07 July 2009

बीमारियां बड़ी मस्त-मस्त

मैंने जिंदगी में कुछ नहीं किया। यूं ही जिया और लगता है कि यूं ही मर जाऊंगा। काम मैं भी करता हूं, पर नाम नहीं होता। अब तो कई बीमारियों ने भी घेर लिया है। वैसे कुछ बीमारियां होती ही इतनी दिलचस्प हैं कि आदमी खुद जाकर उनसे चिपक जाता है। मुझे खुद की तारीफ करने की नई बीमारी लग चुकी है। जब तक रोज सुबह और सांझ ढले खुद की कीर्ति का गुणगान ना कर लूं, खाना हजम ही नहीं होता। मैं हरदम इस फिराक में रहता हूं कि कोई मिले और मैं उसे पकड़कर अपनी तारीफ के कम से कम दो बोल तो उछाल ही दूं। बदले में मिली वाहवाही से मेरा भोजन आसानी से पच जाता है। जैसे बंद नाक होने पर आप-हम दिनभर जोर लगाते रहते हैं कि किसी तरह नासिक से हवा का प्रवाह सतत हो जाए, उसी तरह मैं भी अपने रोज के कामों में से इतिहास सर्जन के पल खोजता रहता हूं। मुझे पता है कि कुछ लोग मुझसे चिढ़ते हैं, इसीलिए वे मेरी तारीफ सुनना पसंद नहीं करते और मुझे देखते ही दूर से ही भाग खड़े होते हैं। वैसे लोग बीमारियों से चिंताग्रस्त रहते हैं, पर मैं अपनी इस बीमारी से बहुत खुश हूं।

मार्केट में जो बीमारी इन दिनों सबसे ज्यादा बिक रही है, वो है स्वाइन फ्लू। सुना है कि इस बीमारी का मूल विषाणु सुअर से आया। वैसे हमारी गली में तो बड़े प्यारे-प्यारे सुअर हैं। वे स्वच्छता पसंद हैं, इसलिए उन्हें डरने की कोई जरूरत ही नहीं है। कुछ आवारा सुअरों को जरूर ये बीमारी हो सकती है, पर मैं आज शाम ही उन सब की मीटिंग लेकर उन्हें इस बीमारी के बारे में विस्तार से समझा दूंगा और कह दूंगा कि किसी भी तरह से ये बीमारी हमारी गली में ना घुस पाए। वैसे कुछ लोगों को बोलने की बीमारी होती है। और ये बीमारी खासकर हमारे देश में पाई जाती है। बोलना वाकई एक नशे की तरह होता है। बतोड़ों से पूछिए कि लगातार बोलने में कितना मजा छुपा है। कोई सुने ना सुने, उन्हें तो बस धाराप्रवाह बोलते जाना होता है। बोल-बोल के चाहे मुंह में दर्द हो जाए, जब तक सुनने वाला रोने नहीं लगेगा, ये उस निरीह जीव को छोडेंग़े नहीं। बोलने की परिणाम तो आप हाल के चुनावों में भी देख चुके हैं। ससुरे शुरू से अंत तक बोलते ही गए हमारे नेता और एकाध तो ऐसे हैं कि हार गए, पर बोलना नहीं छोड़ा। चाहे पार्टी से निकलने की नौबत आ जाए, पर लगातार अनाश-शनाप बोलने की आदत नहीं छूटी।
अब हाल देख लीजिए बीजेपी का। सुधीजन तो कह रहे हैं कि अगर शताब्दी एक्सप्रेस की तरह पार्टी के नेताओं के बयान आते रहे, तो आने वाले सालों में पता भी नहीं लगेगा कि कोई इस नाम की पार्टी भी भारतवर्ष में हुआ करती थी। हमने सुना है कि जब अंग्रेज लोग बीमार होते हैं, तो दारू पीने लगते हैं। जर्मन लोगों को दर्द लगता है, तो वे नाचने लगते हैं। पर हम हिंदुस्तानी जब भी बीमार पडऩे लगते हैं, तो वे बोलने की आदत से ग्रस्त हो जाते हैं। बीमारी से ज्यादा बीमारी तो बोलने में नजर आने लगती है। वैसे हमारी घरवाली को तो शापिंग की तगड़ी बीमारी है। चाहे जरूरत हो या ना हो, हर हफ्ते जब तक हजार रुपए खर्च ना करे, उसे उल्टियों का सा मन करने लगता है। अब हम उल्टी की बजाय पैसे फुंक जाना ज्यादा पसंद करते हैं। वहीं बच्चों को कभी कंप्यूटर चाहिए, तो कभी वीडियो गेम्स। क्या ये बीमारी नहीं है। हम तो बिना बिजली खर्च करे ही घर के आंगन में दिनभर खेला करते थे। वैसे इन बीमारियों को कोई अंत नहीं है। पाकिस्तान को भारत को परेशान करने की बीमारी है, तो अमरीका को पूरी दुनिया को धौंस दिखाने की बीमारी, अमीर को दिखावा करने की बीमारी, तो गरीब तो दिनभर फालतू ही अपना रोना रोने की बीमारी। मेरा तो मानना है कि मन जब किसी काम को लगातार करने लगता है, तो धीरे-धीरे वो काम लत बनता है और फिर बीमारी बनने लगता है। भई, मेरी तो यही राय है कि हम सबको कुछ ना कुछ नया करते रहना चाहिए ताकि कोई भी चीज दिलोदिमाग पर हावी ना हो पाए और हम खुशी-खुशी अपनी जिंदगी गुजार सके।
-आशीष जैन

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महिलाओं ने हिला दिया

आज हमारी घरवाली बड़ी खुश है। खूब प्यार से बात कर रही है, खाना भी बहुत स्वादिष्ट बनाया है। आज तो ऑफिस से लेट आने पर ताने भी नहीं मारे। क्या बात है, ये सूरज पश्चिम से कैसे उग रहा है। जरूर हो ना हो, दाल में कुछ काला है। रोज तो अपने दुख-दर्द का पिटारा लेकर बैठ जाती थी, कहती थी कि तुम मर्दों ने हमारी जिंदगी तबाह कर रखी है। तुमने हमें दबाकर रखा हुआ है। हमें आगे बढऩा चाहती हैं। और आज कह रही है कि तुम बहुत अच्छे हो, मेरा हर कहा मानते आए हो। मुझे तुम्हारा साथ बहुत भाता है। ये सुनकर मैं वैसे ही उलझन में था, इतने में ही उसने एक सवाल भी दाग दिया कि आगे भी मेरा साथ दोगे ना। मैं सोच में पड़ गया कि कैसे साथ देने की बात कर रही है ये। जरूर कोई बड़ा फंदा लाई है, ये मुझे फंसाने के लिए। मैं सर्तक हो गया। सोचने लगा कि इन दिनों में कुछ खास तो नहीं हुआ।

तभी हमें याद आया कि 100 दिन की मियाद में सरकार महिलाओं को देश की सबसे बड़ी पंचायत में आरक्षण देने जा रही है। जरूर इसे किसी ने बता दिया हो। अब तो ये जरूर चुनाव लडऩे की प्लानिंग बना रही होगी। दरअसल जब भी हमारी बीवी खुश होती है, मायावती और ममता बनर्जी के गुणगान करने लगती है। बोलती है, काश! मुझे भी मौका मिलता चुनाव लडऩे का। तुम जैसे पतियों की तो अकल ठिकाने पर लगा देती। हमें तो शुरू से ही पता है कि स्त्री शक्ति का कोई सानी नहीं है। अगर स्त्री जाग गई, तो सबको सुला देगी। आज जब बिना आरक्षण के ही महिलाओं ने अपना डंका चहुंओर मचा रखा है, तो फिर तो पुरुषों के बोलती ही बंद हो जाएगी।
मेरी पत्नी को तो मीरा कुमार की आवाज में भी कोयल की बोली नजर आती है, कहती है, कितना मीठा बोलती है। अब मीठा बोल-बोलकर संसद में सबको चुप कराएगी। हैडमास्टरनी बन गई है, सब नेताओं की। देखा ना बस एक पोस्ट बची थी, जिस पर महिला नहीं थी, अब तो वो भी पूरी हो गई। अपनी प्रतिभा ताई, सोनिया मैडम और इंदिरा गांधी की तरह ये भी अपना परचम लहराएगी। वैसे मेरा मानना है कि यूं अगर महिलाओं को आरक्षण नहीं भी मिलेगा, तो जल्द ही वो दिन भी आएगा, जब पूरी संसद में महिलाएं नजर आएंगी और जो बचे-कुचे पुरुष होंगे, वे सब मौन में चले जाएंगे। उन्हें ये डर हमेशा सताएगा कि कहीं ये औरतें अपने बैगों में बेलन छुपाकर ना लाई हों। अगर ज्यादा भड़भड़ाहट की, तो तपाक से बेलन निकालकर मारेंगी।
अब देख लीजिए शुरुआत तो हो चुकी है, उनसठ महिलाओं ने बाजी मार ली ना इस बार के चुनावों में।
आरक्षण आएगा, तो ऐसी महिला क्रांति लाएगा, जिसकी उम्मीद तो शायद महिला सशक्तिकरण करवाने वाली संस्थाओं ने भी नहीं की होगी। पुरुषों की बजाय अब महिलाएं चाय की थडिय़ों का मंच हथिया लेंगी। सारी औरतें मिलकर वहीं कंट्री के फ्यूचर की प्लानिंग करेंगी। पनवाड़ी की दुकान पर महिला पान बेचती नजर आएंगी, रैलियों में महिलाओं की भीड़ उमड़ेगी, बसों में पुरुष आरक्षित सीटें नजर आएंगी, महिला आयोग के दफ्तर पर ताला लग जाएगा और सारे पुरुष मिलकर पुरुष आयोग की मांग करने लगेंगे। दहेज पीडि़त महिलाएं नदारद हो जाएंगी और महिलाओं द्वारा उत्पीडि़त पुरुषों की संख्या में भारी इजाफा देखने को मिलेगा। राष्ट्रपिता, राष्ट्रपति जैसे शब्दों की तरह ही संविधान में राष्ट्रमाता, राष्ट्रपत्नी जैसे शब्दों को शामिल करने की पुरजोर वकालत की जाएगी। आतंकवादियों की नई फौज में महिला आतंकवादियों का वर्चस्व बढऩे लगेगा... इत्यादि इत्यादि। यूं तो मेरे पास भावी परिवर्तनों की बहुत लंबी लिस्ट है, पर उन सब बातों का यहां उल्लेख करना ठीक नहीं रहेगा। वरना लाखों पुरुष शरद यादव की तरह ही आत्महत्या करने की योजना बना लेंगे। मैं नहीं चाहता कि मेरी जात मतलब पुरुष बिरादरी घबराहट में कुछ गलत उठा ले। भाईयो, अभी डरने की नहीं धैर्य करने की जरूरत है। हम आपको यकीन दिलाते हैं कि आप पर ज्यादा आंच नहीं आएगी। हम अपनी माताओं-बहनों-बीवियों से फरियाद करेंगे कि वे अपने बाप-भाई-पति का पूरा ध्यान रखेंगी। हम उनके साथ समझौता करने को तैयार हैं। वो हमें समय पर चारा मतलब भोजन मुहैया करवाएंगी बदले में हम घर की सफाई कर दिया करेंगे। वो हमसे थोड़ा प्यार से बात कर लिया करेंगी और हम बदले में बच्चों की पोटी साफ कर दिया करेंगे।
हम इतना सोच कर पसीने-पसीने हो गए और मन किया कि अपनी पत्नी के पांव छू लें और उसे अभी से पटा लें। पर क्या देखते हैं कि पत्नी कलैंडर लेकर सामने खड़ी थी। बोले बस कुछ ही दिन तो बचे हैं। हमने सोचा कि इसने 100 दिनों में से उल्टी गिनती शुरू कर दिया दिखता है। पर वो बोली कि मुझे मायका जाना है, बच्चों की छुट्टियां खत्म होने में कुछ दिन ही बचे हैं। आप घर का ध्यान रखना, मैं जल्द ही आ जाऊंगी। इतना कहकर वो मायके जाने की तैयारी करने लगी और हम सकुचाए से अपने भविष्य के संकट के बारे में दुबारा विचारमग्न हो गए।
-आशीष जैन

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बारिश आई किस्मत चमकाई

अल्लाह मेघ दे..मेघ दे.. पानी दे..। टिप-टिप बरसा पानी... पड़ोस में रहने वाले पपीताराम के घर से लगातार ऊंची-ऊंची आवाजें आ रही थीं। मैं घबरा गया, सोचने लगा कि वैसे तो हमारा पूरा मोहल्ले की संगीतकारों से भरा पड़ा है, पर ये भरी गर्मी में पानी को याद करके कौन हमारे जख्मों को हरा कर रहा है। उससे पूछें, तो जवाब मिलेगा कि तुम्हारा क्या ले रहा हूं। मैं तो गीत गा रहा हूं। हमसे पूछो, तो वो एक नंबर का गधा है। सबको अपनी बेसुरी आवाज से घायल करना चाहता है। उसे हमारा सुख नहीं देखा जाता। लगा रहता है किसी ना किसी सिंगिंग कंपीटीशन की तैयारी में। कहता है कि मैं तो अपनी आवाज से रियाज कर रहा हूं।

वैसे आज के उसके गीत में कुछ ना कुछ राज छुपा हुआ है। नहीं तो वो तपती धूप में कैसे एकाएक पानी को याद करने लगा और उसने तो घर में ही बोरिंग खुदवा रखी है, पानी की तो वैसे भी उसके घर में कोई कमी नहीं है। वैसे उसकी नजरों में जरा पानी नहीं है, ये दूसरी बात है। उससे एक बाल्टी पानी मांगने जाओ, इस तरह एहसास जताकर देता है, मानो बाल्टी भरकर नोट दे रहा हो। यूं आषाण के महीने में ही सावन को याद करने की उसकी अदा वाकई बड़ी निराली है। घर की सारी खिड़कियां खोलकर पानी आ, पानी आ यूं चिल्ला रहा है, मानो उसके कहने से बादल अपनी सारी सप्लाई हमारे मोहल्ले की तरफ मोड़ देंगे।
दरअसल वो एक पीडब्ल्यूडी का ठेकेदार है। हर साल सावन आते-आते वो पूरा हरा नजर आने लगता है। बारिश की पहली बंूद इस धरा पर टपकती है, तो लगता है कि उसे पुनर्जन्म मिल गया हो। पता नहीं पानी से उसे इतना प्यार क्यों है। हम इस बात को सोचकर बहुत परेशान रहते हैं। पर जब देखा कि वो सड़क बनवाने के लिए सरकार से टेंडर लेता है, तो हमारे मगज में एक बार में ही सारी बात फिट बैठ गई कि क्यों वो पानी से इतना प्यार करता है। दरअसल वो ज्यादातर टेंडर लेता ही, बरसात के दिनों में है। सड़क के नाम पर रोड पर डामर बिछा देता है। बारिश आती है और उसके सारे पापों को धो जाती है। तभी वो बारिश के पानी को गंगाजल समझकर प्रणाम करता है। सड़कों टूटती हैं, गड्ढ़े होते हैं, उसका क्या जाता है, बारिश उसके सारे कुकर्मों को ढक लेती है। फिर दूसरी बार वो टेंडर लेता है, गड्ढे भरने का। गड्ढे भरने के नाम पर नोटों से उसका घर भरता जाता है। बारिश खत्म होती है, तो पता लगता है कि पपीताराम ने नई कार ले ली है। अमरीका जा रहा है घूमने इत्यादि। वैसे इसमें एक मजेदार बात है कि सरकार उसी को टेंडर क्यों देती है? क्या कोई उसकी शिकायत नहीं करता कि बेकार सड़क बनाने में उसी का हाथ है। इसके पीछे साफ थ्योरी काम करती है। कहेगा कौन, सुनेगा कौन। कहेंगे ये चट्टू पत्रकार, तो उनकी तो पहले से ही जेबें गर्म करके रखो और अगर ज्यादा प्रेशर आ भी जाए, तो साफ कह दो, इस काम में मेरा नहीं मजदूरों का हाथ है। और सुनने वालों को तो कान बंद रखने के लिए पहले ही सोने के सिक्के थमा दो। उनकी आवाज के सामने जनता की आवाज भला नेता कभी सुन पाए हैं, जो अब सुनेंगे। वैसे जब नेताओं की गाडिय़ां पपीताराम की बनाई सड़कों से गुजरती है, तो उनकी तोंद का सारा पानी बराबर हो जाता है, तब उन्हें पता लगता है कि वाकई गोलमाल ज्यादा ही है और कमीशन कम। पपीताराम तो चाहता है कि मैं भी उसके धंधे में पार्टनर बन जाऊं, पर हिम्मत नहीं होती। मैं उससे कहता हूं कि क्या होगा, पाप की कमाई से। इस बात पर पपीताराम हंसता है और बोलता है कि अब सीधे का जमाना कहां रह गया है जी। जैसे भी माल हाथ लगे, बस बटोरो और चलते बनो। वैसे भी ये तो सीजनेबल धंधा है। हम कौनसा बारहों महीने माल सूतते हैं। हमसे बड़े कई पापी हैं, जो साल के 365 दिन बस सरकारी नोट गिनने में लगे रहते हैं। हम सोच रहे थे कि कह तो इसकी सही है कि कलयुग में जब सत्य बचा ही नहीं है, तो फिर थोड़ा-बहुत पाप करने में जाता क्या है। हम बड़ा फैसला करने के मूड में ही थे कि इतने में कमबख्त हमारी आत्मा आडे आ गई और अपने बापू की बचपन में सिखाई बातें याद करा गई और हम दुबारा सदाचार की पटरी पर आ गए। अब तो शायद अगले सावन में ही हम पपीताराम के पाले में आ पाएंगे, चलो तब तक क्यों ना सावन की ठंडी फुहारों का मजा लेकर ही दिल को तसल्ली दी जाए।
- आशीष जैन

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