13 August 2009

भूखे भजन ना होय...

देश में लाखों-करोड़ों परिवार आज भी भोजन के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उदारवादी अर्थव्यवस्था और पूंजीवादी बाजार के आने से यूं तो लगता है कि भुखमरी जैसी समस्या आज देश में खत्म हो चुकी है, पर ऐसा नहीं है। आज भी लोगों को दो जून का खाना खोजने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। इस बार के लोकसभा के चुनावों में देश की ज्यादातर राजनीतिक दलों ने गरीबों के लिए रियायती दरों पर अनाज उपलब्ध कराएंगे। चुनाव जीतने के बाद कांग्रेस ने भी भोजन के अधिकार पर काम करने की अपनी इच्छा जताई है। भुखमरी, कुपोषण और गरीबी ऐसे अभिशाप बन गए हैं, जो भारत की करीब तीस-पैंतीस करोड़ आबादी का दामन छोडऩे को तैयार नहीं हैं। देश की आजादी के वक्त भी देश की जनसंख्या लगभग इतनी ही थी। आजादी के बासठ साल बाद भी भारत की बीस करोड़ से अधिक आबादी कुपोषण और भुखमरी की शिकार है।

भूख आंकड़ों में
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार, सिर्फ भारत में करीब 20 करोड़ लोग खाली पेट रात में सोने के लिए विवश हैं। पूरी दुनिया मेंं हर दिन करीब 18 हजार बच्चे भूख से मर रहे हैं। दुनिया की करीब 85 करोड़ आबादी रात में भूखे पेट सोने के लिए विवश है। पूरी दुनिया में करीब 92 करोड़ लोग भुखमरी की चपेट में हैं। अपने देश में 42.5 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। अकेले साल 2006 में भूख या इससे होने वाली बीमारियों के कारण पूरी दुनिया में 36 करोड़ लोगों की मौत हुई थी। पूरी दुनिया के मुकाबले देश में बड़े पैमाने पर बाल पोषण कार्यक्रम चलाया जा रहा है, पर फिर भी देश के हालात चिंताजनक हैं। देश में उदारवाद आने के बाद स्थितियां तेजी से बदली हैं और देखने वाली बात है कि भारत चाहे दुनिया की दूसरी सबसे तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था हो, पर हर पेट को भोजन की मंजिल अभी बहुत दूर है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स में जारी अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्था के विश्व भुखमरी सूचकांक -2007 में भारत को 118 देशों में 94वें स्थान पर रखा गया है। भारत का सूचकांक अंक 25.03 है, जो साल 2003 (25.73) के मुकाबले कुछ ही बेहतर हुआ है। देश में अमीरों और गरीबों का अनुपात तेजी से बिगड़ रहा है। देश के 35 अरबपति परिवारों की संपत्ति 80 करोड़ गरीब, किसानों, मजदूरों, शहरी झुग्गी-झोंपड़ी वालों की कुल संपत्ति से ज्यादा है। अफसोस की बात है कि आज तक भी किसी सरकार ने भोजन के अधिकार का कानून नहीं बनाया। कुछ समय पहले छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने इस बारे में विधेयक विधानसभा में लाने की घोषणा की थी। बाकी राज्य सरकारें अभी तक चुप्पी साधे बैठी हैं। खाद्य व नागरिक आपूर्ति मंत्रालय के एक प्रस्ताव पर गौर करें, तो पता लगेगा कि प्रस्तावित भोजन के अधिकार के तहत वह सरकार की भूमिका को सिर्फ 25 किलोग्राम चावल और तीन रुपए प्रति किलो गेहूं की दर से आपूर्ति करना चाहती है। वह भी गरीबों के लिए। पर जिन गरीबों के पास रहने को घर भी नहीं हैं, वे किस तरह इस अनाज को पकाएंगे और खाएंगे। सरकार भी बीपीएल की परिभाषा भी हजम नहीं होती। वह योजनाओं को सिर्फ गरीबी रखने से नीचे रहने वाले बीपीएल कार्ड धारकों को ही देना चाहती है। आंकड़े बताते हैं कि देश में 8.13 करोड़ लोगों के पास बीपीएल कार्ड है और 2.5 करोड़ लोग अंत्योदय अन्न योजना के अंतर्गत आते हैं। अगर इन्हें भी बीपीएल कार्डधारियों के साथ जोड़ दिया जाए तो कुल संख्या होती है लगभग ग्यारह करोड़। योजना आयोग के एक आकलन के अनुसार देशभर के गांवों में बाईस करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं और शहरों में इनकी आबादी आठ करोड़ है, यानी कुल तीस करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। उन्नीस करोड़ लोग सिर्फ कार्ड नहीं रहने की वजह से इस योजना का लाभ उठाने से वंचित रह जाएंगे। इस योजना का लाभ वे भी नहीं उठा पाएंगे, जिन्हें राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना के तहत साल भर में सौ दिनों का काम मिल रहा है। सरकार उन्हें गरीबी रेखा से नीचे नहीं मानती, क्योंकि साल भर में वे आठ हजार रुपए कमा लेते हैं, यानी औसतन प्रति माह करीब 670 रुपए। 1999-2000 राष्ट्रीय नमूना सर्वे संस्थान के सर्वेक्षण के अनुसार उसी व्यक्ति को गरीबी रेखा के नीचे माना गया है, जिसकी मासिक आय 568.80 रुपए से कम है। इस सर्वे को योजना आयोग भी मानती है। नतीजतन जो लोग नरेगा के तहत लाभान्वित हो रहे हैं, उन्हें सरकार अब गरीबी रेखा के नीचे नहीं मानती।

भूख से लड़ाई में जनहित याचिका
देश में कुपोषण और भुखमरी की भयावह स्थिति और सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में भ्रष्टाचार, लापरवाही को देखते हुए 2001 में मानवाधिकार संगठन पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) ने भोजन के अधिकार को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित चायिका दायर की। याचिका में कहा गया कि भोजन के अधिकार को कानूनी रूप दिया जाए। यह याचिका उस समय दायर की गई, जब एक ओर देश के सरकारी गोदामों में अनाज का भरपूर भंडार था, वहीं दूसरी ओरदेश के विभिन्न हिस्सों में सूखे की स्थिति एवं भूख से मौत के मामले सामने आ रहे थे। पीयूसीएल की दायर की गयी इस याचिका का आधार संविधान का अनुच्छेद 21 है जो व्यक्ति को जीने का अधिकार देता है। जीने का अर्थ गरिमापूर्ण जीवन से है और यह भूख और कुपोषण से जूझ रहे व्यक्ति के लिए संभव नहीं है। यह एक मौलिक अधिकार है। सरकार का दायित्व है इसकी रक्षा करना। सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार जीने के अधिकार को परिभाषित किया है, इसमें इज्जत से जीवन जीने का अधिकार और रोटी के अधिकार आदि शामिल हैं।
इस न्यायालयीन हस्तक्षेप के बावजूद भी मध्यप्रदेश कुपोषण और भुखमरी में पहले स्थान पर है। स्थिति को सुधारने के लिए ससरकार द्वारा कुछ कार्यक्रम चलाये जा रहे है। जिन्हें चार भागों में बांटा जा सकता है - बच्चों के भोजन का अधिकार (समेकित बाल विकास योजना, मध्यान्ह भोजन योजना), खाद्य सहायता कार्यक्रम (सार्वजनिक वितरण प्रणाली एवं अंत्योदय अन्न योजना), रोजगार कार्यक्रम (राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून, संपूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना, काम के बदले अनाज कार्यक्रम) एवं सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम (राष्ट्रीय मातृत्व सहायता योजना, जननी सुरक्षा योजना, राष्ट्रीय वृद्धावस्था पेंशन योजना और राष्ट्रीय परिवार सहायता कार्यक्रम)। पर इनके सही परिणाम अभी भी सामने आने बाकी हैं।
इस याचिका के अंतर्गत करीब 400 शपथ-पत्र अभी तक दायर किए गए हैं और साथ ही 60 अंतरिम आवेदन लगाये जा चुके हैं। यह केस दुनिया का पहला ऐसा केस है, जिसमें पिछले 8 वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय 65 से अधिक अंतरिम आदेश दे चुकी है।
28 नवम्बर 2001 को सर्वोच्च न्यायालय के दिए गए अंतरिम आदेश में खाद्य सुरक्षा और रोजगार योजना कानूनी अधिकार में बदल गया है। इसी आदेश में सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार और राज्य सरकारों को यह निर्देशित किया है कि जब तक इस केस का अंतिम आदेश नहीं आ जाता, तब तक इन योजनाओं को न्यायालय के आदेष के बिना नहीं बदला जाएगा और न ही बंद किया जाएगा। अभियान का मानना है कि इस केस के माध्यम से भोजन के अधिकार की मौलिक अधिकारों में शामिल कर लिया जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गये आदेष के अंतर्गत समेकित बाल विकास योजना की सभी सेवाओं को सर्वव्यापीकरण की बात कहीं गयी है। इसके अंतर्गत सभी बच्चों को मध्यान्ह भोजन में पका हुआ भोजन देने की बात कही गयी है।
समेकित बाल विकस योजना को न्यायालय द्वारा यह कहकर परिभाषित किया है कि राज्य सरकार यह सुनिश्चित करे कि सभी आंगनबाड़ी केन्द्रों में 0 से 6 वर्ष के बच्चे गर्भवती, धात्री एवं किशोरी बालिकाओं को कुछ प्रमुख सेवायें दी जाएंगी, जिसमें हर 6 वर्ष तक के बच्चे को 300 कैलोरी और 8-10 ग्राम प्रोटीन दिया जाएगा, हर किशोरी बालिका को 500 कैलोरी और 20-25 ग्राम प्रोटीनयुक्त भोजन दिया जाएगा, हर गर्भवती एवं धात्री महिला को 500 कैलोरी और 20-25 ग्राम प्रोटीनयुक्त भोजन दिया जाएगा और हर कुपोषित बच्चे को 600 कैलोरी और 16-20 ग्राम प्रोटीनयुक्त भोजन दिया जाएगा। इसे लेकर केन्द्र और राज्य सरकारों ने कोई जवाब नहीं दिया तो न्यायालय ने 7 अक्टूबर 2004 को आदेश पारित किया कि सरकार देश में 14 लाख आंगनबाड़ी केन्द्रों की स्थापना करें। समाज के वंचित वर्गों और गरीबों को इसका लाभ सीधे पहुंचाने के लिए इस आदेश के अनुसार हर दलित, आदिवासी मोहल्ले एवं आबादी में जल्द से जल्द इसे खोला जा। आंगनबाड़ी केन्द्र में पोषण आहार पहुंचाने के लिए ठेकेदार का उपयोग नहीं किया जायेगा और पोषण आहार की आपूर्ति केवल स्थानीय महिला समूह द्वारा की जाएगी। न्यायालय के इस हस्तक्षेप की वजह से भोजन के अधिकार को मुद्दे को समाज की मुख्यधारा के सामने लाने में सफलता हासिल हुई है।

पूरी दुनिया में है अधिकार
भोजन का अधिकार मानवाधिकार से जुड़ा मसला है। अंतरराष्ट्रीय आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों की प्रसंविदाओं में भी इसे बार-बार दोहराया गया है। भोजन के अधिकार को अनेकों राष्ट्रों के संविधानों में जगह प्रदान की गई है। सामान्य टिप्पणी (क्रमांक 12) (जो कि आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों की समिति ने दी थी) में भोजन के अधिकार को परिभाषित किया गया है। इसके अनुसार प्रत्येक पुरुष, स्त्री और बच्चों को अकेले और समुदाय के रूप में भौतिक और आर्थिक रूप से हर समय पर्याप्त भोजन अथवा उसकी अभिप्राप्ति के साधन मानवीय गरिमा के साथ सुसंगत रहेंगे, इसे ही भोजन का अधिकार माना गया है। इस लिहाज से साधारण टिप्पणी के अनुसार भोजन के अधिकार का अर्थ तीन प्रकार के दायित्वों का आशय भी रखता है-सम्मान करने का दायित्व, संरक्षण और उसकी प्रतिपूर्ति। अंतरराष्ट्रीय प्रसंविदा (ईएससीआर) के अनुच्छेद 2 (1) के अंतर्गत राज्य यह अभिस्वीकृत करते हैं कि वे ऐसे कदम उठाएंगे जिनसे कि वे अपने उपलब्ध संसाधनों के अनुरूप उच्चतम सीमा तक पर्याप्त भोजन के अधिकार की प्राप्ति सुनिश्चित कर सकें। अनुच्छेद 2 (2) में कहा गया है कि राज्य इस बात के लिए भी सहमत हैं कि वे जिस भोजन की गारंटी प्रदान करेंगे, वह बिना भेदभाव के अमल में लाई जाएगी। अनुच्छेद-3 यह कहता है कि राष्ट्र यह भी विश्वास दिलाता है कि स्त्री और पुरुषों के बीच भोजन के अधिकार के उपभोग के मामले में समान अधिकार प्राप्त होगा।
विश्व खाद्य दिवस..
दुनियाभर में विश्व खाद्य दिवस हर साल 16 अक्टूबर को मनाया जाता है। यह खाद्य और कृषि संगठन की स्थापना के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। वर्ष 1945 में इस संगठन की स्थापना की गई थी। इस दिवस को मनाने का उद्देश्य लोगों को विश्व में व्याप्त भुखमरी के प्रति आगाह करना और उसे मिटाने के लिए ठोस कदम उठाने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित करना है। हर वर्ष 150 से ज्यादा देश इसे मनाकर अभियान की सार्थकता में अपना योगदान देते हैं। 1981 से हर साल विश्व खाद्य दिवस पर विषयवस्तु निर्धारित की जाने लगी और इसे ही लक्ष्य मानकर सभी देशों ने अपने स्तर पर काम किए हैं। वर्ष 1948 में मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा में प्रतिष्ठापित भोजन के अधिकार को अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर संवैधानिक उपायों द्वारा मजबूत किया जाना था। विश्व खाद्य शिखर सम्मेलन और सहस्त्राब्दी घोषणा में इस संबंध में उच्च स्तर पर प्रण लिए गए और उन अधिकारों को पूरा सम्मान दिया गया। खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) ने इन प्रायोगिक दिशानिर्देशों को फैलाया और उन्हें लागू करने के लिए अनुशंसाएं उपलब्ध कराईं। जिससे वैधानिक मान्यता और उसके कार्यान्वयन के अंतर को खत्म किया जा सके ।

अन्न पैदा करने वाला खुद भूखा
आर्थिक सुधारों के शुरुआती दौर में 1999 में प्रति व्यक्ति उपभोग 178 किलोग्राम था, जो 2002-03 में 155 किलोग्राम रह गया। निचले स्तर के लोगों का रोज ग्रहण किए जाने वाला कैलोरी का स्तर भी घटा है। कुल आबादी का पच्चीस प्रतिशत, जो 1987-88 में 1683 कैलोरी ग्रहण करता था, 2004-05 में वह घटकर 1624 कैलोरी रह गई है। भारत अनाज पैदा करने वालों के दुख-दर्द पर आंखें नहीं मूंद सकता। अनाज पैदा करने वाला अधिकतर ग्रामीण समुदाय भयानक भूख के दौर से गुजर रहा है। दुनियाभर में देखा जाए, तो भूखों की आधी आबादी तो उनकी है, जो खुद अनाज पैदा करते हैं। खेती के काम में महंगे निवेश के चलते किसान कर्ज में डूब जाते हैं। कर्ज चुकाने के चक्कर में उन्हें अपनी सारी पैदावार बेचनी पड़ती है। किसानों की बढ़ती आत्महत्याओं के मूल में भी यही कारण है। खाद्यान्न पैदा करने वाले लोगों को भूख से बचाने के लिए कि सस्ते, कम कीमत वाले कृषि उत्पादन को बढ़ावा देना चाहिए, साथ ही ऐसी कृषि को बढ़ावा देना चाहिए जो पारिस्थितिकी के अनुरूप हो।
-आशीष जैन

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