02 January 2009

जीने की राह संयम



घटना 1914 की है। वैज्ञानिक टॉमस अल्वा एडीसन की प्रयोगशाला और कारखाना धू-धू कर जल रहा था। उसकी लपटें आकाश छूने की होड़ कर रही थीं। एडीसन उन लपटों में अपनी आशाओं को जलता देख रहे थे। पास ही उनका बेटा खड़ा था। इस भयंकर अग्निकांड को देखकर वह भी स्तब्ध रह गया।बुजुर्ग एडीसन ने अपने युवा पुत्र से कहा, 'देखते क्या हो? जाओ, अपनी मां को बुला लाओ। उससे कहना कि जीवन में फिर कभी ऐसा दृश्य देखने को न मिलेगा।कुछ देर बाद उनकी पत्नी भी आ गई। उसने कहा, 'बीस लाख डॉलर के कीमती यंत्रों के साथ आपने ताउम्र जो सृजन किए, उनके संपूर्ण कागजात भी तो इसी प्रयोगशाला में थे, वे भी अग्नि को समर्पित हो गए। अब क्या होगा?' एडीसन बोले, 'पहले तो ईश्वर को धन्यवाद दो कि हम सबकी भूलें भी इसमें जलकर राख हो गई हैं। अब हम नए सिरे से अपना काम शुरू करेंगे। प्रत्येक हानि भी तो अपने साथ कुछ न कुछ लाभ छिपाकर लाती है।'एडीसन ऐसे सहज रूप से उन अग्निकांड को देखते रहे जैसे उनका उससे कोई सरोकार ही नहीं।यही मनोवृत्ति जीवन के हर बदलते मोड़ पर हो, तो खिन्नता का कोई कारण शेष नहीं रह सकता।

इससे जुड़ीं अन्य प्रविष्ठियां भी पढ़ें


No comments:

Post a Comment