12 August 2009

मदर इंडिया का देशवासियों के नाम खुला पत्र


15 अगस्त को 62 साल की 'मदर इंडिया' लिख रही हैं, अपने बेटे-बेटियों के नाम खत-मेरे प्यारे बेटे-बेटियों,
धन्यवाद। मैं आज बड़ी खुश हूं। आज मेरा जन्मदिन है। मेरे हर जन्मदिन पर तुम मुझे बधाई देते आए हो। मेरा मन किया कि इस बार मैं खुद तुम्हें खत लिखूं। तुमने सदा मुझे खुशी का ध्यान रखा। तुम्हारे हौसलों की वजह से ही वक्त की आंधी में मेरे चेहरे की रंगत नहीं उड़ पाई है। कभी तुम गांधी बनकर, तो कभी भगतसिंह बनकर मेरी हिफाजत करते रहे। आज भी तुम मेरा नाम रोशन कर रहे हो, कभी रहमान, तो कभी गुलजार बनकर। मेरी बेटियां भी कमाल की हैं- सानिया, सायना, किरण, मेधा, प्रतिभा, मीरा, निरूपमा। सब मुझे कितना चाहती हैं।

जब-जब मुझ पर आंच आई, तुम सब भाई-बहनों ने एकजुट होकर दुश्मन के दांत खट्टे कर दिए। तुमने आगे से किसी पर हमला न बोलने की कसम निभाई है, इस बात का मुझे बड़ा फख्र है। तुम्हारी फौलादी बाहों के घेरे में मैं खुद को बड़ा महफूज महसूस करती हूं। तुम्हारे जज्बे की रोशनी के कारण आतंक की काली छाया कभी मुझ पर हावी नहीं हो पाई। आज जब मैं चारों ओर बड़े पुल, कारखाने, इमारतें देखती हूं, तो अपने पुराने दिनों में डूब जाती हूं। किस तरह दिन-रात जुटकर तुम सबने मेरी तरक्की की नई इबारतें लिखीं।
जिंदगी उतार-चढ़ाव का नाम है। पिछले 62 सालों में मेरी जिंदगी में भी कई उतार चढ़ाव आए, पर तुमने मेरी अस्मिता- मेरी आजादी- को बचाए रखा। यूं मेरा हर बेटा मेरी बड़ी परवाह करता है। पर मुझे वल्लभ भाई पटेल की बहुत याद आती है। ताउम्र जुटा रहा कि मैं अखंड बनी रहूं। उसने देश की हर रियासत को जोड़े रखने में दिन-रात एक कर दिए। अगर वह नहीं होता, तो आज मैं न जाने कितने टुकड़ों में बंट चुकी होती। धन्य है मेरा बेटा पटेल। तुम्हारा ही भाई लालबहादुर शास्त्री कहा करता था, 'हम भूखे रह लेंगे, पर आजादी पर आंच नहीं आने देंगे।' सादगी और मेहनत की मिसाल था वह। मेरे करोड़ों बेटे-बेटियों ने मेरी सांसों की डोर को अपने नेक इरादों से थामे रखा, वरना पता नहीं मेरा अस्तित्व भी बचता या नहीं। जब होली, दीवाली, ईद पर तुम सब आपस में गले मिलते हो, मैं खुशी से फूली नहीं समाती। आज सरकार हर हाथ को रोजगार देने की बात कर रही है। सूचनाओं का लेन-देन सरल हो गया है। जिन जानकारियों को लेने के लिए पहले सालों लग जाते थे, उन्हें एक महीने में लोगों को देने के लिए हर ऑफिस पाबंद है। ये अच्छी बात है कि तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के चलते अमरीकी मंदी तुम्हें ज्यादा परेशान नहीं कर पाई है। आज हमारे पास विदेशी मुद्रा का बड़ा भंडार है। हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर मेरा नाम बड़ी शान से लिया जाता है। तुम्हारे मेहनत और दिमाग का लोहा सारी दुनिया मानती है। आज तुम जरूरत का हर सामान खुद बना रहे हो और दूसरे देशों को निर्यात भी कर रहे हो।
कुछ ऐसी बातें भी हैं, जो मुझे परेशान करती हैं। तुम में से कुछ बड़े ओहदों पर हो, कुछ के पास देश संभालने की जिम्मेदारी भी है। फिर तुम भेदभाव क्यों करते हो। गरीब लोग भी तो तुम्हारे ही भाई हैं, ये क्यों भूल जाते हो। मिल-बैठकर कोई ऐसी योजना क्यों नहीं बनाते कि हर पेट को समय पर खाना नसीब हो सके। क्यों तुम धर्म के नाम पर दंगे करने को तैयार हो जाते हो। आरक्षण, क्षेत्रवाद और न्याय में देरी जैसी समस्याओं को मेरे ऊपर क्यों लाद रखा है? इस वजन से मैं मुक्त होना चाहती हूं। तुम में से ज्यादातर बेटे-बेटियों का एक ही जुमला है, 'सब चलता है।Ó सब चलता है कि वजह से तुम बेवजह स्वार्थी हो जाते हो। सड़क पर कचरा फैलाते हो, पेड़-पौधों को काटते हो, सावर्जनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाते हो, समय पर टैक्स नहीं भरते। तुम ये क्यों नहीं सोचते कि इन सबसे तुम्हारा ही नुकसान होता है। क्या मैं तुम्हारी मां नहीं हूं। क्या मां के साथ कोई खिलवाड़ करता है भला? मुझे यकीन है, तुम मेरी बात मानने की कोशिश जरूर करोगे।
तुम्हारी प्यारी,
मदर इंडिया
प्रस्तुतिः आशीष जैन

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कितना बदल गया इंसान


आजादी के बाद से अब तक हम लोगों की सोच में काफी बदलाव आया है, पेश है एक झलक—

किताबों का संसार
एक दौर था घरों में किताबें आती थीं, फिर पत्रिकाएं आना शुरू हुईं और अब सिर्फ अखबार रह गए हैं। वह भी सुबह के दो घंटे के बाद रद्दी हो जाता है। गीता प्रेस, गोरखपुर की 'कल्याण', गायत्री परिवार की 'अखंड ज्योति' को पढऩे की होड़ खत्म हो गई है। आज फैशन और फिल्मी मैगजींस को देखने और उन जैसा बनने का क्रेज है। अब रवींद्रनाथ टैगोर की 'गीतांजलि', हरिवंशराय बच्चन की 'मधुशाला', जयशंकर प्रसाद की 'कामायिनी', प्रेमचंद्र के 'बड़े भाईसाहब' को भूलकर बच्चे-बच्चे की जुबान पर जे. के. रॉलिंग की 'हैरी पॉटर सीरिज', चेतन भगत की 'द फाइव प्वाइंट समवन', रॉबिन शर्मा की 'द मॉन्क हू सोल्ड हिज फरारी', अरूंधती राय की 'द गॉड ऑफ स्माल थिंग्स' और सलमान रुश्दी की 'मिडनाइट चिल्ड्रन' चढ़ चुकी हैं।
मेल-मिलाप का तरीका
पहले शादी की हर रस्म में पूरा मोहल्ला इकट्ठा हो जाता था, अब लोग सिर्फ स्वभोज निमंत्रण की तारीख ही याद रखते हैं। मेहंदी से लेकर ढोलक, दूल्हे की शेरवानी से लेकर दुल्हन के लहंगे तक सब कुछ रेडिमेड आता है। शादी कुछ घंटों का खेल बनकर रह गई है। पहले अपनी बातें कहने के लिए मंच का इस्तेमाल किया जाता था, भीड़ जुटती थी, सभाएं होती थीं। आज बंद कमरों में कंप्यूटर्स के सामने बैठकर इंटरनेट के सहारे क्रांति की योजनाएं बनाई जाती हैं। युवा चैटिंग करते हैं, नेटीजन ब्लॉगियाने लगे हैं। श्रोतागण टिपयाते हैं। ऑरकुट और फेसबुक के वर्चुअल वल्र्ड में डूबने से लोगों को पता रहता है कि लंदन में बैठा उनका दोस्त क्या खा रहा ह। पर उन्हें यह नहीं पता कि पड़ोसी किस बीमारी से अस्पताल में भर्ती है।
कॅरियर और शिक्षा की भूलभुलैया
पाठशाला कब प्ले स्कूल में बदली, पता ही नहीं लगा। आज केजी में भी बच्चों की मैरिट लिस्ट बनती है। 80 फीसदी से नंबर कम आने पर माता-पिता बच्चे को एडमिशन फीस, ट्यूशन फीस सब कुछ याद दिला देते हैं। पहले समाज सेवा के लिए लोग नौकरियां छोड़ देते थे। आज समाज सेवा में युवाओं को कॅरियर नजर आने लगा है। आज समाज सेवा के अवसर कम हैं और स्वयंसेवी संगठन ज्यादा हैं। बाबू और मास्साब बनाने की बजाय युवा मीडिया, टीवी, रैंप पर जाकर चमकना चाहते हैं। सेना के पद रिक्त हैं और एमबीए के लिए कॉलेजों में मारामारी है। राजनीति भी कॅरियर बन गया है। इसमें पहले समाजसेवी आए, फिर वकीलों का दबदबा रहा। धीरे-धीरे धन्ना सेठ और अपराधी आने लगे। लेटेस्ट ट्रेंड युवाओं, महिलाओं और प्रोफेशनल्स का है।
सेहत का हाल
पहले तुलसी, नीम, हल्दी और फिटकरी जैसी घरेलू चीजों से हर बीमारी का इलाज हो जाता था। अब एम्स में भी लंबी कतार है। पहले मलेरिया और हैजा जैसी बीमारी का नाम सुनकर भी डर लगने लगता था। अब एड्स, कैंसर के ही न जाने कितने रूप पनप चुके हैं। फास्ट फूड खाते-खाते डायबिटीज और मोटापे की समस्या आईं और स्टेटस सिंबल बन गईं। कसरत धीरे-धीरे जिम में बदल गई। अब सफाई ज्यादा है, पर हम बीमार जल्दी पड़ते हैं। मिट्टी में खेलकर बड़े होने वाले मिट्टी में कीटाणु बताने लगे।
फिल्म और टीवी का क्रेज
पहले 'राजा हरिशचंद्र', 'उपकार', 'पूरब और पश्चिम' जैसी फिल्में थीं। लोग परिवार के साथ 'जय मां संतोषी' फिल्म देखने जाते थे और टॉकिज के बाहर चप्पलें उतारते थे। आज 'भूत', 'डर', 'अज्ञात' फिल्में देखने के लिए दोस्त या प्रेमिका के साथ मल्टीप्लैक्स में जाते हैं और हाथों में होता है- पॉपकार्न का पैकेट। पहले हीरो 'लार्जर देन लाइफ' हुआ करता था। अब फिल्म का कोई भी किरदार हीरो बनकर सामने आ सकता है। फिल्में सच्चाई के ज्यादा करीब बनने लगी हैं। 'हम लोग', 'बुनियाद', 'मुंगेरीलाल के हसीन सपने' हकीकत में बदलकर 'सच का सामना' और 'राखी का स्वयंवर' जैसे रिएलिटी शो के रूप में लोगों को मनोरंजन (?) कर रहे हैं। बीच में सास-बहू मार्का सीरियल्स, लॉफ्टर शोज और पैसा बनाओ शोज ने भी लोगों को बांधे रखा। दूरदर्शन पर खबरें देखने वालों को 'अब तक' चाहिए। सैटेलाइट चैनल्स और एफएम बिना किसी नियंत्रण के ऊलजलूल तरीके से सब कुछ दर्शकों को दिखा रहे हैं। वाकई सब कुछ...
पैसे की माया
पहले रूपए-पैसे का सारा हिसाब-किताब घर के बड़े करते थे। आज बच्चों का भी बैंक में अकाउंट खुला है। पहले पैसा जमा कराने के लिए डाकघर में लाइन लगती थी। अब थोड़ा सा पैसा पास में आते ही शेयर बाजार की तरफ भागते हैं। पहले लोग कहते थे कि ज्यादा पैसा जेब में नहीं होना चाहिए, कोई चुरा लेगा। आज प्लास्टिक के क्रेडिट कार्ड में लाखों रुपए घुस गए हैं। गली-गली में एटीएम हैं। हां, नकली नोट भी आसानी से मिल जाएंगे। सारे लेन-देन ई... ई... ईलेक्टोनिक हो गए हैं। पहले लोग ताजा माल के लिए दूसरे शहर भी चले जाया करते थे। अब आलम यह है कि जेब भरकर मॉल में घुसो और पाउच और सैशे में सामान घर ले आओ। नकली-असली कोई नहीं देखता। दवा से लेकर दारू तक कुछ भी नकली हो सकता है। पहले सेठ-साहूकारों से मुश्किल से पैसा मिल पाता था, अब आपको पैसा देने के लिए सब तैयार हैं। चारों तरह लोन मिल रहा है। हां, वसूली का ध्यान रखिएगा...
फैशन और सफरकी चाहत
पहले शादी-समारोह में ही अच्छे कपड़े पहने जाते थे। आज सोते समय भी स्टाइलिश ट्राउजर चाहिए। महिलाएं सोलह शृंगार का मतलब ज्यादा गोरा होने से लगा रही हैं। पहले कपड़ों से संस्कृति झलकती थी और आज नाभि। 'मोटा पहनो' अब 'पारदर्शी पहनो' में बदल चुका है। अब मन की सुंदरता की जगह तन की चमक को तरजीह दी जाती है। बैलगाडिय़ों के बाद जब शुरू में रेलगाड़ी आई, तो उसमें बैठने से लोग कतराते थे, आज हम मेट्रो ट्रेन में लटकर सफर करने को तैयार हैं। बीच में 'हमारा बजाज' के चलते सबको स्कूटर रास आने लगे। समय के साथ हाई-फाई मोटरबाइक्स और कारें आईं। अब लोगों को नेनो का शगल है। पर फिर भी लोग एक दूसरे से मिलने से कतराते हैं। मोबाइल फोन झूठ बोलने का साधन बन चुका है।
-आशीष जैन

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लोकतंत्र की दीवानी सू की


पिछले बीस सालों से घर में नजरबंद रहने के बावजूद म्यांमार की आंग सांग सू की ने हार नहीं मानी है और म्यामांर में लोकतंत्र की स्थापना के लिए जी जान से जुटी हुई हैं।
1945 में 19 जून को रंगून में एक सितारा जमीन पर उतर चुका था। ऊपरवाले ने पहले ही उसकी किस्मत में लिख दिया था कि उसे जीवनभर अपने देश के नागरिकों के हक की लड़ाई लडऩी है और लोकतंत्र का अगुआ बनना है। पति कैंसर की बीमारी से जूझते हुए गुजर गए, पर वे अपने संघर्ष की धार को कम नहीं करना चाहती थीं, इसलिए अपने पति को संभालने भी नहीं गईं। पिछली साल म्यांमार में आए नरगिस तूफान से सू की का घर तबाह हो गया। अब उनके अस्थायी घर में रोशनी नहीं रहती और वे रात को अपना ज्यादातर समय मोमबत्तियों के बीच गुजारती हैं। उन्होंने छोटी सी उम्र से ही तय कर लिया था कि वे म्यांमार में लोकतंत्र की एक ऐसी लड़ाई लडऩे जा रही हैं, जिसमें घर-परिवार सब कुछ छूट सकता है। उन्होंने इसे चुनौती की तरह लिया और जुटी हुई हैं अपने मिशन पर।

छोटे कदम बड़ा संघर्ष
बचपन में ही उनके सिर से पिता का साया उठ गया। उनके पिता की हत्या कर दी गई। कई मुश्किलों के बीच उनकी मां खिन की ने रंगून में सू की और उसके दो भाइयों आंग सांग लिन और आंग सांग ओ का लालन-पालन किया। थोड़ी बड़ी हुई थीं कि आठ साल की छोटी उम्र में उन्हें अपने प्यारे भाई आंग सांग लिन की मौत का सदमा झेलना पड़ा। बड़ा भाई भी आंग सांग ओ भी उन्हें छोड़कर कैलिफोर्निया में जा बसा। लंदन से पढ़ाई करके लौटने के बाद 1988 में सू की वापस बर्मा लौटी और लोकतंत्र के लिए संघर्ष करने लगीं। नब्बे के दशक में हुए चुनावों में सू की की पार्टी ने बड़ी जीत दर्ज की, सारी दुनिया को लगा कि सू की का संघर्ष अपनी मंजिल पा गया है। पर उनके समर्थकों को शायद यह पता नहीं था कि असली लड़ाई शुरू ही तब हुई थी। इस जीत के बाद तय था कि अब म्यांमार की प्रधानमंत्री की कुर्सी पर आंग सांग सू की बैठेंगी। पर सैन्य शासकों ने सत्ता छोडऩे से इंकार कर दिया था और सू की को घर में ही नजरबंद कर दिया था। सू की घबराई नहीं और पूरी दुनिया को संदेश देती रहीं कि वे अपनी आखिरी सांस तक हार नहीं मानेंगी।
पति से मिलीं सिर्फ पांच बार
1995 का क्रिसमस वे शायद ही भूला पाएं, इसी दिन उनकी और पति मिशेल की आखिरी मुलाकात हुई थी। इसके बाद वे कभी नहीं मिले। परेशानियां ने फिर भी सू की का पीछा नहीं छूटा। कुछ समय बाद मिशेल को प्रोस्टेट कैंसर हो गया, तब भी बर्मा के तानाशाहों ने उन्हें सू की से मिलने के लिए वीजा जारी नहीं किया। उस समय सू की अस्थायी तौर पर नजरबंदी से मुक्त थीं, वे अपने पति से मिलने लंदन जा सकती थीं, पर उन्होंने सोचा कि अगर वे पति की तबियत की चिंता के चलते एक बार देश से बाहर निकल गईं, तो सैन्य शासक उसे वापस देश में घुसने की इजाजत कभी नहीं देंगे। 1999 आते-आते उनके पति मिशेल की मौत हो गई। दुखद बात यह रही कि उनका निधन अपने 53वें जन्मदिन पर हुआ। सू की के संघर्ष में मिसाल है कि 1989 में पहली बार घर में नजरबंदी के बाद 1995 को क्रिसमस की आखिरी मुलाकात तक, वे अपने पति से सिर्फ पांच बार मिल पाईं। उनके दोनों बच्चे भी उनसे दूर यूनाइटेड किंगडम में रहते हैं।
संघर्ष लहू बनकर दौड़ता है
नाम भी दिलचस्प है आंग सांग सू की का। उनके नाम में 'आंग सांगÓ शब्द उनके पिता, 'सूÓ उनकी दादी और 'कीÓ उनकी मां के नाम से लिया हुआ है। 64 साल की आंग सांग सू की के पिता ने 'मॉर्डन बर्मा आर्मीÓ की स्थापना की और 1947 में यूनाइटेड किंगडम से बर्मा को आजादी दिलाने में अपना योगदान दिया, तो मां भी बर्मा की राजनीति में जाना-माना चेहरा रहीं। जी हां, इसी वजह से आंग सांग सू की की रगों में ही संघर्ष लहू बनकर दौड़ता है। 1960 में उनकी मां भारत और नेपाल में बर्मा की राजदूत नियुक्त की गईं। उस दौरान आंग सांग सू की भी भारत में रहीं और उन्होंने नई दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज से 1964 में राजनीति में एक डिग्री के साथ अपना ग्रेजुएशन पूरा किया। इसके बाद भी पढ़ाई का सिलसिला चलता रहा और 1969 में सू की ने ऑक्सफोर्ड से दर्शनशास्त्र, राजनीति और अर्थशास्त्र में बीए और 1985 में लंदन यूनिवसिर्टी से पीएचडी पूरी कर ली। लंदन में रहने के दौरान उनकी मुलाकात डॉ. मिशेल एरिस से हुई और फिर शादी। सू की की दो बेटे हैं- एलेक्जेंडर एरिस और किम। सू की को उनके प्रयासों के लिए कई पुरस्कार मिल चुके हैं। 1991 में उन्हें शांति का नोबल पुरस्कार प्रदान किया गया। 1992 में भारत सरकार ने उनके शांतिपूर्ण संघर्ष के लिए 'जवाहर लाल नेहरू शांति पुरस्कारÓ दिया।
तानाशाही को पसंद नहीं रिहाई
म्यांमार में पिछले 47 सालों से फौजी हुकूमत है। महात्मा गांधी को अपना आदर्श मानने वाली सू की भी उनकी तरह अहिंसा के रास्ते पर चलकर अपने देश को सैन्य शासन से मुक्ति दिलाना चाहती हैं। सू की को बगैर सरकार की इजाजत के किसी को उनसे मिलने की इजाजत नहीं दी जाती। उनकी टेलीफोन की लाइन को भी काट दिया गया है। इस साल मई में सू की की नजरबंदी का समय पूरा हो गया था। पर सैन्य सरकार ने सू की पर आरोप लगा दिए कि उन्होंने नजरबंदी के कानून का उल्लंघन किया है। कानून के मुताबिक उनके साथ रहने वाली दो महिलाओं के अलावा कोई तीसरा व्यक्ति उन तक नहीं पहुंच सकता। दरअसल हाल ही एक अमरीकी व्यक्ति ने किसी तरह सू की के घर पर पहुंचने की कोशिश की थी। अब तानाशाह इसी बात को मुद्दा बनाकर सू की को पांच सालों की जेल कराना चाहते हैं, ताकि अगले साल होने वाले चुनावों में सू की और उनकी पार्टी 'नेशनल डेमोक्रेसी लीगÓ का कोई दखल न रह जाए।
- आशीष जैन

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