05 September 2009

शिक्षा का अधिकार

देश में सबको शिक्षित करने के मकसद से सरकार ने हाल ही शिक्षा का अधिकार विधेयक पारित किया है। यह राज्यसभा और लोकसभा में पारित हो चुका है। अब बस राष्ट्रपति की मोहर लगने की देरी है। इसके बाद यह कानून बन जाएगा। शिक्षा का अधिकार विधेयक की सबसे खास बात है कि छह से चौदह साल की आयु के प्रत्येक बालक और बालिका को प्रारंभिक शिक्षा पूरी होने तक आसपास के स्कूल में निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा पाने का अधिकार मिल जाएगा। साथ ही फीस आदि वजहों से उन्हें शिक्षा से वंचित नहीं रहना पड़ेगा। यह बात सिर्फ सरकारी स्कूलों पर ही लागू नहीं होगी। आंशिक या पूर्ण अनुदान पाने वाले स्कूलों, पूरी तरह से निजी स्कूलों, नवोदय, केंद्रीय और सैनिक स्कूलों पर भी यह कानून लागू होगा। सरकारी स्कूल में तो सभी बच्चे निशुल्क पढ़ेंगे। अनुदान पाने वाले स्कूलों में अनुदान के अनुपात में सुविधा अभाव वाले समूह और दुर्बल वर्ग समूह के बच्चों को भर्ती करना होगा। निजी स्कूलों में हर क्लास में कम से कम 25 फीसदी बच्चे इन्हीं दोनों समूहों के होने आवश्यक हैं।

क्या होगा फायदा
निजी स्कूलों को ऐसे बच्चों को पढ़ाने के लिए सरकार हर बच्चे के हिसाब से प्रति छात्र औसतन खर्चा देगी। स्थानांतरण प्रमाण पत्र या जन्म प्रमाण पत्र जैसे किसी दस्तावेज के अभाव में बच्चों के स्कूल में प्रवेश को रोका नहीं जा सकेगा। साथ ही विधेयक सरकार पर यह जिम्मेदारी भी डालता है कि हर क्षेत्र में समुचित संख्या और दूरी पर स्कूलों की स्थापना होनी चाहिए। पहली से पांचवी क्लास के लिए 60 बच्चों पर कम से कम दो शिक्षक, इसी तरह 90, 120 और 200 बच्चों के लिए क्रमश: तीन, चार और पांच टीचर्स होना जरूरी है। कक्षा 6 से 8 तक के लिए प्रति कक्षा कम से कम एक शिक्षक का प्रावाधान है। शिक्षा का अधिकार कानून के मुताबिक विज्ञान और गणित, सामाजिक विज्ञान और भाषा के लिए कम से कम एक शिक्षक हो। इसमें प्रत्येक 35 विद्यार्थियों पर एक शिक्षक का अनुपात अपेक्षित है और 100 से अधिक छात्रसंख्या वाले विद्यालय में एक पूर्णकालिक प्रधान अध्यापक के साथ-साथ कला शिक्षा, स्वास्थ्य और शारीरिक शिक्षा एवं कार्य शिक्षा के लिए भी अंशकालिक शिक्षक होना चाहिए। स्कूल का अर्थ सभी मौसम में सुरक्षा देने वाला ऐसा भवन अपेक्षित है जिसमें प्रत्येक शिक्षक के लिए एक कक्षा, खेल का मैदान तथा लड़कों और लड़कियों के लिए पृथक शौचालय हो। शाला भवन में रसोई का भी प्रावधान है। ये सब तो कुछेक बातें हैं, शिक्षा के व्यापक हितों से जुड़ी ढेरों बातें शिक्षा के अधिकार विधेयक में शामिल हैं। कार्य-दिवसों व शिक्षण घंटों का स्पष्ट उल्लेख करते हुए शिक्षा का अधिकार अधिनियम में कहा गया है कि पहली से पांचवीं कक्षा के लिए वर्ष में कम से कम 200 कार्य दिवस और 800 शैक्षणिक घंटे तथा छटी से आठवी कक्षा के लिए 220 कार्य दिवस और 1000 शैक्षणिक घंटे अपेक्षित हैं। शिक्षकों से शिक्षण व तैयारी के लिए प्रति सप्ताह 45 घण्टे देने की अपेक्षा की गई है। पुस्तकालय, खेल और क्रीड़ा सामग्री की उपलब्धता के विषय में भी स्पष्ट उपबध हैं। इस सबसे पता लगता है कि सरकार ने शिक्षा को बहुत महत्वपूर्ण कार्य मानकर इसके हर पहलू पर विचार किया है। अब घटिया स्कूलों की खैर नहीं। वे शिक्षक जो कार्यालय से जुड़े काम भी शिक्षण के घंटों में ही करते हैं, उन्हें भी एक बार फिर सोचना होगा और बच्चों की उचित शिक्षा के लिए जुटना होगा। यह विधेयक संविधान के मूल अधिकार से संबंधित है, ऐसे में इसके उल्लंघन या अवमानना पर अदालत का दरवाजा खटखटाया जा सकता है। साथ ही इसमें एक विद्यालय प्रबन्धन समिति का भी प्रावधान है जो (सरकारी अनुदान प्राप्त नहीं करने वाले गैर-सरकारी विद्यालयों को छोड़कर) सभी स्कूलों में बनाना अनिवार्य होगा। यह समिति विद्यालय में प्रविष्ठ बालकों के माता-पिता या संरक्षक और शिक्षकों के निर्वाचित प्रतिनिधियों से मिलकर बनेगी। इसमें कम से कम तीन-चौथाई सदस्य माता-पिता या संरक्षक होगे और उसमें भी असुविधाग्रस्त समूह और दुर्बल वर्ग के बालकों के माता-पिताओं को समानुपातिक प्रतिनिधित्व मिलेगा। इससे योजना के सफल क्रियान्वन की दिशा तय होगी। विधेयक के अनुसार पाठ्यक्रम का निर्धारण, शिक्षकों के प्रशिक्षण का मानकीकरण और उनकी योग्यता का निर्धारण एक केन्द्रीय निकाय द्वारा किया जाएगा। इससे अप्रशिक्षित और अयोग्य शिक्षक बाहर हो जाएंगे। सरकारी और अनुदान प्राप्त विद्यालयों में शिक्षक के कुल पदों में से दस प्रतिशत से अधिक पद रिक्त नहीं रखे जा सकते। शिक्षकों के निजी ट्यूशन पर यह अधिनियम रोक लगाता है। इस विधेयक में भारी-भरकम केपीटेशन फीस को प्रतिबंधित किया गया है। बच्चों का सत्र के मध्य में भी स्कूल में प्रवेश हो सकेगा। अब शिक्षकों को गैर शैक्षणिक कामों में भी नहीं लगाया जा सकेगा। इससे उनका जनगणना, चुनाव ड्यूटी तथा आपदा प्रबंधन के कामों की बजाय शिक्षा पर ज्यादा ध्यान रहेगा। गैर मान्यता प्राप्त स्कूल चलाने पर दंड लगाया जा सकता है। बच्चों को शारीरिक दंड देने, बच्चों के निष्कासन या रोकने का भी प्रावधान है।
तैयारी पहले से थी
सबसे पहले जोमेरिन में 1990 में पूरी दुनिया में सामूहिक रूप से सबके लिए शिक्षा का प्रस्ताव पारित किया था। भारत ने इस दिशा में ठोस कदम उठाए। इसी के तहत जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम(डीपीईपी) और 2001 में शुरू हुआ सर्वशिक्षा अभियान चलाया गया। 2002 में 86वें संविधान संशोधन करके 6 से 14 साल आयुवर्ग के बच्चों के लिए निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान मूल अधिकारों में किया गया। इसे कानून बनाने के लिए 'शिक्षा का अधिकार विधेयक 2005Ó को सरकार ने तैयार किया। इसके प्रावधानों पर शिक्षाविदों की राय लेकर शिक्षा का अधिकार विधेयक-2006 तैयार किया गया और इसे संसद में पेश किया गया। 20 जुलाई 2009 को राज्यसभा और 4 अगस्त 2004 को लोकसभा ने इसे पारित कर दिया है। 1936 में जब महात्मा गांधी ने एक समान शिक्षा की बात उठायी थी, तब उन्हें भी कई समस्याओं का सामना करना पड़ा था। संविधान ने इसे एक अस्पष्ट अवधारणा के रूप में इसे छोड़ दिया था, जिसमें 14 साल तक की उम्र के बच्चों को निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने की जवाबदेही राज्यों पर छोड़ दी गई थी। पर नए विधेयक में सारी चीजों का जवाब मौजूद है। संविधान में राज्य के नीति निदेशक तत्व के अन्तर्गत संविधान के अनुच्छेद 45 में कहा गया है, 'राज्य इस संविधान के ्रारंभ से 10 वर्ष के भीतर सभी बालकों को चौदह वर्ष की आयु पूरी करने तक निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने के लिए उपबन्ध करेगा।Ó उन दस वर्षों की अवधि तो 1960 में पूरी हो गई। चूंकि यह राज्य के नीति निदेशक तत्व वाले भाग में था, इसलिए सरकार बाध्य नहीं थी। यह काम तो राज्य सरकारों को करना था। काफी जद्दोजहद के बाद सन् 2002 में संविधान में छियासीवां संशोधन किया गया और अब संविधान संशोधन के सात साल 2009 में बाद यह पारित हो चुका है। सन् 2002 में 'शिक्षा का निशुल्क और अनिवार्य अधिकारÓ संविधान के मूल अधिकारों अनुच्छेद 21 ए (भाग 3) में समाविष्ट तो हुआ, मगर यह अधिकार सभी बच्चों को न देकर केवल छह से चौदह वर्ष तक की आयु के बच्चों को मिला। उन्नीकृष्णन फैसला (1993) भी शिक्षा के अधिकार अधिनियम में खास अहमियत रखता है। इसमें कहा गया था कि अनुच्छेद 45 (बालकों के लिए निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का उपबन्ध) को अनुच्छेद 21 (प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण) के साथ देखा जाना चाहिए। अपने फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा है कि चौदह वर्ष तक प्रत्येक बच्चे को निशुल्क शिक्षा पाने का अधिकार है। वर्तमान अधिनियम का विरोध करने वालों का कहना है कि जो जन्म से चौदह वर्ष तक निशुल्क शिक्षा पाने जो अधिकार पहले से मिला हुआ था वह संविधान के छियासीवें संशोधन में सीमित होकर छह से चौदह वर्ष तक के बच्चों के लिए ही रह गया है। इस प्रकार शिक्षा को मूल अधिकार के रूप में शामिल करने के नाम पर एक कदम पीछे हटते हुए बच्चों की आयु सीमा घटा दी गई है। संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार सम्मेलन ने जन्म से 18 वर्ष की आयु को बाल्यावस्था माना है। इस पर भारत सरकार ने भी हस्ताक्षर किये हैं। शिक्षा के अधिकार के पक्ष में लडऩे वाले अनेक लोगों का मानना है कि जन्म से 18 वर्ष की आयु पूरी होने तक निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान किया जाना चाहिए।
कहीं ये ना हो
कुछ लोगों का मानना है कि इस विधेयक के लागू होने के बाद शायद निजी स्कूलों की बाढ़ सी आ जाए। निजी स्कूल गांव-गांव में खुलने लगेंगे। क्योंकि असुविधाग्रस्त और दुर्बल वर्ग के 25 फीसदी बच्चों को निजी स्कूल भर्ती कर लेंगे और बदले में सरकार से पैसे भी वसूलेंगे। ऐसे में असुविधाग्रस्त समूह और दुर्बल वर्ग के माता-पिता अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजने के बदले निजी स्कूलों में ही भेजना पसंद करेंगे। इस सबके बीच में पहले से अपनी खराब हालतों के लिए बदनाम सरकारी स्कूलों का क्या होगा? कुछ का मानना है कि सरकार का शिक्षा का अधिकार विधेयक लाना, एक प्रकार से शिक्षा के निजीकरण को अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ावा दे सकता है। साथ ही इस विधेयक के साथ-साथ अल्पसंख्यकों के धार्मिक शिक्षा के संवैधानिक अधिकारों (अनुच्छेद 30) पर भी विचार करना जरूरी है। विधेयक में यह स्पष्ट नहीं है कि मदरसो, सरस्वती शिशु मंदिर और धार्मिक आधार पर बने शिक्षण संस्थानों का क्या होगा? साथ ही देश के उन स्कूलों का क्या होगा, प्रदेश या केंद्र से संबद्ध न होकर अंतरराष्ट्रीय बोर्ड से मान्यता प्राप्त हैं? इनके प्रति सरकार का क्या नजरिया रहेगा? क्या इन्हें भी पड़ोसी स्कूल माना जाएगा?
सबको साथ चलना होगा
यह सिर्फ 6 से 14 वर्ष की उम्र तक (कक्षा 1 से 8 तक) की शिक्षा का अधिकार देने की बात करता है। इसका मतलब है कि बहुसंख्यक बच्चे कक्षा 8 के बाद शिक्षा से वंचित रह जाएंगे। कक्षा 1 से पहले पू्र्व प्राथमिक शिक्षा भी महत्वपू्र्ण है। उसे अधिकार के दायरे से बाहर रखने का मतलब है सिर्फ साधन संपन्न बच्चों को ही केजी-1, केजी-2 आदि की शिक्षा पाने का अधिकार रहेगा। वर्तमान में देश में स्कूल आयु वर्ग के 19 करोड़ बच्चे हैं। इनमें से लगभग 4 करोड़ निजी स्कूलों में पढ़ते हैं। मान लिया जाए कि इस विधेयक के पास होने के बाद निजी स्कूलों में और 25 प्रतिशत यानि 1 करोड़ गरीब बच्चों का दाखिला हो जाएगा, तो भी बाकी 14 करोड़ बच्चों का क्या होगा ? देश के सारे बच्चों को अच्छी शिक्षा मिल सके, इसके लिए सबसे जरूरी तो यह होना चाहिए कि देश में कानून बनाकर पड़ोसी स्कूल पर आधारित समान स्कूल प्रणाली लागू की जाए। इसका मतलब यह है कि एक गांव या एक मोहल्ले के सारे बच्चे (अमीर या गरीब, लड़के या लड़की, किसी भी जाति या धर्म के) एक ही स्कूल में पढ़ेंगे। इस स्कूल में कोई फीस नहीं ली जाएगी और सारी सुविधाएं मुहैया कराई जाएगी। यह जिम्मेदारी सरकार की होगी और शिक्षा के सारे खर्च सरकार द्वारा वहन किए जाएंगे। ऐसा करने पर सरकार पूरे देश में शिक्षा के प्रसार का काम सही तरह से कर पाएगी। इस कानून को अमल में लाने के लिए देश में कम से कम 60 लाख शिक्षक नियुक्त करने होंगे। एक विशेष समिति होने वाले खर्च का हिसाब लेकर तेरहवें वित्त आयोग तक जाएगी और इसमें राज्यों का हिस्सा सुनिश्चित किया जाएगा। यह भी तय है कि कुछ राज्य सरकारें पैसा न होने का बहाना करेंगी। नए कानून से सरकारी खजाने पर 12000 करोड़ रुपए का सालाना अतिरिक्त भार पड़ेगा। केंद्र और राज्य सरकार इसके लिए मिलकर संसाधन जुटाएंगी। यह विधेयक स्कूलों को भौतिक अधोसंरचना खड़ी करने के लिए तीन वर्ष का समय प्रदान करता है। देश के सभी स्कूलों को अधोसंरचना की जरूरतें पूरी करनी होंगी और केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों को सलाह दी गई है कि वे अपने यहां प्रमाणन प्राधिकरण स्थापित करें। इस कानून की सफलता के लिए सबसे जरूरी बात है कि केंद्र और राज्य सरकार साझेदारी के साथ काम करें।
-आशीष जैन

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