30 December 2009

2010 की गजब गर्मी-बरसात

नया साल हो सकता है, अब तक का सबसे गर्म साल।
ब्रिटेन के मौसम विभाग की बात पर यकीन करें, तो 2010 में औसत वैश्विक तापमान नई ऊंचाइयों को छू सकता है। इसके पीछे वे अलनीनो का हाथ बताते हैं। अलनीनो मौसम संबंधी परिस्थिति है, जिसकी वजह से प्रशांत महासागर का तापमान बढ़ जाता है। वैज्ञानिकों के मुताबिक 2010 में 1998 के सबसे गर्म साल का रिकॉर्ड टूट सकता है। गौरतलब है कि अभी तक 1998 दुनिया में सबसे गर्म साल रहा था।

अब नए शोध बता रहे हैं कि 1860 से अब तक सबसे ज्यादा तापमान 2010 में दर्ज किया जा सकता है। उनके मुताबिक औसत तापमान 0.6 डिग्री तक बढऩे की संभावना है। हाल ही कोपेनगेहन में संपन्न हुए जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में भी इस शोध को पेश किया गया था। इसके साथ ही एक मजेदार बात यह भी है कि जहां साल 2010 के सबसे गर्म साल होने की संभावना जताई जा रही है, वहीं यह साल दुनिया का सबसे ज्यादा बरसात वाला साल भी हो सकता है क्योंकि गर्मी से ज्यादा आद्र्रता पैदा होगी, जिसकी वजह से बरसात भी ज्यादा होगी ।

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कितने-कितने नए साल!

हमारे देश में हर राज्य और समुदाय के लोग अपना-अपना नया साल मनाते हैं। एक नजर।

-हिंदुओं का नया साल 'नव संवत्सर' चैत्र शुक्ल प्रतिप्रदा में पहले नवरात्र से शुरू होता है।
-मुसलमानों का नया साल 'हिजरी' मोहर्रम महीने की पहली तारीख से शुरू होता है।
-बहाई धर्म का नया साल 'नवरोज' 21 मार्च से शुरू होता है।
-जैन धर्म का नया साल 'वीर निर्वाण संवत' दीपावली के अगले दिन से शुरू होता है।
-पंजाबी नया साल 'बैसाखी' 13 अप्रैल को मनाया जाता है।
-सिख नानकशाही कैलेंडर के अनुसार नया साल 'होला मोहल्ला' 14 मार्च को होता है।
-तमिलनाडु और केरल में नया साल 'विशु' 13 और 14 अप्रेल को मनाया जाता है।
-कर्नाटक में नया साल 'उगाड़ी' चैत्र माह के पहले दिन मनाया जाता है।

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क्या साल है भाई!

साल नया आने वाला है, पर पुरानी आदत बदली नहीं है। नया कै लेंडर हाथ में आया नहीं कि छुट्टियों की लिस्ट बनाने लगे। कब किस दिन क्या त्योहार है, अभी से नोट कर रहे हैं। एक नजर फरमाइएगा-

26 जनवरी- रविवार
होली- रविवार
15 अगस्त- रविवार
दशहरा- रविवार
दीपावली- रविवार
चौंक गए ना। जनाब इस साल सारे बड़े उत्सव और त्योहार संडे को हैं, तो मारी गई न आपकी बेशकीमती छुट्टियां। क्या कहा, मजा नहीं आया? चलिए, जनाब काम करिए, कंपनी बोनस दे सकती है।

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इस साल को मैं क्या नाम दूं?

जब नई सदी आने वाली थी, तो दुनिया ने साल 2000 को नया नाम दिया था- वाई टू के। अब आने वाले साल 2010 को भी स्टाइलिश बनाने की कोशिश की जा रही है। इंटरनेशनल कार कंपनियां 2010 को क्रिकेट के मिनी संस्करण ट्वेंटी-ट्वेंटी की तर्ज पर ट्वेंटी टेन कहकर विज्ञापन प्रसारित कर रही हैं।

मीडिया से जुड़े लोगों का मानना है कि ट्वेंटी टेन में एक नयापन है और यह लोगों की जुबान पर जल्द ही चढ़ जाएगा। वहीं कुछ का मानना है कि टू थाउजेंड टेन भी बुरा नहीं है। हिंदी भाषी लोग भी 'बीस-दस' और दो हजार दस में से एक को चुनने के बारे में सोच रहे हैं। अब आप तय कर लें कि 2010 को आप क्या कहकर पुकारेंगे?

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पर्सनेलिटी मायने रखती है

नए साल पर आप चाहते हैं कि आप सब जगह छा जाएं, तो गौर करें पर्सनेलिटी से जुड़ी इन बातों पर।

1. बॉडी लैंग्वेज- पर्सनेलिटी निखारना चाहते हैं, तो सबसे जरूरी है बॉडी लैंग्वेज पर ध्यान देना। अगर आप किसी के सामने हाथ बांधकर बैठें, तो यह आपकी असहमति दर्शाता है। पैरों को एक के ऊपर एक रखने से भी बचें। बातचीत करते समय सामने वाले व्यक्ति से आई कॉन्टेक्ट रखें। चेहरे के हावभाव और हाथों की मुद्राओं का भी ध्यान रखें।

2. ड्रेसिंग सेंस- परिधान पर्सनेलिटी का अहम हिस्सा होते हैं। मौके के हिसाब से कपड़े पहनें। शादी और पार्टी में तड़क-भड़क वाले कपड़े पहन सकते हैं, पर ऑफिस में फॉर्मल ड्रेस ही पहनें। कपड़े चाहे ब्रॉन्डेड न हों, पर साफ-सुथरे और प्रेस किए होने चाहिए। पैंट इतनी लंबी जरूर हो कि मोजे नजर न आएं। शर्ट के ऊपर के बटन खोलकर रखना भी आपकी गलत छवि पेश करता है।

3. वे ऑफ टॉकिंग- अपनी बातचीत में किसी को नीचा दिखाने से बचें। इसकी बजाय लोगों की छोटी-छोटी बातों पर तारीफ करना सीखें। बोलने के बेहतर तरीके में सबसे जरूरी है ध्यान से औरों की बातें सुनना। किसी की बात को बीच में न काटें। इससे आपकी पर्सनेलिटी का गलत असर पड़ता है। शब्दों का सही उच्चारण करें और तकियाकलाम से बचें।

4. हेयर स्टाइल- हेयर स्टाइल आपकी पर्सनेलिटी को उभार सकती है। बालों की सही देखरेख करें। जल्दी-जल्दी बालों की लुकिंग चेंज न करें। बालों की किसी अच्छे तेल से नियमित मालिश जरूर करें। ड्रेंडफ और बाल टूटने की समस्या पर समय रहते ध्यान जरूर दें। लोगों के सामने बालों में ज्यादा हाथ न फेरें।

5. शूज- किसी इंसान की पर्सनेलिटी का पता सबसे पहले शूज से ही चलता है। अगर आपने शूज पॉलिश नहीं किए हैं, तो इससे गलत इम्प्रेशन जाता है। स्पोर्टी शूज और लैदर शूज को भी जगह के हिसाब से ही पहनना चाहिए। गल्र्स हर तरह के शूज ट्राई करती हैं, पर अपने शरीर और जरूरत के मुताबिक ही शूज चुुनने चाहिए।

6. एटीट्यूड- आपका नजरिया हमेशा पॉजिटिव होना चाहिए। इससे लोगों के सामने अपनी अच्छी छवि बनेगी। लोग आपसे मुलाकात का मौका तलाशेंगे। पर ध्यान रखें, कभी भी अपने एटीट्यूड को लोगों पर थोपने की कोशिश न करें। एटीट्यूड में लोगों की मदद, सही मौका तलाशना और लक्ष्य पर नजर रखना भी शामिल होता है।

7. वॉलेट या पर्स- आपका पर्स आपकी जरूरत के मुताबिक होना चाहिए। ज्यादा महंगा या दिखावटी पर्स अपनी जेब में न रखें। पर्स ऐसा होना चाहिए, जिसमें नकदी के अलावा छोटे-मोटे सामान रखने की जगह मौजूद हो।

8. गॉगल्स- आजकल गॉगल्स फैशन में हैं। पर आपको हमेशा अपने चेहरे के आकार के हिसाब से ही गॉगल्स खरीदने चाहिए। ये आपकी पर्सनेलिटी को उभारते हैं। अगर आपकी आंखों में कुछ खराबी है, तो फैशनेबल चश्मों से बचना चाहिए। सनग्लासेज और नंबर ग्लासेज को अपनी जरूरत के हिसाब से पहनना चाहिए।

9. एक्सेसरीज- आप किस तरह की एक्सेसरीज इस्तेमाल करते हैं, इससे भी आपकी पर्सनेलिटी का पता लगता है। मोबाइल फोन सस्ता हो सकता है, पर अपनी पसंद के फीचर्स के साथ आप सहज हैं, तो ये भी आपकी पर्सनेलिटी को चमका सकता है। इसी तरह आपकी कलाई पर चमकती सुंदर घड़ी भी दूसरों पर आपका प्रभाव डालेगी।

10. टाइम सेविंग- अगर आप काम के समय पर गप्प हांकते हैं, तो लोगों पर आपकी पर्सनेलिटी का गलत इम्प्रैशन पड़ता है। काम के समय और मस्ती के समय मस्ती, यही आपका जीवनमंत्र होना चाहिए। टाइम के मुताबिक चलने से लोग आपकी कद्र करेंगे।

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23 December 2009

बाइबिल यानी आधुनिक मैनेजमेंट बुक


प्रभु यीशु धरा पर आए और पूरी दुनिया में प्रेम, शांति और भाईचारे का संदेश दिया। बाइबिल में उन्होंने जो संदेश हमारे लिए छोड़े हैं, वे बड़ा गहरा अर्थ रखते हैं। जिंदगी को खुशनुमा और सफल बनाने की आधुनिक मैनेजमेंट बुक है बाइबिल। इसमें कही गई बातों को आज के संदर्भ में देखा जाए, तो पता लगेगा कि सकारात्मक चिंतन की बैस्ट बुक है बाइबिल।

खुद की पहचान करें
ईश्वर ने हम सबको कोई न कोई काम अच्छी तरह से करने की योग्यता दी है। (रोमन्स, 12:6, टी.एल.बी)
हर्मन मेलविल कहते हैं, 'नकल करके सफल होने से ज्यादा अच्छा यह है कि मौलिक बनकर असफल हो जाएं।' सही बात है कि जब हम किसी दूसरे जैसा बनने की कोशिश करते हैं, तो हमारे दूसरे स्थान पर ही रहते हैं। अगर हमें आदर्श स्थिति पर पहुंचना है, तो खुद अपना रास्ता बनाना होगा। आम लोग लीक से हटकर चलने की बजाय भीड़ के साथ ही चलना पसंद करते हैं। प्रभु यीशु ने लोगों को दया और प्रेम का संदेश देने का निश्चय किया और वे इसमें सफल ही रहे। सही बात है कि अगर मैं अपने स्वरूप को ही कायम नहीं रख पाऊंगा, तो मेरी पहचान क्या होगी? दोस्तो, ईश्वर ने आपको बनाया है और अगर वह आपसे संतुष्ट है, तो आपको भी संतुष्ट होना चाहिए।

कर्म में यकीन करें
काम करने से अमीरी आती है, बातें करने से गरीबी आती है। (प्रोवब्र्स 14:23, टी.एल.बी)
जॉर्ज वाशिंगटन कार्वर कहते हैं, 'निन्यानवें फीसदी मामलों में वही लोग असफल होते हैं, जिनमें बहाने बनाने की आदत होती है।' हम में से ज्यादातर लोग काम करने की बजाय बहाने बनाते हैं। इस वजह से वे असफल हो जाते हैं। फिल. 2:14-15, टी.एल.बी में लिखा है, 'चाहें आप कोई भी काम करें, शिकायत करने और बहस करने से बचें, ताकि कोई आपके खिलाफ एक शब्द भी न बोल पाए।' ईश्वर के सामने बहाने चलते भी नहीं है। ईश्वर सिर्फ आपके काम को देखता है। अगर आप कर्म करेंगे, तो फल जरूर मिलेगा। जो व्यक्ति काम की बजाय सिर्फ बोलने में यकीन करता है, वह कभी भी ईश्वर का प्रिय नहीं हो सकता। ईश्वर और भाग्य को खुश करने का सबसे अच्छा है- काम करना।

दूसरों की मदद करें
और जो भी आपको एक मील चलने के लिए मजबूर करे, उसके साथ दो मील आगे तक जाएं। (मैथ्यू 5:41)

हमें पाने से पहले देना होता है। जीवन में सफलता का सबसे आसान तरीका है कि आप दूसरों को दें। आपकी की गई मदद आपके पास लौटकर आती है। ईसामसीह का कहना है कि जो व्यक्ति दयालुता के बीज बोता है, उसे लगातार फसल मिलती रहती है। प्रोवब्र्स 11:17 में लिखा है, 'जब आप दयालु होते हैं, तो आपकी आत्मा को पोषण मिलता है। जब आप क्रूर होते हैं, तो यह नष्ट हो जाती है।' दूसरों के लिए आपके बोले प्रशंसा के दो शब्द बहुत मूल्यवान होते हैं। इसमें कुछ भी खर्च नहीं होता है। ईश्वर दयालु और दाता है, उसकी तरह बनें और सबका भला करें। इससे आपकी जिंदगी में पहले से बेहतर होने लगेगी।

आलोचना से न घबराएं
अगर आप उपहास उड़ाने वाले को बाहर निकाल देंगे, तो आप तनाव, लड़ाई और झगड़े से मुक्त हो जाएंगे। (प्रोवब्र्स 22:10, टी.एल.बी.)
डेल कारनेगी ने कहा है, 'कोई भी मूर्ख आलोचना कर सकता है, बुराई कर सकता है और शिकायत कर सकता है और ज्यादातर मूर्ख यही करते हैं।' काम की आलोचना करना उसे करने से हजार गुना ज्यादा आसान काम है। हमें इससे बचना चाहिए। सभी प्रगतिशील लोगों में एक खास बात होती है कि आलोचना उनकी तरफ खिंची चली आती है। ऐसे में घबराना बेकार है। अगर आप कुछ नया करते हैं, तो लोग बातें बनाने लगते हैं। उन्हें लगता है कि यह इंसान कैसे बंधे-बंधाए नियमों को तोड़ सकता है। खुद को बड़ा बनाएं और किसी के आलोचक न बनें और न ही खुद की आलोचना से दुखी हों।

ईष्र्या न करें
आरामदेह नजरिया व्यक्ति के जीवन को लंबा करता है, ईष्र्या इसे कम करती है। (प्रोवब्र्स 14:30, टी.एल.बी.) ईश्वर के हम सब की दौड़ निश्चित कर रखी है। अगर हम दूसरों की गति को परखने लगेंगे, तो हम खुद गिर जाएंगे। चाल्र्स कोल्टन ने कहा है, 'सभी भावनाओं में ईष्र्या सबसे कठोर सेवा करवाती है और सबसे बुरी तनख्वाह देती है।' आपकी जिंदगी बेशकीमती है, इसमें दूसरों के पास मौजूद चीजों की चाहत में बर्बाद नहीं करना चाहिए। ईष्र्या की बजाय जीवन में प्रेम पैदा करना चाहिए। जोश बिलिंग्स ने कहा है, 'प्रेम दूरबीन से देखता है और ईष्र्या माइक्रोस्कोप से देखती है।' ईष्र्या की बजाय जब इंसान दूसरों की खुशियों में अपनी खुशी खोजने लगता है, तो उसका जीवन सुखद बन जाता है।
धन्यवाद दें
उन सब चीजों के लिए खुश हों, जो ईश्वर आपको देने की योजना बना रहा है। मुश्किलों में धैर्य रखें और हमेशा प्रार्थना करें। (रोमन्स 12:12 टी.एल.बी)
आज के दिन धन्यवाद देने के लिए सौ चीजें खोजें। जीवन में कृतज्ञता का भाव रखने से जीवन सरल बन जाता है। हमें ईश्वर ने खुशियों से भरा जीवन जीने के लिए हर जरूरी चीज दी है। इनका आनंद उठाना सीखें। महत्वपूर्ण चीज यह है कि जो चीजें आपको हासिल हुई हैं, उन्हें आप अपने कर्मों का नतीजा मानते हैं या ईश्वर की नियामतें। ईश्वर की नियामतों के लिए उसे धन्यवाद दें और उससे प्रार्थना करें, 'हे ईश्वर, आपने मुझे इतना कुछ दिया है, मुझे एक चीज और दें- कृतज्ञ हृदय।'
-प्रस्तुति: आशीष जैन

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रुई के फोए पर खेलता तन-मन


आसमान से नर्म बर्फ रूई के फोए की मानिदं गिरी... किसी ने उनके गोले बनकर अपने दोस्तों पर फेंके, तो कुछ उन पर अठखेलियां करने लगे। यहीं से जन्म हुआ स्नो गेम्स का। खेलने वालों के साथ-साथ अगर देखने वालों को भी ठंड में तपिश का सा एहसास होने लगे, तो इसे कहिए बर्फीली खेलों का जादू।

सर्दी का मस्ताना मौसम अपने पूरे शबाब पर है। ठंडी-ठंडी हवा बह रही है। ऐसे में क्यों न कहीं सैर पर निकल चलें। अब कोई बहाना नहीं चलेगा, न सर्दी का और न जुकाम का। भई सर्द माहौल में मौसम का लुत्फ उठाने के साथ-साथ अब स्नो गेम्स की आपका इंतजार कर रहे हैं। कभी सफेद चादर सी जमी बर्फ, तो कभी रुई के गोले की तरफ फुसफुसी बर्फ... इस बर्फ पर आज तरह-तरह के गेम्स खेले जाते हैं। आइस स्केटिंग, स्कीइंग, स्लेडिंग और स्नोमोबाइल तो बानगीभर है। एक बार बर्फीली वादियों में घूमने निकल पडि़ए और बर्फ के हर टुकड़े के साथ स्नो गेम्स में शिरकत लीजिए, आपको लगेगा कि हरे मैदानों की बजाय ठंडे माहौल में खेल की ऊर्जा को महसूस करना वाकई एक नया रोमांचक अनुभव है।
लुत्फ आइस स्केटिंग का
आइस स्केटिंग का सीधा सा मतलब है- आइस स्केट्स की मदद से बर्फ पर चहलकदमी करना। ये आइस स्केट्स एक खास तरह के जूते होते हैं, जिनसे जुड़ी ब्लेड्स आपको बर्फ पर दौडऩे में मदद करती है। कुछ लोगों के लिए आइस स्केटिंग तफरीह का साधन है, तो कुछ के लिए पर्यटन तो कुछ इसकी मदद से तरह-तरह के खेल खेलते हैं। जमी हुई झील या नदी पर स्केटिंग करना का जो मजा है, वह शब्दों में बयां करना बेहद मुश्किल है, दोस्तो।
ऊर्जा से भरे ठंडे खेल
स्केटिंग का सबसे ज्यादा मजा बंडे, आइस हॉकी, रिंगगेट्टे जैसे खेलों में आता है। बर्फ पर खेले जाने वाले इन बेहद रोमांचक खेलों में स्टिक्स की मदद से विपक्षी टीम के खिलाफ गोल दागने होते हैं। बंडे खेल फुटबॉल जैसा ही होता है। हर टीम के पास ग्यारह खिलाड़ी होते हैं, जिनमें से एक खिलाड़ी गोलकीपर होता है। इस खेल में गेंद को विपक्षी टीम के गोलपोस्ट में डालना होता है। 45-45 मिनट के दो हॉफ में चलने वाले इस खेल का रोमांच देखते ही बनता है। आइस हॉकी की बात करें, तो इसमें गेंद की बजाय पुक (डिस्क) होती है। दोनों टीमें इस पुक को विपक्षी टीम के गोलपोस्ट में पहुंचाने की कोशिश करती हैं। इसमें हर टीम में पांच स्केटर्स और एक गोलकीपर होता है। आइस हॉकी का खुमार यूं तो पूरी दुनिया पर चढ़ा हुआ है, पर खासतौर पर यह कनाडा और रूस जैसे देशों में बेहद मशहूर है। वहीं रिंगगेट्टे ज्यादातर महिलाएं खेलती हैं, इसमें एक रबड़ की गेंद को स्टिक की मदद से गोलपोस्ट में पहुंचाया जाता है। इसमें भी हर टीम के पास छह खिलाड़ी होते हैं।
डांस का चांस
स्केटिंग के माहिर लोग झुंड बनाकर प्राकृतिक बर्फ पर लंबी सैर के लिए निकल जाते हैं और इसे जुबान देते हैं, ट्यूर स्केटिंग की। यह चलन स्वीडन, फिनलैंड और नार्वे में बड़ी तेजी से बढ़ रहा है। स्केटिंग की सबसे मशहूर विधा है फिगर या आर्टिस्टिक स्केटिंग। बर्फ के कोर्ट पर जब युगल हाथों में हाथ लेकर चारों ओर घूमते हैं, तो वाकई अद्भुत नजारा होता है। उनका फुटवर्क देखकर उंगलियां दांतो तले पहुंचने लगती हैं। युगल मस्ती में सराबोर होकर बर्फ पर झूमते जाते हैं और दर्शकों की तालियां हॉल में गूंजने लगती हैं। संगीत की लय पर शरीर के लोच के साथ महीनों की प्रेक्टिस इस खेल में खुद-ब-खुद नजर आती है। यह ओलंपिक खेल है, जिसे अकेले, युगल या समूह के साथ प्रदर्शित किया जाता है। इसी के मिलती-जुलती स्केटिंग है, सिंक्रेनाइज्ड स्केटिंग। इसमें 8 से लेकर 20 युवक या युवतियां अनुशासन और लयबद्ध तरीके तेज गति से बर्फ पर अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। बर्फ पर खुद को साधकर लोगों का मनोरंजन करना वाकई श्रमसाध्य काम है।
बर्फ पर तैरता शरीर
बर्फ पर सैर करने का मन कर रहा है, तो स्कीस की मदद से बढ़ जाइए अपने सफर पर और इसे नाम दीजिए स्कीइंग का। आज स्कीइंग बर्फ के खेलों की एक मशहूर विधा बन चुकी है। स्कीस में बूट्स के साथ जुड़े हुए स्की होते है, जिनकी मदद से बर्फ पर कदम रखते ही लगता है, मानो आसमान में तैर रहे हों। स्कीइंग कई तरह की हो सकती है, जैसे- डाउनहिल स्कीइंग, फ्री स्टाइल स्कीइंग, स्की जंपिंग। डाउनहिल स्कीइंग में बर्फ से ढकी चोटी पर पहुंचकर उन्मुक्त भाव से चोटी की हर ऊंचाई से गहराई तक को नापा जा सकता है। इसके लिए खास हैलमेट और पोल्स की भी जरूरत होती है। पोल्स की मदद से स्कीयर को जमीन की सतह पर सहारा मिल जाता है। सबसे खास होती है फ्री स्टाइल स्कीइंग। इसके लिए आपको खास अभ्यास की दरकार होती है। चोटी पर जाकर स्कीज की मदद से शरीर को बैलेंस करते हुए तरह-तरह की आर्ट पेश की जाती है। हवा में लहरते हुए बदन को सर्किल बनाना, पैरों और हाथों को कलात्मक अंदाज में पेश करना ठंडे माहौल में गर्माहट पैदा कर देता है। स्की जंपिंग में उड़ान भरने के करतबों को अंजाम दिया जाता है और हवा में ऊंचे से ऊंचा पहुंचाता है। यह विंटर ओलंपिक खेलों का हिस्सा भी है।
एहसास भुलाए ना भूले
स्लेड राइडिंग में एक वाहन या ऐसा यंत्र होता है, जिसकी मदद से आप आइस ट्रेक पर आप सैर करते हैं। अपने साथी के साथ इस पर बैठकर बर्फीली एहसास का मजा आपने अगर एक बार ले लिया, तो ताउम्र नहीं भूल पाएंगे। स्कीबोबिंग में स्की के पहियों की बजाय एक साइकिलनुमा फ्रेम होता है, जिसकी मदद से बर्फीली रास्ते तय करने का मजा लिया जाता है। इसी तरह स्नोमोबाइल में बर्फीले रास्तों की लंबी दूरी तय करने के लिए यह व्हीकल होता है, इसमें बैठने के लिए कुर्सी की तरह जगह होती है।
गेम्स ऑन, विंटर गोन
देश के हिल स्टेशनों पर सर्दी के महीनों में बर्फ पडऩे लगती है और समां बड़ा सुहाना हो जाता है। देश में स्नो गेम्स के लिए दीवानगी तो है, पर इसके लिए उन महीनों का इंतजार करना पड़ता है, जब माहौल पूरा बर्फ से ढका रहता हो। गुलाबी ठंड के बीच कश्मीर, श्रीनगर, गुलमर्ग, औली जैसी जगहें स्नो गेम्स के लिए सबसे अच्छी हैं। हिमालय की वादियों में बर्फ से लदी ऊंची-ऊंची चोटियों पर पेशवर खिलाडिय़ों के हैरतंगेज खेलों को देखने के लिए पूरे देश से पर्यटक पहुंचते हैं। बादल, झरने और हरियाली के बीच अगर स्नो गेम्स का मजा नहीं लिया जाए, तो लगता है कि यात्रा अधूरी रह गई है। बर्फ के पहाड़ों को रूई का ढेर मानकर उसमें मस्ती करने का मौका भला कौन छोडऩा चाहेगा, तो हो जाइए तैयार ऊर्जा से लबरेज ठंडे सफर के लिए। हमारे देश में हिमालय की गोद में बसी एक जगह है औली। यहां मशहूर स्कीइंग प्रशिक्षण संस्थान हैं। यहां से सीखे हुए लोग विश्व स्कीइंग प्रतियोगिता के लिए क्वालीफाई करते हैं।यहां की परिस्थितियां और ढलान स्नो स्कीइंग के लिए आदर्श हैं। गौरतलब है कि औली में स्कीइंग के लिए मुफीद एशिया की सबसे बड़ी ढलान है। गुलमर्ग, रोहतांग पास, मनाली और कुल्लू की ढलानें भी स्कीइंग के शौकीनों के लिए सबसे उपयुक्त हैं।
-आशीष जैन

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20 December 2009

अगले जन्म मोहे बिटिया ही कीजो

नन्ही कली खिलना चाहती है। अगर आपने इसे बढऩे में मदद की, तो ये फूल बनकर फिजां में खुशबू बिखेरा करेगी। वाकई निराली हैं हमारी बेटियां। एक बेटी ही बहन है, पत्नी है, जननी है और परिवार को जोड़कर रखने वाली डोर भी। एक मायने में सृष्टि की सृजनकर्ता हैं बेटियां... ये बेटियां ममता की मूरत हैं। इनकी उपलब्धियां असीम हैं। जीवन को अमृत तुल्य बनाने वाली इन बेटियों को इतना लाड़ और प्यार दो कि हर लड़की की जुबान पर यही बात हो... अगले जन्म मोहे बिटिया ही कीजो।

जिस घर में लड़कियां हैं, पूरे घर में आपको प्यारी-सी महक मिलेगी। एक अनोखी किस्म की नजाकत और नफासत, जिसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है। बेटियां घर को सजाती है, संवारती है और घर को संबंधों की ऊर्जावान डोर में बांध लेती हैं। बेटियां परिवार के लिए लक्ष्मी हैं। वे चाहे जहां रहें, हमेशा परिवार की चिंता उन्हें सालती रहती है। देश के विकास में अगर बेटियों का योगदान देखें, तो पता लगेगा कि आजादी और आजादी के बाद हर मोर्चे पर बेटियों ने अपना हुनर दिखाया है। लड़कियों ने आसमान से लेकर समंदर की गहराइयों तक सफलता का परचम लहराया है। आज भी घर के बड़े-बुजुर्ग कहते हैं कि लड़कियां जिस घर में पैदा होती है, वहां बरकत आती है।
इन्हें देखकर लगता है कि कुदरत ने सारी ममता बेटियों की झोली में डाल दी है। आज भी समाज में ऐसी कई बेटियां हैं, जिन्होंने समाज और दुनिया के लिए खुद को जोखिम में डाला। सानिया मिर्जा और कल्पना चावला के पिता से बात करके देखिए, बेटियों के कमाल की बदौलत आज इनके परिवार को फख्र है।
कौन लेगा जिम्मेदारी?
पंजाब जाकर देखिए, यह राज्य आज बहनों के लिए तरस रहा है। राखी के दिन वहां हजारों लड़कों की कलाइयां सूनी रहती हैं। कारण साफ है। पंजाब में लड़कियों की तादाद तेजी से घटती जा रही है। कन्या भ्रूण हत्या का ग्राफ बढ़ता जा रहा है। नई रिपोट्र्स पर विश्वास करें, तो देश में कन्या भू्रण हत्या तेजी से बढ़ रही है। अब वो दिन दूर नहीं, जब आपको नवरात्रों पर जिमाने के लिए कन्या कहीं नजर नहीं आएंगी। बढ़ती कन्या भ्रूण हत्या के लिए अनपढ़ या पिछड़े लोगों की बजाय मॉडर्न और एजुकेटेड लोग ज्यादा जिम्मेदार हैं। उच्च मध्यवर्गीय परिवारों तक में लड़कियों को दोयम दर्जा दिया जाता है। अगर यह चलन जारी रहा, तो वो दिन दूर नहीं जब नारी जाति के अस्तित्व पर ही खतरा होगा। इंस्टीट्यूट ऑफ डवलपमेंट एंड कम्युनिकेशन (आईडीसी) के सर्वे से इस बात का खुलासा हुआ है कि कन्या भ्रूण हत्या में पढ़े-लिखे लोगों की संख्या ज्यादा है। संस्था के मुताबिक 2002 में लिंग निर्धारण टेस्ट करवाने वालों में स्नातक या इससे अधिक पढ़े-लिखे लोग 45 फीसदी थे, जो 2006 में बढ़कर 49.6 फीसदी तक पहुंच गए। अध्ययन बताते हैं कि जहां पढ़े-लिखे लोग भ्रूण हत्या के लिए आधुनिक तरीकों जैसे अल्ट्रासाउंड तकनीक आदि का इस्तेमाल करते हैं, वहीं ग्रामीण लोग कन्या जन्म के बाद ऐसा करते हैं।
प्रयास जरूरी
कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास किए जाने की जरूरत है। सामाजिक चेतना के लिए कई संस्थाएं सालों से काम कर रही हैं, पर नतीजे सामने हैं। बजाय इन सारी बातों के, हर परिवार को सोचना होगा कि बेटी का क्या मोल है? एक बेटी ही बहन है, पत्नी है, जननी है और एक मायने में सृष्टि की संचालक भी। हिमाचल सरकार की योजना काबिले तारीफ है। वहां पिछले दिनों 'बेटी अनमोल हैÓ अभियान चलाया गया, जिसमें जागरूकता जत्थे के लोगों ने घर-घर जाकर बताया कि यदि कन्या शिशु दर गिरती रही, तो आने वाले बरसों में लड़कियां ढूंढें नहीं मिलेंगी और समाज का संतुलन ही गड़बड़ा जाएगा। हालांकि हिमाचल प्रदेश का लिंगानुपात अन्य राज्यों की तुलना में ठीक है, लेकिन फिर भी आंकड़ों के मुताबिक 2019 में इस दर से तीन लड़कोंं पर एक लड़की और 2031 में सात लड़कों पर एक लड़की रह जाएगी। ऐसी सार्थक पहल को सभी राज्यों में अमल किया जाना चाहिए। सरकार और कानून को सबसे ज्यादा जोर तो इस बात पर देना चाहिए कि किसी तरह से महिलाओं की आबादी बनी रहे, नहीं तो अनर्थ होने में देर नहीं लगेगी।

शर्मसार करते आंकड़े
- देश में हर 29वीं लड़की जन्म नहीं ले पाती है, वहीं पंजाब में हर पांचवी लड़की का कोख में कत्ल हो जाता है।
- देश में हर 1000 पर 14 लड़कियां कम हो रही हैं, वहीं पंजाब में हर एक हजार पर 211 लड़कियां कम हो
रही हैं।
- इंस्टीट्यूट ऑफ डवलप मेंट एंड कम्युनिकेशन (आईडीसी) के सर्वे से इस बात का खुलासा हुआ है कि कन्या भ्रूण हत्या में पढ़े-लिखे लोगों की संख्या ज्यादा है। संस्था के मुताबिक 2002 में लिंग निर्धारण टेस्ट करवाने वालों में मैट्रिक से कम पढ़े-लिखे लोग 40 फीसदी थे, जबकि 2006 में यह घट कर 31.8 फीसदी रह गई। इसी तरह दसवीं से स्नातक के बीच शिक्षित 39 फीसदी लोगों ने जहां 2002 में लिंग निर्धारण टेस्ट करवाया था, वहीं 2006 में यह गिनती 32.9 फीसदी रह गई। इसके विपरीत 2002 में स्नातक या इससे अधिक पढ़े-लिखे लोग 45 फीसदी थे, जो 2006 में बढ़कर 49.6 फीसदी तक पहुंच गए।
- 2001 की जनगणना के मुताबिक देश में 1000 लड़कों पर 927 लड़कियां हैं।


मां को पुकार

क्या हो गया है देश की मांओं को? अपनी कोख में फूल-सी बेटी को जगह देकर क्यों उसका कत्ल करने को तैयार हो जाती है वो? लड़के की चाह में वो ये क्यों भूल जाती है कि वह भी तो औरत है? ममता की मूरत... जीवन को सींचने वाली औरत। फिर क्यों वह अपनी बिटिया को जन्म देने में कतराती है? क्यों कन्या भ्रूण हत्या करके वह अनगिनत अजन्मी बेटियों का श्राप ले रही है? दुनिया में महिला ही शायद एकमात्र ऐसी जाति हो सकती है, जो अपने जैसी किसी लड़की को जन्म देने से कतराने लगी है। देश की महिलाओं के लिए यह शर्म का विषय है कि वे कन्या भ्रूण हत्या पर अपनी मौन स्वीकृति देती आ रही हैं।
बेटी की पुकार
मां... तेरी कोख में रहकर मुझे लग रहा है कि तू मुझे जरूर जन्म देगी... मैं दुनिया में आना चाहती हूं... तेरी पनाह पाकर मैं दुनिया को दिखलाना चाहती हूं कि कन्या को श्राप समझने वाले लोग गलत हैं। मुझे पता है कि देश में करोड़ों लड़कियों को जन्म लेने से पहले ही मार दिया जाता है... पर अगर तू मुझे जन्म देगी, तो मैं एक लड़के से बढ़कर तेरे परिवार का नाम ऊंचा करूंगी। मां मैं कहना चाहती हूं कि अगर दुनिया में इसी तेज रफ्तार से कन्या भ्रूण हत्याएं होती रही, तो दुनिया का सौंदर्य ही खत्म हो जाएगा...

- आशीष जैन

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30 November 2009

रीता न जाए बचपन !

बच्चों के नाजुक हाथों को चांद-सितारे छूने दो,
चार किताबें पढ़कर वो भी हम जैसे हो जाएंगे...
निदा फाजली के इस शेर में आज की सच्चाई छुपी है। बच्चों के मन में छुपी कोमलता आज गायब है। भावनाओं की गगरी खाली होती जा रही है और उसमें जानकारी के कंकड़ बढ़ते जा रहे हैं। अब वे न चांद को मामा मानते हैं, न ही उन्हें घर के नीचे भूत नजर आता है और न ही बाबा ले जाएंगे की बात पर वे डरते हैं। उन्हें हर सच्चाई पता है। वे हर चीज को तर्क की तराजू पर तौल रहे हैं। यहां तक कि रिश्तों को भी। उन्होंने इंटरनेट पर बैठकर जमानेभर से जुडऩा तो सीख लिया, पर अपने दद्दू के पास दो पल बिताने की कला से वे अनभिज्ञ हैं, जिससे बातों-बातों में वे संस्कारों की घुट्टी पी सकें। सवाल उठता है क्या उनके इमोशंस को खत्म करके हम उन्हें इंटेलीजेंट कह पाएंगे?


'बचपन! बारिश की रिमझिम फुहारों-सा निर्मल, निश्छल , बहती नदी पर खेलती सूरज की ज्योतिर्मय किरणों- सा उज्ज्वल ... बर्फीली चादरों से ढके पर्वतों पर खिलने को आतुर नन्ही कली- सा बचपन।' आज यह बचपन कहीं गुम हो गया है। बच्चों को बड़प्पन की चादर ओढ़ा दी गई, धीर-गंभीर और श्रेष्ठता का चोला पहनते-पहनते बच्चे भूल गए हैं कि बचपना होता क्या है? आज के बच्चे बड़े सपने देखते हैं, पर आंगन में दौड़ती नन्ही गिलहरी की अठखेलियों को देखने का समय उनके पास नहीं है। वेे चांद को मामा नहीं मानते। वे कहते हैं, 'मुझे सब है पता मेरी मां!' जानकारियों के बोझ ने उनके जज्बात को लील लिया है। बच्चों को लगता है कि यही जिंदगी है। पर क्या सिर्फ नॉलेज के बल पर बचपन को संवारा जा सकता है या फिर अपने आस-पास की दुनिया से जुड़कर, कल्पनाओं को परवाज देकर, कुदरत के साथ समय बिताकर व्यक्तित्व का विकास किया जा सकता है।
क्या सिर्फ होशियारी चाहिए?
पिछले दिनों एक चैनल के किए गए सर्वे के नतीजों से पता लगता है कि आज बच्चों में समय से पहले ही एक खास तरह की समझ विकसित होती जा रही है। नई दिल्ली, मुंबई, बंगलौर, चेन्नई, कोलकाता, अहमदाबाद, हैदराबाद, लुधियाना, जयपुर, लखनऊ, गुवाहाटी, नासिक, इंदौर, कोच्चि और मदुरै समेत देश के तमाम बड़े शहरों के 4 से 14 साल की उम्र के बच्चों के बीच किए गए इस सर्वे में कई चौंकाने वाली बातें सामने आईं। सर्वे में हिस्सा लेने वाले 7 हजार से ज्यादा बच्चों को देश और दुनिया के बारे में महत्तवपूर्ण जानकारी थी। पहली नजर में यह चीज सबको अच्छी लग सकती है। आप और हम कह सकते हैं कि आज के बच्चे पहले से कहीं ज्यादा होशियार हो गए हैं। पर... इस बुद्धिमानी की वाहवाही के पीछे हम उनके बरबाद होते बचपन को नहीं देख रहे हैं। तभी तो सर्वे के दौरान 58 फीसदी बच्चों ने देश से गरीबी और भुखमरी दूर करने की चाहत जताई।
बच्चा होना अपराध नहीं!
जब बच्चों से सवाल किया गया कि 30 साल की उम्र तक वे क्या हासिल करना चाहेंगे, तो सबसे ज्यादा 90 फीसदी बच्चों ने सफल कॅरियर हासिल करने की बात कही। नतीजे बताते हैं कि बच्चे अपने कॅरियर का चयन काफी सोच-समझ कर करते हैं। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि डॉक्टर और मूवी स्टार में से चॉइस मांगने पर करीब 70 फीसदी ने डॉक्टर और सिर्फ 30 फीसदी ने फिल्म स्टार बनने की बात कही। इसी तरह लीडर और आर्मी में चॉइस मांगने पर एक तिहाई से भी कम बच्चों ने लीडर, तो दो तिहाई से ज्यादा ने आर्मी में जाने की बात कही। खास बात यह है कि लड़कियों में हाउस वाइफ बनने की कोई चाहत नहीं है। हाउस वाइफ और पाइलट में से चॉइस मांगने पर सिर्फ 12 फीसदी लड़कियों ने हाउस वाइफ बनने की बात कही।
अब अगर बच्चों को कोई बात समझाई जाए, तो वे कहते हैं, 'अब हम बच्चे नहीं है।' वे जल्द से जल्द बड़ा बनना चाहते हैं और मम्मी-पापा के सामने यह जताने की कोशिश करते हैं कि देखो, मॉम-डैड मैं बड़ा हो गया हूं। माता-पिता भी कहीं न कहीं चाहते हैं कि बच्चे जल्दी से बड़े होकर उनके सपनों को पूरा करने की रेस में शामिल हो जाएं।
कुदरत के करीब ले जाएं
आधुनिक दौर में बचपन सिकुड़ता जा रहा है। यह बच्चों की कंप्रेश्ड एज है। बॉयोलॉजिकली तो वे बच्चे ही हैं, पर उनकी मेंटली एज बढ़ती जा रही है। मीडिया और इंटरनेट से वे नित नई चीजें तेजी से सीख रहे हैं। पहले दसवीं कक्षा के बच्चे को जो चीजें पता होती थीं, वे चीजें आज चौथी क्लास के बच्चों को मालूम हैं। दरअसल पहले बच्चेे किताबों और घर के बड़े-बुजुर्गों से जानकारी हासिल करते थे। एकल परिवारों के चलते घरों में बुजुर्ग भी नहीं रहते और माता-पिता नौकरी के कारण घर से बाहर रहते हैं। ऐसे में बच्चा किताबों की बजाय टीवी और इंटरनेट से जानकारी हासिल करता है। इन सबका गहरा असर उन पर होता है। शारीरिक विकास के मुकाबले मानसिक विकास तेजी से होने पर उनमें टेंशन और अवसाद घर करने लगते हैं।
समाजशास्त्री डॉ. ज्योति सिडाना का कहना है, 'बच्चों को उनका खोया हुआ बचपन लौटाने के लिए कुछ खास कोशिशें करनी होंगी। इसके लिए स्कूलों के पाठ्यक्रम में बदलाव जरूरी है। तीसरी-चौथी क्लास में बच्चों को कंप्यूटर की जानकारी देने की बजाय उन्हें खेलना सिखाना चाहिए। उन्हें कुदरत के करीब स्वछंद छोड़ देना चाहिए। योग और एक्सरसाइज करवानी चाहिए, ताकि वे चीजों को बारीकी से समझ सकें और मशीनी न बनें। साथ ही उन्हें वीडियो गेम्स की बजाय कैरम, लूडो और पार्क में जाकर खेलने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए, ताकि उनमें सामाजिकता की भावना पनप सके।'
बोझ न बने जानकारी
अब जानकारी बच्चों के लिए बोझ बनती जा रही है। उनको अपनी क्रिएटिविटी दिखाने का ना तो समय मिल रहा है और ना ही मौका। धीरे-धीरे वे भूलते जा रहे हैं कि ये उनके खेलने-कूदने, सीखने-समझने और नादानी करने के दिन हैं। माता-पिता उन पर अपनी इच्छाएं थोपे जा रहे हैं। कंपीटीशन इतना है कि उन्हें किताबों के सिवा कुछ नहीं सूझता। इससे वे मशीनी जिंदगी जीने लगे हैं और उनका इमोशनल कोशेंट कम हुआ है।
मनोचिकित्सक आरके सोलंकी का मानना है, 'परिवार और सोसाइटी को बचपन पर बोझ लादने की बजाय उनके नैसर्गिक विकास में मदद करनी चाहिए। स्कूल भेजने की जल्दबाजी दिखाने की अपेक्षा पैरेंट्स को उनके साथ ज्यादा से ज्यादा समय गुजारना चाहिए। सामाजिक गतिविधियों में भाग लेने के लिए उन्हें प्रोत्साहित करना चाहिए। इससे बच्चे समाज में घुलना-मिलना सिखेंगे और उनका संतुलित विकास होगा।'
-आशीष जैन

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26 November 2009

हां, हम एचआईवी पॉजिटिव हैं

कौशल्या पेरियासामय पहली ऐसी हिंदुस्तानी महिला हैं, जिन्होंने पूरी दुनिया के सामने कबूला, 'हां, मैं एचआईवी पॉजिटिव हूं।' आज वे अपने जैसी हजारों महिलाओं के कारवां को साथ लेकर लड़ रही हैं, एड्स और एचआईवी पॉजिटिव के खिलाफ जंग।


'जब दर्द के लिए कोई भी दवा काम नहीं कर पाती, तो दुआएं असर करती हैं। आइए, हम सब मिलकर इन महिलाओं के दर्द को समझें, कोशिश करें कि इनका दर्द कम हो और कुछ नहीं कर सकते, तो कम से कम एचआईवी पॉजिटिव महिलाओं के लिए दुआ करें।' कौशल्या खुद एचआईवी पॉजिटिव हैं, पर अपने दर्द को भूलकर आज वे अपने जैसी हजारों महिलाओं की आवाज को बुलंद कर रही हैं। एचआईवी पॉजिटिव महिलाओं के लिए वे दवा और दुआ दोनों हैं। उनका कारवां बढ़ता जा रहा है। जब वे एड्स या एचआईवी के बारे में बोलती हैं, तो उनकी पीछे लगभग 7000 महिलाओं का हौसला बोलता है।

पति से मिला एचआईवी
कौशल्या पेरियासामय चेन्नई स्थित पॉजिटिव वुमंस नेटवर्क की अध्यक्ष हैं। 20 साल की उम्र में जब उनकी शादी हुई, तो वे आने वाली जिंदगी को लेकर काफी उत्साहित थीं। पर शायद भाग्य को यह मंजूर नहीं था। उनका पति एचआईवी पॉजिटिव था और किसी को इस बारे में खबर नहीं थी। 34 साल की कौशल्या पिछले दिनों को याद करते हुए बताती हैं, 'मेरी शादी के कुछ दिनों बाद मुझे पता लगा कि मेरे पति एचआईवी पॉजिटिव हैं। 1995 में शादी के कुछ हफ्ते बाद ही यह बात मुझे पता लग गई थी। मेरे पति ने शादी से पहले यह बात मुझे नहीं पता लगने दी। उस समय तक मुझे पता नहीं था कि एचआईवी क्या होता है? हालांकि मैंने नर्सिंग का कोर्स कर रखा था। मुझे बस इतना पता था कि एड्स का मतलब मौत है।' अपने पति से मिले धोखे से दुखी होकर कौशल्या अपनी नानी के घर आई गईं। उन्होंने आखिरी बार अपने पति को उस समय देखा, जब उसे पता लगा कि वह दूसरी शादी करने जा रहा है, हालांकि उनका पति दूसरी शादी नहीं कर पाया। सात महीने बाद उसकी मौत हो गई।
मकसद है चेहरे पर मुस्कान
जब उन्हें पता लगा कि उनके पति से अनजाने में वे भी एचआईवी पॉजिटिव हो गई हैं, तो उन्होंने तमिलनाडु में पैतृक निवास नामक्कल जाकर लड़कियों को इसके बारे में शिक्षित करना शुरू कर दिया। उन्होंने एड्स और एचआईवी पॉजिटिव महिलाओं के बारे में पता लगाना शुरू किया। उन्हें पता लगा कि नामक्कल में 75 फीसदी से ज्यादा विधवा औरतों के पति एचआईवी पॉजिटिव थे और लगभग 98 फीसदी महिलाओं भी अपने पति के माध्यम से एचआईवी पॉजिटिव हो चुकी थीं। ज्यादातर महिलाएं अपनी परेशानियों को किसी के साथ बांटना पसंद नहीं करती थीं। ऐसे में कौशल्या ने उन्हें जागरुक करने का बीड़ा उठाया और उन्हें एड्स और एचआईवी के बारे में अपने अनुभव लोगों को बताने की अपील की। कौशल्या ने अपनी जैसी महिलाओं को इकट्ठा करना शुरू किया और अक्टूबर, 1998 में चार महिलाओं के साथ स्वयं सहायता समूह 'पॉजिटिव वुमंस नेटवर्क' बना लिया। इसका मकसद साफ है- एचआईवी पॉजिटिव के साथ जिंदगी गुजार रही महिलाओं के चेहरे पर मुस्कान लाना। सिर्फ 18 महिलाओं को साथ लेकर शुरू किया गया नेटवर्क आज एचआईवी पॉजिटिव महिलाओं के लिए एक मंच बन चुका है। इस मंच की मदद से इन महिलाओं को जिंदगी का मुकाबला करने की ताकत मिलती है। नेटवर्क एड्स के बारे में जागरूकता के साथ-साथ बेहतर उपचार और सुविधाओं के लिए काम कर रहा है। आज कई अंतरराष्ट्रीय संगठन जैसे यूनिफेम और यूएनएड्स उनके काम को सहयोग दे रहे हैं।
समाज को सोच बदलनी होगी
कौशल्या का मानना है कि हम महिलाओं को अपनी लड़ाई खुद लडऩी है। हम मदद के लिए किसी की चौखट पर जाने की बजाय खुद अपने पैरों पर खड़ा होने में भरोसा रखती है। शुरुआत में महिलाओं को कौशल्या के साथ खुलकर अपनी आवाज बुलंद करने में झिझक महसूस होती थी, पर वे जान चुकी हैं कि महिलाओं को डरकर नहीं, लड़कर अपना हक हासिल करना होगा। राजस्थान में श्रीगंगानगर, अजमेर, टोंक, सीकर और जयपुर में इस नेटवर्क का मकसद है कि एचआईवी पॉजिटिव महिलाओं को जागरुक करे,ताकि उनसे बच्चों में यह न फैले। नेटवर्क से जुड़ी महिलाएं अपनी समस्याओं एक-दूसरे से साझा करती हैं और एड्स से जुड़ी भ्रांतियों के बारे में सच्चाई बताती हैं। कौशल्या का मानना है, 'एचआईवी पॉजिटिव महिलाओं को आज भी समाज में गलत निगाह से देखा जाता है। हम चाहते हैं कि लोगों की धारणाएं बदलें। पति के अपराधों की सजा औरत को देना गलत बात है। हम सब मिलकर समाज को बताना चाहती हैं कि एचआईवी पॉजिटिव के साथ भी जिंदगी गुजारी जा सकती है। हमें तो शुरुआत में इसके बारे में जानकारी नहीं थी, पर अब हम समाज में दूसरी महिलाओं और लड़कियों को एड्स के बारे में सचेत करना चाहते हैं।' वाकई कौशल्या का कहना सही है कि एचआईवी पॉजिटिव होने पर महिलाओं को शर्मसार होने की जरूरत नहीं है, बल्कि अपने अनुभवों से दूसरी महिलओं को जागरूक बनाने की आवश्यकता है। आज यह नेटवर्क महिलाओं की काउंसलिंग करता है और उन्हें इस बीमारी के बारे में जरूरी जानकारी मुहैया कराता है। ऐसी एचआईवी पॉजिटिव महिलाएं, जिनके पति गुजर चुके हैं, उन्हें आर्थिक रूप से मजबूत करने के लिए भी कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। महिलाओं को सरकारी योजनाओं का पूरा लाभ पहुंचाने के लिए भी यह नेटवर्क काम कर रहा है।
-आशीष जैन

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14 November 2009

रीता न जाए बचपन !

बच्चों के नाजुक हाथों को चांद-सितारे छूने दो,
चार किताबें पढ़कर वो भी हम जैसे हो जाएंगे...
निदा फाजली के इस शेर में आज की सच्चाई छुपी है। बच्चों के मन में छुपी कोमलता आज गायब है। भावनाओं की गगरी खाली होती जा रही है और उसमें जानकारी के कंकड़ बढ़ते जा रहे हैं। अब वे न चांद को मामा मानते हैं, न ही उन्हें घर के नीचे भूत नजर आता है और न ही बाबा ले जाएंगे की बात पर वे डरते हैं। उन्हें हर सच्चाई पता है। वे हर चीज को तर्क की तराजू पर तौल रहे हैं। यहां तक कि रिश्तों को भी। उन्होंने इंटरनेट पर बैठकर जमानेभर से जुडऩा तो सीख लिया, पर अपने दद्दू के पास दो पल बिताने की कला से वे अनभिज्ञ हैं, जिससे बातों-बातों में वे संस्कारों की घुट्टी पी सकें। सवाल उठता है क्या उनके इमोशंस को खत्म करके हम उन्हें इंटेलीजेंट कह पाएंगे?


'बचपन! बारिश की रिमझिम फुहारों-सा निर्मल, निश्छल , बहती नदी पर खेलती सूरज की ज्योतिर्मय किरणों- सा उज्ज्वल ... बर्फीली चादरों से ढके पर्वतों पर खिलने को आतुर नन्ही कली- सा बचपन।' आज यह बचपन कहीं गुम हो गया है। बच्चों को बड़प्पन की चादर ओढ़ा दी गई, धीर-गंभीर और श्रेष्ठता का चोला पहनते-पहनते बच्चे भूल गए हैं कि बचपना होता क्या है? आज के बच्चे बड़े सपने देखते हैं, पर आंगन में दौड़ती नन्ही गिलहरी की अठखेलियों को देखने का समय उनके पास नहीं है। वेे चांद को मामा नहीं मानते। वे कहते हैं, 'मुझे सब है पता मेरी मां!' जानकारियों के बोझ ने उनके जज्बात को लील लिया है। बच्चों को लगता है कि यही जिंदगी है। पर क्या सिर्फ नॉलेज के बल पर बचपन को संवारा जा सकता है या फिर अपने आस-पास की दुनिया से जुड़कर, कल्पनाओं को परवाज देकर, कुदरत के साथ समय बिताकर व्यक्तित्व का विकास किया जा सकता है।
क्या सिर्फ होशियारी चाहिए?
पिछले दिनों एक चैनल के किए गए सर्वे के नतीजों से पता लगता है कि आज बच्चों में समय से पहले ही एक खास तरह की समझ विकसित होती जा रही है। नई दिल्ली, मुंबई, बंगलौर, चेन्नई, कोलकाता, अहमदाबाद, हैदराबाद, लुधियाना, जयपुर, लखनऊ, गुवाहाटी, नासिक, इंदौर, कोच्चि और मदुरै समेत देश के तमाम बड़े शहरों के 4 से 14 साल की उम्र के बच्चों के बीच किए गए इस सर्वे में कई चौंकाने वाली बातें सामने आईं। सर्वे में हिस्सा लेने वाले 7 हजार से ज्यादा बच्चों को देश और दुनिया के बारे में महत्तवपूर्ण जानकारी थी। पहली नजर में यह चीज सबको अच्छी लग सकती है। आप और हम कह सकते हैं कि आज के बच्चे पहले से कहीं ज्यादा होशियार हो गए हैं। पर... इस बुद्धिमानी की वाहवाही के पीछे हम उनके बरबाद होते बचपन को नहीं देख रहे हैं। तभी तो सर्वे के दौरान 58 फीसदी बच्चों ने देश से गरीबी और भुखमरी दूर करने की चाहत जताई।
बच्चा होना अपराध नहीं!
जब बच्चों से सवाल किया गया कि 30 साल की उम्र तक वे क्या हासिल करना चाहेंगे, तो सबसे ज्यादा 90 फीसदी बच्चों ने सफल कॅरियर हासिल करने की बात कही। नतीजे बताते हैं कि बच्चे अपने कॅरियर का चयन काफी सोच-समझ कर करते हैं। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि डॉक्टर और मूवी स्टार में से चॉइस मांगने पर करीब 70 फीसदी ने डॉक्टर और सिर्फ 30 फीसदी ने फिल्म स्टार बनने की बात कही। इसी तरह लीडर और आर्मी में चॉइस मांगने पर एक तिहाई से भी कम बच्चों ने लीडर, तो दो तिहाई से ज्यादा ने आर्मी में जाने की बात कही। खास बात यह है कि लड़कियों में हाउस वाइफ बनने की कोई चाहत नहीं है। हाउस वाइफ और पाइलट में से चॉइस मांगने पर सिर्फ 12 फीसदी लड़कियों ने हाउस वाइफ बनने की बात कही।
अब अगर बच्चों को कोई बात समझाई जाए, तो वे कहते हैं, 'अब हम बच्चे नहीं है।' वे जल्द से जल्द बड़ा बनना चाहते हैं और मम्मी-पापा के सामने यह जताने की कोशिश करते हैं कि देखो, मॉम-डैड मैं बड़ा हो गया हूं। माता-पिता भी कहीं न कहीं चाहते हैं कि बच्चे जल्दी से बड़े होकर उनके सपनों को पूरा करने की रेस में शामिल हो जाएं।
कुदरत के करीब ले जाएं
आधुनिक दौर में बचपन सिकुड़ता जा रहा है। यह बच्चों की कंप्रेश्ड एज है। बॉयोलॉजिकली तो वे बच्चे ही हैं, पर उनकी मेंटली एज बढ़ती जा रही है। मीडिया और इंटरनेट से वे नित नई चीजें तेजी से सीख रहे हैं। पहले दसवीं कक्षा के बच्चे को जो चीजें पता होती थीं, वे चीजें आज चौथी क्लास के बच्चों को मालूम हैं। दरअसल पहले बच्चेे किताबों और घर के बड़े-बुजुर्गों से जानकारी हासिल करते थे। एकल परिवारों के चलते घरों में बुजुर्ग भी नहीं रहते और माता-पिता नौकरी के कारण घर से बाहर रहते हैं। ऐसे में बच्चा किताबों की बजाय टीवी और इंटरनेट से जानकारी हासिल करता है। इन सबका गहरा असर उन पर होता है। शारीरिक विकास के मुकाबले मानसिक विकास तेजी से होने पर उनमे टेंशन और अवसाद घर करने लगते हैं।
समाजशास्त्री डॉ. ज्योति सिडाना का कहना है, 'बच्चों को उनका खोया हुआ बचपन लौटाने के लिए कुछ खास कोशिशें करनी होंगी। इसके लिए स्कूलों के पाठ्यक्रम में बदलाव जरूरी है। तीसरी-चौथी क्लास में बच्चों को कंप्यूटर की जानकारी देने की बजाय उन्हें खेलना सिखाना चाहिए। उन्हें कुदरत के करीब स्वछंद छोड़ देना चाहिए। योग और एक्सरसाइज करवानी चाहिए, ताकि वे चीजों को बारीकी से समझ सकें और मशीनी न बनें। साथ ही उन्हें वीडियो गेम्स की बजाय कैरम, लूडो और पार्क में जाकर खेलने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए, ताकि उनमें सामाजिकता की भावना पनप सके।'
बोझ न बने जानकारी
अब जानकारी बच्चों के लिए बोझ बनती जा रही है। उनको अपनी क्रिएटिविटी दिखाने का ना तो समय मिल रहा है और ना ही मौका। धीरे-धीरे वे भूलते जा रहे हैं कि ये उनके खेलने-कूदने, सीखने-समझने और नादानी करने के दिन हैं। माता-पिता उन पर अपनी इच्छाएं थोपे जा रहे हैं। कंपीटीशन इतना है कि उन्हें किताबों के सिवा कुछ नहीं सूझता। इससे वे मशीनी जिंदगी जीने लगे हैं और उनका इमोशनल कोशेंट कम हुआ है।
मनोचिकित्सक आरके सोलंकी का मानना है, 'परिवार और सोसाइटी को बचपन पर बोझ लादने की बजाय उनके नैसर्गिक विकास में मदद करनी चाहिए। स्कूल भेजने की जल्दबाजी दिखाने की अपेक्षा पैरेंट्स को उनके साथ ज्यादा से ज्यादा समय गुजारना चाहिए। सामाजिक गतिविधियों में भाग लेने के लिए उन्हें प्रोत्साहित करना चाहिए। इससे बच्चे समाज में घुलना-मिलना सिखेंगे और उनका संतुलित विकास होगा।'
-आशीष जैन

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05 September 2009

खेल में नशा

डोपिंग खेलों के लिए अभिशाप बन चुका है। पूरी दुनिया चाहती है कि खेल किसी तरह के नशे से मुक्त रहें। इसके लिए दुनिया के सारे खेल प्राधिकरण चाहते हैं कि डोपिंग की जांच में पूरी दुनिया के खिलाड़ी अपना सहयोग दें। दूसरी तरह देश के क्रिकेट खिलाड़ी इस पर मंथन कर रहे हैं कि डोपिंग की जांच के नाम पर किसी एजेंसी का निजी जिंदगी में खलल हो या न हो। क्रिकेट खिलाडिय़ों का साथ बीसीसीआई है। बीसीसीआई क्रिकेट में सबसे धनी संस्था है। आईसीसी जैसी क्रिकेट की सर्वोपरि संस्था चाहे विश्व डोपिंग रोधी एजेंसी (वाडा) के नियम मान चुकी हो, पर देश के क्रिकेट की संस्था बीसीसीआई के पैसे के आगे आईसीसी को भी सोचा पड़ रहा है। एक तरफ पूरी दुनिया के खिलाड़ी हैं, तो दूसरी तरफ हमारे क्रिकेट सितारे, जो हमारे लिए भगवान से कम नहीं हैं। वे कह रहे हैं कि वाडा डोपिंग के नाम पर क्रिकेट खिलाडिय़ों का सुख-चैन छीनने पर आमादा है। कुछ खिलाडिय़ों का कहना है कि इससे उनकी सुरक्षा व्यवस्था में सेंध लगती है, तो कुछ का मानना है कि यह निजी जिंदगी में जहर घोल देगा। वाडा के एग्रीमेंट पर ऊपरी मन से चाहे दुनिया के दिग्गज खिलाड़ी साइन कर चुके हों, पर मन ही मन वे भी भारतीय क्रिकेट खिलाडिय़ों की तरह इस तरह की तांक-झांक से सहमत नहीं हैं। भारतीय खिलाडिय़ों का मानना है कि वे सालभर खेल में व्यस्त रहते हैं। थोड़े से बचे हुए समय को वे अपने परिवार के साथ बिताना पसंद करते हैं। ऐसे में वे तीन महीने पहले कैसे बता सकते हैं कि वे कहां जा रहे हैं।

क्या है नियम-
भारतीय क्रिकेट खिलाडिय़ों को आईसीसी द्वारा वाडा के साथ किए गए करार के 'व्हेयर एबाउट्स क्लॉजÓ पर गहरी आपत्ति है। इस नियम के अनुसार प्रत्येक खिलाड़ी को तीन महीने पहले प्रत्येक दिन में एक सुनिश्चित जगह पर एक घंटे की जानकारी देनी होगी और अगर खिलाड़ी तीन बार उस बताई जगह पर नहीं मिलता तो कुछ निश्चित समय के लिए उस पर टूर्नामेंट में भाग लेने पर प्रतिबंध लगा दिया जाएगा। भारतीय क्रिकेटरों को वाडा की उस शर्त से मुख्य आपत्ति है, जिसमें उन्हें प्रतियोगिता के अलावा भी परीक्षण के लिए तीन महीने पहले अपने ठहरने के स्थान के बारे में जानकारी देनी होगी। यह जानकारी ईमेल पर वाडा को दी जा सकती है, तब वाडा का एक प्रतिनिधि आकर खिलाड़ी की जांच करेगा कि कहीं वह प्रतिबंधित दवाओं का सेवन तो नहीं कर रहा है। वाडा का विवादित प्रावधान उन सभी एथलीटों को दोषी मान लेता है जब तक वे अपने को निर्दोष नहीं साबित कर पाते। हमारे देश के खिलाडिय़ों का कहना है कि आईसीसी को खुद डोपिंग रोधी संहिता लानी चाहिए, ताकि क्रिकेटरों को वाडा की शर्तों को न मानना पड़े।
कैसे तय हों मानक
कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि प्रतिबंधित दवाओं की श्रेणियों को भी जांचने की जरूरत है। आजकल बाजार में कुछ ऐसी दवाएं उपलब्ध हैं, जिसको लेने के 24 या 48 घंटे के बाद कोई जांच यह तय नहीं कर सकती कि खिलाड़ी ने प्रतिबंधित दवा ली भी है या नहीं। हमारे ही देश के निशानेबाज अभिनव बिंद्रा और टेनिस प्लेयर सानिया मिर्जा ने वाडा की शर्तों को मान लिया है। न्यूजीलैंड के खिलाड़ी, आस्टे्रलिया क्रिकेट टीम के खिलाड़ी, मशहूर टेनिस खिलाड़ी एंडी मरे, रोजर फेडरर भी इसके विरोध में उतरे थे। दवा लेकर खेल के मैदान में उतरने वाले खिलाडिय़ों की निगरानी रखने के लिए वाडा के नियम ओलंपिक में पहले से ही लागू हैं। अब चूंकि आईसीसी भी ओलंपिक में क्रिकेट को शामिल करवाना चाहता है, तो आईसीसी ने वाडा से एक करार किया है और इसके तहत अब वाडा के नियम क्रिकेट खेलने वाले देशों के खिलाडिय़ों पर भी लागू होंगे। वाडा के नियमों के मुताबिक खिलाड़ी तीन बार उस स्थान पर नहीं मिलता, जहां उसने होने की सूचना दी थी, तो उस खिलाड़ी पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है। खिलाडिय़ों का कहना है कि इमरजेंसी आने पर वह शहर या जगह छोडऩी पड़ सकती है, पर वाडा इस बात को स्वीकार नहीं करता। विश्व डोपिंग रोधी एजेंसी के प्रमुख जान फाहे ने भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के वाडा नियमों को न मानने की आलोचना करते हुए कहा कि इससे दिल्ली में अगले साल होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन पर गलत असर पड़ सकता है। पर क्रिकेट खिलाड़ी हैं कि टस से मस होने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। भारतीय संविधान अपने नागरिकों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार देता है। ऐसे में विशेष सुरक्षा प्राप्त खिलाड़ी जैसे सचिन और धोनी अपने भावी कार्यक्रम की सूचना देकर सुरक्षा संबंधी खतरा उठाने से कतरा रहे हैं। साथ ही कई क्रिकेट खिलाड़ी इंटरनेट को ढंग से नहीं समझते। कई खिलाड़ी रोज या जरूरत के हिसाब से अपना भावी कार्यक्रम तय करते हैं। क्रिकेट खेलने वाले ज्यादातर देश वाडा के करार पर साइन कर चुके हैं। साथ ही अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक संघ सहित दुनिया की 571 खेल संस्थाओं ने जब इस खास क्लॉज को स्वीकार कर लिया है, तो ऐसे में भारतीय क्रिकेट खिलाडिय़ों को आपत्ति दर्ज कराने से पहले दस बार सोचना चाहिए था। इससे पूरी दुनिया के सामने भारतीय क्रिकेट की छवि धूमिल होने का खतरा भी है।
क्या है वाडा
मादक पदार्थो के जरिए शारीरिक क्षमता में बढ़ोतरी का मुद्दा 1988 के सिओल ओलिंपिक खेलों में तब चर्चा में आया, जब 100 मीटर की फर्राटा दौड़ में कनाडा के बेन जॉनसन ने सबको चौंकाते हुए तबके विश्व रिकॉर्डधारी कार्ल लुइस को न केवल परास्त किया, बल्कि नया विश्व रिकॉर्ड भी बना डाला। बाद में पता चला कि जॉनसन ने प्रतिबंधित मादक दवा स्टैनाजोलोल का सेवन करके यह उपलब्धि हासिल की थी। अंतरराष्ट्रीय ओलिंपिक कमेटी (आईओसी) ने उनके खिलाफ कार्रवाई करते हुए उन्हें स्वर्ण पदक से वंचित करके उन पर प्रतिबंध लगा दिया। इसके बाद से ही आईओसी ऐसी व्यवस्था बनाने को लेकर प्रयास करती रही ताकि खिलाडिय़ों को मादक पदार्थो का सेवन करने से हतोत्साहित किया जा सके। आईओसी और अन्य संस्थाओं की पहल पर ही आखिरकार नवंबर 1999 को स्विट्जरलैंड के ल्युसाने में एक अंतरराष्ट्रीय संस्था का गठन किया गया। इसका नाम वल्र्ड एंटी डोपिंग एजेंसी (वाडा) रखा गया। साल 2001 में इसका मुख्यालय कनाडा के मांट्रियल में स्थानांतरित कर दिया गया। वर्तमान में इसके चैयरमेन आस्ट्रेलिया के पूर्व वित्त मंत्री जॉन फाहे हैं। वाडा की एथलीट समिति की प्राथमिकताओं में खिलाडिय़ों से चर्चा करना और उनसे फीड बैक लेना शामिल है। इसके सदस्य डोपिंग के खिलाफ जागरूकता फैलाते हैं। समिति के एक तिहाई सदस्य हर साल बदले जाते हैं। समिति के अध्यक्ष रूस के आईस हाकी के ओलंपिक और विश्व चैंपियन वायाचेसलेव फिस्तोव हैं। दिलचस्प बात है कि भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी जिस वाडा से नाता तोडऩे की बात कह रहे हैं, उसकी एथलीट में हमारे भारतीय क्रिकेटर बॉलर अनिल कुंबले शामिल हैं। वह वाडा की किसी भी समिति में शामिल एकमात्र क्रिकेटर हैं। वे ही कुंबले खुद मानते हैं कि वाडा ने जो नियम दूसरे खेलों के लिए बनाए हैं, वे क्रिकेट के ऊपर लागू नहीं किए जाने चाहिए। और खेलों में तो एक-एक सैंकड के चलते हार या जीत तय होती है, जबकि क्रिकेट में डोपिंग की संभावना शून्य के बराबर होती है। संयोग देखिए जिस दिन (एक जनवरी 2009) से वाडा ने ठहरने का स्थान बताने संबंधी शर्त लागू की उसी दिन से कुंबले का वाडा की एथलीट समिति में कार्यकाल भी शुरू हुआ था। हालांकि इसकी शुरुआत आईओसी की पहल पर हुई, पर वाडा अपने आप में पूरी तरह से स्वायत्त संस्था है। वाडा का मुख्य उद्देश्य खेलों को मादक पदार्थों से मुक्त रखना है। इसने 2004 में एथेंस ओलंपिक खेलों से पहले वल्र्ड एंटी डोपिंग कोड लागू किया। जिसे आईओसी और आईसीसी सहित करीब 600 खेल संगठनों ने मान्यता दे दी। इसका सबसे विवादास्पद पहलू 'वेअर अबाउट्सÓ शर्त है जिसमें खिलाड़ी को कभी भी परीक्षण के लिए बुलाया जा सकता है। यह प्रावधान इसी साल 1 जनवरी से नए सिरे से लागू किया गया है। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड की इसी प्रावधान को लेकर आईसीसी से ठनी हुई है। इस शर्त को फुटबॉल की अंतरराष्ट्रीय संस्था फीफा पहले ही ठुकरा चुकी है।

क्रिकेट में नशा
1986- इंग्लैंड के पूर्व ऑलराउंडर इयान बॉथम को नशीले पदार्थों के सेवन के आरोप में निलंबित किया गया।
1993- पाकिस्तानी टीम के तीन खिलाडिय़ों वसीम अकरम, मुश्ताक अहमद और वकार युनिस को ग्रेनाडा में प्रतिबंधित ड्रग्स के साथ गिरफ्तार किया गया। बाद में ये आरोप वापस ले लिए गए।
1994-न्यूजीलैंड टीम के तीन खिलाडिय़ों स्टीफन फ्लेमिंग, मैथ्यू हॉर्ट और डियोन नाश ने एक बार में प्रतिबंधित ड्रग्स लेने की बात कबूली। तीनों ही खिलाडिय़ों पर जुर्माना और निलंबन तय हुआ।
1996- एड गिडिन्स को कोकीन के सेवन के आरोप में 19 महीनों तक क्रिकेट खेलने से प्रतिबंधित किया गया।
1997- ड्रग टेस्ट के लिए उपस्थित न होने पर इंग्लैंड के स्पिनर फिल टफनेल पर 1000 पाउंड के जुर्माने के साथ 18 महीनों का निलंबन लगाया गया।
2003- 2003 के वल्र्ड कप से ठीक पहले ऑस्ट्रेलिया के शेन वार्न को प्रतिबंधित दवाओं के सेवन के आरोप में स्वदेश वापस भेज दिया गया।
2004- इंगलिश काउंटी वारविकशायर के ऑलराउंडर ग्राहम वैग ने कोकीन के प्रयोग की बात स्वीकारी और उन्हें 15 महीनों के लिए प्रतिबंधित किया गया। वैग को काउंटी से भी निष्कासित कर दिया गया।
2005- चैनल 9 के कमेंटेटर डर्मोट रीव ने कोकीन के प्रयोग की बात स्वीकारते हुए अपना पद त्याग किया। कीथ पाइपर को डोप टेस्ट में दूसरी बार फेल होने पर पूरे सत्र के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया। पाइपर इससे पहले 1997 में भी डोप टेस्ट में पकड़े गए थे।
2006- पाकिस्तान के शोएब अख्तर और मोहम्मद आसिफ को चैंपियंस ट्रॉफी से पहले डोप टेस्ट में फेल होने पर पीसीबी द्वारा क्रमश: दो और एक वर्ष के लिए निलंबन किया गया। हालांकि एक दूसरे ट्रिब्यूनल में अपील के बाद उन्हें निर्दोष पाया गया और उनका निलंबन रद्द हो गया।
2007- भारत के पूर्व क्रिकेटर मनिंदर सिंह को 1.5 ग्राम कोकीन के साथ गिरफ्तार किया गया।
2008- पाकिस्तान के मोहम्मद आसिफ को नशीले पदार्थ के साथ दुबई हवाई अड्डे पर रोका गया।

ओलंपिक में नशा-
ओलंपिक खेलों की शुरुआत 1896 में हुई और 1904 के सेंट लुई ओलंपिक में डोपिंग का पहला मामला सामने आया। इसके ठीक 100 साल बाद 2004 में एथेंस में डोपिंग के कई मामले सामने आए। एथेंस ओलंपिक में सबसे अधिक 27 खिलाडिय़ों को प्रतिबंधित दवा सेवन का दोषी पाया गया। खेलों में शक्ति बढ़ाने वाली दवाओं के बढ़ते प्रयोग के कारण विभिन्न खेल संघों ने 1960 के दशक के शुरुआती सालों में डोपिंग पर प्रतिबंध का फैसला लिया। इसे अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक संघ ने 1967 में अपनाया। पहली बार मैक्सिको सिटी ओलंपिक के 1968 ओलंपिक में इसे लागू किया गया। ओलंपिक 1904 में अमेरिकी मैराथन धावक थामस हिक्स को उनके कोच ने दौड़ के दौरान स्ट्रेचनाइन और ब्रांडी दी थी। हिक्स ने दो घंटे 22 मिनट 18.4 सेकंड में नए ओलंपिक रिकार्ड के साथ मैराथन जीती थी लेकिन तब डोपिंग के लिए कोई नियम नहीं थे इसलिए उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं हुई। रोम ओलंपिक 1960 में डेनमार्क के इनेमाक जेनसन साइकिल दौड़ के दौरान नीचे गिर गए और उनकी मौत हो गई। कोरोनोर जांच से पता चला कि वह तब एम्फेटेमाइंस के प्रभाव में थे। यह ओलंपिक में डोपिंग के कारण हुई एकमात्र मौत है। ओलंपिक में प्रतिबंधित दवा लेने के कारण प्रतिबंध झेलने वाले पहले खिलाड़ी स्वीडन के हांस गुनार लिजनेवाल थे। माडर्न पैंटाथलान के इस खिलाड़ी को 1968 ओलंपिक में एल्कोहल सेवन का दोषी पाया गया जिसके कारण उन्हें अपना कांस्य पदक गंवाना पड़ा। डोपिंग के कारण ओलंपिक पदक गंवाने का भी यह पहला मामला था। भारत की दो भारोत्तोलकों प्रतिमा कुमारी और सनामाचा चानू को भी एथेंस ओलंपिक 2004 में क्रमश: एनबोलिक स्टेरायड और फुटोसेनाइड के सेवन का दोषी पाया गया जिसके कारण इन दोनों के अलावा भारतीय भारोत्तोलन संघ (आईडब्ल्यूएफ) पर भी एक साल का प्रतिबंध लगा था। शेन वॉर्न क्रिकेट के इतिहास में पहले खिलाड़ी हैं जिन्हें प्रतिबंधित दवाओं के सेवन का दोषी पाया गया है और खेल से हटा दिया गया है।
-आशीष जैन

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शिक्षा का अधिकार

देश में सबको शिक्षित करने के मकसद से सरकार ने हाल ही शिक्षा का अधिकार विधेयक पारित किया है। यह राज्यसभा और लोकसभा में पारित हो चुका है। अब बस राष्ट्रपति की मोहर लगने की देरी है। इसके बाद यह कानून बन जाएगा। शिक्षा का अधिकार विधेयक की सबसे खास बात है कि छह से चौदह साल की आयु के प्रत्येक बालक और बालिका को प्रारंभिक शिक्षा पूरी होने तक आसपास के स्कूल में निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा पाने का अधिकार मिल जाएगा। साथ ही फीस आदि वजहों से उन्हें शिक्षा से वंचित नहीं रहना पड़ेगा। यह बात सिर्फ सरकारी स्कूलों पर ही लागू नहीं होगी। आंशिक या पूर्ण अनुदान पाने वाले स्कूलों, पूरी तरह से निजी स्कूलों, नवोदय, केंद्रीय और सैनिक स्कूलों पर भी यह कानून लागू होगा। सरकारी स्कूल में तो सभी बच्चे निशुल्क पढ़ेंगे। अनुदान पाने वाले स्कूलों में अनुदान के अनुपात में सुविधा अभाव वाले समूह और दुर्बल वर्ग समूह के बच्चों को भर्ती करना होगा। निजी स्कूलों में हर क्लास में कम से कम 25 फीसदी बच्चे इन्हीं दोनों समूहों के होने आवश्यक हैं।

क्या होगा फायदा
निजी स्कूलों को ऐसे बच्चों को पढ़ाने के लिए सरकार हर बच्चे के हिसाब से प्रति छात्र औसतन खर्चा देगी। स्थानांतरण प्रमाण पत्र या जन्म प्रमाण पत्र जैसे किसी दस्तावेज के अभाव में बच्चों के स्कूल में प्रवेश को रोका नहीं जा सकेगा। साथ ही विधेयक सरकार पर यह जिम्मेदारी भी डालता है कि हर क्षेत्र में समुचित संख्या और दूरी पर स्कूलों की स्थापना होनी चाहिए। पहली से पांचवी क्लास के लिए 60 बच्चों पर कम से कम दो शिक्षक, इसी तरह 90, 120 और 200 बच्चों के लिए क्रमश: तीन, चार और पांच टीचर्स होना जरूरी है। कक्षा 6 से 8 तक के लिए प्रति कक्षा कम से कम एक शिक्षक का प्रावाधान है। शिक्षा का अधिकार कानून के मुताबिक विज्ञान और गणित, सामाजिक विज्ञान और भाषा के लिए कम से कम एक शिक्षक हो। इसमें प्रत्येक 35 विद्यार्थियों पर एक शिक्षक का अनुपात अपेक्षित है और 100 से अधिक छात्रसंख्या वाले विद्यालय में एक पूर्णकालिक प्रधान अध्यापक के साथ-साथ कला शिक्षा, स्वास्थ्य और शारीरिक शिक्षा एवं कार्य शिक्षा के लिए भी अंशकालिक शिक्षक होना चाहिए। स्कूल का अर्थ सभी मौसम में सुरक्षा देने वाला ऐसा भवन अपेक्षित है जिसमें प्रत्येक शिक्षक के लिए एक कक्षा, खेल का मैदान तथा लड़कों और लड़कियों के लिए पृथक शौचालय हो। शाला भवन में रसोई का भी प्रावधान है। ये सब तो कुछेक बातें हैं, शिक्षा के व्यापक हितों से जुड़ी ढेरों बातें शिक्षा के अधिकार विधेयक में शामिल हैं। कार्य-दिवसों व शिक्षण घंटों का स्पष्ट उल्लेख करते हुए शिक्षा का अधिकार अधिनियम में कहा गया है कि पहली से पांचवीं कक्षा के लिए वर्ष में कम से कम 200 कार्य दिवस और 800 शैक्षणिक घंटे तथा छटी से आठवी कक्षा के लिए 220 कार्य दिवस और 1000 शैक्षणिक घंटे अपेक्षित हैं। शिक्षकों से शिक्षण व तैयारी के लिए प्रति सप्ताह 45 घण्टे देने की अपेक्षा की गई है। पुस्तकालय, खेल और क्रीड़ा सामग्री की उपलब्धता के विषय में भी स्पष्ट उपबध हैं। इस सबसे पता लगता है कि सरकार ने शिक्षा को बहुत महत्वपूर्ण कार्य मानकर इसके हर पहलू पर विचार किया है। अब घटिया स्कूलों की खैर नहीं। वे शिक्षक जो कार्यालय से जुड़े काम भी शिक्षण के घंटों में ही करते हैं, उन्हें भी एक बार फिर सोचना होगा और बच्चों की उचित शिक्षा के लिए जुटना होगा। यह विधेयक संविधान के मूल अधिकार से संबंधित है, ऐसे में इसके उल्लंघन या अवमानना पर अदालत का दरवाजा खटखटाया जा सकता है। साथ ही इसमें एक विद्यालय प्रबन्धन समिति का भी प्रावधान है जो (सरकारी अनुदान प्राप्त नहीं करने वाले गैर-सरकारी विद्यालयों को छोड़कर) सभी स्कूलों में बनाना अनिवार्य होगा। यह समिति विद्यालय में प्रविष्ठ बालकों के माता-पिता या संरक्षक और शिक्षकों के निर्वाचित प्रतिनिधियों से मिलकर बनेगी। इसमें कम से कम तीन-चौथाई सदस्य माता-पिता या संरक्षक होगे और उसमें भी असुविधाग्रस्त समूह और दुर्बल वर्ग के बालकों के माता-पिताओं को समानुपातिक प्रतिनिधित्व मिलेगा। इससे योजना के सफल क्रियान्वन की दिशा तय होगी। विधेयक के अनुसार पाठ्यक्रम का निर्धारण, शिक्षकों के प्रशिक्षण का मानकीकरण और उनकी योग्यता का निर्धारण एक केन्द्रीय निकाय द्वारा किया जाएगा। इससे अप्रशिक्षित और अयोग्य शिक्षक बाहर हो जाएंगे। सरकारी और अनुदान प्राप्त विद्यालयों में शिक्षक के कुल पदों में से दस प्रतिशत से अधिक पद रिक्त नहीं रखे जा सकते। शिक्षकों के निजी ट्यूशन पर यह अधिनियम रोक लगाता है। इस विधेयक में भारी-भरकम केपीटेशन फीस को प्रतिबंधित किया गया है। बच्चों का सत्र के मध्य में भी स्कूल में प्रवेश हो सकेगा। अब शिक्षकों को गैर शैक्षणिक कामों में भी नहीं लगाया जा सकेगा। इससे उनका जनगणना, चुनाव ड्यूटी तथा आपदा प्रबंधन के कामों की बजाय शिक्षा पर ज्यादा ध्यान रहेगा। गैर मान्यता प्राप्त स्कूल चलाने पर दंड लगाया जा सकता है। बच्चों को शारीरिक दंड देने, बच्चों के निष्कासन या रोकने का भी प्रावधान है।
तैयारी पहले से थी
सबसे पहले जोमेरिन में 1990 में पूरी दुनिया में सामूहिक रूप से सबके लिए शिक्षा का प्रस्ताव पारित किया था। भारत ने इस दिशा में ठोस कदम उठाए। इसी के तहत जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम(डीपीईपी) और 2001 में शुरू हुआ सर्वशिक्षा अभियान चलाया गया। 2002 में 86वें संविधान संशोधन करके 6 से 14 साल आयुवर्ग के बच्चों के लिए निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान मूल अधिकारों में किया गया। इसे कानून बनाने के लिए 'शिक्षा का अधिकार विधेयक 2005Ó को सरकार ने तैयार किया। इसके प्रावधानों पर शिक्षाविदों की राय लेकर शिक्षा का अधिकार विधेयक-2006 तैयार किया गया और इसे संसद में पेश किया गया। 20 जुलाई 2009 को राज्यसभा और 4 अगस्त 2004 को लोकसभा ने इसे पारित कर दिया है। 1936 में जब महात्मा गांधी ने एक समान शिक्षा की बात उठायी थी, तब उन्हें भी कई समस्याओं का सामना करना पड़ा था। संविधान ने इसे एक अस्पष्ट अवधारणा के रूप में इसे छोड़ दिया था, जिसमें 14 साल तक की उम्र के बच्चों को निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने की जवाबदेही राज्यों पर छोड़ दी गई थी। पर नए विधेयक में सारी चीजों का जवाब मौजूद है। संविधान में राज्य के नीति निदेशक तत्व के अन्तर्गत संविधान के अनुच्छेद 45 में कहा गया है, 'राज्य इस संविधान के ्रारंभ से 10 वर्ष के भीतर सभी बालकों को चौदह वर्ष की आयु पूरी करने तक निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने के लिए उपबन्ध करेगा।Ó उन दस वर्षों की अवधि तो 1960 में पूरी हो गई। चूंकि यह राज्य के नीति निदेशक तत्व वाले भाग में था, इसलिए सरकार बाध्य नहीं थी। यह काम तो राज्य सरकारों को करना था। काफी जद्दोजहद के बाद सन् 2002 में संविधान में छियासीवां संशोधन किया गया और अब संविधान संशोधन के सात साल 2009 में बाद यह पारित हो चुका है। सन् 2002 में 'शिक्षा का निशुल्क और अनिवार्य अधिकारÓ संविधान के मूल अधिकारों अनुच्छेद 21 ए (भाग 3) में समाविष्ट तो हुआ, मगर यह अधिकार सभी बच्चों को न देकर केवल छह से चौदह वर्ष तक की आयु के बच्चों को मिला। उन्नीकृष्णन फैसला (1993) भी शिक्षा के अधिकार अधिनियम में खास अहमियत रखता है। इसमें कहा गया था कि अनुच्छेद 45 (बालकों के लिए निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का उपबन्ध) को अनुच्छेद 21 (प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण) के साथ देखा जाना चाहिए। अपने फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा है कि चौदह वर्ष तक प्रत्येक बच्चे को निशुल्क शिक्षा पाने का अधिकार है। वर्तमान अधिनियम का विरोध करने वालों का कहना है कि जो जन्म से चौदह वर्ष तक निशुल्क शिक्षा पाने जो अधिकार पहले से मिला हुआ था वह संविधान के छियासीवें संशोधन में सीमित होकर छह से चौदह वर्ष तक के बच्चों के लिए ही रह गया है। इस प्रकार शिक्षा को मूल अधिकार के रूप में शामिल करने के नाम पर एक कदम पीछे हटते हुए बच्चों की आयु सीमा घटा दी गई है। संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार सम्मेलन ने जन्म से 18 वर्ष की आयु को बाल्यावस्था माना है। इस पर भारत सरकार ने भी हस्ताक्षर किये हैं। शिक्षा के अधिकार के पक्ष में लडऩे वाले अनेक लोगों का मानना है कि जन्म से 18 वर्ष की आयु पूरी होने तक निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान किया जाना चाहिए।
कहीं ये ना हो
कुछ लोगों का मानना है कि इस विधेयक के लागू होने के बाद शायद निजी स्कूलों की बाढ़ सी आ जाए। निजी स्कूल गांव-गांव में खुलने लगेंगे। क्योंकि असुविधाग्रस्त और दुर्बल वर्ग के 25 फीसदी बच्चों को निजी स्कूल भर्ती कर लेंगे और बदले में सरकार से पैसे भी वसूलेंगे। ऐसे में असुविधाग्रस्त समूह और दुर्बल वर्ग के माता-पिता अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजने के बदले निजी स्कूलों में ही भेजना पसंद करेंगे। इस सबके बीच में पहले से अपनी खराब हालतों के लिए बदनाम सरकारी स्कूलों का क्या होगा? कुछ का मानना है कि सरकार का शिक्षा का अधिकार विधेयक लाना, एक प्रकार से शिक्षा के निजीकरण को अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ावा दे सकता है। साथ ही इस विधेयक के साथ-साथ अल्पसंख्यकों के धार्मिक शिक्षा के संवैधानिक अधिकारों (अनुच्छेद 30) पर भी विचार करना जरूरी है। विधेयक में यह स्पष्ट नहीं है कि मदरसो, सरस्वती शिशु मंदिर और धार्मिक आधार पर बने शिक्षण संस्थानों का क्या होगा? साथ ही देश के उन स्कूलों का क्या होगा, प्रदेश या केंद्र से संबद्ध न होकर अंतरराष्ट्रीय बोर्ड से मान्यता प्राप्त हैं? इनके प्रति सरकार का क्या नजरिया रहेगा? क्या इन्हें भी पड़ोसी स्कूल माना जाएगा?
सबको साथ चलना होगा
यह सिर्फ 6 से 14 वर्ष की उम्र तक (कक्षा 1 से 8 तक) की शिक्षा का अधिकार देने की बात करता है। इसका मतलब है कि बहुसंख्यक बच्चे कक्षा 8 के बाद शिक्षा से वंचित रह जाएंगे। कक्षा 1 से पहले पू्र्व प्राथमिक शिक्षा भी महत्वपू्र्ण है। उसे अधिकार के दायरे से बाहर रखने का मतलब है सिर्फ साधन संपन्न बच्चों को ही केजी-1, केजी-2 आदि की शिक्षा पाने का अधिकार रहेगा। वर्तमान में देश में स्कूल आयु वर्ग के 19 करोड़ बच्चे हैं। इनमें से लगभग 4 करोड़ निजी स्कूलों में पढ़ते हैं। मान लिया जाए कि इस विधेयक के पास होने के बाद निजी स्कूलों में और 25 प्रतिशत यानि 1 करोड़ गरीब बच्चों का दाखिला हो जाएगा, तो भी बाकी 14 करोड़ बच्चों का क्या होगा ? देश के सारे बच्चों को अच्छी शिक्षा मिल सके, इसके लिए सबसे जरूरी तो यह होना चाहिए कि देश में कानून बनाकर पड़ोसी स्कूल पर आधारित समान स्कूल प्रणाली लागू की जाए। इसका मतलब यह है कि एक गांव या एक मोहल्ले के सारे बच्चे (अमीर या गरीब, लड़के या लड़की, किसी भी जाति या धर्म के) एक ही स्कूल में पढ़ेंगे। इस स्कूल में कोई फीस नहीं ली जाएगी और सारी सुविधाएं मुहैया कराई जाएगी। यह जिम्मेदारी सरकार की होगी और शिक्षा के सारे खर्च सरकार द्वारा वहन किए जाएंगे। ऐसा करने पर सरकार पूरे देश में शिक्षा के प्रसार का काम सही तरह से कर पाएगी। इस कानून को अमल में लाने के लिए देश में कम से कम 60 लाख शिक्षक नियुक्त करने होंगे। एक विशेष समिति होने वाले खर्च का हिसाब लेकर तेरहवें वित्त आयोग तक जाएगी और इसमें राज्यों का हिस्सा सुनिश्चित किया जाएगा। यह भी तय है कि कुछ राज्य सरकारें पैसा न होने का बहाना करेंगी। नए कानून से सरकारी खजाने पर 12000 करोड़ रुपए का सालाना अतिरिक्त भार पड़ेगा। केंद्र और राज्य सरकार इसके लिए मिलकर संसाधन जुटाएंगी। यह विधेयक स्कूलों को भौतिक अधोसंरचना खड़ी करने के लिए तीन वर्ष का समय प्रदान करता है। देश के सभी स्कूलों को अधोसंरचना की जरूरतें पूरी करनी होंगी और केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों को सलाह दी गई है कि वे अपने यहां प्रमाणन प्राधिकरण स्थापित करें। इस कानून की सफलता के लिए सबसे जरूरी बात है कि केंद्र और राज्य सरकार साझेदारी के साथ काम करें।
-आशीष जैन

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न्यायपालिका का खुलापन

ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के 2007 में हुए सर्वेक्षण के मुताबिक 77 फीसदी भारतीयों का मानना है कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार है। न्यायपालिका से जनता का विश्वास डिग रहा है, तो इसके पीछे दो बड़े कारण हैं- पहला न्यायिक मामलों के निपटारे में देरी और दूसरा न्यायाधीशों की छवि। अब सबको पता है कि न्यायालयों में भी खुलेआम भ्रष्टाचार हो रहा है। भारत संभवत: एकमात्र ऐसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है, जहां कोई नागरिक भ्रष्ट न्यायाधीश के खिलाफ शिकायत नहीं कर सकते। पिछले सालों में न्यायपालिका में बढ़ते भ्रष्टाचार के मद्देनजर यह बेहद जरूरी हो गया है कि अब न्यायपालिका के खिलाफ जनता की शिकायतों की सुनवाई का कानून लाया जाए।

हाल ही सरकार उच्चतम और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों से सम्बन्धित सम्पत्ति व देनदारी विधेयक 'न्यायाधीश (संपत्ति एवं देनदारी घोषणा) विधेयक 2009Ó लेकर आई थी। पर इसे पेश नहीं किया जा सका और राज्यसभा में इस पर भारी हंगामे के चलते कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने इसे वापस ले लिया गया। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण बात है। सदन के सदस्यों को सबसे ज्यादा आपत्ति इस विधेयक की छठी धारा से थी। इस धारा में न्यायधीशों की संपत्ति की घोषणा को आम लोगों से छुपाने या कहें सार्वजनिक नहीं करने का प्रावधान था। विधेयक के मुताबिक उच्चतम और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के लिए अपनी चल-अचल संपत्ति की जानकारी देना अनिवार्य है। पर इस सूचना को न तो सार्वजनिक किया जा सकेगा और उस पर कोई व्यक्ति, कोई अदालत, कोई संस्था किसी भी प्रकार का सवाल नहीं पूछ सकेगी। उस पर चर्चा या जांच भी नहीं हो सकती। खुद मुख्य न्यायाधीश भी कुछ नहीं कर सकेंगे। मौजूदा विधेयक में बताया गया है कि न्यायाधीशों को अपनी संपत्ति का ब्योरा अपने मुख्य न्यायाधीश और सरकार को देना होगा, पर यह आम जनता के लिए उपलब्ध नहीं होगा। सांसदों का मानना है कि जब वे चुनाव लड़ते वक्त अपनी संपत्ति का ब्योरा जनता के सामने रख सकते हैं, तो फिर न्याय की गरिमामय कुर्सी पर बैठे न्यायधीश यह काम क्यों नहीं कर सकते?
क्या है निहितार्थ संपत्ति घोषणा के
1. न्यायाधीशों की संपत्ति की घोषणा को सार्वजनिक नहीं करने से सूचना के अधिकार के कानून का उल्लंघन होगा।
2. यह संविधान में दिए गए समानता के अधिकार का भी साफ तौर उल्लंघन होगा।
3. सांसदों का यह आरोप कहां तक सही है कि न्यायाधीशों को संपत्ति के ब्योरे न देने की छूट देने से उन्हें विशिष्ट क्यों बनाया जा रहा है? सांसद भी तो संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा करते हैं।
4. सांसदों का मानना है कि न्यायपालिका कानून से ऊपर नहीं है।
5. अगर कोई व्यक्ति सांसद पर आरोप लगने पर वे संवाददाता सम्मेलन करके अपनी बात रख सकते हैं। वे आरोप लगाने वाले को अदालत में भी घसीट सकते हैं। पर न्यायाधीश ऐसा नहीं कर सकते। वे तो अपने ऊपर लगे आरोप का खंडन भी खुले में किस तरह कर सकते हैं?
क्या है पूरा मामला
सुप्रीम कोर्ट ने 1997 में प्रस्ताव पारित करके यह बात सामने रखी कि न्यायाधीश अपने मुख्य न्यायाधीशों के सामने अपनी अचल संपत्ति का ब्योरा पेश करेंगे। नई सदी में जब सूचना का अधिकार कानून लागू हुआ, तो कानून के तहत जब लोगों ने जानकारी लेनी चाही, तो न्यायपालिका ने कुछ भी बताने से मना कर दिया। देश के मुख्य न्यायाधीश केजी बालकृष्णन का मानना है कि अगर कानूनन जरूरी बनाया जाए, तो वे न्यायाधीशों की संपत्ति की घोषणा में उन्हें कोई परेशानी नहीं है। बस इससे न्यायाधीशों का अनादर नहीं होना चाहिए। नई खबरों के मुताबिक अब उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश इस बात के लिए राजी हो गए हैं कि अब से वे अपनी संपत्ति का खुलासा उच्चतम न्यायाधीश के समक्ष करेंगे।
पद और प्रतिष्ठा
जब सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश ए आर लक्ष्मणन का कहना है कि प्रत्येक न्यायाधीश को अपने कार्यकाल के दौरान जुटाई गई संपत्ति के बारे में जानकारी देनी चाहिए। तो यह तो न्यायपालिका की पारदर्शिता के बड़ा कदम है ही। दरअसल सूचना का अधिकार लागू होने से न्यायपालिका में पारदर्शिता बढ़ेगी। इससे हिचकना नहीं चाहिए। भारत का सर्वोच्च न्यायालय मूल संरचना और अधिकार के मामले में दुनिया के सभी देशों के मुकाबले में श्रेष्ठ है। हमारे सर्वोच्च न्यायालय को अमेरिकी उच्चतम न्यायालय से भी ज्यादा शक्तियां हैं। भारतीय उच्चतम न्यायालय को भारत के राज्य क्षेत्र में सभी न्यायालयों और न्याय अधिकरणों की अपीलीय शक्ति है। अमेरिकी कोर्ट को ऐसा अधिकार नहीं है। अमेरिकी उच्चतम न्यायालय राष्ट्रपति को परामर्श नहीं देता। संविधान के अनुच्छेद 143 के मुताबिक भारत में यह राष्ट्रपति का परामर्शदाता है। भारत का सुप्रीम कोर्ट परिपूर्ण परिसंघ न्यायालय है। यह पूरे देश का अपील न्यायालय है। यह संविधान का संरक्षक है। यह संसद या विधानमंडल द्वारा बनाए गए कानूनों को भी न्यून या शून्य कर सकता है। भारतीय न्यायपालिका निर्बाध स्वतंत्र है। सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति को संसद के दोनों सदनों के दो तिहाई बहुमत द्वारा पारित महाभियोग से ही हटाया जा सकता है। जब हमारे देश की न्यायपालिका को इतने अधिकार प्राप्त हैं और चहुंओर उसका सम्मान है, फिर वह संपत्ति की घोषणा करके मिसाल कायम क्यों नहीं करते? सुप्रीम कोर्ट ने 1997 में खुद ही एक सर्वसम्मत फैसले से सभी न्यायमूर्तियों के लिए मुख्य न्यायाधीश के समक्ष अपनी संपत्ति की घोषणा अनिवार्य की थी, लेकिन सूचना के अधिकार के अंतर्गत पूछे गए प्रश्न के समय कोर्ट ने मना कर दिया। याद कीजिए, संविधान सभा में हुई बहस में डा. अंबेडकर ने कहा था, 'निसंदेह न्यायाधिपति बहुत ही प्रख्यात व्यक्ति होगा, किंतु फिर भी न्यायाधीश में भी साधारण मनुष्यों की कमजोरियां व भावनाएं होंगी।Ó ऐसे में जबकि उत्तप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह और वर्तमान मुख्यमंत्री मायावती की आय से ज्यादा संपत्ति की जांच न्यायपालिका कर रही हैं, तो ईमानदार, न्यायप्रिय और संविधान की रक्षा करने वाले न्यायाधीशों को खुद ऐसा करने में कोई एतराज नहीं होना चाहिए। हमारे न्यायाधीशों के मन में शायद यह डर समाया हुआ है कि वे जिन लोगों के बारे में फैसला करते हैं, वे ही लोग जजों को संपत्ति के ब्योरे पूछने के नाम पर बदनाम कर सकते हैं। आम आदमी या मंत्री तो फिर भी प्रेस कांफ्रेंस करके अपने मन की बात मीडिया के माध्यम से जनता तक पहुंचा सकते हैं, पर जज इस मामले में कुछ नहीं कर पाएंगे। उनका यह सोचना काफी हद तक सही है। पर श्रीकृष्ण पर भी आरोप लगे थे, पर उन्होंने कभी अन्याय का साथ नहीं दिया। इस विधेयक को लाने के पीछे सरकार की मंशा शायद यह है कि वह जनप्रतिनिधियों के लिए एक योजना बना रही है। दरअसल नेताओं को चुनाव के वक्त ही अपनी आय का ब्योरा चुनाव आयोग के समक्ष पेश करना पड़ता है। वह भी पांच साल में एक बार। ऐसे में सूचना के अधिकार से बाहर निकलने के लिए सरकार जजों के बाद शायद मंत्रियों को इसके दायरे से बाहर निकालने के लिए ही यह विधेयक लेकर आई है।
न्यायाधीशों की संपत्ति से जुड़े मामलों का इतिहास
अक्टूबर 2005- सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून बना।
सितंबर 2007- उच्चतम न्यायालय ने मुख्य सूचना आयुक्त से कहा कि अदालतों को सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर रखा जाए। सूचना आयुक्त ने इससे मना कर दिया।
नवंबर 2007- जजों ने अपनी संपत्ति की घोषणा की है या नहीं? इस सूचना के आवेदन के जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने खुलासा करने से मना किया।
6 जनवरी, 2009- मुख्य सूचना आयुक्त ने फैसला दिया कि जजों को अपनी संपत्ति का खुलासा करना होगा।
16 जनवरी- उच्चतम न्यायालय ने सूचना आयुक्त के फैसले को दिल्ली हाईकोर्ट में चुनौती दी।
जून माह- कानून मंत्री एम. वीरप्पा मोइली ने जजों की संपत्ति घोषणा को अनिवार्य बनाने के लिए नए विधेयक की घोषणा की।
15 जून- प्रस्तावित कानून पर सरकार को न्यायपालिका की अनुमति मिली। शर्त यह थी कि जजों की संपत्ति का ब्योरा सार्वजनिक नहीं किया जाएगा।
3 अगस्त- सरकार राज्यसभा में विधेयक पेश करने में नाकाम।
मामले महाभियोग के
एकाध मामलों को नजरअंदाज कर दें, तो देश की आजादी के 62 सालों में न्यायपालिका का दामन पाक साफ ही रहा है। अब तक सिर्फ एक जज रामास्वामी के खिलाफ महाभियोग आया है, जो नाकाम रहा था। अब कोलकता हाईकोर्ट के जस्टिस सौमित्र सेन के खिलाफ इसी तरह की तैयारियां चल रही है। देश के इतिहास में यह दूसरा मौका है, जब उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश को बर्खास्त करने की सिफारिश की गई है। उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति बालकृष्णन ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर सेन को बर्खास्त करने की सिफारिश की थी। बालाकृष्णन ने अपने पत्र में लिखा था, 'मैं कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सौमित्र सेन को बर्खास्त करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 217 (1) और 124(4) के तहत कार्यवाही प्रारंभ करने की सिफारिश करता हूं।Ó किसी न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग लाने संबंधी प्रस्ताव में लोकसभा के कम से कम सौ या राज्यसभा के 50 सांसदों की सहमति जरूर होती है। सेन पर उच्च न्यायालय कोष की राशि से 58 लाख रुपये से अधिक की अनियमितता का आरोप है। न्यायापालिका में भ्रष्टाचार के हाल के एक मामले में 13 अगस्त 2008 को पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश निर्मलजीत कौर के घर पर 15 लाख रुपए के नोट पाए गए। अब तक इस मामले में कोई उचित कार्रवाई नहीं हुई। इसी तरह एक मुख्य न्यायाधीश के परिजनों का नोएडा में भूखंडों की बंदरबांट का मामला कुछ समय पहले सुर्खियों में था। कुछ समय पहले गाजियाबाद में भविष्य निधि कांड में जजों के हाथ की खबरें भी आईं। इसी तरह दिल्ली हाईकोर्ट के शमित मुखर्जी पर डीडीए घोटाला में शरीक होने का आरोप लगा है। ये खबरें हालांकि कुछेक अपवाद स्वरूप ही हैं। पर यह न्यायपालिका में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के तरीकों में कमी को पेश करता है।
मिसाल हैं ये न्यायधीश
तमिलनाडु में हुए मार्कशीट घोटाले के मामले की सुनवाई कर रहे मद्रास हाईकोर्ट के जज जस्टिस आर. रघुपति ने खुली अदालत में उन्हें प्रभावित करने की बात कही थी। उन्होंने घोटाले के मुख्य अभियुक्त कृष्णमूर्ति के वकील से 29 जून, 2009 को कहा, 'अदालत जमानत नहीं देना चाहती, क्योंकि याचिकाकर्ताओं की जमानत याचिका 15 जून को खारिज कर दी गई है। एक केंद्रीय मंत्री ने मुझसे बात की और जमानत देने के लिए मुझ पर प्रभाव डालने की कोशिश की। यदि आप बिना शर्त माफी नहीं मांगते तो मैं अपने आदेश में ये सारी बातें शामिल कर दूंगा।Ó बाद में उन्होंने हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस को पत्र में कहा था कि अभियुक्त के वकील ने उन्हें फोन देकर मंत्री से बात करने को कहा था, जो उन्होंने नहीं की। बाद में रघुपति सुनवाई से हट गए थे। इस मामले में दूरसंचार मंत्री ए राजा पर संदेह किया जा रहा है कि उनसे ही चीफ जस्टिस को बात करने के लिए कहा गया था। मुख्य अभियुक्त डॉ. कृष्णमूर्ति ए राजा के विश्वस्त लोगों में से एक रहा है।
महिलाओं कम, मामले ज्यादा
उच्चतम न्यायलय से लेकर निचली अदालतों तक में करोड़ों लंबित मामले हैं। जजों की कमी साफ नजर आती है। साथ ही महिला न्यायधीशों की कमी भी साफ नजर आती है। सुप्रीम कोर्ट के कुल 24 जजों में एक भी महिला नहीं है। देश के 21 उच्च न्यायलयों में फिलहाल 617 जज हैं, पर उनमें से महिला जजों की संख्या महज 45 है। हाल यह है कि छत्तीसगढ़, हिमाचल, जम्मू-कश्मीर, राजस्थान, सिक्किम और उत्तराखंड उच्च न्यायलय में एक भी जज महिला नहीं है। देश में सबसे ज्यादा 73 जज इलाहाबाद हाई कोर्ट में हैं, लेकिन उनमें महिला जजों की तादाद महज तीन है। देश में सबसे ज्यादा महिला जजों की तादाद बॉम्बे हाई कोर्ट में हैं। कुल 66 जजों वाले इस कोर्ट में महिला जजों की संख्या सात है। देश के उच्च न्यायलयों में अब भी 269 पोस्ट खाली हैं। संविधान की धारा 124 और 217 में उच्चतम और उच्च न्यायालय में जजों की नियुक्ति का प्रावधान है, जो कि किसी भी जाति या व्यक्ति को आरक्षण देने से रोकती है। ऐसे में महिलाओं को किसी तरह का आरक्षण भी नहीं मिल सकता। इन सबके बीच यह चीज सुनिश्चित की जा सकती है कि जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता अपनाई जाए। सुप्रीम कोर्ट के 57 साल के इतिहास में आज तक सिर्फ तीन महिला जज हुई हैं। आखिरी जस्टिस रूमा पाल रहीं, जो 2006 में रिटायर हुईं।
-आशीष जैन

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बस एक कार्ड काफी है

राशन कार्ड, वाहन लाइसेंस कार्ड, पेन कार्ड, चुनाव पहचान पत्र और न जाने कितने कार्ड जिन्हें पास में रखने पर भी काम नहीं हो, तो मन करता है कि काश कोई ऐसा कार्ड होता, जो सारी समस्याओं को चुटकी बजाते ही हल कर देता। पर घबराइए मत, जल्द ही आपके हाथ में राष्ट्रीय पहचान पत्र या कहें नेशनल आइडेंटिटि कार्ड। विज्ञान की नई तकनीकों से इस लैस इस कार्ड को हर भारतीय को उपलब्ध करवाने के लिए भारत सरकार तेजी से काम कर रही है। सरकार का कहना है कि इस कार्ड में नागरिक की पूरी जानकारी उपलब्ध होगी। इस परियोजना को लेकर प्रधानमंत्री बहुत आशांन्वित हैं। हों भी क्यों न, उन्होंने इस विशाल परियोजना के लिए देश में सूचना-तकनीक के महारथी नंदन निलेकनी को इस परियोजना का प्रमुख बनाया है।

नंदन निलेकनी देश में सूचना क्रांति लाने में अहम योगदान रखते हैं और वे इंफोसिस के पूर्व उपाध्यक्ष हैं। वैसे यह परियोजना एनडीए सरकार ने 2003 में बनाई थी। इसके लिए सिटीजन एमेडमेंट एक्ट नाम का कानून भी बनाया गया। पर 2004 में यूपीए सरकार के आने से सबको लगा कि यह परियोजना खटाई में चली जाएगी। तब 2006 में उस वक्त के राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने इस परियोजना के अमल की बात की। सरकार को परियोजना के महत्व के बारे में पता लगा, तो 2008 में मनमोहन सिंह की सरकार ने मध्यावधि बजट में इस परियोजना के 100 करोड़ रुपए आवंटित किए और अब वे इस राशि को भी बढ़ाने की बात कह रहे हैं। अब इस साल इस परियोजना पर वास्तविक काम शुरू हो चुका है। उम्मीद है कि 2012 तक यह कार्ड बनकर तैयार हो जाएगा।
क्या होगा इस कार्ड में?
इस कार्ड में भारत के नागरिक की हर एक जानकारी होगी। उसका नाम, पता, परिवार, ब्लड गु्रप, स्वास्थ्य संबंधी आंकड़े, जन्म तिथि, वित्तीय स्थिति, जाति, धर्म, वाहन की जानकारी, निवास स्थल का पता, हस्ताक्षर आदि सब कुछ। नंदन निलेकनी की बात मानी जाए, तो यह कार्ड नेशनल पासपोर्ट है। मतलब जल्द ही ऐसा समय आने वाला है, जब इस कार्ड का इस्तेमाल भारतीय होने के सबूत के तौर पर किया जाने लगेगा। इस कार्ड का प्रयोग टेक्स भरने में, फोन का कनेक्शन लेने में, बैंक में खाता खोलने में, वोट देने में, सरकारी योजनाओं का लाभ लेने में किया जाएगा। इस कार्ड में आपके पैदा होने की तारीख से लेकर स्कूल, कॉलेज या फिर विदेशों में शिक्षा का ब्यौरा होगा। इसके अलावा मकान, दुकान, बैंक अकाउंट, इंश्योरेंस का पूरा ब्यौरा भी मौजूद होगा। आप कहां काम करते हैं या फिर कितनी नौकरियां बदल चुके हैं, रेलवे और हवाई जहाज में कब और कहां सफर किया है, उसके खिलाफ कोई कानूनी विवाद तो नहीं है, ये तमाम चीजें इस कार्ड में दर्ज होंगी। बायोमीट्रिक पहचान के तहत फिंगर प्रिंट, चेहरे का डिजिटाइज्ड स्कैन या आंख की पुतली का स्कैन होगा। इस कार्ड में तरह-तरह की 15 तरह की सूचनाएं होंगी। योजना में बायो मैट्रिक, अंगुली के छाप वाला या कोई अन्य ऐसा तरीका खोजा जाएगा जिससे लोगों की विशेष पहचान हो सके। इसके बाद प्राधिकरण राष्ट्रीय स्तर पर जांच के लिए नेटवर्क तैयार करेगा। इस कार्ड के चलते केंद्र सरकार के पास देश के हर नागरिक की जानकारी होंगी। इससे सरकारी योजनाओं की रूपरेखा बनाने में भी मदद मिलेगी। सुरक्षा एजेंसियों को इससे विस्तृत डेटाबेस मिल जाएगा, ताकि अपराधियों से निपटने में मदद हो सकेगी। यह प्रोजक्ट काफी बड़ा है और इसे पूरा करने में वक्त भी लगेगा। अंदाजा लगाया जा रहा है कि इसमें तीन साल का समय लग सकता है, इस तरह से इसे पूरा करने का लक्ष्य 2012 तय हो जाता है। यह नेशनल आईकार्ड एक स्मार्ट कार्ड की तरह होगा। जिसमें एक चिप होगी। इस चिप में नागरिक से जुड़ी तमाम जानकारियां दर्ज होंगी। इस योजना के सही क्रियान्वन के लिए जरूरी है कि किसी तरह की लालफीताशाही को रोका जाए और भारी-भरकम धनराशि का सदुपयोग किया जाए। इसके लिए उच्च स्तर पर पारदर्शिता जरूरी है।

क्या होगा फायदा?
इस कार्ड से गरीब लोगों को बहुत लाभ होगा। उनकी क्रय शक्ति में इजाफा होगा। इससे सरकारी योजनाओं में होने वाले घोटालों पर रोक लगेगी, योजनाओं का लाभ सही लोगों को मिल पाएगा। भ्रष्टाचार के कारण अरबों रुपयों की हमारी योजनाओं का लाभ गरीब लोगों तक नहीं पहुंच पा रहा है। सरकार नरेगा, भारत निर्माण और राष्ट्रीय स्वास्थ्य ग्रामीण मिशन जैसी योजनाओं को इस विशेष पहचान पत्र के जरिए चलाना चाहती है ताकि भ्रष्टाचार खत्म किया जा सके। विशेष पहचान बनने के बाद नौकरशाहों के लिए विकास कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में गड़बड़ी करना आसान नहीं होगा। भ्रष्टाचार जल्द पकड़ में आ जाएगा। घुसपैठियों के साथ-साथ आतंकवादियों की पहचान भी की जा सकेगी। चुनाव आयोग के मुताबिक हाल के आम चुनावों में 71 करोड 40 लाख मतदाताओं में से 82 फीसदी को मतदाता पहचान पत्र प्रदान किए गए। अगले चुनावों में इसे 100 फीसदी मतदाताओं तक पहुंचाने का लक्ष्य होगा। इस लक्ष्य की प्राप्ति में भी बहुद्देशीय राष्ट्रीय एकल पहचान-पत्र (एमएनआईसी) काफी मददगार साबित होगा। कम आबादी और कम भ्रष्टाचार वाले इंग्लैंड के गृह विभाग के अनुमानों के अनुसार राष्ट्रीय पहचान कार्ड से उनकी आय में प्रति वर्ष 65 करोड़ से एक अरब पौंड इजाफा होने की संभावना है। कहा जा रहा है कि यूनिक आइडेंटिफिकेशन कार्ड अथारिटी ऑफ इंडिया शुरू में एक यूनिक संख्या ही प्रदान करेगा, जिसके द्वारा अन्य सूचनाओं की जानकारी प्राप्त की जा सकेगी। बाद में अलग-अलग मंत्रालय और विभाग अपने-अपने हिसाब से अलग-अलग कार्ड जारी कर सकते हैं। ऐसे में यह तो समय ही बताएगा कि एक कार्ड के चक्कर में कहीं दुविधाओं के चक्रव्यूह में हम फंस न जाएं।

क्या शंका हैं
कुछ लोगों का मानना है कि यह कार्ड भारत जैसे बड़े देश में कारगर नहीं हो पाएगा। साथ ही सबसे बड़ी दिक्कत सरकार के साथ यह आने वाली यह है कि वह किस आधार पर यह सुनिश्चित करेगी कि कौन भारतीय है और कौन नहीं। हमारे देश में कई देशों से आए अवैध नागरिक भी रह रहे हैं। आज भारत में दो करोड़ से ज्यादा बांग्लादेशी रह रहे हैं, उन्होंने किसी तरह राशन कार्ड भी बनवा लिए हैं। साथ ही नेपाली, पाकिस्तानी और दूसरे देशों के अवैध रूप से रह रहे लोगों को यह नया कार्ड उपलब्ध हो गया, तो वे अपने आप ही खुद को भारतीय नागरिक साबित कर देंगे। इससे राष्ट्रीय सुरक्षा को बड़ा खतरा पैदा हो सकता है। ऐसे में सरकार को यह सुनिश्चित करना बेहद जरूरी है कि किसी भी तरह किसी गैर भारतीय को इसका धारक बनने से रोका जाए। कुछ लोगों का मानना है कि इस तरह के पहचान पत्र से नागरिकों की निजता में घुसपैठ होगी। ब्रिटेन में इसी मुद्दे को लेकर इस तरह के पहचान पत्र का विरोध कंजरवेटिव और लिबरल डेमोक्रेट कर रहे हैं। वहां इस योजना को लेबर पार्टी लेकर आई थी। अभी वहां इस कार्ड के विरोध के चलते अगले साल तक इसके आने की उम्मीद है। अमरीका में भी 1980 के दशक में सामाजिक सुरक्षा नंबर जारी किए गए। पर 11 सितंबर को हुए अमरीकी हमलों ने जता दिया कि इससे आतंकी घटनाओं पर रोका लगाना मुमकिन नहीं है। आतंकी तो हमेशा ऐसे तरीकों का इस्तेमाल करते हैं, जो पूरी दुनिया को चौंका देते हैं। साथ ही सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि आज तकनीकी दौर है और तकनीकी समय में हर तकनीक की काट मौजूद है। ऐसा न हो कि नकली नोट की तरह नकली पहचान पत्र बनना भी शुरू हो जाएं।

क्या है प्रगति?
अभी प्रक्रिया और प्रौद्योगिकी दोनों की पेचीदगियों को देखते हुए एक पायलट परियोजना को प्रायोगिक आधार पर चलाया जा रहा है, जिसमें 12 राज्यों और एक केन्द्र शासित क्षेत्र के चुनिंदा इलाकों के 30.95 लाख लोगों को शामिल किया गया है। तटीय जिलों तथा अंडमान निकोबार द्वीप में यह काम पहले ही चालू हो चुका है। पहचान पत्र एक स्मार्ट कार्ड है, जिसमें माइक्रोप्रोसेसर चिप लगी होगी। यह एक सुरक्षित कार्ड होगा, जिसकी सिफारिश सरकार द्वारा गठित तकनीकी समिति ने की थी। इस समिति में नेशनल इन्फार्मेटिक्स सेंटर, आईआईटी कानपुर, भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड, इंडियन टेलीफोन इंडस्ट्रीज लिमिटेड, इलेक्ट्रॉनिक्स कार्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड और खुफिया ब्यूरो के प्रतिनिधि शामिल थे। केन्द्र सरकार के राष्टीय सूचना केन्द्र (एनआईसी) ने इस तरह का विशिष्ट नागरिक कार्ड तेयार करने में अच्छा योगदान दिया है। वर्ष 2007 में ऐसी एक शुरुआती योजना चलाई गई थी जिसमें 20 लाख लोगों को विशिष्ट पहचान संख्या कार्ड दिये गए थे। यह योजना दिल्ली, गोवा, गुजरात, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल सहित कई राज्यों में चलाई गई थी। बहरहाल यह माना जा रहा है कि 100 करोड़ लोगों से अधिक को विशिष्ट पहचान संख्या कार्ड दिये जाने की परियोजना को इंफोसिस, टीसीएस और विप्रो के अलावा महिन्द्रा सत्यम और आईबीएम तथा एचपी ही ऐसी बड़ी आईटी कंपनियां हैं, जो इतनी बड़ी परियोजना को अमला जामा पहना सकती हैं।

कैसा है प्राधिकरण
सरकार ने यूनिक आइडेंटिफिकेशन नंबर अर्थात नागरिकों को विशिष्ट पहचान संख्या जारी करने की महत्वाकांक्षी योजना की दिशा में एक ठोस कदम बढ़ाते हुए इससे संबंधित प्राधिकरण का गठन किया है और सूचना तकनीक के धुरंधर नंदन नीलेकणि को इसकी जिम्मेदारी सौंप दी। नेशनल यूनिक आईडेंटिटि कार्ड के इस प्रोजेक्ट की कमान संभालने वाले नंदन निलेकनी को केबिनेट मंत्री स्तर का दर्जा मिला है। यह पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप की शुरुआत है, जो अमेरिका या यूरोप आदि देशों में तो सामान्य बात है, लेकिन भारत में यह नए तरह का प्रयोग है। दूसरे परियोजना प्रमुख नंदन नीलेकणि को प्राइवेट क्षेत्र से प्रतिभाओं को चुनने की आजादी भी होगी। नवगठित यूनिक आईडेंटिफिकेशन अथारिटी आफ इंडिया (यूआईएआई) की मदद करने के लिए सरकार ने 11 सदस्यीय परिषद का गठन किया है, जिसकी अध्यक्षता प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह करेंगे। यह परिषद प्राधिकार और विभिन्न मंत्रालयों, विभागों और संबंधित लोगों के बीच समन्वय को सुनिश्चित करेगी । परिषद मेंं केंद्रीय मंत्री प्रणव मुखर्जी, शरद पवार, पी चिदंबरम, एस एम कृष्णा, एम वीरप्पा मोइली, कपिल सिब्बल, सी पी जोशी, मल्लिकाजरुन खडग़े और ए राजा शामिल हैं। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया और यूआईएआई के अध्यक्ष नंदन निलेकनी भी इसके सदस्य होंगे । परिषद यूआईएआई को कार्यक्रम, तरीके और परियोजना को लागू करने के बारे में सलाह देगी । पहले चरण में नागरिकों को यूनिक आइडेंटिफिकेशन नंबर 12 से 18 महीने के भीतर जारी किया जाएगा । इसका भारी भरकम सचिवालय पहले ही तैयार करवाया जा चुका है जिसमें 115 लोग काम कर रहे हैं तथा शुरूआती परियोजना के एसेसमेन्ट के लिए 100 करोड़ राशि का आवंटन भी किया जा चुका है।

और देशों में भी
राजीव गांधी के समय में सैम पित्रोदा का नियुक्ति सी-डॉट और फिर राष्ट्रीय टेक्नॉलजी मिशन के प्रमुख के रूप में हुई थी। उन्हें आज भी देश में आई दूरसंचार क्रांति की बुनियाद डालने वाले शख्स के रूप में जाना जाता है। सौ से ज्यादा तकनीकी पेटेंट रखने वाले सैम अमरीका में अपना जमा-जमाया बिजनेस छोड़कर राजीव गांधी के आग्रह पर देश वापिस आए थे। इसी तरह आज नंदन निलेकनी इंफोसिस के सह संस्थापक के रूप में करोड़ो रुपए के साम्राज्य को छोड़कर सरकारी दायित्व को संभालने को तैयार हो गए हैं। दुनिया में अब तक सिर्फ छह देशों द्वारा ही इस प्रकार के राष्ट्रीय पहचान कार्ड दिए जा रहे हैं। ब्रिटेन, साइप्रस, जिब्राल्टर, हांगकांग, मलेशिया और सिंगापुर जैसे देशों में पहचान पत्र जारी किए जा चुके हैं। अमेरिका में राष्ट्रीय पहचान कार्ड नहीं है। वहा एक राष्ट्रीय पहचान संख्या चलती है, जिसे सोशल सिक्योरिटी नंबर कहते हैं। वहा अलग-अलग राज्यों द्वारा अपने-अपने पहचान कार्ड जारी किए जाते हैं। विश्व के पचास से अधिक देशों में भी इस तरह की आइडंटिटी विभिन्न रूपों में उपलब्ध है।
-आशीष जैन

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दोस्ती लड़की से

'दोस्ती, वो भी लड़का-लड़की के बीच में? नहीं, ये हरगिज नहीं हो सकता।' कुछ सालों पहले हर घर में ऐसे तिरछे जुमले आम थे। कहीं किसी गली-मोहल्ले में लड़का-लड़की दो कोनों में खड़े रहते थे, तो उन्हें शक की निगाह से देखा जाता था। आज अगर एक इंच की जगह भी बची रहती है, तो कमेंट पास होने में देर नहीं लगती, 'क्या यार, डरता है!' अब 'सांझ ढले खिड़की तले, तेरा सीटी बजाना याद है...' वाले अंदाज फना हो चुके हैं। अब तो दिल भी एटमबम- सा लगे है।

सोने की साइकिल पर बैठाने वाले दोस्त अब हवाओं पर बिठाकर अपने दोस्त को जन्नत की सैर करवा रहे हैं। शाहरूख बोले तो अपना राहुल, सच्ची बोलता है यार, प्यार दोस्ती है। जो दोस्त है, उससे प्यार नहीं किया, तो विदेश से कुड़ी मगाएं तेरे लिए। आज का शाहरुख थोड़ा समझदार हो गया है। दोस्ती एक बार, प्यार बार-बार। आजकल में मार्केट में जो दिल आ रही है, वो कबड्डी खेलता है, तभी तो दिल कबड्डी होता है। कबड्डी खेलने में मजा है, फिर हार-जीत तो होती रहती। सहेली अगर अपने सहेला से कुछ अंदर के कपड़े मंगवा रही है, तो अच्छा है भई। इस बहाने अपने दोस्त की नॉलेज ही चैक हो जाएगी। वैसे नथिंग मैटर, अगर वो कपड़े लाने में फेल हो जाता है। सहेली ने क्लास ढंग से नहीं ली होगी।
दोस्ती तो आज स्टेटस सिंबल है भई। अगर जवान लड़का कॉलेज जाता है और उसके पास दो-चार गर्लफ्रैंड ना हों, तो सारे दोस्त मिलकर उसकी बज्जी ले लेते हैं। बज्जी देते-देते वो इतना पक जाता है कि खुद लड़की पटाने में बिजी हो जाता है। जनाब खुद किसी लड़की के पास खड़े रहने में कतराते हों, पर दोस्त की गर्लफ्रेंड के लिए देवर का फर्ज निभाने से नहीं चूकते। दोस्त मिलने ना जा सके, तो लपककर खुद हाजिरी देते हैं। पैसों की परवाह किसे है? दोस्त की गर्लफ्रेंड को अगर पसंद आ गए, तो हो सकता है कि वो अपनी कोई प्यारी सहेली ही उसको 'ऑफर' कर दे। है ना सेवा कर, मेवा मिलेगा वाली बात।
लड़कियां भी कहां कम हैं। हिंदी फिल्मों की तरह लास्ट सीन तक सस्पेंस बनाकर रखेंगी कि दिल का सौदा पक्का हुआ भी है या सिर्फ दिल्लगी ही थी। वैसे चाहे जमाना कितना भी बदल जाए, पर आज भी लड़कियों का फिक्स डॉयलॉग है- मैंने इस बारे में अभी नहीं सोचा! कसम से हर लड़की सीधा-सपाट दोस्ती-वोस्ती नहीं, सीधा वहीं के बारे में सोचती है। वहीं तो आप समझ रहे होंगे। फिर ये दौर आता है कि मैं तो तुम्हें अपना दोस्त समझती थी। 'अरे, दोस्ती पर तो लोग जान कुर्बान करते हैं और तुम...' बन गए ना बकरा। अरे, क्या सोचकर जवानी के सुहाने दिन, दिलकश रातें उसकी यादों में झोंक दिए और अब वो ये बोल रही है कि हम दोस्त हैं... चलो हम दोस्त ही रहेंगे...ठीक है, जो हुआ ठीक हुआ। कुछ दिनों बाद घंटी बजती है- राहुल, तुम कहां हो? राहुल तो लवली के साथ डेटिंग फिक्स कर रहा है... और अंजलि अभी भी दोस्ती की खातिर जिए जा रही है। राहुल को दोस्त के रूप में अंजलि तो मिल गई पर वो मिलना भी बाकी है...
-आशीष जैन

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02 September 2009

आज की ताजा खबर- खबर लहरिया


महिलाओं के प्रयासों से निकलने वाले बुंदेली भाषा के अखबार 'खबर लहरिया' को अंतरराष्ट्रीय साक्षरता दिवस पर मिलेगा यूनेस्को की ओर से साक्षरता पुरस्कार।
दलित, आदिवासी महिलाएं पढ़-लिख रही हैं और अब नई खबर है कि वे अखबार भी निकाल रही हैं। सही बात है, ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में नवसाक्षरों और कम पढ़े-लिखे लोगों को उनकी बोली में ही सरल शब्दों वाला अखबार मुहैया हो, तो वे भी आसानी से अक्षरों से दोस्ती करने लगते हैं। अपने अंचल की बातें, अपनी ही जुबानी लिखी हों, तो जुड़ाव महसूस होता है। बुंदेली भाषा में छपने वाले अखबार 'खबर लहरिया' की प्रसिद्धि इसी बात का सबूत है।

सबसे सुखद बात है कि उनकी इस सार्थक पहल को यूनेस्को ने तवज्जो दी है और अंतरराष्ट्रीय साक्षरता दिवस, 8 सितबंर को साक्षरता पुरस्कार दिया जा रहा है। खबर लहरिया सहित चार पाक्षिक समाचार पत्रों को आठ सितंबर को पेरिस में साल 2009 के 'किंग सिजोंग साक्षरता पुरस्कार' से सम्मानित किया जाएगा, जिसमें प्रत्येक पुरस्कार विजेता को बीस हजार डॉलर की राशि दी जाती है।
प्रवाह समाचारों का
उत्तरप्रदेश के चित्रकूट और बांदा जिले से निकलने वाला साप्ताहिक अखबार 'खबर लहरिया'वाकई महिला सशक्तीकरण की मिसाल है। महिलाएं रिपोर्टिंग करती हैं, दूर-दराज के इलाकों से खबरों को इकट्ठा करती हैं, संपादन करती हैं और अखबार छपने पर बांटने का काम भी करती हैं। अखबार की एडिटर इन चीफ मीरा पांच बच्चों की मां हैं और अपना घरेलू काम पूरा करने के बाद कार्यालय पहुंचती हैं। साथ काम करने वाली अधिकांश महिलाएं विवाहित होने के बावजूद घर और बाहर के कामों को बखूबी निभाती हैं। अखबार से जुड़ी महिलाओं का आठवीं पास होना जरूरी है, पर नवसाक्षर पिछड़ी महिलाएं भी इससे जुड़ सकती हैं। क्षेत्र के बड़े अखबार भी खबर लहरिया में छपी खबरों के आधार पर खबरें निकालने लगे हैं। मीरा का कहना है, 'गांव-गांव जाकर लोगों की समस्या सुनने-समझने से काफी जानकारी मिलती है। शुरू में गरीब और नवसाक्षर महिलाओं को इस तरह का काम करता देखकर परिवार और समाज ने काफी विरोध किया था, पर धीरे-धीरे वे भी समझ गए। हमारा जोर इस बात पर रहता है कि खबरें नवसाक्षरों को ध्यान में रखकर लिखी जाएं।'
मासिक से बना साप्ताहिक
यह अखबार चित्रकूट जिले से आठ साल और बांदा जिले से तीन सालों से निकल रहा है। दोनों जिलों के लगभग 400 गांवों में इसे पढ़ा जाता है। इसे दिल्ली और उत्तरप्रदेश की महिला शिक्षा से जुड़ी स्वयंसेवी संस्था 'निरंतर' के सहयोग से 2002 से निकाला जा रहा है। एक मासिक पत्र के रूप में मात्र तीन महिलाओं के प्रयासों से शुरू हुआ यह अखबार पाक्षिक से होते हुए अब साप्ताहिक बन चुका है। खबर लहरिया यानी- समाचारों का अनवरत प्रवाह। अभी इसकी प्रसार संख्या 4500 है। लगभग बीस हजार पाठक संख्या वाले अखबार की कीमत दो रुपए है। अब इस अखबार को बिहार के तीन जिलों से भी शुरू करने की योजना बनाई जा रही है। अभी 15 महिलाएं मिलकर इसे संभाल रही हैं। इसमें राजनीति, अपराध, सामाजिक मुद्दों और मनोरंजन से जुड़ी खबरें प्रकाशित की जाती हैं। प्रतिष्ठित चमेली देवी पुरस्कार भी इस अखबार को मिल चुका है।
मामले की पूरी पड़ताल
संघर्ष के दिनों को याद करते हुए मीरा देवी कहती हैं, 'शुरू में साथी संवाददाताओं को कोई भी सूचना हासिल करने में बड़ी समस्या आती थी। लोग हमें गंभीरता से नहीं लेते थे। सरकारी विभागों के लोग हमें परेशान करते थे। पर हमने हार नहीं मानी और लोगों की समस्याओं को बेबाकी से छापा। मेरे साथ मिथिलेश, दुर्गा, सोनिया, शकीला, मीरा, कविता, शांति और मंजु भी हैं।' आठ पेजों के इस अखबार ने स्थानीय स्तर पर कई समस्याओं को भी सुलझाया है। उदाहरण के तौर पर हन्ना गांव में सड़क का प्रोजेक्ट सिर्फ सरकारी कागजों में पूरा हुआ था। जब संवाददाता मिथिलेश ने पूरे मामले की पड़ताल करके मामले को अखबार में छापा, तो जिला मजिस्ट्रेट ने जांच करवाई। अब हन्ना गांव में सड़क बन चुकी है। खबर लहरिया में छपी खबरों पर ग्रामीण लोगों को काफी भरोसा है। मीरा बताती हैं कि मुख्यमंत्री योजना में गरीब राशनकार्डधारियों को सरकारी अस्पताल में मुफ्त इलाज की हमने अखबार में छापी थी। जब ग्रामीण लोगों से डॉक्टरों ने कहा कि ऐसी कोई योजना नहीं है। हम इलाज नहीं कर सकते, तो ग्रामीणों ने जवाब दिया, 'ऐसा नहीं हो सकता, हमने खबर पढ़ी है, खबर लहरिया में।'
बेबाक शैली में गंभीर बात
अखबार से जुड़ी महिलाएं सूचनाएं इकट्ठा करती हैं। फिर महीने में दो बार होने वाली मीटिंग के दौरान खबरों पर चर्चा की जाती है और खबरों के लिए पृष्ठ निर्धारित किए जाते हैं। हर पेज का एक तय नाम है, जैसे- देश-दुनिया, विकास, महिला मुद्दा, पंचायत, क्षेत्रीय खबरें, इधर-उधर। अखबार को चलाने वाली महिलाओं के पास पत्रकारिता की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं हैं, पर निरंतर ने समय-समय पर इससे संबधित जानकारी के लिए कार्यशालाएं आयोजित की हैं। संपादकीय टिप्पणी में भी अखबार की ओर से बेबाक शैली का इस्तेमाल किया जाता है। जैसे-'आ गा सूचना का अधिकार अब मड़ई सरकारी आफिस, सरकारी अस्पताल, ब्लॉक, पंचायत, पुलिस चौकी अउर दूसर सरकारी विभागन से सूचना लइ सकत हवैं। अब सरकारी अधिकारी सूचना दे मा आनाकानी न करिहैं। काहे से सूचना न दे मा उनका जुर्माना दे का पड़ी।'
-आशीष जैन

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26 August 2009

लोकतंत्र की दीवानी


पिछले बीस सालों से घर में नजरबंद रहने के बावजूद आंग सान सू की ने हार नहीं मानी है, वे म्यांमार में लोकतंत्र की स्थापना के लिए जी-जान से जुटी हुई हैं।
रंगून में 1945 के जून माह में एक सितारा जमीन पर उतरा। ऊपरवाले ने पहले ही उसकी किस्मत में लिख दिया था कि उसे जीवनभर अपने देश के नागरिकों के हक की लड़ाई लडऩी है और लोकतंत्र का अगुआ बनना है। पति कैंसर की बीमारी से जूझते हुए गुजर गए, पर वे अपने संघर्ष की धार को कम नहीं करना चाहती थीं, इसलिए अपने पति को संभालने भी नहीं गईं। पिछले साल म्यांमार में आए नरगिस तूफान से सू की का घर तबाह हो गया। अब उनके अस्थायी घर में रोशनी नहीं रहती और वे रात को अपना ज्यादातर समय मोमबत्तियों के बीच गुजारती हैं। उन्होंने छोटी-सी उम्र से ही तय कर लिया था कि वे म्यांमार में लोकतंत्र की एक ऐसी लड़ाई लडऩे जा रही हैं, जिसमें घर-परिवार सब कुछ छूट सकता है। उन्होंने इसे चुनौती की तरह लिया और जुटी हुई हैं अपने मिशन पर।

छोटे कदम बड़ा संघर्ष
बचपन में ही उनके सिर से पिता का साया उठ गया। पिता की हत्या कर दी गई। कई मुश्किलों के बीच उनकी मां खिन की ने रंगून में सू की और उसके दो भाइयों आंग सांग लिन और आंग सांग ओ का लालन-पालन किया। थोड़ी बड़ी हुई थीं कि आठ साल की छोटी उम्र में उन्हें अपने प्यारे भाई आंग सांग लिन की मौत का सदमा झेलना पड़ा। बड़ा भाई भी आंग सांग ओ भी उन्हें छोड़कर कैलिफोर्निया में जा बसा। लंदन से पढ़ाई करके लौटने के बाद 1988 में सू की वापस बर्मा लौटीं और लोकतंत्र के लिए संघर्ष करने लगीं। नब्बे के दशक में हुए चुनावों में सू की की पार्टी ने बड़ी जीत दर्ज की, सारी दुनिया को लगा कि सू की का संघर्ष अपनी मंजिल पा गया है। पर उनके समर्थकों को शायद यह पता नहीं था कि असली लड़ाई शुरू ही तब हुई थी। इस जीत के बाद तय था कि अब म्यांमार की प्रधानमंत्री की कुर्सी पर आंग सांग सू की बैठेंगी। पर सैन्य शासकों ने सत्ता छोडऩे से इंकार कर दिया था और सू की को घर में ही नजरबंद कर दिया था। सू की घबराईं नहीं और पूरी दुनिया को संदेश देती रहीं कि वे अपनी आखिरी सांस तक हार नहीं मानेंगी।
पति से मिलीं सिर्फ पांच बार
1995 का क्रिसमस वे शायद ही भुला पाएं, इसी दिन उनकी और पति मिशेल की आखिरी मुलाकात हुई थी। इसके बाद वे कभी नहीं मिले। परेशानियों ने फिर भी सू की का पीछा नहीं छोड़ा। कुछ समय बाद मिशेल को प्रोस्टेट कैंसर हो गया, तब भी बर्मा के तानाशाहों ने उन्हें सू की से मिलने के लिए वीजा जारी नहीं किया। उस समय सू की अस्थायी तौर पर नजरबंदी से मुक्त थीं, वे अपने पति से मिलने लंदन जा सकती थीं, पर उन्होंने सोचा कि अगर वे एक बार देश से बाहर निकल गईं, तो सैन्य शासक उन्हें वापस देश में घुसने की इजाजत कभी नहीं देंगे। 1999 आते-आते उनके पति मिशेल की मौत हो गई। दुखद बात यह रही कि उनका निधन अपने 53वें जन्मदिन पर हुआ। खास बात यह भी है कि 1989 में पहली बार घर में नजरबंदी के बाद 1995 को क्रिसमस की आखिरी मुलाकात तक, वे अपने पति से सिर्फ पांच बार मिल पाईं। उनके दोनों बच्चे भी उनसे दूर ब्रिटेन में रहते हैं।
संघर्ष लहू बनकर दौड़ता है
नाम भी दिलचस्प है आंग सांग सू की का। उनके नाम में 'आंग सान' शब्द उनके पिता, 'सू' उनकी दादी और 'की' उनकी मां के नाम से लिया हुआ है। 64 साल की आंग सांग सू की के पिता ने 'मॉर्डन बर्मा आर्मी' की स्थापना की और 1947 में यूनाइटेड किंगडम से बर्मा को आजादी दिलाने में अपना योगदान दिया, तो मां भी बर्मा की राजनीति में जाना-माना चेहरा रहीं। जी हां, इसी वजह से आंग सांग सू की की रगों में ही संघर्ष लहू बनकर दौड़ता है। 1960 में उनकी मां भारत और नेपाल में बर्मा की राजदूत नियुक्त की गईं। उस दौरान आंग सांग सू की भी भारत में रहीं और उन्होंने नई दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज से 1964 में राजनीति विज्ञान में एक डिग्री के साथ अपना ग्रेजुएशन पूरा किया। इसके बाद भी पढ़ाई का सिलसिला चलता रहा और 1969 में सू की ने ऑक्सफोर्ड से दर्शनशास्त्र, राजनीति और अर्थशास्त्र में बीए और 1985 में लंदन यूनिवर्सिटी से पीएचडी पूरी कर ली। लंदन में रहने के दौरान उनकी मुलाकात डॉ. मिशेल एरिस से हुई और फिर शादी। सू की के दो बेटे हैं- एलेक्जेंडर एरिस और किम। सू की को उनके प्रयासों के लिए कई पुरस्कार मिल चुके हैं। 1991 में उन्हें शांति का नोबल पुरस्कार प्रदान किया गया। 1992 में भारत सरकार ने उनके शांतिपूर्ण संघर्ष के लिए 'जवाहर लाल नेहरू शांति पुरस्कार' दिया।
तानाशाही को पसंद नहीं रिहाई
म्यांमार में पिछले 47 सालों से फौजी हुकूमत है। महात्मा गांधी को अपना आदर्श मानने वाली सू की भी उनकी तरह अहिंसा के रास्ते पर चलकर अपने देश को सैन्य शासन से मुक्ति दिलाना चाहती हैं। बगैर सरकार की इजाजत के किसी को उनसे मिलने की इजाजत नहीं दी जाती। उनकी टेलीफोन लाइन को भी काट दिया गया है। इस साल मई में सू की की नजरबंदी का समय पूरा हो गया था। पर सैन्य सरकार ने सू की पर आरोप लगा दिए कि उन्होंने नजरबंदी के कानून का उल्लंघन किया है। कानून के मुताबिक उनके साथ रहने वाली दो महिलाओं के अलावा कोई तीसरा व्यक्ति उन तक नहीं पहुंच सकता। दरअसल हाल ही एक अमरीकी व्यक्ति ने किसी तरह सू की के घर पर पहुंचने की कोशिश की थी। अब तानाशाह ने इसी बात को मुद्दा बनाकर सू की की नजरबंदी 18 महीने और बढ़ा दी है, ताकि अगले साल होने वाले चुनावों में उनका और उनकी पार्टी 'नेशनल डेमोक्रेसी लीग' का कोई दखल न रह जाए।
-आशीष जैन

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13 August 2009

रिश्तों की कीमत पर सफलता


क्या रिश्ते गंवाकर सफलता की कीमत चुकाई जा सकती है? देश के सॉफ्टवेयर हब बंगलौर में कुछ ऐसा ही हो रहा है। लोग पैसा कमाने के चक्कर में रिश्तों को दांव पर लगा चुके हैं और शहर में तलाक के मामलों में तेजी से इजाफा हो रहा है। गौरतलब बात है कि शहर में हर रोज तलाक के औसतन 25 मामले दर्ज हो रहे हैं। क्रिस्प के एक सर्वे से यह बात पता लगती है कि बंगलौर के कई पारिवारिक न्यायालयों में इस वक्त लगभग 13 हजार तलाक के मामले लंबित हैं। इनमें से पांच हजार मामले 2008 में दर्ज हुए थे। बंगलौर में तलाक के मामले निपटने में लगभग तीन से चार साल का समय लगता है। ज्यादातर तलाक के मामलों के पीछे पति-पत्नी दोनों की बढ़ती आय, प्रतिस्पर्धा और घरेलू हिंसा जैसी बातें हैं।

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कभी चांद तो कभी चंद्र

हाल ही विधि आयोग ने कानून मंत्रालय के समक्ष इस बात की सिफारिश की है कि एक पत्नी के रहते हुए धर्म परिवर्तन कर दूसरी शादी करने को अपराध करार दिया जाना चाहिए। मीडिया में भी समय-समय पर ऐसे मामले उछलते रहे हैं। हरियाणा के उपमुख्यमंत्री चंद्रमोहन का मामला ही लें। वे शादीशुदा थे। उन्होंने राज्य की पूर्व उपमहाधिवक्ता अनुराधा बाली से शादी करने के लिए इस्लाम धर्म कबूला और दोनों बन गए चांद मोहम्मद और फिजा। फिर दोनों में खटपट हुई और चांद मोहम्मद अब वापस अपने परिवार के पास लौट आए और वापस बन गए चंद्रमोहन। सवाल यह है कि आखिर खुद के स्वार्थ के लिए कब तक धार्मिक भावनाओं से खिलवाड़ होता रहेगा? इस पूरे मामले पर हमने राय ली समाजशास्त्री, कानूनी जानकार और धार्मिक नेता से-

मेरा मानना है कि कानून बना देने से कोई अपराध खत्म नहीं हो जाएगा। कानून से ज्यादा जरूरी लोगों को रिश्तों की पवित्रता को समझने की जरूरत है। जब कोई पावरफुल आदमी ऐसी हरकत करता है, तो मीडिया इस पर काफी हो-हल्ला करता है। पर अगर वे जमीनी हकीकत देखें, तो पता लगेगा कि आज भी हिंदू मैरिज एक्ट की धज्जियां सरेआम उड़ाई जा रही हैं। लोग न केवल विवाह जैसी पवित्र संस्था का मजाक उड़ा रहे हैं, बल्कि धार्मिक भावनाओं के साथ भी खिलवाड़ कर रहे हैं। अगर आप धर्म परिवर्तन भी करना चाहते हैं, तो स्थायी रूप से धर्म को अपना लीजिए, बार-बार की नौटंकी से परिवार और समाज सब पर बुरा असर पड़ता है। पत्नी को तो लोग चुप करा देते हैं, पर उन्हें अपने बच्चों के बारे में सोचना चाहिए। जब बच्चों को पता लगता है कि उनके पिता ने दो शादियां कर रखी हैं, तो इसका बड़ा नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। विधि आयोग को अपनी सिफारिश में यह बात भी जोडऩी चाहिए थी कि दूसरी शादी बच्चों की सहमति से ही की जानी चाहिए। सामंती समाज में ज्यादा पत्नियां रखना स्टेटल सिंबल होता था। इसे रोकने के लिए ही बाइगेमी (द्विविवाह) कानून आया। विवाह संस्कार होता है, इसे समझौता बनाना बड़ी भूल होगी। सिर्फ कानून से कुछ होने वाला नहीं है। मीडिया और गैर सरकारी संस्थाओं को एकजुट होकर लोगों को प्रेरित करना चाहिए कि वे शादी के महत्त्व को समझें। पहली पत्नी से धोखाधड़ी करके दूसरी शादी करने वाले लोग कभी सुखी नहीं रह सकते।
-ज्योति सिडाना, समाजशास्त्री

हिंदू मैरिज एक्ट में एक पुरुष या स्त्री तलाक के बाद या दोनों में से किसी एक की मृत्यु के बाद ही दूसरी शादी कर सकते हैं। बाइगेमी के लिए लोग धर्म परिवर्तन करते हैं और कानूनी सजा से बच जाते हैं। ऐसे में विधि आयोग की सिफारिश बिल्कुल सही है। धर्म परिवर्तन करने पर भी अगर उसकी पत्नी या पति जीवित है, तो उसे सजा जरूर मिलनी चाहिए। ज्यादातर मामलों में यह साबित नहीं हो पाता कि व्यक्ति ने दूसरी शादी कर ली है। ऐसे में वह कानून से बच जाता है। अगर दूसरी महिला से पैदा हुआ बच्चा या दूसरी शादी का कोई प्रमाण मिल जाए, तो व्यक्ति को सजा दिलवाई जा सकती है। आईपीसी की धारा 495 के मुताबिक कोई व्यक्ति पहले विवाह की बात छुपाकर किसी व्यक्ति से दूसरा विवाह करता है, तो उसे 10 साल के कारावास की सजा का प्रावधान है। आयोग की यह भी सिफारिश है कि मुस्लिम मैरिज एक्ट के तहत उस महिला पर कार्रवाई की जानी चाहिए, जो शादी से पहले मुस्लिम नहीं थी और बाद में वह वापस अपने मजहब में लौट जाती है। उस पर भी बाइगेमी का केस चलना चाहिए। - संजय श्रीवास्तव, पारिवारिक न्यायालय के मामलों के जानकार

कोई व्यक्ति इस्लाम धर्म किसी खास मकसद से अपनाता है, तो यह गलत बात है। सिर्फ शादी के लिए इस्लाम अपनाना ठीक नहीं। इस्लाम में आस्था और विश्वास के बाद ही आप इसे अपनाएं। मेरा मानना है कि कोई इस्लाम में जाकर शादी कर ले और वापस हिंदू धर्म अपना ले, तो फिर उस पर नए धर्म (हिंदू धर्म) का कानून लगना चाहिए। हर धर्म की तरह इस्लाम भी अपने बंदों से अपेक्षा रखता है कि वह चरित्रवान हो और उच्च सामाजिक और नैतिक मूल्यों का बखूबी पालन करे। भई, धर्म तो व्यक्ति, परिवार और समाज को जोडऩे का काम करता है। ऐसे में धर्म की आड़ लेकर अपना हित साधना बेहद गलत है। - जमाअते इस्लामी हिंद, राजस्थान के प्रदेशाध्यक्ष सलीम इंजीनियर
प्रस्तुति-आशीष जैन

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भरतनाट्यम में डूबी भाव-भंगिमाएं

इस साल पद्म भूषण से सम्मानित दंपती वी. पी. धनंजयन और शांता पिछले 50 सालों से साथ नृत्य कर रहे हैं। इस दंपती को एक साथ नृत्य करते हुए देखकर लगता है, मानो एक भाव है और दूजा भंगिमा, दोनों मिलकर भरतनाट्यम की नई परिभाषा गढ़ रहे हैं।




केरल का पेयन्नुर गांव। 1953 में इस गांव के एक गरीब परिवार के 13 साल के लड़के पर मशहूर कथकली कलाकार टी. के. चंदू पणिकर का ध्यान जाता है, वे उसकी नृत्य कला पर मुग्ध हो जाते हैं। वे उसे नृत्य के मशहूर संस्थान 'कलाशेत्रÓ की संस्थापक और मशहूर नृत्यांगना रूक्मणीदेवी के पास ले जाते हैं। वहां उस लड़के की मुलाकात नौ साल की लड़की शांता से होती है। शांता भी वहां पर नृत्य सीखने आई है। पहली नजर में ही दोनों को प्यार हो जाता है। वे सालों तक राम और सीता की नृत्य नाटिकाएं पेश करते हैं और बाद में शादी कर लेते हैं। यह कहानी है- भरतनाट्यम की मशहूर नृत्य जोड़ी वी. पी. धनंजयन और शांता की। ये दोनों धनंजयंस के नाम से मशहूर हैं। वे दोनों अपने आप में परिपूर्ण हैं, पर जब दोनों मिलकर नृत्य करते हैं, तो लोग बिना पलक झपकाए उन्हें निहारते रहते हैं और भावनाओं के समंदर में गोते लगाते हैं। उनके नृत्य, पहनावे, बातचीत और बरताव में महान भारतीय संस्कृति की झलक मिलती है। अगर कहा जाए कि वे भारतीय संस्कृति के सच्चे दूत हैं, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
बहुत कुछ करना है
दोनों कला की आराधना करते-करते बहुत मंजिलें तय कर चुके हैं। 70 साल के वन्नाडिल पुडियापेट्टिल धनंजयन (वी.पी. धनंजयन) को नृत्य करते हुए 60 साल हो गए हैं। चेन्नई में उनका नृत्य संस्थान 'भारतकलांजलिÓ 40 साल पूरे कर चुका है। यह संस्थान दुनिया को नामी नृत्यकार और संगीतकार दे चुका है। सालों से दोनों पति-पत्नी कला के प्रति पूरी तरह से समर्पित हैं और चाहते हैं कि भारतीय शास्त्रीय नृत्य और संगीत नित नई ऊंचाइयों को छूता रहे। इस जोड़े को 2009 में भारत सरकार ने प्रतिष्ठित पद्मभूषण से सम्मानित किया। यह सम्मान पाने वाली यह दूसरी नृत्य जोड़ी है। जब दंपती को पद्मभूषण अवार्ड मिला, तो उनका कहना था, 'ये सम्मान हम सारे शिष्यों और कला की बारीकियां सिखाने वाले संस्थान 'कलाक्षेत्रÓ को समर्पित करते हैं। 1956 में हमारी संरक्षक और 'कलाक्षेत्रÓ की संस्थापक रुक्मणी देवी को भी यह अवार्ड मिला था। हमें गर्व है कि हम उनके पदचिह्नों पर चलकर यहां तक पहुंचे।Ó पुरस्कारों के बारे में धनंजयन कहते हैं, 'इंदिरा गांधी अपनी हत्या से 10 दिन पहले दिल्ली में हमसे मिली थीं और उन्होंने हमसे पूछा कि मैं आपके लिए क्या कर सकती हूं, तो हमने विनम्रतापूर्वक ना कह दिया। मुझे कई पुरस्कार और पद मिलने की बातें होती थीं, पर मेरा मानना था कि उसे उसके सही हकदार को ही दिया जाना चाहिए। भारत सरकार के कलाक्षेत्र को अधिग्रहण करने से पहले सरकारी अधिकारियों ने मुझसे कहा कि क्या आपके इसके डायरेक्टर बनना चाहेंगे? तो मेरा जवाब था कि इस पद के लिए मुझे नहीं, किसी और योग्य व्यक्ति को चुना जाना चाहिए।Ó
कला और कलाकार
वी.पी. धनंजयन अपनी किताब 'बियोंड परफॅारमेंसÓ में कला के इतर विषयों के बारे में बताते हैं, 'इस किताब में मैंने कला से जुड़ी सच्चाइयों का साफगोई से जिक्र किया था, अब अगर सच बोलने से कोई विवाद होता है तो लोग नाराज क्यों होते हैं? मैं तो शुरू से ही कला और कलाकारों के हित की बात करता हूं। जब लोग भारतीय शास्त्रीय नृत्य को डांस कहकर पुकारते हैं, तो मैं एतराज जताता हूं। भरतनाट्यम एक बड़ी और परिपूर्ण कला है। इसे उचित सम्मान मिलना चाहिए।Ó कलाकारों के राजनीति में प्रवेश के बारे में उनका कहना है कि कई कलाकार संसद में मनोनीत किए जाते हैं। पर कोई भी कला के प्रोत्साहन के लिए खास कदम नहीं उठाता। अगर मुझे ऐसा मौका मिला, ताकि मैं कला की शिक्षा और पहुंच बढ़ाने के लिए कुछ ठोस कदम उठा सकूं।
हम साथ-साथ हैं
केरल के पेयन्नुर में 1939 में पैदा हुए धनंजयन ने भरतनाट्यम और कथकली नृत्य में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा किया है। उनके पिता ए. रामा अध्यापक थे। उनके परिवार में यूं तो कोई नृत्य से सीधे तौर पर जुड़ा नहीं था, पर पिता नाटकों में हिस्सा लिया करते थे। यहीं से उन्हें प्रेरणा मिली और वे नृत्य कला के प्रति गंभीर होते चले गए। धनंजय को बचपन से ही संस्कृत साहित्य से बहुत लगाव था और वे आठ साल की उम्र से ही कविताएं लिखने लग गए थे। उनके पिता ने बढ़ती पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते उन्हें 'कलाक्षेत्रÓ में भेज दिया। वहां उन्हें न केवल प्रवेश मिला, साथ ही नृत्य में बेहतरीन साधना के लिए स्कॉलरशिप भी दी गई।
शांता मलेशिया के एक उच्च मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखती हैं। शांता का जन्म यूं तो मलेशिया में हुआ, पर वे खुद को केरल से ही जुड़ा हुआ मानती हैं। दरअसल उनका परिवार तीन पीढिय़ों पहले केरल से मलेशिया में बस गया था। शांता ने भी नृत्य की बारीकियां धनंजयन के साथ ही कलाक्षेत्र में सीखीं। उनके पिता बीबीसी में अकाउंटेट के पद पर थे। बचपन में शांता की नृत्य के प्रति बढ़ती रुचि को देखकर उन्होंने उसे कलाक्षेत्र में भर्ती करा दिया। शांता शुरू से ही कला के प्रति बेहद गंभीर थीं। यहीं पर वे धनंजयन से मिलीं और दोनों ने साथ-साथ नृत्य नाटिकाएं पेश करना शुरू कर दिया। राम और सीता के किरदार करते-करते दोनों को एक-दूसरे का साथ भाने लगा और 1966 में दोनों ने शादी कर ली।
आज भी दोनों मिलकर गरीब और प्रतिभावान बच्चों को नृत्य की बारीकियां सिखाते हैं और विदेशों में भी भरतनाट्यम के बारे में प्रचार-प्रसार में सक्रिय रहते हैं। भारतकलांजलि में आज भी गुरुकुल परंपरा के अनुरूप शिक्षा दी जाती है। भरतनाट्यम को नित नए आयाम देने के लिए यह दंपती रचनात्मक संसार में जी-जान से जुटा है। उनके दो बेटे हैं। बड़ा बेटा संजय अपनी पत्नी के साथ अमरीका में रहता है और चेन्नई में रहने वाला छोटा बेटा सत्यजीत मशहूर फोटोग्राफर और नृत्यकार है। दोनों कमाल के गुरु हैं। उनके शिष्यों के लिए वे भगवान की तरह हैं। दोनों अपने शिष्यों को सिर्फ भरतनाट्यम ही नहीं सिखाते, बल्कि उन्हें भारतीय परंपरा और संस्कृति से भी रूबरू करवाते हैं।
-आशीष जैन

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