15 April 2009

बैंकिंग से पॉलिटिक्स तक

बैंकिंग के शानदार जॉब को छोड़कर राजनीति में आकर समाज सुधार करना चाहती हैं मीरा सान्याल।
'मुझे लगता है कि यह समय बैंकिंग के क्षेत्र में रहने का नहीं है। अब मुझे राजनीतिक जागरूकता लाने के लिए भी कुछ करना चाहिए।' ये हैं एबीएन एमरो बैंक की कंट्री हैड मीरा सान्याल। दक्षिण मुंबई में एबीएन एमरो का कार्यालय होटल ताजमहल पैलेस के पीछे है। पिछले 26 नवंबर को जब ताज होटल पर हमला हुआ, तो बैंक के कर्मचारी दंग रह गए थे। मीरा का कहना है कि 26/11 की घटना ने मेरे मन पर गहरा असर डाला और मुझे लगा कि समाज की सोच में बदलाव लाने के लिए मुझे राजनीति में जाना ही होगा। ग्रेजुएशन करने के बाद उन्होंने जर्नलिज्म का कोर्स करने वाली मीरा का बैंकिंग इंडस्ट्री में 25 साल का अनुभव रहा है, अब इस क्षेत्र को छोड़कर देश की जनता को जागरूक करना चाहती हैं। वे कहती हैं, 'लोगों के पास वोट डालने के लिए सही शख्स का विकल्प ही मौजूद नहीं होता, ऐसे में वे वोट डालने ही नहीं जाते।' मीरा ने अपने बैंक से 15 मई तक की छुट्टी ले ली है और अब वे लोकसभा चुनावों के लिए दक्षिण मुंबई से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में खड़ी हुई हैं। वे खुद को 'मध्यवर्गीय लोगों का उम्मीदवार' कहलाना पसंद करती हैं। वे पांच बिंदुओं (निवेश लाना, रोजगार निर्माण, आधारभूत ढांचा, सुरक्षा और शिक्षा) की कार्ययोजना लेकर जनता के सामने जाएंगी। उनका मुख्य संदेश है कि वे मुंबई को वापस अमन की नगरी की पहचान दिलाएंगी।
-आशीष जैन

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राजनीति की आंखों का ऑपरेशन

38 साल की नेत्र सर्जन मोना शाह शिक्षित लोगों को राजनीति से जोडऩे के लिए लड़ रही हैं चुनाव।

'मेरा पेशा है, लोगों की नजर सही करना। मैं चाहती हूं कि राजनीति की दृष्टि में भी कुछ सुधार करूं।' ऐसी ही कुछ सोच है दक्षिण मुंबई के मुन्सिपल अस्पताल की नेत्र सर्जन 38 साल की मोना शाह की। मोना दक्षिण मुंबई से लोकसभा का चुनाव लड़ रही हैं। बकौल मोना, 'अब प्रोफेशनल्स को राजनीति में ज्यादा से ज्यादा आना होगा। अगर पढ़े-लिखे लोग राजनीति में आएंगे, तो विकास की संभावना ज्यादा रहेगी। वे सही और त्वरित फैसले ले सकेंगे। संसद में जाने वाले एमपी को अपनी जिम्मेदारियों का एहसास होना चाहिए। मेरा लक्ष्य नोन-वोट बैंक के संपर्क में आना है। मैं दक्षिण मुंबई के उन शिक्षित लोगों से वोट डालने की अपील कर रही हूं, जो अपने काम के चलते वोट डालने को ज्यादा तरजीह नहीं देते। मैं चाहती हूं कि वे राजनीतिक नेतृत्व की अहमियत को समझें।' वे इस ओर ध्यान दिलाती हैं कि पिछले आम चुनावों में दक्षिण मुंबई में केवल 37 फीसदी मध्यवर्गीय मतदाता वोट देने पहुंचे थे। अगर मैं इस आंकड़े को 70 फीसदी तक पहुंचाने में कामयाब हो जाती हूं, तो मेरी जीत पक्की है। उन्होंने दिसंबर से ही अपना प्रचार अभियान शुरू कर दिया था। पहले वे निर्दलीय खड़ा होने का मानस बना चुकी थी। पर फिर पीपीआई (प्रोफेशनल पार्टी ऑफ इंडिया) से चुनाव लड़ना तय किया। 2007 में स्थापित पुणे की इस पार्टी का गठन कुछ प्रोफेशनल्स के एक समूह ने किया है। इसका मकसद उन लोगों को चुनावों के लिए प्रोत्साहित करना है, जिनके पास चुनाव लड़ने का कोई अनुभव नहीं है। शाह के प्रचार में दो खास मुद्दों की झलक साफ दिखाई दे रही है। वे सुरक्षा और आधारभूत ढांचे में सुधार को मुंबई की सबसे बड़ी जरूरत बताती हैं। वे राजनेताओं से सवाल पूछती हैं कि करोड़ों रुपए टैक्स में देने के बावजूद भी आधारभूत ढांचे में कोई बदलाव नहीं आया है। साथ ही वे पिछले साल 26 नवंबर को मुंबई पर हुए हमलों को लेकर भी जनता की आंखें खोलना चाहती हैं। वे एलान करती हैं, 'अब समय आ गया है, जब हमें राजनीतिक रूप से जागरुक हो जाना चाहिए।'
-आशीष जैन

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बदलाव का बिगुल

ना मेरे पास मनी है, न मशीनरी और न ही मसल पावर। पर वंचितों को उनका हक दिलाने की मुहिम के लिए ही मैं राजनीति में आई हूं। मुझे यकीन है कि बदलाव होकर रहेगा।

मल्लिका साराभाई। कुचिपुड़ी और भारतनाट्यम जैसे नृत्य के क्षेत्र में जाना-माना चेहरा। मशहूर वैज्ञानिक विक्रम साराभाई और शास्त्रीय नृत्यांगना मृणालिनी की बेटी। थिएटर और सिनेमा जिनमें रचे-बसे हैं। माता-पिता की बनाई 'दर्पण एकेडमी' के जरिए वे कला को नए आयाम प्रदान कर रही हैं। क्या 56 वर्षीय मल्लिका का परिचय पूरा हो गया। जी नहीं, अब जानिए उनकी शख्सियत का एक और नया पहलू। वे चुनाव लड़ रही हैं, वह भी पीएम इन वेटिंग लालकृष्ण आडवाणी के खिलाफ और बिना किसी पार्टी से जुड़े हुए। उनका कहना है कि मैं डमी कैंडिडेट नहीं हूं। मैं जीतने के लिए जी-जान लगा दूंगी। अब शायद आईआईएम अहमदाबाद से किए गए एमबीए का इस्तेमाल वे अपने चुनावी प्रबंधन में करेंगी।
राजनीति में अपराधी
जानना दिलचस्प रहेगा कि 1984 में राजीव गांधी ने मल्लिका को पार्टी टिकट की पेशकश की थी। उस वक्त उनका मानना था कि राजनीति में प्रवेश किए बिना ही वे गलत चीजों पर खुलकर विरोध दर्ज करेंगी। पर पिछले 25 सालों में राजनीति का जिस तरह अपराधीकरण हुआ, उसे देखकर अब उन्हें महसूस होता है कि अगर बदलाव लाना है, तो राजनीति में शामिल होना ही होगा। बकौल मल्लिका, 'मैं किसी पार्टी से जुड़ी नहीं हूं, क्योंकि हर पार्टी में भ्रष्टाचार और अपराध का बोलबाला है। लोग मुझसे पूछते हैं कि आपको लालकृष्ण आडवाणी के खिलाफ चुनाव लड़ने की क्या सूझी, तो मेरा जवाब होता है कि मैं गांधीनगर में ही पैदा हुई हूं। यहीं पली-बढ़ी और पिछले 20 साल से यहां के लोगों के साथ मिलकर काम कर रही हूं। फिर आडवाणीजी जिस रथयात्रा को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानते हैं, मेरी नजर में उसने ही देश के सामाजिक ताने-बाने को सबसे ज्यादा क्षति पहुंचाई है।'
बदलाव का बिगुल
जब मल्लिका गांधीनगर कलेक्टर के पास अपना चुनावी नामांकन भरने के लिए गई, तो बांस की टोकरी में इसके लिए 10 हजार रुपए इकट्ठे किए। आगे भी चुनावी प्रचार के लिए पारिवारिक मदद लेने की बजाय जनता से ही चंदा प्राप्त करेंगी। मल्लिका ने अपना चुनाव चिह्न नगाड़ा चुना है। इसका संदेश है कि अब बदलाव का बिगुल बज चुका है और बदलाव होकर रहेगा। उनका मानना है कि अब राजनीति में पढ़े-लिखे लोगों को आना चाहिए। देश की सबसे बड़ी समस्याओं में सांप्रदायिकता भी अहम मुद्दा है। अगर लोग राजनीति में सुधार चाहते हैं, तो उन्हें राजनीति में आना चाहिए और अपनी बात खुलकर लोगों तक पहुंचानी चाहिए। आज नेता इस तरह व्यवहार करते हैं, मानो लोकतंत्र उनके पास गिरवी रखा हो। हमें बदलाव चाहिए और इसके लिए हमें ही पहल करनी होगी। मैं चाहती हूं कि राजनीति में भी पारदर्शिता आए और लोगों के नेताओं के प्रति नजरिए में बदलाव आए। मैं लोगों को यकीन दिलाना चाहती हूं कि आम जिंदगी में आज भी विचारधारा और आदर्शों के लिए उचित स्थान बचा हुआ है। मेरा मकसद है कि समाज के उन चंद ठेकेदारों को सबक सिखाऊं, जो निजी स्वार्थ के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार रहते हैं। महिलाओं को उचित सम्मान दिलाना भी मेरी प्राथमिकता है।
-आशीष जैन

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