07 August 2009

सलामत रहे मेरा वीरा


कहते हैं कि दर्द की शक्ल चाहे जैसी हो, लेकिन इसकी कसक एक जैसी होती है। दर्द का एक सैलाब दलबीर कौर के दिल में भी उमड़ रहा है। यह दर्द है अपने भाई से जुदा होने का, उसकी जिंदगी को बचा पाने की नाउम्मीदी का। बीस साल हो गए, भाई सरबजीत सरहद पार पाकिस्तान की जेल में बंद है और किसी भी पल उसके जीवन की डोर टूट सकती है। लेकिन बहन दलबीर की बूढ़ी आंखों में उम्मीद की लौ आज भी झिलमिलाती है। तभी तो वे दुआ करती हैं कि वाहेगुरु......इतनी जिंदगी जरूर बाकी रखना कि मैं अपने भाई को वापस अपनी सरजमीं पर देख सकूं। आइए, राखी के इस पर्व पर एक बहन के हौसलों को मजबूती से थामने की कोशिश करें और यह दुआ मांगें कि उसकी दुआ जरूर कबूल हो।

'चंदा रे मेरे भैया से कहना, बहना याद करे...' दलबीर कौर के मोबाइल फोन पर बजती कॉलर ट्यून बरबस ही भाई-बहन के प्यार की याद दिलाती है। पाकिस्तान के जेल में बीस सालों से कैद है सरबजीत सिंह। इधर बहन दलबीर जी-जान से जुटी है कि उसकी फांसी की सजा माफ हो जाए। दलबीर बार-बार कहती है, 'मेरा भाई आतंकी नहीं है, उसको फंसाया गया है, वो बेकसूर है। पाकिस्तान सरकार उसे मंजीत बताकर झूठे केस में फंसा रही है।'
कोई बहन अपने भाई से न बिछुड़े
पिछले बीस सालों से दलबीर हर बरस रक्षाबंधन की थाली सजाती है, राखी खरीदती है, वीरा की पसंदीदा मिठाई भी खरीदती है, पर कलाई की जगह उसकी तस्वीर को राखी बांधकर दिल को दिलासा देती है। जब दलबीर का दबा हुआ दर्द आंसुओं की धार में बहता है, तो वे रुंधे हुए गले से कहती हैं, 'जब भाई साथ में था, तो मैं राखी से एक दिन पहले ही बाजार से राखी और मिठाई खरीद लाती थी, गुझिया बनाती थी। मैं उससे कहा करती थी कि जब तक मैं राखी न बांध दूं, कुछ मत खाना। उस दिन सरबजीत जानबूझकर मुझे परेशान करने और चिढ़ाने के लिए शोर मचाता रहता कि 'दीदी जल्दी राखी बांधो, मुझे बहुत भूख लगी है।'

18 साल की जुदाई, 48 मिनट का मिलन
पिछले 24 अप्रैल को अपने वीरा के साथ पाकिस्तान की कोट लखपत जेल में बिताए 48 मिनट आज भी दलबीर की स्मृतियों में हैं। सरबजीत की यादें लेकर जब परिवार लौट रहा था तो कुछ आंसू खुशी के थे, तो कुछ गम के। उनकी दोनों बेटियों पूनम और स्वप्निल, पत्नी और बहन दलबीर कौर के लिए वे पल सपनों जैसे थे। सलाखों के एक ओर सरबजीत था और दूसरी ओर बहन दलबीर और पूरा परिवार। रक्षाबंधन के त्योहार पर दलबीर हर बार सरबजीत की राखी को सहेज कर रख लेती थी। उसे आस थी कि एक न एक दिन वह इन राखियों को भाई की कलाई पर जरूर बांधेगी। जेल में दलबीर अपने साथ पिछले 18 सालों की 18 राखियां लेकर गई थीं। जब दलबीर राखी बांधने लगी, तो सरबजीत ने पूछा- इतनी राखियां? फिर बचपन की तरह उन पर झपट पड़ा। उसने वीरा की कलाई पर 18 राखियां बांधीं और हाथ को चूमा, तो सभी भावुक हो गए। सरबजीत के गालों पर मोटे-मोटे आंसू भरभरा गए। वो बोला, 'बहना, हिम्मत रख। मैं बेकसूर हूं, मैं वापस जरूर आऊंगा। आज तो मेरे पास देने के लिए कुछ नहीं है। सिवा शुभकामना के मैं क्या दे सकता हूं।' फिर सरबजीत ने खुद अपने हाथों से चाय बनाई। जब सरबजीत ने अपनी बेटी को देखा, तो उसके मुंह से पहला शब्द निकला, 'पूनम मेरी बेटी...' और फिर एक बेटी अपने बाप से लिपट गई। लेकिन बाप बेटी के बीच सलाखें थीं, इसलिए पूनम ठीक से अपने पापा के गले नहीं मिल सकी। अठारह सालों की जुदाई में मिलन के 48 मिनट कब गुजर गए, पता ही नहीं लगा। जब विदाई का वक्त आया, तो बहन की आंखें छलछला उठीं, सब बिलख उठे।
दीवारों से बातें करता होगा
दलबीर बार-बार खुद से सवाल करती हैं, 'एक छोटी-सी कोठरी में मेरा भाई धरती पर कैसे सोता होगा, वहां तो न सोने के लिए बिस्तर है, न ओढऩे के लिए चादर। बस चारों ओर तन्हाई पसरी रहती है। जब हमारी याद आती होगी, तो दीवारों से बातें करता होगा। मैं तो इसी आस में जिंदा हूं कि एक दिन वो लौटकर घर आएगा और हमारा घर खुशियों से चहकेगा। पिछली राखी पर पाकिस्तान सरकार ने मुझे वीजा नहीं दिया था, पर इस बार मुझे उम्मीद है कि मैं पाकिस्तान जाकर अपने भाई की कलाई पर राखी बांधने की तमन्ना जरूर पूरी करूंगी।'
- अमलेंद्रु उपाध्याय के साथ आशीष जैन का राखी पर छोटा सा प्रयास

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