मां कहती है कि अब मैं बड़ी हो गई हूं। मुझे सारे काम समझदारी से करने चाहिए। ना जाने क्यों पहली बार एहसास हो रहा है कि मैं लड़की हूं और बंदिशों में कैद लड़की।
मैं हूं छवि। नटखट, अलबेली और चुलबुली। आपको पता है- मेरे नाम की भी एक कहानी है। ननिहाल में पैदा हुई, तो सारी औरतें बातें बनाने लगी थीं- ये इस पर गई है, उस पर गई है, पर बड़ी मौसी बोली, 'अरे हमारी लाडो रानी में तो सबकी ही छवि नजर आती है, तेरी, मेरी, मां की सबकी। इसका नाम तो छवि ही होना चाहिए। छवि मासूम है, दिल से। रंगों भरी इस दुनिया में सबसे जुदा। सब मुझे बहुत प्यार करते हैं। यूं तो मेरा एक छोटा भाई छुटकू भी है, पर सब मेरी बात पहले सुनते हैं। अभी मैंने उम्र के 13 बसंत ही तो देखे हैं। पर इन दिनों मैं महसूस कर रही हूं कि मां की पाबंदियां मुझ पर कुछ ज्यादा ही बढ़ गई हैं। अब तो मां मुझे पड़ोस के गंपू के साथ भी खेलने नहीं देती। सांझ ढले ही मां की आवाज पड़ने लगती है। पता नहीं उन्हें हो क्या गया है। सामान लेने बाजार जाती हूं, तो भी मां छुटकू के साथ भेजती हैं। उनकी हिदायतें भी अजीब होती हैं कि संभल के चलना। जिस रास्ते जाए, वहीं से आना। और पता नहीं क्या-क्या। बाजार जाती हूं, तो पास से गुजरते लोग भी घूरते रहते हैं। मुझे यह सब कतई अच्छा नहीं लगता। दादी भी मुझे लंगड़ी टांग खेलने नहीं देती। पहले तो मेरी हर बात मानती थी। मुझे याद है बहुत दिनों पहले वे मेरे लिए एक गुड्डा लेकर आई थी और बोली कि इससे तेरा ब्याह रचाएंगे। उस वक्त मैंने पूछा था कि ये ब्याह क्या होता है दादी। तो वे बोली, 'मेरी प्यारी गुड्डू, ये तो एक खेल है, जोग-संजोग का।' उनकी यह बात मेरे आज तक पल्ले नहीं पड़ी है। पिताजी तो सदा अपने काम में मगन रहते हैं। उनके हिस्से का प्यार भी मां ही करती हैं। पिछले दिनों की बात है, एकाएक पेट में बहुत दर्द होने लगा। यूं लगा मानो मर ही जाऊंगी। मैं जोर-जोर से रोने लगी। दौड़कर मां मेरे पास आई और बोली, 'इन दिनों में ये सब होता है।' उस दिन सारे दिनभर मैं बिस्तर पर ही सोती रही। कुछ भी अच्छा नहीं लगा। ना ढंग से खाना खाया, ना ही कहीं गई। रात को मां ने अकेले में समझाया कि बेटी अब तू बड़ी हो गई है। तू अब बच्ची नहीं रही। अब हर महीने ऐसा ही होगा। ये तेरे औरत बनने की तैयारी है। ये दर्द कुछ दिन तक रहेगा, फिर ठीक हो जाएगा। अब तू साफ-सफाई का ज्यादा ध्यान रखा कर। चौके में भी मत घुसना। पानी से थोड़ा दूर ही रहना। इसके अलावा ढेरों सलाह उन्होंने दी। मुझे लगा कि वाकई अब मैं सबसे अलग हो गई हूं। मां ने बताया कि अब तू लड़कों के साथ खेलना छोड़ दे। मैं मन ही मन सोचती कि मां मेरी खुशियां मुझसे मत छीनो। इसमें कोई मेरा कसूर नहीं है। मुझ पर इतनी पाबंदियां क्यों हैं? उन चंद दिनों के लिए दादी भी मुझे अछूत मानने लगी। मेरे लिए अलग बिस्तर लगने लगा। एक बारगी तो मन में आया कि कह दूं मां से, मुझसे मेरा बचपन क्यों छीना जा रहा है? होली जैसे त्योहार पर भी किसी दोस्त को रंग नहीं लगाने दिया। मैं क्या करूं, मन ही मन दुखी होकर रह जाती हूं। मां से पूछती हूं, तो उनका एक ही जवाब रहता है कि तू लड़की है, लड़का नहीं। खुद को खूब कोसती हूं कि काश, मैं लड़का होती, तो मुझसे मेरा बचपन तो नहीं छिनता।आज भी मां की बचपन में लाई छोटी सी फ्रॉक देखती हूं, तो बहुत खुश होती हूं। बचपन से आज तक मां कितने प्यार से मेरे बालों में सरसों का तेल लगाती आई हैं। कहती हैं, 'बालों को रोज तेल नहीं लगाया, तो कमजोर हो जाएंगे।' पहले घर के आंगन में आम का पेड़ था। उस पर सब बच्चे झूला डालकर मस्ती करते थे। अब तो मां वहां खड़ा देखते ही डांटने लगती है। कांच की चूड़ियों के टुकड़े से भी तो हम खूब खेलते थे। मेरे बचपन से सारे दोस्त आज भी मुझे याद करते होंगे। जब पहली बार स्कूल गई थी, तो और बच्चों की तरह रोई थोड़े ही थी मैं। बिल्कुल सयानी बच्ची की तरह पूरे सात घंटे घर से दूर रही थी। शरारती तो थी, पर घरवालों को कभी परेशान नहीं किया। छुटकू की शैतानियों से तंग आकर पिताजी जरूर उसे चपत लगा दिया करते थे। दादी हमेशा छुटकू का पक्ष लेती। छुटकू को मैं बहुत प्यार करती हूं। वो गुस्से में कभी-कभी मेरी चुटिया पकड़कर फिराने लगता, तो पूरा घर हंसता, पर मेरव् बालों को खींचने पर हुए दर्द के बारे में कोई नहीं पूछता। ठीक है, भई मैं लड़की हूं, पर दर्द तो मुझे भी होता है। दर्द होने पर भी मुझे हंसना पड़ेगा, कभी सोचा नहीं था। मां कहती है कि पढ़ाई ढंग से करेगी तो आगे की जिंदगी सही से गुजर जाएगी। तुझे काम नहीं करना। छुटकू को इंजीनियर बनाने की बात करते हैं, पर मेरे भविष्य के सवाल पर सब मौन हो जाते हैं। कहते हैं कि तू मत सोच, हम सब सही करेंगे। अब तो मैं भी मान चुकी हूं कि मेरा अस्तित्व पर लगे प्रश्न चिह्न भविष्य ही हल कर पाएगा।
मैं हूं छवि। नटखट, अलबेली और चुलबुली। आपको पता है- मेरे नाम की भी एक कहानी है। ननिहाल में पैदा हुई, तो सारी औरतें बातें बनाने लगी थीं- ये इस पर गई है, उस पर गई है, पर बड़ी मौसी बोली, 'अरे हमारी लाडो रानी में तो सबकी ही छवि नजर आती है, तेरी, मेरी, मां की सबकी। इसका नाम तो छवि ही होना चाहिए। छवि मासूम है, दिल से। रंगों भरी इस दुनिया में सबसे जुदा। सब मुझे बहुत प्यार करते हैं। यूं तो मेरा एक छोटा भाई छुटकू भी है, पर सब मेरी बात पहले सुनते हैं। अभी मैंने उम्र के 13 बसंत ही तो देखे हैं। पर इन दिनों मैं महसूस कर रही हूं कि मां की पाबंदियां मुझ पर कुछ ज्यादा ही बढ़ गई हैं। अब तो मां मुझे पड़ोस के गंपू के साथ भी खेलने नहीं देती। सांझ ढले ही मां की आवाज पड़ने लगती है। पता नहीं उन्हें हो क्या गया है। सामान लेने बाजार जाती हूं, तो भी मां छुटकू के साथ भेजती हैं। उनकी हिदायतें भी अजीब होती हैं कि संभल के चलना। जिस रास्ते जाए, वहीं से आना। और पता नहीं क्या-क्या। बाजार जाती हूं, तो पास से गुजरते लोग भी घूरते रहते हैं। मुझे यह सब कतई अच्छा नहीं लगता। दादी भी मुझे लंगड़ी टांग खेलने नहीं देती। पहले तो मेरी हर बात मानती थी। मुझे याद है बहुत दिनों पहले वे मेरे लिए एक गुड्डा लेकर आई थी और बोली कि इससे तेरा ब्याह रचाएंगे। उस वक्त मैंने पूछा था कि ये ब्याह क्या होता है दादी। तो वे बोली, 'मेरी प्यारी गुड्डू, ये तो एक खेल है, जोग-संजोग का।' उनकी यह बात मेरे आज तक पल्ले नहीं पड़ी है। पिताजी तो सदा अपने काम में मगन रहते हैं। उनके हिस्से का प्यार भी मां ही करती हैं। पिछले दिनों की बात है, एकाएक पेट में बहुत दर्द होने लगा। यूं लगा मानो मर ही जाऊंगी। मैं जोर-जोर से रोने लगी। दौड़कर मां मेरे पास आई और बोली, 'इन दिनों में ये सब होता है।' उस दिन सारे दिनभर मैं बिस्तर पर ही सोती रही। कुछ भी अच्छा नहीं लगा। ना ढंग से खाना खाया, ना ही कहीं गई। रात को मां ने अकेले में समझाया कि बेटी अब तू बड़ी हो गई है। तू अब बच्ची नहीं रही। अब हर महीने ऐसा ही होगा। ये तेरे औरत बनने की तैयारी है। ये दर्द कुछ दिन तक रहेगा, फिर ठीक हो जाएगा। अब तू साफ-सफाई का ज्यादा ध्यान रखा कर। चौके में भी मत घुसना। पानी से थोड़ा दूर ही रहना। इसके अलावा ढेरों सलाह उन्होंने दी। मुझे लगा कि वाकई अब मैं सबसे अलग हो गई हूं। मां ने बताया कि अब तू लड़कों के साथ खेलना छोड़ दे। मैं मन ही मन सोचती कि मां मेरी खुशियां मुझसे मत छीनो। इसमें कोई मेरा कसूर नहीं है। मुझ पर इतनी पाबंदियां क्यों हैं? उन चंद दिनों के लिए दादी भी मुझे अछूत मानने लगी। मेरे लिए अलग बिस्तर लगने लगा। एक बारगी तो मन में आया कि कह दूं मां से, मुझसे मेरा बचपन क्यों छीना जा रहा है? होली जैसे त्योहार पर भी किसी दोस्त को रंग नहीं लगाने दिया। मैं क्या करूं, मन ही मन दुखी होकर रह जाती हूं। मां से पूछती हूं, तो उनका एक ही जवाब रहता है कि तू लड़की है, लड़का नहीं। खुद को खूब कोसती हूं कि काश, मैं लड़का होती, तो मुझसे मेरा बचपन तो नहीं छिनता।आज भी मां की बचपन में लाई छोटी सी फ्रॉक देखती हूं, तो बहुत खुश होती हूं। बचपन से आज तक मां कितने प्यार से मेरे बालों में सरसों का तेल लगाती आई हैं। कहती हैं, 'बालों को रोज तेल नहीं लगाया, तो कमजोर हो जाएंगे।' पहले घर के आंगन में आम का पेड़ था। उस पर सब बच्चे झूला डालकर मस्ती करते थे। अब तो मां वहां खड़ा देखते ही डांटने लगती है। कांच की चूड़ियों के टुकड़े से भी तो हम खूब खेलते थे। मेरे बचपन से सारे दोस्त आज भी मुझे याद करते होंगे। जब पहली बार स्कूल गई थी, तो और बच्चों की तरह रोई थोड़े ही थी मैं। बिल्कुल सयानी बच्ची की तरह पूरे सात घंटे घर से दूर रही थी। शरारती तो थी, पर घरवालों को कभी परेशान नहीं किया। छुटकू की शैतानियों से तंग आकर पिताजी जरूर उसे चपत लगा दिया करते थे। दादी हमेशा छुटकू का पक्ष लेती। छुटकू को मैं बहुत प्यार करती हूं। वो गुस्से में कभी-कभी मेरी चुटिया पकड़कर फिराने लगता, तो पूरा घर हंसता, पर मेरव् बालों को खींचने पर हुए दर्द के बारे में कोई नहीं पूछता। ठीक है, भई मैं लड़की हूं, पर दर्द तो मुझे भी होता है। दर्द होने पर भी मुझे हंसना पड़ेगा, कभी सोचा नहीं था। मां कहती है कि पढ़ाई ढंग से करेगी तो आगे की जिंदगी सही से गुजर जाएगी। तुझे काम नहीं करना। छुटकू को इंजीनियर बनाने की बात करते हैं, पर मेरे भविष्य के सवाल पर सब मौन हो जाते हैं। कहते हैं कि तू मत सोच, हम सब सही करेंगे। अब तो मैं भी मान चुकी हूं कि मेरा अस्तित्व पर लगे प्रश्न चिह्न भविष्य ही हल कर पाएगा।
-आशीष जैन
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