07 July 2009

बारिश आई किस्मत चमकाई

अल्लाह मेघ दे..मेघ दे.. पानी दे..। टिप-टिप बरसा पानी... पड़ोस में रहने वाले पपीताराम के घर से लगातार ऊंची-ऊंची आवाजें आ रही थीं। मैं घबरा गया, सोचने लगा कि वैसे तो हमारा पूरा मोहल्ले की संगीतकारों से भरा पड़ा है, पर ये भरी गर्मी में पानी को याद करके कौन हमारे जख्मों को हरा कर रहा है। उससे पूछें, तो जवाब मिलेगा कि तुम्हारा क्या ले रहा हूं। मैं तो गीत गा रहा हूं। हमसे पूछो, तो वो एक नंबर का गधा है। सबको अपनी बेसुरी आवाज से घायल करना चाहता है। उसे हमारा सुख नहीं देखा जाता। लगा रहता है किसी ना किसी सिंगिंग कंपीटीशन की तैयारी में। कहता है कि मैं तो अपनी आवाज से रियाज कर रहा हूं।

वैसे आज के उसके गीत में कुछ ना कुछ राज छुपा हुआ है। नहीं तो वो तपती धूप में कैसे एकाएक पानी को याद करने लगा और उसने तो घर में ही बोरिंग खुदवा रखी है, पानी की तो वैसे भी उसके घर में कोई कमी नहीं है। वैसे उसकी नजरों में जरा पानी नहीं है, ये दूसरी बात है। उससे एक बाल्टी पानी मांगने जाओ, इस तरह एहसास जताकर देता है, मानो बाल्टी भरकर नोट दे रहा हो। यूं आषाण के महीने में ही सावन को याद करने की उसकी अदा वाकई बड़ी निराली है। घर की सारी खिड़कियां खोलकर पानी आ, पानी आ यूं चिल्ला रहा है, मानो उसके कहने से बादल अपनी सारी सप्लाई हमारे मोहल्ले की तरफ मोड़ देंगे।
दरअसल वो एक पीडब्ल्यूडी का ठेकेदार है। हर साल सावन आते-आते वो पूरा हरा नजर आने लगता है। बारिश की पहली बंूद इस धरा पर टपकती है, तो लगता है कि उसे पुनर्जन्म मिल गया हो। पता नहीं पानी से उसे इतना प्यार क्यों है। हम इस बात को सोचकर बहुत परेशान रहते हैं। पर जब देखा कि वो सड़क बनवाने के लिए सरकार से टेंडर लेता है, तो हमारे मगज में एक बार में ही सारी बात फिट बैठ गई कि क्यों वो पानी से इतना प्यार करता है। दरअसल वो ज्यादातर टेंडर लेता ही, बरसात के दिनों में है। सड़क के नाम पर रोड पर डामर बिछा देता है। बारिश आती है और उसके सारे पापों को धो जाती है। तभी वो बारिश के पानी को गंगाजल समझकर प्रणाम करता है। सड़कों टूटती हैं, गड्ढ़े होते हैं, उसका क्या जाता है, बारिश उसके सारे कुकर्मों को ढक लेती है। फिर दूसरी बार वो टेंडर लेता है, गड्ढे भरने का। गड्ढे भरने के नाम पर नोटों से उसका घर भरता जाता है। बारिश खत्म होती है, तो पता लगता है कि पपीताराम ने नई कार ले ली है। अमरीका जा रहा है घूमने इत्यादि। वैसे इसमें एक मजेदार बात है कि सरकार उसी को टेंडर क्यों देती है? क्या कोई उसकी शिकायत नहीं करता कि बेकार सड़क बनाने में उसी का हाथ है। इसके पीछे साफ थ्योरी काम करती है। कहेगा कौन, सुनेगा कौन। कहेंगे ये चट्टू पत्रकार, तो उनकी तो पहले से ही जेबें गर्म करके रखो और अगर ज्यादा प्रेशर आ भी जाए, तो साफ कह दो, इस काम में मेरा नहीं मजदूरों का हाथ है। और सुनने वालों को तो कान बंद रखने के लिए पहले ही सोने के सिक्के थमा दो। उनकी आवाज के सामने जनता की आवाज भला नेता कभी सुन पाए हैं, जो अब सुनेंगे। वैसे जब नेताओं की गाडिय़ां पपीताराम की बनाई सड़कों से गुजरती है, तो उनकी तोंद का सारा पानी बराबर हो जाता है, तब उन्हें पता लगता है कि वाकई गोलमाल ज्यादा ही है और कमीशन कम। पपीताराम तो चाहता है कि मैं भी उसके धंधे में पार्टनर बन जाऊं, पर हिम्मत नहीं होती। मैं उससे कहता हूं कि क्या होगा, पाप की कमाई से। इस बात पर पपीताराम हंसता है और बोलता है कि अब सीधे का जमाना कहां रह गया है जी। जैसे भी माल हाथ लगे, बस बटोरो और चलते बनो। वैसे भी ये तो सीजनेबल धंधा है। हम कौनसा बारहों महीने माल सूतते हैं। हमसे बड़े कई पापी हैं, जो साल के 365 दिन बस सरकारी नोट गिनने में लगे रहते हैं। हम सोच रहे थे कि कह तो इसकी सही है कि कलयुग में जब सत्य बचा ही नहीं है, तो फिर थोड़ा-बहुत पाप करने में जाता क्या है। हम बड़ा फैसला करने के मूड में ही थे कि इतने में कमबख्त हमारी आत्मा आडे आ गई और अपने बापू की बचपन में सिखाई बातें याद करा गई और हम दुबारा सदाचार की पटरी पर आ गए। अब तो शायद अगले सावन में ही हम पपीताराम के पाले में आ पाएंगे, चलो तब तक क्यों ना सावन की ठंडी फुहारों का मजा लेकर ही दिल को तसल्ली दी जाए।
- आशीष जैन

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