13 June 2009

मायका मार गया

भरी गर्मी में जब कोई किसी को तड़पता छोड़ दे, तो क्या उस शख्स स्वर्ग नसीब हो सकता है? स्वर्ग तो क्या उसे तो नरक में भी जगह नहीं मिलेगी। अब क्या बताएं आपको, कहां-कहां तड़पना नहीं पड़ता हमें। बीवी मायके में जाकर जम चुकी है, ऑफिस से बिजली गायब है और पता नहीं शहर में कहां से इतनी भीड़ आ गई है कि बस में कदम रखने को जगह नहीं मिलती। पता नहीं ऊपर वाले ने ये ग्रीष्म ऋतु किससे पूछकर बनाई थी। जरूर पैसे वालों ने रिश्वत दी होगी उन्हें। उनका क्या है, एसी कारों में घूमते हैं। मोबाइल फोन पर बीवियों से बतियाते हैं। हम क्या करें, लू के थपेड़े खाएं, पत्नी को चिट्ठी लिखेंगे, तो क्या होगा? दस दिन में उसे मिलेगी और उसका जबाव पंद्रह दिनों में लौटकर आएगा। जब तक तो हमारा अंत ही हो जाएगा। हम तो आप से ही एक सवाल करते हैं, सच-सच बताना, क्या जून का महीना आपको रास आता है। हमें पता है कि चाहे वजह कोई भी हो, पर पूरी दुनिया इस जून के महीने से तंग आ चुकी है।

अब क्या बताएं कि क्या-क्या दर्द हैं, इस जिया में। जब से हमारी घरवाली मायके गई, घर का सारा काम हमको ही करना पड़ता है। बर्तन धोते समय लगता है कि अगर मैं इतने अच्छे तरह से बर्तन मांजता जाऊं, तो फिर तो मुझे किसी अच्छे फाइव स्टार होटल में वेटर की नौकरी मिलते देर नहीं लगेगी। ऊपर वाले ने मायका एक ऐसी जगह बनाई है, जहां जाकर हर बीवी खुद को शहंशाह समझने लगती है, फिर तो वो खुदा की भी नहीं सुनती। काम-धाम तो करना नहीं पड़ता, बस इधर-उधर की बातें बनवा लो। गर्मी क्यों आती है? यह हम आज तक नहीं समझ पाए। अगर मैं खुदा होता, तो सबसे पहले इस गर्मी के मौसम को मौसम की लिस्ट में से निकाल फेंकता। गर्मी तो है ही, उस पर ये छुट्टियां और खाज का काम करती हैं। कसम से कहने को तो ये छुट्टियां बच्चों के लिए आई हैं, पर इसका सारा मजा बीवियां ही लूटती हैं। अब लगो रहो घर की दीवारों से बात करने में।
अब इधर-उधर मुंह मारने के दिन भी तो नहीं रहे। आजकल हर बीवी सर्तक है। ऐसे में पतियों की निगरानी करने के लिए पड़ोसन को बाकायदा ड्यटी देकर जाती है। पड़ोसन को तो उसकी बात माननी ही पड़ती है। आखिर उसका भी तो सांड सा पति है और वो भी तो मायके जाएगी, फिर उसकी निगरानी हमारी बीवी रखा करेगी। तभी हमारी पड़ोसन दिनभर दरवाजे पर पहरेदार की तरह बैठी रहती है। बीवियों की ये जो बिरादरी होती है ना, ये अपने अच्छे भले पति को बिगाड़ देती हैं। अगर पति दिनभर काम करके थका-हारा घर पर आता है, तो सोचती हैं कि जरूर दाल में कुछ काला है और जब यही पति किसी के साथ मजे उड़ाकर घर आता है और बीवी से मीठी-मीठी बातें करता है, तो पत्नी रहती है खुश। हमारे सालों रिसर्च करके एक बात तो पता कर ली है कि ये पत्नियां मायके जाती क्यों हैं? पत्नियां मायके जाए बिना भी खुश रह सकती हैं और मां-बाप से मिलना तो एक बहाना है। वो तो मायके जाकर पति को अंगूठे के नीचे रखने की नई-नई विचार-गोष्ठियों का आयोजन करती है और ऐसी तकनीकें ईजाद करती हैं कि पति नाम का जीव सदा उसके चंगुल में फंसा रहे। मायके में सारी सुविधाएं हैं, किसी भी मंथरा को घर पर आमंत्रित करो और योजनाएं बनाओ।
मैंने कहीं सुना था कि पत्नियां मायके रिचार्ज होने जाती हैं, अरे, मैं कहता हूं कि पत्नियां तो मायके हमें डिस्चार्ज करने जाती हैं। गर्मी में हमें अमरस पिए हुए कितने दिन हो गए, अगर बीवी होती, तो कितने प्यार से जूस निकालकर पिलाती। हम तो एक योजना बना चुके हैं, कलैंडर के किसी तरह से जून का महीना ही गायब कर दें। इसके लिए चाहे हमें एक नया महीना ईजाद करना पड़े, पर हम हार नहीं मानेंगे। मैं तो इस पक्ष में पूरे देश के पीडि़त पति मेरा साथ दें और कानून से मांग करें कि बीवियों के मायके जाने पर कानूनन रूप से रोक लगाई जाए। बीवियों के मायके जाने से पति वर्ग परेशान हो जाता है और इससे देश की अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ता है। हमें पूरी आशा है कि आप हमारी बात को समझ रहे होंगे और जल्द से जल्द हमारे पति पीडि़त संघ में शामिल होकर अपना दर्द हमारे साथ बांटेंगे।
-आशीष जैन

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पिटाई और धुनाई में अंतर

मुझे बड़ा गर्व है कि मैं हिंदुस्तानी हूं और अपने ही देश में रहता हूं। ये देश वाकई कमाल का है। यहां के लोग बड़े सहिष्णु होते हैं। यहां पत्थरों को भगवान समझकर पूजा जाता है। आप क्या सोच रहे हैं। हम भाट नहीं हैं। देश की स्तुति भी नहीं कर रहे हैं। वाकई ये सच्चाई है कि अपना देश महान है। इस देश ने गांधी को जन्म दिया है, तो भगतसिंह को भी। यहां शांति और पौरुषता का अनोखा मेल देखने को मिलता है, जो पूरी दुनिया में कहीं नजर नहीं आता। पूरी दुनिया हमें घूरने मतलब घूमने आती है। उनकी यहां की दिलकश जगहों को देखने की बजाय यहां रहने वालों में ज्यादा दिलचस्पी है। उन्हें आश्चर्य इस बात पर है कि किस तरह हर तरह के संकट से जूझते हुए हम खुशी-खुशी अपनी-अपनी जिंदगी में मगन रहते हैं।

हम जब-जब इन विदेशी पर्यटकों को देखते हैं, तो सोचते हैं कि ये आखिर खाते क्या हैं। खा-पीकर बिल्कुल सांड रहते हैं। क्या आपने कभी कोई ऐसा विदेशी देखा है, जो मरियल हो, बीमार दिखाता हो। तो हम तो उन्हें देखकर डर जाते हैं कि कहीं अगर किसी दिन किसी विदेशी ने गलती से हमारे कंधे पर हाथ रख दिया, तो उस दिन तो सीधा खड़ा रहना ही मुश्किल हो जाएगा। जिस जगह पर हमें ये नजर आ जाते हैं, हम तो दस फुट दूर खिसक लेते हैं। इसका यह मतलब कतई नहीं कि हम कमजोर हैं। ये तो हमारा सीधापन है जी। वरना... हम तो...। अब रहने भी दीजिए।
वैसे हम अगर किसी से डरते हैं, तो एकमात्र अपनी बीवी से। रोज हमारी बीवी खुद को आस्ट्रेलिया समझकर हम पर हमला बोल देती है, पर हम आह तक नहीं भरते। उसके शस्त्र बदलते रहते हैं, पर हमारी खाल तो वही रहती है ना। पिटते-पिटते तो एक बार गधा भी अपने मालिक को दुलत्ती मारकर भाग छूटता है और एक हम हैं कि बस पिटे जाते हैं। यूं तो पिटने और पीटने में बस एक मात्रा को उल्टा-सीधा करने की देर रहती है। पर यह कदम पता नहीं, हम आज तक क्यों नहीं उठा पाए? जब भी मात्रा को बड़ा करने की कोशिश करते हैं, छोटी मात्रा की मात्रा हम पर इस कदर हावी होती है कि पूरा शरीर दर्द से कराहने लगता है। हम भी आस्ट्रेलिया रहने वाले भारतीय स्टूडेंट्स की तरह थोड़ा-सा हल्ला-गुल्ला मचाकर शांत पड़ जाते हैं और हमारी बीवी के हौसले बढ़ते ही जाते हैं। आप समझ रहे हैं ना कि हम क्या कह रहे हैं।
मेरा एक दोस्त आस्ट्रेलिया में रहता है। कुछ दिनों पहले उसका फोन आया। कहने लगा कि यार हम हिंदुस्तानी क्या इतने कमजोर हैं कि हर कोई हमें तंग करके चला जाता है और हम देखते रह जाते हैं। ये आस्ट्रेलिया के गोरे पता नहीं अपने आप को समझते क्या हैं? आज दुनिया कहां की, कहां पहुंच गई और ये अभी भी काले-गोरे के चक्कर में फंसे हुए हैं। मैंने उसे समझाया और कहा कि पिटते तो हम भी हैं। वो बोला कि तुम पिटते हो और हमारी तो धुनाई ही हो जाती है। हम उससे पिटाई और धुनाई का अंतर पूछने लगे, तो वो बात घुमा गया और दुखी होने लगा। हमने उसे शांत करने के लिए लगे हाथ एक कहानी सुना डाली।
कहानी दरअसल यूं है कि एक बार भगवान ने सोचा कि क्यों ना मैं भी रोटी सेक कर देखूं। उन्होंने रोटी बेलना शुरू किया। जो पहली रोटी उन्होंने तवे पर सेकी, वो एकदम जली हुई थी। तब भगवान ने दूसरी रोटी सेकनी शुरू की। दूसरी रोटी अच्छी सेकने के चक्कर में वो कच्ची ही रह गई। तब आखिर में जाकर भगवान ने एकदम परफेक्ट रोटी सेकी। ना जली हुई और ना ही कच्ची। फिर भगवान ने रोटियां जमीन पर फेंक दीं। जली हुई रोटी जहां गिरी, वहां अफ्रीका बन गया। जहां कच्ची रोटी फेंकी, वहां इंग्लैंड जैसे देश बस गए और जहां एकदम गेहुंआ रोटी गिरी, वहां हिंदुस्तान बस गया। मतलब साफ है कि जहां साफ-सुथरे, गेहुंआ लोग रहते सकते हैं, वो जगह हिंदुस्तान ही है। तो ये कहानी सुनकर हमारा दोस्त भी मान गया वाकई हिंदुस्तानियों का कोई मुकाबला ही नहीं हो सकता। अब अगर आस्ट्रेलिया में हम पर हमला होता है, तो हमें खाली हाथ पर हाथ धरे तो बैठा नहीं रहना चाहिए। कब तक हम हमले सहते रहेंगे, संसद पर हमला हुआ, तो क्या हुआ था। मेरे देश के कर्णधारों, कम से कम इस बार तो उन्हें बता दो, वो पढऩे के लिए आए हैं, उनकी रक्षा करो। वैसे हमें लगता है कि जब आस्ट्रेलिया की क्रिकेट टीम ही हमारे भज्जियों को भाजी बनाकर खा जाती है, तो ये तो देश का मामला है, इसमें वो कोई कोर-कसर थोड़े ही रखेंगे। हमें तो पूरा शक है कि जहां-जहां हिंदुस्तानी स्टूडेंट्स पर हमले हुए, उन कॉलोनियों में जरूर ऑस्ट्रेलियन क्रिकेट टीम के सदस्य भी रहते होंगे। क्या पता खेल-खेल में 'खेलÓ कर गए हों।
घर जाकर जब हमने बीवी को ये सारी बातें सुनाईं, तो भड़क गईं। वो बोली कि तुम भी किस मिट्टी के बने हो। पिटाई और धुनाई का अंतर नहीं समझ पाए। वो कहने लगी कि गलती मेरी ही है। मैंने ही कभी तुम्हें धुनाई से रूबरू नहीं करवाया। चलो आज तुम्हें धुनाई से मिलवा ही देती हूं। फिर जो उसने मेरा हाल किया, वो मैं अभी आपको बता नहीं पाऊंगा। दरअसल मैं बड़ा कमजोर दिल इंसान हूं। हो सकता है कि बताते-बताते रोने लगूं। पर उस धुनाई से मुझे पता लग गया कि पिटाई और धुनाई में बेसिक अंतर क्या होता है। आप भी जानना चाहते हैं, तो लीजिए सुनिए। पिटाई तो वो है, जो किसी बात पर की जाए। सामने वाले को बताकर की जाए। जबकि धुनाई तभी की जाती है, जब कोई वजह तो होती नहीं है, बिना कारण से बस खुन्नस निकाली जाती है और सामने वाले की एक भी सुनी नहीं जाती। यही सब तो आस्ट्रेलिया रहने वाले मेरे भारतीय दोस्तों के साथ हुआ है। चलिए, अब ये बात अपने तक ही रखना, किसी को बताना मत। वरना मैं पिटाई या धुनाई कुछ भी कर सकता हूं।
-आशीष जैन

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