13 August 2009

रिश्तों की कीमत पर सफलता


क्या रिश्ते गंवाकर सफलता की कीमत चुकाई जा सकती है? देश के सॉफ्टवेयर हब बंगलौर में कुछ ऐसा ही हो रहा है। लोग पैसा कमाने के चक्कर में रिश्तों को दांव पर लगा चुके हैं और शहर में तलाक के मामलों में तेजी से इजाफा हो रहा है। गौरतलब बात है कि शहर में हर रोज तलाक के औसतन 25 मामले दर्ज हो रहे हैं। क्रिस्प के एक सर्वे से यह बात पता लगती है कि बंगलौर के कई पारिवारिक न्यायालयों में इस वक्त लगभग 13 हजार तलाक के मामले लंबित हैं। इनमें से पांच हजार मामले 2008 में दर्ज हुए थे। बंगलौर में तलाक के मामले निपटने में लगभग तीन से चार साल का समय लगता है। ज्यादातर तलाक के मामलों के पीछे पति-पत्नी दोनों की बढ़ती आय, प्रतिस्पर्धा और घरेलू हिंसा जैसी बातें हैं।

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कभी चांद तो कभी चंद्र

हाल ही विधि आयोग ने कानून मंत्रालय के समक्ष इस बात की सिफारिश की है कि एक पत्नी के रहते हुए धर्म परिवर्तन कर दूसरी शादी करने को अपराध करार दिया जाना चाहिए। मीडिया में भी समय-समय पर ऐसे मामले उछलते रहे हैं। हरियाणा के उपमुख्यमंत्री चंद्रमोहन का मामला ही लें। वे शादीशुदा थे। उन्होंने राज्य की पूर्व उपमहाधिवक्ता अनुराधा बाली से शादी करने के लिए इस्लाम धर्म कबूला और दोनों बन गए चांद मोहम्मद और फिजा। फिर दोनों में खटपट हुई और चांद मोहम्मद अब वापस अपने परिवार के पास लौट आए और वापस बन गए चंद्रमोहन। सवाल यह है कि आखिर खुद के स्वार्थ के लिए कब तक धार्मिक भावनाओं से खिलवाड़ होता रहेगा? इस पूरे मामले पर हमने राय ली समाजशास्त्री, कानूनी जानकार और धार्मिक नेता से-

मेरा मानना है कि कानून बना देने से कोई अपराध खत्म नहीं हो जाएगा। कानून से ज्यादा जरूरी लोगों को रिश्तों की पवित्रता को समझने की जरूरत है। जब कोई पावरफुल आदमी ऐसी हरकत करता है, तो मीडिया इस पर काफी हो-हल्ला करता है। पर अगर वे जमीनी हकीकत देखें, तो पता लगेगा कि आज भी हिंदू मैरिज एक्ट की धज्जियां सरेआम उड़ाई जा रही हैं। लोग न केवल विवाह जैसी पवित्र संस्था का मजाक उड़ा रहे हैं, बल्कि धार्मिक भावनाओं के साथ भी खिलवाड़ कर रहे हैं। अगर आप धर्म परिवर्तन भी करना चाहते हैं, तो स्थायी रूप से धर्म को अपना लीजिए, बार-बार की नौटंकी से परिवार और समाज सब पर बुरा असर पड़ता है। पत्नी को तो लोग चुप करा देते हैं, पर उन्हें अपने बच्चों के बारे में सोचना चाहिए। जब बच्चों को पता लगता है कि उनके पिता ने दो शादियां कर रखी हैं, तो इसका बड़ा नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। विधि आयोग को अपनी सिफारिश में यह बात भी जोडऩी चाहिए थी कि दूसरी शादी बच्चों की सहमति से ही की जानी चाहिए। सामंती समाज में ज्यादा पत्नियां रखना स्टेटल सिंबल होता था। इसे रोकने के लिए ही बाइगेमी (द्विविवाह) कानून आया। विवाह संस्कार होता है, इसे समझौता बनाना बड़ी भूल होगी। सिर्फ कानून से कुछ होने वाला नहीं है। मीडिया और गैर सरकारी संस्थाओं को एकजुट होकर लोगों को प्रेरित करना चाहिए कि वे शादी के महत्त्व को समझें। पहली पत्नी से धोखाधड़ी करके दूसरी शादी करने वाले लोग कभी सुखी नहीं रह सकते।
-ज्योति सिडाना, समाजशास्त्री

हिंदू मैरिज एक्ट में एक पुरुष या स्त्री तलाक के बाद या दोनों में से किसी एक की मृत्यु के बाद ही दूसरी शादी कर सकते हैं। बाइगेमी के लिए लोग धर्म परिवर्तन करते हैं और कानूनी सजा से बच जाते हैं। ऐसे में विधि आयोग की सिफारिश बिल्कुल सही है। धर्म परिवर्तन करने पर भी अगर उसकी पत्नी या पति जीवित है, तो उसे सजा जरूर मिलनी चाहिए। ज्यादातर मामलों में यह साबित नहीं हो पाता कि व्यक्ति ने दूसरी शादी कर ली है। ऐसे में वह कानून से बच जाता है। अगर दूसरी महिला से पैदा हुआ बच्चा या दूसरी शादी का कोई प्रमाण मिल जाए, तो व्यक्ति को सजा दिलवाई जा सकती है। आईपीसी की धारा 495 के मुताबिक कोई व्यक्ति पहले विवाह की बात छुपाकर किसी व्यक्ति से दूसरा विवाह करता है, तो उसे 10 साल के कारावास की सजा का प्रावधान है। आयोग की यह भी सिफारिश है कि मुस्लिम मैरिज एक्ट के तहत उस महिला पर कार्रवाई की जानी चाहिए, जो शादी से पहले मुस्लिम नहीं थी और बाद में वह वापस अपने मजहब में लौट जाती है। उस पर भी बाइगेमी का केस चलना चाहिए। - संजय श्रीवास्तव, पारिवारिक न्यायालय के मामलों के जानकार

कोई व्यक्ति इस्लाम धर्म किसी खास मकसद से अपनाता है, तो यह गलत बात है। सिर्फ शादी के लिए इस्लाम अपनाना ठीक नहीं। इस्लाम में आस्था और विश्वास के बाद ही आप इसे अपनाएं। मेरा मानना है कि कोई इस्लाम में जाकर शादी कर ले और वापस हिंदू धर्म अपना ले, तो फिर उस पर नए धर्म (हिंदू धर्म) का कानून लगना चाहिए। हर धर्म की तरह इस्लाम भी अपने बंदों से अपेक्षा रखता है कि वह चरित्रवान हो और उच्च सामाजिक और नैतिक मूल्यों का बखूबी पालन करे। भई, धर्म तो व्यक्ति, परिवार और समाज को जोडऩे का काम करता है। ऐसे में धर्म की आड़ लेकर अपना हित साधना बेहद गलत है। - जमाअते इस्लामी हिंद, राजस्थान के प्रदेशाध्यक्ष सलीम इंजीनियर
प्रस्तुति-आशीष जैन

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भरतनाट्यम में डूबी भाव-भंगिमाएं

इस साल पद्म भूषण से सम्मानित दंपती वी. पी. धनंजयन और शांता पिछले 50 सालों से साथ नृत्य कर रहे हैं। इस दंपती को एक साथ नृत्य करते हुए देखकर लगता है, मानो एक भाव है और दूजा भंगिमा, दोनों मिलकर भरतनाट्यम की नई परिभाषा गढ़ रहे हैं।




केरल का पेयन्नुर गांव। 1953 में इस गांव के एक गरीब परिवार के 13 साल के लड़के पर मशहूर कथकली कलाकार टी. के. चंदू पणिकर का ध्यान जाता है, वे उसकी नृत्य कला पर मुग्ध हो जाते हैं। वे उसे नृत्य के मशहूर संस्थान 'कलाशेत्रÓ की संस्थापक और मशहूर नृत्यांगना रूक्मणीदेवी के पास ले जाते हैं। वहां उस लड़के की मुलाकात नौ साल की लड़की शांता से होती है। शांता भी वहां पर नृत्य सीखने आई है। पहली नजर में ही दोनों को प्यार हो जाता है। वे सालों तक राम और सीता की नृत्य नाटिकाएं पेश करते हैं और बाद में शादी कर लेते हैं। यह कहानी है- भरतनाट्यम की मशहूर नृत्य जोड़ी वी. पी. धनंजयन और शांता की। ये दोनों धनंजयंस के नाम से मशहूर हैं। वे दोनों अपने आप में परिपूर्ण हैं, पर जब दोनों मिलकर नृत्य करते हैं, तो लोग बिना पलक झपकाए उन्हें निहारते रहते हैं और भावनाओं के समंदर में गोते लगाते हैं। उनके नृत्य, पहनावे, बातचीत और बरताव में महान भारतीय संस्कृति की झलक मिलती है। अगर कहा जाए कि वे भारतीय संस्कृति के सच्चे दूत हैं, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
बहुत कुछ करना है
दोनों कला की आराधना करते-करते बहुत मंजिलें तय कर चुके हैं। 70 साल के वन्नाडिल पुडियापेट्टिल धनंजयन (वी.पी. धनंजयन) को नृत्य करते हुए 60 साल हो गए हैं। चेन्नई में उनका नृत्य संस्थान 'भारतकलांजलिÓ 40 साल पूरे कर चुका है। यह संस्थान दुनिया को नामी नृत्यकार और संगीतकार दे चुका है। सालों से दोनों पति-पत्नी कला के प्रति पूरी तरह से समर्पित हैं और चाहते हैं कि भारतीय शास्त्रीय नृत्य और संगीत नित नई ऊंचाइयों को छूता रहे। इस जोड़े को 2009 में भारत सरकार ने प्रतिष्ठित पद्मभूषण से सम्मानित किया। यह सम्मान पाने वाली यह दूसरी नृत्य जोड़ी है। जब दंपती को पद्मभूषण अवार्ड मिला, तो उनका कहना था, 'ये सम्मान हम सारे शिष्यों और कला की बारीकियां सिखाने वाले संस्थान 'कलाक्षेत्रÓ को समर्पित करते हैं। 1956 में हमारी संरक्षक और 'कलाक्षेत्रÓ की संस्थापक रुक्मणी देवी को भी यह अवार्ड मिला था। हमें गर्व है कि हम उनके पदचिह्नों पर चलकर यहां तक पहुंचे।Ó पुरस्कारों के बारे में धनंजयन कहते हैं, 'इंदिरा गांधी अपनी हत्या से 10 दिन पहले दिल्ली में हमसे मिली थीं और उन्होंने हमसे पूछा कि मैं आपके लिए क्या कर सकती हूं, तो हमने विनम्रतापूर्वक ना कह दिया। मुझे कई पुरस्कार और पद मिलने की बातें होती थीं, पर मेरा मानना था कि उसे उसके सही हकदार को ही दिया जाना चाहिए। भारत सरकार के कलाक्षेत्र को अधिग्रहण करने से पहले सरकारी अधिकारियों ने मुझसे कहा कि क्या आपके इसके डायरेक्टर बनना चाहेंगे? तो मेरा जवाब था कि इस पद के लिए मुझे नहीं, किसी और योग्य व्यक्ति को चुना जाना चाहिए।Ó
कला और कलाकार
वी.पी. धनंजयन अपनी किताब 'बियोंड परफॅारमेंसÓ में कला के इतर विषयों के बारे में बताते हैं, 'इस किताब में मैंने कला से जुड़ी सच्चाइयों का साफगोई से जिक्र किया था, अब अगर सच बोलने से कोई विवाद होता है तो लोग नाराज क्यों होते हैं? मैं तो शुरू से ही कला और कलाकारों के हित की बात करता हूं। जब लोग भारतीय शास्त्रीय नृत्य को डांस कहकर पुकारते हैं, तो मैं एतराज जताता हूं। भरतनाट्यम एक बड़ी और परिपूर्ण कला है। इसे उचित सम्मान मिलना चाहिए।Ó कलाकारों के राजनीति में प्रवेश के बारे में उनका कहना है कि कई कलाकार संसद में मनोनीत किए जाते हैं। पर कोई भी कला के प्रोत्साहन के लिए खास कदम नहीं उठाता। अगर मुझे ऐसा मौका मिला, ताकि मैं कला की शिक्षा और पहुंच बढ़ाने के लिए कुछ ठोस कदम उठा सकूं।
हम साथ-साथ हैं
केरल के पेयन्नुर में 1939 में पैदा हुए धनंजयन ने भरतनाट्यम और कथकली नृत्य में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा किया है। उनके पिता ए. रामा अध्यापक थे। उनके परिवार में यूं तो कोई नृत्य से सीधे तौर पर जुड़ा नहीं था, पर पिता नाटकों में हिस्सा लिया करते थे। यहीं से उन्हें प्रेरणा मिली और वे नृत्य कला के प्रति गंभीर होते चले गए। धनंजय को बचपन से ही संस्कृत साहित्य से बहुत लगाव था और वे आठ साल की उम्र से ही कविताएं लिखने लग गए थे। उनके पिता ने बढ़ती पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते उन्हें 'कलाक्षेत्रÓ में भेज दिया। वहां उन्हें न केवल प्रवेश मिला, साथ ही नृत्य में बेहतरीन साधना के लिए स्कॉलरशिप भी दी गई।
शांता मलेशिया के एक उच्च मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखती हैं। शांता का जन्म यूं तो मलेशिया में हुआ, पर वे खुद को केरल से ही जुड़ा हुआ मानती हैं। दरअसल उनका परिवार तीन पीढिय़ों पहले केरल से मलेशिया में बस गया था। शांता ने भी नृत्य की बारीकियां धनंजयन के साथ ही कलाक्षेत्र में सीखीं। उनके पिता बीबीसी में अकाउंटेट के पद पर थे। बचपन में शांता की नृत्य के प्रति बढ़ती रुचि को देखकर उन्होंने उसे कलाक्षेत्र में भर्ती करा दिया। शांता शुरू से ही कला के प्रति बेहद गंभीर थीं। यहीं पर वे धनंजयन से मिलीं और दोनों ने साथ-साथ नृत्य नाटिकाएं पेश करना शुरू कर दिया। राम और सीता के किरदार करते-करते दोनों को एक-दूसरे का साथ भाने लगा और 1966 में दोनों ने शादी कर ली।
आज भी दोनों मिलकर गरीब और प्रतिभावान बच्चों को नृत्य की बारीकियां सिखाते हैं और विदेशों में भी भरतनाट्यम के बारे में प्रचार-प्रसार में सक्रिय रहते हैं। भारतकलांजलि में आज भी गुरुकुल परंपरा के अनुरूप शिक्षा दी जाती है। भरतनाट्यम को नित नए आयाम देने के लिए यह दंपती रचनात्मक संसार में जी-जान से जुटा है। उनके दो बेटे हैं। बड़ा बेटा संजय अपनी पत्नी के साथ अमरीका में रहता है और चेन्नई में रहने वाला छोटा बेटा सत्यजीत मशहूर फोटोग्राफर और नृत्यकार है। दोनों कमाल के गुरु हैं। उनके शिष्यों के लिए वे भगवान की तरह हैं। दोनों अपने शिष्यों को सिर्फ भरतनाट्यम ही नहीं सिखाते, बल्कि उन्हें भारतीय परंपरा और संस्कृति से भी रूबरू करवाते हैं।
-आशीष जैन

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ये कैसी विदेश नीति...

भारत की अपनी स्वतंत्र विदेश नीति रही है। फिर एकाएक ऐसा क्या हुआ है कि पूरी दुनिया को लगता है कि भारत अपनी विदेश नीति से भटक रहा है। 1955 में जिस देश के प्रधानमंत्री पूरी दुनिया को गुटनिरपेक्षता का पाठ पढ़ा सकते हैं, उसी देश के प्रधानमंत्री किसी खास मुद्दे पर ढिलाई बरतें, यह तो बिल्कुल शोभा नहीं देता। भारत को अपनी विदेश नीति पर पुनर्मूल्याकन करने की जरूरत है। लंबे कांग्रेस शासन के बाद जब अटलबिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री बने, तो सबका मानना था कि अब विदेश नीति अमरीका उन्मुखी हो जाएगी। पर ऐसा नहीं हुआ। देश के हर प्रधानमंत्री की तरह उन्होंने भी सारे देशों से महत्वपूर्ण बातचीत और सौदे जारी रखे। जब अमरीका ने इराक पर हमला किया, तो उन्होंने सर्वदलीय बैठक बुलाकर विचार विमर्श किया। विदेश नीति पर प्रधानमंत्री का सर्वदलीय बैठक बुलाने वाकई कमाल का निर्णय था। पहले भी जवाहर लाल नेहरू और पीवी नरसिंहराव जैसे प्रधानमंत्री विदेश नीति के बारे में विपक्ष से राय लेते रहे, पर सर्वदलीय बैठक का अपना ही महत्व है। जवाहर लाल नेहरू से लेकर पीवीनरसिंहराव तक के काल में भारत पूरी तरह से गुटनिरपेक्ष नीति का ही पालन कर रहा था, पर धीरे-धीरे इस सोच में बदलाव आने लगा। नरसिंहराव जब प्रधानमंत्री थे, तो कश्मीर के मुद्दे पर भारत ने अपना पक्ष रखने के लिए संयुक्त राष्ट्र में विपक्ष के नेता अटलबिहारी वाजपेयी को भेजा था।

हाल ही 2005 में भारत अमरीका असैन्य परमाणु समझौते के वक्त भारत की विदेश नीति पर काफी गर्मागर्म चर्चाएं हुईं। विपक्ष समेत ज्यादातर विश्लेषकों का मानना था कि अमरीका यूरेनियम देने के बहाने भारत के परमाणु संयंत्रों पर अपनी पैनी नजर रखना चाहता है, पर उस वक्त प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने एटमी करार को अंजाम तक पहुंचा दिया। उस समय भारत की विदेश नीति में बदलाव साफ तौर पर देखा जा रहा था। भारत ने आईएईए बैठक में ईरान के खिलाफ वोटिंग की। यह सब अमरीकी दबाव के चलते हुआ। इसका खामियाजा भारत को ईरान-पाक-भारत गैस पाइपलाइन खोकर चुकाना पड़ा।
हाल ही पाकिस्तान के मुद्दे से पता लगता है कि भारत ने अपनी विदेश नीति में भारी बदलाव कर दिया है। वैसे मनमोहन सिंह अपने प्रधानमंत्रीत्व काल में गजब के काम कर चुके हैं। पहले उन्होंने पाकिस्तान को आतंकवाद से पीडि़त बताया था और अब वे पाकिस्तान के बलूचिस्तान में चल रही जंग ए आजादी को मनमोहन सिंह ने आतंकवाद कहकर एक नई मुसीबत ओढ़ ली है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री युसूफ रजा गिलानी ने जब बलूचिस्तान में आतंकवादी वारदातों पर चिंता व्यक्त की, तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उन्हें आश्वस्त किया कि इसमें भारत का कोई लेना-देना नहीं है। पाक चाहे तो भारत से कुछ भी पूछ सकता है। ये बातें साबित करती हैं कि हमारे देश के प्रधानमंत्री एक अच्छे कूटनीतिज्ञ नहीं है। वे बड़े सीधे इंसान हैं। पर वे नहीं जानते कि साझा घोषणा पत्र का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कितना महत्व है। सबसे पहले तो इस संयुक्त वक्तव्य चौथे पैरे के इस वाक्य पर गौर करें, 'आतंकवाद के विरुद्ध की जाने वाली कार्रवाई को साझा संवाद प्रक्रिया के साथ जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए और उन्हें एक ही खांचे में नहीं रखा जाना चाहिए।Ó इससे तो प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह मुंबई हमले के बाद देश से किए वायदे को भी भूल रहे हैं। भारत ने उस वक्त स्पष्ट किया था कि पाकिस्तान से तब तक बातचीत नहीं की जाएगी, जब तक कि वह मुंबई हमले के दोषियों को सजा न दिला दे। रही बात बलूचिस्तान की, तो वहां तो भारत-पाक बंटवारे के समय से ही आंदोलन चल रहा है। पिछले पचास सालों से बलूचिस्तान के शासक रहे नवाब अकबर खान बुगती इस आंदोलन के अगुवा थे। सैन्य शासन ने उनकी हत्या करवा दी थी। उन्हीं बुगती के बेटे तलत बुगती पूरी तरह से इस बात को खारिज करते हैं कि बलूचिस्तान के आंदोलन में भारत का हाथ है।
हाल की विदेश नीति से जुड़ी बड़ी विफलताएं-
1. जी8 सम्मेलन में पर्यावरण प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग कम करने के लिए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की जिम्मेदारी लेकर भारत सरकार ने भारतीय उद्योग के हितों की अनदेखी की।
2. जी8 में ही एक प्रस्ताव आया कि एनपीटी पर हस्ताक्षर नहीं करने वाले देशों को एटमी संवर्धन एवं पुन: प्रसंस्करण तकनीक नहीं दी जाएगी। जबकि अमरीका से करार करते वक्त उसने इस नियम में बदलाव करने की बात कही थी। जी8 की मंजूरी मिलने के बाद अब भारत पर एनपीटी पर हस्ताक्षर का दबाव बढ़ गया है।
3. अमरीकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन की हाल की भारत के दौरान दोनों देशों के बीच में एंड यूज एग्रीमेंट हुआ। इसके तहत अमरीका अपने बेचे गए सामान की पड़ताल करेगा कि उसका सही इस्तेमाल भी हो रहा है या नहीं। इससे हमारी संप्रभुता पर आंच आ सकती है।
4. मिस्र के शर्म अल शेख में हुए 15वें गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन में पाकिस्तान और भारत के संयुक्त घोषणा पत्र में कहा गया कि समग्र बातचीत प्रक्रिया में आतंकवाद पर कार्यवाही को नहीं जोडऩा चाहिए। यह भारत के उस रुख से बिल्कुल उलट है, जिसमें उसने कहा था कि मुंबई हमलों के दोषियों को सजा दिलवाए बिना वो पाकिस्तान से बातचीत शुरू नहीं करेगा।
कुछ पुरानी गलतियां---
1. कबायलियों का कश्मीर पर कब्जा- 1947-48 के समय पाकिस्तानी सेना की मदद के सहारे कबायली कश्मीर में घुसने लगे और हिंदुस्तानी जमीन पर कब्जा करने लगे। लड़ाई के माध्यम से अपनी जमीन वापस लेने की बजाय उस वक्त के भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र संघ में जाना उचित समझा। यह एक भारी भूल थी। जनवरी 1948 में युद्ध विराम तो हो गया, पर संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव को पाकिस्तान ने मानने से इंकार कर दिया। भारत की जमीन का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में ही रह गया। इसे हिंदुस्तान पीओके (पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर) कहता है और पाकिस्तान इसे आजाद कश्मीर कहता है। कश्मीर समस्या आज भी भारत-पाक शांति के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। अगर भारत-पाक के इतिहास पर नजर डालें, तो पता लगेगा कि भारत पाक के बीच 1947, 1965, 1971 और 1999 की लड़ाई के अलावा 1955, 1984, 1985, 1986, 1987, 1990,1995,1998 और 2001-2002 में लड़ाई की नौबत आ गई थी।
2. गुटनिरपेक्षता- शीत युद्ध शुरू होने पर दुनिया दो खेमों में बंट चुकी थी। एक तरह अमरीका जैसा देश था, तो दूसरी तरफ सोवियत संघ। ऐसे में भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने गुटनिरपेक्षता का झंडा बुलंद किया। ऐसे में अमरीका भारत से बुरी तरह खफा हुआ और इससे हम सोवियत संघ का विश्वास जीतने में भी नाकाम रहे। गुटनिरपेक्ष आंदोलन में जो देश शामिल थे, वे भी परदे के पीछे अमरीका या सोवियत संघ में से किसी एक के साथ थे। ऐसे में गुटनिरपेक्षता अधिक लाभप्रद साबित नहीं हुई।
3. चीन को नहीं समझा- 1954 में भारत ने चीन के साथ पंचशील समझौता किया, क्योंकि पाकिस्तान और अमरीका की नजदीकियां तेजी से बढ़ती जा रही थीं। ऐसे में शक्ति संतुलन के लिए चीन को साथ में लेना जरूरी था। पंचशील समझौते से भारत ने तिब्बत को अप्रत्यक्ष रूप से चीन का हिस्सा समझ लिया, वहीं इस समझौते को चीन ने भारत की कमजोरी के रूप में लिया। 1962 में चीन ने भारत पर हमला बोल दिया। इससे पूरी दुनिया में भारत की बुरी और कमजोर देश की छवि बनी। चीन ने भारत की अक्साई चिन इलाके पर कब्जा कर लिया। कहा तो यह भी जाता है कि जवाहर लाल नेहरू ने सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता के लिए चीन का समर्थन भी किया था।
4. ताशकंद समझौता- 1965-66 में लालबहादुर शास्त्री के एक इशारे पर हिंदुस्तानी सेना पाकिस्तान के लाहौर शहर तक पहुंच गई थी। जनवरी 1966 में सोवियत संघ के ताशकंद में समझौता हुआ। लालबहादुर शास्त्री का वहीं पर निधन हुआ। भारत सैन्य रूप से जीती गई जमीन पर भी अपना हक नहीं जमा पाया और उसे पीछे हटना पड़ा। यह कूटनीति स्तर पर भारी भूल थी। बाद में भी भारत ने ताशकंद समझौते की बात नहीं की।
5. शिमला समझौता- 1971 में भारत ने पाकिस्तान को दो टुकड़ों में बांटकर नए देश बांग्लादेश का निर्माण करवाया। 1972 में पाकिस्तान ने भारत के साथ शिमला समझौता किया। भारत ने पाकिस्तान के 93 हजार से ज्यादा सैनिक बंदियों को मुक्त किया। इससे पाकिस्तान को तो फायदा हुआ, पर भारत इस समझौते से कोई फायदा नहीं उठा पाया।
6. श्रीलंका में सेना- 1987 में राजीव गांधी ने श्रीलंका में लिट्टे के संघर्ष को कम करने के लिए भारतीय शांति सेना भेजी। वहां बड़ी संख्या में हमारे सैनिक मारे गए। 1989 में भारत की सेना को लौटना पड़ा। लिट्टे जो पहले भारत को अपना हितैषी समझता था, इस घटना के बाद दुश्मन समझने लगा। भारत को अपने युवा प्रधानमंत्री राजीव गांधी को खोना पड़ा।
पड़ोस का ध्यान
अगर पाकिस्तान को छोड़कर भारत अपने दूसरे पड़ोसियों के साथ विदेश नीति पर गौर करे, तो पता लगेगा कि वहां भी स्थिति कुछ बेहतर नहीं है। श्रीलंका में यूं तो लिट्टे का खात्मा हो चुका है, पर तमिल विस्थापितों और सिंहलियों के बीच पनपते हुए तनाव में भारत को बेहतरीन भूमिका निभाने की जरूरत होगी। अब तमिलों की आवाज उठाने वाला कोई नहीं रह गया है। ऐसे में भारत को ही बड़े भाई की भूमिका निभानी होगी। श्रीलंका के सिंहली बहुलों को यह समझाना भी मायने रखता है कि तमिल भी उनके देश के नागरिक ही हैं। वहीं नेपाल की बात करें, तो वहां भी माओवादियों की उठापटक जारी है और नेपाल के रास्ते से लाल गलियारा देश में भी फैल रहा है। ऐसे में हर कदम फूंक-फूंककर रखना होगा। लालगढ़ में माओवादी और नक्सलियों का विद्रोह कहीं न कहीं चीन और नेपाल से ही प्रेरित है। ऐसे में भारत को चाहिए कि वह नेपाल से अपने पारंपरिक रिश्तों को कायम रखते हुए उसे चीन का पिट्ठू बनने से रोके। हाल ही संपन्न हुए ब्रिक सम्मेलन के जरिए भारत विश्वशक्ति बनने की राह में भी महत्वपूर्ण कदम बढ़ा रहा है। अगर भारत अमरीका की बढ़ती शक्ति को रोकना चाहता है, तो उसे किसी तरह से चीन का साथ लेना ही होगा। वैसे चीन से दोस्ती की बजाय कूटनीति का सहारा लेना ज्यादा सही रहेगा। बांग्लादेश जैसे देश से भी सर्तक रहने की जरूरत है, क्योंकि अब पाकिस्तान बांग्लादेश के सहारे ही आतंकियों को भारत में भेजने की योजना बनाता है। वैसे भी भारत बांग्लादेशियों की घुसपैठ से परेशान ही रहता है।
-आशीष जैन

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शर्म अल शेख में नैम

मिस्र में लाल सागर के किनारे स्थित है- शर्म अल शेख। यह शहर गोताखोरों और विंडसर्फिंग के शौकीनों की पसंदीदा जगह है। पिछले दिनों यही हुआ गुट निरेपक्ष आंदोलन (नैम) का दो दिवसीय 15वां शिखर सम्मेलन। गुटनिरपेक्ष आंदोलन से कई देश जुड़ चुके हैं। इसी क्रम में गुट निरपेक्ष आंदोलन के 118 सदस्य देशों के नेताओं और प्रतिनिधियों को एक मंच पर देखना वाकई सुखद अनुभूति रहता है। इस बार नैम में पहली बार यहां पर 'प्रथम महिला सम्मेलनÓ का आयोजन हुआ। इसमें देशों की प्रथम महिलाओं ने संबोधन किया और इस सम्मेलन का विषय था-'संकट प्रबंधन में महिलाएं- महत्व एवं चुनौतियां।Ó इस बार के गुट निरपेक्ष आंदोलन के शिखर सम्मेलन का विषय था- विश्व की एकता, शांतिपूर्ण विकास। मिश्र के राष्ट्रपति हुस्ने मुबारक गुट निरपेक्ष आंदोलन के नए अध्यक्ष बने हैं। उन की कार्यावधि तीन साल होगी। इस तरह मिश्र गुट निरपेक्ष आंदोलन का अध्यक्ष देश बन गया है।

जाकी रही भावना जैसी
मिस्र के शर्मअलशेख में हाल में हुए 15वें गुटनिरपेक्ष सम्मलेन (नैम समिट) ने एक बार सोचने पर विवश कर दिया है कि गुटनिरपेक्ष आंदोलन की प्रासंगिकता पर विचार किया जाए। दो सैन्य शक्तियों (सोवियत रूस और अमरीका) में बंटी हुई दुनिया में शांति बनाए रखने के लिए यह जरूरी था कि उपनिवेश की दासता से मुक्तहुए नए स्वतंत्र देश संतुलन बनाए रखें। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद गुटीय राजनीति से खुद को दूर रखने के लिए एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका के स्वतन्त्र राज्यों ने गुटनिरपेक्षता की नीति का अनुसरण करना उचित समझा। एशिया, अफ्रीका के इन तमाम देशों के सामने दो विकल्प थे या तो वे इनमें से किसी एक गुट के साथ हो जाते या अपनी अलग पहचान कायम करते। उस वक्त दुनिया के तीन नेता सामने आए और एक साहसिक और दूरगामी कदम उठाते हुए उन्होंने गुटनिरपेक्षता की अवधारणा रखी। कुछ जानकारों का मानना है कि नैम सिर्फ नाम का रह गया है। यह औपनिवेशिक काल में संघर्ष तक तो ठीक था, पर अब यह तानाशाही का सर्टिफिकेट बनता जा रहा है। यूं सोवियत संघ के विघटन के बाद दुनिया की धुरियां अमरीका और सोवियत संघ की बजाय कई केंद्रों पर टिक गई हैं, पर फिर भी गुटनिरपेक्ष की भावना तिरोहित हो चुकी है। देखा जाए, तो ऐसे नाममात्र के देश बचे हैं, जो किसी गुट से संबंध नहीं रखते। अमरीका जैसे देश भारत की भावना को दूषित करके गुटनिरपेक्ष आंदोलन को सफल होता नहीं देख सकते। नेहरू-नासिर-टीटो की पहल पर गुटनिरपेक्ष आंदोलन शुरू हुआ। गुटनिरपेक्ष आन्दोलन शीत युद्ध के समय शुरू हुआ एक आन्दोलन था जिसके अनुसार इसके सदस्य राष्ट्र किसी भी देश (सोवियत संघ या अमेरिका) का समर्थन या विरोध नहीं करेंगे। यह आंदोलन भारत के भारत के प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू, मिस्र के राष्ट्रपति गमाल अब्दुल नासर एवं युगोस्लाविया के राष्ट्रपति जोसिप ब्रॉज टीटो ने शुरु किया था है।
कारवां बढ़ता गया
इसकी स्थापना अप्रेल 1955 में हुई थी और आज इसके 118 सदस्य और 15 ऑब्जर्वर देश हो चुके हैं। शीत युद्ध के दौरान 1955 में प्रमुख अंतरराष्ट्रीय नेताओं पंडित जवाहरलाल नेहरु, कर्नल नासिर और सुकर्णो आदि ने 29 एशियाई और अफ्रीकन देशों के सहयोग से इस संगठन की नींव रखी। अब तक 15 शिखर सम्मेलन हो चुके हैं। पहला शिखर सम्मेलन यूगोस्लाविया की राजधानी बेलग्रेड में 1 से 6 सितम्बर 1961 में हुआ था जिसमें 25 देशों के शासनाध्यक्षों ने भाग लिया। सम्मेलन के अन्त में निशस्त्रीकरण करने, आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक पिछड़ेपन को दूर करने, घरेलू मामलों में विदेशी हस्तक्षेप और रंगभेद की निन्दा तथा विश्व शांति की घोषणाएं की गई। तब से अब तक आन्दोलन निरंतर अंतरराष्ट्रीय समस्याओं पर विचार-विमर्श का मंच बनता रहा है। गुटनिरपेक्ष आन्दोलन हर तीसरे वर्ष अन्तरराष्ट्रीय समस्याओं पर विचार-विमर्श करने के योजनाएं निर्धारित करने के लिए सदस्य देशों का शिखर सम्मेलन आयोजित करता है जिसमें निर्णय बिना मतदान सर्वसम्मति से होते है। आज इसके सदस्यों की संख्या 25 से बढ़कर 118 तक पहुंच चुकी है। 1950 और 60 के दौर में इसने स्वाधीनता का नारा दिया। 1970-74 में इसने आर्थिक सहयोग और नवीन अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना के प्रयास किए। 1979 की हवाना घोषणा के अनुसार इस संगठन का उद्देश्य गुट-निरपेक्ष राष्ट्रों की राष्ट्रीय स्वतंत्रता, सार्वभौमिकता, क्षेत्रीय एकता एवं सुरक्षा को युद्ध के दौरान साम्राज्यवाद, जातिवाद, रंगभेद एवं विदेशी आक्रमण, सैन्य अधिकरण, हस्तक्षेप आदि मामलों के विरुद्ध सुनिश्चित करना है। इसके साथ ही किसी पावर ब्लॉक के पक्ष या विरोध में ना होकर निष्पक्ष रहना है। कार्टागेना (1995) सम्मेलन में आर्थिक मुद्दों पर विशेष बातचीत करते हुए विकसित और विकासशील देशों के बीच संवाद कायम करने के प्रयासों पर बल दिया गया।
खा गए इस बार मात
यह संगठन संयुक्त राष्ट्र के कुल सदस्यों की संख्या का लगभग 2/3 एवं विश्व की कुल जनसंख्या के 55 फीसदी भाग का प्रतिनिधित्व करता है। खासकर इसमें तीसरी दुनिया यानी विकासशील देश सदस्य हैं। इंदिरा गांधी और फिदेल कास्त्रो जैसे नेताओं ने गुटनिरपेक्षता के महत्व को समझकर जरूरी कदम भी उठाए, पर इनके बाद यह आंदोलन अपनी धार खोता चला गया। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना था कि जब सोवियत रूस के ही टुकड़े हो गए थे, तो दो गुटों की बात भी नहीं रह गई। यूं पहली नजर में लगता है कि उनका मानना सही है। पर आज दुनिया दो टुकड़ों में नहीं, कई टुकड़ों में बंटी है। ऐसे में आतंकवाद जैसी समस्या से निपटने के लिए बिना किसी गुटबाजी के सही बात को सबके सामने रखने की जरूरत है। पिछली बार सितंबर 2006 में क्यूबा में हुए 14वें गुटनिरपेक्ष सम्मेलन में भारत की पहल पर आतंकवाद के खिलाफ मुहिम छेड़ी थी। इस बार के सम्मेलन में देश के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह मात खा गए और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री युसूफ रजा गिलानी को बिना मांगे ही तोहफा दे आए। भारत-पाक के संयुक्त वक्तव्य को सुनकर हर कोई चकित है। पाकिस्तान में बलूचिस्तान में गड़बडिय़ों के लिए हिंदुस्तान को दोषी ठहरा दिया है। वक्तव्य में कश्मीर का जिक्र तक नहीं है। वहीं आतंकवाद पर कार्रवार्ई को समग्र वार्ता से बाहर रखने की बात सुनकर हर भारतीय निराश हुआ है। 24 और 25 फरवरी 2003 को कुआलालंपुर में गुटनिरपेक्ष आंदोलन की 13वीं शिखर बैठक हुई। इस शिखर सम्मेलन में अमरीका की इराक के खिलाफ की गई कार्यवाही की निंदा की गई।
नैम की सफलता और विफलता
गुटनिरपेक्ष आंदोलन को शुरू से ही कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा है। सबसे बड़ी परेशानी तो अमरीका और सोवियत संघ ही थे। इनकी कोशिश रहती थी कि किसी भी तरह गुटनिरपेक्ष देशों को विघटित किया जाए। अमरीका दक्षिण अमरीकी राज्यों पर निरंतर दबाव बनाता रहता है कि गुटनिरपेक्ष आंदोलन से ये देश बाहर आ जाएं। अमेरीका निकारागुआ को गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन आयोजित करने से रोकने में भी सफल रहा। साथ ही सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि गुटनिरपेक्ष देश आर्थिक रूप से पिछड़े हुए हैं। कमजोर आर्थिक दशा के चलते ये देश एक नए तरह के उपनिवेशवाद से घिरते जा रहे हैं। कमजोर आर्थिक दशा ने गुटनिरपेक्ष राज्यों को नवीन उपनिवेशवाद के अधीन कर दिया है। नई आर्थिक विश्व व्यवस्था तथा विश्व व्यापार संगठन के होते हुए भी अमेरीका संरक्षणात्मक तथा प्रतिबंधात्मक व्यापार नीति अपनाता है। मार्च 2003 में इराक पर अमेरीकी हमला तेल पर कब्जा जमाने की कोशिशों का ही परिणाम है। अब गुटनिरपेक्ष राज्य ईरान को भी वह शक के घेरे में खड़ा कर रहा है। अमरीका की गुप्तचर संस्थाएं भी गुटनिरपेक्ष आंदोलन को कमजोर करने में प्रयासरत हैं। क्यूबा में फिदेल कास्त्रो सरकार को पदच्युत करने की कोशिश की गई। चिली के राष्ट्रपति की हत्या करवायी। गुटनिरपेक्ष देशों की खुद की कलह भी इसकी असफलता का बड़ा कारण है। कोलंबो (1976) सम्मेलन में बंगलादेश ने भारत के साथ गंगा के पानी के बंटवारे के सवाल को शिखर सम्मेलन में उठाने का प्रयास किया। 1979 का हवाना शिखर सम्मेलन मिश्र के निष्कासन और कम्बुजिया के प्रश्न पर विभाजित था, जकार्ता (1992) शिखर सम्मेलन में पाकिस्तान ने कश्मीर को मसला बनाया। 996 में सीटीबीटी प्रारुप पर भारत का साथ देने के लिए एक भी देश तैयार नहीं था। अर्जेंटिना, ब्राजील और मिश्र ने अमेरीका और पश्चिमी देशों का साथ दिया। ऐसा नहीं है कि इस आंदोलन के पास सिर्फ विफलताओं का पुलिंदा है। इसके खाते में कई सफलताएं भी दर्ज हैं। प्रशांत महासागर, कैरेबियन सागर, हिन्द महासागर के कई देशों का आंदोलन के साथ जुडऩा इसकी सफलता को ही दर्शाता है। 1955 के बांडुग सम्मेलन में नेहरु, नासिर, टीटो तथा चाउ-एन-लाई द्वारा गुटनिरपेक्षता के संगठित समर्थन ने दुनिया के गुलाम देशों के समर्थन में आवाज उठाना शुरू की थी और एक-एक करके देश आजाद होने लगे। साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, रंगभेद, बाहरी हस्तक्षेप, अन्याय और शोषण से मुक्ति दिलाना इसकी प्रमुख उपलब्धि हैं।
-आशीष जैन

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भूखे भजन ना होय...

देश में लाखों-करोड़ों परिवार आज भी भोजन के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उदारवादी अर्थव्यवस्था और पूंजीवादी बाजार के आने से यूं तो लगता है कि भुखमरी जैसी समस्या आज देश में खत्म हो चुकी है, पर ऐसा नहीं है। आज भी लोगों को दो जून का खाना खोजने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। इस बार के लोकसभा के चुनावों में देश की ज्यादातर राजनीतिक दलों ने गरीबों के लिए रियायती दरों पर अनाज उपलब्ध कराएंगे। चुनाव जीतने के बाद कांग्रेस ने भी भोजन के अधिकार पर काम करने की अपनी इच्छा जताई है। भुखमरी, कुपोषण और गरीबी ऐसे अभिशाप बन गए हैं, जो भारत की करीब तीस-पैंतीस करोड़ आबादी का दामन छोडऩे को तैयार नहीं हैं। देश की आजादी के वक्त भी देश की जनसंख्या लगभग इतनी ही थी। आजादी के बासठ साल बाद भी भारत की बीस करोड़ से अधिक आबादी कुपोषण और भुखमरी की शिकार है।

भूख आंकड़ों में
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार, सिर्फ भारत में करीब 20 करोड़ लोग खाली पेट रात में सोने के लिए विवश हैं। पूरी दुनिया मेंं हर दिन करीब 18 हजार बच्चे भूख से मर रहे हैं। दुनिया की करीब 85 करोड़ आबादी रात में भूखे पेट सोने के लिए विवश है। पूरी दुनिया में करीब 92 करोड़ लोग भुखमरी की चपेट में हैं। अपने देश में 42.5 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। अकेले साल 2006 में भूख या इससे होने वाली बीमारियों के कारण पूरी दुनिया में 36 करोड़ लोगों की मौत हुई थी। पूरी दुनिया के मुकाबले देश में बड़े पैमाने पर बाल पोषण कार्यक्रम चलाया जा रहा है, पर फिर भी देश के हालात चिंताजनक हैं। देश में उदारवाद आने के बाद स्थितियां तेजी से बदली हैं और देखने वाली बात है कि भारत चाहे दुनिया की दूसरी सबसे तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था हो, पर हर पेट को भोजन की मंजिल अभी बहुत दूर है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स में जारी अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्था के विश्व भुखमरी सूचकांक -2007 में भारत को 118 देशों में 94वें स्थान पर रखा गया है। भारत का सूचकांक अंक 25.03 है, जो साल 2003 (25.73) के मुकाबले कुछ ही बेहतर हुआ है। देश में अमीरों और गरीबों का अनुपात तेजी से बिगड़ रहा है। देश के 35 अरबपति परिवारों की संपत्ति 80 करोड़ गरीब, किसानों, मजदूरों, शहरी झुग्गी-झोंपड़ी वालों की कुल संपत्ति से ज्यादा है। अफसोस की बात है कि आज तक भी किसी सरकार ने भोजन के अधिकार का कानून नहीं बनाया। कुछ समय पहले छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने इस बारे में विधेयक विधानसभा में लाने की घोषणा की थी। बाकी राज्य सरकारें अभी तक चुप्पी साधे बैठी हैं। खाद्य व नागरिक आपूर्ति मंत्रालय के एक प्रस्ताव पर गौर करें, तो पता लगेगा कि प्रस्तावित भोजन के अधिकार के तहत वह सरकार की भूमिका को सिर्फ 25 किलोग्राम चावल और तीन रुपए प्रति किलो गेहूं की दर से आपूर्ति करना चाहती है। वह भी गरीबों के लिए। पर जिन गरीबों के पास रहने को घर भी नहीं हैं, वे किस तरह इस अनाज को पकाएंगे और खाएंगे। सरकार भी बीपीएल की परिभाषा भी हजम नहीं होती। वह योजनाओं को सिर्फ गरीबी रखने से नीचे रहने वाले बीपीएल कार्ड धारकों को ही देना चाहती है। आंकड़े बताते हैं कि देश में 8.13 करोड़ लोगों के पास बीपीएल कार्ड है और 2.5 करोड़ लोग अंत्योदय अन्न योजना के अंतर्गत आते हैं। अगर इन्हें भी बीपीएल कार्डधारियों के साथ जोड़ दिया जाए तो कुल संख्या होती है लगभग ग्यारह करोड़। योजना आयोग के एक आकलन के अनुसार देशभर के गांवों में बाईस करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं और शहरों में इनकी आबादी आठ करोड़ है, यानी कुल तीस करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। उन्नीस करोड़ लोग सिर्फ कार्ड नहीं रहने की वजह से इस योजना का लाभ उठाने से वंचित रह जाएंगे। इस योजना का लाभ वे भी नहीं उठा पाएंगे, जिन्हें राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना के तहत साल भर में सौ दिनों का काम मिल रहा है। सरकार उन्हें गरीबी रेखा से नीचे नहीं मानती, क्योंकि साल भर में वे आठ हजार रुपए कमा लेते हैं, यानी औसतन प्रति माह करीब 670 रुपए। 1999-2000 राष्ट्रीय नमूना सर्वे संस्थान के सर्वेक्षण के अनुसार उसी व्यक्ति को गरीबी रेखा के नीचे माना गया है, जिसकी मासिक आय 568.80 रुपए से कम है। इस सर्वे को योजना आयोग भी मानती है। नतीजतन जो लोग नरेगा के तहत लाभान्वित हो रहे हैं, उन्हें सरकार अब गरीबी रेखा के नीचे नहीं मानती।

भूख से लड़ाई में जनहित याचिका
देश में कुपोषण और भुखमरी की भयावह स्थिति और सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में भ्रष्टाचार, लापरवाही को देखते हुए 2001 में मानवाधिकार संगठन पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) ने भोजन के अधिकार को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित चायिका दायर की। याचिका में कहा गया कि भोजन के अधिकार को कानूनी रूप दिया जाए। यह याचिका उस समय दायर की गई, जब एक ओर देश के सरकारी गोदामों में अनाज का भरपूर भंडार था, वहीं दूसरी ओरदेश के विभिन्न हिस्सों में सूखे की स्थिति एवं भूख से मौत के मामले सामने आ रहे थे। पीयूसीएल की दायर की गयी इस याचिका का आधार संविधान का अनुच्छेद 21 है जो व्यक्ति को जीने का अधिकार देता है। जीने का अर्थ गरिमापूर्ण जीवन से है और यह भूख और कुपोषण से जूझ रहे व्यक्ति के लिए संभव नहीं है। यह एक मौलिक अधिकार है। सरकार का दायित्व है इसकी रक्षा करना। सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार जीने के अधिकार को परिभाषित किया है, इसमें इज्जत से जीवन जीने का अधिकार और रोटी के अधिकार आदि शामिल हैं।
इस न्यायालयीन हस्तक्षेप के बावजूद भी मध्यप्रदेश कुपोषण और भुखमरी में पहले स्थान पर है। स्थिति को सुधारने के लिए ससरकार द्वारा कुछ कार्यक्रम चलाये जा रहे है। जिन्हें चार भागों में बांटा जा सकता है - बच्चों के भोजन का अधिकार (समेकित बाल विकास योजना, मध्यान्ह भोजन योजना), खाद्य सहायता कार्यक्रम (सार्वजनिक वितरण प्रणाली एवं अंत्योदय अन्न योजना), रोजगार कार्यक्रम (राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून, संपूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना, काम के बदले अनाज कार्यक्रम) एवं सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम (राष्ट्रीय मातृत्व सहायता योजना, जननी सुरक्षा योजना, राष्ट्रीय वृद्धावस्था पेंशन योजना और राष्ट्रीय परिवार सहायता कार्यक्रम)। पर इनके सही परिणाम अभी भी सामने आने बाकी हैं।
इस याचिका के अंतर्गत करीब 400 शपथ-पत्र अभी तक दायर किए गए हैं और साथ ही 60 अंतरिम आवेदन लगाये जा चुके हैं। यह केस दुनिया का पहला ऐसा केस है, जिसमें पिछले 8 वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय 65 से अधिक अंतरिम आदेश दे चुकी है।
28 नवम्बर 2001 को सर्वोच्च न्यायालय के दिए गए अंतरिम आदेश में खाद्य सुरक्षा और रोजगार योजना कानूनी अधिकार में बदल गया है। इसी आदेश में सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार और राज्य सरकारों को यह निर्देशित किया है कि जब तक इस केस का अंतिम आदेश नहीं आ जाता, तब तक इन योजनाओं को न्यायालय के आदेष के बिना नहीं बदला जाएगा और न ही बंद किया जाएगा। अभियान का मानना है कि इस केस के माध्यम से भोजन के अधिकार की मौलिक अधिकारों में शामिल कर लिया जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गये आदेष के अंतर्गत समेकित बाल विकास योजना की सभी सेवाओं को सर्वव्यापीकरण की बात कहीं गयी है। इसके अंतर्गत सभी बच्चों को मध्यान्ह भोजन में पका हुआ भोजन देने की बात कही गयी है।
समेकित बाल विकस योजना को न्यायालय द्वारा यह कहकर परिभाषित किया है कि राज्य सरकार यह सुनिश्चित करे कि सभी आंगनबाड़ी केन्द्रों में 0 से 6 वर्ष के बच्चे गर्भवती, धात्री एवं किशोरी बालिकाओं को कुछ प्रमुख सेवायें दी जाएंगी, जिसमें हर 6 वर्ष तक के बच्चे को 300 कैलोरी और 8-10 ग्राम प्रोटीन दिया जाएगा, हर किशोरी बालिका को 500 कैलोरी और 20-25 ग्राम प्रोटीनयुक्त भोजन दिया जाएगा, हर गर्भवती एवं धात्री महिला को 500 कैलोरी और 20-25 ग्राम प्रोटीनयुक्त भोजन दिया जाएगा और हर कुपोषित बच्चे को 600 कैलोरी और 16-20 ग्राम प्रोटीनयुक्त भोजन दिया जाएगा। इसे लेकर केन्द्र और राज्य सरकारों ने कोई जवाब नहीं दिया तो न्यायालय ने 7 अक्टूबर 2004 को आदेश पारित किया कि सरकार देश में 14 लाख आंगनबाड़ी केन्द्रों की स्थापना करें। समाज के वंचित वर्गों और गरीबों को इसका लाभ सीधे पहुंचाने के लिए इस आदेश के अनुसार हर दलित, आदिवासी मोहल्ले एवं आबादी में जल्द से जल्द इसे खोला जा। आंगनबाड़ी केन्द्र में पोषण आहार पहुंचाने के लिए ठेकेदार का उपयोग नहीं किया जायेगा और पोषण आहार की आपूर्ति केवल स्थानीय महिला समूह द्वारा की जाएगी। न्यायालय के इस हस्तक्षेप की वजह से भोजन के अधिकार को मुद्दे को समाज की मुख्यधारा के सामने लाने में सफलता हासिल हुई है।

पूरी दुनिया में है अधिकार
भोजन का अधिकार मानवाधिकार से जुड़ा मसला है। अंतरराष्ट्रीय आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों की प्रसंविदाओं में भी इसे बार-बार दोहराया गया है। भोजन के अधिकार को अनेकों राष्ट्रों के संविधानों में जगह प्रदान की गई है। सामान्य टिप्पणी (क्रमांक 12) (जो कि आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों की समिति ने दी थी) में भोजन के अधिकार को परिभाषित किया गया है। इसके अनुसार प्रत्येक पुरुष, स्त्री और बच्चों को अकेले और समुदाय के रूप में भौतिक और आर्थिक रूप से हर समय पर्याप्त भोजन अथवा उसकी अभिप्राप्ति के साधन मानवीय गरिमा के साथ सुसंगत रहेंगे, इसे ही भोजन का अधिकार माना गया है। इस लिहाज से साधारण टिप्पणी के अनुसार भोजन के अधिकार का अर्थ तीन प्रकार के दायित्वों का आशय भी रखता है-सम्मान करने का दायित्व, संरक्षण और उसकी प्रतिपूर्ति। अंतरराष्ट्रीय प्रसंविदा (ईएससीआर) के अनुच्छेद 2 (1) के अंतर्गत राज्य यह अभिस्वीकृत करते हैं कि वे ऐसे कदम उठाएंगे जिनसे कि वे अपने उपलब्ध संसाधनों के अनुरूप उच्चतम सीमा तक पर्याप्त भोजन के अधिकार की प्राप्ति सुनिश्चित कर सकें। अनुच्छेद 2 (2) में कहा गया है कि राज्य इस बात के लिए भी सहमत हैं कि वे जिस भोजन की गारंटी प्रदान करेंगे, वह बिना भेदभाव के अमल में लाई जाएगी। अनुच्छेद-3 यह कहता है कि राष्ट्र यह भी विश्वास दिलाता है कि स्त्री और पुरुषों के बीच भोजन के अधिकार के उपभोग के मामले में समान अधिकार प्राप्त होगा।
विश्व खाद्य दिवस..
दुनियाभर में विश्व खाद्य दिवस हर साल 16 अक्टूबर को मनाया जाता है। यह खाद्य और कृषि संगठन की स्थापना के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। वर्ष 1945 में इस संगठन की स्थापना की गई थी। इस दिवस को मनाने का उद्देश्य लोगों को विश्व में व्याप्त भुखमरी के प्रति आगाह करना और उसे मिटाने के लिए ठोस कदम उठाने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित करना है। हर वर्ष 150 से ज्यादा देश इसे मनाकर अभियान की सार्थकता में अपना योगदान देते हैं। 1981 से हर साल विश्व खाद्य दिवस पर विषयवस्तु निर्धारित की जाने लगी और इसे ही लक्ष्य मानकर सभी देशों ने अपने स्तर पर काम किए हैं। वर्ष 1948 में मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा में प्रतिष्ठापित भोजन के अधिकार को अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर संवैधानिक उपायों द्वारा मजबूत किया जाना था। विश्व खाद्य शिखर सम्मेलन और सहस्त्राब्दी घोषणा में इस संबंध में उच्च स्तर पर प्रण लिए गए और उन अधिकारों को पूरा सम्मान दिया गया। खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) ने इन प्रायोगिक दिशानिर्देशों को फैलाया और उन्हें लागू करने के लिए अनुशंसाएं उपलब्ध कराईं। जिससे वैधानिक मान्यता और उसके कार्यान्वयन के अंतर को खत्म किया जा सके ।

अन्न पैदा करने वाला खुद भूखा
आर्थिक सुधारों के शुरुआती दौर में 1999 में प्रति व्यक्ति उपभोग 178 किलोग्राम था, जो 2002-03 में 155 किलोग्राम रह गया। निचले स्तर के लोगों का रोज ग्रहण किए जाने वाला कैलोरी का स्तर भी घटा है। कुल आबादी का पच्चीस प्रतिशत, जो 1987-88 में 1683 कैलोरी ग्रहण करता था, 2004-05 में वह घटकर 1624 कैलोरी रह गई है। भारत अनाज पैदा करने वालों के दुख-दर्द पर आंखें नहीं मूंद सकता। अनाज पैदा करने वाला अधिकतर ग्रामीण समुदाय भयानक भूख के दौर से गुजर रहा है। दुनियाभर में देखा जाए, तो भूखों की आधी आबादी तो उनकी है, जो खुद अनाज पैदा करते हैं। खेती के काम में महंगे निवेश के चलते किसान कर्ज में डूब जाते हैं। कर्ज चुकाने के चक्कर में उन्हें अपनी सारी पैदावार बेचनी पड़ती है। किसानों की बढ़ती आत्महत्याओं के मूल में भी यही कारण है। खाद्यान्न पैदा करने वाले लोगों को भूख से बचाने के लिए कि सस्ते, कम कीमत वाले कृषि उत्पादन को बढ़ावा देना चाहिए, साथ ही ऐसी कृषि को बढ़ावा देना चाहिए जो पारिस्थितिकी के अनुरूप हो।
-आशीष जैन

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मुंडे मुंडे नाल इश्क लडाओ...

दो जुलाई का दिन समलिंगियों के लिए तोहफा लेकर आया। समझ में नहीं आ रहा है कि ये बिरादरी एकाएक टीवी के परदों पर कैसे अवतरित हो गई। कल तक तो कोई यह बात खुले दिल से स्वीकार नहीं कर पाता था और आज एक फैसला मात्र आने से फिजा बदल गई है। केंद्र सरकार ने लाख कोशिशें की कि ये फैसला ना आए, उसने बहुत-सी दलीलें भी दीं, पर कोर्ट को उन दलीलों में कोई सार नजर नहीं आया। केंद्र ने कहा कि देश में समलैंगिकों की आबादी महज 0.3 फीसदी है। यदि समलैंगिक संबंधों को मान्यता दी गई, तो बाकी 99.07 आबादी के लिए शालीन और नैतिक जीवन जीने में बाधा पहुंचेगी। केंद्र सरकार ने धार्मिक उदाहरणों के भी बात समझाने की कोशिश की, पर कोर्ट ने कहा कि आप जाइए और वैज्ञानिक आधार लाइए। अब देश में हडकंप मचना लाजिमी था। मुल्ला-मौलवी-पंडित-पादरी, जैन गुरू सब विरोध में उतर आए। योग गुरू बाबा रामदेव और खूबसूरत तारिका सेलिना जेटली की समलैंगिकता पर तीखी नोंकझोंक भी टीवी पर आपने देखी होगी। भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी के हौसले की तारीफ करनी होगी। उन्होंने कहा कि एक-दो जज हर बात का फैसला नहीं कर सकते। संसद, देश और समाज न्यायपालिका से भी ऊंचे हैं। दिल्ली हाइकोर्ट के फैसले को ज्योतिष सुरेश कुमार कौशल ने उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी, तो सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार और उच्च न्यायालय में समलैंगिकों की पैरवी करने वाली नाज फाउंडेशन को नोटिस थमा दिया। मामला आगे चलता जाएगा, पर एक बात साफ है कि इससे भारतीय जनमानस की शुचिता की सीमाओं को लांघकर समलैंगिक शब्द उनकी जुबान पर चढ़ गया। सारे टीवी चैनल वालों के लिए तो यह मुद्दा टीआरपी का खजाना बन चुका था। नजारा देखिए कि टीवी पर जब से ये खबरें चली, सात समलैंगिकों की शादी के मामले देशभर में सामने भी आ गए। वाकई दो जुलाई एलजीबीटी के लिए के खुशी का दिन था। पर पहला सवाल उठता है कि ये एलजीबीटी आखिर है क्या? एल मतलब लेस्बियन मतलब दो महिलाओं के बीच यौन संबंध, जी मतलब गे मतलब दो पुरुषों के बीच यौन संबंध, बी मतलब बाइसेक्चुअल मतलब महिला और पुरुष दोनों से संबंध रखने वाले स्त्री-पुरुष और टी मतलब ट्रांसजेंडर मतलब जो पुरुष या महिला अपना सेक्स बदल लेते हैं।

आईपीसी का विवादित सेक्शन 377- जो भी स्वेच्छा से किसी व्यक्ति, महिला या पशु से कुदरती व्यवस्था के खिलाफ शारीरिक संबंध बनाएगा, उसे उम्रकैद या दस साल तक के कारावास और जुर्माने की सजा दी जाएगी। यह कानून करीब 150 साल पुराना है। सन् 1861 के भारतीय दंड विधान की धारा 377 का समावेश लार्ड मैकॉले ने किया था। इस धारा के अनुसार समलैंगिक संबंध और अप्राकृतिक यौन संबंध स्थापित करना गैर कानूनी और सजापात्र गुनाह माना गया है. धारा 377 के अनुसार यदि कोई व्यक्ति किसी महिला या पशु के साथ अप्राकृतिक रूप से यौन संबंध [गुदामैथुन] ( स्वैच्छा से ही सही) स्थापति करता है तो यह अपराध है। 1935 में इस धारा में सुधार किया गया और इसमें मुखमैथुन भी जोड़ दिया गया।
ये है फैसला
दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एपी शाह और न्यायाधीश एस मुरलीधर की खंडपीठ ने दो जुलाई को अपने फैसले के पैराग्राफ 132 में कहा कि हम घोषणा करते हैं कि भारतीय दंड विधान की धारा 377, जो एकांत में समान लिंग के व्यस्कों के बीच आपसी रजामंदी से बनाए गए संबंधों को अपराध मानती है, संविधान के अनुच्छेद 21, 14 और 15 का उल्लंघन है। लेकिन धारा 377 के तहत बिना रजामंदी के समान लिंग वालों के बीच यौन संबंध और अवयस्क के साथ यौन संबंध अपराध माने जाएंगे। अभी यह स्पष्ट नहीं है कि यह फैसला पूरे देश में लागू होगा या सिर्फ दिल्ली में।
उच्च न्यायालय के निर्णय के मुख्य बिंदु-
धारा 377 संविधान के खिलाफ है और मानव के गौरव की रक्षा का हनन करती है।
18 वर्ष से ऊपर के समलिंगी व्यक्तियों के बीच स्थापित होने वाला यौन सबंध गैर कानूनी नही है।
वयस्क व्यक्ति आपसी सहमति से समलैंगिक संबंध स्थापित कर सकते हैं।
18 वर्ष से कम उम्र के लोगों के बीच यौन संबंध मान्य नही है।
परदे के पीछे
यह फैसला 2001 में एक इतरलिंगी महिला और नाज फाउंडेशन की संस्थापिका अंजलि गोपालन के प्रयासों का नतीजा है। अंजलि ने धारा 377 के कुछ प्रावधानों को न्यायिक हस्तक्षेप से हटाने की मांग की थी। नाज फाउंडेशन ने दलील दी कि वह ऐसे समलैंगिक पुरुषों के बीच में एड्स रोकथाम कार्यक्रम चलाना चाहता है, पर उसे धारा 377 के चलते काम में दिक्कत आ रही है। 2001 में दिल्ली हाइकोर्ट ने इसे खारिज कर दिया। पांच साल बाद उच्चतम न्यायालय ने इसे वापस अदालत को भेज दिया। इस बार अंजलि ने आनंद ग्रोवर के नेतृत्व में लायर्स कलेक्टिव के वकीलों के मदद से जीत हासिल कर ली। दिल्ली उच्च न्यायालय ने समलैंगिकता पर प्रतिबंध को धार्मिक उद्धरण के जरिये न्यायोचित ठहराने के लिए पिछले 16 अक्टूबर को केंद्र सरकार को आड़े हाथ लेते हुए कहा कि इसे उचित ठहराने के लिए वह कोई वैज्ञानिक रिपोर्ट पेश करे। केंद्र सरकार की ओर से अतिरिक्त सालिसीटर जनरल पीपी मल्होत्रा ने प्रतिबंध को उचित ठहराने के लिए धार्मिक उद्धरण पेश किया। मुख्य न्यायाधीश एपी शाह की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने कहा यह एक धार्मिक निकाय का एकतरफा बयान है, जिस पर विश्वास नहीं किया जा सकता। यह धार्मिक सिद्धांत का एक हिस्सा है। हमें कुछ वैज्ञानिक रिपोर्ट दिखाई जाए, जो दर्शाए कि समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। महिला और पुरुष समलिंगियों की ओर से 15 याचिकाएं दायर कर इन कानूनों को चुनौती दी गई। इनमें उन्होंने अपनी पीड़ा का भी बखान किया है। पुलिस और दूसरे लोगों द्वारा किस तरह उन्हें उत्पीडऩ झेलना पड़ता रहा है इसका उन्होंने अपनी याचिकाओं में जिक्र किया है। बंगलौर स्थित गैर-सरकारी संगठन 'अल्टरनेटिव लॉ फोरमÓ के मुताबिक धारा 377 के कारण समलिंगियों को काफी उत्पीडऩ झेलना पड़ा है। केंद्रीय गृह मंत्रालय का मानना है कि समलैंगिक कृत्य में शामिल लोगों को भारतीय समाज अपराधी मानती है इसलिए यह सार्वजनिक तौर पर नहीं हो रहा है। ऐसे में यदि भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को हटा दिया जाए तो समलैंगिक कृत्य बड़े पैमाने पर होने लगेंगे। दूसरी ओर स्वास्थ्य मंत्रालय का मानना है कि आपसी सहमति के आधार पर शारीरिक संबंध बनाने वाले समलैंगिक व्यक्तियों को सजा से दूर रखा जाना चाहिए।
चाल है या सुरक्षा है
कुछ लोगों का आरोप है कि जिस नाज फाउंडेशन ने यह मामला अदालत में जीता है, उसके कर्ता-धर्ता को पुलिस ने दस साल पहले इसलिए पकड़ा था कि उन्होंने बेंगलुरू में लोगों को समलैंगिक रिश्तों का प्रशिक्षण देने के लिए बाकायदा कक्षाएं शुरू कर दी थीं। नाज फाउंडेशन देश में समलैंगिकता के प्रसार के लिए काम कर रहा है। कुछ लोगों का मानना है कि समलैंगितकता को वैध बनाने के वैश्विक सेक्स माफिया काम कर रहा है। वह भारत को मैक्सिको और थाइलैंड से भी बड़ा सेक्स बाजार बनाना चाहता है। हाइकोर्ट का फैसला आते ही जिस तरह लोग खुशी में सड़कों पर उतर आए, उसके पीछे भी कोई साजिश समझी जा रही है। क्या यह वाकई कोई इतनी बड़ी बात थी कि पूरा देश में चेहरे गद्गद् हो जाएं। संस्कृति पुरोधाओं की सोच है कि सेक्स इंडस्ट्री दुनिया की तीसरी सबसे ताकतवर इंडस्ट्री है। तीन ट्रिलियन डॉलर की यह इंडस्ट्री 1985 से ही भारत को अपने कब्जे में लेना चाहती थी। पर धारा 377 उसकी राह का सबसे बड़ा रोड़ा थी। अब इस फैसले के बाद दिल्ली, मुंबई जैसी मैट्रो सिटीज में गे-पार्लर और गे क्लब खुलने में देर नहीं लगेगी। हो सकता है, वेश्यावृत्ति को भी कानूनी दर्जा मिल जाए। जानकारों का मानना है कि इस धारा का इस्तेमाल नाबालिगों की यौन उत्पीडऩ से रक्षा करने में भी किया जाता रहा है। अवकाश प्राप्त न्यायाधीश जे. एन. सल्डान्हा ने भी एक बार इस धारा का इस्तेमाल यौन उत्पीडऩ के शिकार हुए 10 साल के बच्चे को इंसाफ देने में किया था और इस मामले में दोषी पाए गए एक तांत्रिक को 10 साल की कैद व 25 लाख रुपये के जुर्माने की सजा मिली थी। न्यायाधीश सल्डान्हा ने खुद युवा वकील के तौर पर तीन दशक पहले मुंबई में लड़े गए एक केस का हवाला दिया। इस मामले में एक युवा कॉलगर्ल ने एक अरबी के खिलाफ शिकायत की थी। उस कॉलगर्ल की शिकायत थी कि अरबी नागरिक ने उसके साथ अप्राकृतिक कुकर्म कर उसे चोट पहुंचाई थी। हालांकि इस मामले में यौन संबंध सहमति से हुआ था, लेकिन वह व्यक्ति समलैंगिक प्रवृत्ति का था। कॉलगर्ल मुआवजा चाहती थी और आखिरकार उस व्यक्ति को दो लाख रुपये का मुआवजा देना पड़ा। ये तो हुई संस्कृति पुराधाओं की बातें। अब खुद समलिंगी समाज की बातों पर भी गौर कर लें। कुछ लड़के व्यस्क होने के बाद लड़कियों की तरह व्यवहार करना शुरू कर देते हैं। घरवालों को जब यह पता लगता है, तो वे उन्हें परेशान करना शुरू कर देते हैं। उनके निराशा, कुंठा घर करने लगती है। गे और लेस्बियन होना एक मानसिकता है। ऐसे में उन्हें बुरी नजरों से देखने की बजाय उनकी सोच को समझने की जरूरत ज्यादा होती है। जयपुर में समलैंगिकों के लिए पिछले डेढ़ साल से काम कर रही संस्था नई भोर गे और किन्नरों के मनोविज्ञान को समझने के लिए रिसर्च कर रही है। राज्य में लाखों समलैंगिक होने का दावा करने वाली संस्था के कार्यकर्ता बताते हैं कि हमारे पास आने वाले समलैंगिक कई तरह की समस्याएं लेकर आते हैं। समाज, घर-परिवार और कानून से जुड़े लोगों की ब्लैकमेलिंग से ये लोग परेशान रहते हैं। किसी तरह ये लोग अपने जोड़ीदार के साथ जीवन व्यतीत करते हैं। कभी इनके मन में सेक्स चैंज करवाने की बात भी आती है, पर सेक्स चेंज करवाने के चलते इनमें हार्मोनल डिसऑर्डर पैदा हो सकता है। साथ ही सेक्स चैंज करवाने में खर्चा भी काफी आता है, ऐसे में ये लोग ताउम्र परेशान रहते हैं। अब कोर्ट का फैसला आने के बाद यह वर्ग खुद को कानूनी रूप से सुरक्षित महसूस कर रहा है।
पूरी दुनिया में है
26 लाख भारतीय समलैंगिकों में 25 लाख गे और एक लाख लेस्बियन हैं। महाराष्ट्र में देश के सबसे ज्यादा समलैंगिक रहते हैं। अकेले महाराष्ट्र में 48 हजार गे हैं। समलैंगिक यौनसंबंधों को कानूनी मान्यता देने वाला भारत दुनिया का 127 वां देश बन गया है। दुनिया के कई अन्य देश इसे पहले से ही मान्यता दे चुके हैं वहीं अभी भी 80 देश ऐसे हैं जहाँ यह मान्य नहीं है। तुर्की, सऊदी अरब और ईरान में यह अब भी प्रतिबंधित है। दक्षिण अफ्रीका एकमात्र ऐसा देश है, जहां संवैधानिक रूप से लैंगिक आधार पर भेदभाव की मनाही है। अमरीका के न्यूयॉर्क में वर्ष 1969 में स्टोनवाल पब में दंगे भड़के थे और इन घटनाओं को समलैंगिकों के अधिकारों के लिए संघर्ष की बुनियाद माना जाता है। समलैंगिक सेक्स को मान्यता देने वाला प्रथम देश डेनमार्क था। यहां 1989 को समलैंगिंक सबंधों को मान्यता दी गई थी। इसके बाद कई अन्य यूरोपीय देशों जैसे कि नार्वे, स्वीडन और आयरलैंड ने भी इसे मान्यता दी। 2001 में नीदरलैंड ने समलैंगिक युगल को नागरिक विवाह अधिकार देकर नई प्रथा शुरू की और कई यूरोपीय देशों ने उसका अनुसरण भी किया। 16 देशों में समलैंगिक जोड़ों के संयोजन को मान्यता प्राप्त है। नीदरलैंड, बेल्जियम, स्पेन, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका और नार्वे में समलैंगिक विवाह मान्य हैं। भारत जैसी दण्ड संहिता को अख्तियार करने वाले सिंगापुर ने साफ किया है कि वह अपने यहां समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से नहीं हटायेगा।
इतिहास से झांकता समलिंगी
पौराणिक इतिहास का सबसे चर्चित समलिंगी पात्र शायद शिखंडी है। भीष्म की मृत्यु में महत्वपूर्ण पात्र निभाने वाले शिखंडी का जन्म कन्या के रूप में हुआ था परंतु उसके पिता को यकीन था कि शिव के वचनानुसार शिखंडी एक दिन पुरूष बन जाएगा और उसे उसी तरह से पाला गया था। इससे शिखंडी महिला और पुरूष के बीच में पीस गया। मशहूर लेखिका इस्मत चुगताई की महिला समलैंगिकता पर लिखी किताब 'लिहाफÓ पर 1941 में जोरदार हंगामा हुआ था और उन पर ब्रिटिश सरकार ने मुकदमा चलाया था। बाबर ने अपनी आत्मकथा बाबरनामा में समलैंगिक रिश्तों का जिक्र करते हुए कई बड़े-बड़े लोगों को फटकार लगाई थी कि उन्होंने अपनी जिस्म की भूख मिटाने के लिए लड़के रख रखे हैं। कहा जाता है कि लखनऊ के कई नवाब, माइकल एंजिलो, अरस्तू, सुकरात, शेक्सपीयर, अब्राहम लिंकन, फ्लोरेंस नाइटेंगल, टेनिस खिलाड़ी मार्टिना नवरातिलोवा, हिटलर जैसे कई लोग कम या ज्यादा मात्रा में समलिंगी थे। सिकंदर और नेपोलियन की सेनाओं में ऐसे संबंध आम थे। प्रसिद्ध लेखक सलीम किदवई के अनुसार मीर तकी मीर और शरमद शाहीद जिन्हें हरे भरे शाह के नाम से भी जाना जाता है, भी समलैंगिक थे। मशहूर उर्दू शायर हाफिज फारसी कहते थे- गर आन तुर्क शीराजी बे-दस्त आरद दिल-ए-मारा, बा खाल हिंदोश बख्शम समरकंद ओ बुखारा। इसका अर्थ है- अगर यह तुर्क लड़का मेरे दिल की पुकार सुन ले, तो इसके माथे पर लगे मस्से के लिए मैं समरकंद और बुखारा कुर्बान कर दूं। शायर मीर को पढि़ए- तुर्क बच्चे से इश्क किया था रेख्ते मैंने क्या क्या कहे, रफता रफता हिंदुस्तान से शेर मेरा ईरान गया। समकालीन उर्दू कविता में इफतिखार नसीम 'इफतीÓ खुद को समलैंगिक मानते थे। हिंदी साहित्य में श्याम मनोहर जोशी में अपने लेखन में समलैंगिक संबंधों को खूब दुत्कारा है।
-आशीष जैन

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चीन में दंगा

चीन मुश्किल में है। पिछली साल तिब्बत में दंगे और अब उइगरों के गढ़ शिनजियांग में मुसीबत। चीन सोच रहा है कि कम्युनिस्ट राज्य बनने की हीरक जयंती (60 साल) सकुशल पूरी हो जाए और वह दुनिया को बताए कि वह कम्युनिज्म को खुशी-खुशी अपनाए हुए है। पर मुश्किल कम नहीं हैं। दंगों पर लगाम तो कस ली गई है, पर वैश्विक स्तर पर चीन की जो किरकिरी हुई है, उसके चलते वह सोच रहा है कि क्या दमन नीति ही सर्वोच्च नीति है? चीन के शिनजियांग प्रांत की राजधानी उरुमची में हाल के दिनों में जातीय दंगे हुए। चीन के राष्ट्रपति हू जिंताओ को आनन-फानन में इटली से जी-5 के सम्मेलन को छोड़कर अपने देश पहुंचना पड़ा। चीनी सरकार ने दंगों पर नियंत्रण तो पा लिया है, पर इन दंगों ने दुनिया के सामने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। ये जातीय दंगे पिछले साल तिब्बत की राजधानी ल्हासा में हुए दंगों का दूसरा संस्करण मालूम पड़ते हैं। कुछ लोगों का मानना है कि यह एक तरह से व्यापक इस्लामिक गोलबंदी के तहत किया जा रहा है। गौरतलब बात है कि कश्मीर में पकड़े गए विदेशी आतंकवादियों में शिनजियांगवासी उइगरों के नाम भी उजागर हुए। ऐसे में किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी।

दंगे की शुरुआत
जून में हॉन्गकॉन्ग के नजदीक दक्षिणी चीन के शहर ग्वांगदांग में एक खिलौना फैक्ट्री में चीन की बहुसंख्यक हान जाति के मजदूरों ने दो उइगर मजदूरों को किसी हान महिला से बलात्कार के आरोप में पीट-पीटकर मार डाला था। इस आपसी भिडंत में 118 लोग घायल भी हुए। इसके बाद उत्साहित हान समुदाय के लोगों ने वेबसाइटों के माध्यम से उइगरों पर जीत का एलान कर दिया। हान समुदाय ने चीन के सारे उइगर समुदाय को समाप्त करने का एलान कर दिया। इससे उइगर भड़क गए। जुलाई माह में उइगर जाति के लोग उस घटना का शांतिपूर्ण विरोध कर रहे थे और पूरे मामले की जांच की बात कह रहे थे। इस प्रदर्शन में पुलिसिया कार्रवाई और हिंसक हुई भीड़ के चलते लगभग 160 लोग मारे गए और एक हजार से ज्यादा लोग घायल हो गए। आश्चर्य की बात है कि शुरुआती लड़ाई ग्वांगदांग की खिलौना फैक्ट्री में हुई थी, जबकि इसका अंजाम ग्वांगदांग से बहुत दूरी पर स्थित शिनजियांग प्रांत की राजधानी उरुमची में देखने को मिला। कहा यह भी जाता है कि उइगरों के अलकायदा से संबंध हैं, जबकि सभी उइगर खुद को स्वतंत्र सोच के प्रजातांत्रिक व्यक्ति बताते हैं। उनके मुताबिक चीन की सरकार उन्हें अल्पसंख्यक साबित करके हमारे क्षेत्र पर कब्जा करने के लिए ऐसा कर रही है। बीजिंग ओलिम्पिक आयोजन के दौरान भी उइगर कट्टरपंथियों के हमले में 17 पुलिसकर्मियों को जिंदा जला दिया गया था। इसके बाद उइगर आबादी पर चीनी सेना का दमन चक्र चला था। उस समय चीन का आरोप था कि बीजिंग ओलंपिक में बाधा डालने के लिए अमरीका ने उइगरों को भड़काया है।
उइगर और शिनजियांग प्रांत
चीन के बहुसंख्यक हान बौद्ध समुदाय और 55 अल्पसंख्यक समुदायों के बीच हमेशा तनावपूर्ण और नाजुक संबंध रहे हैं। ध्यान देने वाली बात है कि हान समुदाय चीनी आबादी का लगभग 93 फीसदी है। उइगर नेता शिनजियांग को पूर्वी तुर्किस्तान कहते हैं। यह चीन का उत्तर-पश्चिम प्रांत है। इसकी सीमाएं पाकिस्तान, भारत, अफगानिस्तान, खिरनीस्तान, कजाकिस्तान, रूस और मंगोलिया से मिली हुई हैं। यहां तुर्की भाषा से मिलती-जुलती भाषा बोली जाती है और यह प्रांत अपने आपको सेंट्रल एशिया के देशों के अधिक करीब पाता है। हालांकि शिनजियांग को स्वायत्त क्षेत्र का दर्जा प्राप्त है, लेकिन चीनी अधिकारी बाहर से हान समुदाय को लाकर शिनच्यांग में बसा रहे हैं ताकि उग्यूर अपने ही प्रांत में अल्पसंख्यक हो जाएं। टकराव की असल वजह यही है। उइगर तुर्की मूल के मुसलमान हैं। शिनजियांग प्रांत में उइगर समुदार की जनसंख्या 45 फीसदी है। वहीं हान चीनी समुदाय के लोगों की जनसंख्या 40 फीसदी है। 20 वीं शताब्दी के शुरुआत में उइगरों ने आजादी का एलान किया था लेकिन यह अधिक समय तक टिक नहीं सकी और 1949 में पूर्वी तुकिस्तान पर फिर कब्जा कर लिया गया। तब से वहां बड़ी संख्या में हान चीनी लोग बसने लगे हैं। उइगर लोग अपनी पारंपरिक संस्कृति को लेकर चिंतित हैं। साल 1991 से वहां रुक-रुककर हिंसा होती रही है। चार अगस्त, 2008 में काशगार में 16 चीनी पुलिसकर्मी मारे गए। शिनजियांग प्रांत में उइगर समुदाय की आबादी लगभग 80 लाख के करीब है, वहीं प्रांत की राजधानी में हान समुदाय के लोगों की संख्या 23 लाख है। शिनजियांग चीन का 1/6 हिस्सा है और इसकी आबादी 210 लाख है। इसमें 47 देशज गुट हैं। इनमें सबसे बडा गुट 80 लाख उइगर मुस्लिमों का है। भौगोलिक रूप से कश्मीर से सटा और आकार में भारत का आधा शिनजियांग प्रांत न सिर्फ चीन के कुल क्षेत्रफल का छठा हिस्सा घेरे हुए है बल्कि तेल-गैस और धातुओं के मामले में चीनी अर्थव्यवस्था इस पर पूरी तरह निर्भर करती है।
चीन की विस्तारवादी नीति के चलते तिब्बत, हेन्नान और शिनजियांग प्रांत में भी अब धार्मिक और नस्लीय तनाव हिंसा में बदलने लगा है। जिस तरह चीन ने तिब्बत पर कब्जा करके वहां बड़ी संख्या में हान लोगों को बसाया था, उसी तरह इस बार शिनजियांग प्रांत में भी शिकायत आ रही है कि उइगरों के मुकाबले हान लोगों को बसाकर चीन सरकार उस क्षेत्र में उइगरों को अल्पसंख्यक साबित करना चाहती है।
सांस्कृतिक रूप से संपन्न
चीन में केवल एक मुस्लिम बहुल प्रांत है- शिनजियांग। यहां लगभग आधी आबादी उइगर मुसलमानों की है, जो पूर्वी तुर्किस्तानी मूल के हैं। उनके चेहरे, भाषा, खान-पान, रहन-सहन सब कुछ चीन की मुख्यभूमि के हान समाज से एकदम अलग हैं। 18वीं सदी के मध्य में चीन ने पूर्वी तुर्किस्तान पर कब्जा कर उसे शिनजियांग नाम दिया था। इसका शाब्दिक अनुवाद है-नया सीमांत। उइगरों की भाषा तुर्की परिवार की है, जो आज भी अरबी लिपि में लिखी जाती है। हालाकि चीन सरकार ने वहा उइगर भाषा ही नहीं, कुरान भी चीनी लिपि में पढ़ानी शुरू की है। काशगर यहां का मुख्य महानगर है। यह संपूर्ण क्षेत्र ग्यारह शताब्दियों तक बौद्ध मत का अनुगामी रहा। यहा हजारों की संख्या में बौद्ध स्तूप, मठ, मंदिर और अनुवाद शालाओं का निर्माण हुआ। कश्मीर से आए युवा भिक्षु कुमार जीव ने इस क्षेत्र में अपने ज्ञान और करुणा के माध्यम से बौद्ध मत का प्रसार किया। दसवीं शताब्दी के मध्य में चंगेज खान की फौजों ने बौद्ध मंदिरों को तबाह करते हुए सारी आबादी को जबरदस्ती इस्लाम मंजूर करवाया था। लुयान, कुचा के बौद्ध शिल्प और तुरपान की बौद्ध गुफाएं आज भी सुरक्षित हैं। उस समय यह क्षेत्र चीन में बौद्ध मत के प्रवेश का प्रथम द्वार था और शाति एवं अहिंसा के मंत्रों से दुनिया की सर्वश्रेष्ठ कला और साहित्य के सृजन का गढ़ बना था। इस्लामी हमलावरों ने उस समय के समाज को पूरी तरह से तबाह कर दिया। बीच में बीजिंग के सम्राटों का दखल चलता रहा। कुमार जीव को बीजिंग के सम्राट ने अपने दरबार में आमंत्रित कर उन्हें 'राजगुरुÓ की उपाधि दी थी। उसी दखलंदाजी और संबंधों का हवाला देकर चीन शिनजियांग पर अपना प्राचीन नियंत्रण होने का दावा करता है। ऊरुमकी को मूल उर्वशी भी माना जाता है। शिनजियांग नामकरण से पूर्व भारतीय शास्त्रों तथा बौद्ध ग्रंथों में यह क्षेत्र 'रत्नभूमिÓ के नाम से प्रसिद्ध रहा है। यहा की स्त्रिया उर्वशी के समान सुंदर, पुरुष कद्दावर और बलिष्ठ तथा धरती रत्नगर्भा मानी गई है। चीन ने शिनजियांग के तालिबानों पर नियंत्रण के लिए पाकिस्तान पर भरोसा किया। कहा जाता है कि ओसामा बिन लादेन ने चीन सरकार को संदेश भिजवाया था कि इस क्षेत्र को अमेरिकी दखल से मुक्त रखने के लिए वह चीन के सहयोग के लिए तैयार है। शिनजियांग की प्रांतीय सरकार ने अफगानिस्तान के तालिबानों को नब्बे अरब डालर की मदद की।
रेबिया कदीर उग्रवादी या समाजसेवी
रेबिया कदीर और दलाई लामा दोनों ही चीन में अपने-अपने लोगों के हकों के लिए काम कर रहे हैं। जहां दलाई लामा तिब्बत की आजादी के लिए प्रयासरत हैं। वहीं रेबिया कदीर उइगरों के हक के लिए सोचती हैं। वे कभी चीन की सबसे अमीर महिलाओं में से एक हुआ करती थीं, पर आज उनके पास अपना एक पैसा भी नहीं है और वे अमरीका के वॉशिंगटन में निर्वासित जीवन बिता रही हैं। रेबिया कदीर के यूं तो ग्यारह बच्चे हैं, पर वे एक करोड़ से ज्यादा उइगरों की मां हैं। बासठ साल की रेबिया को चीन की कम्युनिस्ट सरकार उग्रवादी के रूप में देखती है। गौर करने वाली है कि रेबिया कभी चीन की संसद की सदस्य थीं और चीन की महिलाओं का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिनिधित्व किया करती थीं। कभी उनका बहुत सम्मान करने वाली चीन की सरकार ने उन पर आरोप लगा दिया कि वे शिनजियांग प्रांत में छपने वाले स्थानीय अखबारों को वे अपने पति सिद्दीक रौजी के लिए देश से बाहर भेजती थीं। इस काम के लिए उन्हें चीन की सरकार ने छह साल के जेल में डाल दिया। पूरी दुनिया के दबाव में आकर चीन सरकार ने उन्हें बरी तो किया, पर निर्वासित जीवन जीने पर मजबूर कर दिया। अब रेबिया ने अपने जीने का एक ही उद्देश्य बना लिया है, वह है-शिनजियांग की आजादी। चीन में हान समुदाय और उइगर लोगों से बीच में हुए दंगों का आरोप रेबिया पर लगाया गया है। जिस तरह चीन में साल 2008 को तिब्बत विद्रोह के रूप में जाना गया, वैसे ही साल 2009 को उइगर विद्रोह के रूप में देखा जाएगा। चाहे चीन सरकार ने चप्पे-चप्पे पर पुलिस का पहरा तैनात करके विद्रोह को दबा दिया है, पर बगावत से यह बात तो साबित ही हुई है कि चीन दमन नीति को आज भी सर्वोपरि समझता है। रेबिया का जन्म 21 जनवरी 1947 को एक गरीब परिवार में हुआ। लॉन्ड्री के काम से अपने बिजनेस की शुरुआत करके वे एक टे्रडिंग कंपनी की मालिक बनीं। उन्होंने एक प्रोजेक्ट के तहत उइगर महिलाओं को रोजगार शुरू करने के लिए धन मुहैया कराया। 1997 के शिनजियांग के गुलजा उइगर नरसंहार के बाद वे चीनी सरकार के विरोध में उतर आईं। 1999 के आते-आते चीनी सरकार ने उन पर देशद्रोह का इल्जाम लगाकर जेल में डाल दिया। साल 2005 में उस समय की विदेश मंत्री कोंडालिसा राइस के हस्तक्षेप के चलते उन्हें रिहा किया गया। रोचक बात है कि जिस राबिया पर चीन में दंगे फैलाए जाने का आरोप लगाया जा रहा है, उन्हें 2006 में नोबल पुरस्कार के लिए नामित किया गया। उन्हें समाजसेवा के लिए 2004 में 'राफ्टो पुरस्कारÓ से भी सम्मानित किया गया था। रेबिया ने दो शादियां की थीं। उनके दो बच्चे अभी भी जेल में हैं। वे उइगरों के हक के लिए किए जाने वाले शांतिपूर्ण संघर्ष की पक्षधर रही हैं। चीन उन पर आरोप लगाता आया है कि उनके संबंध पूर्वी तुर्किस्तान के उग्रवादी संगठन इस्लामिक मूवमेंट से है। गौर करने वाली बात है कि शिनजियांग प्रांत में रहने वाले उइगर मुस्लिमों के तुर्की से काफी गहरे सांस्कृतिक और सामाजिक संबंध रहे हैं। शिनजियांग चीन में प्राकृतिक गैस का सबसे बड़ा स्रोत है और इसकी सीमाएं रूस, मंगोलिया, कजाकिस्तान, किरगिस्तान, तजाकिस्तान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत से मिलती हैं।
अंतरराष्ट्रीय सोच
पश्चिमी देश चीन को घेरने के लिए दक्षिणी और पश्चिमी प्रांतों तिब्बत और शिनचियांग का सहारा लेते हैं। कम्युनिस्ट चीन के संस्थापक माओत्से तुंग जो भी यह बात पता थी। तभी वे अपने देश की सबसे बड़ी समस्याओं में हान बनाम गैर हान टकराव को प्रमुख तरजीह देते थे। उन्होंने सरकार के नीति निर्देशक तत्वों में इस बात को शामिल करवाया कि किसी भी कीमत पर इनमें शत्रुतापूर्ण संबंध ना पनप पाएं। पर ऐसा ज्याादा समय तक हो नहीं पाया। जनसंख्या का अनुपात बदलते रहने से लोगों के बीच में कटुता बढ़ती ही जा रही है। शिनजियांग में किसी न किसी रूप में मुस्लिम असंतोष पनपता रहे, इसमें अमेरिका और ब्रिटेन के उन रणनीतिकारों की गहरी दिलचस्पी है जो मध्य एशिया में चीन के वर्चस्व को कम करते हुए अमेरिकी प्रभाव बढ़ाना चाहते हैं। माना जाता है कि पश्चिमी देश उइगरों के बड़े समर्थक हैं। तुर्की के प्रधानमंत्री एर्डोगान का बयान भी मायने रखता है कि चीन में दंगे नहीं, सामूहिक नरसंहार हो रहा है। उनका तो यहां तक कहना है कि वह रेबिया कदीर को तुर्की का वीजा देने की तैयारी कर रहे हैं।
क्या है इतिहास
चीन के कम्युनिज्म के जन्मदाता नेता माओत्से तुंग तिब्बत और शिनजियांग पर कब्जे के साथ-साथ इन दोनों क्षेत्रों के बीच में गलियारे के रूप में भारत के अक्साई चिन क्षेत्र को चाहते थे। उन्होंने ऐसा किया भी। 1949 में शिनजियांग पर कब्जा करने के एक साल बाद ही तिब्बत को चीनी शासन के अधीन ले लिया। तभी से वह भारत के 38,000 वर्ग किलोमीटर के अक्साई चिन इलाके पर अतिक्रमण करने लगा। यह क्षेत्र करीब-करीब स्विट्जरलैंड के जितना है। फिर माओ ने 1962 में भारत के साथ लड़ाई में अक्साई चिन को पूरी तरह अपने कब्जे में ले लिया। अब चीन अक्साई चिन की कुनलुन पहाडिय़ों के जरिए तिब्बत और शिनजियांग तक पहुंचने वाले एकमात्र गलियारे पर अपना कब्जा रखता है। चीनी गणराज्य का करीब 60 प्रतिशत भूभाग ऐसा है जिस पर सीधे हान शासन नहीं चलता था। क्षेत्र के हिसाब से हान सत्ता अपने उत्कर्ष पर है। यह इस बात से पता चलता है कि चीन की दीवार चीन के बाहरी क्षेत्र के घेरे में बनाई गई थी।
तारीख पर भारी तवारीख
चीन में कम्युनिस्ट सत्ता को इस साल 60 साल पूरे हो रहे हैं। चीनी सरकार इस बार बड़ा जश्न मनाना चाहती है, ऐसे में वह किसी भी तरह के विद्रोह को दबाने के लिए तैयार है। चीन का तकरीबन 60 फीसदी भूभाग ऐसे क्षेत्रों से मिलकर बना है, जो ऐतिहासिक तौर पर हान साम्राज्य के अधीन नहीं थे। आज शिनजियांग और तिब्बत कुल मिलाकर चीन का तकरीबन आधा क्षेत्र है। इस बार 4 जून (इसी तारीख को 1989 को थियानमन चौक पर लोकतंत्र समर्थकों के मौत के घाट उतारा गया था) के बीस साल पूरे होने पर बीजिंग में बहुत तगड़ी सुरक्षा व्यवस्था थी। चीन के पूर्वी तुर्किस्तान को खुद में मिलाने के 60 बरस पूरे होने के अवसर पर उइगरों का विद्रोह एक प्रतीकात्मक संकेत देता है। चीनी सरकार भी कम नहीं है। वह 28 मार्च (तिब्बत पर सीधे शासन की घोषणा की पचासवीं वर्षगांठ) को 'गुलाम उद्धार दिवसÓ के रूप में मनाकर खुद को ऊंचा साबित कर रही है, वहीं दूसरी ओर इस बात पर भी खुश हो रही है कि चीन के कब्जे के खिलाफ तिब्बत के राष्ट्रीय विद्रोह और इसके बाद दलाई लामा के विमान से सकुशल भारत चले जाने की पचासवीं सालगिरह बिना शोर-शराबे के गुजर गए। हान समुदाय में मंचू लोगों को साथ मिलाने और स्थानीय लोगों को अंदरूनी मंगोलिया में ठूंसने के बाद तिब्बती और शिनजिंयाग के तुर्की बोलने वाले परंपरागत मुस्लिम समूह ही भिन्न समुदाय के रूप में बचे हैं। यहां पर जहां स्थानीय लोगों को छोटे-मोटे काम ही मिले, वहीं बाहर से आकर बसे हान समुदाय के लोगों को अच्छी कमाई वाली नौकरियां मिलीं।
-आशीष जैन

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बलूचिस्तान के बहाने भारत पर निशाने

अच्छे-अच्छे राजनीतिज्ञों को आज तक एक बात समझ नहीं आई कि पाकिस्तान के पास इतने बेहतरीन हुक्मरान हैं, फिर भी यह देश पिछड़ा हुआ क्यों है? जब ये नेता अपनी कुटिल चालों और वक्तव्यों से पूरी दुनिया को पगला बना सकते हैं, तो खुद अपने देश का भला क्यों नहीं कर सकते? क्यों वे पाकिस्तान के विकास की गाड़ी को संभाल नहीं पाते। ताजा संदर्भ मिस्र के शर्म अल शेख में गुटनिरेपक्ष आंदोलन के 15वें शिखर सम्मेलन को लेकर है।

मानना पड़ेगा, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री युसूफ रजा गिलानी बड़े कूटनीतिज्ञ हैं। भारत के भोले-भाले प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन को साझा घोषणा पत्र में उलझाकर रख दिया। उन्होंने बड़ी सफाई से यह जतला दिया कि पाकिस्तान के बलूचिस्तान में भारत की वजह से गड़बड़ी हो रही है। सबसे दिलचस्प बात है कि इस सबमें कश्मीर का जिक्र तक नहीं आया। पाकिस्तान से अब लगभग हर रोज बलूचिस्तान और हिंदुस्तान के झूठे गठजोड़ की खबरें आ रही हैं। दरअसल पाकिस्तान विश्व समुदाय का ध्यान मुंबई बम हमलों के आरोपियों से हटाना चाहता है और यह दिखलाना चाहता है कि वह भी आतंक से पीडि़त है। वह दुनिया की सहानुभूति बटोरना चाहता है और पीछे से मुंबई हमलों के आरोपियों को पाकिस्तान में खुली छूट देना चाहता है। यूं उसे भारत के खिलाफ आतंकियों को पोसने से कोई गुरेज नहीं है, पर जब खुद के हालात सुधारने की बात आती है, तो वह कदम पीछे क्यों हटाता है, यह समझ से परे है। पाकिस्तान की नीति रही है कि किसी भी मुद्दे पर भारत को फंसाकर विश्व समुदाय के सामने अपनी वाहवाही लूटना। यहीं भारत के नेता मात खाते हैं। वे दूरगामी सोच की बजाय मुद्दों को सतही तौर पर लेते हैं। अगर ऐसी बात नहीं होती, तो यह आसान बात नहीं थी कि भारत-पाक साझा घोषणा पत्र में बलूचिस्तान का जिक्र आ जाता और देश के प्रधानमंत्री को सबको सफाई देनी पड़ती।
धूल भरी आंधी, रेतीले इलाके, बंजर जमीन और बर्बर लड़ाकू कबीले ही बलूचिस्तान की असल तस्वीर हैं। वहां इन कबीलों का खुद का कानून चलता है। इस कानून में हाथ के बदले हाथ और सिर के बदले सिर लेने की परंपरा आम है। बलूचिस्तान पाकिस्तान का पश्चिमी प्रांत है। इसकी राजधानी क्वेटा है। यहां के लोगों की प्रमुख भाषा बलूची है। इस प्रांत में 27 जिले हैं। 1944 में बलूचिस्तान की आजादी का खयाल जनरल मनी के दिमाग में आया था, पर 1947 में ब्रिटिश सरकार के इशारे पर इसे पाकिस्तान में शामिल कर लिया गया । 1970 के दशक में बलोच राष्ट्रवाद का उदय हुआ, जिसमें बलूचिस्तान को पाकिस्तान से आजाद करने की मांग उठने लगी। यह प्रदेश पाकिस्तन के सबसे कम आबाद इलाकों में से एक है । सत्तर के दशक में यहां पाकिस्तानी शासन के खिलाफ मुक्ति अभियान भी चलाया गया था, पर उसे कुचल दिया गया । पाकिस्तान के 40 फीसदी से ज्यादा क्षेत्र में फैले बलूचिस्तान में जिंदगी नरक से भी बदतर है। पर पाकिस्तान सरकार चाहती है कि किसी तरह यह इलाका पूरी तरह से उसके कब्जे में रहे। इसका कारण हैं- वहां पाए जाने वाले यूरेनियम, पेट्रोल, नेचुरल गैस, तांबा। पाकिस्तान किसी तरह से इन संसाधनों पर अपना कब्जा करना चाहता है। इसीलिए पाकिस्तान को बलूचियों की अफगानिस्तानियों से बढ़ती नजदीकियां रास नहीं आती। पाकिस्तानी सरकार के पास अभी बलूचिस्तान के पांच फीसदी हिस्से पर ही कब्जा है। बाकी के 95 फीसदी हिस्से पर कबीलों का राज चलता है। पाकिस्तान सरकार उसी हिस्से को पाने के लिए संघर्ष करती रहती है और सारे विद्रोह को भारत की कारस्तानी साबित करना चाहती है।
बलूचिस्तान के हक की बात करने वाले नवाब बुगती की मौत को बलूची लोग अभी पूरी तरह भुला नहीं पाए हैं। विद्रोही नेता अकबर बुगती को जनरल परवेज मुशर्रफ के इशारों पर सुरक्षाबलों ने 2006 में मुठभेड़ में मार गिराया। तब पूरा बलूचिस्तान में हडकंप मच गया। पाकिस्तान ने इसे दबाने की बहुत कोशिशें कीं, पर पूरी तरह बलूचियों पर लगाम नहीं लगा पाए। भारत ने 2006 में बुगती की मौत पर दुख प्रकट किया था, तो पाकिस्तान की भौंहें तन गई थीं। पर वही पाकिस्तान बलूचिस्तान की समस्या को लोकतांत्रिक तरीके से निपटाने की बजाय गोलियों के दम पर खत्म करना चाहता है। हद तो यह है कि वह अंतरराष्ट्रीय समुदाय को गाहे-बगाहे बता रहा है कि बलूचिस्तान में असल समस्या भारत ने पैदा की है। 1970 के दशक में बलूचिस्तान में हुए सशस्त्र विद्रोह को भी पाकिस्तान ने ईरान की मदद से कुचल दिया गया था। अब लगभग 30 साल बाद दुबारा बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी पाकिस्तान सरकार को जबरदस्त चुनौती पेश कर रही है। बलूचियों का मानना है कि हम तो अपने अधिकारों की मांग कर रहे हैं। हम नहीं चाहते कि हमारे इलाकों में पंजाबियों का प्रभुत्व बढ़े। बलूचिस्तान के लोगों के पास मूलभूत सुविधाओं की कमी है। पीने के पानी का अभाव, बच्चों के लिए स्कूल, अस्पताल से लेकर दो जून की रोटी के लिए वहां के लोग तरसते हैं। ऐसे में पाकिस्तान सरकार को चाहिए कि वह भारत पर निराधार आरोप मढऩे की बजाय अपने नागरिकों की आम जरूरतों के लिए ईमानदारी से कुछ खास प्रयास करे। तब पूरी दुनिया देखेगी कि अपने आप ही बलूचिस्तान की समस्या हल हो जाएगी। पाकिस्तान सरकार यह क्यों भूल जाती है कि उसने ही अपने कर्मों की वजह से तालिबानियों को स्वात घाटी और वजीरिस्तान सौंपे हैं। भारत तो सदैव अपने पड़ोसियों का भला चाहता है और चाहता रहेगा।
-आशीष जैन

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