30 March 2009

लाइफ में बिंदास मस्ती

काश! कॉलेज के ये दिन कभी ना बीतें। जिंदगी यूं ही थमी रहे और दोस्तों के साथ हरदम मस्ती का दौर चलता रहे। ना कोई फ्रिक ना कोई टेंशन बस फुल एन्जॉय।
'यार ये लड़के अपने आप को समझते क्या हैं? हमें देखते ही यूं स्टाइल मारने लगते हैं, जैसे सलमान खान हों, पर लगते पूरे जोकर हैं।' अदिती ये बोली ही थी कि मैं जोर-जोर से हंसने लगी। मैं बोली, 'तू अभी से टेंशन ले रही है। अरे, अभी तो हमें कॉलेज ज्वॉइन करे हुए, जुम्मा-जुम्मा चार दिन हुए हैं। आगे-आगे देख, होता है क्या। अब हमें बिंदास बनकर अपनी लाइफ गुजारनी है। फुल मस्ती, नो टेंशन।' मैं और अदिती बचपन के दोस्त हैं। साथ में स्कूलिंग की है और अब कॉलेज में भी साथ-साथ आ धमके हैं। हमने हमेशा गर्ल्स स्कूल में पढ़ाई की, सो लड़कों के पढ़ने के नाम से ही मन धड़कने लगता है। ना जाने कैसे होंगे। मन में खयाल आता कि हमें परेशान करेंगे। पर ये सब के सब तो पढ़ाकू निकले। कुछ एक टपोरी टाइप के लडक़े हमें देखकर चारों ओर मंडराने लगते हैं। पर हम कौनसा उन्हें भाव देते हैं। कॉलेज में आते ही ऐसा लगता है कि अरे पढ़ाई का असली मजा तो यही हैं। हमने स्कूल की बजाय सीधे की कॉलेज में एडमिशन लिया होता, तो कितना मजा आता। मन में तो यही उमंग है कि अब स्कूल की पाबंदियों से छुटकारा मिल गया। मन मयूर की तरह नाचता रहता है। एक तरफ लगता है कि चलो अब स्कूल यूनिफॉर्म और प्रेयर का झंझट खत्म हुआ। साथ ही कुछ अजीब विचार भी मन में आते हैं। चारों तरफ के दिखावे पर नजर पड़ती है, तो मन सोचता कि ये पढ़ने की जगह है या कोई फैशन शो। स्टाइल मारने में सारे बंदे परफेक्ट। कभी मन सोचता है कि यही तो दिन कॅरियर संवारने के हैं, दूसरी तरफ समाज की कई सच्चाइयां सामने आती हैं, तो मन में घिन्न होने लगती है। दरअसल पिछले दिनों मेरे साथ पढ़ने वाली रीना हमारी ही क्लास के सुरेश के साथ कहीं चली गई। सब कहते हैं कि वो सुरेश के साथ भाग गई। पर मैं सोचती हूं कि क्या सुरेश नहीं भागा था उसके साथ। फिर सब रीना को ही दोष क्यों देते हैं। अदिती ने मुझे बताया कि वे दोनों एक-दूसरे को प्यार करते थे। तो भई, प्यार करना कोई जुर्म थोड़े ही ना है। पर दोनों को अगर किसी पवित्र बंधन में बंधना ही था, तो घरवालों को प्यार की बात बताते और उन्हें समझा-बुझाकर शादी करते। इस तरह कायरों की तरह घर वालों को दुखी करके कहीं जाने से कौनसा वे ताउम्र खुश रह पाएंगे। चलिए ये तो हुई मेरे कॉलेज की बात। पर एक ऐसी बात भी आपको बताना जरूरी है, जिसके बिना मेरी कॉलेज लाइफ अधूरी है। इसी साल तो मुझे पापा ने नया मोबाइल और स्कूटी लाकर दी है। अब तो मानो मैं आसमान में उड़ती रहती हूं। जमीन पर तो कदम ही नहीं रखती। मोबाइल पर कब हम सब दोस्त मिलकर पार्टी की प्लानिंग कर लेते हैं, किसी को पता ही नहीं लगता। अब तो मम्मी ने मेरी पॉकेट मनी भी बढ़ा दी है। जो भी ड्रेस पसंद आती है, दोस्तों के साथ जाकर खरीद लाती हूं। थोड़े पैसे खुद के पास होते हैं और थोड़े दोस्तों से उधार। अरव्, सब चलता है, मैं भी तो मदद करती हूं सबकी। हां, मम्मी जरूर समझाती है कि बेटी, तू पैसे बहुत फिजूलखर्च करने लगी है। पर आप ही बताइए, अगर ड्रैस, मेकअप और गिफ्ट पर पैसे खर्च नहीं करूंगी, तो भला मेरे दोस्त क्या कहेंगे? कहेंगे, अभी भी बच्ची ही है क्या। हां, जब-जब शाहरूख की मूवी लगती है, मैं फ्रैड्स के साथ कॉलेज से बंक मारकर फिल्म जरूर देखती है। यार सच कहूं, कॉलेज से बंक मारने का भी एक अलग मजा है। बंक मारो और किसी दोस्त को पकड़ लो। फिर तो कोई भी बहाना बनाकर उससे मैक्डी में ट्रीट ले ही लेते हैं। बाद में उसे बताते हैं कि आज तो तू बकरा बन गया हो.. हो.. हो..। यूं तो हमारे कॉलेज का टाइम सुबह 11 से 3 बजे तक का है, पर हमारी मित्रमंडली तो 6 बजे तक कैंटीन में गप्पें ही लड़ाती रहती है। फिर जब थक-हारकर बोर होने लगते हैं, तो सबको बाय कहके निकले पड़ते हैं घरों की ओर। मम्मी-पापा से ज्यादा दोस्तों के साथ रहना-बातें करने को जी चाहता है। सब कुछ सुहाना-सा लगता है। लगता है कि ये दिन कभी खत्म ना हों। एक बार कहीं बैठ गए, तो घंटों बैठे रहें और बातों का सिलसिला चले, तो फिर कभी खत्म ना हो। घर पर भी जाकर चैन थोड़े ही ना पड़ता है। दादा-दादी, चाची-बुआ सबको अपनी राम-कहानी सुनाने लगती हूं। ये हुआ, ये खाया, यूं मजे किए। मेरे साथ-साथ पूरा घर की जवान हो उठता है। अब तो खुली आंखों से सपने देखती हूं। खुलकर जीती हूं। इन दिनों सब कुछ धुला-धुला, साफ-साफ और नया-नया नजर आता है। मेरी तो यही ख्वाहिश है कि हमेशा के लिए ये दिन मेरी आंखों में बस जाए और जिंदगी यूं ही खुशनुमा बनी रहे।

-आशीष जैन

...आगे पढ़ें!

बचपना बीता जाए रे...


मां कहती है कि अब मैं बड़ी हो गई हूं। मुझे सारे काम समझदारी से करने चाहिए। ना जाने क्यों पहली बार एहसास हो रहा है कि मैं लड़की हूं और बंदिशों में कैद लड़की।
मैं हूं छवि। नटखट, अलबेली और चुलबुली। आपको पता है- मेरे नाम की भी एक कहानी है। ननिहाल में पैदा हुई, तो सारी औरतें बातें बनाने लगी थीं- ये इस पर गई है, उस पर गई है, पर बड़ी मौसी बोली, 'अरे हमारी लाडो रानी में तो सबकी ही छवि नजर आती है, तेरी, मेरी, मां की सबकी। इसका नाम तो छवि ही होना चाहिए। छवि मासूम है, दिल से। रंगों भरी इस दुनिया में सबसे जुदा। सब मुझे बहुत प्यार करते हैं। यूं तो मेरा एक छोटा भाई छुटकू भी है, पर सब मेरी बात पहले सुनते हैं। अभी मैंने उम्र के 13 बसंत ही तो देखे हैं। पर इन दिनों मैं महसूस कर रही हूं कि मां की पाबंदियां मुझ पर कुछ ज्यादा ही बढ़ गई हैं। अब तो मां मुझे पड़ोस के गंपू के साथ भी खेलने नहीं देती। सांझ ढले ही मां की आवाज पड़ने लगती है। पता नहीं उन्हें हो क्या गया है। सामान लेने बाजार जाती हूं, तो भी मां छुटकू के साथ भेजती हैं। उनकी हिदायतें भी अजीब होती हैं कि संभल के चलना। जिस रास्ते जाए, वहीं से आना। और पता नहीं क्या-क्या। बाजार जाती हूं, तो पास से गुजरते लोग भी घूरते रहते हैं। मुझे यह सब कतई अच्छा नहीं लगता। दादी भी मुझे लंगड़ी टांग खेलने नहीं देती। पहले तो मेरी हर बात मानती थी। मुझे याद है बहुत दिनों पहले वे मेरे लिए एक गुड्डा लेकर आई थी और बोली कि इससे तेरा ब्याह रचाएंगे। उस वक्त मैंने पूछा था कि ये ब्याह क्या होता है दादी। तो वे बोली, 'मेरी प्यारी गुड्डू, ये तो एक खेल है, जोग-संजोग का।' उनकी यह बात मेरे आज तक पल्ले नहीं पड़ी है। पिताजी तो सदा अपने काम में मगन रहते हैं। उनके हिस्से का प्यार भी मां ही करती हैं। पिछले दिनों की बात है, एकाएक पेट में बहुत दर्द होने लगा। यूं लगा मानो मर ही जाऊंगी। मैं जोर-जोर से रोने लगी। दौड़कर मां मेरे पास आई और बोली, 'इन दिनों में ये सब होता है।' उस दिन सारे दिनभर मैं बिस्तर पर ही सोती रही। कुछ भी अच्छा नहीं लगा। ना ढंग से खाना खाया, ना ही कहीं गई। रात को मां ने अकेले में समझाया कि बेटी अब तू बड़ी हो गई है। तू अब बच्ची नहीं रही। अब हर महीने ऐसा ही होगा। ये तेरे औरत बनने की तैयारी है। ये दर्द कुछ दिन तक रहेगा, फिर ठीक हो जाएगा। अब तू साफ-सफाई का ज्यादा ध्यान रखा कर। चौके में भी मत घुसना। पानी से थोड़ा दूर ही रहना। इसके अलावा ढेरों सलाह उन्होंने दी। मुझे लगा कि वाकई अब मैं सबसे अलग हो गई हूं। मां ने बताया कि अब तू लड़कों के साथ खेलना छोड़ दे। मैं मन ही मन सोचती कि मां मेरी खुशियां मुझसे मत छीनो। इसमें कोई मेरा कसूर नहीं है। मुझ पर इतनी पाबंदियां क्यों हैं? उन चंद दिनों के लिए दादी भी मुझे अछूत मानने लगी। मेरे लिए अलग बिस्तर लगने लगा। एक बारगी तो मन में आया कि कह दूं मां से, मुझसे मेरा बचपन क्यों छीना जा रहा है? होली जैसे त्योहार पर भी किसी दोस्त को रंग नहीं लगाने दिया। मैं क्या करूं, मन ही मन दुखी होकर रह जाती हूं। मां से पूछती हूं, तो उनका एक ही जवाब रहता है कि तू लड़की है, लड़का नहीं। खुद को खूब कोसती हूं कि काश, मैं लड़का होती, तो मुझसे मेरा बचपन तो नहीं छिनता।आज भी मां की बचपन में लाई छोटी सी फ्रॉक देखती हूं, तो बहुत खुश होती हूं। बचपन से आज तक मां कितने प्यार से मेरे बालों में सरसों का तेल लगाती आई हैं। कहती हैं, 'बालों को रोज तेल नहीं लगाया, तो कमजोर हो जाएंगे।' पहले घर के आंगन में आम का पेड़ था। उस पर सब बच्चे झूला डालकर मस्ती करते थे। अब तो मां वहां खड़ा देखते ही डांटने लगती है। कांच की चूड़ियों के टुकड़े से भी तो हम खूब खेलते थे। मेरे बचपन से सारे दोस्त आज भी मुझे याद करते होंगे। जब पहली बार स्कूल गई थी, तो और बच्चों की तरह रोई थोड़े ही थी मैं। बिल्कुल सयानी बच्ची की तरह पूरे सात घंटे घर से दूर रही थी। शरारती तो थी, पर घरवालों को कभी परेशान नहीं किया। छुटकू की शैतानियों से तंग आकर पिताजी जरूर उसे चपत लगा दिया करते थे। दादी हमेशा छुटकू का पक्ष लेती। छुटकू को मैं बहुत प्यार करती हूं। वो गुस्से में कभी-कभी मेरी चुटिया पकड़कर फिराने लगता, तो पूरा घर हंसता, पर मेरव् बालों को खींचने पर हुए दर्द के बारे में कोई नहीं पूछता। ठीक है, भई मैं लड़की हूं, पर दर्द तो मुझे भी होता है। दर्द होने पर भी मुझे हंसना पड़ेगा, कभी सोचा नहीं था। मां कहती है कि पढ़ाई ढंग से करेगी तो आगे की जिंदगी सही से गुजर जाएगी। तुझे काम नहीं करना। छुटकू को इंजीनियर बनाने की बात करते हैं, पर मेरे भविष्य के सवाल पर सब मौन हो जाते हैं। कहते हैं कि तू मत सोच, हम सब सही करेंगे। अब तो मैं भी मान चुकी हूं कि मेरा अस्तित्व पर लगे प्रश्न चिह्न भविष्य ही हल कर पाएगा।
-आशीष जैन

...आगे पढ़ें!

19 March 2009

मंदी में मौज

मंदी के दौर में हम सबके लिए जरूरी हो गया है कि अपनी जरूरतों पर लगाम कसी जाए और बचत के सूत्र को जीवन में उतारा जाए। आपको पता ही नहीं होता और छोटे-छोटे खर्चों से आपकी जेब ढीली होती जाती है। फाइनेंस एक्सपर्ट गौरिका चौधरी बता रही हैं कि मंदी के दौर में आम लोग खासकर महिलाएं किस तरह रुपए-पैसे की बचत करें। आइए जानते हैं कुछ मनी मंत्र-
पैसा आज की सबसे बड़ी जरूरत है। मंदी के दौर में इस बारे में सोचना निहायती जरूरी हो गया है। महिलाओं के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि कदम-कदम पर उनका वास्ता रुपए-पैसे से पड़ता है, पर उन्हें नहीं पता होता कि यह कैसे आता है और कहां-कैसे जाता है। इंश्योरेंस, शेयर बाजार जैसे विषयों पर उनकी राय नहीं ली जाती। अक्सर हिंदुस्तानी पति नहीं चाहते कि उनकी पत्नी पैसे के बारे में किसी जानकार से राय ले। महिलाओं को पता नहीं होता कि उनके पति का बिजनेस का टर्नओवर कितना है? मेरा मानना है कि घर के आर्थिक मामलों में महिलाओं की भूमिका में इजाफा होना चाहिए। जेब और जीवनशैली का गहरा नाता है। अगर आपके पास ज्यादा पैसे हैं, तो जाहिर सी बात है कि आप अपना और परिवार का जीवन स्तर सुधारना चाहेंगे। मंदी के दौर में जेबें छोटी हो गई हैं, पर लोगों के सपने अभी भी बड़े हैं। ऐसे में पूरे परिवार को ही हर फैसले में कदम फूंक-फूंक कर रखने होंगे। आज नौकरियां जा रही हैं। कंपनियां अपने कर्मचारियों को आधी तनख्वाह ही दे रही हैं। ऐसे में परिवार संभालने के लिए महिला की भूमिका बहुत बढ़ जाती है।

खुद के लिए बचत

मेरे शो 'गौरिका चौधरी शो' में ऐसी महिलाएं आती हैं, जो अपने परिवार की किसी न किसी तरह से मदद करना चाहती हैं। उन्हें पता है कि पति को बिजनेस में घाटा हो रहा है, पर वह खुलकर अपनी परेशानी बताने से बच रहा है। कमाने वाली महिलाएं भी खुद की बजाय घर को सामने रखकर ही पैसों के बारे में कोई फैसला लेती हैं। यह कुछ हद तक ठीक है। पर महिला को अपने बारे में भी सोचना चाहिए। हर महिला को खुद की निजी जरूरतों के हिसाब से बचत करनी चाहिए, जिस पर सिर्फ उसका हक हो। परिवार के लिए आप इतना कुछ करती हैं, पर अगर आने वाले समय में परिवार आपका साथ नहीं दे, तो इससे आपके पास पैसों का कोई जरिया तो होगा। उधार लेकर घी पीने की आदतों से हमें निजात पानी होगी। अक्सर हम एक-दूसरे को देखकर फिजूलखर्ची में मशगूल हो जाते हैं, पर मेरी सलाह है कि दरअसल फिजूलखर्ची व्यक्तित्व का एक हिस्सा होती है। पैसों को खर्च करने में कभी देखादेखी नहीं करनी चाहिए। हो सकता है जो मेरी जरूरत है, वो आपके लिए फिजूलखर्ची हो। यह पूरी तरह इंसान की सोच पर निर्भर है। इस समय हमें बचत पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए। आज अच्छी-अच्छी कंपनियां डूबने की कगार पर हैं। ऐसे में बाजार पर पैनी नजर रखना जरूरी है।

निवेश सोच-समझकर

इस समय इक्विटी और सोने में निवेश करना खतरों से भरा है। ऐसी चीजों में निवेश की जरूरत है, जो काम पड़ने पर काम आ सके। हम भारतीय अक्सर छोटे-छोटे निवेश में दिलचस्पी लेते हैं। अगर आप गोल्ड में निवेश करते हैं, तो यह मेरे मुताबिक सही नहीं होगा, क्योंकि हम अक्सर सोने को बेचते कहां हैं। अगर आपको पैसों को कहीं निवेश करना है, सबसे सुरक्षित जगह फिक्स डिपोजिट में पैसा जमा करें। आज के समय में बैंक में ही धन सुरक्षित है। बैंक आपको ब्याज भी अच्छा दे रहे हैं। साथ ही बैलेंस्ड फंड्स में भी निवेश करना अच्छा रहेगा। पहले लोग सोचते थे कि टैक्स सेविंग के लिहाज से घर खरीदने में पैसा निवेश किया जाए, पर आप सबको पता है कि रियल स्टेट मार्केट में गजब की गिरावट है। इसलिए आप इससे दूर रहें, तो ही भला है। इस वक्त घर खरीदने की नहीं सोचें। दो-तीन महीने रुक जाएं। हां, अगर आप रहने के लिए घर खरीदना चाहते हैं, तो इस समय मोलभाव अच्छे से कर सकते हैं। इंवेस्ट के लिहाज से मैं मना कर रही हूं। पैसे को लेकर आप अपनी प्राथमिकताएं तय कर लीजिए। कौन-कौनसी ऐसी चीजें हैं, जिन पर पैसा खर्च करना आवश्यक है, उनकी लिस्ट बना लीजिए। इस मंदी के समय में आपको घर में तीन-चार महीने की तनख्वाह रिजर्व में रखनी होगी, अगर आपकी नौकरी चली जाती है, तो यही पैसा काम आएगा। अगर आप पीपीएस में निवेश करें, तो बहुत अच्छा है। इसमें आपको साढ़े आठ फीसदी तक का अच्छा रिटर्न मिलता है। इंश्योरेंस में कुछ बंदिश होती हैं और इसके डूबने के आसार भी बन सकते हैं। यूलिप खरीदने से भी आपको बचना चाहिए। लंबी अवधि के लिए पैसा लगाना है, तभी म्यूचुअल फंड अच्छे हो सकते हैं, वरना नहीं।

दिखावा नहीं जरूरत समझें

मंदी के दौर में घर के सभी सदस्यों को मनोवैज्ञानिक रूप से तैयार हो जाना चाहिए। मूवी और आउटिंग पर परिवार सबसे ज्यादा पैसा खर्च करता है। इससे बचना चाहिए। अक्सर लोग मुझसे कहते हैं कि हमारव् लिए बच्चे सबसे बड़ी प्राथमिकता हैं, हम उनके खर्चों में कटौती नहीं कर सकते। पर हमें बच्चों को समझाना होगा। पिज्जा, बर्गर की बजाय दूसरी चीजें भी खा सकते हैं। आज लोग सब चीजें बाहर से ही मंगवाते हैं। मेरा मानना तो यह है कि शाम को घर पर ही चाय बनाकर आनंद लीजिए। थोक में सामान खरीदने की आदत डालिए। बिजली के बिल को कम करने की कोशिश भी जरूरी है। सप्ताह में एक बार ही वाशिंग मशीन चलाइए। घंटों टीवी देखने पर भी कंट्रोल करना जरूरी है। कभी-कभी बिना एसी के भी तो रहा जा सकता है ना। जिन लोगों ने अच्छे माहौल में पैसे जमा कर लिए, उनके लिए तो कोई दिक्कत नहीं है। जिन्होंने अपनी चादर से ज्यादा पांव नहीं पसारी, वे आज मजे कर रहे हैं। दिक्कत यह है कि मंदी के दौर में भी कुछ लोग अपनी लाइफ स्टाइल में बदलाव करना नहीं चाहते। भई, अगर छोटी गाड़ी से आप ऑफिस पहुंच सकते हैं, तो दिखावे के लिए बड़ी गाड़ी खरीदने की जरूरत क्या थी। मेरा मानना है कि अभी अपने सपनों को टालिए। चाहे आपके पास पैसे हों, पर खर्च करने की बजाय उन्हें जमा कीजिए। यही पैसा आगे आपके काम आएगा।

(आशीष जैन से बातचीत के आधार पर)

...आगे पढ़ें!

14 March 2009

हर रंग कुछ कहता है

रंग कहां नहीं हैं? सारा संसार रंगमय है। रंग रसोईघर के मसालों से भरे हैं। फलों और साग-भाजियों में उनकी गहरी पैठ है। परिधानों में रंग लिपटे हुए हैं। रंग मां की माथे की बिंदिया में, बेटी की आंख के काजल में, बहिन के हाथों की मेंहदी में हैं। रंग कभी दादी के पांव की नुपूर में झकनते हैं, तो कभी प्रियतमा के होठों की लाली में बस जाते हैं। रंग प्रकृति की जय में हैं, विजय में हैं। रंगों की महक से ही तो भंवरे चंपा-चमेली से चुगली कर रहे हैं। गेंदे और सूरजमुखी में गलबांही इन्हीं की वजह से ही तो होती है। बगिया रंगों की बस्ती है, जहां हर रंग अपनी धुन में मगन है। रंगों से हर रोज खेलने वाले चितेरे से पूछें, तो पता लगेगा कि रंग तो बहुत ही मासूम हैं। कभी तिरंगे में केसरिया, सफेद और हरा रंग बनकर वे हमारे दिल में बस जाते हैं, तो कभी बारिश की नन्ही बूंदों के सहारे इंद्रधनुष बनकर फिजा में फैल जाते हैं।रंगों की दुनिया का अपना अलग ही एहसास है। इनकी बात चलती है, तो हर मन में नया उल्लास, उमंग और जोश सा भर जाता है। रंग असल में हमारे मन के उत्सव की परछाई हैं। मानव मन ने हर क्षण को जीवंतता से जीने का एक बहाना ढूंढा है। रंग कभी त्योहार बनकर हमसे मिलते हैं, तो कभी खुशियों की वजह बन जाते हैं। फिर चाहे कोई भी रूप हो, रंग सदा हमारे साथ रहते हैं। हर खुशी, हर गम में रंग की खासी भूमिका रहती है। बच्चे की किलकारी में, बारिश की बूंदों में, बांसती सरसों में या फिर दुल्हन की चुनर में। हमें कभी लाल, पीले या नीले रंग खोजने नहीं पड़ते हैं। रंग खुद हमसे बातें करते हैं। मानव जीवन भी रंगों से बेखबर दुनिया नहीं जी सकता। हर मोड पर कोई ना कोई रंग हमसे टकरा ही जाता है। रंगों से हर रोज खेलने वाले चितेरे से पूछें, तो पता लगेगा कि रंग तो बहुत ही मासूम हैं। कभी तिरंगे के केसरिया, सफेद और हरे रंग बनकर वे दिल में बस जाते हैं, तो कभी बारिश की नन्ही बूंदों के सहारव् इंद्रधनुष बनकर फिजा में फैल जाते हैं। बसंत के मौसम में थोड़ी सी देर के लिए अगर प्रकृति से उसका पीला रंग उधार मांगकर रख लें, तो बहारों में वो रौनक रह जाएगी। अगर सूरज की लालिमा मिटने लगे, तो क्या हमारे दिलों में सुकून रह पाएगा। रंगों से ही तो रोशन हैं दुनिया के जमीन और आसमान। यूं तो रंगों की अपनी एक अलग दुनिया है, पर जब रंग इंसानी जज्बात के साथ मिलते हैं, तो गजब का जादू बिखेरते हैं।जीवन की मुस्कान हरे, नीले पीले, लाल, गुलाबी रंग मानवीय उल्लास के ही तो प्रतीक हैं। रोते हुए बच्चे को अगर एक रंग-बिरंगा गुब्बारा थमा दें, तो उसके होठों पर मुस्कान तैरने लगती है। प्रेयसी जब आपका घंटों इंतजार करते-करते थक सी जाती है, तो आप ही तो उसके लिए सुर्ख लाल या गुलाबी रंग का गुलाब का फूल ले जाते हैं। आपकी प्रियतमा फूल की रंगीन दुनिया में खो जाती है और इंतजार के शिकन को भुला देती है। बसंत के पीले रंग से सजी खेतों की चुनर पर सर्वस्व लुटाने को जी चाहता है। बचपन के दिन याद कीजिए, जब हम दो रंग मिलाते थे और तीसरा रंग बन जाता था। जिंदगी में खुशी और गम, मिलना और बिछुड़ना, संवाद और विवाद रंगों की तरह की तरह साथ-साथ मिलकर एहसास की गहराइयों में नए-नए भावों को पैदा करती रहती है। यूं तो हर रंग का एक खास मानी होता है। नीला रंग शांति देता है, पीला रंग बौद्धिक क्षमता विकसित करता है। पर मेरी समझ में ये चीज आज तक नहीं आई कि क्योंकर हम टे्रफिक लाइट की लाल बत्ती देखकर तो परेशान हुए जाते हैं, वहीं दुल्हन को सुर्ख लाल जोड़ा पहने देखकर बधाइयां गाने लगते हैं। भई रंग तो एक ही है। फिर यह मन भेद क्यों हो जाता है? मुझे तो लगता है कि रंग भी मन के धागों से मिलकर हर बार अपने लिए एक नया अर्थ या प्रयोजन गढ़ते जाते हैं। चलिए छोड़िए, इस लाल रंग को वरना हो सकता है, कोई सांड (वामपंथी भी हो सकता है) आपको प्यार करने के वास्ते दौड़ा चला आ रहा हो।
अब हम अपने चारों ओर निगाह डालते हैं। पहली बारगी क्या नजर आता है? सतरंगी पंछी, मटमैले पहाड़, नीला अंबर। हां, मुझे भी तो ऐसा कुछ नजर आ रहा है। पर गौर करने वाली बात है कि इन सबमें खास बात है रंगों का मन पर गहरे असर की छाप। पूरी प्रकृति अपने मन, वचन और कर्म से रंगभरी है, किसी बच्चों की ड्राइंग की कॉपी की तरह। पर इस कॉपी को देखने के लिए बच्चों की सी ही निगाह भी चाहिए। रंगों के मायने अगर हमें सीखने हैं, तो सबसे सही तरीका है किसी बच्चों के साथ पूरा एक दिन गुजारा जाए। तब हमें पता लगेगा कि रंगों को जीना, देखना, महसूस करना और खुद में संजोना कितना आसान है।लोग कहते हैं कि रंग बदलना में गिरगिट बहुत माहिर होता है, पर इंसानी फितरत भी तो पल-पल बदलती रहती है, हम यह क्यों भूल जाते हैं? रंगों की तासीर को दिल में बसा लेने की ख्वाहिश ही तो हमें होली जैसे त्योहार से जोड़े रखती है। आइए रंगों से सराबोर हो, हम भी गिले-शिकवों को भूलकर नई नजर से दुनिया के नए रंगों से रूबरू हो जाएं। प्यार बांटें, प्यार पाएं और खुश हो जाएं।
-आशीष जैन

...आगे पढ़ें!

12 March 2009

रंगीली छटा के अंदाज


होली सिर्फ हम ही नहीं मनाते। होली तो हर देश में मनाई जाती है, नाम और तरीका चाहे अलग हो, पर भावना सबकी एक है- प्रेम, उमंग और उल्लास।
आशीर्वाद बुजुर्गों का
फ्रांस में 19 मार्च को होली की तरह एक त्योहार डिबोडिबी के नाम से मनाया जाता है। वहां इस दिन पिछले वर्ष की विदाई और नए साल के स्वागत में खुशियां मनाई जाती हैं। मिस्त्र में 13 अप्रैल की रात्रि को जंगल में आग जलाकर यह पर्व मनाया जाता है। आग में लोग अपने पूर्वजों के पुराने कपड़े भी जलाते हैं। तेरह अप्रैल को ही थाइलैंड में भी नव वर्ष 'सौंगक्रान' शुरू होता है । इसमें बुजुर्गों के हाथों इत्र मिश्रित जल डलवाकर आशीर्वाद लिया जाता है। म्यांमार में इसे जल पर्व के नाम से जाना जाता है।नाचो- गाओ, खुशी मनाओजर्मनी में ईस्टर के दिन घास का पुतला बनाकर जलाया जाता है। लोग एक दूसरे पर रंग डालते हैं। अफ्रीका में 'ओमेना वोंगा' त्योहार मनाया जाता है। इसी नाम के एक अन्यायी राजा को लोगों ने जिंदा जला डाला था। उसका पुतला जलाकर लोग नाचते-गाते हैं और खुश होते हैं। पोलैंड में 'आर्सिना' पर लोग एक दूसरे पर रंग और गुलाल मलते हैं। यह रंग फूलों से बना होने की वजह से काफी सुगंधित होता है। लोग परस्पर गले मिलते हैं। अमरीका में 'मेडफो' पर्व मनाने के लिए लोग नदी किनारे इकट्ठे होकर गोबर तथा कीचड़ से बने गोले एक-दूसरे पर फेंकते हैं। चेक और स्लोवाक क्षेत्र में 'बोलिया कोनेंसे' त्योहार पर युवा लड़के-लड़कियां एक दूसरे पर पानी और इत्र डालते हैं। बेल्जियम के लोग होली को मूर्ख दिवस के रूप में मनाते हैं। यहां पुराने जूतों की होली जलाई जाती है।
जीवन में बहार
इटली में 'रेडिका' त्योहार फरवरी के महीने में एक सप्ताह तक मनाया जाता है। लकड़ियों के ढेर चौराहों पर जलाए जाते हैं। लोग अग्नि की परिक्रमा करके आतिशबाजी करते हैं। एक दूसरे को गुलाल भी लगाते हैं। रोम में इसे 'सेंटरनेविया' कहते हैं तो यूनान में 'मेपोल'। स्पेन में भी लाखों टन टमाटर एक दूसरे को मार कर होली खेली जाती है। जापान में 16 अगस्त की रात को 'टेमोंजी ओकुरिबी' पर्व पर कई स्थानों पर आग जलाकर यह त्योहार मनाया जाता है। चीन में इसे 'च्वेजे' नाम से मनाते हैं। यह पंद्रह दिन तक मनाया जाता है। लोग आग से खेलते हैं और अच्छे परिधानों में सज-धज कर गले मिलते हैं। नार्वे और स्वीडन में सेंट जॉन का पवित्र दिन होली की तरह से मनाया जाता है। शाम को किसी पहाड़ी पर होलिका दहन की तरह लकड़ी जलाई जाती है और लोग आग के चारों ओर नाचते-गाते हैं। इंग्लैंड में मार्च के अंतिम दिनों में लोग अपने मित्रों और संबंधियों को रंग भेंट करते हैं ताकि उनके जीवन में रंगों की बहार आए।

...आगे पढ़ें!

09 March 2009

नारी कभी ना हारी

नारी के ना जाने कितने रंग है? कभी एक रंग को पकड़ता हूं, तो लगता है कि अरे यह तो छूट ही गया। दया, प्रेम, करुणा जैसे गुणों की बात करने लगता हूं, तो जीवटता, सहनशीलता, मर्यादा जैसे रंगों पर बात अधूरी रह जाती है। आज मन कर रहा है कि चलो कोशिश करूं और देखूं कि महिला के जिंदगी के कितने रंगों में समाई है? महिला दिवस आ रहा है। लोग चारों ओर महिलाओं की उपलब्धियों की बात करेंगे। चारों दिशाओं में गूंजते नारों से लगेगा कि महिला ही आज सर्वोपरि है। सरकार भी तो अपने गाल बचाएगी। जननी सुरक्षा लागू कर दी। फिर भी दूर-दराज में आज भी प्रसव मां के लिए सुरक्षित नहीं है। अरे सरकार खुद कहती है कि पिछले 20 सालों में करीब 1 करोड़ बच्चियों को गर्भ में ही मार डाला गया। अब अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की भी तो सुन लो। कहता है कि दुनियाभर में 75 फीसदी महिलाएं कोई ना कोई काम करती है। हमने पूछा फिर तो महिलाओं के पास बहुत-सी संपत्ति होनी चाहिए। पर जवाब आता है- जी नहीं। इन काम करने वाली वामाओं में से सिर्फ 0.01 फीसदी महिलाओं के पास संपत्ति का मालिकाना हक है। वाह रे दुनिया बनाने वाले। काम कोई करे और मजा कोई ले। बचपन में नानी, मामी, फूफी, बहन, पत्नी और मां जैसे रिश्तों में बंधी नारी आज तो हमारी अफसर बन गई है। प्रतिभाताई को भूल गए क्या। राष्ट्रपति हैं। देश में कोई बड़ा फैसला उनके हस्ताक्षर के बिना कोई करके तो दिखाए। कभी जमाने भर से दबी-कुचली नारी अब आजाद हो गई है। विद्या नाम चाहे कहीं सुनाई ना दे, पर माया की खनक चहुंओर है। अजी गौर कीजिएगा, मैं तो दानवी मायावती की बात कर रहा हूं। खुद जिंदा है, पर लोगों की याददाश्ती के लिए खुद की आदमकद मूर्ति बनाकर खड़ी कर दी है। क्या पता कल वो ना रहे, मूर्ति के बहाने उसकी याद तो ताजा होती रहेगी। और तो और आज तो फिजा का जमाना है। जो दर-दर अपने चंदू को खोज रही है। मीडिया है ना उसका साथ देने के लिए। ऐसे में चंद्रयान के लिए काम करने वाली खुशबू मिर्जा को कौन पूछे। होगी कोई। हमें तो मसाला चाहिए। अपन पूछते हैं फिर आप सानिया के पीछे क्यों पड़े रहते हो। वो भी तो देश का नाम ही ऊंचा कर रही है। अजी वो कहते हैं हमें कौनसा टेनिस से मतलब है। हमें तो उसके स्कर्ट से काम है। सतयुग में हम कहते थे कि देखो नारी हो, तो मैत्रयी या गार्गी जैसी। गार्गी जैसी नारी जिसने याज्ञक्ल्वय जैसे विद्वान को शास्त्रार्थ में मात दी। आज चाहे गार्गी कहीं नजर न आए, पर हर गली मोहल्ले में उसकी बहनें अपने-अपने पतियों से यूं वाकयुद्ध लड़ती रहेंगी कि मानो लड़ाई जीतने पर उन्हें ही परमयोद्धा का खिताब मिलने जा रहा हो। भई त्रेता युग को भूल गए क्या। जब प्रभु राम हुए। तब की नारियां क्या कम थीं। सीता, केकैयी, अहल्या और शबरी। हर किसी में कुछ खास बातें। आज की महिला को तो सीता शब्द ही गाली लगता है। केकैयी ना होती, तो हिंदुस्तानी फिल्मों की ललिता पंवार को कौन याद रखता। शबरी जैसी तिरस्कृत नारी के झूठे बेर खाकर रामजी कितना खुश हुए, ये किसी को बताने की जरूरत नहीं है। हां, अहल्या जैसी पतिव्रता पत्नी कहीं ना हो, जो इंद्र को ऋषि गौतम मान बैठी, तो बेचारी को पति ने ही श्राप दे डाला और पत्थर की बनकर रह गई। वो तो शुक्र है राम जैसे दया के सागर ने उन्हें छू लिया और वापस नारी बना डाला। चलिए छोड़िए जी, आप तो द्वापर युग पर नजर डालिए। क्या टाइम था भाईजी। यशोदा का लाल किशन कन्हैया। गोपियों के बीच घिरा हुआ। राधा के संग रास रचाकर सारी दुनिया को प्यार का नया पाठ सिखला गए। यशोदा भी कितना स्नेह उड़लेती थी अपने गोपी बजैया पर। मैं तो इतना ही जानता हूं कि जैसे-जैसे समय बदलता है, स्त्री भी अपनी महानता दिखाने से नहीं चूकती। अब कलियुग को ही देख लीजिए। पन्नाधाय, क्या महिला थी। स्वामिभक्ति और त्याग की उनसे बड़ी मिसाल शायद ही कोई और हो। उदयसिंह की खातिर अपने पुत्र को बनवारी की तलवार के आगे लिटा दिया। कैसा दृश्य रह होगा, जब अपनी आंखों के सामने अपने बेटे को तलवार से कटते देखा होगा। अब मैं ज्यादा तो नहीं बोलूंगा पर इतना कहूंगा कि हमारे बेटे-बेटियों को तो मल्लिका और करीना ही भाती हैं। इनके गुणों से अवगत कराते हुए अक्सर हमसे कहते रहते हैं कि बापू आज तो करीना के जीरो फिगर वाली ड्रेस पहन ही लेने दो। हम भी क्या करें, आखिर नौजवान पीढ़ी है। खुशी-खुशी हां कर दी, तो ठीक। वरना विद्रोह भी कर सकती है। बहू आजादी के नाम पर अपना पल्लू सिर से कब का पीछे ले जा चुकी है और बेटी न जाने कब स्कूटी के सहारे अपने दोस्तों के साथ पार्टी करने में मशगूल है। देखो जी, हम तो ठहरे जी सज्जन जीव। हमें तो सब भला ही दिखता है। हम तो यही मान लेते हैं कि यही है असल महिला सशक्तिकरण। अजी आप भी टेंशन मत लो। आज की नारी खुद समझदार है। वो खुद को संभाल लेगी। अगर मैंने या आपने ज्यादा भाषण झाड़ने की हिम्मत की, तो खैर नहीं होगी।
-आशीष जैन

...आगे पढ़ें!

होली आई रे


बसंत में हर कली मुस्कुराई,

फागुन की मस्ती चंहुओर है छाई,

मदभरा रंगीं नजारा हर कहीं नजर आता है,

सुनहरा रंग फिजाओं में पसर जाता है,

चंग की ढाप चौक-चौराहों में गूंज रही है,

फागणियों को फाग गाने की सूझ रही है,

लोग-लुगाई होली की मस्ती में सराबोर हैं,

हर तरफ होली आई रे होली आई रे का शोर है।

पिचकारी

ऐसी मारत रंग भरी पिचकारी,

जिसकी मार लगे है प्यारी,

ऐसी छूटत रंग भरी पिचकारी,

देत मजा, मस्ती अति भारी,

जब मारत सजनिया पे पिचकारी,

चढ़ जात है,

भंग की सी खुमारी।

गुलाल

थोड़ा हरा रंग उड़ाएंगे,

थोड़ा डालेंगे रंग लाल,

बाजार में अबके आया है,

प्यार भरा गुलाल,

मुट्ठीभर पीला फेकेंगे,

ले आएंगे गुलाबी रंग भी उधार,

बाजार में अबके आया है,

प्यार भरा गुलाल,

आंगन रंग-बिरंगा कर देंगे,

बैंगनिया रंग से चौखट भर देंगे,

दरोदीवार नीले से करेंगे सराबोर,

केसरिया छिटकाएंगे चंहुओर,

गली कर देंगे गहरे लाल से निहाल,

बरसते मनभावन रंगों से फिजा को ना होगा मलाल,

बाजार में अबके आया है,

प्यार भरा गुलाल।

...आगे पढ़ें!

05 March 2009

ये निराली होलियां

धमाल हो, गींदड़ नृत्य हो या न्हाण राजस्थानी फिजाओं में होली के लिए अलग-अलग परंपराएं हैं। आइए हम भी डूबते हैं राजस्थानी होली के रंगों में-
राजस्थान में होली। भई ब्रज की होली देख ली, पर अगर कभी धोरां री धरती पर होली के नजारे नहीं देखे, तो समझो जीवन में उल्लास की असली तस्वीर ही नहीं देख पाए। यहां होली का मतलब खुद को भुलाकर मस्ती में डूबना है, तो भगवान को याद करना भी है। अपनी पूरी ऊर्जा के साथ यहां के लोग होली को सबसे बड़ा त्योहार मानते हैं। यहां होली हर क्षेत्र में अलग-अलग तरह से मनाई जाती है। धमाल, गींदड़ नृत्य और न्हाण की परंपरा यहां बरसों पुरानी हैं।

गाओ रे धमाल
राजस्थान में एक जिला है-अलवर। वहां के खैरथल कस्बे में रह रहे पुष्करणा समाज के लोगों के लिए फागुन का मतलब होता है- कृष्ण रस में डूब जाना। समाज के लोग होली के अद्भुत रसिये रहे हैं व इस रस का राज छुपा है 'धमाल' में। धमाल मतलब ढोलक पर धम-धम करते हुए मस्ती और उल्लास के गीत। भगवान की फाग लीलाओं को अनुभूत करने के बाद भक्त कवियों ने ही ये रचनाएं लिखी थीं। खैरथल में होली का उत्सव बहुत पहले ही शुरू हो जाता है। बसंत पंचमी के दिन सभी बुजुर्ग और युवा मिलकर होली के स्वागत में श्री राधाकृष्ण मंदिर में धमाल शुरू करते हैं। फिर शिवरात्रि को धमाल रस की गंगा बहती है व शुक्ल पक्ष की अष्टमी के बाद तो यहां हरेक फागुन के रंग में रम जाता है व शाम से देर रात तक हर रोज 'धमाल' रस की होलियां गाई जाती हैं। महिलाएं भी अपने समूह में पूरे फागुन मास में शाम के समय 'धमाल' गाती हैं। सैकड़ों लोग घेरे में बैठ कर ताशों, मंजीरों व विशिष्ट शैली से बज रहे ढोलक की मीठी तान में जब तल्लीन होकर धमाल गाते हैं, तो एक अलग ही नजारा होता है। हर धमाल की अलग गायन शैली होती है। केसर, सुरंगी, गूजरी सहित करीब 20 से ज्यादा विशिष्ट धमाल हैं। इनमे सबसे मधुर होरिया की तान पर तो मानों देवता भी रीझ जाएं। एक धमाल 20 मिनट से 1 घंटे तक गाई जाती है व बीच के अंतरालों में भक्त कवियों के 'सवैये' गाये जाते हैं। 'सवैयों' में सभी बारी-बारी से उच्च स्वर में विशिष्ट शैली से गायन करते हैं व एक अनूठा रसमय माहौल बन जाता है। एकादशी से तो रोज रात को धमाल समाप्त होने के बाद देर रात तक सभी युवक समूह बनाकर फाग गाते हुए गांव की गलियों में निकलते हैं व होलिका दहन स्थल तक जाते हैं। धमाल के बाद हर रोज चने की विशेष प्रसादी जिसे 'फगुआ' कहते हैं, का वितरण किया जाता है। कहते हैं कि जब भगवान श्रीकृष्ण होली मनाते थे, तब भी यह विशिष्ट फगुआ प्रसादी ही बनती थी। यहां के लोग चाहे देश के किसी भी कोने में क्यों ना हो होली के अवसर पर धमाल में जरूर शामिल होते हैं। धुलंडी की शाम की धमाल के बाद पूरा समाज मंदिर के प्रांगण में बैठता है व सामूहिक प्रार्थना जिसे 'पल्लो' कहते हैं, में भगवान द्वारकाधीश से सुख, शांति व समृद्धि की अर्ज करता है। है ना होली मनाने का अद्भुत उल्लास।
चंग संग गींदड़
चलिए अब शेखावाटी की ओर रुख करते हैं। यहां का गींदड़ नाच। फतेहपुर, रामगढ़-शेखावाटी, राजलदेसर, सुजानगढ़ कस्बों में फागुन में क्या गजब नजारा रहता है। सांझ ढलते ही गली, मोहल्ले, चौक, गुवाड़ और चौराहों पर लोगों का जमावड़ा। फिर देर रात तक चलता फाग और मस्ती का दौर। एक से बढ़कर एक लोकगीत, स्वांग, ढप की ताल में ताल मिलाते मंजीरे, नगारी और बांसुरी की सुरीली आवाज, मानो अंचल की लोक संस्कृति की तस्वीर खींच रहे हों।'आज मान्ह रमता ने लाडूड़ों सो लाध्यो ये माय, म्हारी गींदड़ रमबा ने द्गयास्या' यह लोकगीत बताता है कि अंचलवासियों को गींदड़ नृत्य लड्डूओं से भी प्यारा लगता है। गींदड़ नृत्य का कार्यक्रम पांच-छह दिन तक चलता है। इसमें महिला के वस्त्र पहने पुरुष नृत्य करते हैं। गींदड़ में पुरुष दोनों हाथों में डंडे लेकर एक गोल घेरे में घूमते हुए नृत्य करते हैं। नर्तक आपस में लयबद्ध तरीके से डंडे टकराते चलते हैं। घेरे के बीच में कुछ लोग बांसुरी, नगारी, मंजीरे व चंग बजाते हुए लोकगीत गाते हैं। नृत्य की विशेषता है कि इसमें डंडों के टकराव, पैरों की गति व चंग की ताल का सामंजस्य होता है। गींदड़ नृत्य में वेशभूषा से लेकर हाव-भाव सब कुछ एक ही लय में होता है। लोग मेहरी बनते हैं, स्वांग रचते हैं जो देखने में अच्छा लगता हैं। चूरू जिले के सुनहरे धोरों की धरती के बीच रचे बसे राजलदेसर में चंग, झांझ और नगाड़े की धमक-छमक से मुखरित, गौरवमय परम्परा का मूर्त रूप फाल्गुनी नृत्य गींदड़ राजस्थान का ही नहीं वरन सम्पूर्ण देश के लिए अनुठा एवं बसंतोत्सव के आयोजनों का हार श्रृंगार है। कहा जाता है कि राव बीका के सुपुत्र राजसी ने सन्‌ 1607 में राजलदेसर की जागीर मिलने पर खुश होकर गींदड नृत्य का पहली बार आयोजन करवाया था, जो आज भी जारी है। गींदड़ नृत्य में बंदनवारों और रोशनी से सजे-धजे गोलाकार इन गींदड़ स्थलों के मध्य लगभग पन्द्रह फीट ऊंची-ऊंची बांस की बल्लियों के सहारे पाट्टे-तख्तों से बनाये मंच देखते ही बनते है। विभिन्न वेशभूषाओं में स्वांग धार, पांवों में घुंघरू बांधकर और हाथ में डंडियां लेकर गींदड़ के गेड़ (घेरे) के अंग बन जाते है जहां नगाड़ों की धमक, घुंघरूओं की छमक, डंडिये की तड़क, नारी रूप नृतक के घाघरे के घेर की घमक और अंग संचालन की ठसक के साथ लोक गीतों की सुरीली तान पर पूरा घुमाव ले-ले कर एक दूसरे से डंडिया भिड़ाते हुए रसिये रात-रात भर आनन्द लेते रहते है । दुग्ध ध्वल पूर्णिमा की चांदनी रात्री में गींदड़ रमते रसियों व दर्शकों की मौज मस्ती देखते ही बनती है।
किन्नरों का न्हाण
चलिए अब आपको हाडोती ले चलते हैं। हाडोती में न्हाण की परंपरा सालों पुरानी है। होली के दूसरे दिन से ही पड़ोसी व रिश्तेदारों के घर रंग डालने की परंपरा है। यह होली के द्वाद्वश तक जारी रहती है। कई जगह इसे धूमधाम और शोभायात्रा के रूप में मनाया जाता है। इनमें सांगोद का न्हाण खास है। इसकी शुरुआत 1632 में हुई। कहा जाता है कि पन्द्रहवीं शताब्दी में होली की पंचमी के दिन सांगा नामक योद्धा ने 12 कस्बों के योद्धाओं से एक साथ युद्ध किया और शहीद हो गया। उसके बलिदान दिवस पर न्हाण की सवारी निकाली जाने लगी। जिसमें लोगों पर रंग डालते शोभायात्रा निकालती। न्हाण के दिन यहां राज्य के बाहर से भी किन्नर शोभायात्रा में शामिल होते हैं। इनकी महासभा भी होती है। किन्नर इस न्हाण में शामिल होना सौभाग्य मानते हैं और वीरता के प्रति प्रतिबद्धता दोहराते हैं। ऐसी मान्यता है कि किन्नर ब्रह्माणी माता को मानते हैं और न्हाण में हर शोभायात्रा ब्रह्माणी माता मंदिर से शुरू होती है। न्हाण में काला जादू के हैरतअंगेज करतब और बादशाह की सवारी को बहुत तवज्जो दी जाती है। जिसमें सांगोद के ही एक परिवार के बच्चे को बादशाह बनाकर सोने से लादा जाता है और सजे धजे हाथी पर शोभायात्रा निकाली जाती है। देवविमान तडक़े दो तीन घंटे काला जादू में कच्चे धागे से बैलगाड़ी का पहिया बांधना, उल्टे चाकू में नींबू अटका कर मटका बांधना, बारह भालों की लागे और किन्नारों के नृत्य भी लोगों का मन मोह लेते हैं। तो भई अब तो आप भी जान गए ना कि किस तरह धोरों की धरा पर होली अपनी मस्ती के रंग बिखेरती है।
-आशीष जैन

...आगे पढ़ें!

04 March 2009

कहां गया मेरी बगिया का फूल?


मुंबई में हुए आतंकी हमलों ने पूरे देश की रूह को छलनी किया है। देश जवाब मांगता है दुश्मनों से। आखिर क्या हासिल हुआ, हमारी बगिया के फूलों को उजाड़कर।
क्या लहू का कोई मजहब हो सकता है? क्या अश्कों में तड़पती आह से राम या रहीम को अलग-अलग दर्द होता है? अगर नहीं, तो फिर क्यों गुलशन को उजाड़ने पर आमादा है आतंक। सपनों की पोटली लिए मुंबई में घूमते सैकड़ों बेगुनाह ही नहीं, पूरी दुनिया की रूह को कंपाने की कोशिश है हाल में मुंबई में हुआ आतंकी हमला। रोज की भागदौड़, हजारों परेशानियां और अब उसमें शामिल है एक डर। आतंक का डर। कब किस ठौर विस्फोट हो और जिंदगी की रोशनी बेनूर होकर हजारों परिवारों के घरों को हमेशा के लिए अंतहीन अंधेरा दे जाए। पर कभी न थमने की हम देशवासियों की शपथ हमेशा रंग लाती है और हम फिर खुशी की बहार को अपने आंगन में बिखरने के लिए बुला लेते हैं।
बाबुल का ये घर बहना...
22 साल की जसमीन की आंखों में भी गजब की चमक थी, तो बातों में कुछ कर गुजरने की तमन्ना। घरवालों के सपनों को परवाज देने के लिए मोहाली से मुंबई के सफर के लिए रवाना हुई पर वापस फिर कभी अपने घर ना लौट सकी। उसका कसूर सिर्फ इतना था कि वह मुंबई में उस काली रात ओबरॉय के रिसेप्शन पर बैठी हुई थी। होटल मैनेजमेंट में गे्रजुएट जसमीन दो महीने पहले ही मास्टर डिग्री के कोर्स के लिए सपनों की नगरी मुंबई आई थी। पापा डीआईजी भुर्जी अपनी लाडली को तन्नू कहकर पुकारते थे। जब उन्होंने टीवी पर मुंबई पर आतंकी हमले की खबर देखी, तो बेटी को फोन मिलाया। पर फोन उठाने वाले हाथ हमेशा के लिए निस्तेज हो चुके थे। तन्नू की मां दीप कौर और भाई परमीत की जुबान खामोश और आंखों में छलकते दर्द के सिवा कुछ नहीं बचा। परमीत को वो ख्वाब तो अधूरा ही रह गया, जिसमें दिन-रात वो अपनी फूल सी नाजुक बहन की डोली को सजाने की सोचा करता था। मम्मी-पापा ने जिस लाडो का हर नाज इस उम्मीद से उठाया कि एक दिन उसे घर से विदा करना है, वो तो दुनिया से ही रूखसत ले चुकी थी।
सोचा था मुस्कान देंगे
उनकी बातों में गजब का जोश था। अपने काम में माहिर। दिल में बस एक ख्वाहिश कैसे इस देश में अमन कायम रहे। वे शायद अकेले ऐसे पुलिस अफसर जिनके चाहने वालों ने उनके नाम से सोलापुर में करकरव् फैन क्लब तक बना रखा है। महाराष्ट्र के एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे, जिन्हें अपने काम और ईमानदारी के लिए जाना जाता था। अब वे इस दुनिया के लिए मिसाल बन चुके हैं। कामा अस्पताल में जाते वक्त उन पर पीछे से गोलीबारी हुई और वे मोबाइल पर अपनी बात पूरी न सके। पीछे छोड़ गए पत्नी कविता, दो बेटियां और एक बेटा। अभी कुछ दिनों पहले ही तो उन्होंने अपनी बड़ी बेटी के हाथ पील किए थे। लंदन में पढ़ने वाली दूसरी बेटी और मुंबई में पढ़ रहे बेटे को देश के हवाले कर अपने अनजाने सफर पर निकल गए। पूरा देश हेमंत के बलिदान को नहीं भूल पाएगा पर उन बच्चों को क्या दोष है, जो अपने पापा को जहान भर की खुशियां देना चाहते थे। सोचा था कि आने वाले समय में जब उनके पिता बुढ़ापे की दहलीज पर होंगे, तो उन्हें मुस्कान देते रहेंगे। ताउम्र देश की सेवा करने वाले करकरे की आंखों में भी सपना था कि काश वो दिन जल्द से जल्द आए जब इस देश में कोई आंख नम ना हो। हर तरफ बस खुशियों का डेरा हो। करकरे की शहादत को सच्चा सलाम तभी होगा, जब उनका सपना पूरा करने के लिए हम सब एक हो जाएं और दुश्मनों को दिखा दें कि जब देश का एक बेटा शहीद होता है, तो अपनी फर्ज निभाने हजारों सपूत और पैदा हो जाते हैं।
कहीं छुप गया है वो
मेरा इकलौता बेटा था जहीन। उसने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था हैवानों। मेरी उम्मीदों को कफन उठाकर तुम्हें आखिर क्या हासिल हुआ। ये तो बता देते। मां सलमा के दामन में अब आंसुओं के सैलाब के सिवा बचा भी क्या है? भीलवाड़ा से चलकर घर का चिराग मुंबई पहुंचा और हमेशा के लिए बुझ गया। ताज होटल में एक्जीक्यूटिव कुक जहीन अब इस दुनिया में नहीं है। पर दादा मोईनुद्दीन को अब भी लगता है कि घर के किसी कोने में छुपा हुआ नटखट जहीन उन्हें आवाज देगा, 'बाबा, आप मुझे नहीं पकड़ पाओगे। मैं छुप गया हूं। आपको नजर नहीं आऊंगा।' दादी कर रही है, 'मेरा पोता कहीं नहीं गया। वो तो सबसे नाराज है। इसलिए कहीं छुप गया है।' वाकई जहीन कहीं छुप गया। दादा-दादी की आंखें अब उसे कैसे ढूंढ़ेंगी। क्या गुजर रही होगी सलमा पर जब शादी के सेहरे की जगह आज अपने जिगर के टुकड़े के जनाजे को टकटकी लगाए देख रही होगी? किसी की दुनिया को उजाड़ कर आखिर मौत के सौदागरों को क्या मिला? क्या कोई बता पाएगा तन्नू, हेमंत या जहीन के घरवालों को।
-आशीष जैन

...आगे पढ़ें!