुक्के से आदत सिगरेट में तब्दील हो गई। अपनी इस आदत के बारे में प्रिया कहती है कि कभी-कभार सिगरेट पीने से क्या फर्क पड़ता है। पर शायद वह यह नहीं जानती कि यही निकोटिन एक दिन उसके लिए फेंफड़े के कैंसर का सबब हो सकता है।

आओ कुछ करें
महिलाओं में बढ़ता धूम्रपान रोकने के लिए कुछ खास तरह के उपायों की जरूरत है। वैसे तो सन्‌ 1975 से ही सिगरेट के पैकट पर 'धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है' लिखा आ रहा है। पर यह 6 शब्द शायद उतने असरकारक साबित नहीं हुए हैं। सन्‌ 1998 में कम उम्र के लोगों को तम्बाकू उत्पाद न बेचने की बात भी सही तरह लागू नहीं हुई। परदे पर धूम्रपान की मनाही के प्रस्ताव पर असमंजस की स्थिति है। ऐसे में एक महिला, जो मां-बहन या बेटी की निश्चल भूमिका में थी, उसका इस तरह अपने स्वास्थ्य से खिलवाड़ वाकई चिंताजनक है। ऐसे में जरू रत है नई दिशा में बेहतर तरीके से सोचने और समन्वित प्रयास करने की।
- आशीष जैन

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कम्प्यूटर शायरी

ऐसा भी नहीं है कि आई डॉन्ट लाइक योअर फेस

लेकिन दिल के कम्प्यूटर में, नहीं है इनफ डिस्क स्पेस


तुमसे मिला मैं कल, तो मेरी दिल में हुआ इक साउण्ड

लेकिन आज तुम मिली तो कहती हो, फाइल नॉट फाउण्ड


लोग कहते हैं प्यार में नींद नहीं आती

अरे कोई हमसे भी प्यार कर लो, हमें नींद बहुत आती है


खुदा से स्कूटर मांगा, कार दी अपार्टमेंट मांगा, बंगला दिया

खुदा से दोस्त मांगा, तुम्हें दिया ऐसा जुल्म मुझ पर क्यों किया


मेरे मरने के बाद मेरे दोस्त यूं आंसू ना बहाना

अगर मेरी याद आए तो,सीधे ऊपर चले आना

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08 September 2008

कलम के बूते


कलम के बूते

आइए जानते हैं आजादी के बारे में कुछ खास लोगों की राय।


गुलाम का न दीन है, न धर्म है, गुलाम के रहीम हैं न राम हैं।

- देवराज दिनेश (भारत मां की लोरी)


क्या मैं अपने ही देश में गुलामी करने के लिए जिंदा रहूं? नहीं, ऐसी जिंदगी से मर जाना अच्छा। इससे अच्छी मौत मुमकिन नहीं।

- प्रेमचंद (गुप्तधन)


पिंजरा तो सोने का होने पर भी पिंजरा ही रहेगा।

- रांगेय राघव (कल्पना)


जंगल में रहने वाले पक्षी की अपेक्षा पिंजड़े का पक्षी ही अधिक फड़फड़ाता है।

- शरतचंद्र (बड़ी बहन)


जितने भी बंधन है, वे सब अबलों के ही अर्थ,बंधन बंधन ही है, तोड़ो यदि तुम सबल समर्थ।

- मैथिलीशरण गुप्त (द्वापर)


विचार और कार्य की स्वतंत्रता ही जीवन, उन्नति और कुशल-क्षेम का एकमेव साधन है।

- विवेकानंद


जो स्वतंत्र है, सारी प्रकृति उसकी अभ्यर्थना करती है, संपूर्ण विश्व उसके आगे सिर झुकाता है।

-स्वामी रामतीर्थ


स्वाधीनता सद् गुणों को जगाती है, पराधीनता दुगुर्णों को।

-प्रेमचंद(कायाकल्प)


स्वतंत्रता का मर्म समता है। विषमता में स्वतंत्रता भंग हो जाती है।

डॉ. रामानंद तिवारी


स्वतंत्रता अनुभव करना ही जीवन है। पराभूत सजीव होकर भी मृत है।

- यशपाल (दिव्या)


बेड़ियों में बंद राजा होने से तो आसमान का स्वतंत्र कबूतर होना ज्यादा अच्छा है।

- चंद्रप्रभ (प्याले में तूफान)


आजादी, सुख-समृद्धि, प्रेम, आशा और विश्वास ही भोर है।

- रामदरश मिश्र (जल टूटता हुआ)

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06 September 2008

उम्र 70 की हौसले 17 के


शख्सियत- वैलेंटिना तेरेश्कोवा

उम्र- 70 साल

संघर्ष- बचपन में ही सिर से पिता का साया उठ गया। पढ़ाई के साथ-साथ एक टैक्सटाइल फैक्ट्री में भी काम किया।

उपलब्धि- पहली महिला अंतरिक्ष यात्री होने का गौरव प्राप्त।
'अब मैं मंगल ग्रह पर जाना चाहती हूं। फिर चाहे मेरे लिए यह यात्रा एक ही ओर की क्यों ना हो।' यह सुनीता विलियम्स या किसी नवयुवक की चाह भर नहीं है। यह उम्मीद है 70 साल की वैलेंटिना तेरेश्कोवा की। उम्र चाहे 70 की हो, पर उनके हौसले तो 17 साल के युवा को भी मात करते हैं। कौन हैं वैलेंटिना?
ये कोई आम महिला नहीं, बल्कि अंतरिक्ष में जाने वाली पहली महिला हैं। जहां एक ओर सन्‌ 1963 में रूस की महिला वैलेंटिना तेरेश्कोवा अंतरिक्ष में कदम रख चुकी थीं, वहीं अमरीका सन्‌ 1983 तक किसी महिला को अंतरिक्ष में नहीं भेज पाया। तेरेश्कोवा का यह अभियान बेहद गुप्त रखा गया था। रूस चाहता था कि अमरीका से पहले अंतरिक्ष में महिला भी वही भेजे। रूस के ही यूरी गागरिन ने अंतरिक्ष में सबसे पहले कदम रखा था।
जब तेरेश्कोवा प्रशिक्षण लेने जा रही थी तो उन्होंने अपनी मां से भी यह बात छुपा रखी थी। जब रव्डियो पर यान की उड़ान की घोषणा हुई, तो उनकी मां को पता लगा कि उनकी बेटी तो अंतरिक्ष की सैर पर जा रही है।
6 मार्च, 1937 को यारोस्लाव के निकट एक छोटे से गांव बोल्शोय मास्लेनिकोवो में वैलेंटिना का जन्म हुआ। बचपन में ही इनके सिर से पिता का साया उठ गया। इनके पिताजी रूसी सेना में टैंक लीडर थे, वे द्वितीय विश्व युद्ध में लड़ाई करते हुए मारव् गए। 18 साल की उम्र में पढ़ाई के साथ-साथ वह एक टैक्सटाइल फैक्ट्री में भी काम किया करती थी। 22 साल की उम्र में पैराशूट से पहली छलांग लगाने वाली तेरेश्कोवा ने स्कूल खत्म करने के बाद इंजीनियरिंग की पढ़ाई की। 24 साल की उम्र में उन्होंने अंतरिक्ष यात्री बनने के लिए एप्लाई किया।
तेरेश्कोवा अपने पिता से बेहद प्यार करती थी। जब वे अंतरिक्ष यात्रा से लौटीं तो लोगों ने पूछा, 'ये धरती आपका आभार कैसे प्रकट करे ?' तो जवाब में तेरेश्कोवा बोली, 'बस वो जगह बता दो, जहां मेरे पिताजी लड़ाई में शहीद हुए थे।' उनकी इच्छा पूरी हुई और उस जगह को खोजकर उनके पिता का स्मारक बनाया गया। बकौल तेरेश्कोवा 'सन्‌ 1961 में मेरा चयन हुआ था। उस समय महिला पायलट बहुत कम हुआ करती थी। इसलिए यान उड़ाने का मौका पेराशूट उड़ाने वाली महिलाओं को मिला।' चयन के बाद 15 महीने प्रशिक्षण में गुजरव्। बहुत मुश्किलों और अंतरिक्ष में रहने के कठोर अभ्यास से तेरव्श्कोवा को गुजरना पड़ा। इस अभ्यास में स्पेस क्रॉफ्ट चलाना, झटकों को बर्दाश्त करना, अकेले रहना और भारहीनता के अनुभवों से गुजरना वाकई बुरी तरह थका देने वाली प्रक्रिया थी।
पर तेरेश्कोवा ने कभी हार नहीं मानी और हर चुनौती का डटकर सामना किया। इस सबके बाद आखिरकार वह दिन आया 16 जून 1963, जब वोस्तोक-6 को उड़ान भरनी थी। तेरेश्कोवा की बरसों की साधना पूरी होने वाली थी। वह बहुत उत्तेजक माहौल था। यह दो यानों का संयुक्त मिशन था। 14 जून 1963 को वोस्तोक-5 भी छोड़ा गया था। इस मिशन में दोनों यानों को एक ही समय में कक्षा में रहना था। दोनों यानों से अंतरिक्ष यात्रियों ने आपस में संपर्क भी किया। यान से तेरेश्कोवा ने धरती के 48 चक्कर लगाए और 70 घंटे 50 मिनट तक अंतरिक्ष में रहीं। उन्होंने वहां धरती के कई चित्र लिए जो बाद में वैज्ञानिकों के काफी काम में आए। तेरेश्कोवा कहती हैं,'यह 70 घंटे और 50 मिनट का समय मेरव् जीवन का सबसे रोचक समय था।'
वोस्तोक-6 के वापस लौटने पर यान से बाहर निकलने के बाद तेरेश्कोवा ने 20 हजार फीट की ऊंचाई से पैराशूट के माध्यम से जमीन पर पहुंची। लोगों ने पूछा कि अंतरिक्ष में जाकर कैसा लगा? तो उनका जवाब था 'मैं अपना काम पूरी शिद्दत से कर रही थी और मैं यान की सुरक्षा को लेकर भी चिंतित थी। इसके सबके बावजूद मैं भारहीनता का आनंद ले रही थी।' वापस लौटने पर उसके साथी उसे चिढ़ाया करते थे कि उसे तो आंद्रे निकोलायेव से शादी कर ही लेनी चाहिए। निकोलायेव भी अंतरिक्ष यात्रियों की जमात में एक अकेले ऐसे शख्स थे, जिनकी अभी तक शादी नहीं हुई थी। 3 नवंबर 1963 को तेरेश्कोवा और आंद्रे शादी के बंधन में बंध गए। इनकी बेटी का नाम था ऐलेना। ऐलेना दुनिया की पहली ऐसी महिला हैं जिनके मम्मी-पापा दोनों अंतरिक्ष की सैर करके आ चुके हैं।
तेरेश्कोवा ने ना केवल अंतरिक्ष विज्ञान में नाम कमाया, बल्कि उनमें सामजिक उत्थान की भी भावना थी। वे कई सालों तक सुप्रीम सोवियत की सदस्य रहीं। दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति नेलसन मंडेला ने उन्हें शताब्दी के नेता के पुरस्कार से सम्मानित किया। तेरेश्कोवा को अपने देश से बेहद लगाव है और वे रूस में अंतरिक्ष विज्ञान के प्रोत्साहन के लिए भी काम कर रही हैं।
-आशीष जैन

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गांधी की अब चल रही है आंधी



गांधी आज भी हैं!
कुछ समय पहले कहा जाता था कि गांधी के विचार सिर्फ किताबों तक सिमटकर रह गए हैं। नई पीढ़ी गांधी का सिर्फ नाम याद रखेगी। पर अब यह बात गलत साबित होती दिखाई दे रही है। आज जहां विश्व में हिंसा और आतंकवाद बढ़ रहा है वहां गांधीवाद उसे खत्म करने के लिए एक प्रभावकारी विकल्प के रूप में उभरकर सामने आ रहा है। तकनीक से लेकर मैनेजमेंट तक गांधीजी के विचार उपयोगी साबित हो रहे हैं।


1.रामाल्लाह में फिलीस्तीन प्रधानमंत्री मोहम्मद अब्बास ने रिचर्ड एटेनबरो की फिल्म गांधी में गांधी का किरदार निभाने वाले बेन किंग्स्ले के साथ 'गांधी' फिल्म देखी और फिलिस्तीन व इजरायल के बीच की समस्या को शांति से सुलझाने की बात की।

2. लखनऊ में लोगों ने शराब की दुकानें बंद करवाने के लिए सबको गुलाब भेंट किए और शराबबंदी का आह्वान किया।

3. 7 जनवरी, 2008 को नासिक की केंद्रीय जेल से एक कैदी लक्षण तुकाराम गोले ने महात्मा गांधी की आत्मकथा 'सत्य के प्रयोग' पढ़कर अपने अपराधों को कबूल कर लिया।

4. मिस्त्र के कई राजनीतिक दल मिलकर पूरी तरह अहिंसक 'काफिया' आंदोलन चला रहे हैं।


5. मलेशिया में हिंदू अधिकारों के लिए लड़ रहे संगठन हिंदू राइट्स एक्शन फोर्स 'हिंदराफ' के तत्त्वावधान में आगामी 16 फरवरी, 2008 को कम से कम दस हजार मलेशियाई भारतीय वहां की संसद के बाहर लोगों को लाल व पीले गुलाब भेंट कर अपने शांतिपूर्ण संघर्ष को प्रदर्शित।


गांधी को अब दुनिया आशा की नजर से देख रही है। उनके विचारों से पूरी दुनिया अपनी- अपनी समस्याओं का समाधान खोज रही है। उनके सत्य और अहिंसा के प्रयोग अपनाने में लोगों को रुझान तेजी से बढ़ रहा है। फिर चाहे वह तकनीक हो, लड़ाई हो या तीव्र प्रतिक्रिया। हर जगह गांधी का असर देखा जा रहा है। गांधी आज हमारव् बीच नहीं हैं, पर उनकी बातें और सिद्धात जीवंत हैं। ईमानदारी से अगर यह कहा जाए, तो गांधीजी अभी जिंदा हैं, दुनिया के विचारों, कर्मों और बातों में।


युवाओं ने थामे अहिंसा के झंडे
आज हिंसा से त्रस्त पूरी दुनिया को अहिंसा ही एकमात्र रास्ता नजर आ रहा है। अनेक हिंसाग्रस्त इलाकों में युवा छात्र-छात्राएं अहिंसा का प्रचार-प्रसार करने में जुटे हुए हैं। इसी का उदाहरण हैं 24 साल की अमरीकी छात्रा रशेल कोरी। उन्होंने इजरायल की नीतियों के विरोध में गाजा पहुंचकर 16 मार्च 2003 को इजरायली सेना के समक्ष मानव शृंखला बनाई। वे खुद सेना के बुलडोजर के आगे खड़ी हो गईं। जार्जिया की तलीबसी स्टेट यूनिवर्सिटी के छात्रों ने अहिंसक 'कामरा' आंदोलन चलाकर राष्ट्रपति एडवर्ड शेवरनात्जे को हटा दिया। यह आंदोलन गुलाबी क्रांति के नाम से मशहूर हुआ। सर्बिया के राष्ट्रपति मिलोसेविक को हटाने के लिए यूक्रेन के युवाओं ने अहिंसक 'पोरा' आंदोलन चलाया और अपने मकसद में सफल रहा। मिस्त्र के कई राजनीतिक दल 'काफिया' आंदोलन चला रहे हैं। यह पूरी तरह एक अहिंसक आंदोलन है। यह आंदोलन 25 साल से ज्यादा राष्ट्रपति पद पर आसीन मुहम्मद होस्नी मुबारक को हटाने के लिए चल रहा है।


गांधी को समझो, बनो मैनेजमेंट के गुरु

आज मैनेजमेंट के क्षेत्र के महारथी मान रहे हैं कि प्रबंधन के क्षेत्र में आने वाले युवाओं के लिए गांधी, उनके सिद्धातों और कार्यशैली को जानना जरूरी है। गांधीजी ने अंग्रेजों की गुलामी के दिनों में अपनी और देश की समस्याओं के लिए जिस तरह से प्रबंधन की तकनीक का सहारा लिया, वह कमाल की है। मैनेजमेंट गुरु सी के प्रहलाद कहते हैं कि गांधी ने देश को आजाद कराने के लिए चलाए गए आंदोलन के समय उपजी समस्याओं से लड़ने के लिए नए-नए तरीकों का इस्तेमाल किया। चाहे वह विदेशी कपड़ों की होली जलाना हो, सविनय अवज्ञा आंदोलन हो या फिर सन्‌ 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन। उनका हर काम नए तरीकों से लैस होता था। इनकी मदद से उन्होंने भारत को आजादी दिलाने में कामयाबी हासिल की। आज भारत को दुनिया में सुपरपावर बनाने के लिए भी उन्हीं की तरह नए प्रयोग करने पड़ेंगे, क्योंकि वे तरीके आज भी प्रासंगिक हैं। उन्होंने परंपराओं को तोड़ा। उन्हें पता था कि अंग्रेजों के खिलाफ बल प्रयोग की लड़ाई की बजाय आम लोगों के प्रतिकार की शक्ति को इस्तेमाल करना होगा। उन्होंने कभी संसाधनों के अभाव की शिकायत नहीं की। आज के युवाओं को भी अपने सीमित संसाधनों में ही सफलता को हासिल करना होगा। मैनेजमेंट विशेषज्ञ व्यापार में गांधी के नैतिकता, ईमानदारी और सत्यता के गुणों को अपनाने की सलाह देते हैं। अर्थशास्त्री अरिंदम चौधरी अपनी पुस्तक 'काउंट योअर चिकन्स बिफोर हैच' में विस्तार से बताते हैं कि गांधीजी के नेतृत्व में कुछ खास बात थी। वे इन तरीकों को कॉर्पोरव्ट क्षेत्र में लागू करने के तरीके की भी बात करते हैं। चौधरी कहते हैं कि गांधीजी ने भारत की संस्कृति के अनुरूप ही आंदोलन चलाया। हमें भी प्रॉडक्ट को समय, काल और संस्कृति के अनुरूप ढालकर ही पेश करना होगा। गांधीजी अपने अनुयायियों की बात बहुत ध्यान से सुनते थे। इसलिए हमें भी अपने उपभोक्ता की समस्याओं को करीब से जानना चाहिए। 'स्मार्ट मैनेजर ' की मैनेजिंग एडिटर डॉ. गीता पीरामल कहती हैं, 'गांधीजी की पीआरशिप गजब की थी। कल्पना कीजिए अगर गांधीजी दांडी यात्रा पर अकेले जाते, तो उसका कोई खास असर नहीं होता। उन्होंने दांडी यात्रा के लिए लोगों को अपने साथ जोड़ा।' आज के युवाओं को गांधीजी की जनसंपर्क की इस विधा को अपने जीवन में उतारना चाहिए। सत्याग्रह भारत का सबसे पहला लोकप्रिय ब्रांड था। गांधीजी ने 'यंग इंडिया' और 'हरिजन' में विज्ञापन दिया तथा लोगों से प्रस्तावित आंदोलन का नाम पूछा। उसमें लिखा था- नाम स्वीकार हुआ, तो 'यंग इंडिया' का एक साल का सब्स्क्रिप्शन मुफ्त मिलेगा। एक गुजराती सज्जन ने आंदोलन का 'साद आग्रह' मतलब 'सच्चाई का आग्रह'। छात्रों ने इससे सीखा कि किस तरह नए उत्पाद की ब्रांडिंग की जाए और ब्रांडिंग के लिए जनता का फीडबैक कितना जरूरी है। बोस्टन कनसल्टिंग ग्रुप के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अरू ण मारिया कहते हैं कि व्यापार में हर किसी का सशक्तिकरण महत्त्वपूर्ण है। उत्पाद से लेकर उपभोक्ता तक। गांधीजी ने देश के लिए सेवा के लिए भारत के लोगों को एक नया मंच दिया। हर व्यक्ति के लिए स्वतंत्रता संग्राम में एक भूमिका तय की।

छाया गांधीगिरी का जादू

आज गांधीगिरी मात्र एक शब्द नहीं आंदोलन बन गया है। मुन्नाभाई ने जब 'लगे रहो मुन्नाभाई' में पहली बार इसका इस्तेमाल किया, तो किसी ने सोचा नहीं होगा कि इस शब्द को इतनी शोहरत मिलेगी। आज http://www.gindhigiri.org/ नाम की एक वेबसाइट चल रही है। जहां आप अपनी समस्या, विचार या नया प्रयोग लोगों के साथ बांट सकते हैं। ऑरकुट पर भी गांधीगिरी नाम से एक कम्यूनिटी बनी हुई है। यहां तक कि इंटरनेट पर सबसे मशहूर वेबसाइट वीकीपीडिया पर भी गांधीगिरी के विषय पर पृष्ठ प्रकाशित है।लखनऊ में लोगों ने शराब की दुकानें बंद करवाने के लिए सबको गुलाब भेंट किए। इंदौर में मकर संक्रांति के दिन ट्रेफिक पुलिसकर्मियों ने लोगों को यातायात के नियम सिखाने के लिए उन्हें तिल के लड्डू भेंट किए और 15 यातायात नियमों को न तोड़ने की गुजारिश की। मलेशिया में हिंदू अधिकारों के लिए लड़ रहे संगठन 'हिंदराफ' के तत्त्वावधान में 16 फरवरी, 2008 को कम से कम दस हजार मलेशियाई भारतीय वहां की संसद के बाहर लोगों को लाल व पीले गुलाब भेंट कर अपने शांतिपूर्ण संघर्ष को प्रदर्शित किया। जब आपातकाल के दौर में पाकिस्तान में न्यूज चैनलों पर रोक लगी, तो जियो टीवी के हामिद मीन ने कार्यालय के बाहर ही कार्यक्रम पेश करने लगे। आपातकाल को वापस लेने के लिए भी गांधीगिरी का सहारा लिया गया और सड़कों पर फूल लेकर इसका विरोध करने लगे।अमरीका में भी ग्रीन कार्ड आवेदकों ने अमरीकी इमीग्रेशन एजेंसी को हजारों फूल भेजे ताकि एजेंसी उन नीति पर दुबारा गौर करे, जिससे उनके स्थायी निवास में परेशानी आ सकती है। गांधीजी को विदेशी खेल पसंद नहीं थे। वे कबड्डी जैसे खेलों को बढ़ावा देने के पक्ष में थे। पर आज भारतीय टैस्ट क्रिकेट टीम के कप्तान अनिल कुंबले खुद गांधीगिरी दिखा रहे हैं और ब्रैड हॉग की खुद के लिए और महेन्द्र सिंह धोनी के लिए कहे अपशब्द की आईसीसी को की गई शिकायत वापस ले ली। चाहे पाकिस्तान हो या हिंदुस्तान हर जगह लोग अपनी समस्याओं से निपटने के लिए गांधीगिरी का सहारा ले रहे हैं। टैफिक पुलिस वाले लोगों को गुलाब का फूल देकर नियम पालन का सबक दे रहे हैं। जब पाकिस्तान में जियो टीवी के कार्यालय को सील कर दिया गया, तो टीवी सैट्स को लेकर बाहर बैठ गए।

तकनीक को भाते साबरमती के संत

गांधीजी कुटीर उद्योग को बढ़ावा देना चाहते थे। वे तकनीक पर आश्रित नहीं होने की सलाह दिया करते थे। पर आज तकनीक के पर्याय इंटरनेट पर गांधी की सर्च सबसे द्गयादा होती है। गूगल पर अगर गांधी के लिए सर्च करते हैं ,तो 1.94 करोड़ रिजल्ट मिलते हैं। लोग उनके बारे में ज्यादा से ज्यादा जान रहे हैं। गांधी के नाम, विचार और जीवन पर कई वेबसाइट्स हैं। कुछ लोकप्रिय वेबसाइट हैं- http://www.mkgandhi.org/,
फिल्मों में भी बहार

फिल्मों में गांधी के स्वरूप को देखकर सारी दुनिया जान पाई कि एक व्यक्ति ने किस तरह ब्रिटिश शासन के कभी न डूबने वाले सूरज को अस्त कर दिया। रामाल्लाह में फिलीस्तीन प्रधानमंत्री मोहम्मद अब्बास ने रिचर्ड एटेनबरो की फिल्म गांधी में गांधी का किरदार निभाने वाले बेन किंग्स्ले के साथ 'गांधी' फिल्म देखी। उन्होंने कहा कि इजरायल और फिलिस्तान के बीच शांति से हल खोजा जाए। सन्‌ 1962 में बनी फिल्म नाइन आवर्स टू रामा (जॉन राबसन), गांधी(रिचर्ड एटेनबरो, 1982), मेकिंग ऑफ द महात्मा(श्याम बेनेगल, अंग्रेजी, 1996), हे राम(कमल हासन, 2000), मैंने गांधी को नहीं मारा(जानू बरुआ, 2005), लगे रहो मुन्नाभाई(राजकुमार हिरानी, 2006) गांधी माइ फादर(फिरोज खान, 2007) जैसी हिंदी फिल्में दुनिया के सामने गांधी के सच्चे स्वरूप को सामने लाने का दावा करती हैं। साथ ही 'लुकिंग एट गांधी' के शीर्षक से सात लघु फिल्में भी बनी हैं। ये फिल्में गांधी के जीवन में आम आदमी को झांकने का मौका देती हैं। बॉम्बे सर्वोदय मंडल ने साल 2007 में छह बड़ी जेलों में गांधी पर आधारित फिल्म 'लगे रहो मुन्नाभाई' का भी प्रदर्शन किया गया। इससे कैदियों के जीवन में सुधार की उम्मीद की जा रही है।

विचारों में समाए
जहां रोम्या रोलां जैसे लेखक और आइंस्टीन जैसे वैज्ञानिक गांधी पर लिख चुके हैं। अमरीका के इलिनाय के गवर्नर जार्ज रेयान गांधीजी को याद करते हैं। उनके संदेश को दुनिया में फैलाना चाहते हैं। उन्होंने राज्य की जेलों में बंद 167 लोगों की फांसी की सजा माफ कर दी। वहीं विश्व के प्रमुख नोबेल शांति पुरस्कार विजेता भी उन्हें अपना प्रेरणा स्त्रोत मानते रहे हैं। अमरीका के मार्टिन लूथर किंग गांधी के दर्शन से बहुत प्रभावित थे। तिब्बत के दलाई लामा गांधीजी को अपना सच्चा शिक्षक मानते हैं। म्यांमार की आंग सान सू की ने म्यांमार में सैनिक शासन का अहिंसक विरोध करके खुद को अप्रत्यक्ष रूप से गांधीजी की बेटी साबित कर दिया है। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद नीति के खिलाफ संघर्ष करने वाले नेल्सन मंडेला भी गांधीजी के आचार-विचार से प्रभावित हैं। मार्टिन लूथर किंग जूनियर से लेकर नेल्सन मंडेला को नोबेल शांति पुरस्कार मिल चुका है। अब ये दुनियाभर में गांधीजी के विचारों को मूर्तरूप देने का काम कर रहे हैं।


साहित्य भी है साधन

गांधी की लिखित पुस्तकों की संख्या कुल मिलाकर चालीस के आसपास है। उनकी प्रमुख किताबों में 'सत्य के प्रयोग', 'अनासक्ति योग', 'मेरे सपनों का भारत', 'पंच रत्न', 'नई तालीम की ओर' और 'आरोग्य की कुंजी' हैं। ये सारी किताबें गुजराती भाषा से हिंदी में अनुवादित हो चुकी हैं। आज भारत का युवा गांधी के विचारों को जानना चाह रहा है। दुनियाभर में उनकी पुस्तकें और विचार धूम मचा रहे हैं। शिकागो विश्वविद्यालय में स्थित पुस्तकालय में छात्र अखबार 'यंग इंडिया' की माइक्रो फिल्म पढ़ रहे हैं। 7 जनवरी 2008 को नासिक की केंद्रीय जेल से एक कैदी लक्ष्मण तुकाराम गोले ने महात्मा गांधी की आत्मकथा 'सत्य के प्रयोग' पढ़कर अपने अपराधों को कबूल कर लिया। बॉम्बे सर्वोदय मंडल ने उसे 'सत्य के प्रयोग' पढ़ने के लिए दी थी। बॉम्बे सर्वोदय मंडल की न्यासी टी आर के सौम्या कहती हैं, 'देशभर की जेलों में अब कैदी गांधीजी की जीवनी की मांग कर रहे हैं।' बॉम्बे सर्वोदय मंडल महाराष्ट्र राज्य में पिछले पांच सालों से जेल में रहने वाले कैदियों के लिए 'गांधी शांति परीक्षा' का आयोजन कर रही है, ताकि कैदियों में भी गांधी और उनके काम के बारे में जागरुकता आ सके।

काम गांधी ने किया जो, काम आंधी न कर सकती - सियाराम शरण गुप्त


'सवेरे के प्रहर में सूर्य नारायण अपना उद्धार करता है, योगारू ढ़ होकर आता है और संध्या के समय शांत होता है। सूर्य सचमुच शांत होता है?मैं मरूंगा, तब भी शांत थोड़े ही होने वाला हूं।' - 'गांधीः जैसा देखा-समझा' से


-आशीष जैन

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04 September 2008

हर रिश्ते को संजोया है मैंने



अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर हमने एक मध्यवर्गीय महिला की डायरी के कुछ पन्ने पलटे। डायरी के इन पन्नों से उसकी पूरी जिंदगी हमसे बात कर रही थी। एक पन्ने पर निगाह पड़ी, तो पता लगा कैसे गुजरते हैं एकढ महिला के रोज के 24 घंटे। आइए जानते हैं-
दिनांक 22-08-2008 समय 11.30 P.M.
रात की खामोशी पसरी हुई है। मैं अपने कमरे में अकेली बैठी हूं। दिन भर की भागदौड़ के बाद खुद को अकेली महसूस कर रही हूं। ना जाने क्यों मुझे लगता है कि जिंदगी हर रोज एक बंधे-बंधाए रास्ते पर दौड़ती जा रही है। पर मैं यह क्यों भूल रही हूं कि इसी के सहारे मेरा परिवार, मेरे रिश्ते हर रोज एक नई जिंदगी पाते हैं। मेरी खुशियां, मेरे सपने, मेरी आस्था, विश्वास, उमंग सब इसी घर, इन्हीं रिश्तों के चौतरफा तो सिमटे हुए हैं। मेरा विश्वास, मेरी ताकत और मेरे अरमानों से ही तो मेरा घर महका करता है।
हर रोज की तरह आज भी सुबह 5.30 पर बिस्तर छोड़ दिया था मैंने। मुन्ना और 'वो` तो सात बजे तक उठेंगे, तब तक क्यों ना, कपड़े ही धोलूं`, यही सोचकर फटाफट कपड़े भिगो दिए। पानी में जब अपनी सूरत देखी, तो खुद से सवाल किया, 'अरे रूपा! तू कितनी बदल गई है?` अपने परिवार के सुख-दुख में खुद को ही भुला दिया।` मैं सोच ही रही थी कि इतने में पड़ोस की रीना ने आवाज दी, 'रूपा! नल आ गए हैं, पानी भर ले। जल्दी कर, वरना नल चले जाएंगे।` पानी के बर्तन लेकर बाहर तक पहुंची, तो याद आया कि मुन्ना स्कूल जाएगा, उसके लिए हलवाई से दूध भी लाना है। पानी घर तक पहुंचाकर फटाफट हलवाई की दुकान तक गई। आधा किलो दूध लिया और घर पहुंचकर भगोनी में गर्म होने के लिए चढ़ा दिया।
इस बीच मुन्ना को जगाया। वो उठने में आनाकानी कर रहा था, मैंने उसे प्यार से समझाया, तो वो मान गया। मैं भी तो अम्मा और बाऊजी को कितना परेशान करती थी। मैंने मुन्ना को नहलाया-धुलाया और दूध पिलाकर चौराहे तक स्कूल-बस तक छोड़ने गई। पति महोदय अभी तक नहीं उठे। साढ़े सात बज गए थे। उन्हें जगाकर मैं खुद नहाने के लिए चल दी। नहाते ही मुझे पूरे घर के लिए नाश्ता तैयार करना था। पिछली शाम को देवरजी कह रहे थे किढ छोले-भटूरे खाऊंगा। इसीलिए रात को ही छोले भिगो दिए थे। अच्छा हुआ, वरना नाराज होते। जेठजी को भी तो छोले की सब्जी अच्छी लगती है। जब तक भाभीजी जीवित थी, वही ख्याल रखती थी। अब तो मुझे ही उनका देखभाल करनी होगी।
मम्मीजी गठिया की मरीज हैं। डॉक्टर ने उनके खान-पान का खास ख्याल करने को कहा था, इसलिए उन्हें खिचड़ी भी बनानी थी। नाश्ता तैयार कर ही रही थी कि पापाजी के कुछ मित्र आ गए। मैंने सोचा आए हैं, तो चाय तो पीकर ही जाएंगे। इसलिए दूसरी गैस पर चाय के लिए पानी चढ़ा दिया। इस सबके बीच मैं भूल गई थी कि पड़ोस में राधा भाभी की लड़की की सगाई है। उसमें भी शामिल होना है। मैंने घड़ी की तरफ देखा। आठ बजने वाले थे। ऐसा लगा कि घड़ी की सुइयों और मेरा कोई मुकाबला चल रहा है। नाश्ते की टेबल पर सभी इकट्ठे हो चुके थे। सबको अपने-अपने काम करने थे नाश्ते के बाद। पर मेरे लिए तो उनके कामों में ही खुशी छुपी हुई थी।
नाश्ते का दौर चला, तो एक घंटे तक रसोई संभालनी ही पड़ी। आज शायद सब्जी में मिर्ची ज्यादा थी, इसीलिए ननद उमा खाना बीच में छोड़ कॉलेज के लिए चल दी। मुझे बुरा तो बहुत लगा, पर हो सकता है, मुझसे ही कोई गलती हो गई शायद। जल्दबाजी में मिर्च जरूरत से ज्यादा डल ही गई। सवा नौ बजे तक किचन का काम निपटाया और कमरे में जाकर पति के ऑफिस की ड्रेस पर प्रेस करने लगी। सवा नौ बजे तक उनका टिफिन भी लगाया। मुझे अक्सर दुख होता है कि पति घर का खाना ले जाने की बजाय ऑफिस में ही खाना खाते हैं। इसीलिए उनका पेट खराब रहता है। मेरी तो सुनते ही नहीं। क्या करूं, आखिर पति परमेश्वर जो ठहरे। अच्छे-बुरे की समझ तो है ही। पर मैं क्या करूं ? मुझे तो टेंशन हो जाती है। पति को स्कूटर की चाबी, रूमाल और उनका पर्स लाकर दिया। वे ऑफिस के लिए निकलने वाले हैं। घड़ी पौने दस बजा रही थी।
पति को दरवाजे तक छोड़ने के बाद सोचती हूं, अब झाडू-पौंछे का काम निपटा लूं। इस काम में रोज एक घंटा लग जाता है। घर को साफ रखने की जिम्मेदारी भी तो आखिर गृहिणी की ही होती है। पवित्र घर में ही लक्ष्मी और सरस्वती का वास होता है। मैं घर के दरवाजे पर जाती हूं, तो देखती हूं कि कुछ महिलाएं राधा भाभी के घर जा रही थीं। मैं भी फटाफट तैयार हुई। सवा ग्यारह बजे तक राधा भाभी के घर पहुंची। सगाई का कार्यक्रम खत्म हो रहा था। चलो, मैं कार्यक्रम में शामिल तो हो गई। एक घंटे देर पहुंचूंगी, तो ऐसा ही होगा। मैं सोच रही थी कि सामाजिक सरोकार भी तो महिलाओं को ही निभाने पड़ते हैं।
वहां मुझे अपने दूर के रिश्ते की एक बुआजी मिली। उन्होंने पूछा, 'अरे! रूपा दो साल पहले तेरी शादी हुई थी। दो साल में ही इतना बदल गई है। पहले तू कितना बोलती थी, हंसती थी। आज तो बिल्कुल धीर-गंभीर हो गई है और तुझे ये जल्दबाजी किस बात की है?` बुआजी की बात का मैं कुछ जवाब नहीं दे पाई।
मैं घर आकर सोचने लगी कि क्या वाकई मैं बदल गई हूं? क्या मैं जिंदगी का मतलब भूल गई हूं? दूसरे ही पल सोचा, 'अरे नहीं। मैं तो और अधिक निखर गई हूं, संवर गई हूं। मेरे पति, सास, देवर, जेठ, ननद सभी तो मेरी तारीफ करते हैं। ये सब रिश्ते ही तो मेरी असल ताकत हैं। मुझे औरों से क्या, मेरे अपनों के लिए तो मैं खुशी की वजह हूं। सोचते-सोचते निगाह घड़ी की तरफ गई। मैंने देखा, 'अरे सवा बारह बज रहे हैं। दो बजे तक मुन्ना स्कूल से आएगा। उसके लिए कुछ फल वगैरह बाजार से ले आती हूं। सब्जी भी तो खत्म होने गई है। इसी बहाने राशन भी ले आऊंगी।` मैंने अपना पर्स खोला। उसमें 200 रुपए ही थे। मैंने सोचा, 'मैंने सुबह ही पति से पैसे क्यों नहीं मांगे?` काम के चक्कर में सब भूल जाती हूं। चलो इतने पैसों से ही काम चलाऊंगी। घर से निकलकर रिक्शा पकड़ा और बाजार पहुंची। दाल, चीनी, बेसन तो खरीद लिया। अब क्या रहा? हां! हल्दी भी ले चलती हूं। पिताजी को रोज दूध में दो चम्मच मिलाकर देती हूं। जल्दी ही खत्म हो जाएगी, अच्छा है याद आ गया।
मैं सोच रही थी, 'महिला को कब आर्थिक स्वतंत्रता मिलेगी। इतने खर्चों के बीच इतने से पैसे, कैसे गुजर होगा?` काश मैं भी छोटा-मोटा काम करती और पैसे कमा पाती? सोचते-सोचते मैं सब्जी मण्डी पहुंची। वहां से कुछ फल खरीदकर घर कढी तरफ चल दी। रास्ते में एक मेडिकल की दुकान दिखाई दी। उसे देखकर मुझे मम्मीजी की गठिया की दवा की याद आ गई। बचे पैसों से दवा खरीद ली। सब्जी के थैले से कमर में दर्द हो रहा था। मैंने सोचा घर जाकर कमर दर्द का बाम लगा लूंगी।
इतने में मुझे चेत हुआ, 'दो बज गए हैं, मुन्ना घर आ गया होगा। मुझे याद कर रहा होगा।` मैं तेज कदमों से घर पहुंची। मुन्ना भूख से रो रहा था। मैंने उसके कपड़े बदले। उसके लिए गर्म खाना बनाया और खाना खिलाकर सुला दिया। मैंने सोचा, 'साढ़े तीन बजे तक साड़ी में फॉल लगा लेती हूं, फिर सबके लिए दोपहर की चाय बना दूंगी।` नई फॉल निकालकर मैं साड़ी में फॉल लगाने लगी।
इतने में याद आया कि पति से कह दूं कि ऑफिस से लौटते वक्त वो प्लंबर को अपने साथ ले आएं। नल बहुत दिनों से टपक रहा था। मैंने पति को फोन करके प्लंबर साथ लाने की बात बता दी। मैं सोच रही थी कि हर काम मुझे ही याद रखना होता है। चाय बनाते-बनाते गैस की लौ कम होने लगी थी। मुझे लगा सिलेण्डर अभी बुक करा देना चाहिए। गैस की भी तो कितनी किल्लत चल रही है। मैंने तुरंत गैस एजेंसी को फोन किया और गैस बुक करवाई। इसके बाद मम्मीजी और पापाजी को चाय पिलाई और मुन्ना को जगाकर कुढछ फल खाने को दे दिया। 5 बजे मैंने मुन्ना से कहा, 'अपना होमवर्क निकोलो, मैं करवा देती हूं। मुन्ना ने कहा, 'मैं खेलने जाऊंगा। मैंने कहा, 'नहीं, पहले अपना होमवर्क करो, फिर खेलने जाना।` मैं मुन्ना को होमवर्क कराने लगी। उसका होमवर्क कराते-कराते मैं अपने बचपन में खो गई। बचपन में रंगों भरी दुनिया कितनी प्यारी होती है। कोई चिंता नहीं। सब तरफ मस्ती... बस। मैंने खिड़की से बाहर झांका... सूरज अस्ताचल को जा रहा था। मैंने पूजा की थाली तैयार की और पास के मंदिर में पूजा के लिए पहुंच गई। पड़ोस की उमा, माधुरी, वर्षा और रमा आंटी भी थी। उनसे घर-गृहस्थी को बात कर ही रही थी कि याद आया पतिदेव घर आ चुके होंगे। वे प्लंबर को भी साथ लाने वाले थे।
मैं तुरंत घर पहुंची। पति आ चुके थे। वे प्लंबर को अपने साथ ले आए थे। उन्होंने कहा, 'कहां चली गई थी तुम? मुझे नहीं पता कि कौनसा नल टपक रहा है?` मैं ऊपर की मंजिल पर प्लंबर को ले गई और प्लंबर से नल सुधरवाया। प्लंबर को विदा करने के बाद पति के लिए चाय बनाई। पति का मूड आज शायद कुछ उखड़ा हुआ था। मैंने उनसे पूछा तो वे टाल गए। शायद ऑफिस में बॉस से किसी बात पर खटपट हो गई हो। इस सबके बीच मेरी कमर का दर्द बढ़ता जा रहा था। बाम लगाने की फुर्सत ही नहीं मिल पाई।
साढ़े आठ बजते ही सब लोग टीवी देखने बैठ गए। मैं किचन में ही थी। रात के खाने का इंतजाम करने लगी। मैं सोच रही थी कि मेरा संसार कितना... छोटा होते हुए भी वाकई बहुत विशाल है। इतने में मेरी ननद आई और कहने लगी, भाभी! जल्दी से फर्स्ट एड बॉक्स लाओ। स्कूटी चलाते हुए मैं गिर पड़ी और मेरी अंगुली कट गई है। खून निकल रहा है।` मैं दौड़कर कमरे में पहुंची और फर्स्ट एड बॉक्स से पट्टी निकालकर लाई। मैंने ननद की अंगुली पर पट्टी बांधी। मैंने कहा, संभलकर गाड़ी चलाया करो, अगर ज्यादा चोट लग जाती तो। वो रोने लगी। मैंने उसे चुप कराया। मै सोचने लगी, 'मैंने उसे यूं ही डांटा। मैं सोच रही थी नारी आज समाज में अपनी जगह बना रही है, नित नई ऊंचाईयों को छू रही है। अगर छोटी-छोटी मुश्किलें आती हैं तो उन्हें संभालने में वह खुद सक्षम है।
सवा नौ बजे मैं दुबारा किचन में गई और खाना बनाने लगी। खाने की मेज से आवाज आने लगी 'अरे रूपा! भूख लग रही है, जल्दी खाना लाओ।` मैं तुरंत खाना तैयार करने में जुट गई। सबने खाना खाया और खाने की खूब तारीफ की। मैं बहुत खुश हुई। इसके बाद मैं कमरे में गई और सोने के लिए बिस्तर लगा आई। पतिदेव और मुन्ना आराम करने लगे। मुझे लगा, 'चलो आज का सब काम निपट गया।` इतने में मुझे ध्यान आया, 'बर्तन साफ करना तो मैं भूल ही गई।` मैं वापिस किचन में गई और बर्तन साफ करने लगी।
सब काम निपटाकर मैं कमरे में आई। पतिदेव और मुन्ना सो चुके थे। लाइट अभी जल रही थी। मुझे खुशी थी कि परिवार के लिए एक दिन और गुजारा। खट्टे-मीठे पलों को जिया। पूरे परिवार को खुशियां बांटी। जिंदगी के सब ख्वाब पूरे लग रहे थे। मैंने डायरी निकाली और लिखना शुरू कर दिया। सब काम पूरे हो चुके थे... बस एक चीज अधूरी थी.... मेरा कमर दर्द।

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03 September 2008

हमें नहीं जाना स्कूल...पर नोबल पाना है


माना कि स्कूल जाना जरूरी है। लेकिन घर पर मिली शिक्षा स्कूली शिक्षा से कहीं ज्यादा अहम है। यहां पेश हैं कुछ ऐसी नोबल पुरस्कार प्राप्त हस्तियां, जिन्हें स्कूल जाना अच्छा नहीं लगता था।
जैसा कि कहा गया है- प्रथम शिक्षक मां होती है। वैसे ही घर बच्चे के लिए पहला स्कूल है। यहां जितना सीखोगे, उतने ही नोबल बन जाओगे।


नाम - रवींद्र नाथ टैगोर
उपलब्धि- 1913 में साहित्य का नोबल पुरस्कार

स्कूल के बारे में राय- मेरा विचार में यह रहस्यमयी संसार जिसका सृजन खुद ईश्वर ने किया है, उससे दूर ले जाने की जगह है स्कूल। यह एक ऐसी अनुशासन विधि है, जिसमें एक विद्यार्थी की नैसर्गिक प्रतिभा या मौलिक योग्यता का कोई स्थान नहीं है। स्कूल की जिंदगी तब अच्छी होती है, जब खुद को निष्क्रिय या अजीवित मान लें। शायद यह मेरा लिए अच्छा ही था, कि मुझे किसी सभ्य परिवार में रहने वाले लड़के की तरह स्कूल या कॉलेज की शिक्षा नहीं मिली। शायद मेरे विरोध ने ही मुझे साहित्य में कुछ नया रचने के लिए प्रेरित किया।
(1921 में अमरीका में और 1924 में चीन में दिए गए भाषणों के आधार पर)

नाम- अल्बर्ट आइंस्टीन

उपलब्धि- भौतिकशास्त्र में 1921 में नोबल पुरस्कार
स्कूल के बारे में राय- मुझे हमेशा स्कूली अनुशासन से चिढ़ थी। ज्यादातर समय मैं भौतिकशास्त्र की प्रयोगशाला में काम करता रहता, इससे मुझे किताबी बोरियत से छुट्टी मिलती और सीधे प्रयोग करके कुछ पाने का सुखद एहसास होता। इसके बाद बचे बक्त में मैं पढ़ाई और दूसरे कामकाज करता था। परीक्षाओं का हौव्वा भी मेरे दिमाग पर गहरा असर डालता था। इनसे मुक्त होते ही मैं बेहद हल्का महसूस करता।
(आत्मकथा 'आटोबायोग्राफिकल नोट्स' से)


नाम- जार्ज बनार्ड शा
उपलब्धि- 1925 में साहित्य का नोबल पुरस्कार

स्कूल के बारे में राय- दुनिया में मासूम बच्चों के लिए सबसे डरावनी जगह अगर कोई है, तो वह स्कूल है। इसकी शुरुआत बंद कमरे से होती है। यहां उन लोगों की पुस्तकों को भी पढ़ना पड़ता है, जो लिखना नहीं जानते। ऐसी पुस्तकें जिनसे कुछ सीखना एक मुशिकल बात होती है।
(किताब 'ए ट्रीटीज ऑन पैरेट्स एंड चिल्ड्रन' से)


नाम- बरट्रेंड रसेल
उपलब्धि- 1950 में साहित्य का नोबल पुरस्कार

स्कूल के बारे में राय- स्कूल से ज्यादा घर में दी जाने वाली शिक्षा कारगर है। शिक्षण अधिकारी दिखावा जरूर करते हैं, मगर अपवादस्वरूप ही उनमें विद्यार्थियों के लिए उत्तरदायित्व की चिंता होती है। घर में संस्कारों के साथ संबंधों की शिक्षा मिलता है। यह समाज स्कूल के कृत्रिम वातावरण से ज्यादा जरूरी है।
(किताब 'एजुकेशन एंड सोशल ऑर्डर' से)


नाम- विंस्टन चर्चिल
उपलब्धि- 1953 में साहित्य का नोबल पुरस्कार

स्कूल के बारे में राय- जब मैं सात साल का हो गया, तो मुझे आफत की पुडिया समझकर घर से दूर शिक्षा के लिए भेज दिया गया। स्कूल के दिन मेरव् लिए खासे बोझिल और चिंता के विषय रहे। मैं यहां खेल में तो पीछे था ही, जो पाठ मुझे पढ़ाया जाता, उसमें भी बुरा हाल था। ये बड़े उदासी वाले दिन थे। स्कूल के हटकर कोई भी काम करना गुनाह था। मगर मैं भी पक्का था, जहां मेरी दिलचस्पी नहीं थी, वहां पढ़ना-सीखना मेरे बस का नहीं था।
(किताब 'माई अर्ली लाइफ' से)


नाम- सुब्रमण्यन चंद्रशेखर
उपलब्धि- 1983 में भौतिकशास्त्र का नोबल पुरस्कार
स्कूल के बारे में राय-
मुझे प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही मिली। मां ने तमिल और पिता ने अंग्रेजी और अंकगणित की शिक्षा दी थी। अधिकतर बच्चों को उस समय घर पर ही शिक्षा दी जाती, ताकि बच्चा अच्छी तरह ज्ञान पा सके। मेरे पिता दफ्तर जाने से पहले मुझे घर पर ही पढ़ाकर जाते थे।
(सी वी रमन की आत्मकथा से)


नाम- आंद्रई सखारोव
उपलब्धि- 1975 में शांति का नोबल पुरस्कार
स्कूल के बारे में राय-
मेरे अनुसार स्कूल जाना 'वेस्ट ऑफ टाइम' यानी समय की बर्बादी है। स्टालिन के दौर में मेरी पढ़ाई-लिखाई घर पर ही हुई।
(एक प्रश्न के जवाब में)


-आशीष जैन

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