31 May 2009

आईपीएल की बल्ले-बल्ले

हो गई है बल्ले-बल्ले... हो जाएगी बल्ले। मजा आ गया जी। अरे कोई जीते, कोई हारे हमें इससे क्या जी। हमें तो मजा इस बात में आया कि जिसे सबने लल्लू समझा, उसने सबकी हेकड़ी निकला दी। बता दिया कि बादशाह बनने के लिए शोर मचाने की नहीं, हुनर की जरूरत होती है। अब लल्लाजी मुंह फुलाए क्यों बैठे हो। मुंह फुलाने से कौनसा हार जीत में बदल जाएगी। हमने तो कहा था ना कि बादशाह हमेशा बाद में ही नजर आता है। अरे वो क्या खाक शहंशाह जो अपने मुंह खुद मियां मिट्ठू बन जाए। शहशांह तो शह और मात के बीच में अपने असली मोहरों को आखिरी दांव के लिए बचाकर रखता है। अब देख लीजिए ना किसने सोचा था कि डेक्कन चार्जर्स सबको डिसचार्ज करके रख देगी। कमाल कर दिया ना। जीत लिया ना दूसरे आईपीएल का खिताब। आईपीएल चाहे दक्षिण अफ्रीका में हुआ, पर कसम से हमें तो शुरू से ही लग रहा था कि इस बार कुछ ऐसा होगा कि पूरी दुनिया देखा करेगी।

और हमारे लिए ये नई बात नहीं है। कल तक हमारी गली में एक गुंडा था, गणेशा। सब पर अपनी दाब-धौंस दिखाता था। कहता था कि कोई मुझसे भिड़कर तो देखे, हाथ-पांव तोड़कर रख दूंगा। सब सोचते थे कि ये आफत की जड़ तो अब हमेशा बनी रहेगी। हमारे पड़ोस में भोलारामजी रहते हैं। उनका किसी से कोई लेना-देना नहीं, बस अपने काम में लगे रहते हैं। सबसे अच्छा बोलते हैं, सुबह नौकरी करने जाते हैं और रात को घर आकर सो जाते हैं। कल पता नहीं गणेशा को क्या सूझा। उसने अपनी मोटरसाइकिल से भोलारामजी की साइकिल में जोरदार टक्कर मार दी और ऊपर से भोलाजी से गाली-गलौच करने लगा। भोलाजी जो कल तक गणेशा की दादागिरी को सहन करते आए थे, उन्होंने जो गणेशा को धोया, पूछिए मत। पूरा मोहल्ला इकट्ठा हो गया गणेशा की मार देखने के लिए। अब गणेशा मोहल्ले में चूहा बनकर रहता है और भोलारामजी मोहल्ले के हीरो बन गए हैं।
अरे, आज के टाइम ना तो कोई हीरो है और ना ही सुपरहीरो। थोड़ा-सा जोर लगाओगे, तो अच्छे-अच्छों को मिट्टी सुंघा दोगे। डेक्कन ने भी तो धोनी के धुरंधरों से लेकर सचिन के करामातियों तक, सबको ढेर कर दिया। पिछली बार की हार से सबक लिया, देखा कि कहां हुई चूक। फिर लगे रहे चुपचाप अपने खेल को धार देने में। और कमाल देखिए, खेल-खेल में सबको चलता कर दिया। सबकी बोलती बंद दी। कमेंटेटर से लेकर टीमों के मालिक, दर्शकों से लेकर भविष्यवक्ता सब भौचक। जैसा जलवा पिछली बार राजस्थान के रॉयल्स ने किया था, कुछ-कुछ वैसा जादू ही, इस बार डेक्कन चार्जर्स ने किया। राजस्थान की टीम को पिछली बार कोई तवज्जो नहीं दे रहा था। पर शेन दादा ने अपने खेल से, अपनी कोचिंग से बता दिया कि मिट्टी भी सोना उगल सकती है। सिर्फ नाम से कुछ नहीं होता। नाम के साथ जब तक काम का तड़का नहीं लगेगा, स्वाद नहीं आएगा। प्रीतो से लेकर किंग खान और माल्या साहब से लेकर शिल्पा, सब दुखी हैं। अपना दुख किससे बांटे। क्या-क्या मोड नहीं आए खेल में, हर मोड पे अपने खिलाडिय़ों का साथ दिया। मीडिया को लगातार खबरें देते रहे। ब्लॉग पे, अखबार में, गली में, मोहल्ले में, चाय की थड़ी से लेकर पनवाड़ी की दुकान तक, हर जगह क्रिकेट से ज्यादा इनके जलवाकारों की बातें। कभी शाहरुख बोले कि प्रीति जिंटा और शिल्पा शेट्टी ने अपनी-अपनी पहली फिल्में मेरे साथ ही कीं। मैं पहले से ही हर हुनर जानता हूं। टीम तो कोलकाता की ही जीतेगी। गांगुली भाई को कप्तानी से हटाकर कोच बुकानन तो चार-चार कप्तानों की थ्योरी ले आए। पर ये बस भूल गए कि मैच थ्योरी से नहीं प्रेक्टिकल से जीते जाते हैं। मैदान में जब इक्कली गेंद के पीछे भागना पड़ता है, तो अच्छे-अच्छों के पसीने छूट जाते हैं।
तू-तू मैं-मैं करने से सस्ती पब्लिसिटी तो मिल जाती है, पर जीत हासिल नहीं होती। हम बात क्रिकेट की क्यों करें, अरे फ्रेंच ओपन पर ही नजर डाल लीजिए, क्या 22 साल की उम्र। हर कोई कहेगा कि इस उम्र में तो नौजवान सिर्फ सपने देखते हैं। और एक अपना नडाल भाई है, जो इस बार लगातार पांचवी बार खिताब जीतने की सोच रहा है। मेहनत करता है बंदा। क्ले कोर्ट में उसने जितना पसीना बहाया है, शायद ही किसी के बूते हो। जीतेगा क्यों नहीं। हमें पता है कि जब पिछले साल उसने ब्योन भाई के चार बार लगातार फ्रेंच ओपन जीतने का खिताब तोड़ दिया, तो फिर इस बार भी कमाल करके दिखाएगा। अब हम तो अपने देश के खिलाडिय़ों को यही सलाह देंगे कि ज्यादा ख्याली पुलाव मत पाला करो। पसीना बहाया करो। यह नहीं कि एक बार शतक ठोक दिया और फिर गई साल-दो साल की। मियां, आज के दौर में टिकना है, तो लगातार खुद को चलता सिक्का साबित करना होगा। वरना ये जनता तुमको चलता कर देगी।
-आशीष जैन

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30 May 2009

चीते पस्त लंका मस्त

कल ही बात है। पप्पू हमारे बगल में अपनी किताब खोलकर बैठ गया और अपना पाठ दोहराने लगा- चीते में बड़ी फुर्ती होती है। वो बहुत तेज दौड़ता है। हमने पूछा- बेटा, क्या चीते को कोई नहीं पकड़ सकता? कहां लिखा है ये? वो बोला- और कहां लिखा होगा, मेरी किताब में लिखा है और किताब में लिखी हर बात सही होती है। उसकी बात सुनकर हमने चुप्पी साध ली। और आज जब अखबार खोलकर देखा, तो पता लगा- अरे! ये क्या चीते पस्त हो गए। लंका की सेना ने प्रभाकरन का सफाया कर दिया। धो डाला लिट्टे को। चुन-चुनकर मारा लिट्टे के लोगों को। फिर हमने अपने मुन्ना को भी यह खबर पढ़वाई कि देख बेटा, जो चीता हमेशा जीता, वो आज लंका के चपेटे में आ गया है।

चलो, इससे एक बात तो तय हो गई कि ये ससुरे आतंकी चाहे कितना ही कहर ढहा लें, पर अगर हम डटे रहें, तो जीत भी हमारी ही होगी। मानना पड़ेगा लंका के राष्ट्रपति का हौसला और फैसला। सारी दुनिया एक तरफ और खुद की मर्जी एक तरफ। हार नहीं मानी, कह दिया पूरी दुनिया से- ये हमारे घर का मामला है। हमें भी चिंता है हमारे लोगों की। अब आगे बढ़े हैं, तो घर की पूरी सफाई करके ही दम लेंगे। जंच गए महेंद्राजी, दम तो है बात में। अब तमिलों को भी तो यकीन दिलाओ कि उन पर किसी तरह का जुल्मोसितम नहीं होगा। उन्हें हर वो अधिकार मिलेगा, जिसके वे हकदार हैं। हमें यकीन है कि एक मोर्चे पर अगर लंका ने जीत हासिल की है, तो फिर तमिलों को संतुष्ट करने में भी सरकार जरूर सफल हो जाएगी।
अब बारी है उस कमबख्त पाकिस्तान की। कोई उसे भी तो समझाओ। उसने अपने ही घर को पापीस्तान बना रखा है। खुद जिस डाल पर बैठा है, उसी को काट रहा है। दुनिया कहां की कहां पहुंच गई और वो ही अब भी जिए जा रहा है आदमयुग में। ना तो वो तलवार से डरता है और ना ही किसी तकरार से। अपनी मर्जी से चले जा रहा है। पर क्या करें, उसकी आदतों से हमें तो फर्क पड़ता है ना! नाक के नीचे तालिबानी काका उधम मचा रहे हैं और उन्हें दुत्कारने की बजाय पुचकार और रहे हैं। कल को वे तालिबानी स्वात के बाद दिल्ली फतह की सोचने लगे तो? अमरीका से ले लिया पैसा और कह दिया कि कर देंगे सफाई तालिबानियों का। अरे, अब हमें कोई ये बताए कि क्या ये पूरा मसला पैसे के चलते अटक रहा था क्या? खुद में हिम्मत हो, तो छोटी-सी फौज के आगे ना टिक पाएं, ये तालिबानी। यूं तो खबरें आ रही हैं कि तालिबानी संकट में हैं। पर आज तक पाक ने एक तस्वीर भी जारी की है, किसी तालिबानी की लाश की? इससे बढिय़ा तो पानी में तैरता लंका ही बढिय़ा। कम से कम प्रभाकरन की तस्वीर तो पेश कर दी और बता दिया कि जो टाइम उन्हें मिला था, उसमें आतंक का पूरा सफाया भी कर दिया है। भगवान झूठ ना बुलाए, पर हमें तो यह अमरीका के गाल पर करारा तमाचा लगता है भई। जो अमरीका अभी तक ग्यारह सितंबर के मुलजिम ओसामा बिन लादेन के बारे में यही पता नहीं लगा पा रहा कि वो जिंदा है या मर गया! वो क्या खाक आतंक का खात्मा करेगा?
और हम क्या खास कर रहे हैं आतंक के सफाए के लिए? क्या सिर्फ कसाब को पाकिस्तान नागरिक मनवा लेने से पाकिस्तान आतंक खत्म कर देगा। दीजिए उन्हें कसाब के डीएनए की रिपोर्ट? पर आखिर कोई तो हमें बताए कि क्या कछुआ चाल से चलते-चलते हम पाकिस्तान को कूटनीतिक पराजय दे पाएंगे? हम तो सिर्फ खड़े-खड़े देख सकते हैं। तस्लीमा नसरीन को देश से भागना पड़े, पर हम सिर्फ आश्वासन देते रहेंगे। यही हाल तो सलमान रुश्दी और एमएफ हुसैन का है। जी रहे हैं किसी और दुनिया में। लोगों को इस देश से बहुत आशा है। राहुल बाबा युवाओं को आगे आने की कह रहे हैं, पर राहुलजी एक बार इन युवाओं के भीतर उफनते सैलाब को तो देखें। कैसे उनके सामने उनके बड़े धर्म और जाति के नाम पर मरने-मारने को उकसा रहे हैं! ना रोजगार है और ना ही भविष्य को लेकर सपना। बस एक भीड़ बन चुके हैं युवा। अंदर की ताकत झूठे दिखावे में खर्च हो रही है। कोई भी टटपूंजिया उनका भाग्यविधाता बनने के सपने दिखाने लगता है। ऐसे में क्या हम सोच सकते हैं कि युवा शक्ति एकत्र होकर कोई बदलाव कर पाएगी। हां, ये जरूर संभव है कि अब इन्हीं युवाओं में से कोई युवा हिंदुस्तानी प्रभाकरन का चोला पहन ले और किसी भी मुद्दे पर सरकार को आड़े हाथों ले। हमें सोचना है। अब खाली बैठने का नहीं, कुछ करने का समय है। लंका को देखकर तो कुछ सीख लो, मेरे देश के भाग्यविधाताओं।
-आशीष जैन

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जादूगर जनता

जब कभी इस भरी गर्मी में हम घर से बाहर निकलते हैं और बरसती लाय के बीच ठंडी हवा का झोंका चलता है, तो तन-मन में मस्ती का खुमार चढ़ जाता है। और मुंह से यही शब्द निकलते हैं, वाह! मजा आ गया। कुछ-कुछ ऐसा ही हमारे साथ ऑफिस में भी होता है। जब ऑफिस में काम के साथ रामप्यारेजी की प्यारी-प्यारी बातों का तड़का लग जाए, कहना ही क्या। दिन बड़ा सुकून से गुजरता है। सारी टेंशन भाग जाती है। पर कल तो गजब ही हो गया। रामप्यारेजी को ऑफिस आए, एक घंटे से ज्यादा हो गया और एक शब्द भी मुख से नहीं निकाला। आश्चर्य था भई। दरअसल सुबह से ही उनका मूड कुछ उखड़ा-उखड़ा सा था। हम तो मन ही मन सोचने लगे, रोज तो उनके पास कहने-सुनने को हजार बातें रहती थीं। आज क्या हुआ? जरूर पत्नी से मार खाकर आ रहे होंगे। या फिर बच्चों ने कोई ऐसी मांग सामने रखी होगी, जिससे इनके दिमाग ने काम करना बंद कर दिया और जुबान पर लगाम लग गई।

या हो सकता है कि बोलने की वजह से रास्ते में हाथापाई हो गई हो। हम उनके नजदीक गए। बात करने की कोशिश की, लाख समझाया। पर उनके बोल सुनने को हमारे कान तरस गए। तभी ख्याल आया कि अभी कुछ दिन पहले ही तो चुनाव परिणाम आए हैं। कहीं नेता-नांगलों की तरह इन्हें भी तो हार का गम नहीं बैठ गया। हमने ऑफिस में सबको इकट्ठा किया और गीत गाने लगे, 'चुप चुप बैठो हो.... जरूर कोई बात है।Ó हमने ये गीत गुनगुनाया ही था कि रामप्यारेजी भड़क उठे। बोले, 'बात है ना, जरूर है। हम कब मना कर रहे हैं। पर क्या चुप बैठना कोई गुनाह है? ज्यादा बोलने के परिणाम अच्छे नहीं होते। बोलना ही अच्छे-अच्छों की बोलती बंद कर देता है।Ó हम बोले, 'अब तनिक बता भी दो, रामू भैया। क्या है वो बात। क्यों आपके कमल से सुंदर मुख पर बारह बज रहे हैं।Ó फिर तो अपने रामप्यारे भैया को जाने क्या सूझी कि पुराने टेपरिकॉर्डर की तरह चालू हो गए। बोले, 'हमारा दर्द जुड़ा ही बोलने से है। काश! वे इतना नहीं गुर्राए होते, तो आज ये दिन नहीं देखना पड़ता। हमने पूछा, 'किसकी बात कर रहे हो रामू? बताओ तो सही।Ó बोले, 'और किसकी बात करेंगे, अपन के भाई लोग, इन नेता लोगों की और किसकी। लालजी को भूल गए क्या। पहले-पहल दहाड़ लगाई और अब बैठे होंगे कहीं दुबक कर। बातें करते थे- प्रधानमंत्री बनने की। तिल का ताड़ बनाकर रख दिया। ख्वाबों के आसमान की सैर करा लाए। घर का पैसा वापस लाने का मंत्र दे दिया। कह दिया कि मैं मजबूत और बाकी सब मजबूर। जनता की भीड़ इकट्ठा कर ली। पर आज पहली बार लगा कि जादू का खेल देखने के लिए यूं ही पैसे खर्च करते थे। अपन के देश की जनता है ना, सबसे बड़ी जादूगर। पल में सारे सपनों को धोकर सच्चाई पेश कर दी। अब सब हारे हुए दिग्गज एक स्वर में कह रहे हैं कि हम उन्हें समझ नहीं पाए। अरे समझते कैसे। जनता तो पहले से ही सोचती आ रही थी कि क्या तुम नेता लोग ही हमें पागल बनाना जानते हो। अरे, अगर हमने तुम्हें नेता बनाया था, तो तुम्हें सांप सूंघाना भी आता है। क्या सोचा था, तुम्हारी सभाओं की भीड़ में शामिल हो लिए, तो इसका मतलब है कि वोट भी तुम्हें भी देंगे। अरे, हम तो एक बारगी देखना चाहते थे कि तुम्हारी बकवास बातों के पिटारे में शब्दों का कैसा मायाजाल छुपा है? हम तो पल में ही तय कर लेते हैं कि किसको राज सौपेंगे। और ई ससुरे चंगू-मंगू। हम बनेंगे प्रधानमंत्री। अरे अपने राज्य में तो सीट बचाना मुश्किल हो गई और सपने देखने लगे थे- प्राइम मिनिस्टर बनने के। और ये उलटे चलने वालों ने तो क्या खूब की। जुट गए खुद को बुद्धिजीवी साबित करने में। पर उनके दिमाग के सारे पेंच ममता दीदी ने ढीले कर दिए। हद होती है जुबान की। बस बोलने की काम। उल्टा-सीधा जो मन में आए, बस बोले जाओ। अरे, पहले देखो। फिर जानो। फिर समझो और तब जाकर कुछ बोलो। जनता हर शब्द के पीछे छुपे अर्थ को तौलती है। क्या समझा था। बातों से चुनाव जीत जाएंगे। भई, विकास भी किसी चिडिय़ा का राज है। इनको समझाए कौन कि अब ये देश युवाओं का है। जो युवाओं के मन की बात करेगा, वही तो उनका दिल जीत पाएगा। अब अपने राहुल बाबा समझ गए, इस राज को। खेल ली बाजी यू.पी. में। भिड़ गए कथित सूरमाओं से और अब तो जोश आ गया है राहुल बाबा में। अब तो कह दिया कि जब तक पूरी यूपी फतह ना कर लें, दम नहीं लेंगे। एक बार कह दिया और बस लग गए। यह तो हुई कुछ बात।Ó रामप्यारेजी को यूं धाराप्रवाह बोलता देख कुछ चैन मिला। लगा कि अब पूरा दिन मजे से गुजरेगा। दिल से बस यही दुआ निकलती है कि रामप्यारे बस यूं ही खरी-खरी बोलते रहें और हम सदा यूं ही अपनी ज्ञान वृद्धि करते रहें।
-आशीष जैन

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22 May 2009

जय जुगाड़ बाबा की

युगों-युगों से मैं काम करता आया हूं। मेरे पास हर मर्ज की दवा है। मुफ्त की सलाह दे रहा हूं- आज के दौर में अगर मौके-बेमौके सफलता चाहिए, तो अपनी जेब में मेरे नाम की पुडिया रखनी ही पड़ेगी। जो मेरे नाम का प्रसाद नहीं चढ़ाता, उसका कभी भला नहीं होता। तो बोलो, जय जुगाड़ बाबा की।

राम-राम सा। कैसे हो? सब कुशल से है कि नहीं। क्या कहा, परेशान हो, कुछ सूझ नहीं रहा। तो भैया मुश्किल में हमें क्यों बिसरा रहे हो। अब तक याद काहे नहीं किया। हम हैं ना हर मर्ज की दवा। हमें भूल गए क्या? तुमारी कितनी बार मदद की है। कितनी बार संकट से उबारा है। कितनी बार तुमने हमारी वजह से घर बैठे-बिठाए वाहवाही लूटी है। हमें पता था कि समय फिरते ही तुम हमें भूल जाओगे। अब देख लो, अपना हाल। हमारे नाम का प्रसाद नहीं चढ़ाओगे, तो ऐसा ही होगा। मैं तो हमेशा से ही कहता हूं कि हर काम करने से पहले सोच लिया करो कि हमें याद किया कि नहीं। क्या कहा- समझ नहीं आ रहा, हम कौन हैं। अरे हमें पता है तुम्हारी याददाश्त कमजोर पड़ गई है। चलो, हम ही बताय देते हैं। हम हैं जुगाड़।

तुम इंसानों ने ही तो पैदा किया था हमें। तुम्हारा तो शुरू से ही मंत्र रहा है कि सीधी उंगली से घी ना निकले, तो जुगाड़ लगाकर घी निकालो। अब तुम्हें बस घी खाने से मतलब है जी। भूल गए, तुमने अपनी जिंदगी में मेहनत से कुछ हासिल नहीं किया। बस मेरी मदद से ही तो तुम बादशाह बन पाए हो। जुगाड़ बिठाकर ही तो तुम गली के गुंडे से शहर से नामचीन नेता बन बैठे थे। याद नहीं वो दिन, जब पूरे शहर में किसी को भी उल्लू बनाकर रुपए एंठने में तुम उस्ताद थे। एक दिन एक नेताजी को पलीता क्या लगाया, नाराज होने की बजाय खुश होकर उन्होंने कहा था- तुम में तो नेता बनने के सारे गुण मौजूद हैं। आ जाओ, हमारी पार्टी में और बन जाओ मोहल्ले के नेता। फिर तो तुम्हारी चल निकली। पूरे शहर में तुम्हारी नेतागिरी के चर्चे होने लगे। कोई काम ऐसा नहीं, जो तुम ना कर पाओ। पर भूलो मत, हर उल्टा-सीधा काम करने से पहले तुम मुझे ही तो याद किया करते थे। पार्टी की सरकार बनी, तो दाब-धौंस से जुगाड़ लगाया और अपने राजदुलारे घीस्या को पेट्रोल पंप दिलवा दिया। सिफारिश करके तुमने हाईकमान से टिकट पटा लिया और दारू बंटवाकर तुम संसद के गलियारों में चहल-कदमी करने लग गए। फिर मौका लगा, तो किसी दूसरी पार्टी का जुगाड़ लगाकर उसमें घुस गए। अब देखो ना, इस बार चुनाव हुए, तो दुबारा पुरानी पार्टी में आकर फिर जीत गए। मानना पड़ेगा, इंसानी जमात में मेरा जितना इस्तेमाल तुम नेता लोगों ने किया है, उतना शायद ही किसी ने किया हो। जुगाड़ लगाकर कर किसी तरह से अपना काम बनता और भाड़ में जाए जनता। यह तो तुम्हारे जीवन का सिद्धांत है भई। पर अब लगता है कि तुम्हें हमारी कद्र नहीं रही। पावर जो आ गई है, तुम्हारे पास। लेकिन तुमने हमारी खूब सेवा की है। इसलिए तुम्हारी परेशानी के बारे में सुना, तो हम ही चले आए। अब बता भी दो, क्या प्रॉब्लम है। मेरे पास है ना हर ताले की चाबी। क्या कहा- सरकार बनानी है। पर गणित पूरी नहीं बैठ रही। मन में डर है कि कहीं विपक्ष में ना बैठना पड़े। अरे, इतनी-सी बात और इतनी ज्यादा टेंशन। तुम भी क्या इंसान हो। इतना टाइम मेरे साथ रहे और कुछ नहीं सीखा। करना क्या है, बस बयान देते रहो। जो छोटे दल हैं, उन्हें पुचकारते रहो, सपने दिखाते रहो और जो तुम्हारे साथी-संगी हैं, उनसे कह दो-यह सब तो पॉलिटिक्स का हिस्सा है, सरकार अपनी ही बनेगी। निर्दलीयों को खरीद लो, मीडिया में सरकार बनाने की हवा फैला दो। किसी को अपनी पोल खुलने मत दो कि डर तो तुम्हें भी लग रहा है। अगर लोगों को तुम्हारा हौव्वा बना रहेगा, तो तुम जरूर सफल हो जाओगे। लो हो गया ना जुगाड़। पर अब से एक बात याद रखना- मुझे कभी मत भूलना, वरना दुबारा तुम्हारी कभी मदद करने नहीं आऊंगा। अभी तो चलता हूं और दीन-दुखियों की भी तो सेवा करनी है। जय राम जी की।
-आशीष जैन

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परिणाम को प्रणाम

सावधान रहिएगा। सुनते हैं, अब परिणामों का दौर है। किस्म-किस्म के परिणाम अब बाजार में नजर आएंगे। देखना ये है कि भरी गरमी में कौनसा परिणाम कुल्फी-सी ठंडक देगा और कौनसा अंजाम तूफान बरपाएगा।
लो भैया हो गया काम तमाम। सारी भागदौड़ पूरी। अब तो दिल धड़काने की बारी है जी। मन में तड़पन, तन में हलचल। आप ही बताएं, जब किसी काम को मन रमाकर करा है, तो उसका अंजाम जानने की तो सबको जल्दी रहती ही है ना। अंजाम मतलब रिजल्ट मतलब परिणाम।

परिणाम भी दसियों तरह के। कभी स्कूल की एग्जाम के परिणाम, कभी मैच का परिणाम, तो कभी चुनावों का परिणाम। ससुरे जितनी टेंशन ये एग्जाम नहीं देते, उससे चौगुनी तकलीफ तो मुए रिजल्ट देते हैं। काम करते वक्त हमारा दिल इतना नहीं धड़कता, जितना परिणाम सोच-सोचकर धड़कने लगता है। इन परिणामों से हम बचपन से पीडि़त हैं। कक्षा की परीक्षा के परिणाम आने वाले दिनों में तो हम घर से निकलना ही छोड़ देते थे। अब देश के इन चुनावों की बात भी क्या खूब है। महीना-डेढ़ महीना नेताजी के नाम से खूब नारे लगाए, खूब भाग-दौड़ की। अब सब गुल। अब वही कंगाली के फटेहाल दिन। नेताजी जीत गए, तो बल्ले-बल्ले और अगर किसी की गलत नजर चलते हार गए, तो कुछ नहीं बचेगा। क्या-क्या आस लगा रखी है। नेताजी जीत गए, तो बेटे को नौकरी मिल जाएगी। थोड़ी पहुंच बढ़ जाएगी। हर तरफ रुतबा बढ़ जाएगा। अब देखते हैं कि इन परिणामों की पोटली में क्या छुपा है। हमें छोडि़ए, आप तो नेताजी के घर का नजारा देखिए। सब लोग लगे हैं नेताजी को तसल्ली देने में। सब अच्छा होगा, आप देखना। अब तो चुनाव जीत ही गए, समझ लो। पर अपने नेताजी तो शुतुरमुर्ग की तरह बेफ्रिक। वे तो जीत का भरोसा तभी करेंगे, जब परिणाम हाथ में होगा। वे तो सोच-सोचकर परेशान हैं कि नहीं जीते, तो क्या होगा? वही तेल बेचने का काम दुबारा करना होगा। बेइज्जती होगी सो अलग। हालत तो यूं होगी- माया मिली, न राम। हमने तो नेताजी की खैर-खबर रखने वाले एक-दो मुलाजिमों को कहलवा दिया है कि चुनाव परिणाम के एक दिन पहले से ही डॉक्टर-वॉक्टर को घर बुलवा लेना। इसी में भलाई है। क्या पता नेताजी सदमा झेल भी पाएं या नहीं।
कल-परसों से तो गजोधर के परिणाम ने भी हमारा जीना हराम कर रखा है। गजोधर हमारा बेटा। इस साल मैट्रिक की परीक्षा दी थी। सोचा था कि टॉप करके हमारा नाम रोशन करेगा। पर हमें क्या पता कमबख्त क्रिकेट के पीछे पड़कर अपना मटियामेट कर लेगा। कहता था- बापू, अब मैं ही अगला सचिन बनकर दिखाऊंगा। खुशी-खुशी हमने उसे गेंद-बल्ला दिला दिए। अब नीपूता फेल हो गया। अब क्या करें? किससे अपना दर्द बयां करें? ये क्रिकेट तो हमारे नूरे चमन का कॅरियर ही चौपट करके रहेगा। भई, क्रिकेट की दीवानगी तो हमें भी है। पर इसका मतलब यह थोड़े ही ना है कि सपूत की तरह चौबीसों घंटे हाथों में गेंद-बल्ला लेकर घूमते रहें। पूरे मोहल्ले को सचिन बनने का सपना दिखाते रहें।
हां, तो हम बात कर रहे थे परिणामों की। बीस-बीस क्रिकेट हो रहा है ना दक्षिण अफ्रीका में। उसके भी रंग निराले हैं। इस बार तो अपने डेक्कन चार्जर्स पूरे चार्ज में दिख रहे हैं। धो डाला सबको। और तो और लगता है शाहरुख भाईजान तो सड़कों पर ही आ जाएंगे। खानभाई ने बड़े सपने देखे थे नाइटराइडर्स से। खूब पाला-पोसा। बुकानन की हर बात पर कान लगाया। दादा की कप्तानी छीन ली। पर ढाक के वही तीन पात। बाहर हो लिए खेल से। अब कौन इस बार आईपीएल का सूरमा साबित होगा, ये बात अच्छे-अच्छों को परेशानी में डाले हुए है। प्रीतो के गालों के डिंपल पर, शिल्पा के चेहरे की खुशी अब परिणामों को जानने को मचल रही होगी। सबने मिलकर पहले तो क्रिकेट को जलेबी की तरह-तरह गोल-मोल कर दिया। पता ही नहीं लगा कि कहां खेल है, कहां कमाई? अब सब हिसाब लगा रहे हैं, कैसे भागते चोर की लंगोट पकड़ें। ये सब देखकर हमें तो रास-रसैया, माखनचोर श्रीकृष्ण की याद आ रही है। क्या खूब कह छोड़ा गीता में, कर्म करो और फल की चिंता मत करो। अबसे हम तो भैया एक बात पक्के से गांठ बांध चुके, नेकी कर और दरिया में डाल कर। काम किया और चिंता मिटी। बाकी रामजी करेंगे बेड़ा पार। परिणाम के फेर में फंसे रहे, तो क्या पता करम भी सही कर पाएंगे या नहीं। लो, कह दी हमने भी लाख पते की बात।
- आशीष जैन

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20 May 2009

आम है खास

फलों के राजा आम में क्या है खास, जानते हैं।
रसीले आम... वाह! मजा आ गया खाकर। इसकी खुशबू इतनी लाजवाब है कि आम के बगीचे में आप कभी जाएंगे, तो बिना आम तोड़े नहीं रह सकेंगे। जिस तरह पश्चिमी देशों में सेब और अरब जगत में अंगूरों के लिए दीवानगी है, उसी तरह हमारे देश में लोग आम के स्वाद के दीवाने हैं। वेदों में आम को विलास का प्रतीक माना गया है। महाकवि कालिदास ने इसका गुणगान किया, तो सिकंदर को भी आम बेहद खास लगे। सम्राट अकबर ने तो दरभंगा में आम के एक लाख पौधे लगवा दिए थे और वह बाग आज भी 'लाखी' बाग के नाम से मशहूर है।

आम के कई रूप हैं। आम का बौर, कैरी या कच्ची अंबिया और पका आम। आम की लोकप्रियता हमारे देश में इतनी है कि इस पर लोकगीत तक लिखे जा चुके हैं। आम से बना पना, अचार, मुरब्बा या जैम तो आपने जरूर खाया होगा। कैसा लगा? यकीनन स्वादिष्ट। और हां, अमचूर यानी आम की खटाई के बिना तो मानो हर स्वाद अधूरा है। तमिलनाडु के कृष्णगिरी के आम तो दुनियाभर में मशहूर हैं।
फलों के इस राजा को भारत का राष्ट्रीय फल यूं ही नहीं कहा जाता। इसके गूदे में जो रेशा होता है, वह न केवल हाजमा सही करता है बल्कि कॉलेस्ट्रोल भी घटाता है। इसमें विटामिन सी प्रचुर मात्रा में होता है। सबसे अच्छा आम वही होता है, जिसमें रेशा कम, गूदा ज्यादा और मीठा हो। आम के पेड़ को हमारे यहां खुशियों से जोड़कर देखते हैं। आज आम के लिए कलम बांधने की कला में मलीहाबाद के हाजी कलीम उल्ला खान वाकई कमाल कर रहे हैं। सत्तर वर्ष के हाजी साहब को इस हुनर के लिए इस साल पद्मश्री से सम्मानित किया गया है। वे कलम लगाकर आम के एक ही पेड़ में 300 किस्मों के आम पैदा कर चुके हैं। पचास-पचपन साल पहले चंडीगढ़ के बुड़ैल गांव में आम का एक विशाल पेड़ था। उसकी उम्र 100 वर्ष से भी अधिक थी। उसका तना 9.75 मीटर मोटा था और पेड़ 2,258 मीटर क्षेत्र में फैला हुआ था। एक साल में उससे करीब सोलह-सत्रह टन फल मिलते थे।
आम की किस्में
दुनिया के तीन चौथाई से ज्यादा आम एशिया में पैदा होते हैं। उसमें भी सबसे ज्यादा आम हमारे देश में ही पैदा होते हैं। हमारे देश की कुछ खास किस्में हैं- दशहरी, लंगड़ा, चौसा, बैंगनपल्ली, हिमसागर, फजली, खासा, प्रिंस, आबेहयात, अलफांजो, केसर, किशनभोग, मलगोवा, नीलम, वनराज, जरदालू, मल्लिका, रत्ना, अर्का अरुण, अर्मा पुनीत, अर्का अनमोल, बंबई ग्रीन, शम्सुल अस्मर, हलवा, लखनऊ सफेदा। इन नामों के किस्से भी बहुत दिलचस्प हैं। 'लंगड़ा' आम सुनकर सोच रहे होंगे, भला ये भी कोई नाम हुआ। पर इस किस्म के आम का पहला पेड़ बनारस में एक लंगड़े फकीर बाबा के घर के पिछवाड़े उगा था। और स्वादिष्ट दशहरी के बारे में कहा जाता है कि यह लखनऊ के पास मलीहाबाद के दशहरी गांव में पैदा हुआ। मलीहाबाद तहसील के ही चैसा गांव में लोगों ने जब पहली बार एक अलग स्वाद और सुगंध वाला आम चखा तो उसका नाम 'समरबहिश्त चैसा' रख दिया! इसी तरह बिहार के भागलपुर गांव में एक औरत थी-फजली। पहली बार उसी के आंगन में फला-फूला था यह आम।
गुणों की बहार
यदि गर्भस्थ महिला आम चूसती है, तो इससे शिशु का रंग साफ होता है।
जो महिलाएं चेहरे का सौंदर्य बढ़ाना चाहती हैं, वे आम के रस में शहद मिलाकर चेहरे पर लगाएं।
आंखों के चारों ओर काले घेरे हों, तो आम के रस में रुई डुबोकर चेहरे पर लगाएं।
बाल झड़ते हैं, तो आम के पत्तों और डंठल को पानी में उबालकर हफ्ते में दो बार सिर धोएं।
कान का दर्द होने पर आम का पत्ता पीसकर (बिना पानी) हल्का गर्म करके कान में डालें।
-आशीष जैन

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13 May 2009

यूं मिली कामयाबी की डगर

मुजफ्फरनगर की श्वेता सिंघल ने सिविल सर्विसेज एग्जाम में हासिल की 17वीं रैंक और हिंदी माध्यम के परीक्षार्थियों में दूसरा स्थान।

'जब मुझे पता लगा कि सिविल सर्विसेज एग्जाम में मुझे 17वीं रैंक हासिल हुई है, तो एकबारगी तो यकीन ही नहीं हुआ। लगा मेरी सालों की मेहनत और माता-पिता का आशीर्वाद काम आ ही गया। यह कहना है सिविल सर्विसेज एग्जाम में 17 वीं रैंक हासिल करने वाली उत्तप्रदेश के मुजफ्फरनगर की 27 वर्षीय श्वेता सिंघल का। हिंदी माध्यम के परीक्षार्थियों में उन्हें दूसरा स्थान मिला है। उनकी आंखों में देश के विकास के सपने हैं, तो बातों में कुछ कर गुजरने का आत्मविश्वास। अपनी कामयाबी में उन्होंने ग्रामीण परिवेश को कभी आड़े नहीं आने दिया। हालांकि श्वेता का यह तीसरा प्रयास था, पर उन्होंने पढ़ाई का तनाव कभी अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। वे कहती हैं, 'लड़की होने के नाते मेरे ऊपर ज्यादा जिम्मेदारियां थीं। मुझे खुद को साबित करना था।

विषय को समझा गहराई से
मुजफ्फरनगर के श्यामली कस्बे में पैदा हुई श्वेता के पिता अरुण सिंघल मेडिकल स्टोर संभालते हैं। मां उषा गृहिणी हैं और भाई नितिन आईएएस की तैयारी कर रहा है। बड़ी बहन रश्मि की शादी हो चुकी है। श्वेता ने शुरुआती पढ़ाई श्यामली में ही की। इसके बाद वे दिल्ली यूनिवर्सिटी से स्नातक करने के लिए दिल्ली आ गईं। लेडी श्रीराम कॉलेज से हिंदी ऑनर्स से बीए करने के बाद उन्होंने हिंदू कॉलेज से एमए किया। हिंदी विषय में ही उन्होंने दिल्ली यूनिवर्सिटी से ही एमफिल भी किया। सिर्विल सर्विसेज के बारे में श्वेता पहले गंभीर नहीं थी। पर एमफिल करने के बाद उन्होंने एग्जाम के लिए कमर कस ली। शुरू के दो प्रयासों में उन्हें इस परीक्षा को करीब से समझने का मौका मिला। उन्हें यह बात समझ में आई कि जब तक विषय की गहराई में नहीं जाएंगे, सफलता मिलना मुश्किल है। पढ़ाई के दौरान श्वेता कॉलेज हॉस्टल में ही रहती थीं। उसके बाद वे सिविल सर्विसेज की तैयारी के लिए अपने भाई के साथ किराए के फ्लैट में रहने लगी।
आत्मविश्वास और मेहनत
सिलसिलेवार तरीके से पढ़ाई करते हुए उन्होंने अपने लक्ष्य पर निगाह जमाए रखी। प्री एग्जाम में भूगोल विषय लेकर मुख्य परीक्षा भूगोल और हिंदी साहित्य से पास की। साक्षात्कार में सफलता के लिए उन्होंने खान स्टडी गु्रप में ट्रेनिंग ली। इस बारे में वे कहती हैं, ' मेरे सर ए. आर. खान ने व्यक्तिगत रूप से मुझे काफी मदद की। उन्होंने मुझे पर्सनलिटी डवलपमेंट के गुर सिखाए। इसी की बदौलत मैं यह सफलता पा सकी। अपने ग्रामीण परिवेश के बारे में वे कहती हैं, 'ग्रामीण विद्यार्थियों को शुरू में सब कुछ अटपटा लगता है। न तो सही गाइडेंस होती है और न ही उचित संसाधन। ऐसे में आत्मविश्वास और मेहनत ही काम आते हैं। अपने साक्षात्कार के बारे में वे बताती हैं, 'इंटरव्यू के दौरान मुझसे पूछा गया कि इंटरव्यू देने आते वक्त आप क्या सोचकर आईं? साथ ही धर्म, इतिहास, बाल विकास, महिला सशक्तीकरण, अर्थव्यवस्था पर सवाल पूछे गए। हिंदी माध्यम को श्वेता अपनी सबसे बड़ी ताकत बताती हैं। वे कहती हैं, 'हिंदी भाषा मेरा आत्मविश्वास है। हिंदी मेरे लिए कभी बाधा नहीं बनी, बल्कि हिंदी की वजह से ही मेरा चयन हो पाया। अपने भविष्य के बारे में उनकी सोच साफ है। बकौल श्वेता, 'मैं भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) में जाकर सबसे पहले फील्ड की बारीकियां सीखूंगी। लोगों की समस्याओं से रूबरू होऊंगी। इसके बाद मैं सरकारी अफसर और जनता के बीच बनी हुई संवादहीनता खत्म करूंगी। मेरा मानना है कि जब तक लोगों के मन से सरकारी सिस्टम का डर नहीं निकलेगा, तब तक देश का विकास अधूरा रहेगा।
-आशीष जैन

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सफलता का सफर

जानते हैं सिविल सर्विसेज एग्जाम में टॉप करने वाली शुभ्रा सक्सेना के बारे में।
आईआईटी रुड़की से अमरीका, यूनाइटेड किंगडम और सिंगापुर... फिर सिविल सर्विसेज एग्जाम के शिखर पर काबिज होने का शानदार मोड़। वाकई शुभ्रा सक्सेना के लिए जिंदगी का सफर काफी रोमांचक रहा।

सिविल सर्विसेज एग्जाम 2008 में टॉप करने वाली शुभ्रा ने आईआईटी रुड़की से सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग की, पर आईटी सेक्टर की शानदार नौकरी छोड़कर देश सेवा में लगने का फैसला किया। पढ़ाई के चार साल बाद तक वे तीन आई टी कंपनियों में काम करती रहीं। उन्होंने 2006 में अपनी नौकरी छोड़ी और नई दिल्ली के राजेंद्र नगर में किराए का अपार्टमेंट लेकर आईएएस बनने की तैयारी करने लगी। वे सुबह आईएएस की तैयारी करवाने वाले संस्थान में पढ़ाती थीं और बचे हुए समय में खुद तैयारी करती थीं। इंजीनियर शुभ्रा ने साइकोलॉजी और पब्लिक एडमिनिस्टे्रशन विषय से एग्जाम दी। आईएएस बनने की इच्छा के बारे में शुभ्रा कहती हैं, 'बोकारो में कोयले की खदानों के आस-पास मजदूरों के खेलते हुए बच्चों को देखकर मुझे लगा कि क्यों न ऐसा काम किया जाए, जिससे इन बच्चों का भला हो सके। फिर तो मैंने ठान लिया कि मैं आईएएस बनकर दिखाऊंगी। उत्तरप्रदेश के बरेली में पैदा हुई 30 वर्षीय शुभ्रा के पिता अशोक चंद्र सेंट्रल कोलफील्ड लिमिटेड में अधिशासी अभियंता हैं। झारखंड के हजारीबाग से स्कूलिंग करने के बाद शुभ्रा आईआईटी से बीटेक करने के लिए रुड़की आ गई। फिर आईटी सेक्टर में नौकरी के चलते अमरीका, यूनाइटेड किंगडम और सिंगापुर भी गई। पर वे अपने काम से खुश नहीं थीं। इसलिए अपनी मां के पास यहां आकर आईएएस की तैयारी करने लगी। शुभ्रा की शादी छह साल पहले नोएडा के शशांक गुप्ता से हुई। शशांक अभी नोएडा में सीएससी कंपनी में प्रोजेक्ट मैनेजर हैं। आईएएस एग्जाम के इतिहास में भी ऐसा पहली बार हुआ है, जब पहले तीन स्थानों पर महिलाओं ने बाजी मारी है। शुरुआती 25 स्थानों में 10 लड़कियां शामिल हैं। उन्होंने साबित कर दिखाया है कि अब देश चलाने के लिए महिलाएं कमर कस चुकी हैं।
-आशीष जैन

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प्यारा इक बंगला हो


काश! हरी-भरी वादियों में हमारा भी एक आलीशन और खूबसूरत घर हो, यह चाहत किसकी नहीं होती। भला प्राकृतिक सौंदर्य के आकर्षण से कौन बच सकता है। पर इसे अमलीजामा पहनाने की तैयारी कर रही हैं प्रियंका गांधी।

प्रियंका हिमाचल प्रदेश में शिमला के पास छराबड़ा में एक घर बनवा रही हैं। हरे रंग के खास पत्थरों से बनने वाले इस दोमंजिला घर की पहली मंजिल तो बनकर तैयार भी हो गई है। इसमें कुल सात कमरे हैं। दिलचस्प बात है कि यहां मदर्स रूम नाम से एक खास कमरा भी बनाया गया है। कयास लगाया जा रहा है कि प्रियंका ने यह कमरा खास तौर पर अपनी मां सोनिया गांधी के लिए तैयार करवाया है। घर बनाने के लिए सोलन के बड़ोग से खास पत्थर मंगवाए गए हैं। प्रियंका इस घर की जमीन अपनी नानी पाओला मैनो को भी दिखा चुकी हैं। घर बनवाने के लिए उन्होंने पांच बीघा जमीन ली थी। उसमें से छह बस्वे के क्षेत्र में यह घर बन रहा है। घर की छत स्लेट की होगी। घर की शैली हिमाचली पहाड़ी शैली के अनुरूप ही होगी। हरियाली का खास ध्यान रखते हुए घर के बाहर चार लॉन बनाए जा रहे हैं। तीन लॉन सजावट और एक लॉन खास तौर पर बच्चों के खेलने के लिए तैयार किया जा रहा है। उम्मीद है कि घर जल्द ही बनकर तैयार हो जाएगा।
- आशीष जैन

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06 May 2009

मां को बचाना है

बॉलीवुड एक्टैरस रवीना टंडन यूनिसेफ की ब्रांड एंबेसेडर बनकर मांओं को बचाने की खास मुहिम में जुटी हैं।

'बच्चे के जन्म के समय या गर्भावस्था की समस्याओं के दौरान मां की मौत को अक्सर लोग गरीबी से जोड़ते हैं। पर मेरा मानना है कि यह गलत धारणा है।' रवीना टंडन की यह सोच निराधार नहीं है। वे महिलाओं को गर्भ से जुड़ी भ्रांतियों की सच्चाई से रूबरू कराने के मिशन पर हैं। आज गर्भ से जुड़ी समस्याओं के चलते देश में हर साल 78 हजार महिलाओं की मौत हो जाती है। यूनिसेफ के साथ मिलकर रवीना गांव-गांव में रोड शो करने की योजना बना रही हैं। ग्रामीण लोग जानकारी के अभाव में महिलाओं का ध्यान नहीं रख पाते और महिलाएं मौत का ग्रास बन जाती हैं।

उनका कहना है कि आज भी देश के अधिकांश घरों में महिलाओं से पहले पुरुष भोजन करते हैं। अगर घर में कोई गर्भवती महिला है, तो घर के सभी सदस्यों को महिला की सेहत का ध्यान रखना चाहिए। इससे होने वाला बच्चा भी तंदुरुस्त पैदा होगा। गर्भवती महिलाओं को दवाइयों और विटामिन्स का खास ख्याल रखना होगा। तीन से पांच रुपए में आने वाली फालिक एसिड की गोली से भी गर्भ की समस्याओं को रोका जा सकता है। उनका सुझाव है कि महिलाओं को गर्भकाल के दौरान खुद के स्वास्थ्य के प्रति सचेत रहना चाहिए। साथ ही घरवालों को भी महिला को पोषक तत्व देने के लिए एक अतिरिक्त खुराक देनी चाहिए। अगर महिला शारीरिक रूप से स्वस्थ होगी, तो उसे बच्चे के जन्म के समय कोई दिक्कत पेश नहीं आएगी। साथ ही उनका मानना है कि महिलाओं को दो बच्चों के जन्म के बीच कम से कम तीन या चार साल का अंतर रखना चाहिए, ताकि बच्चों की परवरिश ढंग से की जा सके। रवीना का कहना है कि अगर बच्चियों की जल्द शादी की बजाय माता-पिता उन्हें शिक्षित करेंगे, तो आगे चलकर यही लड़कियां बेहतर मां भूमिका निभा पाएंगी।
-आशीष जैन

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सलाखों में कैद मां


जेल में सजा काट रही महिलाएं अपराधी तो हैं, पर अपने साथ पल रहे बच्चों के लिए इनके सीने में भी धड़कता है एक मां का दिल...। पेश है जयपुर की महिला जेल में रहने वाली महिला कैदियों के मातृत्व की एक झलक।
जेल का नाम आते ही दिमाग में ऐसे अपराधियों की छवि उभरती हैं, जो बहुत खतरनाक हैं। पर इन सखीचों के पीछे बैठी मां की ममता और दुलार का जवाब नहीं। ये महिलाएं जमाने भर के लिए मुजरिम हैं, पर अपने बच्चों के लिए सिर्फ एक मां है। इनकी भगवान से केवल एक ही दुआ है कि इनका राजदुलारा हमेशा खुश रहे।
छिपा लेती हूं आंचल में

नाम- ज्योत्सना, उम्र- 26 साल, अपराध- हत्या, सजा- आजीवन कारावास
मेरे दिन की शुरुआत मेरे बेटे अंकुश को देखकर होती है। मुझे दुख इस बात का है कि मेरी गलती की सजा इस मासूम को भी भुगतनी पड़ रही है। मां हूं ना इसके बिना रह भी तो नहीं सकती। इसलिए इसे यहां ले आई। अभी दो साल का ही तो है। जेल में मजदूरी करके दिनभर में नौ रुपए कमा पाती हूं। इन्हें इसके लिए जमा करती हूं। छह साल का हुआ नहीं कि इसे मुझसे अलग कर दिया जाएगा। यह सोचकर ही मैं सिहर उठती हूं। यहां यह सबका दुलारा है। कोई ना कोई इसे दिनभर खेल खिलाता रहता है। पर मैं इसे एक पल भी मेरे से दूर नहीं रखना चाहती। इसलिए हमेशा इसे गोद में रखती हूं। कई बार मेरे साथ वाली औरतें कहती हैं, 'इसे अपनी आदत मत डाल कि यह तुझसे दूर ना रह सके।' यह सुनते ही मन इसके दूर जाने के डर से कांप उठता है। अभी यह थोड़ा-थोड़ा बोलने लगा है। अपनी तुतलाती आवाज में मां सुनना बहुत अच्छा लगता है।
... अगली बार कब

नाम- अनीता, उम्र- 35 साल, अपराध- हत्या, सजा- आजीवन कारावास
मेरा बेटा आकाश दस साल का हो गया है। आश्रम में रहता है। वहां रहने वाले दूसरे बच्चों के साथ पढ़ने जाता है। सारी सुख-सुविधाएं हैं वहां पर। पर मेरा दिल नहीं मानता। इसलिए हर वक्त उसके लिए तड़पती रहती हूं। पता नहीं ठीक से खाना खाता होगा या नहीं। आज भी याद है वो दिन जब उसे यहां से ले जाने के लिए बोला गया था। मेरा तो उस दिन से ही खाना-पीना छूट गया था। पर उसे नहीं बताया, छिप-छिप के रोती थी। उसने पूछा, 'मम्मी कौन कहां जाने के लिए बोल रहा है?' मैंने कहा, 'तू यहां सबसे प्यारा है ना, इसलिए ये लोग तुझे घूमाने के लिए लेकर जाएंगे।' मैंने अपने दिल पर पत्थर रखकर उसे आश्रम भेज दिया। उसके जाने के बाद बिलकुल अकेलापन लगता है। अब सारे दिन अपने आपको यह समझाती रहती हूं कि जेल से बाहर जाकर उसे पढ़ना-लिखना है, बड़ा आदमी बनना है। इसलिए अपनी मजदूरी से पैसे जमा कर उसे देती हूं। सोचती हूं कि मेरे यहां से छूटने में कुछ साल बाकी हैं। रिहा होने के बाद आकाश के साथ रहूंगी। मेहनत-मजदूरी करके उसे खूब पढ़ाऊंगी। पर यह सपने एक ही पल में टूट जाते हैं जब हकीकत का खयाल आता है कि एक खूनी मां बेटा होने के कारण समाज वाले उसे परेशान करेंगे। इस डर के कारण मन करता है कि मैं आकाश से हमेशा दूर रहूं। ताकि वो समाज में सुख से तो रह सके।

इसका हक कैसे छीनती...

नाम- सुलेखा, उम्र- 30 वर्ष, अपराध- वेश्यावृत्ति, सजा- 7 साल मेरी बेटी बिट्टू का जन्म जेल में ही हुआ था। कोई मां कल्पना नहीं कर सकती कि उसकी संतान की आंखें जेल की चार दीवारी में ही खुलें। जब मुझे सजा हुई तभी पता लगा कि मैं मां बनने वाली हूं। सबने कहा कि मैं इसे जन्मा ना दूं। ताकि इसकी जिंदगी तो बर्बाद ना हो। पर मां का यह दिल कैसे मानता। मैं कैसे इसके जन्म लेने के हक को छीन सकती थी। आज बिट्टू तीन साल की हो गई है। इसके साथ कैसे समय गुजरता है, पता ही नहीं चलता। पर हर वक्त इसके आने वाले कल को लेकर चिंता रहती है। लड़की है, कैसे अकेले रहेगी। यह भी तो दुल्हन बन किसी के घर जाएगी। पर कौन इसे ब्याहना चाहेगा। जब पता चलेगा कि इसकी मां तो जेल में है। इसकी खुशियों के लिए मन करता है कि मेरा साया भी इस पर न आने दूं। बड़ी होने पर जब इसे मेरी सच्चाई के बारे में पता लगेगा, तो बहुत दुख होगा। इसलिए अभी से बिट्टू को मुझसे दूर भेज देती हूं। ताकि धीरे-धीरे यह मुझे भूल सके।
इसको हर खुशी मिले

नाम- रेखा, उम्र- 32 वर्ष, अपराध- हत्या, सजा- आजीवन कारावासमेरे जीने का मकसद मेरा बेटा राजू है। पांच साल का हो गया है यह। एक साल बाद यह अपनी नानी के पास रहने जाएगा। मुझे पता है, मां इसे अच्छी तरह रखेगी। पर मेरी कमी को तो कोई पूरा नहीं कर सकता। अभी यह मेरे बिना नहीं रहता, तो वहां कैसे रहेगा। कई बार तो खाना खिलाते हुए रोना आ जाता है कि अभी तो मैं खिला रही हूं। बाद में कौन खिलाएगा? मुझे रोता देख यह मेरे आंसू पोछने लगता है और कहता है, 'मम्मी तुम तो खाती ही नहीं और मुझे खिलाती रहती हो।' लेकिन इसे कैसे बताऊं कि इसे खिलाए बिना मेरे गले से एक निवाला तक नहीं उतरता। अभी तो मैंने इसे बताया तक नहीं कि इसे मुझे छोड़कर जाना पड़ेगा। सोचती हूं बताऊं, पर अगले ही पल यह सोचकर रुक जाती हूं कि न जाने इस पर क्या गुजरेगी। अभी थोड़े दिन पहले राजू बीमार हो गया था। मेरी तो भूख-प्यास सब बंद हो गई थी, बड़ी मन्नतें करने के बाद ठीक हुआ।

(महिला कैदियों के नाम बदल दिए गए हैं।)
सधन्यवाद- विजया का लेख जो मदर्स डे 2009 के मौके पर परिवार में छपा।

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