24 October 2008

आई है दिवाली

आज समय किसी के पास नहीं है। तो हाइटेक जमाने में दीपावली पूजन के लिए पंडितजी को खोजने की भी जरूरत नहीं।

महानगर में एक पंडितजी है दीनानाथ जी। अब भई दीपावली का समय है तो श्रेष्ठ चौघड़ियों के हिसाब से हर कोई फटाफट और सटीक समय पर दीनानाथजी को अपने साथ ले जाना चाहता है। दीनानाथजी भी चाहते हैं कि हर यजमान की इच्छा पूरी हो। समझ में नहीं आ रहा, कैसे इस समस्या से निजात पाएं। इसके लिए काम आया केबल नेटवर्क। केबल नेटवर्क की मदद से दीनानाथजी ने वीडियो कांफ्रेंसिंग की और सारव् यजमान उनके बताए अनुसार उपयुक्त मुहूर्त में पूजा का मार्गदर्शन लेते रहे। पंडितजी के बताए अनुसार मंत्र पढ़ते लोग खुशी-खुशी महालक्ष्मी की आराधना करते रहे।

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बदलते समय और लोगों की जरूरत को ध्यान में रखकर अब बाजार में दीपावली पूजन का ऑडियो कैसेट भी मिल रहा है। इन कैसेटों में पूजा के मंत्र और विधान दोनों हैं। कई कैसेटों के साथ तो पूजन सामग्री भी मिल रही है। बाजार में इस तरह की थाली उपलब्ध है, जिन्हें तुरंत खरीदें और पूजा करना शुरू कर दें। इस थाली को गेरू,चंदन, गोटा-सितारव् और कोैड़ियों से सजाया गया है और इसमें लक्ष्मी-गणेश, दीपक, लौंग, कपूर, खील-बताशे, रोली, मौली सब कुछ मौजूद हैं।
अब तो बाजार में बहीखाते के विकल्प के रूप में बोनचाइना की खिलौनानुमा किताब भी मिलने लगी है। इसमें एक पेज पर गणपति बने हैं, तो दूसरे पर लक्ष्मीजी के मंत्र। इस तरह देखा जाए, तो पूरा बाजार ही आपकी सुविधा के लिए तैयार खड़ा है।
-आशीष जैन

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22 October 2008

सबको राम-राम राम।



आई है दिवाली आई है दिवाली
आंख में पानी, दिल है खाली।

दुनिया में हडकंप मचा है
लक्ष्मी रूठी कैसी सजा है।

बैंक हुई कंगाल हैं
बड़े-बड़े बदहाल हैं।

भारत में है राज का राज
भाषा में हो मराठी का साज।

दीए नहीं अब दिल जलते हैं
देशभक्त अब हाथ मलते हैं।

आई है दिवाली आई है दिवाली
देश-उपवन का खो गया माली।

चंद्रयान आगे बढ़ रहा
खाने को निवाला नहीं रहा।

मन को रोशन कैसे करें अब
उम्मीदों का तेल घट रहा अब।

चारों ओर चुनाव हैं
बातों का सैलाब है।

आई है दिवाली आई है दिवाली
असली माल लगता है जाली।

हर घर हर मन हर लौ रहे चमकती
ना हों कहीं आहें सिसकती।

रहे उजाला चारो ओर
चाहे अमावस हो या भोर।

दिल में सच्ची खुशी बसी हो
मुट्ठी में उम्मीद कसी हो।

आई है दिवाली आई है दिवाली
तन-मन-धन की भागे कंगाली।
-आशीष जैन

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07 October 2008

हौसलों के पंख सपनों की उड़ान

ग्रामीण महिलाएं ले रही हैं छोटे-छोटे ऋण और संवार रही हैं अपना हुनर।
चारों ओर धूल-मिट्टी के गुबार हैं, पर चेहरे पर हौसलों की मुस्कान साफ नजर आती है। मुश्किलें लाखों हैं, पर मंजिल पाने का यकीन है। हर तरफ आत्मविश्वास और खुशियों की यह बयार आई है महिलाओं को मिलने वाले ऋण से। अब महिलाएं अपने हुनर को आसानी से पेशा बना सकती हैं। चाहे कशीदाकारी हो, मिट्टी के बर्तन बनाना या दूध बेचने के लिए चाहिए भैंस, हर उस चीज के लिए ऋण मिलेगा, जिससे आप हुनर को बढ़ाना चाहती हों। पहले जिस महिला को पति ने छोड़ दिया, उसी महिला ने जब खुद का काम शुरू किया तो पति उससे मिन्नतें कर रहा है कि वह उसके साथ रहना चाहता है। यह है करामात महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता की। इस अभियान में महिलाओं के लिए वरदान साबित हुआ है एसकेएस माइक्रो फाइनेंस। आज ये महिलाएं अपने कौशल को बाजार में बेचने में माहिर हैं और अपने काम को लगातार आगे बढ़ा रही हैं।

खुशहाली है चहुंओर
बात करते हैं ज्ञानादेवी से। कशीदे का काम सीखा, तो लगा कि खुद ही क्यों न कपड़ों पर कशीदाकारी कर बाजार में सप्लाई करव्। एसकेएस से 8 हजार का ऋण लिया और कशीदे की मशीन खरीद ली। अगले 4 हजार रुपयों से कपड़ा खरीदा और फिर बाजार में कशीदा कढ़ा हुआ कपड़ा सप्लाई करने लगी। पति का भी पूरा साथ मिला। आज ज्ञानादेवी के बच्चे अच्छे स्कूल में पढ़ने जाते हैं। पूरा परिवार इस बात से बेहद खुश है कि पति-पत्नी मिलकर कमा रहे हैं और अपने परिवार को खुशहाली की राह पर ले जा रहे हैं। शुरू में उन्हें लगा था कि कैसे मैं खुद का काम करूंगी, पैसा कैसे चुकाऊंगी। पर धीरव्-धीरव् आत्मविश्वास बढ़ा और आज वह अपने काम को और बढ़ाने की सोच रही हैं।

बड़ा अच्छा लगता है
आज से तीन साल पहले विमला देवी ने 8 हजार रुपए का ऋण लिया और उन पैसों से कपड़े खरीदकर गांव-ढाणियों में बेचने लगीं। पहले पति की पान की दुकान थी, पर अब वह बंद हो गई। अब विमला ही पूरे घर की जिम्मेदारियां निभाती है। खुद के बूते काम कर रही हैं, तो सामाजिक प्रतिष्ठा भी बढ़ी है। अब वे अपने जैसी महिलाओं को जागरूक करके आत्मनिर्भर बनने का सबक देती हैं। घर पर पोते-पोतियों के बीच घिरी रहने वाली विमला बाजार में एक समझदार दुकानदार की भूमिका बखूबी निभा रही हैं।

औरों को भी काम
जरदोजी का काम मंजु को उसके पति ने सिखाया। पहले पति यह काम किया करते थे। एक हादसे में उनकी उंगली कट गई। फिर परिवार की जिम्मेदारी मंजु ने संभाल ली और एसकेएस से ऋण लेकर बाजार में सप्लाई शुरू कर दी। अब तो उसने अपने बढ़ते काम को देखकर लोगों से भी काम करवाना शुरू कर दिया है। पहले खुद सक्षम हुईं, अब आस-पास के लोगों को रोजगार मुहैया करा रही हैं।

खुद का पैसा ही भला
मोहिनी देवी ने अपनी सास से गर्मी में हाथ से झलने वाला पंखा बनाना सीखा था। खजूर के पेड़ की पत्तियों से बनने वाले पंखों के लिए पहले साहूकार से पैसा लेना पड़ता था। पैसों को लेकर उस पर दबाव बना रहता था। ऐसे में लगा कि अगर खुद ही कहीं से पैसों का इंतजाम कर लें, तो कितना अच्छा हो। एसकेएस की योजना ठीक लगी। अब खुद पंखा बनाकर सप्लाई करती हूं, तो बचत भी ज्यादा होती है।

बड़ा आकाश- सबका साथ
विक्रम अकूला ने एसकेएस माइक्रो फाइनेंस की स्थापना इसी मकसद से की थी कि दूर-दराज गांवों की वे महिलाएं जो न तो द्गयादा पढ़ी-लिखी हैं और न ही बाहरी दुनिया से परिचित, उन्हें रोजगार के लिए पैसे की कमी आड़े नहीं आए। इसलिए वे सिर्फ महिलाओं को ऋण देते हैं और वह भी बिना किसी कागजी कार्रवाई और गारंटर के। अगर महिला गरीब है, तो अपने आस-पड़ोस की पांच महिलाओं के साथ मिलकर ऋण ले सकती है। एक साल में दो हजार से शुरू कर 16 हजार रुपए तक लिए जा सकते हैं। जिस भी महिला में कमाने की चाह है, अब उसे सिर्फ ऋण लेना है और शुरू कर देना है अपना काम। ऋण लौटाना भी है बहुत आसान। हर हफ्ते होने वाली महिलाओं की मीटिंग में आसान सी रकम देते जाइए और 50 हफ्तों में पूरी रकम अदायगी। आज एसकेएस 17 से ज्यादा राज्यों में काम कर रहा है। राजस्थान में इसकी शुरुआत जुलाई 2006 में हुई और आज 18 जिलों के 1460 गांवों में हजारों महिलाओं का भविष्य संवारने में मदद कर रहा है। महिलाओं को ऋण देने के लिए जो लोग यहां काम कर रहे हैं, उनमें से अधिकतर लोग गांव और इन्हीं महिलाओं के परिवारों से हैं।
-आशीष जैन

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06 October 2008

उजाला जिंदगी में


अलवर की दलित महिलाएं अमरीका के मशहूर स्टैच्यू आफ लिबर्टी के नीचे खुशी की इजहार करते हुए।



अंधेरी रात में जिस तरह एक नन्हा सा सितारा आसमान को रोशनी से लबरेज कर देता है। उसी तर्ज पर राजस्थान के अलवर और टोंक जिले की मैला ढोने वाली महिलाओं ने भी अब इस कुप्रथा को छोड़कर अपनी जिंदगी को खुशियों से लबरेज कर लिया है।
कुछ लोग जिंदगी में सब कुछ सह लेते हैं जबकि कुछ बदलाव का बीड़ा उठाते हैं। उन्हीं में शुमार हैं राजस्थान के अलवर और टोंक जिले की मैला ढोने वाली दलित महिलाएं। आज वे सदियों पुरानी बेड़ियों को उतारकर फैंक चुकी हैं और अपनी आगे की जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए जुटी हैं। उनके सूने जीवन में रोशनी की किरण लेकर आई सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गेनाइजेशन की 'नई दिशा'। 'नई दिशा' ने सही मायनों में इन दलित महिलाओं के जीवन को नई दिशा दी है।
'नई दिशा' से जुड़कर ये महिलाएं आत्मनिर्भर बनने के लिए सिलाई, कढ़ाई, फूड प्रोसेसिंग, ब्यूटी केयर, सॉफ्ट टॉयज और बत्तियां बनाने का प्रशिक्षण ले रही हैं। नई दिशा ट्रेनिंग कम प्रोडक्शन सेंटर से इन महिलाओं की ओर से तैयार सामान गुड़गांव, अलवर और तिजारा के बाजारों में जाता है। इसके अलावा दिल्ली से आयात किए कपड़े आते हैं, जिन पर ये महिलाएं कढ़ाई का काम करती हैं। यह सामान विदेशों में भी निर्यात किया जाता है। संस्था इन महिलाओं को 2 हजार रुपए मासिक भत्ता भी देती है।


गुमनामी से रैंप तक का सफर
हाल ही न्यूयार्क स्थित जनरल एसेंबली में दो जुलाई को आयोजित कैटवॉक में अलवर की इन दलित महिलाओं को शामिल होने का अवसर मिला। वहां 36 महिलाओं के समूह में से 11 महिलाओं ने भारत के मशहूर मॉडलों के साथ रैंप पर कदम से कदम मिलाते हुए कैटवॉक किया। इस आयोजन की तैयारी इन महिलाओं ने काफी पहले से शुरू कर दी थी। कैटवॉक के दौरान पहनी कारीगरी की गई बॉर्डर की नीली साड़ियां माइकल जैक्सन के कपड़े डिजाइन करने वाले फैशन डिजाइनर अब्दुल हल्दार की देखरेख में तैयार किए गए।



होंगे कामयाब एक दिन
न्यूयार्क में अपनी सफलता का परचम लहराकर दुनिया में भारत का नाम रोशन करने वाली ये महिलाएं वहां से लौटने के बाद आत्मविश्वास से लबरेज हैं और भविष्य संवारने के मकसद से उन्होंने अपने-अपने हुनर के दम पर काम को आगे बढ़ाने की ठान ली है।

हमने कर दिखाया
अब हम सभी अपना अलग व्यवसाय खोलना चाहती हैं। ब्यूटी केयर का प्रशिक्षण लेने के बाद मैं भी अपनी अन्य बहनों के साथ मिलकर अपना ब्यूटी पार्लर खोलना चाहती हूं। प्रेसीडेंट के पद पर होने के नाते मैला ढोकर जीवन बिताने वाली देशभर की अन्य महिलाओं को इस घृणित कार्य से मुक्ति दिलाने का प्रयास करूंगी।
- उषा चौमर, प्रेसीडेंट, सुलभ इंटरनेशनल मिशन फाउंडेशन, अलवर



सिलाई और कढ़ाई से लेकर साड़ियों और सूट पर सितारे सजाने का काम मुझे अच्छा लगता है। अब मैं अपना बुटिक खोलना चाहती हूं। किसी नए काम को शुरू करने में परेशानी तो आएगी, पर हम भी पूरी तरह से तैयार हैं।
- लक्ष्मी नंदा, अलवर

सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक डॉ. बिंदेश्वर पाठक से बातचीत के कुछ अंश-
- आपको इन दलित महिलाओं को मैला ढोने जैसी कुप्रथा से छुटकारा दिलाने की प्रेरणा कहां से मिली?
यह तो गांधीजी का सपना था। हमने तो बस प्रयास किए हैं। कुछ समय पहले अलवर जाना हुआ, वहां कुछ महिलाओं को सिर पर मैला ले जाते हुए देख बहुत दुख हुआ। उनसे बात करने की कोशिश की, तो शुरुआत में कोई भी तैयार नहीं हुई। सबने चेहरे पर लंबा घूंघट डाला हुआ था। काफी समझाने पर इनमें से एक बात करने के लिए तैयार हुई।



-पर क्या अपने काम को छोड़ देने के लिए वे सहजता से तैयार हो गई?
जब इस काम के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने स्वीकारा कि यह काम गंदा और अपमानजनक है। लेकिन काम नहीं किया, तो खाएंगे क्या? इस पर हमने कहा कि खाना हम देंगे, तुम काम छोड़ दो। काफी समझाने पर सब तैयार हो गईं।



- इसके बाद आपका अगला कदम क्या रहा?
इन महिलाओं के लिए अलवर शहर में ही सुलभ इंटरनेशनल की ओर से संचालित 'नई दिशा' नामक सेंटर खोला गया। शुरुआत में तीन महीनों तक नकद राशि दी गई और साथ में इनको शिक्षित करना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे इन्हें संस्था में ही सिलाई, कढ़ाई, ब्यूटी केयर, अचार, पापड़ आदि का प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया।



भविष्य के लिए क्या योजनाएं हैं?
इनके समूह में तीन तरह की महिलाएं हैं। पहली वे, जिनमें नेतृत्व की क्षमता है। ऐसी महिलाएं भविष्य में अपना कामकाज ठीक से संभाल लेंगी। दूसरी ऐसी महिलाएं हैं, जो नौकरी कर सकने योग्य हैं। इन महिलाओं को उनकी रुचि के अनुसार अन्य जगहों पर बतौर प्रशिक्षण नौकरी के लिए भेजा जाएगा, जिसका खर्चा सुलभ वहन करेगा। तीसरी वे महिलाएं हैं, जो केवल सामान तैयार कर सकती हैं, लेकिन बेच नहीं सकतीं। इनके लिए सामान बेचने के लिए मार्केटिंग आदि की व्यवस्था की जाएगी। इसके साथ ही दलित परिवारों के बच्चों के लिए 1 अप्रेल 2009 तक स्कूल की योजना है और पतियों को रुचि के आधार पर ड्राइविंग, बिजली आदि प्रशिक्षण दिए जाने हैं।


...और एक नया कदम
केंद्र सरकार के एक आकलन के मुताबिक भारत में 3.42 लाख लोग सिर पर मैला ढोने के काम से जुड़े हुए हैं। इनके लिए सन्‌ 2007 में सरकार ने प्रधानमंत्री स्वच्छकार पुनर्वास एवं प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू किया। इस कार्यक्रम को राजस्थान में अनुसूचित जाति एवं जनजाति वित्त एवं विकास निगम संचालित करता है। अलवर में 'सुलभ इंटरनेशनल' के 'नई दिशा' कार्यक्रम की सफलता को देखते हुए निगम ने टोंक में भी 190 महिलाओं को स्वरोजगार प्रशिक्षण देने का जिम्मा सुलभ इंटरनेशनल को सौंपा। निगम की महाप्रबंधक शुचि शर्मा के मुताबिक राजस्थान में पुनर्वासित करने योग्य हथ सफाईकर्मी लगभग 1326 हैं। मार्च, 2009 तक इन सभी को पुनर्वासित करने की योजना है। निगम हथसफाई कर्मियों को मैला ढोने का काम छोड़कर दूसरा काम शुरू करने के लिए ऋण भी देता है।
अलवर की तर्ज पर सुलभ इंटरनेशनल ने टोंक में वहां के मशहूर नमदों के निर्माण, आरी-तारी साड़ियां और सिलाई-कढ़ाई का प्रशिक्षण देना शुरू किया। सुलभ इंटरनेशनल की सलाहकार सुमन चाहर के मुताबिक कई टीमों ने उन लोगों की काउंसलिंग की। उन्हें मैला ढोने के काम को छोड़ने के लिए तैयार किया। आज वे खुद अपने पैरों पर खड़ी हैं और कमा रही हैं। टोंक के 'नई दिशा' सेंटर पर साक्षरता कार्यक्रम, साफ-सफाई, टीकाकरण और बैंकिंग के बारे में जानकारी दी जाती है। सुबह 9 बजे से 4 बजे तक प्रशिक्षण दिया जाता है। यह एक साल का प्रशिक्षण कार्यक्रम है। इस दौरान उन्हें एक हजार रुपए प्रतिमाह भत्ता भी दिया जाता है। कमाई की बचत के गुर भी सिखाए जाते हैं। समय-समय पर महिला उत्पादों की प्रदर्शनी भी लगाई जाती है। इन लोगों की मॉनिटरिंग भी की जाती है कि परिस्थितिवश ये दुबारा मैला ढोने के काम से तो नहीं जुड़ गई हैं।

मेरा नाम- मेरा काम
मैंने 'नई दिशा' में आरी-तारी और कशीदे का काम सीखा है। पहले मुझे घबराहट होती थी कि कैसे इस नए काम को सीख पाऊंगी। पर अब सारा काम मैं बहुत सफाई से करती हूं। अभी मुझे 6 माह का ही समय हुआ है, पर अब लगता है कि खुद के बूते कुछ कर रही हूं। अब तो घर वाले भी साथ देते हैं। सेंटर पर काम का ऑर्डर आता है, इससे आय में भी इजाफा हो रहा है।
- सुनीता, उम्र 27 वर्ष, टोंक



मैंने नई दिशा से सिलाई का काम सीखा है। इसकी बदौलत अपने तीन बच्चों को पाल रही हूं। अब मैं वापस उस घृणित काम को करना नहीं चाहती। समाज में महिलाओं की स्थिति बदल रही है। ऐसे में हमें मौका मिला है, तो हम भी बता देना चाहते हैं कि हम किसी से कम नहीं। अब हमारे काम को लेकर कोई हमसे घृणा नहीं कर सकता।
- उगंता, उम्र 32 वर्ष, टोंक




-आशीष जैन के साथ अलवर से ऋचा माथुर

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03 October 2008

गांधी बाबा क्या कहते हो



जबसे जाना तुझको बाबा

सपनों से तुम लगते हो।


गांधी बाबा आज का भारत देखके

क्या कहते हो... क्या कहते हो।


बम फट गया... कोई लूट गया...गांधी तेरे देश में।

चारों ओर लुटेरे बैठे हैंसाधुओं के भेष में।


भय, भुखमरी, भ्रष्टाचार

क्या हैं इन पर तेरे विचार।


ना कोई अब सोच है

सिर्फ बचा अब जोश है ।


कोई नहीं है तेरा साथी

सब पूछें अब मजहब और जाति।


आरक्षण की हवा आ रही

सबको लगता नई दवा आ रही।


सत्य, अहिंसा बकवास है

दौलत की बस आस है।


सिद्धांत सब झूठे हैं।

गांधी से सब रूठे हैं।


गांधी बाबा... गांधी बाबा

क्या कहते अब बोलो।


एक अकेले तुम थे गांधी

लाए थे भारत में आंधी।


आज चाहिए सौ-सौ गांधी

तभी हो सकेगा सपना पूरा।


गांधी बाबा वापस आओ

नई राह फिर-फिर बतलाओ।


देश प्रेम की बयार फैलती जाए

तभी गांधी का जन्मदिन याद आए।


-आशीष जैन

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01 October 2008

स्वाद से हुआ नाम रोशन


मिलिए 65 हजार रेसिपी बनाकर गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में नाम दर्ज कराने वाली भोपाल की कृष्णावेणी से।

कुछ महिलाओं के हाथ में ऐसा जादू होता है कि उनकी बनाई रेसिपीज का हर कोई दीवाना बनकर रह जाता है। ऐसे में अगर कोई हमें कहे कि हिंदुस्तान में एक ऐसी भी महिला है जो हजार नहीं, दस हजार नहीं पूरे 65000 रेसिपीज बनाने में माहिर हैं तो एक बारगी तो विश्वास ही नहीं होता। जी हां, भोपाल शहर में रहने वाली 66 साल की कृष्णावेणी मुदलियर एक ऐसी ही शख्सियत हैं। खाना बनाने में बेहद पारंगत कृष्णावेणी एक आम गृहिणी ही हैं पर अपने शौक के चलते आज इनका नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज हुआ है। बकौल कृष्णावेणी 'मैंने बहुत कम उम्र से ही भोजन बनाना शुरू कर दिया था। मेरी रूचि बचपन से ही खाना पकाने में रही। इसी का नतीजा है कि मेरा नाम गिनीज बुक में दर्ज हुआ है।' कृष्णावेणी बताती हैं कि जब भी मेरी इच्छा कोई रेसिपी बनाने की होती थी तो मैं उसे बनाकर ही दम लेती थी। आज कृष्णावेणी भारत के विभिन्न राज्यों की रेसिपी बना लेती हैं साथ ही इटेलियन, चाइनीज और बर्मा के व्यंजन भी बना सकती हैं। बर्मा के बारे में कृष्णावेणी बताती हैं कि मैं कुछ दिन बर्मा रही थी तो मैंने झट से बर्मा की डिशेज बनाना सीख लिया। उनका दावा है कि उनकी बनाई रेसिपीज आस्ट्रेलिया, यूरोप और अफ्रीका में भी मशहूर हो रही हैं। कृष्णावेणी कहती है कि मैं अपनी रेसिपीज में खासतौर पर स्वाद को लेकर बेहद सतर्क रहती हूं। मसालों में थोड़ी सी ऊंच-नीच रेसिपी का स्वाद बिगाड़ सकती है। मैं अपनी रेसिपी में कैलोरी की मात्रा का भी खास खयाल रखती हूं। कृष्णावेणी के बेटे ओमप्रकाश मुदलियर बताते हैं रोज हमें स्वादिष्ट भोजन खाने को मिलता है। इससे अच्छी बात हमारे लिए और क्या होगी? जब मां को खाने के लिए कोई पुरस्कार मिलता है तो मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहता। हालांकि सन्‌ 2006 से कृष्णा का नाम लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में दर्ज है। पर अब गिनीज बुक में मेरी मां का नाम आने से उन्हें पूरी दुनिया जानेगी। अभी वे बाकी विश्व रिकॉर्ड में प्रयासरत हैं। अभी तक सबसे ज्यादा रेसिपीज बनाने का रिकॉर्ड एक ब्रिटिश महिला के नाम था जिसे 3000 रेसिपीज बनाना आता था, इसकी तुलना में कृष्णावेणी की रेसिपीज की संख्या वाकई कई गुना ज्यादा थी। कृष्णावेणी की बहू कारतीखासी मुदलियर कहती हैं कि मेरी सासू मां की बनाई रेसिपीज पूरी दुनिया में चमकनी चाहिए। उनके हुनर का इस्तेमाल रोजगार सृजन में भी किया जा सकता है। इन सब बातों से एक बात तो स्पष्ट है कि कृष्णावेणी का नाम गिनीज बुक में दर्ज होना हर भारतीय गृहिणी के भोजन से लगाव का पुरस्कार माना जा सकता है।
- आशीष जैन

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