12 June 2009

यार टाइम नहीं है

भई हम तो परेशान हो गए हैं, ये रोज-रोज एक ही बात सुनते-कहते। कभी-कभी तो लगता है कि यह सत्य वाक्य तो वेद वाक्य से भी ज्यादा शाश्वत है। कभी आपने गौर किया कि आप रोजमर्रा की जिंदगी में कितनी बार कहते हैं- अरे, यार टाइम ही नहीं है। मैं पक्के से दावा कर सकता है कि इस अखिल ब्रह्मांड में ऐसा कोई प्राणी नहीं है, जिसने इस मंत्र का उच्चारण नहीं किया हो। आज सुबह तो हद ही हो गई है। हम अपनी घड़ी साथ लाना भूल गए और जब बस से उतरते सज्जन से पूछा कि टाइम कितना हुआ, तो वे महाशय बोले- अभी टाइम नहीं है, मैं नहीं बता सकता। तो जनाब देखा आपने टाइम बताने के लिए भी टाइम नहीं है। आपको लग रहा होगा कि मैं तो मजाक कह रहा हूं।

ऐसा भी भला कहीं होता है। साथ में आप मुझे यह तर्क भी देगो कि लाले दी जान, ये इंडिया है। यहां सब के पास टाइम ही टाइम है। इतनी बेरोजगारी है, काम है नहीं। तो फिर लोगों के पास टाइम ही टाइम पड़ा है। जितना चाहो, थोक के भाव ले लो। गली-नुक्कड़ पर कई प्यारेलाल मिल जाएंगे, जिनके पास इस संपदा का भंडार है। पर मैं आपसे शर्त लगा सकता हूं कि मैं सही हूं। चाहे बूढ़ा हो या जवान, गोरा हो काला, उत्तर भारतीय हो या दक्षिण भारतीय, सब के पास इस अनमोल धन की कमी है। दूर से देखने से ही लगता है कि लोगों के पास टाइम है। पर अगर पास जाकर उनसे तनिक-सा टाइम मांग लिया, तो फिर देखिए, कैसे बरसते हैं आप पर। आपको उनकी तोहमत सुन-सुनकर यकीन हो जाएगा कि आपने दुनिया का सबसे बड़ा पाप कर दिया है।
हमें तो पहले के दिन याद करके खुद पर ही दया-सी आने लगती है। जाने कहां गए वो दिन। जब मैं गांव में रहा करते थे और सुबह-सुबह नीम की अच्छी दातुन की खोज में सैर करते-करते कहां से कहां चले जाया करते थे। दूर खेत में जाकर ही निपट भी लिया करते थे। सब काम तसल्ली से। और एक हमारा बेटा है। जो एक तो सुबह तो नौ बजे उठेगा। और उठते ही अखबार उठाकर भागेगा, लैट-बाथ की तरफ। हमने एक दिन पूछा कि ये अखबार साथ में क्यों ले जाते हो लल्लू। तो बोला- पापा, एक साथ दो काम करता हूं। निपटने के साथ-साथ अखबार भी चाट डालता है। उसकी बात सुनकर हमें तो बड़ी घिन्न-सी आई। उससे पूछो- लेट क्यों उठा, तो कहेगा, रात को इतना काम जो किया था। अरे क्या पहले के लोग काम नहीं करते थे क्या। काम भी ज्यादा करते थे और खुद के हाथों से करते थे। अब तो ससुरे कई तरीके ईजाद हो गए हैं। कपड़े धोने की वाशिंग मशीन आ गई है, रोटी बेलने की मशीन आ गई है। फिर भी टाइम नहीं है। ये अचरज नहीं है, तो और क्या है। अब ये कमबख्त मोबाइल फोन भी खूब करामात दिखा रहे हैं। खाते-पीते, नहाते-धोते, चलते-फिरते, उठते-बैठते और भी ना जाने कितने 'ते-तेÓ में ये मोबाइल घुस गया है। सारे काम मोबाइल पर पूरे हो रहे हैं। फिर भी पता नहीं कहां पहुंचने की जल्दी है। हमें तो लगता है कि टाइम नहीं करते-करते ही एक दिन पूरी दुनिया अपना टाइम पूरा कर लेगी। फिर लोग कहेंगे- अरे, यार टाइम तो था, पर अब हाथ से निकल गया। अब क्या करें। घर में कोई हमारी सुनता ही नहीं है। सब बस भागे जा रहे हैं। घर आते हैं, तो फिर वही रट- अभी टाइम नहीं है। और कभी पूछे कि किस काम में बिजी हो, तो कहेंगे कि काम ही तो कर रहा हूं।
'टाइम इज मनीÓ का फार्मूला इजाद करने वाला मुझे मिल जाए, तो उसके दो चपत लगाए बिना नहीं रहूंगा। उससे पूछेंगे कि क्यों लोगों को भरमाते हो। हम हिंदुस्तानियों के लिए तो टाइम और मनी दोनों से ज्यादा अहमियत तो रिश्ते रखते हैं। अगर बूढ़े बाप के पास बैठने के लिए दो पल नहीं बचे, तो ऐसे टाइम और मनी क्या करोगे? बच्चों की किलकारी सुने बिना मां अगर 'टाइम नहीं हैÓ चिल्लाती हुआ ऑफिस निकल जाएगी, तो क्या जिंदगी में कोई रस रह पाएगा। बचपन में दद्दा कहते थे कि दुनिया में आपसी प्यार से बड़ी अहमियत किसी चीज की नहीं हो सकती। किसी का टाइम कभी खराब होता है, तो कभी सही। पर अगर सबसे बनाकर चलोगे, तो बुरे टाइम को अच्छा बना लोगे। पर अब हमें लगता है कि इस दुनिया में टाइम से महंगी कोई चीज हो ही नहीं सकती। और मजेदार बात देखिए, ये महंगी चीज जिस के पास भरपूर मात्रा में होगी, वही सबसे निट्ठला कहलाएगा। सब कहेंगे- हमारे पास तो टाइम नहीं है। उसके पास खूब है, उसी के करा लो काम। सारा दिन टाइम पास ही तो करता है। तो जनाब, टाइम की सच्चाई हमें आज तक समझ में नहीं आई। एक तरफ टाइम ना होने का रोना रोते हो और दूसरी तरफ टाइम होने पर टाइमपास का ठप्पा लगाते हो। हम जैसे बेचारे क्या करें। लगता है कि हमारा ही टाइम खराब है, जो टाइम की थ्योरी हमारे समझ में नहीं आती। हम तो पूरी दुनिया से कहते हैं कि टाइम हम इंसानों ने ही बनाया है, तो फिर इसे अपने सिर पर सवार मत होने दो। अपने टाइम के मालिक खुद बनो। ऐसे काम मत करो कि खुद ही टाइम के गुलाम बनकर रह जाओ और बाद में पछताओ।
-आशीष जैन

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परिसाईजी का पुनर्जन्म

मेरा मुल्क बड़ा महान है और उसमें भी मेरा शहर जयपुर शहरों में जानदार शहर है। आप हमें अपने मुंह मियां मिट्ठू मत समझना, पर अब बात चली है, तो बता ही दें कि हमारा मोहल्ला और उसमें भी हमारी गली का तो कहना ही क्या। एक से एक फनकार बसे हैं, हमारी पतली-सी गली में। यूं ही मत समझना इस गली को। इस गली में तो एक बार चचा गालिब भी आए थे। आप कहेंगे, गालिब और जयपुर! मैं मजाक नहीं कर रहा जनाब। हुआ यूं कि एक बार चचा के पायजामे का नाड़ा एक चोर चुराकर भाग लिया और भागते-भागते हमारी गली में छुप गया। चचा भी उसे खोजते-खोजते यहीं तक आ पहुंचे थे। कुछ-कुछ ऐसे ही वाकये हरिशंकर परसाई, हरिवंशराय बच्चन और रामधारी सिंह दिनकर के साथ हुए थे। अरे! ये हम नहीं कहते, हमारी गली के बड़े-बुजुर्ग कहते हैं।

तो जब शुरू से इतने बड़े-बड़े लेखक हमारी गली में आ चुके थे, तो उनके गुण भी हमारी गली में आने ही थे। कसम से एक से बढ़कर एक लेखक पैदा होते गए। वो तो जमाने की नजर ही नहीं पड़ी, वरना एक से एक नायाब हीरे थे हमारे यहां, हीरे भी क्या थे, कोहिनूर थे, कोहिनूर। अब हम उसी परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। लेखक बन गए हैं। लेखक भी ऐसे-वैसे नहीं, व्यंग्य लिखते हैं। क्या करें, जब भी किसी से दिल की बात बयान करने जाते हैं, पिट कर आते हैं। ये दुनिया के लोग कभी अपनी बुराई सुन ही नहीं सकते, तो हमने तो ठान ही लिया कि व्यंग्य लिखेंगे। इस बहाने दिल की भड़ास निकालते रहेंगे। आज इतनी प्रॉब्लम हैं। आपको तो पता ही है, नल में पानी गायब है, घर में बिजली नदारद है और महंगाई सिर पर बैले डांस करती है, तो ये सारी बातें भी तो किसी से कहनी ही पड़ेंगी ना। अब अपनी बीवी से कहें, तो कहती है कि जब भी बोलते हो, बुरा ही बोलते हो। दोस्त लोगों को अपनी जिंदगानी से ही टाइम नहीं बचता, तो लगा कि क्यों ना कलम-कागज लेकर बैठ जाएं और दिल का दर्द कागज पर उतारते रहें। बेरोजगारी में इससे बढिय़ा टाइम पास और क्या हो सकता है। अब कैरेक्टर खोजने के लिए कहीं जाना भी तो नहीं पड़ता। घर में बीवी, बाहर पड़ोसी, देश में मंत्री, विदेश में अमरीका। कुछ भी उठा लो और लग जाओ कलम घिसने में। कसम से बड़ा मजा आता है, अंदर की बात बाहर लाने में। ये सब यूं ही चलता रहता, पर एक दिन तो गजब होना ही था। हम व्यंग्य लिखते हैं, ये बात हमारी बीवी से पड़ोस की सहेली से कह दी। उसने अपने पति से बोला और पति ने गली में सबसे। सब अगले ही दिन घर के बाहर हुजूम लगाकर इकट्ठा हो गए। एक बाबा टाइप का आदमी लकड़ी टेकता हुआ आया और बोला, 'बेटा, हमने सुना है कि तुम व्यंग्य लिखते हो। कहां हैं तुम्हारे व्यंग्य। मैं पढऩा चाहता हूं।Ó मैंने उनसे पूछा कि मैं तो सीधा सा आदमी हूं, ये सब अफवाह है। वो बोला कि मुझे तुम्हारी शक्ल और अक्ल परसाईजी जैसी लगती है। परसाईजी सालों पहले जब अपनी गली में आए थे, तो इस गली को देखकर उन्होंने कहा था कि काश! मेरा अगला जन्म इसी गली में हो। और देखो उनकी बात सच हो गई। हो ना हो, तुम परसाईजी के पुनर्जन्म रूप हो। अब तो मैं घबरा चुका था। मैंने उनके पैर पकड़ लिए और गिड़गिड़कर बोला कि आप मुझे चैन से जी लेने दें। क्यों पूरे शहर में मुझे बातचीत मुद्दा बनाना चाहते हो। वो बोला कि बेटा बताओ, तो सही कि तुम लिखते कैसा हो। मैं किसी से कुछ नहीं कहूंगा। मैं मन ही मन सोच रहा था कि मैं लिखता तो इन गली वालों के ऊपर ही हूं। मेरे व्यंग्य में सारे पड़ोसियों को कोसने के सिवा और होता ही क्या है। मैंने तय कर लिया कि किसी भी कीमत पर अपनी पोल नहीं खुलने दूंगा। पर वो तो अपनी बात पर अड़ा ही रहा। उसके साथ-साथ पूरी भीड़ भी मेरे जयकारे लगाने लगी और कहने लगी कि हमें भी लगता है कि परसाईजी ने आपके रूप में दुबारा जन्म लिया है। हम सब आपके व्यंग्य पढऩा चाहते हैं। मैंने डरते-डरते अपने लिखे सारे व्यंग्य उनके सामने कर दिए और खुद घर में जाकर दुबक गया। पर वो टस से मस नहीं हुए और अंदर घुसकर मुझे घेर लिया। एक व्यंग्य में पड़ोसी पपीताराम और उसकी पत्नी इमलीबाई के खट्टे रिश्तों पर मजाक था, तो एक व्यंग्य इमरती लाल के बेटे लड्डू सिंह और कचौरीकुमार की बेटी जलेबी कुमारी के प्यार के किस्से। मुझे लग रहा था कि पपीताराम, इमरती लाल और कचौरीकुमार ये सब पढ़कर मेरा कचूमर निकाल देंगे। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। उन्होंने तो मुझे लगे लगा लिया और कहा कि तुम्हारे हमारे घर-परिवार, बाल-बच्चों की सच्चाई को जिस निर्भकता और कटाक्ष के साथ कागज पर लिखा है, उससे हम बहुत खुश हैं। सबने शहर में फोन घुमाना शुरू कर दिया। पूरे शहर ने मुझे परसाईजी का पुनर्जन्म समझकर मुझ पर फूल मालाएं लादना शुरू कर दिया। सारे अखबारों के एडिटर मेरे चरण कमलों में विराजने लगे। मेरी हर बात में वे व्यंग्य खोजने लगे और वो दिन था और आज का दिन। ससुरों ने व्यंग्य लिखवा-लिखवाकर मेरी उंगलियों का कचूमर निकाल दिया है। अब मैं दिन-रात उनके लिए व्यंग्य लिखने की कोशिश करता रहता हूं और वे मुझे परसाईजी समझकर छापते रहते हैं। धन्य हो परसाईजी और उनके व्यंग्य।
-आशीष जैन

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रिपोर्टर की रपटन

हे दुनिया के तुच्छ जीवों! मैं सर्वशक्तिमान हूं। मैं अनादि-अनंत हूं। मैं सर्वज्ञ हूं। और भी पता नहीं मैं क्या-क्या हूं। दरअसल मेरी उपमाएं अभी तैयार हो रही हैं। कुछ मुझे ज्ञात थी, सो मैंने कह दी। पर ये पक्का मानना कि मैं इस दुनिया में सबसे अद्भुत है। मेरा स्वरूप हर इंसान में है, पर जो मेरे भावों को अंगीकार कर लेता है, वही इंसान मुझ जैसा बन पाता है। मैं सुबह सवेरे से लेकर रात-बिरात तुम्हारे दिमाग पर कब्जा किए हुए रहता हूं। पापी मुझसे डरते हैं। वैसे तुम मुझे दुनिया का सबसे बड़ा पापी भी मान सकते हो, पर क्या करूं, मेरा काम भी तो अनोखा है। मेरे पास दुनिया के हर पल, हर कोने की सारी छोटी-बड़ी जानकारियां आंख झपकते ही पहुंच जाती हैं।

अगर इतना पढऩे के बाद भी तुम नहीं पहचान पाए कि मैं कौन हूं, तो तुम वाकई क्षुद्र बुद्धि के इंसान हो। जरा गौर करना, अलसुबह से जो अखबार तुम्हारे हाथों में रहता है, वही मेरा कर्मक्षेत्र है, वही मेरा दाता, मेरा ईश्वर है। मैं ही तो अखबार के लिए खबरें जुटाता हूं। मैं रिपोर्टर हूं। कुछ मुझे खबरनवीस, तो कुछ पत्रकार भी कहते हैं। पर मुझे खुद को जर्नलिस्ट कहलवाना ज्यादा पसंद है। इस शब्द से मुझे ज्यादा प्यार है। पत्रकार और रिपोर्टर शब्द सुनकर मैं भड़क जाता हूं, ये शब्द मुझे गाली की तरह लगते हैं। कोरेसपोंडेंट शब्द थोड़ा सोफिस्टिकेटेड है, इसी नाम से मुझे पुकारना। मात्र तुम्हारे पुकारने की देर है, मैं पल में तुम्हारे सामने हाजिर हो जाऊंगा। फिर तुम्हारे साथ घंटों बिताऊंगा और बतियाऊंगा। तुम्हें लगेगा कि मेरे पास टाइम ही टाइम है। मैं फालतू ही तुम्हारे पास बैठा हूं। पर ऐसा नहीं है। मैं घंटों बैठकर कोई काम की खबर तुमसे निकलवा ही लूंगा। अगर कोई तुम्हें परेशान कर रहा है, तो मुझे बताओ। उस बदमाश को अभी चित्त कर दूंगा और ज्यादा चूंचपड़ की तो, उसका बड़ा सा फोटो पहले पन्ने पर छापकर उसे बदनाम कर दूंगा। मेरा तो काम ही है, लोगों की मदद करना। पर इस महंगाई के जमाने में ये मत समझना कि सारे काम मुफ्त में हो जाएंगे। कुछ ना कुछ दक्षिणा तो देनी ही पड़ेगी। वैसे मेरी न्यूनतम फीस दो हजार रुपए है, पर तुम्हारी सूरत देखकर मुझे तुम पर तरस आ रहा है, इसलिए मैं सौ-दौ सौ में काम निपटा दूंगा। चाहे तुमने कोई तीर ना मार हो, पर अगर तुम्हारी दिलीइच्छा है कि तुम्हारा गुणगान भी लोग गाएं, तो मेरे पास आना। मैं शब्दों का मायाजाल रचूंगा और लोगों को भरमा दूंगा कि तुम जैसा इंसान तो दुनिया में पैदा ही एकाध बार होता है। शब्द माया ही तो मेरी असल ताकत है। लोगों को लगेगा कि तुम ही हो इस युग के युगपुरुष।
मुझे तुमसे बस एक चीज और चाहिए। तुम हर हफ्ते मुझे अपने सरकारी ऑफिस में बैठे बॉस की एक-दो ताजातरीन कारस्तानियां लाते रहना। चाहे उसमें आधी सच्चाई हो, पर उसे सत्यापित करके छापने की जिम्मेदारी मेरी है। जब चुनाव होते हैं, तो बिना सभा के ही मैं अखबार में नेताजी के लिए भीड़ की फोटू का जुगाड़ लगा देता हूं, तो ये तो मेरा चुटकियों का काम है। किसी को भी सेलिब्रिटी बनाकर पेश करने में मुझे मजा आता है। बाजार में चाहे कोई ट्रेंड सालों पहले खत्म हो चुका हो, मैं उसे इस तरह अखबार में छापता हूं कि लोगों को लगता है कि नया फैशन आया है। चाहे युवा सो रहे हों, पर मैं लिखता हूं कि युवा क्रांति की ओर अग्रसर हैं। मैं देश की अर्थव्यवस्था के बारे में उन लोगों की राय प्रकाशित करता हूं, जिन्हें देश के वित्तमंत्री तक का नाम मालूम नहीं होता।
मुझे तिल को ताड़ बनाने में महारत हासिल है। किसी की पर्सनल लाइफ में को भी मैं उछाल सकता हूं। मुझसे सब छिपते रहते हैं। चाहे दुनिया में सब ट्रेफिक रूल तोडऩा बंद कर दें, पर मैं कभी हेलमेट लगाकर नहीं चलता। जर्नलिस्ट हूं, तो अपनी गाड़ी पर प्रेस भी लिखवा रखा है। इससे मैं सड़क पर बेखौफ हो जाता हूं। हर उल्टा-सीधा काम कर सकता हूं। सब डरते हैं। पूरे देश में सूचना का अधिकार कानून लागू हो चुका है। हर बाबू से आप उसके काम का हिसाब मांग सकते हो, पर मुझे कंट्रोल करने की कभी कोई सोच भी नहीं सकता।
मैं ज्यादा पढ़ा-लिखा भी नहीं हूं। बचपन से ही आवारा था, पिताजी हमेशा कहते थे कि कुछ किया कर, नहीं तो मेरा नाम डूब जाएगा, पर अब भरा-पूरा घर देखकर वे भी मेरी तारीफ करते हैं। दारू और सिगरेट से ही मेरी जिंदगी चलती है। शुरू में मुझे देश में बदलाव और समाज-सुधार का शौक चर्राया था। पर अब मैं मशीन बन गया हूं। किसी के घर मौत होने पर मैं रोता नहीं हूं, बल्कि अपनी खबर खोजता हूं। मैं चलता-फिरता सहायता केंद्र बन गया हूं। किसी के बच्चे को पास करना है, किसी को प्लॉट दिलाना है, किसी को मंत्री से नौकरी की सिफारिश लगवानी है, इन सब कामों की मेरी प्राइज लिस्ट तैयार है। तुम्हें जब भी कोई जरूरत हो, मुझे याद करना।
-आशीष जैन

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