13 August 2009

शर्म अल शेख में नैम

मिस्र में लाल सागर के किनारे स्थित है- शर्म अल शेख। यह शहर गोताखोरों और विंडसर्फिंग के शौकीनों की पसंदीदा जगह है। पिछले दिनों यही हुआ गुट निरेपक्ष आंदोलन (नैम) का दो दिवसीय 15वां शिखर सम्मेलन। गुटनिरपेक्ष आंदोलन से कई देश जुड़ चुके हैं। इसी क्रम में गुट निरपेक्ष आंदोलन के 118 सदस्य देशों के नेताओं और प्रतिनिधियों को एक मंच पर देखना वाकई सुखद अनुभूति रहता है। इस बार नैम में पहली बार यहां पर 'प्रथम महिला सम्मेलनÓ का आयोजन हुआ। इसमें देशों की प्रथम महिलाओं ने संबोधन किया और इस सम्मेलन का विषय था-'संकट प्रबंधन में महिलाएं- महत्व एवं चुनौतियां।Ó इस बार के गुट निरपेक्ष आंदोलन के शिखर सम्मेलन का विषय था- विश्व की एकता, शांतिपूर्ण विकास। मिश्र के राष्ट्रपति हुस्ने मुबारक गुट निरपेक्ष आंदोलन के नए अध्यक्ष बने हैं। उन की कार्यावधि तीन साल होगी। इस तरह मिश्र गुट निरपेक्ष आंदोलन का अध्यक्ष देश बन गया है।

जाकी रही भावना जैसी
मिस्र के शर्मअलशेख में हाल में हुए 15वें गुटनिरपेक्ष सम्मलेन (नैम समिट) ने एक बार सोचने पर विवश कर दिया है कि गुटनिरपेक्ष आंदोलन की प्रासंगिकता पर विचार किया जाए। दो सैन्य शक्तियों (सोवियत रूस और अमरीका) में बंटी हुई दुनिया में शांति बनाए रखने के लिए यह जरूरी था कि उपनिवेश की दासता से मुक्तहुए नए स्वतंत्र देश संतुलन बनाए रखें। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद गुटीय राजनीति से खुद को दूर रखने के लिए एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका के स्वतन्त्र राज्यों ने गुटनिरपेक्षता की नीति का अनुसरण करना उचित समझा। एशिया, अफ्रीका के इन तमाम देशों के सामने दो विकल्प थे या तो वे इनमें से किसी एक गुट के साथ हो जाते या अपनी अलग पहचान कायम करते। उस वक्त दुनिया के तीन नेता सामने आए और एक साहसिक और दूरगामी कदम उठाते हुए उन्होंने गुटनिरपेक्षता की अवधारणा रखी। कुछ जानकारों का मानना है कि नैम सिर्फ नाम का रह गया है। यह औपनिवेशिक काल में संघर्ष तक तो ठीक था, पर अब यह तानाशाही का सर्टिफिकेट बनता जा रहा है। यूं सोवियत संघ के विघटन के बाद दुनिया की धुरियां अमरीका और सोवियत संघ की बजाय कई केंद्रों पर टिक गई हैं, पर फिर भी गुटनिरपेक्ष की भावना तिरोहित हो चुकी है। देखा जाए, तो ऐसे नाममात्र के देश बचे हैं, जो किसी गुट से संबंध नहीं रखते। अमरीका जैसे देश भारत की भावना को दूषित करके गुटनिरपेक्ष आंदोलन को सफल होता नहीं देख सकते। नेहरू-नासिर-टीटो की पहल पर गुटनिरपेक्ष आंदोलन शुरू हुआ। गुटनिरपेक्ष आन्दोलन शीत युद्ध के समय शुरू हुआ एक आन्दोलन था जिसके अनुसार इसके सदस्य राष्ट्र किसी भी देश (सोवियत संघ या अमेरिका) का समर्थन या विरोध नहीं करेंगे। यह आंदोलन भारत के भारत के प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू, मिस्र के राष्ट्रपति गमाल अब्दुल नासर एवं युगोस्लाविया के राष्ट्रपति जोसिप ब्रॉज टीटो ने शुरु किया था है।
कारवां बढ़ता गया
इसकी स्थापना अप्रेल 1955 में हुई थी और आज इसके 118 सदस्य और 15 ऑब्जर्वर देश हो चुके हैं। शीत युद्ध के दौरान 1955 में प्रमुख अंतरराष्ट्रीय नेताओं पंडित जवाहरलाल नेहरु, कर्नल नासिर और सुकर्णो आदि ने 29 एशियाई और अफ्रीकन देशों के सहयोग से इस संगठन की नींव रखी। अब तक 15 शिखर सम्मेलन हो चुके हैं। पहला शिखर सम्मेलन यूगोस्लाविया की राजधानी बेलग्रेड में 1 से 6 सितम्बर 1961 में हुआ था जिसमें 25 देशों के शासनाध्यक्षों ने भाग लिया। सम्मेलन के अन्त में निशस्त्रीकरण करने, आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक पिछड़ेपन को दूर करने, घरेलू मामलों में विदेशी हस्तक्षेप और रंगभेद की निन्दा तथा विश्व शांति की घोषणाएं की गई। तब से अब तक आन्दोलन निरंतर अंतरराष्ट्रीय समस्याओं पर विचार-विमर्श का मंच बनता रहा है। गुटनिरपेक्ष आन्दोलन हर तीसरे वर्ष अन्तरराष्ट्रीय समस्याओं पर विचार-विमर्श करने के योजनाएं निर्धारित करने के लिए सदस्य देशों का शिखर सम्मेलन आयोजित करता है जिसमें निर्णय बिना मतदान सर्वसम्मति से होते है। आज इसके सदस्यों की संख्या 25 से बढ़कर 118 तक पहुंच चुकी है। 1950 और 60 के दौर में इसने स्वाधीनता का नारा दिया। 1970-74 में इसने आर्थिक सहयोग और नवीन अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना के प्रयास किए। 1979 की हवाना घोषणा के अनुसार इस संगठन का उद्देश्य गुट-निरपेक्ष राष्ट्रों की राष्ट्रीय स्वतंत्रता, सार्वभौमिकता, क्षेत्रीय एकता एवं सुरक्षा को युद्ध के दौरान साम्राज्यवाद, जातिवाद, रंगभेद एवं विदेशी आक्रमण, सैन्य अधिकरण, हस्तक्षेप आदि मामलों के विरुद्ध सुनिश्चित करना है। इसके साथ ही किसी पावर ब्लॉक के पक्ष या विरोध में ना होकर निष्पक्ष रहना है। कार्टागेना (1995) सम्मेलन में आर्थिक मुद्दों पर विशेष बातचीत करते हुए विकसित और विकासशील देशों के बीच संवाद कायम करने के प्रयासों पर बल दिया गया।
खा गए इस बार मात
यह संगठन संयुक्त राष्ट्र के कुल सदस्यों की संख्या का लगभग 2/3 एवं विश्व की कुल जनसंख्या के 55 फीसदी भाग का प्रतिनिधित्व करता है। खासकर इसमें तीसरी दुनिया यानी विकासशील देश सदस्य हैं। इंदिरा गांधी और फिदेल कास्त्रो जैसे नेताओं ने गुटनिरपेक्षता के महत्व को समझकर जरूरी कदम भी उठाए, पर इनके बाद यह आंदोलन अपनी धार खोता चला गया। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना था कि जब सोवियत रूस के ही टुकड़े हो गए थे, तो दो गुटों की बात भी नहीं रह गई। यूं पहली नजर में लगता है कि उनका मानना सही है। पर आज दुनिया दो टुकड़ों में नहीं, कई टुकड़ों में बंटी है। ऐसे में आतंकवाद जैसी समस्या से निपटने के लिए बिना किसी गुटबाजी के सही बात को सबके सामने रखने की जरूरत है। पिछली बार सितंबर 2006 में क्यूबा में हुए 14वें गुटनिरपेक्ष सम्मेलन में भारत की पहल पर आतंकवाद के खिलाफ मुहिम छेड़ी थी। इस बार के सम्मेलन में देश के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह मात खा गए और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री युसूफ रजा गिलानी को बिना मांगे ही तोहफा दे आए। भारत-पाक के संयुक्त वक्तव्य को सुनकर हर कोई चकित है। पाकिस्तान में बलूचिस्तान में गड़बडिय़ों के लिए हिंदुस्तान को दोषी ठहरा दिया है। वक्तव्य में कश्मीर का जिक्र तक नहीं है। वहीं आतंकवाद पर कार्रवार्ई को समग्र वार्ता से बाहर रखने की बात सुनकर हर भारतीय निराश हुआ है। 24 और 25 फरवरी 2003 को कुआलालंपुर में गुटनिरपेक्ष आंदोलन की 13वीं शिखर बैठक हुई। इस शिखर सम्मेलन में अमरीका की इराक के खिलाफ की गई कार्यवाही की निंदा की गई।
नैम की सफलता और विफलता
गुटनिरपेक्ष आंदोलन को शुरू से ही कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा है। सबसे बड़ी परेशानी तो अमरीका और सोवियत संघ ही थे। इनकी कोशिश रहती थी कि किसी भी तरह गुटनिरपेक्ष देशों को विघटित किया जाए। अमरीका दक्षिण अमरीकी राज्यों पर निरंतर दबाव बनाता रहता है कि गुटनिरपेक्ष आंदोलन से ये देश बाहर आ जाएं। अमेरीका निकारागुआ को गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन आयोजित करने से रोकने में भी सफल रहा। साथ ही सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि गुटनिरपेक्ष देश आर्थिक रूप से पिछड़े हुए हैं। कमजोर आर्थिक दशा के चलते ये देश एक नए तरह के उपनिवेशवाद से घिरते जा रहे हैं। कमजोर आर्थिक दशा ने गुटनिरपेक्ष राज्यों को नवीन उपनिवेशवाद के अधीन कर दिया है। नई आर्थिक विश्व व्यवस्था तथा विश्व व्यापार संगठन के होते हुए भी अमेरीका संरक्षणात्मक तथा प्रतिबंधात्मक व्यापार नीति अपनाता है। मार्च 2003 में इराक पर अमेरीकी हमला तेल पर कब्जा जमाने की कोशिशों का ही परिणाम है। अब गुटनिरपेक्ष राज्य ईरान को भी वह शक के घेरे में खड़ा कर रहा है। अमरीका की गुप्तचर संस्थाएं भी गुटनिरपेक्ष आंदोलन को कमजोर करने में प्रयासरत हैं। क्यूबा में फिदेल कास्त्रो सरकार को पदच्युत करने की कोशिश की गई। चिली के राष्ट्रपति की हत्या करवायी। गुटनिरपेक्ष देशों की खुद की कलह भी इसकी असफलता का बड़ा कारण है। कोलंबो (1976) सम्मेलन में बंगलादेश ने भारत के साथ गंगा के पानी के बंटवारे के सवाल को शिखर सम्मेलन में उठाने का प्रयास किया। 1979 का हवाना शिखर सम्मेलन मिश्र के निष्कासन और कम्बुजिया के प्रश्न पर विभाजित था, जकार्ता (1992) शिखर सम्मेलन में पाकिस्तान ने कश्मीर को मसला बनाया। 996 में सीटीबीटी प्रारुप पर भारत का साथ देने के लिए एक भी देश तैयार नहीं था। अर्जेंटिना, ब्राजील और मिश्र ने अमेरीका और पश्चिमी देशों का साथ दिया। ऐसा नहीं है कि इस आंदोलन के पास सिर्फ विफलताओं का पुलिंदा है। इसके खाते में कई सफलताएं भी दर्ज हैं। प्रशांत महासागर, कैरेबियन सागर, हिन्द महासागर के कई देशों का आंदोलन के साथ जुडऩा इसकी सफलता को ही दर्शाता है। 1955 के बांडुग सम्मेलन में नेहरु, नासिर, टीटो तथा चाउ-एन-लाई द्वारा गुटनिरपेक्षता के संगठित समर्थन ने दुनिया के गुलाम देशों के समर्थन में आवाज उठाना शुरू की थी और एक-एक करके देश आजाद होने लगे। साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, रंगभेद, बाहरी हस्तक्षेप, अन्याय और शोषण से मुक्ति दिलाना इसकी प्रमुख उपलब्धि हैं।
-आशीष जैन

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