आजादी के बाद से अब तक हम लोगों की सोच में काफी बदलाव आया है, पेश है एक झलक—
किताबों का संसार
एक दौर था घरों में किताबें आती थीं, फिर पत्रिकाएं आना शुरू हुईं और अब सिर्फ अखबार रह गए हैं। वह भी सुबह के दो घंटे के बाद रद्दी हो जाता है। गीता प्रेस, गोरखपुर की 'कल्याण', गायत्री परिवार की 'अखंड ज्योति' को पढऩे की होड़ खत्म हो गई है। आज फैशन और फिल्मी मैगजींस को देखने और उन जैसा बनने का क्रेज है। अब रवींद्रनाथ टैगोर की 'गीतांजलि', हरिवंशराय बच्चन की 'मधुशाला', जयशंकर प्रसाद की 'कामायिनी', प्रेमचंद्र के 'बड़े भाईसाहब' को भूलकर बच्चे-बच्चे की जुबान पर जे. के. रॉलिंग की 'हैरी पॉटर सीरिज', चेतन भगत की 'द फाइव प्वाइंट समवन', रॉबिन शर्मा की 'द मॉन्क हू सोल्ड हिज फरारी', अरूंधती राय की 'द गॉड ऑफ स्माल थिंग्स' और सलमान रुश्दी की 'मिडनाइट चिल्ड्रन' चढ़ चुकी हैं।
मेल-मिलाप का तरीका
पहले शादी की हर रस्म में पूरा मोहल्ला इकट्ठा हो जाता था, अब लोग सिर्फ स्वभोज निमंत्रण की तारीख ही याद रखते हैं। मेहंदी से लेकर ढोलक, दूल्हे की शेरवानी से लेकर दुल्हन के लहंगे तक सब कुछ रेडिमेड आता है। शादी कुछ घंटों का खेल बनकर रह गई है। पहले अपनी बातें कहने के लिए मंच का इस्तेमाल किया जाता था, भीड़ जुटती थी, सभाएं होती थीं। आज बंद कमरों में कंप्यूटर्स के सामने बैठकर इंटरनेट के सहारे क्रांति की योजनाएं बनाई जाती हैं। युवा चैटिंग करते हैं, नेटीजन ब्लॉगियाने लगे हैं। श्रोतागण टिपयाते हैं। ऑरकुट और फेसबुक के वर्चुअल वल्र्ड में डूबने से लोगों को पता रहता है कि लंदन में बैठा उनका दोस्त क्या खा रहा ह। पर उन्हें यह नहीं पता कि पड़ोसी किस बीमारी से अस्पताल में भर्ती है।
कॅरियर और शिक्षा की भूलभुलैया
पाठशाला कब प्ले स्कूल में बदली, पता ही नहीं लगा। आज केजी में भी बच्चों की मैरिट लिस्ट बनती है। 80 फीसदी से नंबर कम आने पर माता-पिता बच्चे को एडमिशन फीस, ट्यूशन फीस सब कुछ याद दिला देते हैं। पहले समाज सेवा के लिए लोग नौकरियां छोड़ देते थे। आज समाज सेवा में युवाओं को कॅरियर नजर आने लगा है। आज समाज सेवा के अवसर कम हैं और स्वयंसेवी संगठन ज्यादा हैं। बाबू और मास्साब बनाने की बजाय युवा मीडिया, टीवी, रैंप पर जाकर चमकना चाहते हैं। सेना के पद रिक्त हैं और एमबीए के लिए कॉलेजों में मारामारी है। राजनीति भी कॅरियर बन गया है। इसमें पहले समाजसेवी आए, फिर वकीलों का दबदबा रहा। धीरे-धीरे धन्ना सेठ और अपराधी आने लगे। लेटेस्ट ट्रेंड युवाओं, महिलाओं और प्रोफेशनल्स का है।
सेहत का हाल
पहले तुलसी, नीम, हल्दी और फिटकरी जैसी घरेलू चीजों से हर बीमारी का इलाज हो जाता था। अब एम्स में भी लंबी कतार है। पहले मलेरिया और हैजा जैसी बीमारी का नाम सुनकर भी डर लगने लगता था। अब एड्स, कैंसर के ही न जाने कितने रूप पनप चुके हैं। फास्ट फूड खाते-खाते डायबिटीज और मोटापे की समस्या आईं और स्टेटस सिंबल बन गईं। कसरत धीरे-धीरे जिम में बदल गई। अब सफाई ज्यादा है, पर हम बीमार जल्दी पड़ते हैं। मिट्टी में खेलकर बड़े होने वाले मिट्टी में कीटाणु बताने लगे।
फिल्म और टीवी का क्रेज
पहले 'राजा हरिशचंद्र', 'उपकार', 'पूरब और पश्चिम' जैसी फिल्में थीं। लोग परिवार के साथ 'जय मां संतोषी' फिल्म देखने जाते थे और टॉकिज के बाहर चप्पलें उतारते थे। आज 'भूत', 'डर', 'अज्ञात' फिल्में देखने के लिए दोस्त या प्रेमिका के साथ मल्टीप्लैक्स में जाते हैं और हाथों में होता है- पॉपकार्न का पैकेट। पहले हीरो 'लार्जर देन लाइफ' हुआ करता था। अब फिल्म का कोई भी किरदार हीरो बनकर सामने आ सकता है। फिल्में सच्चाई के ज्यादा करीब बनने लगी हैं। 'हम लोग', 'बुनियाद', 'मुंगेरीलाल के हसीन सपने' हकीकत में बदलकर 'सच का सामना' और 'राखी का स्वयंवर' जैसे रिएलिटी शो के रूप में लोगों को मनोरंजन (?) कर रहे हैं। बीच में सास-बहू मार्का सीरियल्स, लॉफ्टर शोज और पैसा बनाओ शोज ने भी लोगों को बांधे रखा। दूरदर्शन पर खबरें देखने वालों को 'अब तक' चाहिए। सैटेलाइट चैनल्स और एफएम बिना किसी नियंत्रण के ऊलजलूल तरीके से सब कुछ दर्शकों को दिखा रहे हैं। वाकई सब कुछ...
पैसे की माया
पहले रूपए-पैसे का सारा हिसाब-किताब घर के बड़े करते थे। आज बच्चों का भी बैंक में अकाउंट खुला है। पहले पैसा जमा कराने के लिए डाकघर में लाइन लगती थी। अब थोड़ा सा पैसा पास में आते ही शेयर बाजार की तरफ भागते हैं। पहले लोग कहते थे कि ज्यादा पैसा जेब में नहीं होना चाहिए, कोई चुरा लेगा। आज प्लास्टिक के क्रेडिट कार्ड में लाखों रुपए घुस गए हैं। गली-गली में एटीएम हैं। हां, नकली नोट भी आसानी से मिल जाएंगे। सारे लेन-देन ई... ई... ईलेक्टोनिक हो गए हैं। पहले लोग ताजा माल के लिए दूसरे शहर भी चले जाया करते थे। अब आलम यह है कि जेब भरकर मॉल में घुसो और पाउच और सैशे में सामान घर ले आओ। नकली-असली कोई नहीं देखता। दवा से लेकर दारू तक कुछ भी नकली हो सकता है। पहले सेठ-साहूकारों से मुश्किल से पैसा मिल पाता था, अब आपको पैसा देने के लिए सब तैयार हैं। चारों तरह लोन मिल रहा है। हां, वसूली का ध्यान रखिएगा...
फैशन और सफरकी चाहत
पहले शादी-समारोह में ही अच्छे कपड़े पहने जाते थे। आज सोते समय भी स्टाइलिश ट्राउजर चाहिए। महिलाएं सोलह शृंगार का मतलब ज्यादा गोरा होने से लगा रही हैं। पहले कपड़ों से संस्कृति झलकती थी और आज नाभि। 'मोटा पहनो' अब 'पारदर्शी पहनो' में बदल चुका है। अब मन की सुंदरता की जगह तन की चमक को तरजीह दी जाती है। बैलगाडिय़ों के बाद जब शुरू में रेलगाड़ी आई, तो उसमें बैठने से लोग कतराते थे, आज हम मेट्रो ट्रेन में लटकर सफर करने को तैयार हैं। बीच में 'हमारा बजाज' के चलते सबको स्कूटर रास आने लगे। समय के साथ हाई-फाई मोटरबाइक्स और कारें आईं। अब लोगों को नेनो का शगल है। पर फिर भी लोग एक दूसरे से मिलने से कतराते हैं। मोबाइल फोन झूठ बोलने का साधन बन चुका है।
-आशीष जैन
किताबों का संसार
एक दौर था घरों में किताबें आती थीं, फिर पत्रिकाएं आना शुरू हुईं और अब सिर्फ अखबार रह गए हैं। वह भी सुबह के दो घंटे के बाद रद्दी हो जाता है। गीता प्रेस, गोरखपुर की 'कल्याण', गायत्री परिवार की 'अखंड ज्योति' को पढऩे की होड़ खत्म हो गई है। आज फैशन और फिल्मी मैगजींस को देखने और उन जैसा बनने का क्रेज है। अब रवींद्रनाथ टैगोर की 'गीतांजलि', हरिवंशराय बच्चन की 'मधुशाला', जयशंकर प्रसाद की 'कामायिनी', प्रेमचंद्र के 'बड़े भाईसाहब' को भूलकर बच्चे-बच्चे की जुबान पर जे. के. रॉलिंग की 'हैरी पॉटर सीरिज', चेतन भगत की 'द फाइव प्वाइंट समवन', रॉबिन शर्मा की 'द मॉन्क हू सोल्ड हिज फरारी', अरूंधती राय की 'द गॉड ऑफ स्माल थिंग्स' और सलमान रुश्दी की 'मिडनाइट चिल्ड्रन' चढ़ चुकी हैं।
मेल-मिलाप का तरीका
पहले शादी की हर रस्म में पूरा मोहल्ला इकट्ठा हो जाता था, अब लोग सिर्फ स्वभोज निमंत्रण की तारीख ही याद रखते हैं। मेहंदी से लेकर ढोलक, दूल्हे की शेरवानी से लेकर दुल्हन के लहंगे तक सब कुछ रेडिमेड आता है। शादी कुछ घंटों का खेल बनकर रह गई है। पहले अपनी बातें कहने के लिए मंच का इस्तेमाल किया जाता था, भीड़ जुटती थी, सभाएं होती थीं। आज बंद कमरों में कंप्यूटर्स के सामने बैठकर इंटरनेट के सहारे क्रांति की योजनाएं बनाई जाती हैं। युवा चैटिंग करते हैं, नेटीजन ब्लॉगियाने लगे हैं। श्रोतागण टिपयाते हैं। ऑरकुट और फेसबुक के वर्चुअल वल्र्ड में डूबने से लोगों को पता रहता है कि लंदन में बैठा उनका दोस्त क्या खा रहा ह। पर उन्हें यह नहीं पता कि पड़ोसी किस बीमारी से अस्पताल में भर्ती है।
कॅरियर और शिक्षा की भूलभुलैया
पाठशाला कब प्ले स्कूल में बदली, पता ही नहीं लगा। आज केजी में भी बच्चों की मैरिट लिस्ट बनती है। 80 फीसदी से नंबर कम आने पर माता-पिता बच्चे को एडमिशन फीस, ट्यूशन फीस सब कुछ याद दिला देते हैं। पहले समाज सेवा के लिए लोग नौकरियां छोड़ देते थे। आज समाज सेवा में युवाओं को कॅरियर नजर आने लगा है। आज समाज सेवा के अवसर कम हैं और स्वयंसेवी संगठन ज्यादा हैं। बाबू और मास्साब बनाने की बजाय युवा मीडिया, टीवी, रैंप पर जाकर चमकना चाहते हैं। सेना के पद रिक्त हैं और एमबीए के लिए कॉलेजों में मारामारी है। राजनीति भी कॅरियर बन गया है। इसमें पहले समाजसेवी आए, फिर वकीलों का दबदबा रहा। धीरे-धीरे धन्ना सेठ और अपराधी आने लगे। लेटेस्ट ट्रेंड युवाओं, महिलाओं और प्रोफेशनल्स का है।
सेहत का हाल
पहले तुलसी, नीम, हल्दी और फिटकरी जैसी घरेलू चीजों से हर बीमारी का इलाज हो जाता था। अब एम्स में भी लंबी कतार है। पहले मलेरिया और हैजा जैसी बीमारी का नाम सुनकर भी डर लगने लगता था। अब एड्स, कैंसर के ही न जाने कितने रूप पनप चुके हैं। फास्ट फूड खाते-खाते डायबिटीज और मोटापे की समस्या आईं और स्टेटस सिंबल बन गईं। कसरत धीरे-धीरे जिम में बदल गई। अब सफाई ज्यादा है, पर हम बीमार जल्दी पड़ते हैं। मिट्टी में खेलकर बड़े होने वाले मिट्टी में कीटाणु बताने लगे।
फिल्म और टीवी का क्रेज
पहले 'राजा हरिशचंद्र', 'उपकार', 'पूरब और पश्चिम' जैसी फिल्में थीं। लोग परिवार के साथ 'जय मां संतोषी' फिल्म देखने जाते थे और टॉकिज के बाहर चप्पलें उतारते थे। आज 'भूत', 'डर', 'अज्ञात' फिल्में देखने के लिए दोस्त या प्रेमिका के साथ मल्टीप्लैक्स में जाते हैं और हाथों में होता है- पॉपकार्न का पैकेट। पहले हीरो 'लार्जर देन लाइफ' हुआ करता था। अब फिल्म का कोई भी किरदार हीरो बनकर सामने आ सकता है। फिल्में सच्चाई के ज्यादा करीब बनने लगी हैं। 'हम लोग', 'बुनियाद', 'मुंगेरीलाल के हसीन सपने' हकीकत में बदलकर 'सच का सामना' और 'राखी का स्वयंवर' जैसे रिएलिटी शो के रूप में लोगों को मनोरंजन (?) कर रहे हैं। बीच में सास-बहू मार्का सीरियल्स, लॉफ्टर शोज और पैसा बनाओ शोज ने भी लोगों को बांधे रखा। दूरदर्शन पर खबरें देखने वालों को 'अब तक' चाहिए। सैटेलाइट चैनल्स और एफएम बिना किसी नियंत्रण के ऊलजलूल तरीके से सब कुछ दर्शकों को दिखा रहे हैं। वाकई सब कुछ...
पैसे की माया
पहले रूपए-पैसे का सारा हिसाब-किताब घर के बड़े करते थे। आज बच्चों का भी बैंक में अकाउंट खुला है। पहले पैसा जमा कराने के लिए डाकघर में लाइन लगती थी। अब थोड़ा सा पैसा पास में आते ही शेयर बाजार की तरफ भागते हैं। पहले लोग कहते थे कि ज्यादा पैसा जेब में नहीं होना चाहिए, कोई चुरा लेगा। आज प्लास्टिक के क्रेडिट कार्ड में लाखों रुपए घुस गए हैं। गली-गली में एटीएम हैं। हां, नकली नोट भी आसानी से मिल जाएंगे। सारे लेन-देन ई... ई... ईलेक्टोनिक हो गए हैं। पहले लोग ताजा माल के लिए दूसरे शहर भी चले जाया करते थे। अब आलम यह है कि जेब भरकर मॉल में घुसो और पाउच और सैशे में सामान घर ले आओ। नकली-असली कोई नहीं देखता। दवा से लेकर दारू तक कुछ भी नकली हो सकता है। पहले सेठ-साहूकारों से मुश्किल से पैसा मिल पाता था, अब आपको पैसा देने के लिए सब तैयार हैं। चारों तरह लोन मिल रहा है। हां, वसूली का ध्यान रखिएगा...
फैशन और सफरकी चाहत
पहले शादी-समारोह में ही अच्छे कपड़े पहने जाते थे। आज सोते समय भी स्टाइलिश ट्राउजर चाहिए। महिलाएं सोलह शृंगार का मतलब ज्यादा गोरा होने से लगा रही हैं। पहले कपड़ों से संस्कृति झलकती थी और आज नाभि। 'मोटा पहनो' अब 'पारदर्शी पहनो' में बदल चुका है। अब मन की सुंदरता की जगह तन की चमक को तरजीह दी जाती है। बैलगाडिय़ों के बाद जब शुरू में रेलगाड़ी आई, तो उसमें बैठने से लोग कतराते थे, आज हम मेट्रो ट्रेन में लटकर सफर करने को तैयार हैं। बीच में 'हमारा बजाज' के चलते सबको स्कूटर रास आने लगे। समय के साथ हाई-फाई मोटरबाइक्स और कारें आईं। अब लोगों को नेनो का शगल है। पर फिर भी लोग एक दूसरे से मिलने से कतराते हैं। मोबाइल फोन झूठ बोलने का साधन बन चुका है।
-आशीष जैन
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