30 January 2009

जिंदगी कभी रिटायर नहीं होती



रिटायर्ड लोगों को नौकरी मुहैया कराने की मुहिम में जुटे बुजुर्ग पानगड़िया दंपती।


'छह महीने पहले की ही तो बात है, जब हमें बुजुर्गों को नौकरी दिलाने के लिए वेबसाइट बनाने का आइडिया आया। शुरू में लगा कि कैसे यह सब होगा। पर हमने पहल की और देखिए हम सफल रहे। आज हम लगभग 750 बुजुर्गों को नई नौकरी दिला चुके हैं।' यह पंक्तियां पढ़कर आपको लगकर रहा होगा कि हम उत्साह से लबरेज किन्हीं युवाओं की बात कर रहे हैं। जी नहीं, यह जोश तो पानगड़िया दंपती की बातों में नजर आता है। जयपुर निवासी 61 साल के रवि पानगड़िया अपनी 59 साल की पत्नी आशा के साथ मिलकर रिटायर्ड हो चुके लोगों को रोजगार दिलाने की मुहिम में लगे हुए हैं। वे http://www.jobsretired.com/ नाम की एक वेबसाइट का खुद संचालन कर रहे हैं और इसकी मदद से बुजुर्गों की क्षमता के मुताबिक उन्हें मनमाफिक काम मुहैया करा रहे हैं। नौकरी के दौरान ही रवि और आशा को पता लग चुका था कि आने वाला समय कंप्यूटर और इंटरनेट का होगा। धीरे-धीरे उन्होंने इंटरनेट पर समय बिताना शुरू कर दिया और इस पर महारत हासिल कर ली।


स्थायी संपर्क इंटरनेट


1970 में इंजीनियरिंग पास कर चुके रवि बताते हैं, 'साल 2006 में भिलाई में एच ई जी लिमिटेड कंपनी से सीनियर वाइस प्रेसीडेंट के पद से रिटायर होने के बाद जयपुर आ गया। यहां आकर मैंने मैनेजमेंट कंसलटेंसी शुरू करने की कोशिशें की। पर इस काम में मुझे लगभग दो महीने लग गए और काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। उस वक्त मुझे लगा कि अगर मुझ जैसे रिटायर्ड आदमी को इतनी परेशानी आई हैं, तो मेरे जैसे और बुजुर्गों को भी काम-धंधे ढूढ़ने में परेशानी आती होगी। तब मैंने 1 जनवरी, 2008 को स्थानीय अखबार में बुजुर्ग लोगों से नौकरी के लिए बायोडाटा मांगे और साथ ही कंपनियों से भी आग्रह किया कि उन्हें किस तरह के लो लोग चाहिए।' शुरुआत तो रवि कर चुके थे। बुजुर्गों का गजब का रिस्पॉन्स देखकर आशा और रवि को लगा कि वाकई बुजुर्ग उनके इस आइडिया को पसंद कर रहे हैं। अभी भी रिटायर्ड लोगों को काम की तलाश है। दोनों ने ठान लिया कि अब तो आगे की जिंदगी अपने जैसे बुजुर्गों को काम दिलाने में ही गुजारेंगे। धीरे-धीरे पानगड़िया दंपती बुजुर्गों के लिए नई आस बन गए। बुजुर्गों को नौकरियां भी मिलने लगीं। पर अखबार में बार-बार महंगे विज्ञापन देने का आर्थिक भार बहुत था। साथ ही बुजुर्गों और कंपनियों से संपर्क बनाए रखना कठिन काम था। ऐसे में उन्होंने सोचा कि किस तरह लोगों से स्थायी संपर्क साधा जाए। इंटरनेट से तो रवि और आशा दोनों वाकिफ थे ही, इसलिए दोनों ने सोच-विचाकर अपने परिचित मित्र से एक वेबसाइट बनाने की गुजारिश की और 30 जून, 2008 को रवि ने 'जॉब्सरिटायर्ड डॉट कॉम' नाम की एक वेबसाइट शुरू कर दी। फिर तो पानगड़िया दंपती को सारी समस्याओं से निजात मिल गई।


कोई फीस नहीं


पिताजी बी. एल. पानगड़िया के नाम पर स्थापित ट्रस्ट 'बी.एल. पानगड़िया मेमोरियल ट्रस्ट' इस वेबसाइट को मैनेज करता है। वेबसाइट को अपडेट करने के काम में पानगड़िया दंपती माहिर है। जब कोई बुजुर्ग इस वेबसाइट पर जाता है, तो निशुल्क लॉग इन करके खुद के बारे में मांगी गई जानकारियां भर सकता है। इसी तरह कंपनियां भी लॉग इन करके अपने यहां खाली पड़ी नौकरियां और इच्छित योग्यता भर देती हैं। दंपती कंपनियों को अपने पास आए आवेदनों को भेज देती हैं और इस तरह बुजुर्गों को नौकरियां पाने के लिए एक मंच मिल जाता है। जो लोग कंप्यूटर से पूरी तरह परिचित नहीं हैं, उनके लिए वेबसाइट में ईमेल की भी सुविधा है। काम के लिए अधिकतर आवेदन रिटायर्ड सरकारी और बैंक कर्मचारियों की तरफ से आ रहे हैं। आशा बताती हैं, 'वेबसाइट बनाने के बाद अब लोग आसानी से दुनिया के किसी भी हिस्से से नौकरी के लिए आवेदन कर सकते हैं। अब हमसे हर तरह के रिटायर्ड प्रोफेशनल संपर्क कर रहे हैं। वेबसाइट पर नौकरी के लिए जो पहला आवेदन आया था, वह आयकर विभाग के रिटायर्ड चीफ कमिश्नर का था।' इस काम के बारे में रवि बताते हैं, 'नौकरी दिलाने के इस काम में हालांकि 'हैल्पएज इंडिया' नौकरी चाहने वाले बुजुर्गों का संपर्क हमसे करवाता है। पर आर्थिक रूप से हम किसी से मदद नहीं ले रहे हैं। नौकरी लेने और देने वालों से हम किसी तरह का कोई पैसा नहीं लेते। वेबसाइट से पूरे देश के बुजुर्ग देश में हर जगह नौकरियां पा रहे हैं।' अपने आगे की योजना के बारे में आशा का कहना है, 'अभी देश में बुजुर्ग कंप्यूटर और इंटरनेट से पूरी तरह परिचित नहीं हुए हैं। ऐसे में हम रिटायर्ड लोगों को कंप्यूटर साक्षर बनाने की योजना बना रहे हैं।'


-आशीष जैन

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22 January 2009

जीने की राह


प्रयास
कुआ नया-नया ही बना था। पनिहारिन ने पानी भरने के लिए कुए की जगत पर घड़ा रखा, तो वह लुढक़ने लगा। कुए की जगत पर लगा हुआ पत्थर हंसा और घड़े को बेपेंदे का कहकर उसकी खिल्ली उड़ाने लगा। घड़ा चुप रहा। लगातार कुछ दिन घड़ा उस जगह पर रखते-रखते वहां पर एक गोल गड्ढा सा बन गया। अब घड़ा स्थिर रखा जाने लगा। तब घड़े ने पत्थर से कहा- 'देख भाई पत्थर! मैंने निरंतर प्रयास से अपने कोमल अंगों की ही रगड़ से तुम्हारे कठोर शरीर में भी अपने लिए स्थान बना लिया।'
भाग्यवान
एक बूढ़ा किसी ठूंठ के नीचे बैठा सर्दी में सिकुड़ रहा था। पेड़ पर ऊपर की ओर दृष्टि डाली तो लगा कि वह भी उसी की तरह बूढ़ा हो गया है। बूढ़े ने अपने विगत वैभव की गाथा गाई और पेड़ के साथ सहानुभूति व्यक्त करते हुए कहा- तुम्हें भी मेरी ही तरह भाग्य ने सताया है न? ठूंठ ने कहा- मैं तुम्हारे जैसा दुखी नहीं हूं। बसंत निकट आ रहा है। मैं उसी की सुखद कल्पना में खोया रहता हूं और खुश रहता हूं कि न जाने कितने और बसंत देखने मेरे भाग्य में बदे हैं। मेरे भाग्यवान होने को धन्यवाद दो और अपने बीते हुए समय की चिंता मत करो।
- आशीष जैन

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16 January 2009

आने वाला कल हमारा है

गणतंत्र के साठ साल पूरे होने को हैं, इस दौरान बहुत कुछ बदला, लेकिन औरतों के लिए जिंदगी फिर भी दुश्वार बनी रही। इसके बावजूद किरण बेदी हताश नहीं हैं। वे कहती हैं, 'मुझे पूरा भरोसा है कि आने वाला वक्त हम महिलाओं का ही है। चाहे कितनी बाधाएं आएं, हम हार मानने वाली नहीं हैं। मैं पूरे देश की महिलाओं को यकीन दिला देना चाहती हूं कि वे जिस शिद्दत से अपने-अपने कामों को अंजाम दे रही हैं, उसकी बदौलत आने वाला वक्त हमारी मुट्ठी में होगा।'

मैं शुरू से मानती रही हूं कि महिलाओं को दबाकर रखा गया है। समाज ने हमेशा कोशिश की है कि महिलाएं घर-परिवार तक ही सीमित रहें, पर हमने कभी हार नहीं मानी। इसी का नतीजा है कि अब महिलाओं की स्थिति में बदलाव साफ नजर आने लगा है। देश के कई हिस्सों में जाने पर मुझे पता लगता है कि गरीब से गरीब महिला में भी संघर्ष करने का गजब का हौसला है। वे बिना किसी मदद के आगे बढ़ रही हैं। पति, भाई या पिता के साथ की दरकार अब उन्हें नहीं रह गई है। वे अपनी आर्थिक स्वतंत्रता के लिए छोटे-छोटे काम कर रही हैं। अपना परिवार चला रही हैं। छोटी-छोटी बचत करके भविष्य के सपने भी संजो रही हैं। कुछ सालों पहले मेरे सामने शारदा नाम की एक ऐसी महिला का केस आया, जो दस बच्चों की विधवा मां थी। उसका बेटा अपराधी बन गया था। पर उसने कड़ी मेहनत की और बहुत अच्छे से बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी निभाई। मैं मानती हूं कि एक शारदा अगर ऐसा कर सकती है, तो देश की दूसरी 'शारदाएं' भी मुसीबतों के पहाड़ के आगे सिर नहीं झुकाएंगी।
हालात पहले से सुधरे
लेकिन महिलाओं पर होने वाले जुल्मों में कमी नहीं आई है। आज भी वे पति, जेठ, सास या आस-पास वालों की क्रूरता का शिकार बनती हैं। अब महिलाओं की सोच में बदलाव जरूर आया है। पहले महिलाओं को सिखाया जाता था कि वे पुरुषों की ज्यादतियां सहने के लिए ही हैं। पर अब गरीब, दलित और आदिवासी महिला भी अपने पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ आवाज बुलंद कर रही है। ऐसा नहीं है कि मेरे साथ कभी ज्यादतियां नहीं हुई, पर मैंने इनसे घबराई नहीं, इनका डटकर सामना किया। मैंने क्रेन बेदी पुकारे जाने से लेकर तिहाड़ जेल के सुधारों तक, कभी हालात से समझौता नहीं किया बल्कि उन्हें बदलने में जी-जान से जुटी रही। मैंने पुलिस की नौकरी छोड़ी ताकि लोगों से सीधे तौर पर जुड़ सकूं। हालात पहले से सुधरे हैं। पर हमें और भी आगे जाना है।
अब हम मजबूर नहीं हैं
मैं देखती हूं कि देश की बेटियां पढ़-लिख कर अपनी मांओं के अधूरे सपने पूरे करना चाहती हैं। अब वे कॅरियर के लिहाज से कोई भी निर्णय लेने से नहीं हिचकतीं। सेना हो या साइंस का क्षेत्र, हर जगह उन्होंने खुद को साबित कर दिया है। उन्हें बहुत कम अवसर मिले, पर उन्हीं चंद मौकों से उन्होंने अपनी किस्मत संवारी। नारी ने जता दिया कि अब उनकी पहचान सिर्फ चूड़ी-बिंदी या चूल्हे-चौके तक ही सीमित नहीं रह गई है। उनकी खुद की अलग पहचान है। आंचल अब घर-परिवार के छोटे-से आंगन से बाहर निकलकर आसमान में परचम की मानिंद फहरा रहा है। मेरे टीवी शो 'आपकी कचहरी' में महिलाएं अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों के बारे में खुल कर बोल रही हैं। आज की नारी ज्यादा मुखर हो गई है। हाल के घरेलू हिंसा कानून के तहत महिलाओं ने खुलकर अपनी परेशानियां पुलिस को बताई हैं। अब पुरुषों को एकबारगी सोचने पर विवश होना पड़ा है कि वे कहां तक सही हैं?
आज की नारी मेरा आदर्श
मेरे मन में अक्सर यह सवाल आता था कि आखिर महिलाएं परेशानियों के आगे खुद-ब-खुद घुटने क्यों टेक देती हैं? पर अब हालात बदले हैं। वे हर समस्या पर सोचने लगी हैं। उन्होंने घर-परिवार के साथ-साथ खुद के लिए जीना सीख लिया है। आज की नारी बेटियों की शिक्षा-दीक्षा में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहती।शुरू में लोग कहते थे कि आप देश की लड़कियों के लिए आदर्श हैं। पर आज की महिलाओं के जज्बे को देखकर वे मुझे खुद का आदर्श नजर आने लगी हैं। आज देश के सर्वोच्च पद पर महिला आसीन है। कई काम जिनको करने में पुरुष भी हिचकते हैं, उन्हें महिलाएं बखूबी अंजाम दे रही हैं। यह कमाल आगे भी होता रहेगा और जल्द ही ऐसा समय आएगा, जब महिलाओं के ऊपर से बेबसी का ठप्पा पूरी तरह से हट जाएगा।
-किरण बेदी (लेखिका, देश की पहली महिला आईपीएस अफसर हैं।)
प्रस्तुति- आशीष जैन

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सहना मुझे मंजूर नहीं

गणतंत्र दिवस के मौके पर यह जानना दिलचस्प रहेगा कि संविधान बनने के बाद देश की आधी आबादी के हितों के लिए क्या कानून बने हैं और उन्हें अमल में कैसे लाया जाए?

घरेलू हिंसा अधिनियम 2005-
अगर महिला के घर पर उसे शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है, तो उसे घरेलू हिंसा माना जाएगा।
- गाली-गलौच, मारपीट, ठीक से भोजन न देना, मानसिक रूप से परेशान करना भी घरेलू हिंसा में शामिल है।
- इस कानून में महिला किसी महिला के खिलाफ शिकायत दर्ज नहीं करा सकती है। यह कानून पुरुष प्रताड़ना से संरक्षण देता है।
- धारा 12 के मुताबिक विवाहित या अविवाहित महिला घर पर प्रताड़ित महसूस करने पर मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रार्थना पत्र प्रस्तुत कर सकती है। मजिस्ट्रेट उसे घर में रहने की व्यवस्था के निर्देश दे सकता है। घर के सदस्यों को भरण-पोषण के लिए निर्देश दिए जा सकते हैं।
- महिला अगर शादीशुदा है, तो पति, देवर या ससुर के खिलाफ शिकायत कर सकती है।
- अगर वह अविवाहित है, तो भाई या पिता की प्रताड़ना के खिलाफ शिकायत कर सकती है।
- अगर प्रताड़ना के मामले में घर वाले मजिस्ट्रेट के आदेश की पालना नहीं करते हैं, तो वह एक साल तक की सजा और बीस हजार रुपए तक का जुर्माना कर सकता है।
हिंदू विवाह अधिनियम 1955-
धारा 24 के मुताबिक पति-पत्नी के बीच न्यायालय में कोई विवाद लंबित हो, तो पत्नी पति से मासिक भरण-पोषण की मांग कर सकती है। न्यायाधीश तय करता है कि पति को कितना पैसा पत्नी को देना चाहिए।
- धारा 25 के अनुसार अगर पति-पत्नी के बीच विवाह विच्छेद का फैसला लागू हो जाता है, तो उस समय या बाद में पत्नी को एक मुश्त भरण-पोषण पाने का अधिकार है।
- महिला पारिवारिक न्यायालय, जिला न्यायाधीश के सामने एक प्रार्थना पत्र प्रस्तुत करके भरण-पोषण की मांग कर सकती है।
- महिला का पर-पुरुष के साथ संबंध होने या पति के परित्याग करने पर वह भरण-पोषण की अधिकारी नहीं रह जाती।
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956-
पिता की पैतृक संपत्ति में लड़कियों की लड़कों के बराबर हिस्सेदारी होती है।- लड़की का ससुराल जाने पर भी पिता की संपत्ति पर अधिकार है।
- अगर लड़की के पति की मृत्यु हो जाए, तो वह अपने पिता से भी भरण-पोषण की मांग कर सकती है।
- अगर महिला अवयस्क है और पति जिंदा है, पर पति किसी वजह से पत्नी का भरण-पोषण नहीं कर पाए, तब भी अपने पिता से भरण-पोषण की मांग कर सकती है।

-धारा 14 के तहत हिंदू महिला के पास खुद की कोई संपत्ति है, तो वह पूर्ण रूप से उसकी ही संपत्ति होगी। महिला की संतान खुद इस संपत्ति की मांग नहीं कर सकती।
हिंदू दत्तक भरण-पोषण अधिनियम 1956-
धारा 8 के मुताबिक कोई भी वयस्क और स्वस्थचित्त हिंदू महिला किसी भी बच्चे को गोद ले सकती है। महिला का शादीशुदा होना जरूरी नहीं है।
- अगर महिला किसी लड़के को गोद लेती है, तो लड़के की उम्र महिला से 21 साल कम होनी चाहिए।
- गोद लेने वाली महिला के पास पहले से कोई जीवित संतान नहीं होनी चाहिए।
- अगर किसी के पास इकलौती संतान है, तो उसे गोद नहीं ले सकते।
-अगर महिला विवाहित है, तो उसके पति की सहमति जरूरी है।
- बच्चे को गोद देने व लेने वाली महिला के बीच स्टांप पेपर पर एक गोदनामा तैयार किया जाता है।
- हर जिले में मौजूद रजिस्ट्रार कार्यालय में जाकर गोदनामे को पंजीकृत करवाना जरूरी है।
दहेज निषेध अधिनियम 1961-
सिंध लेती-देती एक्ट 1949 को लागू करने के पीछे दहेज की प्रथा को रोकना ही था।
- धारा 3 के अनुसार अगर कोई दहेज के लेन-देन में लिप्त पाया जाता है, तो उन्हें पांच साल तक की सजा और15 हजार रुपए तक का जुर्माना हो सकता है।
- धारा 4 के मुताबिक अगर कोई दहेज की मांग करता है, तो मजिस्ट्रेट दो साल तक की सजा और दस हजार रुपए तक का जुर्माना कर सकता है।
-आशीष जैन(राजस्थान उच्च न्यायालय के एडवोकेट भरत सैनी से बातचीत के आधार पर)

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09 January 2009

उम्र जुदा, जज्बा एक

सिक्कों की खनक से लेकर सितारों की चमक तक, हर जगह भारतीय मूल की महिलाएं छाई हुई हैं। 52 वर्षीय मंजु गनेरीवाला से लेकर 18 साल की नंदिनी शर्मा का जज्बा अपने सपनों को साकार करना है।



अभी आसमां बाकी है

भारतीय मूल की मंजु गनेरीवाला बनीं अमरीका के वर्जीनिया राज्य की वित्त मंत्री।अब तक वे वर्जीनिया के गर्वनर को बजट तैयार करने, राजस्व का अनुमान लगाने, ऋण जारी करने जैसे कामों में सलाह देती रही हैं। ये हैं भारतीय मूल की मंजु गनेरीवाला। उन्हें अमरीका के वर्जीनिया राज्य का वित्त मंत्री (टे्रजरर) बनाया गया है। वे जुलाई 1985 से राज्य सरकार के साथ काम कर रही हैं। जून 2000 से जनवरी 2006 तक उन्होंने मेडिकल असिस्टेंस सर्विसेज विभाग में वित्त और प्रशासन के लिए बतौर डिप्टी डायरव्क्टर अपनी सेवाएं दीं। 2006 से वे वित्त विभाग में उपमंत्री के पद पर थीं। जनवरी 2009 से वे वर्जीनिया राद्गय के ट्रेजरी बोर्ड के अध्यक्ष के रूप में काम करेंगी। इसके तहत उनके पास 8 से 10 बिलियन डॉलर के निवेश और प्रबंधन की जिम्मेदारी रहेगी। उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती वित्तीय विश्लेषण और प्रबंधन के मामले में अमरीका के सबसे बेहतरीन राज्य वर्जीनिया के वर्चस्व को बनाए रखना है।

यादों में बसा है मुंबई

मंजु का जन्म महाराष्ट्र के अकोला में हुआ और मुंबई में पली-बढ़ीं। वडाला के छोटे से स्कूल से वर्जीनिया की वित्त मंत्री बनने तक का सफर काफी उतार-चढ़ाव से भरा था। मंजु ने यूनिवर्सिटी ऑफ बॉम्बे से वाणिद्गय से स्नातक किया है। इसके बाद उन्होंने आस्टिन स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास से एमबीए की डिग्री हासिल की। उनका पैतृक घर राजस्थान के झुंझुनू और ससुराल फतेहपुर में है। मुंबई में शिवाजी पार्क स्थित उनके घर में पिता राधेश्याम अग्रवाल और माता कलावती उनकी इस उपलब्धि से बेहद खुश हैं। मां कलावती कहती हैं कि पहले मंजु डॉक्टर बनना चाहती थी, पर घर के बड़े लोगों ने इसके लिए अनुमति नहीं दी। पर आज वह काफी अच्छी जगह पर है। मुंबई के बारे में खुद मंजु का कहना है कि मेरे बच्चे अक्सर मुझसे पूछते हैं, 'मुंबई से आपको इतना लगाव क्यों है? आप बार-बार मुंबई जाने की बात क्यों कहती हैं?' तो मेरा एक ही जवाब होता है कि मुंबई की गलियों में खेल-कूद कर ही मैंने बचपन गुजारा है और उस जगह को मैं ताउम्र नहीं भूल सकती।
प्राथमिकता कॅरियर को

मंजु के पिता राधेश्याम बताते हैं, 'वह हमेशा से ही अपने कॅरियर को प्राथमिकता देती आई है। सिर्फ हाउस वाइफ बनकर वह जिंदगी बसर नहीं करना चाहती थी। मेडिक्लेम पॉलिसीज के फंड जुटाने के छोटे से काम से शुरुआत करके आज वह इस पद तक पहुंची है।' मंजु के पति सूरी ने भी आस्टिन में यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास से पीएचडी की है। वे 'स्पैक्ट्रा क्विस्ट' के मालिक हैं। यह कंपनी मशीनों में आने वाली खामियों का पता लगाने के लिए विशेषज्ञ इंजीनियरों के लिए तकनीक विकसित करती है। 1976 में वह शादी करके अमरीका चली गई थीं। 52 वर्षीय मंजु के दो बेटे हैं। बड़ा बेटा राकेश अमरीकी सेना में लेफ्टिनेंट है और इराक से 15 महीनों के सैन्य अभियान से लौटा है। दूसरा बेटा ऋषि अभी यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन में इंजीनियरिंग का स्टूडेंट है।

नभ में चमकता नन्हा सितारा


भारतीय मूल की अमरीकी छात्रा नंदिनी शर्मा के नाम पर रखा गया है एक ग्रह का नाम।वे एक नन्हा सितारा बनकर चमकने को तैयार हैं। जी हां, सचमुच का सितारा। भारतीय मूल की अमरीकी छात्रा नंदिनी शर्मा के नाम पर एक ग्रह का नाम '23228 नंदिनी शर्मा' रखा गया है। मूलतः असम की नंदिनी को यह सम्मान इंटेल इंटरनेशनल के 'विज्ञान औप इंजीनियरिंग मेले 2007' में माइक्रोबॉयलोजी प्रोजेक्ट के लिए विजेता बनने पर दिया गया है। इस ग्रह की खोज अमरीका की लिंकन लैब नियर अर्थ एस्टेरॉइड रिसर्च टीम ने 21, नवंबर 2000 में की थी।


उड़ान ऊंची है

नंदिनी अभी हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से मोलिक्यूलर बॉयलोजी की पढ़ाई कर रही हैं। वह विज्ञान और इंजीनियरिंग मेले में 2005 से 2007 तक तीन बार विजेता रह चुकी हैं। विज्ञान संबंधित खोजों, बायोमेडिकल और कैंसर के क्षेत्र में उन्होंने कई रिसर्च की हैं। नंदिनी की ख्वाहिश है कि वह माइक्रोबॉयलोजी के क्षेत्र में ही अपने शोध कार्य जारी रखें। वे अभी स्वास्थ्य से जुड़ी जोखिमों का हल निकालने के लिए शोध कार्य कर रही हैं। उनका शोध प्राकृतिक फूड के प्रिजरवेशन पर आधारित है। अपने शोध से उन्होंने इस बात को साबित किया है कि अदरक को कृत्रिम फूड प्रिजरवेटिव्स के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। 18 वर्षीय नंदिनी अभी असम के बारपेटा जिले के पाठशाला में अपने दादा-दादी से मिलने आई हैं। पिता गिरीश शर्मा अमरीका की एक कंपनी में मुख्य वैज्ञानिक के पद पर नियुक्त हैं। वह अमरीका के कानसास के ओवरलैंड पार्क में पिता गिरीश शर्मा, मां मीनाक्षी और भाई अरूप के साथ रहती हैं।
शौक हैं कई

धाराप्रवाह स्पेनिश भाषा बोलने वाली नंदिनी को टेनिस खेलने का शौक है। उन्हें संगीत से बहुत प्यार है। छह साल की उम्र से वह पियानो बजा रही हैं और इससे संबंधित कई प्रतियोगिताएं भी जीत चुकी हैं। साथ ही साथ सात साल की उम्र से वह नृत्य का अभ्यास भी कर रही हैं। भरतनाट्यम और असम के लोकप्रिय बीहू नृत्य में उनकी खासी दिलचस्पी है। वह समाज सेवा के लिए एक स्वयंसेवी संगठन 'आईईओपी' भी बना चुकी हैं।





-आशीष जैन

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मैं हूं नीलगगन की रानी


रंग-बिरंगी पतंगों में न जाने क्या जादू है? जी चाहता है कि पतंगबाजी के गुर जिंदगी में भी समा जाएं, तो क्या खूब रहे।
दुबले-पतले से रहमान चाचा, हमारे लिए पतंगों के सौदागर हैं। दिनभर लगे रहते हैं कांच के चूरे को डोर पर घिसने में। कागज के रंग-बिरंगे टुकड़ों को बारीक सी सींक से सहारा देकर आकार देते हैं उड़ान की परी पतंग को। ये कागज के चंद टुकड़े ही उनकी संतान हैं। पान तारा, चांद तारा, चिरैया, बेगम और कनकौवा, न जाने कितनी सारी पतंगें हैं उनके पास। किसी डोर को सद्दा बना दिया, तो किसी पर मेहनत कर उसे मांझे में ढाल दिया। उनके घर की चूल्हे की परवाह ये पतंगें ही तो करती हैं। हम सब घेरे रहते हैं उन्हें मुफ्त का मांझा पाने को। चाचा बताते हैं कि बच्चों, इन कागज के टुकड़ों को यूं ही न समझना, इन में भी रूह समाई रहती है। इस रूह को तसल्ली तभी मिलती है, जब ये हवा में पहुंचती है और झूमकर आसमान पर राज कर लेती है। चाचा की असल मेहनत रंग लाती है मकर संक्रांति के दिन।

मांझे में लिपटा मन
'चलो, भई राजू, गीता, छुटकी। सब चढ़ जाओ अपनी-अपनी अटरिया पर। ले आओ चकरी। मांझे की चकरी, सद्दे की चकरी और पतंगों का ढेर। हो जाओ जंग के लिए तैयार। आज तो बिल्लू को मजा चखाकर रहेंगे। कमबख्त ने पिछली बार मांझा दोहरा करके पतंग काटी थी ना, इस बार मजा चखाएंगे उसे।' कुछ-कुछ इसी तरह की आवाजें हर छत से आने लगती। हम जब छत पर पतंग उड़ाने चढ़ते, तो एक बात ठान लेते कि चाहे हम पतंग काटें या अपनी कटे, शोर खूब मचाना है। अलसुबह की हमारी धमाचौकड़ी के बीच बाबूजी की कुछ हिदायतें हमारे साथ होती, 'मुंडेर पर मत चढ़ जाना। सूरज सिर पर चढ़ जाए, तो नीचे आ जाना।' पर हमारी अक्ल में कुछ भी नहीं घुसता। पतंग की कन्नी बांधते वक्त ही लगने लगता कि देखते हैं इस पतंग की किस्मत में क्या लिखा है? क्या यही पतंग हमारी फतह का सेहरा लेगी या यह भी औरों की तरह निराश करव्गी। धीरे-धीरे जब छुटकी जिसे हम प्यार से मोटा बुलाते थे, हमारी पतंग को छुट्टी देती, तो पतंग ऊपर चढ़ने लगती और हम सबकी सांसें थम जाती। मन में बस एक ही बात रहती कि किसी भी तरह बस जीतना है। ढील से या खींच से, बस सामने वाले को धूल चटानी है। पहले-पहल हम सब मस्तमौला होकर पतंग उड़ाते थे। पतंगबाजी भी कोई कला है, इससे नावाकिफ। पर फिर चाचाजी ने समझाना शुरू किया, 'अगर आसमान पर खुद की पतंग को ही इतराते देखना है, तो कुछ पैंतरे सीखने होंगे। झुकना भी होगा। हवा के रुख को पहचान कर सही समय का इंतजार करना होगा। मांझा कितना ही अच्छा हो, इतराना मत। कुछ देर हवा के साथ बहना। लहरने देना और जब सामने वाला ज्यादा ही सीना ताने तो बस दिखा देना कि तुम क्या हो।' चाचाजी की ये बातें इंसानी जिंदगी पर भी लागू की, तो सौ फीसदी सही लगी। हां, खींच के नियम के लिए जान चाहिए, हाथों और फेफड़ों में। थोड़ी सी हड़बड़ी की, तो मांझे से हाथ में खून भी आ सकता है भई। चाहे हम बिल्लू को हराने की कितनी ही कोशिश करते, पर कभी उसकी तरह मांझे को दोहरा नहीं करा और न ही मांझे पर गांठें लगाईं। कई बार पतंगों पर पैबंद भी लगाए, पर उनकी उड़ान में कभी आड़े नहीं आए।
...वो कटवाया
कभी-कभी दूसरों की इठलाती पतंगों को देख मन में खयाल आता कि धोखा देकर नीचे से हथ्था मार दूं और उसकी पतंग को चित्त कर दूं। पर दूसरे ही पल मन कहता कि मजा तो सामने जाकर ललकारने में ही है। इसमें भी कोई शान है कि सिर्फ जीतने के लिए गलत पैंतरों का इस्तेमाल करूं। पतंग कटने के बाद अक्सर हम सब चकरी दोनों हाथों में लेकर अपने ही तरीके से गोल-गोल घुमाकर डोर समेटने लगते। पर धीरे-धीरे पतंगबाजी को जाना, तो उसूल समझ में आया कि हार को भी स्वीकार करना होगा, पेंच में अगर खुद की पतंग कट गई, तो खुद की हाथों से तोड़ दो डोर को। चंद पैसों की डोर को समेटकर अपनी हार के एहसास को ज्यादा मत करो। जीतने पर तो 'वो काटा' सभी कहते हैं पर 'वो कटवाया' कहकर हार को भी पूरी शान से मानो। पतंग हमेशा मुझसे कहती कि छुटकू, तुम भी चाहते हो ना कि बिना रोक-टोक के हमेशा आगे बढ़ते रहो, तो एक बात गांठ कर रख लो कि जैसे मैं हवा और डोर की मदद लेकर संतुलन साधती हूं, तुम्हें भी दुनिया में सबका साथ लेकर खुद को साधना है। आज भी मैं खूब पतंग उड़ाता हूं। पतंगों के संसार में मुझे अपने मन की उड़ान नजर आती है। याद आती है पतंग की तरह जोश के साथ पूरे होश से उड़ने की बात। हां, जिंदगी की टेढ़ी-मेढ़ी राहों में कभी-कभी लगता है कि मेरी पतंग ही सबसे ऊपर हो, सबसे शानदार पतंग, तो मैं हथ्था देता हूं या अपने मांझे को दोहरा कर दूसरों की पतंगों की राह में आडे़ आता हूं, धोखे से आगे बढ़ने की सोचता हूं, तो पतंगों के सबक को याद करके खुद को संभाल लेता हूं और निकल पड़ता हूं अपनी नई उड़ान की ओर।
- आशीष जैन

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05 January 2009

तन चंगा कठौती में गंगा

हमें नहीं भूलना चाहिए कि स्वास्थ्य केवल साधन है कोई साध्य नहीं।
- स्वामी विवेकानंद
जिस कारण से देह बिगड़ी हो उससे बिल्कुल उल्टा रहन-सहन रखने से प्रकृति का संतुलन लौट आता है।
- नेपोलियन बोनापार्ट
अच्छा स्वास्थ्य और अच्छी समझ जीवन के दो सर्वोत्तम वरदान हैं।
- साइरस
स्वास्थ्य परिश्रम में है और श्रम के अतिरिक्त वहां पहुंचने का कोई दूसरा शाही रास्ता नहीं है।
- वेंडेल फिलिप्स
स्वास्थ्य रूपी घर को स्थिर रखने के लिए उसके तीनों पाए- आहार, स्वप्न, ब्रह्मचर्य ठीक-ठाक रहने चाहिए।
- अज्ञात
अच्छी हंसी और गहरी नींद डॉक्टरों की किताब में सबसे अच्छा उपचार हैं।
-आयरिश कहावत

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02 January 2009

जीने की राह संयम



घटना 1914 की है। वैज्ञानिक टॉमस अल्वा एडीसन की प्रयोगशाला और कारखाना धू-धू कर जल रहा था। उसकी लपटें आकाश छूने की होड़ कर रही थीं। एडीसन उन लपटों में अपनी आशाओं को जलता देख रहे थे। पास ही उनका बेटा खड़ा था। इस भयंकर अग्निकांड को देखकर वह भी स्तब्ध रह गया।बुजुर्ग एडीसन ने अपने युवा पुत्र से कहा, 'देखते क्या हो? जाओ, अपनी मां को बुला लाओ। उससे कहना कि जीवन में फिर कभी ऐसा दृश्य देखने को न मिलेगा।कुछ देर बाद उनकी पत्नी भी आ गई। उसने कहा, 'बीस लाख डॉलर के कीमती यंत्रों के साथ आपने ताउम्र जो सृजन किए, उनके संपूर्ण कागजात भी तो इसी प्रयोगशाला में थे, वे भी अग्नि को समर्पित हो गए। अब क्या होगा?' एडीसन बोले, 'पहले तो ईश्वर को धन्यवाद दो कि हम सबकी भूलें भी इसमें जलकर राख हो गई हैं। अब हम नए सिरे से अपना काम शुरू करेंगे। प्रत्येक हानि भी तो अपने साथ कुछ न कुछ लाभ छिपाकर लाती है।'एडीसन ऐसे सहज रूप से उन अग्निकांड को देखते रहे जैसे उनका उससे कोई सरोकार ही नहीं।यही मनोवृत्ति जीवन के हर बदलते मोड़ पर हो, तो खिन्नता का कोई कारण शेष नहीं रह सकता।

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