12 September 2008

पापा मेरे पापा

विशाल वृक्ष के साए में जिस तरह हर मौसम की मार से महफूज नन्हे पौधे बेफिक्री से झूमते हैं और हवा-पानी पाकर बढ़ते जाते हैं। उसी तरह जिंदगी के संघर्षों की तीखी धूप से हमें राहत देता है पिता का प्यार। ज्यों ज्यों हम बड़े होते जाते हैं, उनके वात्सल्य की गहराई समझ आती जाती है। उम्र के हर दौर में हमें याद आता है पिता के साथ हुआ अनमोल लेन-देन। कुछ इसी तरह की यादों के जरिए अपने दिल की बात कह रहा है एक युवक।

आज मैं अपनी उम्र के 30 बसंत देख चुका हूं। इतने सालों में कई चीजें बदल गईं, कई अच्छे-बुरे दौर गुजर गए पर एक चीज कभी नहीं बदली। वह है मेरे पिता का स्नेह, दुलार, विश्वास और उनकी बांहों में मिली सुरक्षा, जो आज भी हर मुश्किल समय में मुझे हमेशा महसूस होती है। मुझे धुंधली सी याद है, जब मैं बहुत छोटा था। उस वक्त पिताजी मुझे अपनी उंगली पकड़कर धीरे-धीरे चलना सिखाते थे। मैं कई बार गिरता, पर हर बार वे मुझे संभाल लेते और बदले में मैं उन्हें एक प्यारी सी मुस्कान दे दिया करता था। वे मुझे कभी गिरने नहीं देते थे। शायद इसीलिए मेरे नन्हे कदम जल्दी ही सध गए और मैं कब दौड़ने लगा, पता ही नहीं चला। जब मैं चार साल का हुआ, तो अपने पापा का हाथ पकड़कर पहली बार सहमता हुआ स्कूल गया। पापा मुझे वहां छोड़कर जा रहे थे, तो मैं दौड़कर वापस उनके पास आया और उन्हें कसकर पकड़ लिया। पापा ने मुझे प्यार से समझाया और मैं मान गया।

जब पापा साइकिल लाए
जब कुछ बड़ा हुआ और मैंने 12 साल की उम्र में साइकिल की जिद की, तो पापा मेरे लिए तुरंत बाजार से सुंदर सी साइकिल लाए थे। मैं दिन भर उस पर बैठकर पार्क के चक्कर लगाता रहता और पापा को बताया कि मैं इससे पूरी दुनिया का चक्कर काटूंगा। पापा भी मेरी पीठ थपथपाकर कहते, 'क्यों नहीं बेटा, जरूर चक्कर लगाना पूरी दुनिया का।'

मैंने गिफ्ट दिया
उसी दौरान एक बार पापा मेरे लिए पेंसिल कलर लेकर आए थे। मैंने उनसे घर की पूरी दीवारें रंग दी थीं। बाद में मुझे लगा कि पापा डांटेंगे। पर पापा जब ऑफिस से आए, तो पीठ पर हाथ रखकर मुस्कुराते हुए बोले, 'ड्रॉइंग बहुत अच्छी करते हो, पेंटर बनने का इरादा है क्या?' मैंने कुछ नहीं कहा और अपने कमरे से एक पेपर लाकर पापा से बोला,'यह रहा आपका गिफ्ट।' पापा ने पेपर देखा। मैंने उसमें पापा की ही पेंटिंग बना रखी थी। उन्होंने मुझे गले लगा लिया। उस वक्त मुझे लगा, मानो पूरी दुनिया भर की खुशियां एक ही पल में मुझे मिल गई हों।

उन्हें लिखा पहला खत
जब मैं 15 साल का हुआ, तो एक समर कैम्प के लिए दस दिन के लिए अपने शहर जयपुर से दूर जाना पड़ा। उस वक्त पापा ने अपने हाथों से मेरे लिए बैग जमाया और मिठाई का डिब्बा भी रखा और कहा, 'घबराना मत, मन लगाकर चीजें सीखना।' मैं घर से दूर तो जा रहा था, पर मन ही मन उनसे बिछुड़ने का गम था। वहां जाकर मैंने पिताजी को एक चिट्ठी लिखी। वह चिट्ठी आज भी पिताजी मुझे दिखाते हैं कि किस तरह मैंने अपने बचकाने शब्दों में ढेर सारा प्यार उंडेला था।

कहां खोए हो बेटा !
जब बचपने से जवानी की दहलीज पर कदम रखा, तो पड़ोस में रहने वाली हमउम्र लड़की को पसंद करने लगा। रात-दिन उसी के ख्यालों में खोया रहने लगा। एक दिन जब पापा ने पूछा, 'बेटा, कहां खोए रहते हो? कोई बात है क्या?' तो मन की बात जुबान पर आ ही गई। मैंने डरते-डरते पापा को उसके बारे में बताया। पर उस वक्त भी पापा के चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी। उन्होंने अपना हाथ मेरे कंधे पर रखा और कहा, 'बेटा, वह अच्छी लड़की है, पर इस उम्र में होने वाली आकर्षण स्थायी नहीं होता। अभी तुम्हारी उम्र करियर की तरफ ध्यान देने की है। उम्र के इस दौर में अगर तुम बहकोगे, तो खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारोगे।' पापा ने बताया कि क्यों मुझे इस उम्र में वह अच्छी लगती है। मुझे क्या करना चाहिए। इस समझाइश से पापा के लिए मेरे मन में बसी इज्जत और भी बढ़ गई। उस दिन से उनका व्यकि्तत्व मुझे बहुत विशाल लगने लगा।

रातभर जागते थे
जब मैंने 18 साल की उम्र में एम्स में डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए प्रवेश परीक्षा के लिए तैयारी शुरू की, तो पापा भी मेरे साथ रात भर जागते रहते थे। मेरी छोटी-छोटी बातों का ख्याल रखते थे। वे मेरा हौसला बढ़ाते रहते थे। मैंने भी मन ही मन ठान लिया था कि मेडिकल कॉलेज में दाखिला लेकर दिखाना है। जिस पल मेडिकल कॉलेज में एडमिशन की बात पिताजी को पता लगी, उनकी आंखों से आंसू बह निकले थे। इतना संतोष, इतना गर्व उनके चेहरे पर देखकर लगा कि वाकई मेरे पिताजी दुनिया के सबसे अच्छे पिता हैं। कुछ दिनों बाद मैं एम्स में आ गया और पढ़ाई में रम गया। फिर तो छुट्टियों में ही मिलना होता। टेलीफोन और खत ही हमारे बीच संवाद के सेतु का काम करते थे। जब-जब मैं घर आता, तो रात को पापा के पास आकर लेट जाता। उनका सान्निध्य पाकर लगता कि दुनिया की कोई परेशानी मुझे कमजोर नहीं कर सकती। हम घंटों पक्के दोस्तों की तरह बातें किया करते। बात करते-करते हम कब नींद के आगोश में डूबते, पता ही नहीं चलता।

डांट में था सबक
जब कभी दिल्ली से आता, तो उनके लिए कुछ न कुछ जरूर लेकर आता। पर जो चीज आज भी पिताजी के पास रखी है, वह है- उस वक्त मेरा लाया हुआ चश्मा। न जाने क्यों मुझे हर वक्त उनकी चिंता लगी रहती थी। तभी तो एक बार उनकी बीमारी की खबर लगते ही मैं एग्जाम बीच में ही छोड़कर चला आया था। हालांकि बाद में पापा ने बहुत डांटा था, पर मैं कैसे खुद को रोक सकता था। उनकी डांट में एक सबक था।

मैं हूं ना...
जब 24 साल की उम्र में पढ़ाई पूरी की, तो गांव आकर ही क्लिनिक खोली। उस वक्त पिताजी पूरे गांव में शान से कहते थे, 'मेरा बेटा डॉक्टर है। इलाज बहुत अच्छा करता है।' और जब कभी कोई मरीज सही होकर उनसे मेरी थोड़ी सी भी तारीफ कर देता, तो उनका सीना गर्व से चौड़ा हो जाता था। उन दिनों हम किराए के मकान में रहते थे। एक दिन जब मेरी शादी की बात चली, तो लड़की वालों ने कहा, 'आपका खुद का घर तो है नहीं, ऐसे में हम अपनी बेटी आपको कैसे दे दें?' पिताजी को यह बात चुभ गई। रात को बातों ही बातों में मुझसे कहने लगे,'मैं ताउम्र क्लर्क की नौकरी करता रहा। कभी सोचा ही नहीं कि खुद का मकान भी बनवाना है।' यह कहते-कहते वे थोड़ा भावुक हो गए। उस वक्त मैंने उन्हें गले लगाते हुए कहा, 'पापा, चिंता मत करो। मैं हूं ना। सब ठीक हो जाएगा। आपका मकान भी बनेगा और मेरी शादी भी धूमधाम से होगी।' उस वक्त उनके चेहरे पर वही भाव थे, जो कभी उनके मुझे सहारा देने पर होते थे।

पूरी की इच्छा
कुछ दिनों बाद ही उन्होंने मेरी शादी कर दी। बहू को आशीर्वाद देते वक्त उन्होंने कहा, 'मेरा बेटा मेरे लिए एक 'बेटी' लेकर आया है।' शादी के कुछ समय बाद मां का देहांत हो गया। पिताजी दुखी थे पर मुझसे कभी कुछ नहीं बोले। मैंने पिताजी को धीरज बंधाने की पूरी कोशिश की। हमने चारों धाम की यात्रा करने की सोची। मैं, मेरी पत्नी और पापा चारों धाम की यात्रा पर निकल गए। पिताजी की शुरू से ही चारों धामों के दर्शन की इच्छा थी, सो वह भी पूरी हो गई। जब हमारे घर 'नया मेहमान' आया और पिताजी दादाजी बने, तो उन्होंने पूरे गांव को न्योता दिया। ढेरों खुशियां मनाईं।

बस आपका प्यार चाहिए
मैं सोचता कि पिताजी ने मुझे इस काबिल बनाया और मैं किस तरह अपना 'पितृ ऋण' चुकाऊं? कुछ ही दिन पहले की बात है। मेरा जन्मदिन था। मैं 30 साल पूरे कर चुका था। शाम को पार्टी हुई। पार्टी के बाद पिताजी मेरे पास आए और उन्होंने कहा, 'बता, तुझे क्या गिफ्ट दूं?' मैंने कहा, 'मुझे तो बस आपका प्यार चाहिए और कुछ नहीं।' इसके बाद उन्होंने एक कागज का पुर्जा मुझे थमा दिया। उनके जाने के बाद मैंने उसे पढ़ा। उसमें लिखा था, 'बेटा, तू मेरी पहली और आखिरी पूंजी है। सदा ऐसा ही खुश रहना।' यह पढ़कर मेरी आंखें छलक पड़ीं।

संतुष्ट हूं मैं
अगले दिन मैं पिताजी के साथ सैर पर जा रहा था। वे लाठी टेकते हुए चल रहे थे। एकाएक एक पत्थर से उनकी लाठी टकराई और वे लड़खड़ा गए। तभी मैंने उन्हें संभाल लिया। उस समय मैं उनके चेहरे पर वही मासूम मुस्कान देख रहा था, जो आज से लगभग तीस साल पहले मैंने उन्हें दी होगी जब उन्होंने मुझे संभाला था। आज मैं संतुष्ट हूं कि मुझे मौका मिला अपने पिता की सेवा करने का और बचपन में मिले दुलार का अंश भर लौटाने का।

-आशीष जैन

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