18 June 2009

गंदी, मंदी और नजरबंदी

बचपन से ही हमें एक अजीब किस्म का शौक है। हम खाली टाइम में कॉपी और पेन लेकर नए-नए शब्दों से खेलते रहते हैं। कभी कुछ बनाते हैं, कभी कुछ मिटाते हैं। कभी समय मिले, तो घर आइएगा, सारी दीवारें इन्हीं कारस्तानियों का नमूना दिखाई देंगी। राम को टाम बना दिया। रावण को चांवण बना दिया और फिर उनका अर्थ खोजने लग जाते हैं। हमें हमेशा से अक्षरों से मिलकर शब्द और शब्दों से मिलकर वाक्य बनाने की प्रक्रिया को कौतुकता से देखने का शौक है। अब हमें लगता है कि वाकई शब्द ब्रह्म होता है। नहीं तो क्या कभी ऐसा होता है कि कुंती की बिंदी हटते ही ये शब्द एक गाली नजर आने लगे। दादाजी में से जी शब्द हटाते ही गली के गुंडे की याद आने लगे। राम, काम, नाम... बड़ा, कड़ा, लड़ा... एक अक्षर बदलने से पूरा मतलब ही बदल जाता है। शब्दों में वाकई बड़ी ताकत होती है।

इसी तरह इन दिनों एक शब्द 'दीÓ हमें बड़ा परेशान किए हुए है। दी ने पूरी दुनिया का जीना हराम कर रखा है। दरअसल हम शुरू से मानते थे कि हमारी वाइफ बड़ी गंदी है। ना तो घर में सफाई, ना बातों में सच्चाई और दिल में सफाई। जब बोलेगी, कुछ गंदा ही बोलेगी। अब सोच रहे होंगे कि हम अपनी ही धर्मपत्नी के सरेबाजार बुराई कर रहे हैं। पर ऐसा नहीं है कि उसके जन्मजात दुश्मन हैं। हम क्या करें, उसके अत्याचार दिलोदिमाग में घूम-फिरकर जुबान से ही तो निकलेंगे। अगर हम झूठ बोलते हैं, तो किसी भी वक्त सप्रेम हमारे घर आकर देख लीजिए। अपने आप समझ में आ जाएगा। वैसे चीजें तो और भी कई गंदी होती हैं, पर हमें तो गंदी का एक ही अर्थ नजर आता है- हमारी बीवी। अब कई लोग दीदी को शार्ट फॉर्म में दी कहने लगे हैं। तो ये ममता दी कौनसा भला करने वाली हैं। देख लीजिएगा, अगले रेल बजट में किराया बढ़ाकर ही दम लेंगी। ये उनका कसूर नहीं है, ये तो उन्हें दी... दी... पुकारने वालों का दोष है।
दी का काला जादू आज पूरी दुनिया पर चढ़ चुका है। अब मंदी को ही देख लीजिए। मंदी ने क्या कहर ढहा रखा है। कसम से सारे कॉन्फिडेंस का तेल निकाल कर रख दिया है। पहले हमें लगता था कि नौकरी हमारे पीछे घूमती है। पर आज हमें लग रहा है कि कहीं मंदी की चपेट में आ गए, तो लोगों को कई सालों के बाद डायनासोर की तरह हमारे अवशेष ही मिल पाएंगे, वो भी आधे-अधूरे। अमरीका के युवाओं की तो वैसे ही बोलती बंद है। कुछ भी करने को तैयार हैं नौकरी के लिए। चाहें तो इस वक्त आप उनसे अपने घर की सफाई भी करवा सकते हैं। मंदी की रेल बड़ी सरपट चली, सबका मुंह बंद है। ऐसे लगता है कि खाना तो है, पर पानी गायब है। भोजन पचता ही नहीं है। क्या काम करें, सूझता ही नहीं है। क्या कोई अमीर सेठ हमारी फरियाद सुनकर हमें मक्खी मारने के धंधे में लगा सकता है क्या। इन दिनों मक्खी मारने में महारत हासिल कर ली है। जब भी मंडी जाते हैं, तो मंदी याद आती है। मंडी में आम है, अंगूर हैं, पपीते और चीकू भी हैं। हम उन्हें हाथ में लेते हैं, तो वे कहते हैं कि अबे हमें ले चल अपने घर। पर हम तो सिर्फ उनकी खुशबू ही घर तक ले जा पाते हैं। जेब में पुराने कागजों के सिवा बचा ही क्या है। जेब भी सोचती होगी कि कैसा मालिक मिला है, महीनों से सौ की नोट की गंध तक नहीं लेने दी।
अब तो बस एक लाल नोट ही ऊपर ही जेब में रखा रहता है, लाल नोट मतलब बीस का नोट और क्या। कल रात को जब घर लौट रहे थे, तो एक गुंडे ने पकड़ लिया। कसम से उसको हमारी मंदी पर इतना दर्द आया कि पूरे हफ्ते की वसूली हमें दे दी। इन दिनों उसे से तो जिंदगी कट रही है। ऐसा नहीं है कि हम जन्मजात भिखारी थे। वो तो बॉस की नजर लग गई। बॉस ने ऑफिस में ही नजरबंद करके रख दिया था। पास के पान वाले के गुटखा खाने जाता, तो टोक देते थे। हमने भी कह दिया कि लानत है, ऐसी नौकरी से। ठोकर मार दी नौकरी को। हमें क्या आंग सान सूकी, समझकर नजरबंद ही रखोगे क्या। वो म्यांमार हैं भाईजान। जुंटा तो जी-जान से जुटा है कि सूकी को जेल में सड़ा-सड़ाकर मार डाले, पर सूकी भी तो गांधीजी की पक्की चेली है। उससे बढिय़ा सत्याग्रह भला कोई कर सकता है। लोकतंत्र की हिमायती ऐसी महिला को देखकर ही तो हमने भी ऑफिस में विद्रोह किया था। अब हम भी सूकी की जमात में शामिल हो गई हैं। हमें अब कोई डर नहीं है। सूकी ही हमारी रक्षा करेगी। अब हम पहले से थोड़ा ज्यादा निर्भीक हो गए हैं। अब हमें मंदी, नजरबंदी या हमारी गंदी वाइफ कोई नहीं डरा सकता।
-आशीष जैन

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