30 July 2008

तेरी यारी जान से प्यारी


एक बुजुरग इंसान याद कर रहा है अपनी जवानी के दिनों में अपने दोस्तों से जुड़ी यादें।

समय बदला है। पर एक चीज आज भी जिंदा है, वो है मेरे यारों की यादें। क्या और कितना कहूं उनके बारे में। दोस्त शब्द याद आते जेहन में सैंकड़ों बातें एक साथ घूमने लगती हैं। अंधेरे में जो किरदार जुगनू का होता है, कुछ-कुछ वैसा ही काम हमारी जिंदगी में दोस्ती का होता है। यह तो वह मुस्कान है, जो सदा चेहरे पर जमी रहना चाहती है। दिल की जुबां को अगर दोस्ती का नाम दें, तो शायद एक हद तक ठीक ही होगा। दोस्ती वो स्परश है, जो एक बार तो रोते हुए इंसान को हंसा दे। कैसा रिश्ता है यह? कितना कुछ अपने आप में समेटे हुए? हजारों बार इसे शब्दों में बांधने की कोशिश की, पर हर बार अंदर से आवाज आई कि नहीं बांध पाऊंगा, चंद अल्फाजों में इस एहसास को। पर फिऱ भी दिल को तसल्ली देने के लिए कोशिश करता हूं और खुद को समझा लेता हूं कि ये कोशिशें तो बहाना है, असल में तो मन की रची-बसी यादों को आपके सामने रखना है।
अक्सर हम सभी दोस्त चाय की थड़ियों पर बैठकर एक बात दोहराया करते थे, यारो, ऊपरवाले ने हमारे लिए हर रिश्ता तय करके भेजा है, माता-पिता, भाई-बहन। पर अकेला यह नाता ऐसा है, जो हमने खुद ने बनाया है। जान-बूझकर बनाया है। इस संबंध की आंच को कभी ठंडी मत होने देना। सही भी तो है, माता-पिता को हमने चुना थोड़े ही है। हां, दोस्त जरूर अपनी मरजी से बनाए हैं। दोस्ती तो उस फूल की तरह जो पतझड़ के मौसम में भी अपनी पूरी महक के साथ फिजा में खुशबू बिखेरता रहता है।
एक-दूसरे के सुख-दुख, प्यार-जज्बात, कोशिशों में हमारी दुआएं शामिल रहती। दोस्त दरिया की तरह सदा मेरे साथ बहते, उन्होंने यह कभी नहीं पूछा कि हमारी राह कहां है? मुझे तो बस यही सुकून था कि मेरे हर कदम पर दोस्तों का साथ है। जिंदगी की कड़ी धूप में जब कभी खुद को बुझा-बुझा सा महसूस करता, ये दोस्त ही मेरी लौ को जलाए रखते। आज मैंने जिंदगी की हर खुशी, हर मंजिल हासिल कर ली है। दुनिया के सामने में चाहे लाख कहूं कि मैंने अपने बूते ये सब चीजें पाईं हैं, पर असलियत यह है कि कहीं न कहीं दोस्ती की मजूबत रोशनी मेरे पास नहीं होती, तो मैं मंजिल तो क्या, असल राह भी कभी नहीं पकड़ पाता। मेरे लिए क्या गलत है और क्या सही, इस सबका फैसला मेरे दोस्तों से बेहतर कौन कर सकता था। उन्हें मेरे मन की हर दशा औऱ दिशा पता थी, तभी तो वे मन की हर बात को बेहद आसानी से भांप लेते थे। जब भी मैं अपने दिल के सवालों को समझने की कोशिश में अंदर तक जाता, इसका सबब मेरा कोई न कोई दोस्त ही बनता था। सितारों की आसमान से दोस्ती होती है, तभी तो वे हर रोज तयशुदा समय पर अपने मित्र से मिलने पहुंच जाते हैं। कुछ ऐसा ही याराना हमारा भी था, पता नहीं कैसे पता लगा लेते थे कि कौन दोस्त किस वक्त कहां होगा। दिल से एक बार पुकारा नहीं कि दौड़े चले आते थे। उस वक्त मोबाइल फोन तो थे नहीं , बस धड़कनों की घंटियां थी, जो हर हाल में अपनी बात उन तक पहुंचा देती थी। दोस्ती की मुस्कान सदा खिली रहना चाहती है।
चाहे माता-पिता से लाख बातें छुपा लें, पर दोस्तों से नजरें मिलाते ही वे पकड़ लेते थे कि कहां झूठ बोल रहा है? फिर उनके सामने परत-दर-परत मन की बात रखते। नदी जिस तरह समंदर से मिलने की आस में पगली रहती है, उसी मानिन्द मैं भी दोस्त के घरों पर गाहे-बगाहे पहुंच जाता था और नीचे खड़ा होकर सीटी बजाने लगता। वे एक पल में ही मेरी सीटी की आवाज सुनकर समझ जाते कि उनका बुलावा आ गया है। फिर जो हम मिलते, तो लगता कि बरसों बाद मिलें, आज ही दुनियाभर की सारी बातें पूरी करके दम लेंगे।
इस एहसास को मैं कभी उम्र से नहीं बांध पाया। हर किसी को दोस्त बना लेने की फितरत सी थी मुझमें। जैसे एक बुजुरग बच्चों के बीच जाकर बच्चा बन जाता है, उसी तरह मैं भी हर उम्र के दोस्तों के बीच घुल-मिल जाया करता था। कृष्ण और सुदामा की दोस्ती के किस्से तो बचपन से सुन रखे थे, पर जब दोस्तों के साथ मिलकर शोले देखी, उसी दिन से जय-वीरू मेरे लिए आदरश बन गए।
दोस्तों के साथ दिल की गुफ्तगू के सिवा मस्ती करने की भी कोई छोर नहीं थी। कभी किसी दोस्त से मसखरी करने का दिल होता, तो उसे किसी लड़की के नाम से झूठ-मूठ का लवर लैटर थमा देते। उस लैटर में लिखा होता कि मैं तुमसे फलां दिन फलां बगीचे में तुम्हारा इंतजार कर रही हूं। लाल शरट और सफेद पैंट पहनकर आ जाना। दोस्त भी मन ही मन खुश होकर बिना हमें बताए, उससे मिलने चला जाता। और हम सब दोस्त वहां पहुंचकर उससे पूछते, भई किस का इंतजार कर रहे हो? अनिता का? वो तो एकदम चौंक जाता और पूछता तुम्हें कैसे पता? फिर जब हम उसे सच्चाई बताते तो उसकी सूरत देखने लायक हो जाती।
दोस्तों के साथ बिता हर पल मेरे लिए किसी त्योहार से कम नहीं होता। हर रोज खुशी के दिए जलते औऱ हर समय उमंगों के रंगों से सराबोर रहा। दोस्ती एक बार बनकर खत्म नहीं हो जाती। दिन ब दिन बढ़ती है, फलती-फूलती है और रोज अपनी मिठास से दिलो-दिमाग पर छा सी जाती है। आज भी मैं दोस्त बनाता हूं। अब भी पुराने दोस्तों के साथ महफिल जमती है। बचपन से शुरू होकर दोस्ती के नित नए आयाम बनते चले गए। बचपन में माता-पिता को दोस्त के रूप में देखा, बड़ा हुआ तो सहपाठियों में सखा की झलक पाई और फिर पवित्र अगि्न की दोस्ती ने दो दिलों को मिला दिया और फिर बच्चों से होते हुए आज मैं अपने नाती-पोतियों से मित्रता का धरम निभा रहा हूं। मैं तो ऊपर वाले से यही प्रारथना करता हूं कि यारों की यारी सदा फलती-फूलती और सलामत रहे।

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