05 September 2009

खेल में नशा

डोपिंग खेलों के लिए अभिशाप बन चुका है। पूरी दुनिया चाहती है कि खेल किसी तरह के नशे से मुक्त रहें। इसके लिए दुनिया के सारे खेल प्राधिकरण चाहते हैं कि डोपिंग की जांच में पूरी दुनिया के खिलाड़ी अपना सहयोग दें। दूसरी तरह देश के क्रिकेट खिलाड़ी इस पर मंथन कर रहे हैं कि डोपिंग की जांच के नाम पर किसी एजेंसी का निजी जिंदगी में खलल हो या न हो। क्रिकेट खिलाडिय़ों का साथ बीसीसीआई है। बीसीसीआई क्रिकेट में सबसे धनी संस्था है। आईसीसी जैसी क्रिकेट की सर्वोपरि संस्था चाहे विश्व डोपिंग रोधी एजेंसी (वाडा) के नियम मान चुकी हो, पर देश के क्रिकेट की संस्था बीसीसीआई के पैसे के आगे आईसीसी को भी सोचा पड़ रहा है। एक तरफ पूरी दुनिया के खिलाड़ी हैं, तो दूसरी तरफ हमारे क्रिकेट सितारे, जो हमारे लिए भगवान से कम नहीं हैं। वे कह रहे हैं कि वाडा डोपिंग के नाम पर क्रिकेट खिलाडिय़ों का सुख-चैन छीनने पर आमादा है। कुछ खिलाडिय़ों का कहना है कि इससे उनकी सुरक्षा व्यवस्था में सेंध लगती है, तो कुछ का मानना है कि यह निजी जिंदगी में जहर घोल देगा। वाडा के एग्रीमेंट पर ऊपरी मन से चाहे दुनिया के दिग्गज खिलाड़ी साइन कर चुके हों, पर मन ही मन वे भी भारतीय क्रिकेट खिलाडिय़ों की तरह इस तरह की तांक-झांक से सहमत नहीं हैं। भारतीय खिलाडिय़ों का मानना है कि वे सालभर खेल में व्यस्त रहते हैं। थोड़े से बचे हुए समय को वे अपने परिवार के साथ बिताना पसंद करते हैं। ऐसे में वे तीन महीने पहले कैसे बता सकते हैं कि वे कहां जा रहे हैं।

क्या है नियम-
भारतीय क्रिकेट खिलाडिय़ों को आईसीसी द्वारा वाडा के साथ किए गए करार के 'व्हेयर एबाउट्स क्लॉजÓ पर गहरी आपत्ति है। इस नियम के अनुसार प्रत्येक खिलाड़ी को तीन महीने पहले प्रत्येक दिन में एक सुनिश्चित जगह पर एक घंटे की जानकारी देनी होगी और अगर खिलाड़ी तीन बार उस बताई जगह पर नहीं मिलता तो कुछ निश्चित समय के लिए उस पर टूर्नामेंट में भाग लेने पर प्रतिबंध लगा दिया जाएगा। भारतीय क्रिकेटरों को वाडा की उस शर्त से मुख्य आपत्ति है, जिसमें उन्हें प्रतियोगिता के अलावा भी परीक्षण के लिए तीन महीने पहले अपने ठहरने के स्थान के बारे में जानकारी देनी होगी। यह जानकारी ईमेल पर वाडा को दी जा सकती है, तब वाडा का एक प्रतिनिधि आकर खिलाड़ी की जांच करेगा कि कहीं वह प्रतिबंधित दवाओं का सेवन तो नहीं कर रहा है। वाडा का विवादित प्रावधान उन सभी एथलीटों को दोषी मान लेता है जब तक वे अपने को निर्दोष नहीं साबित कर पाते। हमारे देश के खिलाडिय़ों का कहना है कि आईसीसी को खुद डोपिंग रोधी संहिता लानी चाहिए, ताकि क्रिकेटरों को वाडा की शर्तों को न मानना पड़े।
कैसे तय हों मानक
कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि प्रतिबंधित दवाओं की श्रेणियों को भी जांचने की जरूरत है। आजकल बाजार में कुछ ऐसी दवाएं उपलब्ध हैं, जिसको लेने के 24 या 48 घंटे के बाद कोई जांच यह तय नहीं कर सकती कि खिलाड़ी ने प्रतिबंधित दवा ली भी है या नहीं। हमारे ही देश के निशानेबाज अभिनव बिंद्रा और टेनिस प्लेयर सानिया मिर्जा ने वाडा की शर्तों को मान लिया है। न्यूजीलैंड के खिलाड़ी, आस्टे्रलिया क्रिकेट टीम के खिलाड़ी, मशहूर टेनिस खिलाड़ी एंडी मरे, रोजर फेडरर भी इसके विरोध में उतरे थे। दवा लेकर खेल के मैदान में उतरने वाले खिलाडिय़ों की निगरानी रखने के लिए वाडा के नियम ओलंपिक में पहले से ही लागू हैं। अब चूंकि आईसीसी भी ओलंपिक में क्रिकेट को शामिल करवाना चाहता है, तो आईसीसी ने वाडा से एक करार किया है और इसके तहत अब वाडा के नियम क्रिकेट खेलने वाले देशों के खिलाडिय़ों पर भी लागू होंगे। वाडा के नियमों के मुताबिक खिलाड़ी तीन बार उस स्थान पर नहीं मिलता, जहां उसने होने की सूचना दी थी, तो उस खिलाड़ी पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है। खिलाडिय़ों का कहना है कि इमरजेंसी आने पर वह शहर या जगह छोडऩी पड़ सकती है, पर वाडा इस बात को स्वीकार नहीं करता। विश्व डोपिंग रोधी एजेंसी के प्रमुख जान फाहे ने भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के वाडा नियमों को न मानने की आलोचना करते हुए कहा कि इससे दिल्ली में अगले साल होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन पर गलत असर पड़ सकता है। पर क्रिकेट खिलाड़ी हैं कि टस से मस होने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। भारतीय संविधान अपने नागरिकों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार देता है। ऐसे में विशेष सुरक्षा प्राप्त खिलाड़ी जैसे सचिन और धोनी अपने भावी कार्यक्रम की सूचना देकर सुरक्षा संबंधी खतरा उठाने से कतरा रहे हैं। साथ ही कई क्रिकेट खिलाड़ी इंटरनेट को ढंग से नहीं समझते। कई खिलाड़ी रोज या जरूरत के हिसाब से अपना भावी कार्यक्रम तय करते हैं। क्रिकेट खेलने वाले ज्यादातर देश वाडा के करार पर साइन कर चुके हैं। साथ ही अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक संघ सहित दुनिया की 571 खेल संस्थाओं ने जब इस खास क्लॉज को स्वीकार कर लिया है, तो ऐसे में भारतीय क्रिकेट खिलाडिय़ों को आपत्ति दर्ज कराने से पहले दस बार सोचना चाहिए था। इससे पूरी दुनिया के सामने भारतीय क्रिकेट की छवि धूमिल होने का खतरा भी है।
क्या है वाडा
मादक पदार्थो के जरिए शारीरिक क्षमता में बढ़ोतरी का मुद्दा 1988 के सिओल ओलिंपिक खेलों में तब चर्चा में आया, जब 100 मीटर की फर्राटा दौड़ में कनाडा के बेन जॉनसन ने सबको चौंकाते हुए तबके विश्व रिकॉर्डधारी कार्ल लुइस को न केवल परास्त किया, बल्कि नया विश्व रिकॉर्ड भी बना डाला। बाद में पता चला कि जॉनसन ने प्रतिबंधित मादक दवा स्टैनाजोलोल का सेवन करके यह उपलब्धि हासिल की थी। अंतरराष्ट्रीय ओलिंपिक कमेटी (आईओसी) ने उनके खिलाफ कार्रवाई करते हुए उन्हें स्वर्ण पदक से वंचित करके उन पर प्रतिबंध लगा दिया। इसके बाद से ही आईओसी ऐसी व्यवस्था बनाने को लेकर प्रयास करती रही ताकि खिलाडिय़ों को मादक पदार्थो का सेवन करने से हतोत्साहित किया जा सके। आईओसी और अन्य संस्थाओं की पहल पर ही आखिरकार नवंबर 1999 को स्विट्जरलैंड के ल्युसाने में एक अंतरराष्ट्रीय संस्था का गठन किया गया। इसका नाम वल्र्ड एंटी डोपिंग एजेंसी (वाडा) रखा गया। साल 2001 में इसका मुख्यालय कनाडा के मांट्रियल में स्थानांतरित कर दिया गया। वर्तमान में इसके चैयरमेन आस्ट्रेलिया के पूर्व वित्त मंत्री जॉन फाहे हैं। वाडा की एथलीट समिति की प्राथमिकताओं में खिलाडिय़ों से चर्चा करना और उनसे फीड बैक लेना शामिल है। इसके सदस्य डोपिंग के खिलाफ जागरूकता फैलाते हैं। समिति के एक तिहाई सदस्य हर साल बदले जाते हैं। समिति के अध्यक्ष रूस के आईस हाकी के ओलंपिक और विश्व चैंपियन वायाचेसलेव फिस्तोव हैं। दिलचस्प बात है कि भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी जिस वाडा से नाता तोडऩे की बात कह रहे हैं, उसकी एथलीट में हमारे भारतीय क्रिकेटर बॉलर अनिल कुंबले शामिल हैं। वह वाडा की किसी भी समिति में शामिल एकमात्र क्रिकेटर हैं। वे ही कुंबले खुद मानते हैं कि वाडा ने जो नियम दूसरे खेलों के लिए बनाए हैं, वे क्रिकेट के ऊपर लागू नहीं किए जाने चाहिए। और खेलों में तो एक-एक सैंकड के चलते हार या जीत तय होती है, जबकि क्रिकेट में डोपिंग की संभावना शून्य के बराबर होती है। संयोग देखिए जिस दिन (एक जनवरी 2009) से वाडा ने ठहरने का स्थान बताने संबंधी शर्त लागू की उसी दिन से कुंबले का वाडा की एथलीट समिति में कार्यकाल भी शुरू हुआ था। हालांकि इसकी शुरुआत आईओसी की पहल पर हुई, पर वाडा अपने आप में पूरी तरह से स्वायत्त संस्था है। वाडा का मुख्य उद्देश्य खेलों को मादक पदार्थों से मुक्त रखना है। इसने 2004 में एथेंस ओलंपिक खेलों से पहले वल्र्ड एंटी डोपिंग कोड लागू किया। जिसे आईओसी और आईसीसी सहित करीब 600 खेल संगठनों ने मान्यता दे दी। इसका सबसे विवादास्पद पहलू 'वेअर अबाउट्सÓ शर्त है जिसमें खिलाड़ी को कभी भी परीक्षण के लिए बुलाया जा सकता है। यह प्रावधान इसी साल 1 जनवरी से नए सिरे से लागू किया गया है। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड की इसी प्रावधान को लेकर आईसीसी से ठनी हुई है। इस शर्त को फुटबॉल की अंतरराष्ट्रीय संस्था फीफा पहले ही ठुकरा चुकी है।

क्रिकेट में नशा
1986- इंग्लैंड के पूर्व ऑलराउंडर इयान बॉथम को नशीले पदार्थों के सेवन के आरोप में निलंबित किया गया।
1993- पाकिस्तानी टीम के तीन खिलाडिय़ों वसीम अकरम, मुश्ताक अहमद और वकार युनिस को ग्रेनाडा में प्रतिबंधित ड्रग्स के साथ गिरफ्तार किया गया। बाद में ये आरोप वापस ले लिए गए।
1994-न्यूजीलैंड टीम के तीन खिलाडिय़ों स्टीफन फ्लेमिंग, मैथ्यू हॉर्ट और डियोन नाश ने एक बार में प्रतिबंधित ड्रग्स लेने की बात कबूली। तीनों ही खिलाडिय़ों पर जुर्माना और निलंबन तय हुआ।
1996- एड गिडिन्स को कोकीन के सेवन के आरोप में 19 महीनों तक क्रिकेट खेलने से प्रतिबंधित किया गया।
1997- ड्रग टेस्ट के लिए उपस्थित न होने पर इंग्लैंड के स्पिनर फिल टफनेल पर 1000 पाउंड के जुर्माने के साथ 18 महीनों का निलंबन लगाया गया।
2003- 2003 के वल्र्ड कप से ठीक पहले ऑस्ट्रेलिया के शेन वार्न को प्रतिबंधित दवाओं के सेवन के आरोप में स्वदेश वापस भेज दिया गया।
2004- इंगलिश काउंटी वारविकशायर के ऑलराउंडर ग्राहम वैग ने कोकीन के प्रयोग की बात स्वीकारी और उन्हें 15 महीनों के लिए प्रतिबंधित किया गया। वैग को काउंटी से भी निष्कासित कर दिया गया।
2005- चैनल 9 के कमेंटेटर डर्मोट रीव ने कोकीन के प्रयोग की बात स्वीकारते हुए अपना पद त्याग किया। कीथ पाइपर को डोप टेस्ट में दूसरी बार फेल होने पर पूरे सत्र के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया। पाइपर इससे पहले 1997 में भी डोप टेस्ट में पकड़े गए थे।
2006- पाकिस्तान के शोएब अख्तर और मोहम्मद आसिफ को चैंपियंस ट्रॉफी से पहले डोप टेस्ट में फेल होने पर पीसीबी द्वारा क्रमश: दो और एक वर्ष के लिए निलंबन किया गया। हालांकि एक दूसरे ट्रिब्यूनल में अपील के बाद उन्हें निर्दोष पाया गया और उनका निलंबन रद्द हो गया।
2007- भारत के पूर्व क्रिकेटर मनिंदर सिंह को 1.5 ग्राम कोकीन के साथ गिरफ्तार किया गया।
2008- पाकिस्तान के मोहम्मद आसिफ को नशीले पदार्थ के साथ दुबई हवाई अड्डे पर रोका गया।

ओलंपिक में नशा-
ओलंपिक खेलों की शुरुआत 1896 में हुई और 1904 के सेंट लुई ओलंपिक में डोपिंग का पहला मामला सामने आया। इसके ठीक 100 साल बाद 2004 में एथेंस में डोपिंग के कई मामले सामने आए। एथेंस ओलंपिक में सबसे अधिक 27 खिलाडिय़ों को प्रतिबंधित दवा सेवन का दोषी पाया गया। खेलों में शक्ति बढ़ाने वाली दवाओं के बढ़ते प्रयोग के कारण विभिन्न खेल संघों ने 1960 के दशक के शुरुआती सालों में डोपिंग पर प्रतिबंध का फैसला लिया। इसे अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक संघ ने 1967 में अपनाया। पहली बार मैक्सिको सिटी ओलंपिक के 1968 ओलंपिक में इसे लागू किया गया। ओलंपिक 1904 में अमेरिकी मैराथन धावक थामस हिक्स को उनके कोच ने दौड़ के दौरान स्ट्रेचनाइन और ब्रांडी दी थी। हिक्स ने दो घंटे 22 मिनट 18.4 सेकंड में नए ओलंपिक रिकार्ड के साथ मैराथन जीती थी लेकिन तब डोपिंग के लिए कोई नियम नहीं थे इसलिए उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं हुई। रोम ओलंपिक 1960 में डेनमार्क के इनेमाक जेनसन साइकिल दौड़ के दौरान नीचे गिर गए और उनकी मौत हो गई। कोरोनोर जांच से पता चला कि वह तब एम्फेटेमाइंस के प्रभाव में थे। यह ओलंपिक में डोपिंग के कारण हुई एकमात्र मौत है। ओलंपिक में प्रतिबंधित दवा लेने के कारण प्रतिबंध झेलने वाले पहले खिलाड़ी स्वीडन के हांस गुनार लिजनेवाल थे। माडर्न पैंटाथलान के इस खिलाड़ी को 1968 ओलंपिक में एल्कोहल सेवन का दोषी पाया गया जिसके कारण उन्हें अपना कांस्य पदक गंवाना पड़ा। डोपिंग के कारण ओलंपिक पदक गंवाने का भी यह पहला मामला था। भारत की दो भारोत्तोलकों प्रतिमा कुमारी और सनामाचा चानू को भी एथेंस ओलंपिक 2004 में क्रमश: एनबोलिक स्टेरायड और फुटोसेनाइड के सेवन का दोषी पाया गया जिसके कारण इन दोनों के अलावा भारतीय भारोत्तोलन संघ (आईडब्ल्यूएफ) पर भी एक साल का प्रतिबंध लगा था। शेन वॉर्न क्रिकेट के इतिहास में पहले खिलाड़ी हैं जिन्हें प्रतिबंधित दवाओं के सेवन का दोषी पाया गया है और खेल से हटा दिया गया है।
-आशीष जैन

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शिक्षा का अधिकार

देश में सबको शिक्षित करने के मकसद से सरकार ने हाल ही शिक्षा का अधिकार विधेयक पारित किया है। यह राज्यसभा और लोकसभा में पारित हो चुका है। अब बस राष्ट्रपति की मोहर लगने की देरी है। इसके बाद यह कानून बन जाएगा। शिक्षा का अधिकार विधेयक की सबसे खास बात है कि छह से चौदह साल की आयु के प्रत्येक बालक और बालिका को प्रारंभिक शिक्षा पूरी होने तक आसपास के स्कूल में निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा पाने का अधिकार मिल जाएगा। साथ ही फीस आदि वजहों से उन्हें शिक्षा से वंचित नहीं रहना पड़ेगा। यह बात सिर्फ सरकारी स्कूलों पर ही लागू नहीं होगी। आंशिक या पूर्ण अनुदान पाने वाले स्कूलों, पूरी तरह से निजी स्कूलों, नवोदय, केंद्रीय और सैनिक स्कूलों पर भी यह कानून लागू होगा। सरकारी स्कूल में तो सभी बच्चे निशुल्क पढ़ेंगे। अनुदान पाने वाले स्कूलों में अनुदान के अनुपात में सुविधा अभाव वाले समूह और दुर्बल वर्ग समूह के बच्चों को भर्ती करना होगा। निजी स्कूलों में हर क्लास में कम से कम 25 फीसदी बच्चे इन्हीं दोनों समूहों के होने आवश्यक हैं।

क्या होगा फायदा
निजी स्कूलों को ऐसे बच्चों को पढ़ाने के लिए सरकार हर बच्चे के हिसाब से प्रति छात्र औसतन खर्चा देगी। स्थानांतरण प्रमाण पत्र या जन्म प्रमाण पत्र जैसे किसी दस्तावेज के अभाव में बच्चों के स्कूल में प्रवेश को रोका नहीं जा सकेगा। साथ ही विधेयक सरकार पर यह जिम्मेदारी भी डालता है कि हर क्षेत्र में समुचित संख्या और दूरी पर स्कूलों की स्थापना होनी चाहिए। पहली से पांचवी क्लास के लिए 60 बच्चों पर कम से कम दो शिक्षक, इसी तरह 90, 120 और 200 बच्चों के लिए क्रमश: तीन, चार और पांच टीचर्स होना जरूरी है। कक्षा 6 से 8 तक के लिए प्रति कक्षा कम से कम एक शिक्षक का प्रावाधान है। शिक्षा का अधिकार कानून के मुताबिक विज्ञान और गणित, सामाजिक विज्ञान और भाषा के लिए कम से कम एक शिक्षक हो। इसमें प्रत्येक 35 विद्यार्थियों पर एक शिक्षक का अनुपात अपेक्षित है और 100 से अधिक छात्रसंख्या वाले विद्यालय में एक पूर्णकालिक प्रधान अध्यापक के साथ-साथ कला शिक्षा, स्वास्थ्य और शारीरिक शिक्षा एवं कार्य शिक्षा के लिए भी अंशकालिक शिक्षक होना चाहिए। स्कूल का अर्थ सभी मौसम में सुरक्षा देने वाला ऐसा भवन अपेक्षित है जिसमें प्रत्येक शिक्षक के लिए एक कक्षा, खेल का मैदान तथा लड़कों और लड़कियों के लिए पृथक शौचालय हो। शाला भवन में रसोई का भी प्रावधान है। ये सब तो कुछेक बातें हैं, शिक्षा के व्यापक हितों से जुड़ी ढेरों बातें शिक्षा के अधिकार विधेयक में शामिल हैं। कार्य-दिवसों व शिक्षण घंटों का स्पष्ट उल्लेख करते हुए शिक्षा का अधिकार अधिनियम में कहा गया है कि पहली से पांचवीं कक्षा के लिए वर्ष में कम से कम 200 कार्य दिवस और 800 शैक्षणिक घंटे तथा छटी से आठवी कक्षा के लिए 220 कार्य दिवस और 1000 शैक्षणिक घंटे अपेक्षित हैं। शिक्षकों से शिक्षण व तैयारी के लिए प्रति सप्ताह 45 घण्टे देने की अपेक्षा की गई है। पुस्तकालय, खेल और क्रीड़ा सामग्री की उपलब्धता के विषय में भी स्पष्ट उपबध हैं। इस सबसे पता लगता है कि सरकार ने शिक्षा को बहुत महत्वपूर्ण कार्य मानकर इसके हर पहलू पर विचार किया है। अब घटिया स्कूलों की खैर नहीं। वे शिक्षक जो कार्यालय से जुड़े काम भी शिक्षण के घंटों में ही करते हैं, उन्हें भी एक बार फिर सोचना होगा और बच्चों की उचित शिक्षा के लिए जुटना होगा। यह विधेयक संविधान के मूल अधिकार से संबंधित है, ऐसे में इसके उल्लंघन या अवमानना पर अदालत का दरवाजा खटखटाया जा सकता है। साथ ही इसमें एक विद्यालय प्रबन्धन समिति का भी प्रावधान है जो (सरकारी अनुदान प्राप्त नहीं करने वाले गैर-सरकारी विद्यालयों को छोड़कर) सभी स्कूलों में बनाना अनिवार्य होगा। यह समिति विद्यालय में प्रविष्ठ बालकों के माता-पिता या संरक्षक और शिक्षकों के निर्वाचित प्रतिनिधियों से मिलकर बनेगी। इसमें कम से कम तीन-चौथाई सदस्य माता-पिता या संरक्षक होगे और उसमें भी असुविधाग्रस्त समूह और दुर्बल वर्ग के बालकों के माता-पिताओं को समानुपातिक प्रतिनिधित्व मिलेगा। इससे योजना के सफल क्रियान्वन की दिशा तय होगी। विधेयक के अनुसार पाठ्यक्रम का निर्धारण, शिक्षकों के प्रशिक्षण का मानकीकरण और उनकी योग्यता का निर्धारण एक केन्द्रीय निकाय द्वारा किया जाएगा। इससे अप्रशिक्षित और अयोग्य शिक्षक बाहर हो जाएंगे। सरकारी और अनुदान प्राप्त विद्यालयों में शिक्षक के कुल पदों में से दस प्रतिशत से अधिक पद रिक्त नहीं रखे जा सकते। शिक्षकों के निजी ट्यूशन पर यह अधिनियम रोक लगाता है। इस विधेयक में भारी-भरकम केपीटेशन फीस को प्रतिबंधित किया गया है। बच्चों का सत्र के मध्य में भी स्कूल में प्रवेश हो सकेगा। अब शिक्षकों को गैर शैक्षणिक कामों में भी नहीं लगाया जा सकेगा। इससे उनका जनगणना, चुनाव ड्यूटी तथा आपदा प्रबंधन के कामों की बजाय शिक्षा पर ज्यादा ध्यान रहेगा। गैर मान्यता प्राप्त स्कूल चलाने पर दंड लगाया जा सकता है। बच्चों को शारीरिक दंड देने, बच्चों के निष्कासन या रोकने का भी प्रावधान है।
तैयारी पहले से थी
सबसे पहले जोमेरिन में 1990 में पूरी दुनिया में सामूहिक रूप से सबके लिए शिक्षा का प्रस्ताव पारित किया था। भारत ने इस दिशा में ठोस कदम उठाए। इसी के तहत जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम(डीपीईपी) और 2001 में शुरू हुआ सर्वशिक्षा अभियान चलाया गया। 2002 में 86वें संविधान संशोधन करके 6 से 14 साल आयुवर्ग के बच्चों के लिए निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान मूल अधिकारों में किया गया। इसे कानून बनाने के लिए 'शिक्षा का अधिकार विधेयक 2005Ó को सरकार ने तैयार किया। इसके प्रावधानों पर शिक्षाविदों की राय लेकर शिक्षा का अधिकार विधेयक-2006 तैयार किया गया और इसे संसद में पेश किया गया। 20 जुलाई 2009 को राज्यसभा और 4 अगस्त 2004 को लोकसभा ने इसे पारित कर दिया है। 1936 में जब महात्मा गांधी ने एक समान शिक्षा की बात उठायी थी, तब उन्हें भी कई समस्याओं का सामना करना पड़ा था। संविधान ने इसे एक अस्पष्ट अवधारणा के रूप में इसे छोड़ दिया था, जिसमें 14 साल तक की उम्र के बच्चों को निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने की जवाबदेही राज्यों पर छोड़ दी गई थी। पर नए विधेयक में सारी चीजों का जवाब मौजूद है। संविधान में राज्य के नीति निदेशक तत्व के अन्तर्गत संविधान के अनुच्छेद 45 में कहा गया है, 'राज्य इस संविधान के ्रारंभ से 10 वर्ष के भीतर सभी बालकों को चौदह वर्ष की आयु पूरी करने तक निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने के लिए उपबन्ध करेगा।Ó उन दस वर्षों की अवधि तो 1960 में पूरी हो गई। चूंकि यह राज्य के नीति निदेशक तत्व वाले भाग में था, इसलिए सरकार बाध्य नहीं थी। यह काम तो राज्य सरकारों को करना था। काफी जद्दोजहद के बाद सन् 2002 में संविधान में छियासीवां संशोधन किया गया और अब संविधान संशोधन के सात साल 2009 में बाद यह पारित हो चुका है। सन् 2002 में 'शिक्षा का निशुल्क और अनिवार्य अधिकारÓ संविधान के मूल अधिकारों अनुच्छेद 21 ए (भाग 3) में समाविष्ट तो हुआ, मगर यह अधिकार सभी बच्चों को न देकर केवल छह से चौदह वर्ष तक की आयु के बच्चों को मिला। उन्नीकृष्णन फैसला (1993) भी शिक्षा के अधिकार अधिनियम में खास अहमियत रखता है। इसमें कहा गया था कि अनुच्छेद 45 (बालकों के लिए निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का उपबन्ध) को अनुच्छेद 21 (प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण) के साथ देखा जाना चाहिए। अपने फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा है कि चौदह वर्ष तक प्रत्येक बच्चे को निशुल्क शिक्षा पाने का अधिकार है। वर्तमान अधिनियम का विरोध करने वालों का कहना है कि जो जन्म से चौदह वर्ष तक निशुल्क शिक्षा पाने जो अधिकार पहले से मिला हुआ था वह संविधान के छियासीवें संशोधन में सीमित होकर छह से चौदह वर्ष तक के बच्चों के लिए ही रह गया है। इस प्रकार शिक्षा को मूल अधिकार के रूप में शामिल करने के नाम पर एक कदम पीछे हटते हुए बच्चों की आयु सीमा घटा दी गई है। संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार सम्मेलन ने जन्म से 18 वर्ष की आयु को बाल्यावस्था माना है। इस पर भारत सरकार ने भी हस्ताक्षर किये हैं। शिक्षा के अधिकार के पक्ष में लडऩे वाले अनेक लोगों का मानना है कि जन्म से 18 वर्ष की आयु पूरी होने तक निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान किया जाना चाहिए।
कहीं ये ना हो
कुछ लोगों का मानना है कि इस विधेयक के लागू होने के बाद शायद निजी स्कूलों की बाढ़ सी आ जाए। निजी स्कूल गांव-गांव में खुलने लगेंगे। क्योंकि असुविधाग्रस्त और दुर्बल वर्ग के 25 फीसदी बच्चों को निजी स्कूल भर्ती कर लेंगे और बदले में सरकार से पैसे भी वसूलेंगे। ऐसे में असुविधाग्रस्त समूह और दुर्बल वर्ग के माता-पिता अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजने के बदले निजी स्कूलों में ही भेजना पसंद करेंगे। इस सबके बीच में पहले से अपनी खराब हालतों के लिए बदनाम सरकारी स्कूलों का क्या होगा? कुछ का मानना है कि सरकार का शिक्षा का अधिकार विधेयक लाना, एक प्रकार से शिक्षा के निजीकरण को अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ावा दे सकता है। साथ ही इस विधेयक के साथ-साथ अल्पसंख्यकों के धार्मिक शिक्षा के संवैधानिक अधिकारों (अनुच्छेद 30) पर भी विचार करना जरूरी है। विधेयक में यह स्पष्ट नहीं है कि मदरसो, सरस्वती शिशु मंदिर और धार्मिक आधार पर बने शिक्षण संस्थानों का क्या होगा? साथ ही देश के उन स्कूलों का क्या होगा, प्रदेश या केंद्र से संबद्ध न होकर अंतरराष्ट्रीय बोर्ड से मान्यता प्राप्त हैं? इनके प्रति सरकार का क्या नजरिया रहेगा? क्या इन्हें भी पड़ोसी स्कूल माना जाएगा?
सबको साथ चलना होगा
यह सिर्फ 6 से 14 वर्ष की उम्र तक (कक्षा 1 से 8 तक) की शिक्षा का अधिकार देने की बात करता है। इसका मतलब है कि बहुसंख्यक बच्चे कक्षा 8 के बाद शिक्षा से वंचित रह जाएंगे। कक्षा 1 से पहले पू्र्व प्राथमिक शिक्षा भी महत्वपू्र्ण है। उसे अधिकार के दायरे से बाहर रखने का मतलब है सिर्फ साधन संपन्न बच्चों को ही केजी-1, केजी-2 आदि की शिक्षा पाने का अधिकार रहेगा। वर्तमान में देश में स्कूल आयु वर्ग के 19 करोड़ बच्चे हैं। इनमें से लगभग 4 करोड़ निजी स्कूलों में पढ़ते हैं। मान लिया जाए कि इस विधेयक के पास होने के बाद निजी स्कूलों में और 25 प्रतिशत यानि 1 करोड़ गरीब बच्चों का दाखिला हो जाएगा, तो भी बाकी 14 करोड़ बच्चों का क्या होगा ? देश के सारे बच्चों को अच्छी शिक्षा मिल सके, इसके लिए सबसे जरूरी तो यह होना चाहिए कि देश में कानून बनाकर पड़ोसी स्कूल पर आधारित समान स्कूल प्रणाली लागू की जाए। इसका मतलब यह है कि एक गांव या एक मोहल्ले के सारे बच्चे (अमीर या गरीब, लड़के या लड़की, किसी भी जाति या धर्म के) एक ही स्कूल में पढ़ेंगे। इस स्कूल में कोई फीस नहीं ली जाएगी और सारी सुविधाएं मुहैया कराई जाएगी। यह जिम्मेदारी सरकार की होगी और शिक्षा के सारे खर्च सरकार द्वारा वहन किए जाएंगे। ऐसा करने पर सरकार पूरे देश में शिक्षा के प्रसार का काम सही तरह से कर पाएगी। इस कानून को अमल में लाने के लिए देश में कम से कम 60 लाख शिक्षक नियुक्त करने होंगे। एक विशेष समिति होने वाले खर्च का हिसाब लेकर तेरहवें वित्त आयोग तक जाएगी और इसमें राज्यों का हिस्सा सुनिश्चित किया जाएगा। यह भी तय है कि कुछ राज्य सरकारें पैसा न होने का बहाना करेंगी। नए कानून से सरकारी खजाने पर 12000 करोड़ रुपए का सालाना अतिरिक्त भार पड़ेगा। केंद्र और राज्य सरकार इसके लिए मिलकर संसाधन जुटाएंगी। यह विधेयक स्कूलों को भौतिक अधोसंरचना खड़ी करने के लिए तीन वर्ष का समय प्रदान करता है। देश के सभी स्कूलों को अधोसंरचना की जरूरतें पूरी करनी होंगी और केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों को सलाह दी गई है कि वे अपने यहां प्रमाणन प्राधिकरण स्थापित करें। इस कानून की सफलता के लिए सबसे जरूरी बात है कि केंद्र और राज्य सरकार साझेदारी के साथ काम करें।
-आशीष जैन

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न्यायपालिका का खुलापन

ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के 2007 में हुए सर्वेक्षण के मुताबिक 77 फीसदी भारतीयों का मानना है कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार है। न्यायपालिका से जनता का विश्वास डिग रहा है, तो इसके पीछे दो बड़े कारण हैं- पहला न्यायिक मामलों के निपटारे में देरी और दूसरा न्यायाधीशों की छवि। अब सबको पता है कि न्यायालयों में भी खुलेआम भ्रष्टाचार हो रहा है। भारत संभवत: एकमात्र ऐसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है, जहां कोई नागरिक भ्रष्ट न्यायाधीश के खिलाफ शिकायत नहीं कर सकते। पिछले सालों में न्यायपालिका में बढ़ते भ्रष्टाचार के मद्देनजर यह बेहद जरूरी हो गया है कि अब न्यायपालिका के खिलाफ जनता की शिकायतों की सुनवाई का कानून लाया जाए।

हाल ही सरकार उच्चतम और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों से सम्बन्धित सम्पत्ति व देनदारी विधेयक 'न्यायाधीश (संपत्ति एवं देनदारी घोषणा) विधेयक 2009Ó लेकर आई थी। पर इसे पेश नहीं किया जा सका और राज्यसभा में इस पर भारी हंगामे के चलते कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने इसे वापस ले लिया गया। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण बात है। सदन के सदस्यों को सबसे ज्यादा आपत्ति इस विधेयक की छठी धारा से थी। इस धारा में न्यायधीशों की संपत्ति की घोषणा को आम लोगों से छुपाने या कहें सार्वजनिक नहीं करने का प्रावधान था। विधेयक के मुताबिक उच्चतम और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के लिए अपनी चल-अचल संपत्ति की जानकारी देना अनिवार्य है। पर इस सूचना को न तो सार्वजनिक किया जा सकेगा और उस पर कोई व्यक्ति, कोई अदालत, कोई संस्था किसी भी प्रकार का सवाल नहीं पूछ सकेगी। उस पर चर्चा या जांच भी नहीं हो सकती। खुद मुख्य न्यायाधीश भी कुछ नहीं कर सकेंगे। मौजूदा विधेयक में बताया गया है कि न्यायाधीशों को अपनी संपत्ति का ब्योरा अपने मुख्य न्यायाधीश और सरकार को देना होगा, पर यह आम जनता के लिए उपलब्ध नहीं होगा। सांसदों का मानना है कि जब वे चुनाव लड़ते वक्त अपनी संपत्ति का ब्योरा जनता के सामने रख सकते हैं, तो फिर न्याय की गरिमामय कुर्सी पर बैठे न्यायधीश यह काम क्यों नहीं कर सकते?
क्या है निहितार्थ संपत्ति घोषणा के
1. न्यायाधीशों की संपत्ति की घोषणा को सार्वजनिक नहीं करने से सूचना के अधिकार के कानून का उल्लंघन होगा।
2. यह संविधान में दिए गए समानता के अधिकार का भी साफ तौर उल्लंघन होगा।
3. सांसदों का यह आरोप कहां तक सही है कि न्यायाधीशों को संपत्ति के ब्योरे न देने की छूट देने से उन्हें विशिष्ट क्यों बनाया जा रहा है? सांसद भी तो संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा करते हैं।
4. सांसदों का मानना है कि न्यायपालिका कानून से ऊपर नहीं है।
5. अगर कोई व्यक्ति सांसद पर आरोप लगने पर वे संवाददाता सम्मेलन करके अपनी बात रख सकते हैं। वे आरोप लगाने वाले को अदालत में भी घसीट सकते हैं। पर न्यायाधीश ऐसा नहीं कर सकते। वे तो अपने ऊपर लगे आरोप का खंडन भी खुले में किस तरह कर सकते हैं?
क्या है पूरा मामला
सुप्रीम कोर्ट ने 1997 में प्रस्ताव पारित करके यह बात सामने रखी कि न्यायाधीश अपने मुख्य न्यायाधीशों के सामने अपनी अचल संपत्ति का ब्योरा पेश करेंगे। नई सदी में जब सूचना का अधिकार कानून लागू हुआ, तो कानून के तहत जब लोगों ने जानकारी लेनी चाही, तो न्यायपालिका ने कुछ भी बताने से मना कर दिया। देश के मुख्य न्यायाधीश केजी बालकृष्णन का मानना है कि अगर कानूनन जरूरी बनाया जाए, तो वे न्यायाधीशों की संपत्ति की घोषणा में उन्हें कोई परेशानी नहीं है। बस इससे न्यायाधीशों का अनादर नहीं होना चाहिए। नई खबरों के मुताबिक अब उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश इस बात के लिए राजी हो गए हैं कि अब से वे अपनी संपत्ति का खुलासा उच्चतम न्यायाधीश के समक्ष करेंगे।
पद और प्रतिष्ठा
जब सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश ए आर लक्ष्मणन का कहना है कि प्रत्येक न्यायाधीश को अपने कार्यकाल के दौरान जुटाई गई संपत्ति के बारे में जानकारी देनी चाहिए। तो यह तो न्यायपालिका की पारदर्शिता के बड़ा कदम है ही। दरअसल सूचना का अधिकार लागू होने से न्यायपालिका में पारदर्शिता बढ़ेगी। इससे हिचकना नहीं चाहिए। भारत का सर्वोच्च न्यायालय मूल संरचना और अधिकार के मामले में दुनिया के सभी देशों के मुकाबले में श्रेष्ठ है। हमारे सर्वोच्च न्यायालय को अमेरिकी उच्चतम न्यायालय से भी ज्यादा शक्तियां हैं। भारतीय उच्चतम न्यायालय को भारत के राज्य क्षेत्र में सभी न्यायालयों और न्याय अधिकरणों की अपीलीय शक्ति है। अमेरिकी कोर्ट को ऐसा अधिकार नहीं है। अमेरिकी उच्चतम न्यायालय राष्ट्रपति को परामर्श नहीं देता। संविधान के अनुच्छेद 143 के मुताबिक भारत में यह राष्ट्रपति का परामर्शदाता है। भारत का सुप्रीम कोर्ट परिपूर्ण परिसंघ न्यायालय है। यह पूरे देश का अपील न्यायालय है। यह संविधान का संरक्षक है। यह संसद या विधानमंडल द्वारा बनाए गए कानूनों को भी न्यून या शून्य कर सकता है। भारतीय न्यायपालिका निर्बाध स्वतंत्र है। सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति को संसद के दोनों सदनों के दो तिहाई बहुमत द्वारा पारित महाभियोग से ही हटाया जा सकता है। जब हमारे देश की न्यायपालिका को इतने अधिकार प्राप्त हैं और चहुंओर उसका सम्मान है, फिर वह संपत्ति की घोषणा करके मिसाल कायम क्यों नहीं करते? सुप्रीम कोर्ट ने 1997 में खुद ही एक सर्वसम्मत फैसले से सभी न्यायमूर्तियों के लिए मुख्य न्यायाधीश के समक्ष अपनी संपत्ति की घोषणा अनिवार्य की थी, लेकिन सूचना के अधिकार के अंतर्गत पूछे गए प्रश्न के समय कोर्ट ने मना कर दिया। याद कीजिए, संविधान सभा में हुई बहस में डा. अंबेडकर ने कहा था, 'निसंदेह न्यायाधिपति बहुत ही प्रख्यात व्यक्ति होगा, किंतु फिर भी न्यायाधीश में भी साधारण मनुष्यों की कमजोरियां व भावनाएं होंगी।Ó ऐसे में जबकि उत्तप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह और वर्तमान मुख्यमंत्री मायावती की आय से ज्यादा संपत्ति की जांच न्यायपालिका कर रही हैं, तो ईमानदार, न्यायप्रिय और संविधान की रक्षा करने वाले न्यायाधीशों को खुद ऐसा करने में कोई एतराज नहीं होना चाहिए। हमारे न्यायाधीशों के मन में शायद यह डर समाया हुआ है कि वे जिन लोगों के बारे में फैसला करते हैं, वे ही लोग जजों को संपत्ति के ब्योरे पूछने के नाम पर बदनाम कर सकते हैं। आम आदमी या मंत्री तो फिर भी प्रेस कांफ्रेंस करके अपने मन की बात मीडिया के माध्यम से जनता तक पहुंचा सकते हैं, पर जज इस मामले में कुछ नहीं कर पाएंगे। उनका यह सोचना काफी हद तक सही है। पर श्रीकृष्ण पर भी आरोप लगे थे, पर उन्होंने कभी अन्याय का साथ नहीं दिया। इस विधेयक को लाने के पीछे सरकार की मंशा शायद यह है कि वह जनप्रतिनिधियों के लिए एक योजना बना रही है। दरअसल नेताओं को चुनाव के वक्त ही अपनी आय का ब्योरा चुनाव आयोग के समक्ष पेश करना पड़ता है। वह भी पांच साल में एक बार। ऐसे में सूचना के अधिकार से बाहर निकलने के लिए सरकार जजों के बाद शायद मंत्रियों को इसके दायरे से बाहर निकालने के लिए ही यह विधेयक लेकर आई है।
न्यायाधीशों की संपत्ति से जुड़े मामलों का इतिहास
अक्टूबर 2005- सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून बना।
सितंबर 2007- उच्चतम न्यायालय ने मुख्य सूचना आयुक्त से कहा कि अदालतों को सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर रखा जाए। सूचना आयुक्त ने इससे मना कर दिया।
नवंबर 2007- जजों ने अपनी संपत्ति की घोषणा की है या नहीं? इस सूचना के आवेदन के जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने खुलासा करने से मना किया।
6 जनवरी, 2009- मुख्य सूचना आयुक्त ने फैसला दिया कि जजों को अपनी संपत्ति का खुलासा करना होगा।
16 जनवरी- उच्चतम न्यायालय ने सूचना आयुक्त के फैसले को दिल्ली हाईकोर्ट में चुनौती दी।
जून माह- कानून मंत्री एम. वीरप्पा मोइली ने जजों की संपत्ति घोषणा को अनिवार्य बनाने के लिए नए विधेयक की घोषणा की।
15 जून- प्रस्तावित कानून पर सरकार को न्यायपालिका की अनुमति मिली। शर्त यह थी कि जजों की संपत्ति का ब्योरा सार्वजनिक नहीं किया जाएगा।
3 अगस्त- सरकार राज्यसभा में विधेयक पेश करने में नाकाम।
मामले महाभियोग के
एकाध मामलों को नजरअंदाज कर दें, तो देश की आजादी के 62 सालों में न्यायपालिका का दामन पाक साफ ही रहा है। अब तक सिर्फ एक जज रामास्वामी के खिलाफ महाभियोग आया है, जो नाकाम रहा था। अब कोलकता हाईकोर्ट के जस्टिस सौमित्र सेन के खिलाफ इसी तरह की तैयारियां चल रही है। देश के इतिहास में यह दूसरा मौका है, जब उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश को बर्खास्त करने की सिफारिश की गई है। उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति बालकृष्णन ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर सेन को बर्खास्त करने की सिफारिश की थी। बालाकृष्णन ने अपने पत्र में लिखा था, 'मैं कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सौमित्र सेन को बर्खास्त करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 217 (1) और 124(4) के तहत कार्यवाही प्रारंभ करने की सिफारिश करता हूं।Ó किसी न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग लाने संबंधी प्रस्ताव में लोकसभा के कम से कम सौ या राज्यसभा के 50 सांसदों की सहमति जरूर होती है। सेन पर उच्च न्यायालय कोष की राशि से 58 लाख रुपये से अधिक की अनियमितता का आरोप है। न्यायापालिका में भ्रष्टाचार के हाल के एक मामले में 13 अगस्त 2008 को पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश निर्मलजीत कौर के घर पर 15 लाख रुपए के नोट पाए गए। अब तक इस मामले में कोई उचित कार्रवाई नहीं हुई। इसी तरह एक मुख्य न्यायाधीश के परिजनों का नोएडा में भूखंडों की बंदरबांट का मामला कुछ समय पहले सुर्खियों में था। कुछ समय पहले गाजियाबाद में भविष्य निधि कांड में जजों के हाथ की खबरें भी आईं। इसी तरह दिल्ली हाईकोर्ट के शमित मुखर्जी पर डीडीए घोटाला में शरीक होने का आरोप लगा है। ये खबरें हालांकि कुछेक अपवाद स्वरूप ही हैं। पर यह न्यायपालिका में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के तरीकों में कमी को पेश करता है।
मिसाल हैं ये न्यायधीश
तमिलनाडु में हुए मार्कशीट घोटाले के मामले की सुनवाई कर रहे मद्रास हाईकोर्ट के जज जस्टिस आर. रघुपति ने खुली अदालत में उन्हें प्रभावित करने की बात कही थी। उन्होंने घोटाले के मुख्य अभियुक्त कृष्णमूर्ति के वकील से 29 जून, 2009 को कहा, 'अदालत जमानत नहीं देना चाहती, क्योंकि याचिकाकर्ताओं की जमानत याचिका 15 जून को खारिज कर दी गई है। एक केंद्रीय मंत्री ने मुझसे बात की और जमानत देने के लिए मुझ पर प्रभाव डालने की कोशिश की। यदि आप बिना शर्त माफी नहीं मांगते तो मैं अपने आदेश में ये सारी बातें शामिल कर दूंगा।Ó बाद में उन्होंने हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस को पत्र में कहा था कि अभियुक्त के वकील ने उन्हें फोन देकर मंत्री से बात करने को कहा था, जो उन्होंने नहीं की। बाद में रघुपति सुनवाई से हट गए थे। इस मामले में दूरसंचार मंत्री ए राजा पर संदेह किया जा रहा है कि उनसे ही चीफ जस्टिस को बात करने के लिए कहा गया था। मुख्य अभियुक्त डॉ. कृष्णमूर्ति ए राजा के विश्वस्त लोगों में से एक रहा है।
महिलाओं कम, मामले ज्यादा
उच्चतम न्यायलय से लेकर निचली अदालतों तक में करोड़ों लंबित मामले हैं। जजों की कमी साफ नजर आती है। साथ ही महिला न्यायधीशों की कमी भी साफ नजर आती है। सुप्रीम कोर्ट के कुल 24 जजों में एक भी महिला नहीं है। देश के 21 उच्च न्यायलयों में फिलहाल 617 जज हैं, पर उनमें से महिला जजों की संख्या महज 45 है। हाल यह है कि छत्तीसगढ़, हिमाचल, जम्मू-कश्मीर, राजस्थान, सिक्किम और उत्तराखंड उच्च न्यायलय में एक भी जज महिला नहीं है। देश में सबसे ज्यादा 73 जज इलाहाबाद हाई कोर्ट में हैं, लेकिन उनमें महिला जजों की तादाद महज तीन है। देश में सबसे ज्यादा महिला जजों की तादाद बॉम्बे हाई कोर्ट में हैं। कुल 66 जजों वाले इस कोर्ट में महिला जजों की संख्या सात है। देश के उच्च न्यायलयों में अब भी 269 पोस्ट खाली हैं। संविधान की धारा 124 और 217 में उच्चतम और उच्च न्यायालय में जजों की नियुक्ति का प्रावधान है, जो कि किसी भी जाति या व्यक्ति को आरक्षण देने से रोकती है। ऐसे में महिलाओं को किसी तरह का आरक्षण भी नहीं मिल सकता। इन सबके बीच यह चीज सुनिश्चित की जा सकती है कि जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता अपनाई जाए। सुप्रीम कोर्ट के 57 साल के इतिहास में आज तक सिर्फ तीन महिला जज हुई हैं। आखिरी जस्टिस रूमा पाल रहीं, जो 2006 में रिटायर हुईं।
-आशीष जैन

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बस एक कार्ड काफी है

राशन कार्ड, वाहन लाइसेंस कार्ड, पेन कार्ड, चुनाव पहचान पत्र और न जाने कितने कार्ड जिन्हें पास में रखने पर भी काम नहीं हो, तो मन करता है कि काश कोई ऐसा कार्ड होता, जो सारी समस्याओं को चुटकी बजाते ही हल कर देता। पर घबराइए मत, जल्द ही आपके हाथ में राष्ट्रीय पहचान पत्र या कहें नेशनल आइडेंटिटि कार्ड। विज्ञान की नई तकनीकों से इस लैस इस कार्ड को हर भारतीय को उपलब्ध करवाने के लिए भारत सरकार तेजी से काम कर रही है। सरकार का कहना है कि इस कार्ड में नागरिक की पूरी जानकारी उपलब्ध होगी। इस परियोजना को लेकर प्रधानमंत्री बहुत आशांन्वित हैं। हों भी क्यों न, उन्होंने इस विशाल परियोजना के लिए देश में सूचना-तकनीक के महारथी नंदन निलेकनी को इस परियोजना का प्रमुख बनाया है।

नंदन निलेकनी देश में सूचना क्रांति लाने में अहम योगदान रखते हैं और वे इंफोसिस के पूर्व उपाध्यक्ष हैं। वैसे यह परियोजना एनडीए सरकार ने 2003 में बनाई थी। इसके लिए सिटीजन एमेडमेंट एक्ट नाम का कानून भी बनाया गया। पर 2004 में यूपीए सरकार के आने से सबको लगा कि यह परियोजना खटाई में चली जाएगी। तब 2006 में उस वक्त के राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने इस परियोजना के अमल की बात की। सरकार को परियोजना के महत्व के बारे में पता लगा, तो 2008 में मनमोहन सिंह की सरकार ने मध्यावधि बजट में इस परियोजना के 100 करोड़ रुपए आवंटित किए और अब वे इस राशि को भी बढ़ाने की बात कह रहे हैं। अब इस साल इस परियोजना पर वास्तविक काम शुरू हो चुका है। उम्मीद है कि 2012 तक यह कार्ड बनकर तैयार हो जाएगा।
क्या होगा इस कार्ड में?
इस कार्ड में भारत के नागरिक की हर एक जानकारी होगी। उसका नाम, पता, परिवार, ब्लड गु्रप, स्वास्थ्य संबंधी आंकड़े, जन्म तिथि, वित्तीय स्थिति, जाति, धर्म, वाहन की जानकारी, निवास स्थल का पता, हस्ताक्षर आदि सब कुछ। नंदन निलेकनी की बात मानी जाए, तो यह कार्ड नेशनल पासपोर्ट है। मतलब जल्द ही ऐसा समय आने वाला है, जब इस कार्ड का इस्तेमाल भारतीय होने के सबूत के तौर पर किया जाने लगेगा। इस कार्ड का प्रयोग टेक्स भरने में, फोन का कनेक्शन लेने में, बैंक में खाता खोलने में, वोट देने में, सरकारी योजनाओं का लाभ लेने में किया जाएगा। इस कार्ड में आपके पैदा होने की तारीख से लेकर स्कूल, कॉलेज या फिर विदेशों में शिक्षा का ब्यौरा होगा। इसके अलावा मकान, दुकान, बैंक अकाउंट, इंश्योरेंस का पूरा ब्यौरा भी मौजूद होगा। आप कहां काम करते हैं या फिर कितनी नौकरियां बदल चुके हैं, रेलवे और हवाई जहाज में कब और कहां सफर किया है, उसके खिलाफ कोई कानूनी विवाद तो नहीं है, ये तमाम चीजें इस कार्ड में दर्ज होंगी। बायोमीट्रिक पहचान के तहत फिंगर प्रिंट, चेहरे का डिजिटाइज्ड स्कैन या आंख की पुतली का स्कैन होगा। इस कार्ड में तरह-तरह की 15 तरह की सूचनाएं होंगी। योजना में बायो मैट्रिक, अंगुली के छाप वाला या कोई अन्य ऐसा तरीका खोजा जाएगा जिससे लोगों की विशेष पहचान हो सके। इसके बाद प्राधिकरण राष्ट्रीय स्तर पर जांच के लिए नेटवर्क तैयार करेगा। इस कार्ड के चलते केंद्र सरकार के पास देश के हर नागरिक की जानकारी होंगी। इससे सरकारी योजनाओं की रूपरेखा बनाने में भी मदद मिलेगी। सुरक्षा एजेंसियों को इससे विस्तृत डेटाबेस मिल जाएगा, ताकि अपराधियों से निपटने में मदद हो सकेगी। यह प्रोजक्ट काफी बड़ा है और इसे पूरा करने में वक्त भी लगेगा। अंदाजा लगाया जा रहा है कि इसमें तीन साल का समय लग सकता है, इस तरह से इसे पूरा करने का लक्ष्य 2012 तय हो जाता है। यह नेशनल आईकार्ड एक स्मार्ट कार्ड की तरह होगा। जिसमें एक चिप होगी। इस चिप में नागरिक से जुड़ी तमाम जानकारियां दर्ज होंगी। इस योजना के सही क्रियान्वन के लिए जरूरी है कि किसी तरह की लालफीताशाही को रोका जाए और भारी-भरकम धनराशि का सदुपयोग किया जाए। इसके लिए उच्च स्तर पर पारदर्शिता जरूरी है।

क्या होगा फायदा?
इस कार्ड से गरीब लोगों को बहुत लाभ होगा। उनकी क्रय शक्ति में इजाफा होगा। इससे सरकारी योजनाओं में होने वाले घोटालों पर रोक लगेगी, योजनाओं का लाभ सही लोगों को मिल पाएगा। भ्रष्टाचार के कारण अरबों रुपयों की हमारी योजनाओं का लाभ गरीब लोगों तक नहीं पहुंच पा रहा है। सरकार नरेगा, भारत निर्माण और राष्ट्रीय स्वास्थ्य ग्रामीण मिशन जैसी योजनाओं को इस विशेष पहचान पत्र के जरिए चलाना चाहती है ताकि भ्रष्टाचार खत्म किया जा सके। विशेष पहचान बनने के बाद नौकरशाहों के लिए विकास कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में गड़बड़ी करना आसान नहीं होगा। भ्रष्टाचार जल्द पकड़ में आ जाएगा। घुसपैठियों के साथ-साथ आतंकवादियों की पहचान भी की जा सकेगी। चुनाव आयोग के मुताबिक हाल के आम चुनावों में 71 करोड 40 लाख मतदाताओं में से 82 फीसदी को मतदाता पहचान पत्र प्रदान किए गए। अगले चुनावों में इसे 100 फीसदी मतदाताओं तक पहुंचाने का लक्ष्य होगा। इस लक्ष्य की प्राप्ति में भी बहुद्देशीय राष्ट्रीय एकल पहचान-पत्र (एमएनआईसी) काफी मददगार साबित होगा। कम आबादी और कम भ्रष्टाचार वाले इंग्लैंड के गृह विभाग के अनुमानों के अनुसार राष्ट्रीय पहचान कार्ड से उनकी आय में प्रति वर्ष 65 करोड़ से एक अरब पौंड इजाफा होने की संभावना है। कहा जा रहा है कि यूनिक आइडेंटिफिकेशन कार्ड अथारिटी ऑफ इंडिया शुरू में एक यूनिक संख्या ही प्रदान करेगा, जिसके द्वारा अन्य सूचनाओं की जानकारी प्राप्त की जा सकेगी। बाद में अलग-अलग मंत्रालय और विभाग अपने-अपने हिसाब से अलग-अलग कार्ड जारी कर सकते हैं। ऐसे में यह तो समय ही बताएगा कि एक कार्ड के चक्कर में कहीं दुविधाओं के चक्रव्यूह में हम फंस न जाएं।

क्या शंका हैं
कुछ लोगों का मानना है कि यह कार्ड भारत जैसे बड़े देश में कारगर नहीं हो पाएगा। साथ ही सबसे बड़ी दिक्कत सरकार के साथ यह आने वाली यह है कि वह किस आधार पर यह सुनिश्चित करेगी कि कौन भारतीय है और कौन नहीं। हमारे देश में कई देशों से आए अवैध नागरिक भी रह रहे हैं। आज भारत में दो करोड़ से ज्यादा बांग्लादेशी रह रहे हैं, उन्होंने किसी तरह राशन कार्ड भी बनवा लिए हैं। साथ ही नेपाली, पाकिस्तानी और दूसरे देशों के अवैध रूप से रह रहे लोगों को यह नया कार्ड उपलब्ध हो गया, तो वे अपने आप ही खुद को भारतीय नागरिक साबित कर देंगे। इससे राष्ट्रीय सुरक्षा को बड़ा खतरा पैदा हो सकता है। ऐसे में सरकार को यह सुनिश्चित करना बेहद जरूरी है कि किसी भी तरह किसी गैर भारतीय को इसका धारक बनने से रोका जाए। कुछ लोगों का मानना है कि इस तरह के पहचान पत्र से नागरिकों की निजता में घुसपैठ होगी। ब्रिटेन में इसी मुद्दे को लेकर इस तरह के पहचान पत्र का विरोध कंजरवेटिव और लिबरल डेमोक्रेट कर रहे हैं। वहां इस योजना को लेबर पार्टी लेकर आई थी। अभी वहां इस कार्ड के विरोध के चलते अगले साल तक इसके आने की उम्मीद है। अमरीका में भी 1980 के दशक में सामाजिक सुरक्षा नंबर जारी किए गए। पर 11 सितंबर को हुए अमरीकी हमलों ने जता दिया कि इससे आतंकी घटनाओं पर रोका लगाना मुमकिन नहीं है। आतंकी तो हमेशा ऐसे तरीकों का इस्तेमाल करते हैं, जो पूरी दुनिया को चौंका देते हैं। साथ ही सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि आज तकनीकी दौर है और तकनीकी समय में हर तकनीक की काट मौजूद है। ऐसा न हो कि नकली नोट की तरह नकली पहचान पत्र बनना भी शुरू हो जाएं।

क्या है प्रगति?
अभी प्रक्रिया और प्रौद्योगिकी दोनों की पेचीदगियों को देखते हुए एक पायलट परियोजना को प्रायोगिक आधार पर चलाया जा रहा है, जिसमें 12 राज्यों और एक केन्द्र शासित क्षेत्र के चुनिंदा इलाकों के 30.95 लाख लोगों को शामिल किया गया है। तटीय जिलों तथा अंडमान निकोबार द्वीप में यह काम पहले ही चालू हो चुका है। पहचान पत्र एक स्मार्ट कार्ड है, जिसमें माइक्रोप्रोसेसर चिप लगी होगी। यह एक सुरक्षित कार्ड होगा, जिसकी सिफारिश सरकार द्वारा गठित तकनीकी समिति ने की थी। इस समिति में नेशनल इन्फार्मेटिक्स सेंटर, आईआईटी कानपुर, भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड, इंडियन टेलीफोन इंडस्ट्रीज लिमिटेड, इलेक्ट्रॉनिक्स कार्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड और खुफिया ब्यूरो के प्रतिनिधि शामिल थे। केन्द्र सरकार के राष्टीय सूचना केन्द्र (एनआईसी) ने इस तरह का विशिष्ट नागरिक कार्ड तेयार करने में अच्छा योगदान दिया है। वर्ष 2007 में ऐसी एक शुरुआती योजना चलाई गई थी जिसमें 20 लाख लोगों को विशिष्ट पहचान संख्या कार्ड दिये गए थे। यह योजना दिल्ली, गोवा, गुजरात, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल सहित कई राज्यों में चलाई गई थी। बहरहाल यह माना जा रहा है कि 100 करोड़ लोगों से अधिक को विशिष्ट पहचान संख्या कार्ड दिये जाने की परियोजना को इंफोसिस, टीसीएस और विप्रो के अलावा महिन्द्रा सत्यम और आईबीएम तथा एचपी ही ऐसी बड़ी आईटी कंपनियां हैं, जो इतनी बड़ी परियोजना को अमला जामा पहना सकती हैं।

कैसा है प्राधिकरण
सरकार ने यूनिक आइडेंटिफिकेशन नंबर अर्थात नागरिकों को विशिष्ट पहचान संख्या जारी करने की महत्वाकांक्षी योजना की दिशा में एक ठोस कदम बढ़ाते हुए इससे संबंधित प्राधिकरण का गठन किया है और सूचना तकनीक के धुरंधर नंदन नीलेकणि को इसकी जिम्मेदारी सौंप दी। नेशनल यूनिक आईडेंटिटि कार्ड के इस प्रोजेक्ट की कमान संभालने वाले नंदन निलेकनी को केबिनेट मंत्री स्तर का दर्जा मिला है। यह पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप की शुरुआत है, जो अमेरिका या यूरोप आदि देशों में तो सामान्य बात है, लेकिन भारत में यह नए तरह का प्रयोग है। दूसरे परियोजना प्रमुख नंदन नीलेकणि को प्राइवेट क्षेत्र से प्रतिभाओं को चुनने की आजादी भी होगी। नवगठित यूनिक आईडेंटिफिकेशन अथारिटी आफ इंडिया (यूआईएआई) की मदद करने के लिए सरकार ने 11 सदस्यीय परिषद का गठन किया है, जिसकी अध्यक्षता प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह करेंगे। यह परिषद प्राधिकार और विभिन्न मंत्रालयों, विभागों और संबंधित लोगों के बीच समन्वय को सुनिश्चित करेगी । परिषद मेंं केंद्रीय मंत्री प्रणव मुखर्जी, शरद पवार, पी चिदंबरम, एस एम कृष्णा, एम वीरप्पा मोइली, कपिल सिब्बल, सी पी जोशी, मल्लिकाजरुन खडग़े और ए राजा शामिल हैं। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया और यूआईएआई के अध्यक्ष नंदन निलेकनी भी इसके सदस्य होंगे । परिषद यूआईएआई को कार्यक्रम, तरीके और परियोजना को लागू करने के बारे में सलाह देगी । पहले चरण में नागरिकों को यूनिक आइडेंटिफिकेशन नंबर 12 से 18 महीने के भीतर जारी किया जाएगा । इसका भारी भरकम सचिवालय पहले ही तैयार करवाया जा चुका है जिसमें 115 लोग काम कर रहे हैं तथा शुरूआती परियोजना के एसेसमेन्ट के लिए 100 करोड़ राशि का आवंटन भी किया जा चुका है।

और देशों में भी
राजीव गांधी के समय में सैम पित्रोदा का नियुक्ति सी-डॉट और फिर राष्ट्रीय टेक्नॉलजी मिशन के प्रमुख के रूप में हुई थी। उन्हें आज भी देश में आई दूरसंचार क्रांति की बुनियाद डालने वाले शख्स के रूप में जाना जाता है। सौ से ज्यादा तकनीकी पेटेंट रखने वाले सैम अमरीका में अपना जमा-जमाया बिजनेस छोड़कर राजीव गांधी के आग्रह पर देश वापिस आए थे। इसी तरह आज नंदन निलेकनी इंफोसिस के सह संस्थापक के रूप में करोड़ो रुपए के साम्राज्य को छोड़कर सरकारी दायित्व को संभालने को तैयार हो गए हैं। दुनिया में अब तक सिर्फ छह देशों द्वारा ही इस प्रकार के राष्ट्रीय पहचान कार्ड दिए जा रहे हैं। ब्रिटेन, साइप्रस, जिब्राल्टर, हांगकांग, मलेशिया और सिंगापुर जैसे देशों में पहचान पत्र जारी किए जा चुके हैं। अमेरिका में राष्ट्रीय पहचान कार्ड नहीं है। वहा एक राष्ट्रीय पहचान संख्या चलती है, जिसे सोशल सिक्योरिटी नंबर कहते हैं। वहा अलग-अलग राज्यों द्वारा अपने-अपने पहचान कार्ड जारी किए जाते हैं। विश्व के पचास से अधिक देशों में भी इस तरह की आइडंटिटी विभिन्न रूपों में उपलब्ध है।
-आशीष जैन

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दोस्ती लड़की से

'दोस्ती, वो भी लड़का-लड़की के बीच में? नहीं, ये हरगिज नहीं हो सकता।' कुछ सालों पहले हर घर में ऐसे तिरछे जुमले आम थे। कहीं किसी गली-मोहल्ले में लड़का-लड़की दो कोनों में खड़े रहते थे, तो उन्हें शक की निगाह से देखा जाता था। आज अगर एक इंच की जगह भी बची रहती है, तो कमेंट पास होने में देर नहीं लगती, 'क्या यार, डरता है!' अब 'सांझ ढले खिड़की तले, तेरा सीटी बजाना याद है...' वाले अंदाज फना हो चुके हैं। अब तो दिल भी एटमबम- सा लगे है।

सोने की साइकिल पर बैठाने वाले दोस्त अब हवाओं पर बिठाकर अपने दोस्त को जन्नत की सैर करवा रहे हैं। शाहरूख बोले तो अपना राहुल, सच्ची बोलता है यार, प्यार दोस्ती है। जो दोस्त है, उससे प्यार नहीं किया, तो विदेश से कुड़ी मगाएं तेरे लिए। आज का शाहरुख थोड़ा समझदार हो गया है। दोस्ती एक बार, प्यार बार-बार। आजकल में मार्केट में जो दिल आ रही है, वो कबड्डी खेलता है, तभी तो दिल कबड्डी होता है। कबड्डी खेलने में मजा है, फिर हार-जीत तो होती रहती। सहेली अगर अपने सहेला से कुछ अंदर के कपड़े मंगवा रही है, तो अच्छा है भई। इस बहाने अपने दोस्त की नॉलेज ही चैक हो जाएगी। वैसे नथिंग मैटर, अगर वो कपड़े लाने में फेल हो जाता है। सहेली ने क्लास ढंग से नहीं ली होगी।
दोस्ती तो आज स्टेटस सिंबल है भई। अगर जवान लड़का कॉलेज जाता है और उसके पास दो-चार गर्लफ्रैंड ना हों, तो सारे दोस्त मिलकर उसकी बज्जी ले लेते हैं। बज्जी देते-देते वो इतना पक जाता है कि खुद लड़की पटाने में बिजी हो जाता है। जनाब खुद किसी लड़की के पास खड़े रहने में कतराते हों, पर दोस्त की गर्लफ्रेंड के लिए देवर का फर्ज निभाने से नहीं चूकते। दोस्त मिलने ना जा सके, तो लपककर खुद हाजिरी देते हैं। पैसों की परवाह किसे है? दोस्त की गर्लफ्रेंड को अगर पसंद आ गए, तो हो सकता है कि वो अपनी कोई प्यारी सहेली ही उसको 'ऑफर' कर दे। है ना सेवा कर, मेवा मिलेगा वाली बात।
लड़कियां भी कहां कम हैं। हिंदी फिल्मों की तरह लास्ट सीन तक सस्पेंस बनाकर रखेंगी कि दिल का सौदा पक्का हुआ भी है या सिर्फ दिल्लगी ही थी। वैसे चाहे जमाना कितना भी बदल जाए, पर आज भी लड़कियों का फिक्स डॉयलॉग है- मैंने इस बारे में अभी नहीं सोचा! कसम से हर लड़की सीधा-सपाट दोस्ती-वोस्ती नहीं, सीधा वहीं के बारे में सोचती है। वहीं तो आप समझ रहे होंगे। फिर ये दौर आता है कि मैं तो तुम्हें अपना दोस्त समझती थी। 'अरे, दोस्ती पर तो लोग जान कुर्बान करते हैं और तुम...' बन गए ना बकरा। अरे, क्या सोचकर जवानी के सुहाने दिन, दिलकश रातें उसकी यादों में झोंक दिए और अब वो ये बोल रही है कि हम दोस्त हैं... चलो हम दोस्त ही रहेंगे...ठीक है, जो हुआ ठीक हुआ। कुछ दिनों बाद घंटी बजती है- राहुल, तुम कहां हो? राहुल तो लवली के साथ डेटिंग फिक्स कर रहा है... और अंजलि अभी भी दोस्ती की खातिर जिए जा रही है। राहुल को दोस्त के रूप में अंजलि तो मिल गई पर वो मिलना भी बाकी है...
-आशीष जैन

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