03 November 2008

चाहिए एक संगिनी ऐसी

ख्वाबों की शहजादी कहें या सपनों की परी, हर पुरुष चाहता है कि उसकी जीवनसंगिनी ऐसी हो जो सारे जमाने से अलहदा और हरदिल अजीज हो।

शादी जिंदगी में एक नया मोड़ लेकर आती है। कुछ को यह रिश्ता ताउम्र लुभाता है, तो कुछ को लगता है कि हमेशा साथ निभाने वाले हमसफर में कोई न कोई खास बात होनी चाहिए, जो जमाने भर में ढूंढ़ने पर भी कहीं नजर न आए। हमने बात की कुछ पुरुषों से और जाना कि कैसी होनी चाहिए आपकी ड्रीम वाइफ।
आंखों में झांककर दिल पढ़ ले
वो लड़की बिल्कुल मेरी दोस्त जैसी हो। आखिर उसे मेरे साथ ताउम्र रहना है। ऐसे में दोस्त की तरह मेरी मुश्किलों को समझे, मेरा हौसला बढ़ाए और प्यार करे। वह दिखने में चाहे कैसी भी हो, इससे कोई फर्क मुझे नहीं पड़ेगा। हां, अगर मैं गलत राह पर जाऊं, तो मुझे सही राह भी दिखला सके। मेरे बोलने से पहले मेरी आंखों में झांककर ही मेरे मन की बात समझ सके। कभी अगर मैं जिंदगी के सफर में हताश हो जाऊं, तो मुझे प्रेरित करे, ऐसी वाइफ मिल जाए, तो मेरी लाइफ बन जाए।
-रवि कुमार शर्मा, उम्र- 36 वर्ष
सबका दिल जीत ले
उस लड़की की शक्लोसूरत खूबसूरत हो। हम दोनों की सोच भी मिले। पत्नी के साथ-साथ परिवार में दूसरी भूमिकाओं जैसे भाभी, बहू और मां को निभाने में भी कुशल हो। घर में सबकी इच्छाओं के लिए अगर थोड़ा बहुत अपनी सुविधाओं के साथ एडजस्ट करना पड़े, तो खुशी-खुशी तैयार हो जाए। जहां भी वह जाए, अपनी बातों से सबका दिल जीत ले और हाथ के हुनर में पारंगत हो। फिर चाहे वह अच्छी कुक हो या अच्छी पेंटर। कुछ ना कुछ ऐसी खासियत जरूर होनी चाहिए कि हर कोई कहे, वाह! क्या बीवी है।
-बुद्धप्रकाश सैनी, उम्र-34 वर्ष
मस्त, बिंदास और जिम्मेदार
मेरा हमसफर थोड़ा चुलबुला, चंचल और शरारती हो। मस्त, बिंदास हो, साथ ही जिम्मेदार भी। वह खुले विचारों की हो और समय के हिसाब से खुद को ढाल सके। मैं जिस भी प्रोफेशन में रहूं, वह उसे समझे और मेरी मदद भी करे। खुद को अपडेट रखे। आपने आस-पास की चीजों की जानकारी रखने वाली हो। वह इमोशनल भी होनी चाहिए ताकि रिश्तों की डोर को मजबूती से संभाले रख सके। तन की सुंदरता से ज्यादा मन की खूबसूरती को तवज्जो देने वाली हो। तभी मैं कहूंगा कि जोडिय़ां तो फरिश्ते तय करके भेजते हैं।
- विनोद भंडारी, 23 वर्ष
खुद को ना बदले
मेरी तलाश ऐसी अर्द्धांगिनी की है, जो वाकई मेरी पूरक हो। मेरी पहचान हो। सूरत और सीरत में कोई फर्क ना हो। बिना बताए अपने फर्ज को समझने वाली हो। आधुनिक हो पर ज्यादा फैशनबल ना हो। चाहे साड़ी पहने या सलवार पर हो हिंदुस्तानी तहजीब को समझने वाली। परंपराओं को दिल से निभाए और मुश्किलों में मेरा साथ दे। मन की सारी भली-बुरी बातें मुझसे शेयर करे। मेरी ख्वाहिशों के चलते वह खुद को ना बदले। जैसी है, सदा वैसी ही रहे। वह खुद कहे कि मैं हूं बीवी नंबर वन।
- आदित्य बोहरा, 26 वर्ष

-आशीष जैन

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दोस्ती कमाल की

सिसली के राजा ने डेयन को किसी अपराध के कारण मृत्यु दण्ड दिया। मृत्यु दण्ड से पहले राजा ने उसकी अंतिम इच्छा पूछी तो उसने कहा- मुझे ग्रीस जाकर परिवार का प्रबंध करने के लिए एक साल का समय चाहिए। राजा बोला- मैं तुम्हारी अंतिम इच्छा पूरी करना चाहता हूं, पर तुम्हारी जगह कारागृह में कौन रहेगा? और तुम्हारे नहीं लौटने पर मृत्यु दण्ड लेने को कौन तैयार होगा? उसका मित्र पीथियस पास में ही खड़ा था। उसने कहा- मैं डेयन की जगह कारावास जाने को तैयार हूं, अगर वह लौटकर नहीं आया तो मैं मृत्यु दण्ड पाने को भी तैयार हूं। राजा ने डेयन को जाने की अनुमति दे दी। लेकिन कुछ परिस्थितियां ऐसी बनीं कि डेयन समय पर लौट कर नहीं आ सका। पीथियस को फांसी की पूरी तैयारी कर ली गई। जैसे ही फंदा उसके गले में डाला जा रहा था, तभी हांफता हुआ डेयन लौट कर आ गया और उसने कहा- मैं आ गया हूं, मेरे मित्र को छोड़ दो और मृत्युदण्ड मुझे ही दो। पीथियस ने कहा- काश तुम देर से आते तो आज मित्रता का मिसाल कायम हो जाती। समझदार राजा ने दोनों क मित्रता को समझा और प्रशंसा करते हुए उन्हें छोड़ दिया। राजा ने उम्हें कई उपहार भी दिए और कहा- मुझे भी तुम्हारे जैसे मित्रों की आवश्यकता है। यदि तुम दोनों मेरे मित्र बन जाओगो तो मुझे बहुत प्रसन्नता होगी।

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बहकते नन्हे कदम

घटना1- 11 दिसंबर 2007 को गुडगांव के एक स्कूल में दो स्कूली छात्रों ने आठवीं कक्षा के अपने दोस्त पर 5 गोलियां दागकर उसे मार डाला।
घटना2- 3 जनवरी 2008 को मध्यप्रदेश के सतना जिले के चोरवाड़ी गांव में दसवीं कक्षा के एक छात्र ने अपने से जूनियर कक्षा 8 के एक छात्र को गोली चलाकर मार डाला।

हाल ही हुई बच्चों में बढ़ती हिंसा की घटनाओं ने सबके सामने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि आखिर क्यों बालमन भटक रहा है? मासूमियत कहां गुम होती जा रही है? यह प्रवृत्ति परिवार, देश-समाज के लिए नासूर बने, उससे पहले सोचना होगा कि कैसे नन्हे कदमों को भटकने से रोका जा सकता है? इसी का खुलासा कर रहा है यह लेख-

आंकड़ों की जुबानी
1. पिछले दस सालों में बच्चों की मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं में 400 फीसदी बढ़ोतरी हुई है।(इंडियन एसोसिएशन फॉर चाइल्ड एंड एडोलेसेंट मेंटल हेल्थ की रिपोर्ट के मुताबिक)

2. हर 10 में से चार बच्चे अवसादग्रस्त हैं। (विमहंस के अध्ययन के मुताबिक)

3. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक सन्‌ 2020 तक बचपन में न्यूरोसाइकरेटिक समस्या में 50 फीसदी तक का इजाफा हो जाएगा और रोग व मृत्युदर में इजाफे के लिए जिम्मेदार पांच कारणों में एक प्रमुख कारण होगा।
4. विद्यासागर मानसिक स्वास्थ्य और न्यूरो विज्ञान संस्थान (विमहंस) ने 1200 बच्चों पर किए एक अध्ययन के आधार पर बताया है कि दिल्ली में पिछले एक दशक में 15 से 18 साल के बच्चों में तम्बाकू और अल्कोहल का इस्तेमाल चार गुना बढ़ गया है।
ये घटनाएं आजकल सबके बीच चर्चा का विषय बनी हुई हैं। सभी को बच्चों में बढ़ती हिंसा ने हैरत में डाल दिया है। बच्चों में इस कदर बढ़ती हिंसा वाकई चिंता का विषय है। मनोवैज्ञानिक बच्चों के इस बदलते व्यवहार को व्यापक दायरे में देखते हैं और इसके लिए कई कारकों को जिम्मेदार मानते हैं। अगर इसे समय पर नहीं सुलझाया गया, तो समाज में बच्चों की स्थिति बिगड़ सकती है और हम सबको इसके नकारात्मक परिणाम झेलने पड़ सकते हैं।
कोमल मन, मिट्टी समान
बच्चों का मन बहुत कोमल होता है। बच्चे अपने परिवार, परिवेश, समाज और स्कूल से बहुत कुछ सीखते हैं। उनमें यह समझ नहीं होती कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं। ऐसे में वे कई बार गलत कदम उठा लेते हैं। मुंबई में बच्चों की काउंसलर दिव्या प्रसाद इसी बात का समर्थन करते हुए कहती हैं, 'बच्चों का मन कच्ची मिट्टी की तरह होता है। ऐसे में बच्चे हर चीज से बहुत जल्दी प्रभावित होते हैं। बच्चों में सही-गलत का निर्णय लेने का गुण विकसित करना बेहद जरूरी है।'
बढ़ती सुख-सुविधा और पैसा
उदारीकरण के दौर में भारतीय परिवारों की आय में तेजी से इजाफा हुआ है। इसके चलते सुख-सुविधाओं की वस्तुएं बढ़ी है। बच्चों को भी ज्यादा जेबखर्च दिया जाने लगा है। बच्चे इस पैसे का गलत इस्तेमाल करते हैं। पैसे के बल पर माता-पिता के खरीदे लाइसेंस्ड हथियार बच्चों तक आसानी से पहुंच जाते हैं। घर में रखे हथियारों के प्रति बच्चों में उत्सुकता बनी रहती है। बच्चे मौका देखते ही हथियार को लेकर उसका असल जिंदगी में प्रदर्शन करते हैं और दोस्तों के बीच आपनी धौंस जमाने लगते हैं। कभी-कभी इन हथियारों के जरिए अपना गुस्सा जाहिर करने से भी नहीं चूकते।
पढ़ाई का तनाव
आज प्रतिस्पर्धा का दौर है। मां-बाप व अध्यापक से लेकर रिश्तेदार और साथी-संगी सभी चाहते हैं कि बच्चा स्कूल में हमेशा टॉप पर रहे। बच्चे के मन को समझने की फुर्सत किसी के पास नहीं है। ऐसे में बच्चा अपनी पढ़ाई को लेकर हमेशा तनाव में रहता है। बच्चा अपने मन की बात किसी से नहीं कह पाता और ऐसे में मन ही मन परेशान रहने लगता है। पढ़ाई के साथ-साथ बच्चों को समय से पूर्व ही करियर का भूत भी सताते लगता है। माता-पिता की बढ़ती अपेक्षाओं के चलते बच्चा अवसाद में आ जाता है।
टीवी और इंटरनेट, कम्प्यूटर गेम्स
तकनीक ने हमारी जीवनशैली का स्तर सुधारा है। पर तकनीक के बढ़ते प्रभाव के चलते बच्चे असल जिंदगी और टीवी के किरदारों में फर्क महसूस नहीं कर पाते। टेलीविजन पर दिखलाई जाने वाली हिंसा बाल-मन पर कुप्रभाव छोड़ती है। वहीं इंटरनेट पर जानकारियों का अनवरत प्रवाह के बीच बच्चे भ्रमित होकर हिंसा को वास्तविक जीवन की सच्चाई मानने लगते हैं। वहीं आजकल कम्प्यूटर गेम्स के बढ़ते चलन से बच्चों की सोचने-समझने की क्षमता सिकुड़ गई है। कम्प्यूटर गेम्स जैसे हिटमैन, ब्लड मनी, रोड रश बच्चों को सीधे तौर पर हिंसा के जरिए अपना काम निकालने का संदेश देते हैं। बच्चे कम्प्यूटर गेम्स के इस मायावी संसार को असल जिंदगी में भी लागू करते हैं। उसके परिणाम बहुत घातक होते हैं।
तेज जीवनशैली और खान पान
आज के युग में किसी के पास समय नहीं है। हर किसी को जल्द से जल्द परिणाम चाहिए। बच्चे भी तेजी से खुद को बड़ा साबित करना चाहते हैं। इस होड़ में बच्चे अपनी कोमलता छोड़कर प्रतिस्पर्धा में शामिल हो गए हैं। वे अपनी हार बर्दाश्त नहीं कर सकते। बच्चे सफलता में बाधा बनने वाली हर चीज का हल हथियार में ढूंढने लग जाते हैं। वहीं कई शोध साबित करते हैं कि जंक फूड खाने से भी बच्चों की मानसिकता प्रभावित होती है। फास्ट फूड के बढ़ते चलन से बच्चों का बौद्धिक स्तर कम हुआ है। अकेलापन
आधुनिक समय में माता-पिता दोनों रोजगार के लिए दिन के समय घर से बाहर रहते हैं। जिस समय बच्चा स्कूल से घर आता है उसे चाहिए मां का दुलार, उसके ममता भरे बोल। लेकिन उसे इसकी बजाय खालीपन मिलता है।वह घर पर सारे दिन अकेला रहता है। बच्चा इस अकेलेपन को सहन नहीं कर पाता है। अकेलापन हावी होने से उसकी मानसिकता में विकृति आने लगती है। अकेलेपन का कोई रचनात्मक उपयोग न होने की वजह से बच्चे में तनाव, अवसाद और निराशा घर करने लगती है।
कुछ खास बातें
बच्चों के कुछ खास लक्षणों को देखकर आप पता लगा सकते हैं कि आपका लाडला भी किसी मानसिक परव्शानी या अवसाद से तो नहीं गुजर रहा-
1. हमेशा उदास रहना और अनावश्यक तनाव लेकर आंसू बहाते रहना।
2. हमेशा माता-पिता का साथ पसंद करना और एक पल को भी उनसे दूर नहीं होना।
3. स्कूल में अपने सहपाठियों से घुल-मिल नहीं पाना और हमेशा उनसे लड़ने को उतारू रहना।
4. प्रायः उल्टी, सिरदर्द की शिकायत करना।
5. खेल, पढ़ाई और दूसरी गतिविधियों से अचानक मन उचटना।
6. खान-पान की आदतों में बदलाव और कम नींद लेना।
7. अल्कोहल या ड्रग लेना या एकाएक बहुत ज्यादा वजन बढ़ना।
8. बात-बात पर गुस्सा करना और तोड़फोड़ करना।
9. दोस्तों के नए समूह में शामिल होना
मनोचिकित्सक प्रवीण दादाचांजी और अनिल ताम्बी के मुताबिक अपने बच्चे में कोई मानसिक समस्या देखें, तो इससे निजात के लिए आपको निम्न उपाय करने चाहिए-
1. बच्चों के साथ समय गुजारें- जब तक आप अपने बच्चों के साथ स्तरीय समय व्यतीत नहीं करेंगे, बच्चे को सही राह नजर नहीं आ सकती है। माता-पिता को बच्चों की समस्याएं सुननी चाहिए व उनके साथ बैठकर हल खोजना चाहिए।
2. बच्चों को प्रेरणादायी और सकारात्मक किस्से सुनाएं- आज के युग में बच्चे दिशाहीन होते जा रहे हैं। ऐसे समय में अगर उन्हें प्रेरणादायी किस्से और सकारात्मक बातें बताई जाएं, तो उनका तनाव कम होगा और वे गलत राह पर जाने से बचे रहेंगे।
3. टीवी और कम्प्यूटर गेम्स की बजाय उन्हें पुस्तकें पढ़ने के लिए प्रेरित करें- अगर बच्चे कम्प्यूटर की बजाय पुस्तकें पढ़ने की आदत विकसित करेंगे, तो वे अपना समय कहीं बेहतर ढंग से व्यतीत कर सकेंगे। पुस्तकें बच्चों की सबसे अच्छी मित्र साबित हो सकती हैं।
4. सामाजिक मान्यताओं के सम्मान की सीख दें- अपने बच्चों को सिखाएं कि व्यक्ति का विकास समाज में रहकर ही हो सकता है। सामाजिक मान्यताओं का आदर करना बहुत जरूरी है।
5. खुद मर्यादित व्यवहार करें- अक्सर बच्चे अपने माता-पिता को देखकर काफी कुछ सीखते हैं। अगर माता-पिता खुद अपना व्यवहार मर्यादित रखेंगे, तो बच्चों के सामने एक मिसाल कायम होगी और उनके कदम बहकने से बचेंगे।
6. रचनात्मकता को बढ़ावा दें- हर बच्चे में कुछ खास करने की इच्छा होती है। इसलिए आपको बच्चों की रचनात्मकता को विकसित करने का मौका देना चाहिए। पेंटिंग्स, लेखन और डांस से बच्चों को कुछ नया करने का मौका मिलता है और वे ज्यादा सकारात्मक बन पाते हैं।
7. एंगर मैनेजमनेंट की सीख दें- अगर बच्चे को बात-बात पर गुस्सा आता है, तो उसे गुस्सा कम करने की तकनीक बताएं। गुस्से के वक्त उसे अपनी सांस पर ध्यान देने की सलाह दें। ध्यान और योग से भी बच्चों के गुस्से को कम किया जा सकता है।
क्या कहना है स्कूल प्रिंसिपल्स और निदेशकों का
जयपुर के स्कूल के प्रिंसिपल्स और निदेशकों से जब स्कूल परिसर में बच्चों में बढ़ती हिंसा के बारव् में बातचीत की गई, तो पता लगा कि सभी को इस घटना के बारव् में पता था और इस घटना के पीछे छुपे संकेतों को भी सभी समझते थे। अधिकतर स्कूलों ने इस घटना के तुरंत बाद अध्यापकों के साथ मीटिंग की और बच्चों की भावनाओं को समझने की वकालत की। पर प्रायः स्कूलों ने बच्चों की सुरक्षा से जुड़ी किसी ठोस कार्रवाई की बात नहीं कही।
नैतिक शिक्षा जरूरी
जैसे ही मुझे गुडगांव की हृदयविदारक घटना के बारे में पता लगा, मैंने स्कूल के अध्यापकों और बच्चों के साथ मीटिंग की और बच्चों को समझाया। मैं अध्यापकों को बच्चों को नैतिक शिक्षा देने की बात कही है।
- आर एल शर्मा, निदेशक, ब्राइट फ्यूचर सीनियर सैकण्डरी स्कूल
शिक्षक से मन की बात कहें
गुडगांव और चोरवाड़ी घटना के बाद हम बच्चों से पूछताछ कर रहे हैं कि उन्हें किसी साथी से डर तो नहीं है। हम निगाह रखते हैं कि किसी बच्चे का व्यवहार असामान्य तो नहीं है। अगर किसी बच्चे को किसी भी तरह की परव्शानी है, तो वह सीधे अपने शिक्षक से बात कर सकता है।
- बेला जोशी, प्रिंसिपल, सुबोध पब्लिक स्कूल
हर हरकत पर निगाह
आज बच्चों के दिल में जो गुबार है,उसे बाहर निकालना बहुत जरूरी है। मैं तो बच्चों के पास जाकर बच्चों जैसी हो जाती हूं। उनकी हर बात ध्यान से सुनती हूं। स्कूल में शिक्षकों को बच्चों की असंदिग्ध हरकतों पर निगाह रखने के निर्देश दिए हुए हैं। पर हर बच्चे की चैंकिंग करना नामुमकिन है।
- राज अग्रवाल, प्रिंसिपल, केन्द्रीय विद्यालय नं.1
हिदायत दी हुई है
स्कूल की हर कक्षा में कैमरे लगे हुए हैं, जिससे हम बच्चों की हर गतिविधि पर नजर रखते हैं। अध्यापकों को बच्चों के लड़ाई-झगड़े निपटाने के भी निर्देश दे दिए हैं। बच्चों को हिदायत दी है कि अगर आप कुछ गलत चीज स्कूल में लेकर आए, तो आपको स्कूल से निकाला जा सकता है।
-मोहिनी बक्शी, प्रिंसिपल, सीडलिंग स्कूल
काउंसलिंग करवाते हैं
वैसे कोई बड़ा कदम तो नहीं उठाया है। हां, नियमित रूप से अकस्मात चैकिंग का काम चलता रहता है। इससे बच्चे किसी तरह का गलत काम करने से डरते हैं। बच्चों की काउंसलिंग का कार्यक्रम भी बढ़ा दिया है।- माला अग्निहोत्री, वाइस प्रिंसिपल, इंडिया इंटरनेशनल स्कूल
समझाइश से काम होगा
हम माता-पिता को समझा रहे हैं कि हथियारों को बच्चों की पहुंच से दूर रखें। बच्चों को भी पढ़ाई का तनाव नहीं लेने की सलाह दी है। बच्चों को हथियारों के नुकसान से भी चेताया है।
- कर्नल कौशल मिश्रा, प्रिंसिपल, महावीर दिगंबर सीनियर सैकंडरी स्कूल
आलेख- आशीष जैन

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नखरा बड़ा खाने-पीने में



बच्चों की खाने की आदतें बिगड़ रही हैं। अनाश-शनाप खाने वाले बच्चों पर एक पड़ताल।

13 साल की निखिला आनंद नोएडा के अपमार्केट पब्लिक स्कूल में पढ़ती है। निखिला जब स्कूल में प्रोअर के लिए जाती है तो अक्सर उसे चक्कर आने लगते हैं और वह बेहोश हो जाती है। डॉक्टर ने उसकी जांच की तो पाया कि उसका हीमोग्लोबिन का स्तर काफी कम है। तीर की तरह दुबली-पतली निखिला खाने के मामले में काफी ना-नुकुर करती है और खाने की मेज पर उसकी मां और उसमें हमेशा तकरार चलती रहती है। उसकी खाने की इस आदत से उसमें लौह तत्व की कमी की वजह से एनीमिया हो गया है। दूसरी तरफ 12 साल का रितिक घोष उच्च कॉलेस्ट्रोल से परेशान है और उसे अब रोजउठाकर फुटबाल खेलने की हिदायत है। रोहित का मोटापा पूरी तरह से उसके अनियमित और गलत खान-पान से जुड़ा हुआ है। रोहित सारे जंक फूड्स खाने का शौकीन है, पर उसे फल-सब्जी खाने के नाम पर काफी परेशानी होती है। खाने में उसके काफी नखरे होते हैं।सर गंगाराम हॉस्पिटल, नई दिल्ली को शिशु और पेट रोग विशेषज्ञ नीलम मोहन के मुताबिक, 'सबसे ज्यादा परिजन इसी शिकायत के साथ हमारे पास आते हैं, कि उनका बच्चा ढंग से खाता-पीता नहीं है।

'मैक्स हेल्थकेयर, नई दिल्ली के शिशु रोग विशेषज्ञ राहुल नागपाल साफ कहते हैं, 'जितने दौलतमंद परिजन हैं, उतनी ही गंभीर समस्या बनने लगती है।' मैंने देखा है कि संपन्न घर के माता-पिता खूब खिलाने की कोशिश करते हैं, पर बच्चे उतना ही खाने-पीने से घृणा करते हैं।' इसे हमें 'गरीबी से त्रस्त अमीर बच्चे' कह सकते हैं। इस आदत के प्रभाव भारतीय बच्चों में दिखाई देने लगे हैं।

बुरे प्रभाव

नई दिल्ली स्थित पोषण विशेषज्ञ ईषी खोसला कहती हैं कि खाने में मां-बाप को परेशान करने वाले बच्चों का स्टेमिना काफी कम होता है। उनकी एकाग्रता क्षमता भी घट जाती है और बाल व त्वचा पर कुप्रभाव नजर आने लगता है। वे कहती हैं कि 11 साल की उम्र तक खाने की जो आदतें बन जाती हैं, वह ताउम्र बनी रहती है। डॉ. नागपाल कहते हैं 'अध्ययन बताते हैं कि जिन बच्चों को दिन की शुरुआत में ग्लूकोज की कमी होती है उनमें 'लर्निंग डिसऑर्डर' की संभावना बढ़ जाती है। चुन- चुनकर खाने वाले बच्चों में विटामिन और खनिजों की कमी होती है। उनका विकास भी इससे प्रभावित हो जाता है। अधिकतर मामलों में इससे 'नियोफोबिया- नए खाने से डर' की आशंका बन जाती है। अगर बचपन में बच्चों में स्वास्थ्यपरक भोजन के प्रति रुचि जागृत की जाए तो आगे भयंकर बीमारियों जैसे डायबिटीज, हाइपरटेंशन की संभावना कम हो जाती है।इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल, नई दिल्ली के शिशु- पेट रोग विशेषज्ञ अनुपम सिबल के अनुसार 'इस पूरी समस्या का जन्म बचपन से ही शुरू हो जाता है। जब बच्चे का दूध छुड़ाया जाता है, तो यह समस्या सामने आती है।'

वजह खास है

अगर बचपन में बच्चे का दूध छुड़ाने में मां कोताही बरतती है, तो आगे चलकर बच्चे के लिए खाने पीने की आदतें बिगड़ने की आशंका बढ़ जाती है। कुछ माताएं अपने छोटे बच्चे को भूख से ज्यादा बहुतसी चीजें खिलाती ही जाती हैं, इस वजह से बच्चे में भोजन के प्रति घृणा पैदा होने लगती है। कुछ मांएं दूध छुड़ाने के बाद भी लगातार तरल चीजें ही बच्चों को खिलाती हैं। इस वजह से भी आगे चलकर बच्चों में तरल, आसानी से खाया जाने वाली चीजों की आदत पड़ जाती है।कुछ परिजन तो खाने के समय को मनोरंजन का समय मानते हैं और टीवी, खिलौने दे देते हैं और सोचते हैं कि इन चीजों से बहलकर बच्चा खूब खाएगा। पर होता इससे उलट है। बच्चे खाना तो खाते नहीं है बल्कि लगातार टीवी और खिलौने मांगते रहते हैं। बच्चों के दांत निकलना, गले में दर्द, बंद नाक और पेट में खराबी होने की वजह से बच्चे हमेशा खाने से नाक-मुंह सिकुड़ने लगते हैं। पर यह कुछ ही समय की समस्या रहती है। इस दौरान अगर बच्चों को जबर्दस्ती खिलाया जाता है, तो आगे चलकर समस्या बढ़ जाती है और बच्चा भोजन से दूर भागने लगता है। जो मां-बाप हर वक्त अपने बच्चों के पीछे खाने-पीने को लेकर पड़े रहते हैं, उनमें यह समस्या अधिक होती है। डॉ. नागपाल कहते हैं '90 फीसदी मामलों में जबर्दस्ती भोजन खिलाने की वजह से ही बच्चे खाने में लापरवाह हो जाते हैं।'

सहज समाधान

डॉ. सिबल के मुताबिक यह समस्या काफी आम है। परिजनों को पूरी स्थिति समझनी चाहिए और काफी धैर्य से काम लेना चाहिए। जल्दबाजी से इस परेशानी का हल नहीं ढूंढा जा सकता। काउंसलिंग इसमें मददगार साबित हो सकती है। अगर आपका बच्चा ढंग से खाता नहीं है, तो उसे भूख बढ़ाने की दवा देना सही उपाय नहीं है। खोसला समस्या को जल्द से जल्द पहचानने पर जोर देते हैं। अध्ययन बताते हैं कि खान-पान की आदतों के निर्माण का सबसे सही समय 3 साल की उम्र होता है। सबसे पहले परिजनों को इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि यह समस्या पैदा किस वजह से हो रही है। इसके बाद परिजनों को आराम से, बिना दुखी हुए बच्चे को समझना चाहिए।खाने की मेज से जुड़े एक आधारभूत तथ्य पर अधिकतर डॉक्टर सहमत हैं कि खाना परोसने के 45 मिनिट के अंदर खाने की मेज साफ हो जानी चाहिए और फिर भोजन 3 घंटे बाद ही देना चाहिए। डॉ. नागपाल कहते हैं कि पूरे परिवार को मिलकर एक साथ भोजन करना चाहिए। अध्ययन बताते हैं कि जो बच्चे खासकर किशोरावस्था में प्रवेश करने वाले, नियमित रूप से परिवार के साथ खाना खाते हैं, उनमें फाइबर कैल्शियम, आयरन और दूसरे जरू री विटामिनों की कमी नहीं होती। अगर बच्चा कम मात्रा में भोजन करता है, तो परिजनों को उसी मात्रा में भोजन के जरूरी तत्वों के समावेश की कोशिश करनी चाहिए। उदाहरण के तौर पर बच्चा सिर्फ एक रोटी खाता है तो गेहूं के आटे की जगह उसे सोया या बेसन के आटे की रोटी खाने को दें और इसमें सब्जियां भर दें।

क्या करें-

माता- पिता को बच्चों के सामने खान-पान के मामले में बुराई करने की बजाय खुद का आदर्श स्थापित करना चाहिए। नियमित परिवार के भोजन की योजना तैयार करनी चाहिए।

- अगर आप खुद खूब फल-सब्जी और चपातियां खाते हैं, तो बच्चा भी आपसे सीखकर खाना खाएगा। खाना खाते वक्त टीवी ना देखें।

भोजन को आकर्षक बनाकर पेश करें। जिस खाने को बच्चा बहुत पसंद करता है, उसमें पौष्टिक और कम पसंद करने वाली चीजों का मेल करके भोजन में पेश करें।

- भोजन बनाने, खरीदने में बच्चे को भी शामिल करें। उससे खाने की लिस्ट बनाएं और अलग-अलग ढंग से सब्जियां जैसे- लाल (टमाटर), हरा (मटर), नारंगी (गाजर), पीला (मक्का) चुनने को कहें।- कभी भी भोजन को पुरस्कार या दण्ड के तौर पर न दें।

ऐसा न कहें 'अपनी गाजर खाओ, तभी आइसक्रीम मिलेगी।'

- सब्जियों को सूप, रोटी, मसाला डोसा, चावल, नूडल्स, पास्ता, मैदा, सलाद, चटनीऔर सॉस के साथ मिलाकर पेश करें।

- उसे हाथों से खाने के लिए प्रेरित करें।

- बच्चों को बच्चों या उसके दोस्तों के साथ खाना खिलाएं।

- दूध और ज्यूस ज्यादा ना दें।

- भोजन का समय नियमित रखें। बच्चे के भोजन में उसकी पसंदीदा चीजें भी परोसते रहें।

- अगर कुछ खास चीजें उसे पसंद नहीं है, तो उसके एवज में उतनी ही मात्रा के दूसरे पोषक तत्व दें। सारे डॉक्टर्स और न्यूट्रीशियन्स खान-पान की समस्याओं से ग्रस्त बच्चों के लिए अभिभावकों को रचनात्मक तरीके से भोजन को पेश करने की वकालत करते हैं।

खान-पान की समस्या से ग्रस्त बच्चों की समस्या सुलझाने के लिए इंटरनेट पर कुछ किताबें भी मौजूद हैं-1. आई विल नेवर नॉट एवर ईट ए टमाटो लेखक- लॉरेन चाइल्ड

2. फूसी ईटर्स रेसिपी बुक लेखक- अन्नाबेल करमेल

3. वन बाइट वॉन्ट फिल यू लेखक- एन्न हॉड्जमैन एंड रोज चास्ट

4. प्रीटेंड सूप एंड अदर रियल रेसिपील लेखक- मोली काटजेन एंड एल एल हेंडरसन।

-आशीष जैन

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