09 January 2009

मैं हूं नीलगगन की रानी


रंग-बिरंगी पतंगों में न जाने क्या जादू है? जी चाहता है कि पतंगबाजी के गुर जिंदगी में भी समा जाएं, तो क्या खूब रहे।
दुबले-पतले से रहमान चाचा, हमारे लिए पतंगों के सौदागर हैं। दिनभर लगे रहते हैं कांच के चूरे को डोर पर घिसने में। कागज के रंग-बिरंगे टुकड़ों को बारीक सी सींक से सहारा देकर आकार देते हैं उड़ान की परी पतंग को। ये कागज के चंद टुकड़े ही उनकी संतान हैं। पान तारा, चांद तारा, चिरैया, बेगम और कनकौवा, न जाने कितनी सारी पतंगें हैं उनके पास। किसी डोर को सद्दा बना दिया, तो किसी पर मेहनत कर उसे मांझे में ढाल दिया। उनके घर की चूल्हे की परवाह ये पतंगें ही तो करती हैं। हम सब घेरे रहते हैं उन्हें मुफ्त का मांझा पाने को। चाचा बताते हैं कि बच्चों, इन कागज के टुकड़ों को यूं ही न समझना, इन में भी रूह समाई रहती है। इस रूह को तसल्ली तभी मिलती है, जब ये हवा में पहुंचती है और झूमकर आसमान पर राज कर लेती है। चाचा की असल मेहनत रंग लाती है मकर संक्रांति के दिन।

मांझे में लिपटा मन
'चलो, भई राजू, गीता, छुटकी। सब चढ़ जाओ अपनी-अपनी अटरिया पर। ले आओ चकरी। मांझे की चकरी, सद्दे की चकरी और पतंगों का ढेर। हो जाओ जंग के लिए तैयार। आज तो बिल्लू को मजा चखाकर रहेंगे। कमबख्त ने पिछली बार मांझा दोहरा करके पतंग काटी थी ना, इस बार मजा चखाएंगे उसे।' कुछ-कुछ इसी तरह की आवाजें हर छत से आने लगती। हम जब छत पर पतंग उड़ाने चढ़ते, तो एक बात ठान लेते कि चाहे हम पतंग काटें या अपनी कटे, शोर खूब मचाना है। अलसुबह की हमारी धमाचौकड़ी के बीच बाबूजी की कुछ हिदायतें हमारे साथ होती, 'मुंडेर पर मत चढ़ जाना। सूरज सिर पर चढ़ जाए, तो नीचे आ जाना।' पर हमारी अक्ल में कुछ भी नहीं घुसता। पतंग की कन्नी बांधते वक्त ही लगने लगता कि देखते हैं इस पतंग की किस्मत में क्या लिखा है? क्या यही पतंग हमारी फतह का सेहरा लेगी या यह भी औरों की तरह निराश करव्गी। धीरे-धीरे जब छुटकी जिसे हम प्यार से मोटा बुलाते थे, हमारी पतंग को छुट्टी देती, तो पतंग ऊपर चढ़ने लगती और हम सबकी सांसें थम जाती। मन में बस एक ही बात रहती कि किसी भी तरह बस जीतना है। ढील से या खींच से, बस सामने वाले को धूल चटानी है। पहले-पहल हम सब मस्तमौला होकर पतंग उड़ाते थे। पतंगबाजी भी कोई कला है, इससे नावाकिफ। पर फिर चाचाजी ने समझाना शुरू किया, 'अगर आसमान पर खुद की पतंग को ही इतराते देखना है, तो कुछ पैंतरे सीखने होंगे। झुकना भी होगा। हवा के रुख को पहचान कर सही समय का इंतजार करना होगा। मांझा कितना ही अच्छा हो, इतराना मत। कुछ देर हवा के साथ बहना। लहरने देना और जब सामने वाला ज्यादा ही सीना ताने तो बस दिखा देना कि तुम क्या हो।' चाचाजी की ये बातें इंसानी जिंदगी पर भी लागू की, तो सौ फीसदी सही लगी। हां, खींच के नियम के लिए जान चाहिए, हाथों और फेफड़ों में। थोड़ी सी हड़बड़ी की, तो मांझे से हाथ में खून भी आ सकता है भई। चाहे हम बिल्लू को हराने की कितनी ही कोशिश करते, पर कभी उसकी तरह मांझे को दोहरा नहीं करा और न ही मांझे पर गांठें लगाईं। कई बार पतंगों पर पैबंद भी लगाए, पर उनकी उड़ान में कभी आड़े नहीं आए।
...वो कटवाया
कभी-कभी दूसरों की इठलाती पतंगों को देख मन में खयाल आता कि धोखा देकर नीचे से हथ्था मार दूं और उसकी पतंग को चित्त कर दूं। पर दूसरे ही पल मन कहता कि मजा तो सामने जाकर ललकारने में ही है। इसमें भी कोई शान है कि सिर्फ जीतने के लिए गलत पैंतरों का इस्तेमाल करूं। पतंग कटने के बाद अक्सर हम सब चकरी दोनों हाथों में लेकर अपने ही तरीके से गोल-गोल घुमाकर डोर समेटने लगते। पर धीरे-धीरे पतंगबाजी को जाना, तो उसूल समझ में आया कि हार को भी स्वीकार करना होगा, पेंच में अगर खुद की पतंग कट गई, तो खुद की हाथों से तोड़ दो डोर को। चंद पैसों की डोर को समेटकर अपनी हार के एहसास को ज्यादा मत करो। जीतने पर तो 'वो काटा' सभी कहते हैं पर 'वो कटवाया' कहकर हार को भी पूरी शान से मानो। पतंग हमेशा मुझसे कहती कि छुटकू, तुम भी चाहते हो ना कि बिना रोक-टोक के हमेशा आगे बढ़ते रहो, तो एक बात गांठ कर रख लो कि जैसे मैं हवा और डोर की मदद लेकर संतुलन साधती हूं, तुम्हें भी दुनिया में सबका साथ लेकर खुद को साधना है। आज भी मैं खूब पतंग उड़ाता हूं। पतंगों के संसार में मुझे अपने मन की उड़ान नजर आती है। याद आती है पतंग की तरह जोश के साथ पूरे होश से उड़ने की बात। हां, जिंदगी की टेढ़ी-मेढ़ी राहों में कभी-कभी लगता है कि मेरी पतंग ही सबसे ऊपर हो, सबसे शानदार पतंग, तो मैं हथ्था देता हूं या अपने मांझे को दोहरा कर दूसरों की पतंगों की राह में आडे़ आता हूं, धोखे से आगे बढ़ने की सोचता हूं, तो पतंगों के सबक को याद करके खुद को संभाल लेता हूं और निकल पड़ता हूं अपनी नई उड़ान की ओर।
- आशीष जैन

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