09 January 2009

उम्र जुदा, जज्बा एक

सिक्कों की खनक से लेकर सितारों की चमक तक, हर जगह भारतीय मूल की महिलाएं छाई हुई हैं। 52 वर्षीय मंजु गनेरीवाला से लेकर 18 साल की नंदिनी शर्मा का जज्बा अपने सपनों को साकार करना है।



अभी आसमां बाकी है

भारतीय मूल की मंजु गनेरीवाला बनीं अमरीका के वर्जीनिया राज्य की वित्त मंत्री।अब तक वे वर्जीनिया के गर्वनर को बजट तैयार करने, राजस्व का अनुमान लगाने, ऋण जारी करने जैसे कामों में सलाह देती रही हैं। ये हैं भारतीय मूल की मंजु गनेरीवाला। उन्हें अमरीका के वर्जीनिया राज्य का वित्त मंत्री (टे्रजरर) बनाया गया है। वे जुलाई 1985 से राज्य सरकार के साथ काम कर रही हैं। जून 2000 से जनवरी 2006 तक उन्होंने मेडिकल असिस्टेंस सर्विसेज विभाग में वित्त और प्रशासन के लिए बतौर डिप्टी डायरव्क्टर अपनी सेवाएं दीं। 2006 से वे वित्त विभाग में उपमंत्री के पद पर थीं। जनवरी 2009 से वे वर्जीनिया राद्गय के ट्रेजरी बोर्ड के अध्यक्ष के रूप में काम करेंगी। इसके तहत उनके पास 8 से 10 बिलियन डॉलर के निवेश और प्रबंधन की जिम्मेदारी रहेगी। उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती वित्तीय विश्लेषण और प्रबंधन के मामले में अमरीका के सबसे बेहतरीन राज्य वर्जीनिया के वर्चस्व को बनाए रखना है।

यादों में बसा है मुंबई

मंजु का जन्म महाराष्ट्र के अकोला में हुआ और मुंबई में पली-बढ़ीं। वडाला के छोटे से स्कूल से वर्जीनिया की वित्त मंत्री बनने तक का सफर काफी उतार-चढ़ाव से भरा था। मंजु ने यूनिवर्सिटी ऑफ बॉम्बे से वाणिद्गय से स्नातक किया है। इसके बाद उन्होंने आस्टिन स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास से एमबीए की डिग्री हासिल की। उनका पैतृक घर राजस्थान के झुंझुनू और ससुराल फतेहपुर में है। मुंबई में शिवाजी पार्क स्थित उनके घर में पिता राधेश्याम अग्रवाल और माता कलावती उनकी इस उपलब्धि से बेहद खुश हैं। मां कलावती कहती हैं कि पहले मंजु डॉक्टर बनना चाहती थी, पर घर के बड़े लोगों ने इसके लिए अनुमति नहीं दी। पर आज वह काफी अच्छी जगह पर है। मुंबई के बारे में खुद मंजु का कहना है कि मेरे बच्चे अक्सर मुझसे पूछते हैं, 'मुंबई से आपको इतना लगाव क्यों है? आप बार-बार मुंबई जाने की बात क्यों कहती हैं?' तो मेरा एक ही जवाब होता है कि मुंबई की गलियों में खेल-कूद कर ही मैंने बचपन गुजारा है और उस जगह को मैं ताउम्र नहीं भूल सकती।
प्राथमिकता कॅरियर को

मंजु के पिता राधेश्याम बताते हैं, 'वह हमेशा से ही अपने कॅरियर को प्राथमिकता देती आई है। सिर्फ हाउस वाइफ बनकर वह जिंदगी बसर नहीं करना चाहती थी। मेडिक्लेम पॉलिसीज के फंड जुटाने के छोटे से काम से शुरुआत करके आज वह इस पद तक पहुंची है।' मंजु के पति सूरी ने भी आस्टिन में यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास से पीएचडी की है। वे 'स्पैक्ट्रा क्विस्ट' के मालिक हैं। यह कंपनी मशीनों में आने वाली खामियों का पता लगाने के लिए विशेषज्ञ इंजीनियरों के लिए तकनीक विकसित करती है। 1976 में वह शादी करके अमरीका चली गई थीं। 52 वर्षीय मंजु के दो बेटे हैं। बड़ा बेटा राकेश अमरीकी सेना में लेफ्टिनेंट है और इराक से 15 महीनों के सैन्य अभियान से लौटा है। दूसरा बेटा ऋषि अभी यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन में इंजीनियरिंग का स्टूडेंट है।

नभ में चमकता नन्हा सितारा


भारतीय मूल की अमरीकी छात्रा नंदिनी शर्मा के नाम पर रखा गया है एक ग्रह का नाम।वे एक नन्हा सितारा बनकर चमकने को तैयार हैं। जी हां, सचमुच का सितारा। भारतीय मूल की अमरीकी छात्रा नंदिनी शर्मा के नाम पर एक ग्रह का नाम '23228 नंदिनी शर्मा' रखा गया है। मूलतः असम की नंदिनी को यह सम्मान इंटेल इंटरनेशनल के 'विज्ञान औप इंजीनियरिंग मेले 2007' में माइक्रोबॉयलोजी प्रोजेक्ट के लिए विजेता बनने पर दिया गया है। इस ग्रह की खोज अमरीका की लिंकन लैब नियर अर्थ एस्टेरॉइड रिसर्च टीम ने 21, नवंबर 2000 में की थी।


उड़ान ऊंची है

नंदिनी अभी हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से मोलिक्यूलर बॉयलोजी की पढ़ाई कर रही हैं। वह विज्ञान और इंजीनियरिंग मेले में 2005 से 2007 तक तीन बार विजेता रह चुकी हैं। विज्ञान संबंधित खोजों, बायोमेडिकल और कैंसर के क्षेत्र में उन्होंने कई रिसर्च की हैं। नंदिनी की ख्वाहिश है कि वह माइक्रोबॉयलोजी के क्षेत्र में ही अपने शोध कार्य जारी रखें। वे अभी स्वास्थ्य से जुड़ी जोखिमों का हल निकालने के लिए शोध कार्य कर रही हैं। उनका शोध प्राकृतिक फूड के प्रिजरवेशन पर आधारित है। अपने शोध से उन्होंने इस बात को साबित किया है कि अदरक को कृत्रिम फूड प्रिजरवेटिव्स के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। 18 वर्षीय नंदिनी अभी असम के बारपेटा जिले के पाठशाला में अपने दादा-दादी से मिलने आई हैं। पिता गिरीश शर्मा अमरीका की एक कंपनी में मुख्य वैज्ञानिक के पद पर नियुक्त हैं। वह अमरीका के कानसास के ओवरलैंड पार्क में पिता गिरीश शर्मा, मां मीनाक्षी और भाई अरूप के साथ रहती हैं।
शौक हैं कई

धाराप्रवाह स्पेनिश भाषा बोलने वाली नंदिनी को टेनिस खेलने का शौक है। उन्हें संगीत से बहुत प्यार है। छह साल की उम्र से वह पियानो बजा रही हैं और इससे संबंधित कई प्रतियोगिताएं भी जीत चुकी हैं। साथ ही साथ सात साल की उम्र से वह नृत्य का अभ्यास भी कर रही हैं। भरतनाट्यम और असम के लोकप्रिय बीहू नृत्य में उनकी खासी दिलचस्पी है। वह समाज सेवा के लिए एक स्वयंसेवी संगठन 'आईईओपी' भी बना चुकी हैं।





-आशीष जैन

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मैं हूं नीलगगन की रानी


रंग-बिरंगी पतंगों में न जाने क्या जादू है? जी चाहता है कि पतंगबाजी के गुर जिंदगी में भी समा जाएं, तो क्या खूब रहे।
दुबले-पतले से रहमान चाचा, हमारे लिए पतंगों के सौदागर हैं। दिनभर लगे रहते हैं कांच के चूरे को डोर पर घिसने में। कागज के रंग-बिरंगे टुकड़ों को बारीक सी सींक से सहारा देकर आकार देते हैं उड़ान की परी पतंग को। ये कागज के चंद टुकड़े ही उनकी संतान हैं। पान तारा, चांद तारा, चिरैया, बेगम और कनकौवा, न जाने कितनी सारी पतंगें हैं उनके पास। किसी डोर को सद्दा बना दिया, तो किसी पर मेहनत कर उसे मांझे में ढाल दिया। उनके घर की चूल्हे की परवाह ये पतंगें ही तो करती हैं। हम सब घेरे रहते हैं उन्हें मुफ्त का मांझा पाने को। चाचा बताते हैं कि बच्चों, इन कागज के टुकड़ों को यूं ही न समझना, इन में भी रूह समाई रहती है। इस रूह को तसल्ली तभी मिलती है, जब ये हवा में पहुंचती है और झूमकर आसमान पर राज कर लेती है। चाचा की असल मेहनत रंग लाती है मकर संक्रांति के दिन।

मांझे में लिपटा मन
'चलो, भई राजू, गीता, छुटकी। सब चढ़ जाओ अपनी-अपनी अटरिया पर। ले आओ चकरी। मांझे की चकरी, सद्दे की चकरी और पतंगों का ढेर। हो जाओ जंग के लिए तैयार। आज तो बिल्लू को मजा चखाकर रहेंगे। कमबख्त ने पिछली बार मांझा दोहरा करके पतंग काटी थी ना, इस बार मजा चखाएंगे उसे।' कुछ-कुछ इसी तरह की आवाजें हर छत से आने लगती। हम जब छत पर पतंग उड़ाने चढ़ते, तो एक बात ठान लेते कि चाहे हम पतंग काटें या अपनी कटे, शोर खूब मचाना है। अलसुबह की हमारी धमाचौकड़ी के बीच बाबूजी की कुछ हिदायतें हमारे साथ होती, 'मुंडेर पर मत चढ़ जाना। सूरज सिर पर चढ़ जाए, तो नीचे आ जाना।' पर हमारी अक्ल में कुछ भी नहीं घुसता। पतंग की कन्नी बांधते वक्त ही लगने लगता कि देखते हैं इस पतंग की किस्मत में क्या लिखा है? क्या यही पतंग हमारी फतह का सेहरा लेगी या यह भी औरों की तरह निराश करव्गी। धीरे-धीरे जब छुटकी जिसे हम प्यार से मोटा बुलाते थे, हमारी पतंग को छुट्टी देती, तो पतंग ऊपर चढ़ने लगती और हम सबकी सांसें थम जाती। मन में बस एक ही बात रहती कि किसी भी तरह बस जीतना है। ढील से या खींच से, बस सामने वाले को धूल चटानी है। पहले-पहल हम सब मस्तमौला होकर पतंग उड़ाते थे। पतंगबाजी भी कोई कला है, इससे नावाकिफ। पर फिर चाचाजी ने समझाना शुरू किया, 'अगर आसमान पर खुद की पतंग को ही इतराते देखना है, तो कुछ पैंतरे सीखने होंगे। झुकना भी होगा। हवा के रुख को पहचान कर सही समय का इंतजार करना होगा। मांझा कितना ही अच्छा हो, इतराना मत। कुछ देर हवा के साथ बहना। लहरने देना और जब सामने वाला ज्यादा ही सीना ताने तो बस दिखा देना कि तुम क्या हो।' चाचाजी की ये बातें इंसानी जिंदगी पर भी लागू की, तो सौ फीसदी सही लगी। हां, खींच के नियम के लिए जान चाहिए, हाथों और फेफड़ों में। थोड़ी सी हड़बड़ी की, तो मांझे से हाथ में खून भी आ सकता है भई। चाहे हम बिल्लू को हराने की कितनी ही कोशिश करते, पर कभी उसकी तरह मांझे को दोहरा नहीं करा और न ही मांझे पर गांठें लगाईं। कई बार पतंगों पर पैबंद भी लगाए, पर उनकी उड़ान में कभी आड़े नहीं आए।
...वो कटवाया
कभी-कभी दूसरों की इठलाती पतंगों को देख मन में खयाल आता कि धोखा देकर नीचे से हथ्था मार दूं और उसकी पतंग को चित्त कर दूं। पर दूसरे ही पल मन कहता कि मजा तो सामने जाकर ललकारने में ही है। इसमें भी कोई शान है कि सिर्फ जीतने के लिए गलत पैंतरों का इस्तेमाल करूं। पतंग कटने के बाद अक्सर हम सब चकरी दोनों हाथों में लेकर अपने ही तरीके से गोल-गोल घुमाकर डोर समेटने लगते। पर धीरे-धीरे पतंगबाजी को जाना, तो उसूल समझ में आया कि हार को भी स्वीकार करना होगा, पेंच में अगर खुद की पतंग कट गई, तो खुद की हाथों से तोड़ दो डोर को। चंद पैसों की डोर को समेटकर अपनी हार के एहसास को ज्यादा मत करो। जीतने पर तो 'वो काटा' सभी कहते हैं पर 'वो कटवाया' कहकर हार को भी पूरी शान से मानो। पतंग हमेशा मुझसे कहती कि छुटकू, तुम भी चाहते हो ना कि बिना रोक-टोक के हमेशा आगे बढ़ते रहो, तो एक बात गांठ कर रख लो कि जैसे मैं हवा और डोर की मदद लेकर संतुलन साधती हूं, तुम्हें भी दुनिया में सबका साथ लेकर खुद को साधना है। आज भी मैं खूब पतंग उड़ाता हूं। पतंगों के संसार में मुझे अपने मन की उड़ान नजर आती है। याद आती है पतंग की तरह जोश के साथ पूरे होश से उड़ने की बात। हां, जिंदगी की टेढ़ी-मेढ़ी राहों में कभी-कभी लगता है कि मेरी पतंग ही सबसे ऊपर हो, सबसे शानदार पतंग, तो मैं हथ्था देता हूं या अपने मांझे को दोहरा कर दूसरों की पतंगों की राह में आडे़ आता हूं, धोखे से आगे बढ़ने की सोचता हूं, तो पतंगों के सबक को याद करके खुद को संभाल लेता हूं और निकल पड़ता हूं अपनी नई उड़ान की ओर।
- आशीष जैन

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