27 November 2008

चांद पर तिरंगे की खुशबू




उत्तरप्रदेश के अमरोहा शहर की खुशबू मिर्जा ने इसरो में चंद्रयान प्रथम की सफलता में निभाई अहम भूमिका।

चांद पर अब तिरंगा भी लहरा रहा है। देश ने चंद्रयान के बहाने अपनी क्षमताओं का एक फिर परिचय दिया है। इस पूरे मिशन में एक ऐसी लड़की की मेहनत छुपी है जिसे बचपन से ही अंतरिक्ष की असीम गहराइयां लुभाती रही। उत्तरप्रदेश के छोटे से कस्बे अमरोहा से निकलकर भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान केंद्र (इसरो) तक पहुंचने वाली 23 साल की इस लड़की का नाम है- खुशबू। अपने नाम की तरह वह अपने काम से भी सबका दिल महका देती है। खुशबू चंद्रयान प्रथम के सैटेलाइट सिस्टम को तैयार करने वाली बारह सदस्यीय इंजीनियर टीम में शामिल है। इनके चेक आउट डिवीजन दल ने यान के हर पुर्जे की थर्मल और वैक्यूम जांच की।


बस कड़ी मेहनत करनी है


25 जुलाई, 1985 को अमरोहा के मोहल्ला चाहगौरी निवासी सिकंदर मिर्जा और फरहत मिर्जा के घर एक नन्ही कली खुशबू ने जन्म लिया। सात साल की उम्र में ही उसके सिर से पिता का साया उठ गया। पिता इंजीनियर थे, इसलिए मां ने ठान लिया कि अपने सभी बच्चों को भी इंजीनियर ही बनाना है। बच्चों को स्कूली शिक्षा के लिए परिवार के पेट्रोल पंप की जिम्मेदारी संभाली। आज खुशबू का बड़ा भाई खुशतर भी इंजीनियर कर चुका है और छोटी बहन महक भी यही पढ़ाई कर रही है। अपने पुराने दिनों की परेशानियों के बारे में खुशबू की मां फरहत बताती हैं, 'जब खुशबू पैदा हुई थी, तो यहां पीने के लिए पानी बहुत मुश्किल से मिलता था। मुझे कुएं से पानी लाना पड़ता था। हमारे इलाके में महिलाएं बुरका पहनती थी, पर खुशबू को जींस पहनना पसंद था। लोग तरह-तरह की बातें करके हमें परव्शान करते थे। पर मैं उससे हमेशा कड़ी मेहनत करने को कहती थी।'


खुशबू की शुरुआती पढ़ाई स्थानीय कृष्णा बाल मंदिर में हुई। सन्‌ 2000 में वह दसवीं कक्षा में 73 फीसदी अंक पाकर टॉपर बनी। आगे की पढ़ाई उसने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से पूरी की। 2002 में इंटर की परीक्षा में 83 फीसदी अंक पाकर फिर से टॉपर बनी। स्कूल के दिनों में वह वॉलीबॉल की अच्छी खिलाड़ी रही। उसने वॉलीबॉल के लिए उत्तरप्रदेश राज्य का प्रतिनिधित्व भी किया। इसी की बदौलत खेल कोटा से अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से बीटेक(इलेक्ट्रोनिक्स) करने का मौका मिला। 2006 में बीटेक में 96 फीसदी अंक प्राप्त करके वह विश्वविद्यालय की गोल्ड मैडलिस्ट भी बनी।
पैसा नहीं दिल की खुशी चाहिए


बीटेक के बाद उसने बहुराष्ट्रीय कंपनी एडोबे में अच्छी नौकरी का प्रस्ताव ठुकरा दिया और नवंबर 2006 में आधी तनख्वाह में इसरो से जुड़ गई। काम के प्रति लगन को देखते हुए जनवरी 2007 में उसे चंद्रयान मिशन के लिए चुना गया। तब से लेकर अब तक वह लगातार चंद्रयान के सफलतापूर्वक चांद की जमीन पर उतरने के लिए दुआ करती रही और आखिरकार यह मिशन सफल भी रहा। अब हिंदुस्तान अमरीका, रूस और जापान के बाद चांद पर झंडा गाड़ने वाला चौथा देश बन गया है। खुशबू मानती हैं,' हां मैं आधुनिक वेशभूषा पहनती हूं। पर मैं साथ में अपनी परंपराओं का निर्वहन भी करती हूं। मैं दिन में पांच बार नमाज अदा करती हूं और रमजान के महीने में रोजे भी रखती हूं। हर भारतीय की तरह मैं भी शुरू से ही अंतरिक्ष कार्यक्रमों को लेकर उत्सुक रही। चंद्रयान का प्रक्षेपण मेरे लिए बड़ा रोमांचकारी अनुभव रहा और मुझे इस दौरान काफी कुछ सीखने को मिला।'


- आशीष जैन

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20 November 2008

प्रज्ञा पर प्रश्न चिह्न





मालेगांव बम धमाके के सिलसिले में गिरफ्तार साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर की जिंदगी पर एक नजर-


अधूरी हसरतों का दूसरा नाम है प्रज्ञा। उसकी जिंदगी के हर पन्ने में एक कहानी छुपी हुई है। मध्यप्रदेश के भिंड जिले के लहार कस्बे के गल्ला मंडी रोड पर आयुर्वेदिक क्लिनिक चलाने वाले वैद्य पिता चंद्रपाल सिंह और मां सरला देवी की बेटी है प्रज्ञा। उनका जन्म तो मध्यप्रदेश के दतिया जिले में हुआ पर लालन-पालन लहार में। चार बेटियों और एक बेटे में दूसरे नंबर की प्रज्ञा में बचपन से ही लड़कों जैसी चपलता थी। जूड़ो-कराटे में महारत हासिल करके वह बिगडै़ल लड़कों की पिटाई तक कर दिया करती थी। लड़कियों की बजाय उसे लड़कों जैसे कपड़े- जींस और कमीज पहनना पसंद था। कॉलेज के दिनों से ही वह मोटर साइकिल पर घूमने की शौकीन थी। पल्सर और बुलैट जैसी भारी गाडियां भी प्रज्ञा आसानी से चला लेती थी। पढ़ाई में औसत विद्यार्थी थी। लहार से इंटरमीडिएट परीक्षा पास की और भिंड कॉलेज से इतिहास में स्नातक भी किया।सिलसिला चलता रहाकॉलेज के दिनों में वह अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़ गई। नब्बे के दशक के आखिर तक वह विद्यार्थी परिषद में रही। वाक्‌पटुता और हाजिरजवाबी के चलते काफी मशहूर हुई और भोपाल, देवास, जबलपुर, इंदौर में अपने भाषणों से छा गई। ऐसा माना जाता है कि 1998 के विधानसभा चुनाव से पहले भिंड जिले की मेहगांव सीट से चुनाव लड़ने की भी उसने कोशिशें कीं। गुजरात चुनाव के दौरान भी उसे चुनावी सभाओं में देखा गया। सन्‌ 2002 में उसने 'जय वंदेमातरम' और 'राष्ट्रीय जागरण मंच' बनाया।प्रज्ञा के साध्वी बनने के पीछे में प्रेम में असफलता को खासी वजह माना जाता रहा। अपने एक साथी नेता की किसी और से शादी होने पर फिर कभी शादी के बारे में नहीं सोचा। सन्‌ 2004 में उसके पिता लहार छोड़कर सूरत में बस गए।


बन गई संन्यासिन

जनवरी 2007 में जूना अखाड़ा के पीठाधीश्वर स्वामी अवधेशानंद के समक्ष संन्यास लेकर साध्वी पूर्ण चेतनानंद गिरि बन गई और प्रवचन करने लगी। सूरत को अपनी कार्यस्थली के रूप में स्थापित करने के बाद वहां अपना आश्रम बना लिया। उनके परिजन अभी सूरत में ही रह रहे हैं। उसके पिता चंद्रपाल सिंह का कहना है, 'मुझे 99 फीसदी विश्वास है कि प्रज्ञा का मालेगांव बम मुझे विस्फोट में कोई हाथ नहीं है। पर एक फीसदी अविश्वास इसलिए है क्योंकि साध्वी बनने के बाद वह पिछले दो साल से घर नहीं लौटी। अब वह मुझे पिताजी नहीं डॉक्टर साहब कहकर पुकारती है। सबकी तरह मैं भी चाहता हूं कि सच्चाई जल्द से जल्द सबके सामने आए।'

- प्रस्तुति- आशीष जैन

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18 November 2008

बड़ी खूबसूरत है ये दुनिया





मशहूर अभिनेता फारूक शेख खुलासा कर रहे हैं अपनी जिंदगी के चंद अनछुए पहलुओं का।
सिनेमा, रंगमंच और टेलीविजन के कामयाब कलाकार फारूक शेख उन चंद लोगों में से हैं जो समाज से जुड़े हर विषय पर अपनी बेबाक राय रखते हैं। उनकी आवाज में गर्मजोशी है, तो बातों में नर्म दिल होने की झलक। पिछले दिनों जयपुर आगमन पर हमने उनसे अपनी जिंदगी के बारे में कुछ खास बातें की। पेश है उनसे हुई अंतरंग बातचीत के खास अंश-




आपके लिए खुशी के मायने...।


खुशी का राज सबको साथ लेकर चलने में है। परिवार से ऊपर उठकर समाज के बारे सोचने में है। आदमी अपनी जिंदगी दुनिया या बाजार में नहीं गुजारता बल्कि दिमाग के अंदर गुजारता है। अगर दिल और दिमाग संतुष्ट है, तो हजारों अभाव होने पर भी हम खुद को खुश पाएंगे। अगर मैं यह सोचने लगूं कि पूरी दुनिया मेरी जरूरतों को पूरा करने के लिए बनी है, तो यह गलत होगा। हम दुनिया नहीं, दुनिया का एक हिस्सा हो सकते हैं। यही तसल्ली तो असली खुशी देती है।


शायर ने कहा भी है-


चमन में इख्तिलाफे रंगो-बू से बात बनती है


हम ही हम हैं, तो क्या हम हैं


तुम ही तुम हो, तो क्या तुम हो।



परिवार को कितना समय दे पाते हैं?


मेरी बीवी ही घर की गृहमंत्री हैं। हम अपनी दोनों बेटियों साहिस्ता और सना को बेहद प्यार करते हैं। बेटी साहिस्ता एक सॉफ्टवेयर कंपनी में काम करती है और सना एनजीओ से जुड़ी हुई है। जब मैं घर पर होता हूं, तो एक आम आदमी की तरह अपनी जिम्मेदारियां निभाने की कोशिश करता हूं। पर जब शहर से बाहर होता हूं, तो मेरी बीवी सब संभाल लेती है।



परदे पर और असल जिंदगी के फारूक में क्या फर्क है?


जाहिरा तौर पर एक बड़ा फर्क है। हम चाहें खुद कितने ही परेशान क्यों न हों, परदे पर अगर लोगों को हंसाना है, तो हंसाना पड़ेगा। असल जिंदगी मुश्किलों से भरी है। यहां हम अपने भावों को कितनी देर तक छुपा पाएंगे। इसलिए अपनी सोच को विशाल दायरा देकर सारी जिम्मेदारियों को समझना पड़ता है। असल जिंदगी में एक आम आदमी हूं, जो इस खूबसूरत दुनिया और इसके बाशिंदों को बेहद प्यार करता है।
छोटे परदे पर आपका शो 'जीना इसी का नाम है' बड़ा मशहूर हुआ था। आपका क्या कहना है?


यह शो मेरे दिल के करीब है। दर्शकों ने शो के लिए मुझे बहुत सराहा। शो के दौरान कई शख्सियतों के बारे में करीब से जानने का मौका मिला। अगर प्रोड्यूसर दुबारा यह शो लेकर मेरे पास आते हैं, तो मैं जरूर करूंगा।


फिल्मों से इतर आपके आदर्श कौन हैं?


गांधीजी ने मुझ पर खासा असर डाला है। उन्होंने कहा था- मेरी जिंदगी ही मेरा संदेश है। हमें भी अपनी जिंदगी को इस तरह जीना चाहिए कि दिखावे के लिए कोई जगह ना हो।


क्या आप राजनीति में आना चाहेंगे?


नहीं भई, नौजवान, शिक्षित, मेहनती और समझदार नेता ही देश की किस्मत बदल सकते हैं। मैं आम आदमी की तरह देश की राजनीति में रुचि रखता हूं, पर इसमें आना नहीं चाहता।


इन दिनों छोटे परदे पर आ रहे कार्यक्रमों के बारे में आपकी क्या राय है?


हर इक शै से जुड़ी है हर इक शै यहां


इक फूल को तोड़ो तारे का दिल हिलेगा।


छोटे परदे पर पेश होने वाले कार्यक्रमों का समाज पर गहरा असर पड़ता है। चाहे सीरियल्स हों या कोई रियलिटी शो, एक सीमा रव्खा तय की जानी जानी चाहिए। इन्हें देखकर लगता है, मानो यही हमारी संस्कृति है। बिना किसी को नीचा दिखाए भी तो लोगों को हंसाया जा सकता है। अब समय आ गया है कि दर्शकों को जागरूक हो जाना चाहिए। उन्हें प्रोड्यूसर्स को ऐसे कार्यक्रम बंद करने के लिए खत लिखने होंगे और फोन करने होंगे। गलत कार्यक्रमों के आते ही चैनल बदलना होगा। निजी चैनल लोगों की प्रतिक्रिया पर ध्यान देंगे और अपने कार्यक्रमों के स्तर को सुधारने पर मजबूर हो जाएंगे।


आज की फिल्मों के बारे में क्या कहेंगे?


भई, आजकल फिल्में भी फास्टफूड की तरह बन रही हैं। मल्टीप्लैक्स की बाढ़ के चलते फिल्में पूरी तरह प्रॉडक्ट बनकर रह गई हैं। सैकड़ों फिल्मों में से एकाध ही ऐसी होती हैं, जिन्हें हम लंबे समय तक याद रख पाते हैं। हास्य फिल्मों में फूहड़ता आ गई है, मैसेज गायब है। आज की कॉमेडी देखकर मुझे बड़ा दुख होता है। मैंने हाल में अनुपम खेर अभिनीत 'खोसला का घोसला' देखी, इस का प्रजेंटेशन मुझे बेहद पसंद आया।


लंबे अरसे के बाद आपकी फिल्म 'सास, बहू और सेंसेक्स' रिलीज हुई है...।


मेरा मानना है कि कलाकार को अपना काम पूरी ईमानदारी से करना चाहिए और फिर सारा फैसला जनता के हाथ में छोड़ देना चाहिए। अगर फिल्म फ्लॉप हो जाती है, तो कमियों पर ध्यान देकर अगली बार सुधार करना चाहिए। अब तो मैंने फैसला कर लिया है कि अगर अच्छी स्क्रिप्ट और बेहतरीन डायरव्क्टर का साथ मिलता है, तो साल में एक फिल्म जरूर करूंगा।



आपकी सहकलाकार रह चुकीं दीप्ति नवल डायरव्क्शन के फील्ड में आ गई हैं, आप भी निर्देशन करने की सोच रहे हैं...?


दीप्ति बड़ी अच्छी कलाकार हैं। अपनी फिल्म 'दो पैसे की धूप, चार आने की बारिश' में वे अपना बेहतर काम पेश करेंगी, मुझे पूरा यकीन है। और जहां तक मेरे डायरव्क्शन का सवाल है, मैं खुद को इस काबिल नहीं समझता कि मुझमें लोगों से काम निकलवाने की समझ है। मैं तो एक्टर ही ठीक हूं।


युवाओं के लिए कोई संदेश।


कभी सैलेरी के लिए अपनी सोच और ईमानदारी को मत बेचो। पैसा ही जिंदगी नहीं है। काम के लिए जिओगे, तो पैसा पीछे भागेगा। जिंदगी का मकसद सारे समाज की खुशहाली होना चाहिए। आज अगर आपको आगे बढ़ने के अच्छे अवसर मिल रहे हैं, तो कुछ काम करने चाहिए कि आने वाली पीढिय़ों को भी कुछ अच्छा हासिल हो सके।


- आशीष जैन

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दिल में धड़के हिंदुस्तान



सोनल शाह अमरीका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बराक ओबामा की खास सलाहकार बनने जा रही भारतीय मूल की अमरीकी नागरिक सोनल शाह को जानते हैं खुद उन्हीं की जुबानी-


मेरा काम मेरी पहचान है


यह नवंबर माह मेरे लिए सबसे खुशी का महीना साबित हुआ है। अब मुझे दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश अमरीका के राष्ट्रपति के साथ काम करने का मौका मिलेगा। अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा ने मुझे अपने 15 सदस्यीय सलाहकार मंडल में बतौर सदस्य शामिल किया है। यह समिति निजी और सार्वजनिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण अनुभव रखने वाले लोगों से मिलकर बनाई गई है। मैं ओबामा को प्रशासन चलाने के लिए काबिल लोगों के नामों की सिफारिश करूंगी। यह मेरे लिए वाकई गर्व की बात है। मैं एक अमरीकी अर्थशास्त्री हूं। अभी मैं गूगल डॉट ओरआरजी के साथ वैश्विक विकास दल में काम कर रही हूं। इससे पहले मैं गोल्डमैन एंड कंपनी की वाइस प्रेसीडेंट थी। वहां मैंने गोल्डमेन सोक्स की पर्यावरण संबंधी प्रोजेक्ट को पूरा करने में अहम भूमिका निभाई। मैं सेंटर ऑफ अमरीकन प्रोग्रेस में राष्ट्रीय सुरक्षा और आर्थिक नीति विभाग की सहायक निदेशक भी रह चुकी हूं। इसके साथ ही मैंने बोसनिया और कोसावो के युद्ध पीड़ित लोगों के लिए भी काम किया है और वहां से मुझे धैर्य, समर्पण जैसे कई गुण सीखने को मिले। कोई भी शख्स लगातार काम करके ही सीखता है, मैंने भी कई जगह और कई लोगों के साथ काम किया है। इसी की बदौलत आज इस मुकाम हैं।


देश के लिए जज्बात


मूलतः मैं गुजरात के साबरकांठा की हूं। मेरा जन्म 1968 में मुंबई में हुआ। सन्‌ 1970 में मेरव् पिताजी रमेश शाह गुजरात से जाकर न्यूयार्क में स्थायी तौर पर बस गए। 1972 में मैं भी अपनी मां कोकिला शाह के साथ न्यूयार्क जाकर बस गई। वहीं मेरी पढ़ाई-लिखाई हुई। मेरे भाई आनंद और बहन रूपल के साथ मिलकर मैंने 2001 में इंडीकॉप्स नाम के एक गैर सरकारी संस्था की स्थापना की। यह संस्था प्रवासी भारतीय को आपस में जोड़कर भारत में विकास के कामों में भागीदार बनाती है और भारत में डवलपमेंट प्रोजेक्ट्स के लिए भारतीय मूल के लोगों को एक साल की फैलोशिप देती है। मेरा मानना है कि देश से बाहर रहने वाले भारतीयों के मन में भी देश के लिए जज्बात होते हैं और वे हिंदुस्तान में सामाजिक कामों में भागीदारी करना चाहते हैं, पर उन्हें कोई मौका नहीं मिल पाता। इंडीकॉप्स के तहत युवा प्रवासी स्वेच्छा से भारतीय ग्रामीण लोगों की शिक्षा, जागृति, स्वास्थ्य जैसे विषयों पर एक साल तक भारत में काम करने के लिए आते हैं। इससे उन्हें ग्रामीण भारत की नई तस्वीर देखने का मौका मिलता है। सन्‌ 2003 में इंडिया एब्रोड प्रकाशन ने मुझे मेरे काम और नेतृत्व क्षमता के लिए 'पर्सन ऑफ द ईयर' घोषित किया।


आसमान छू सकते हैं


मुझे ओबामा की सोच और काम करने का तरीका बेहद पसंद है। वे बहुत स्पष्टवादी हैं। उनकी तरह मैं भी कहे हुए काम को अंजाम तक पहुंचाने के लिए प्रतिबद्ध रहती हूं। मुझे किताबें पढ़ने का बहुत शौक है और अच्छी एथलीट भी हूं। खासकर टेनिस और बॉलीबॉल तो मुझे बहुत भाते हैं। मैं स्वामी विवेकानंद को अपना आदर्श मानती हूं। वे कहा करते थे कि भयमुक्त होने पर ही इंसान कोई बड़ा काम कर सकता है। साथ ही मैं अपनी सफलता का श्रेय समाजसेवी पांडुरंग आठवाले को भी देती हूं। उन्हीं से मुझे समाज से करीब से जुड़ने की प्रेरणा मिली। मैं खुद को धन्य मानती हूं कि मुझे इतने अच्छे माता-पिता मिले, जिन्होंने सदा मेरा साथ दिया और हम काम में मेरी हौसला अफजाई की। मैं भारतीय युवाओं को हमेशा यही बात समझाती हूं कि उनमें क्षमता है बदलाव लाने की। वे समाज को एक नई दिशा दे सकते हैं। अगर आप आसमान के बारे में सोच सकते हैं, तो आसमान पा भी सकते हैं।


- आशीष जैन

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10 November 2008

ये बच्चे बड़े सयाने हैं

ये बच्चे बड़े सयाने हैं
ये दुनिया से अनजाने हैं।
ईश्वर अल्लाह गॉड खुदा रब
मन से सदा पावन रहते ये सब।
इनकी बात निराली है
इनके चेहरों पर लाली है।
बातों में है एक भोलापन
जुड़ जाते इनके झट से मन।
ये अदा बड़ी दिखलाते हैं।
नटखट हरकत कर इतराते हैं।
ये बच्चे बड़े सयाने हैं
ये दुनिया से अनजाने हैं।
हर भाषा इनकी प्यारी है
हर रंग रूप में न्यारी है।
ये प्यार प्रेम हैं सिखलाते
दुनिया को सच्चाई दिखलाते।
ये सबके लिए इक सौगात हैं
इनसे जग के दिन-रात हैं।
बच्चों को दे प्यार ही प्यार
सब कुछ दें उन पर वार।
यही देश का नाम करेंगे
जग में अपना काम करेंगे।
-आशीष जैन

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03 November 2008

चाहिए एक संगिनी ऐसी

ख्वाबों की शहजादी कहें या सपनों की परी, हर पुरुष चाहता है कि उसकी जीवनसंगिनी ऐसी हो जो सारे जमाने से अलहदा और हरदिल अजीज हो।

शादी जिंदगी में एक नया मोड़ लेकर आती है। कुछ को यह रिश्ता ताउम्र लुभाता है, तो कुछ को लगता है कि हमेशा साथ निभाने वाले हमसफर में कोई न कोई खास बात होनी चाहिए, जो जमाने भर में ढूंढ़ने पर भी कहीं नजर न आए। हमने बात की कुछ पुरुषों से और जाना कि कैसी होनी चाहिए आपकी ड्रीम वाइफ।
आंखों में झांककर दिल पढ़ ले
वो लड़की बिल्कुल मेरी दोस्त जैसी हो। आखिर उसे मेरे साथ ताउम्र रहना है। ऐसे में दोस्त की तरह मेरी मुश्किलों को समझे, मेरा हौसला बढ़ाए और प्यार करे। वह दिखने में चाहे कैसी भी हो, इससे कोई फर्क मुझे नहीं पड़ेगा। हां, अगर मैं गलत राह पर जाऊं, तो मुझे सही राह भी दिखला सके। मेरे बोलने से पहले मेरी आंखों में झांककर ही मेरे मन की बात समझ सके। कभी अगर मैं जिंदगी के सफर में हताश हो जाऊं, तो मुझे प्रेरित करे, ऐसी वाइफ मिल जाए, तो मेरी लाइफ बन जाए।
-रवि कुमार शर्मा, उम्र- 36 वर्ष
सबका दिल जीत ले
उस लड़की की शक्लोसूरत खूबसूरत हो। हम दोनों की सोच भी मिले। पत्नी के साथ-साथ परिवार में दूसरी भूमिकाओं जैसे भाभी, बहू और मां को निभाने में भी कुशल हो। घर में सबकी इच्छाओं के लिए अगर थोड़ा बहुत अपनी सुविधाओं के साथ एडजस्ट करना पड़े, तो खुशी-खुशी तैयार हो जाए। जहां भी वह जाए, अपनी बातों से सबका दिल जीत ले और हाथ के हुनर में पारंगत हो। फिर चाहे वह अच्छी कुक हो या अच्छी पेंटर। कुछ ना कुछ ऐसी खासियत जरूर होनी चाहिए कि हर कोई कहे, वाह! क्या बीवी है।
-बुद्धप्रकाश सैनी, उम्र-34 वर्ष
मस्त, बिंदास और जिम्मेदार
मेरा हमसफर थोड़ा चुलबुला, चंचल और शरारती हो। मस्त, बिंदास हो, साथ ही जिम्मेदार भी। वह खुले विचारों की हो और समय के हिसाब से खुद को ढाल सके। मैं जिस भी प्रोफेशन में रहूं, वह उसे समझे और मेरी मदद भी करे। खुद को अपडेट रखे। आपने आस-पास की चीजों की जानकारी रखने वाली हो। वह इमोशनल भी होनी चाहिए ताकि रिश्तों की डोर को मजबूती से संभाले रख सके। तन की सुंदरता से ज्यादा मन की खूबसूरती को तवज्जो देने वाली हो। तभी मैं कहूंगा कि जोडिय़ां तो फरिश्ते तय करके भेजते हैं।
- विनोद भंडारी, 23 वर्ष
खुद को ना बदले
मेरी तलाश ऐसी अर्द्धांगिनी की है, जो वाकई मेरी पूरक हो। मेरी पहचान हो। सूरत और सीरत में कोई फर्क ना हो। बिना बताए अपने फर्ज को समझने वाली हो। आधुनिक हो पर ज्यादा फैशनबल ना हो। चाहे साड़ी पहने या सलवार पर हो हिंदुस्तानी तहजीब को समझने वाली। परंपराओं को दिल से निभाए और मुश्किलों में मेरा साथ दे। मन की सारी भली-बुरी बातें मुझसे शेयर करे। मेरी ख्वाहिशों के चलते वह खुद को ना बदले। जैसी है, सदा वैसी ही रहे। वह खुद कहे कि मैं हूं बीवी नंबर वन।
- आदित्य बोहरा, 26 वर्ष

-आशीष जैन

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दोस्ती कमाल की

सिसली के राजा ने डेयन को किसी अपराध के कारण मृत्यु दण्ड दिया। मृत्यु दण्ड से पहले राजा ने उसकी अंतिम इच्छा पूछी तो उसने कहा- मुझे ग्रीस जाकर परिवार का प्रबंध करने के लिए एक साल का समय चाहिए। राजा बोला- मैं तुम्हारी अंतिम इच्छा पूरी करना चाहता हूं, पर तुम्हारी जगह कारागृह में कौन रहेगा? और तुम्हारे नहीं लौटने पर मृत्यु दण्ड लेने को कौन तैयार होगा? उसका मित्र पीथियस पास में ही खड़ा था। उसने कहा- मैं डेयन की जगह कारावास जाने को तैयार हूं, अगर वह लौटकर नहीं आया तो मैं मृत्यु दण्ड पाने को भी तैयार हूं। राजा ने डेयन को जाने की अनुमति दे दी। लेकिन कुछ परिस्थितियां ऐसी बनीं कि डेयन समय पर लौट कर नहीं आ सका। पीथियस को फांसी की पूरी तैयारी कर ली गई। जैसे ही फंदा उसके गले में डाला जा रहा था, तभी हांफता हुआ डेयन लौट कर आ गया और उसने कहा- मैं आ गया हूं, मेरे मित्र को छोड़ दो और मृत्युदण्ड मुझे ही दो। पीथियस ने कहा- काश तुम देर से आते तो आज मित्रता का मिसाल कायम हो जाती। समझदार राजा ने दोनों क मित्रता को समझा और प्रशंसा करते हुए उन्हें छोड़ दिया। राजा ने उम्हें कई उपहार भी दिए और कहा- मुझे भी तुम्हारे जैसे मित्रों की आवश्यकता है। यदि तुम दोनों मेरे मित्र बन जाओगो तो मुझे बहुत प्रसन्नता होगी।

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बहकते नन्हे कदम

घटना1- 11 दिसंबर 2007 को गुडगांव के एक स्कूल में दो स्कूली छात्रों ने आठवीं कक्षा के अपने दोस्त पर 5 गोलियां दागकर उसे मार डाला।
घटना2- 3 जनवरी 2008 को मध्यप्रदेश के सतना जिले के चोरवाड़ी गांव में दसवीं कक्षा के एक छात्र ने अपने से जूनियर कक्षा 8 के एक छात्र को गोली चलाकर मार डाला।

हाल ही हुई बच्चों में बढ़ती हिंसा की घटनाओं ने सबके सामने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि आखिर क्यों बालमन भटक रहा है? मासूमियत कहां गुम होती जा रही है? यह प्रवृत्ति परिवार, देश-समाज के लिए नासूर बने, उससे पहले सोचना होगा कि कैसे नन्हे कदमों को भटकने से रोका जा सकता है? इसी का खुलासा कर रहा है यह लेख-

आंकड़ों की जुबानी
1. पिछले दस सालों में बच्चों की मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं में 400 फीसदी बढ़ोतरी हुई है।(इंडियन एसोसिएशन फॉर चाइल्ड एंड एडोलेसेंट मेंटल हेल्थ की रिपोर्ट के मुताबिक)

2. हर 10 में से चार बच्चे अवसादग्रस्त हैं। (विमहंस के अध्ययन के मुताबिक)

3. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक सन्‌ 2020 तक बचपन में न्यूरोसाइकरेटिक समस्या में 50 फीसदी तक का इजाफा हो जाएगा और रोग व मृत्युदर में इजाफे के लिए जिम्मेदार पांच कारणों में एक प्रमुख कारण होगा।
4. विद्यासागर मानसिक स्वास्थ्य और न्यूरो विज्ञान संस्थान (विमहंस) ने 1200 बच्चों पर किए एक अध्ययन के आधार पर बताया है कि दिल्ली में पिछले एक दशक में 15 से 18 साल के बच्चों में तम्बाकू और अल्कोहल का इस्तेमाल चार गुना बढ़ गया है।
ये घटनाएं आजकल सबके बीच चर्चा का विषय बनी हुई हैं। सभी को बच्चों में बढ़ती हिंसा ने हैरत में डाल दिया है। बच्चों में इस कदर बढ़ती हिंसा वाकई चिंता का विषय है। मनोवैज्ञानिक बच्चों के इस बदलते व्यवहार को व्यापक दायरे में देखते हैं और इसके लिए कई कारकों को जिम्मेदार मानते हैं। अगर इसे समय पर नहीं सुलझाया गया, तो समाज में बच्चों की स्थिति बिगड़ सकती है और हम सबको इसके नकारात्मक परिणाम झेलने पड़ सकते हैं।
कोमल मन, मिट्टी समान
बच्चों का मन बहुत कोमल होता है। बच्चे अपने परिवार, परिवेश, समाज और स्कूल से बहुत कुछ सीखते हैं। उनमें यह समझ नहीं होती कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं। ऐसे में वे कई बार गलत कदम उठा लेते हैं। मुंबई में बच्चों की काउंसलर दिव्या प्रसाद इसी बात का समर्थन करते हुए कहती हैं, 'बच्चों का मन कच्ची मिट्टी की तरह होता है। ऐसे में बच्चे हर चीज से बहुत जल्दी प्रभावित होते हैं। बच्चों में सही-गलत का निर्णय लेने का गुण विकसित करना बेहद जरूरी है।'
बढ़ती सुख-सुविधा और पैसा
उदारीकरण के दौर में भारतीय परिवारों की आय में तेजी से इजाफा हुआ है। इसके चलते सुख-सुविधाओं की वस्तुएं बढ़ी है। बच्चों को भी ज्यादा जेबखर्च दिया जाने लगा है। बच्चे इस पैसे का गलत इस्तेमाल करते हैं। पैसे के बल पर माता-पिता के खरीदे लाइसेंस्ड हथियार बच्चों तक आसानी से पहुंच जाते हैं। घर में रखे हथियारों के प्रति बच्चों में उत्सुकता बनी रहती है। बच्चे मौका देखते ही हथियार को लेकर उसका असल जिंदगी में प्रदर्शन करते हैं और दोस्तों के बीच आपनी धौंस जमाने लगते हैं। कभी-कभी इन हथियारों के जरिए अपना गुस्सा जाहिर करने से भी नहीं चूकते।
पढ़ाई का तनाव
आज प्रतिस्पर्धा का दौर है। मां-बाप व अध्यापक से लेकर रिश्तेदार और साथी-संगी सभी चाहते हैं कि बच्चा स्कूल में हमेशा टॉप पर रहे। बच्चे के मन को समझने की फुर्सत किसी के पास नहीं है। ऐसे में बच्चा अपनी पढ़ाई को लेकर हमेशा तनाव में रहता है। बच्चा अपने मन की बात किसी से नहीं कह पाता और ऐसे में मन ही मन परेशान रहने लगता है। पढ़ाई के साथ-साथ बच्चों को समय से पूर्व ही करियर का भूत भी सताते लगता है। माता-पिता की बढ़ती अपेक्षाओं के चलते बच्चा अवसाद में आ जाता है।
टीवी और इंटरनेट, कम्प्यूटर गेम्स
तकनीक ने हमारी जीवनशैली का स्तर सुधारा है। पर तकनीक के बढ़ते प्रभाव के चलते बच्चे असल जिंदगी और टीवी के किरदारों में फर्क महसूस नहीं कर पाते। टेलीविजन पर दिखलाई जाने वाली हिंसा बाल-मन पर कुप्रभाव छोड़ती है। वहीं इंटरनेट पर जानकारियों का अनवरत प्रवाह के बीच बच्चे भ्रमित होकर हिंसा को वास्तविक जीवन की सच्चाई मानने लगते हैं। वहीं आजकल कम्प्यूटर गेम्स के बढ़ते चलन से बच्चों की सोचने-समझने की क्षमता सिकुड़ गई है। कम्प्यूटर गेम्स जैसे हिटमैन, ब्लड मनी, रोड रश बच्चों को सीधे तौर पर हिंसा के जरिए अपना काम निकालने का संदेश देते हैं। बच्चे कम्प्यूटर गेम्स के इस मायावी संसार को असल जिंदगी में भी लागू करते हैं। उसके परिणाम बहुत घातक होते हैं।
तेज जीवनशैली और खान पान
आज के युग में किसी के पास समय नहीं है। हर किसी को जल्द से जल्द परिणाम चाहिए। बच्चे भी तेजी से खुद को बड़ा साबित करना चाहते हैं। इस होड़ में बच्चे अपनी कोमलता छोड़कर प्रतिस्पर्धा में शामिल हो गए हैं। वे अपनी हार बर्दाश्त नहीं कर सकते। बच्चे सफलता में बाधा बनने वाली हर चीज का हल हथियार में ढूंढने लग जाते हैं। वहीं कई शोध साबित करते हैं कि जंक फूड खाने से भी बच्चों की मानसिकता प्रभावित होती है। फास्ट फूड के बढ़ते चलन से बच्चों का बौद्धिक स्तर कम हुआ है। अकेलापन
आधुनिक समय में माता-पिता दोनों रोजगार के लिए दिन के समय घर से बाहर रहते हैं। जिस समय बच्चा स्कूल से घर आता है उसे चाहिए मां का दुलार, उसके ममता भरे बोल। लेकिन उसे इसकी बजाय खालीपन मिलता है।वह घर पर सारे दिन अकेला रहता है। बच्चा इस अकेलेपन को सहन नहीं कर पाता है। अकेलापन हावी होने से उसकी मानसिकता में विकृति आने लगती है। अकेलेपन का कोई रचनात्मक उपयोग न होने की वजह से बच्चे में तनाव, अवसाद और निराशा घर करने लगती है।
कुछ खास बातें
बच्चों के कुछ खास लक्षणों को देखकर आप पता लगा सकते हैं कि आपका लाडला भी किसी मानसिक परव्शानी या अवसाद से तो नहीं गुजर रहा-
1. हमेशा उदास रहना और अनावश्यक तनाव लेकर आंसू बहाते रहना।
2. हमेशा माता-पिता का साथ पसंद करना और एक पल को भी उनसे दूर नहीं होना।
3. स्कूल में अपने सहपाठियों से घुल-मिल नहीं पाना और हमेशा उनसे लड़ने को उतारू रहना।
4. प्रायः उल्टी, सिरदर्द की शिकायत करना।
5. खेल, पढ़ाई और दूसरी गतिविधियों से अचानक मन उचटना।
6. खान-पान की आदतों में बदलाव और कम नींद लेना।
7. अल्कोहल या ड्रग लेना या एकाएक बहुत ज्यादा वजन बढ़ना।
8. बात-बात पर गुस्सा करना और तोड़फोड़ करना।
9. दोस्तों के नए समूह में शामिल होना
मनोचिकित्सक प्रवीण दादाचांजी और अनिल ताम्बी के मुताबिक अपने बच्चे में कोई मानसिक समस्या देखें, तो इससे निजात के लिए आपको निम्न उपाय करने चाहिए-
1. बच्चों के साथ समय गुजारें- जब तक आप अपने बच्चों के साथ स्तरीय समय व्यतीत नहीं करेंगे, बच्चे को सही राह नजर नहीं आ सकती है। माता-पिता को बच्चों की समस्याएं सुननी चाहिए व उनके साथ बैठकर हल खोजना चाहिए।
2. बच्चों को प्रेरणादायी और सकारात्मक किस्से सुनाएं- आज के युग में बच्चे दिशाहीन होते जा रहे हैं। ऐसे समय में अगर उन्हें प्रेरणादायी किस्से और सकारात्मक बातें बताई जाएं, तो उनका तनाव कम होगा और वे गलत राह पर जाने से बचे रहेंगे।
3. टीवी और कम्प्यूटर गेम्स की बजाय उन्हें पुस्तकें पढ़ने के लिए प्रेरित करें- अगर बच्चे कम्प्यूटर की बजाय पुस्तकें पढ़ने की आदत विकसित करेंगे, तो वे अपना समय कहीं बेहतर ढंग से व्यतीत कर सकेंगे। पुस्तकें बच्चों की सबसे अच्छी मित्र साबित हो सकती हैं।
4. सामाजिक मान्यताओं के सम्मान की सीख दें- अपने बच्चों को सिखाएं कि व्यक्ति का विकास समाज में रहकर ही हो सकता है। सामाजिक मान्यताओं का आदर करना बहुत जरूरी है।
5. खुद मर्यादित व्यवहार करें- अक्सर बच्चे अपने माता-पिता को देखकर काफी कुछ सीखते हैं। अगर माता-पिता खुद अपना व्यवहार मर्यादित रखेंगे, तो बच्चों के सामने एक मिसाल कायम होगी और उनके कदम बहकने से बचेंगे।
6. रचनात्मकता को बढ़ावा दें- हर बच्चे में कुछ खास करने की इच्छा होती है। इसलिए आपको बच्चों की रचनात्मकता को विकसित करने का मौका देना चाहिए। पेंटिंग्स, लेखन और डांस से बच्चों को कुछ नया करने का मौका मिलता है और वे ज्यादा सकारात्मक बन पाते हैं।
7. एंगर मैनेजमनेंट की सीख दें- अगर बच्चे को बात-बात पर गुस्सा आता है, तो उसे गुस्सा कम करने की तकनीक बताएं। गुस्से के वक्त उसे अपनी सांस पर ध्यान देने की सलाह दें। ध्यान और योग से भी बच्चों के गुस्से को कम किया जा सकता है।
क्या कहना है स्कूल प्रिंसिपल्स और निदेशकों का
जयपुर के स्कूल के प्रिंसिपल्स और निदेशकों से जब स्कूल परिसर में बच्चों में बढ़ती हिंसा के बारव् में बातचीत की गई, तो पता लगा कि सभी को इस घटना के बारव् में पता था और इस घटना के पीछे छुपे संकेतों को भी सभी समझते थे। अधिकतर स्कूलों ने इस घटना के तुरंत बाद अध्यापकों के साथ मीटिंग की और बच्चों की भावनाओं को समझने की वकालत की। पर प्रायः स्कूलों ने बच्चों की सुरक्षा से जुड़ी किसी ठोस कार्रवाई की बात नहीं कही।
नैतिक शिक्षा जरूरी
जैसे ही मुझे गुडगांव की हृदयविदारक घटना के बारे में पता लगा, मैंने स्कूल के अध्यापकों और बच्चों के साथ मीटिंग की और बच्चों को समझाया। मैं अध्यापकों को बच्चों को नैतिक शिक्षा देने की बात कही है।
- आर एल शर्मा, निदेशक, ब्राइट फ्यूचर सीनियर सैकण्डरी स्कूल
शिक्षक से मन की बात कहें
गुडगांव और चोरवाड़ी घटना के बाद हम बच्चों से पूछताछ कर रहे हैं कि उन्हें किसी साथी से डर तो नहीं है। हम निगाह रखते हैं कि किसी बच्चे का व्यवहार असामान्य तो नहीं है। अगर किसी बच्चे को किसी भी तरह की परव्शानी है, तो वह सीधे अपने शिक्षक से बात कर सकता है।
- बेला जोशी, प्रिंसिपल, सुबोध पब्लिक स्कूल
हर हरकत पर निगाह
आज बच्चों के दिल में जो गुबार है,उसे बाहर निकालना बहुत जरूरी है। मैं तो बच्चों के पास जाकर बच्चों जैसी हो जाती हूं। उनकी हर बात ध्यान से सुनती हूं। स्कूल में शिक्षकों को बच्चों की असंदिग्ध हरकतों पर निगाह रखने के निर्देश दिए हुए हैं। पर हर बच्चे की चैंकिंग करना नामुमकिन है।
- राज अग्रवाल, प्रिंसिपल, केन्द्रीय विद्यालय नं.1
हिदायत दी हुई है
स्कूल की हर कक्षा में कैमरे लगे हुए हैं, जिससे हम बच्चों की हर गतिविधि पर नजर रखते हैं। अध्यापकों को बच्चों के लड़ाई-झगड़े निपटाने के भी निर्देश दे दिए हैं। बच्चों को हिदायत दी है कि अगर आप कुछ गलत चीज स्कूल में लेकर आए, तो आपको स्कूल से निकाला जा सकता है।
-मोहिनी बक्शी, प्रिंसिपल, सीडलिंग स्कूल
काउंसलिंग करवाते हैं
वैसे कोई बड़ा कदम तो नहीं उठाया है। हां, नियमित रूप से अकस्मात चैकिंग का काम चलता रहता है। इससे बच्चे किसी तरह का गलत काम करने से डरते हैं। बच्चों की काउंसलिंग का कार्यक्रम भी बढ़ा दिया है।- माला अग्निहोत्री, वाइस प्रिंसिपल, इंडिया इंटरनेशनल स्कूल
समझाइश से काम होगा
हम माता-पिता को समझा रहे हैं कि हथियारों को बच्चों की पहुंच से दूर रखें। बच्चों को भी पढ़ाई का तनाव नहीं लेने की सलाह दी है। बच्चों को हथियारों के नुकसान से भी चेताया है।
- कर्नल कौशल मिश्रा, प्रिंसिपल, महावीर दिगंबर सीनियर सैकंडरी स्कूल
आलेख- आशीष जैन

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नखरा बड़ा खाने-पीने में



बच्चों की खाने की आदतें बिगड़ रही हैं। अनाश-शनाप खाने वाले बच्चों पर एक पड़ताल।

13 साल की निखिला आनंद नोएडा के अपमार्केट पब्लिक स्कूल में पढ़ती है। निखिला जब स्कूल में प्रोअर के लिए जाती है तो अक्सर उसे चक्कर आने लगते हैं और वह बेहोश हो जाती है। डॉक्टर ने उसकी जांच की तो पाया कि उसका हीमोग्लोबिन का स्तर काफी कम है। तीर की तरह दुबली-पतली निखिला खाने के मामले में काफी ना-नुकुर करती है और खाने की मेज पर उसकी मां और उसमें हमेशा तकरार चलती रहती है। उसकी खाने की इस आदत से उसमें लौह तत्व की कमी की वजह से एनीमिया हो गया है। दूसरी तरफ 12 साल का रितिक घोष उच्च कॉलेस्ट्रोल से परेशान है और उसे अब रोजउठाकर फुटबाल खेलने की हिदायत है। रोहित का मोटापा पूरी तरह से उसके अनियमित और गलत खान-पान से जुड़ा हुआ है। रोहित सारे जंक फूड्स खाने का शौकीन है, पर उसे फल-सब्जी खाने के नाम पर काफी परेशानी होती है। खाने में उसके काफी नखरे होते हैं।सर गंगाराम हॉस्पिटल, नई दिल्ली को शिशु और पेट रोग विशेषज्ञ नीलम मोहन के मुताबिक, 'सबसे ज्यादा परिजन इसी शिकायत के साथ हमारे पास आते हैं, कि उनका बच्चा ढंग से खाता-पीता नहीं है।

'मैक्स हेल्थकेयर, नई दिल्ली के शिशु रोग विशेषज्ञ राहुल नागपाल साफ कहते हैं, 'जितने दौलतमंद परिजन हैं, उतनी ही गंभीर समस्या बनने लगती है।' मैंने देखा है कि संपन्न घर के माता-पिता खूब खिलाने की कोशिश करते हैं, पर बच्चे उतना ही खाने-पीने से घृणा करते हैं।' इसे हमें 'गरीबी से त्रस्त अमीर बच्चे' कह सकते हैं। इस आदत के प्रभाव भारतीय बच्चों में दिखाई देने लगे हैं।

बुरे प्रभाव

नई दिल्ली स्थित पोषण विशेषज्ञ ईषी खोसला कहती हैं कि खाने में मां-बाप को परेशान करने वाले बच्चों का स्टेमिना काफी कम होता है। उनकी एकाग्रता क्षमता भी घट जाती है और बाल व त्वचा पर कुप्रभाव नजर आने लगता है। वे कहती हैं कि 11 साल की उम्र तक खाने की जो आदतें बन जाती हैं, वह ताउम्र बनी रहती है। डॉ. नागपाल कहते हैं 'अध्ययन बताते हैं कि जिन बच्चों को दिन की शुरुआत में ग्लूकोज की कमी होती है उनमें 'लर्निंग डिसऑर्डर' की संभावना बढ़ जाती है। चुन- चुनकर खाने वाले बच्चों में विटामिन और खनिजों की कमी होती है। उनका विकास भी इससे प्रभावित हो जाता है। अधिकतर मामलों में इससे 'नियोफोबिया- नए खाने से डर' की आशंका बन जाती है। अगर बचपन में बच्चों में स्वास्थ्यपरक भोजन के प्रति रुचि जागृत की जाए तो आगे भयंकर बीमारियों जैसे डायबिटीज, हाइपरटेंशन की संभावना कम हो जाती है।इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल, नई दिल्ली के शिशु- पेट रोग विशेषज्ञ अनुपम सिबल के अनुसार 'इस पूरी समस्या का जन्म बचपन से ही शुरू हो जाता है। जब बच्चे का दूध छुड़ाया जाता है, तो यह समस्या सामने आती है।'

वजह खास है

अगर बचपन में बच्चे का दूध छुड़ाने में मां कोताही बरतती है, तो आगे चलकर बच्चे के लिए खाने पीने की आदतें बिगड़ने की आशंका बढ़ जाती है। कुछ माताएं अपने छोटे बच्चे को भूख से ज्यादा बहुतसी चीजें खिलाती ही जाती हैं, इस वजह से बच्चे में भोजन के प्रति घृणा पैदा होने लगती है। कुछ मांएं दूध छुड़ाने के बाद भी लगातार तरल चीजें ही बच्चों को खिलाती हैं। इस वजह से भी आगे चलकर बच्चों में तरल, आसानी से खाया जाने वाली चीजों की आदत पड़ जाती है।कुछ परिजन तो खाने के समय को मनोरंजन का समय मानते हैं और टीवी, खिलौने दे देते हैं और सोचते हैं कि इन चीजों से बहलकर बच्चा खूब खाएगा। पर होता इससे उलट है। बच्चे खाना तो खाते नहीं है बल्कि लगातार टीवी और खिलौने मांगते रहते हैं। बच्चों के दांत निकलना, गले में दर्द, बंद नाक और पेट में खराबी होने की वजह से बच्चे हमेशा खाने से नाक-मुंह सिकुड़ने लगते हैं। पर यह कुछ ही समय की समस्या रहती है। इस दौरान अगर बच्चों को जबर्दस्ती खिलाया जाता है, तो आगे चलकर समस्या बढ़ जाती है और बच्चा भोजन से दूर भागने लगता है। जो मां-बाप हर वक्त अपने बच्चों के पीछे खाने-पीने को लेकर पड़े रहते हैं, उनमें यह समस्या अधिक होती है। डॉ. नागपाल कहते हैं '90 फीसदी मामलों में जबर्दस्ती भोजन खिलाने की वजह से ही बच्चे खाने में लापरवाह हो जाते हैं।'

सहज समाधान

डॉ. सिबल के मुताबिक यह समस्या काफी आम है। परिजनों को पूरी स्थिति समझनी चाहिए और काफी धैर्य से काम लेना चाहिए। जल्दबाजी से इस परेशानी का हल नहीं ढूंढा जा सकता। काउंसलिंग इसमें मददगार साबित हो सकती है। अगर आपका बच्चा ढंग से खाता नहीं है, तो उसे भूख बढ़ाने की दवा देना सही उपाय नहीं है। खोसला समस्या को जल्द से जल्द पहचानने पर जोर देते हैं। अध्ययन बताते हैं कि खान-पान की आदतों के निर्माण का सबसे सही समय 3 साल की उम्र होता है। सबसे पहले परिजनों को इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि यह समस्या पैदा किस वजह से हो रही है। इसके बाद परिजनों को आराम से, बिना दुखी हुए बच्चे को समझना चाहिए।खाने की मेज से जुड़े एक आधारभूत तथ्य पर अधिकतर डॉक्टर सहमत हैं कि खाना परोसने के 45 मिनिट के अंदर खाने की मेज साफ हो जानी चाहिए और फिर भोजन 3 घंटे बाद ही देना चाहिए। डॉ. नागपाल कहते हैं कि पूरे परिवार को मिलकर एक साथ भोजन करना चाहिए। अध्ययन बताते हैं कि जो बच्चे खासकर किशोरावस्था में प्रवेश करने वाले, नियमित रूप से परिवार के साथ खाना खाते हैं, उनमें फाइबर कैल्शियम, आयरन और दूसरे जरू री विटामिनों की कमी नहीं होती। अगर बच्चा कम मात्रा में भोजन करता है, तो परिजनों को उसी मात्रा में भोजन के जरूरी तत्वों के समावेश की कोशिश करनी चाहिए। उदाहरण के तौर पर बच्चा सिर्फ एक रोटी खाता है तो गेहूं के आटे की जगह उसे सोया या बेसन के आटे की रोटी खाने को दें और इसमें सब्जियां भर दें।

क्या करें-

माता- पिता को बच्चों के सामने खान-पान के मामले में बुराई करने की बजाय खुद का आदर्श स्थापित करना चाहिए। नियमित परिवार के भोजन की योजना तैयार करनी चाहिए।

- अगर आप खुद खूब फल-सब्जी और चपातियां खाते हैं, तो बच्चा भी आपसे सीखकर खाना खाएगा। खाना खाते वक्त टीवी ना देखें।

भोजन को आकर्षक बनाकर पेश करें। जिस खाने को बच्चा बहुत पसंद करता है, उसमें पौष्टिक और कम पसंद करने वाली चीजों का मेल करके भोजन में पेश करें।

- भोजन बनाने, खरीदने में बच्चे को भी शामिल करें। उससे खाने की लिस्ट बनाएं और अलग-अलग ढंग से सब्जियां जैसे- लाल (टमाटर), हरा (मटर), नारंगी (गाजर), पीला (मक्का) चुनने को कहें।- कभी भी भोजन को पुरस्कार या दण्ड के तौर पर न दें।

ऐसा न कहें 'अपनी गाजर खाओ, तभी आइसक्रीम मिलेगी।'

- सब्जियों को सूप, रोटी, मसाला डोसा, चावल, नूडल्स, पास्ता, मैदा, सलाद, चटनीऔर सॉस के साथ मिलाकर पेश करें।

- उसे हाथों से खाने के लिए प्रेरित करें।

- बच्चों को बच्चों या उसके दोस्तों के साथ खाना खिलाएं।

- दूध और ज्यूस ज्यादा ना दें।

- भोजन का समय नियमित रखें। बच्चे के भोजन में उसकी पसंदीदा चीजें भी परोसते रहें।

- अगर कुछ खास चीजें उसे पसंद नहीं है, तो उसके एवज में उतनी ही मात्रा के दूसरे पोषक तत्व दें। सारे डॉक्टर्स और न्यूट्रीशियन्स खान-पान की समस्याओं से ग्रस्त बच्चों के लिए अभिभावकों को रचनात्मक तरीके से भोजन को पेश करने की वकालत करते हैं।

खान-पान की समस्या से ग्रस्त बच्चों की समस्या सुलझाने के लिए इंटरनेट पर कुछ किताबें भी मौजूद हैं-1. आई विल नेवर नॉट एवर ईट ए टमाटो लेखक- लॉरेन चाइल्ड

2. फूसी ईटर्स रेसिपी बुक लेखक- अन्नाबेल करमेल

3. वन बाइट वॉन्ट फिल यू लेखक- एन्न हॉड्जमैन एंड रोज चास्ट

4. प्रीटेंड सूप एंड अदर रियल रेसिपील लेखक- मोली काटजेन एंड एल एल हेंडरसन।

-आशीष जैन

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01 November 2008

क्या खूब याददाश्त है...



बच्चो जिस तरह शरीर के लिए एक्सरसाइज करना जरूरी है उसी तरह आपको अपने दिमाग को तंदुरुस्त बनाने के लिए भी व्यायाम की जरूरत है। अगर आपका दिमाग तेज होगा, तो आपके मार्क्स अच्छे आएंगे। आपकी हर जगह तारीफ होगी। आपको चीजें ढूंढ़ने में परेशानी नहीं होगी और ना जाने कितने फायदे छिपे हैं, इस याददाश्त में। पेश हैं याददाश्त की कुछ मजेदार एक्सरसाइज-

1. हर रोज किसी एक चीज को या व्यक्ति को देखें। उसे दिमाग में अच्छी तरह बिठा लें। सप्ताह के अंत में याद की गई सातों चीजों को एक कागज पर लिखें। इससे आपका दिमाग विकसित होगा।

2. खाने की टेबल पर जो चीजें रखी हैं, उन्हें बिना देखे सिर्फ सूंघकर या चखकर पहचानें। फिर अपनी मम्मी से पूछें कि क्या आप सही बता रहे हो।

3. जब भी आप फोन अटेंड करें, तो सामने वाले को बिना नाम के पहचानने की कोशिश करें।

4. जब भी किसी रेस्टोरेंट में जाएं, तो मीनू में शामिल चीजों और उनकी कीमतों को याद करने की कोशिश करें।

5. जब आप अपनी अलमारी खोलें, तो याद रखें कि कौनसा सामान कहां रखा है। अगली बार अलमारी में बिना देखे चीजों का अनुमान लगाएं।

6. जब भी मम्मी आपको कुछ खरीदने बाहर जाएं, तो बिना लिस्ट बनाए, खरीदारी का सामान याद करें। बच्चो, बिना कम्प्यूटर और कैलकुलेटर के रुपयों का हिसाब रखें।

7. अपने सभी दोस्तों के फोन नंबर कागज पर लिखने की कोशिश करें।

8. अपने घर के सदस्यों, रिश्तेदारों व दोस्तों के जन्मदिन की लिस्ट बनाएं।

9. किसी कमरे में घुसते ही गिनें कि दाईं और बाईं तरफ कितने आदमी हैं।

10. क्रॉसवर्ड पहेली रोज हल करें।


बच्चो, आप सबको स्कूल में, घर में, होमवर्क में न जाने क्या-क्या याद रखना पड़ता है। कभी-कभी लाख कोशिशों के बाद भी कुछ याद नहीं रह पाता। हम इस बार कुछ ऐसे टिप्स लेकर आए हैं, जो आपकी याददाश्त को दुरुस्त करेंगे और इससे आप हमेशा पढ़ाई में अव्वल रहेंगे। बच्चो संस्कृत में एक सुभाषित है-

काग चेष्टा, बको ध्यानम्‌,

श्वान निद्रा तथैव च

अल्पाहारी, गृहत्यागी, विद्यार्थी पंचलक्षणम्‌।

इसका मतलब है विद्यार्थियों में पांच गुण होने चाहिए। सबसे पहले हमें इन गुणों को समझना है। काग या कौए की तरह प्रयास करें। बको यानी बगुले की तरह एकाग्रता रखें, कुत्ते की तरह चौकन्नी नींद हो, खाना सीमित हो और सुख-सुविधाओं का भोगी न हो।

- पढ़ाई के साथ-साथ अपने स्वास्थ्य पर भी ध्यान दें।

- संतुलित भोजन करें। भोजन सुपाच्य हो।

- खाली पेट कभी न रहें। अधिक भूख से सिरदर्द रहता है व कुछ याद नहीं होता।

- तली हुई, चटपटी चीजें कम से कम खाएं।

- देर रात तक न पढ़ें।

- हमेशा 8 घंटे की नींद अवश्य लें।

- खाना खाने के तुरंत बाद पढ़ाई के लिए न बैठें।

- सुबह-शाम सैर पर जरूर जाएं।

- गुस्सा कम करें, खुश रहें।

- किसी भी विषय को थोड़े-थोड़े अंतराल में पढ़ें।

- लिखकर, बोलकर, पढ़कर सभी तरीकों से याद करने की कोशिश करें।

- जिस भी विषय को याद करें, पूरी रुचि के साथ करें।

- याद करते समय, पहले याद की गई चीजों से उन चीजों को जोड़ते जाएं। मस्तिष्क में एक विचार से दूसरा विचार जुड़ता है तभी याददाश्त बनती है।

- पढ़ाई का एक समय तय कर लें, ताकि उस समय आपका मस्तिष्क पहले से कहीं तेजी से काम करें।

मस्तिष्क के दो भाग होते हैं-दायां और बायांदायां मस्तिष्क शरीर के बाएं अंगों के संचालन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।बायां मस्तिष्क शरीर के दाएं अंगों के संचालन में अहम है।

- बायां मस्तिष्क कल्पनाशील होता है। यह विचारों को मनमाने ढंग से चित्र व रंगों की मदद से याद रखता है। बायां मस्तिष्क तर्क को स्थान देता है। अच्छी याददाश्त के लिए दाएं व बाएं मस्तिष्क का सही समन्वय होना जरूरी है।

- इजिप्ट के बादशाह नासर के पास 20 हजार गुलाम थे। यह माना जाता है कि नासर को इन सभी गुलामों के नाम, जन्म स्थान, जाति, आयु और उन्हें पकड़े जाने की तारीख याद थी। नासर को उन गुलामों के बारे में यहां तक याद था कि किस गुलाम को कहां से खरीदा गया है।

- शतरंज जादूगर अमरीकन खिलाड़ी हैरी नेल्सन एक साथ बीस खिलाड़ियों की चालें याद रख सकते थे।

- डेनमार्क के एक बैंक में आग लग जाने पर ग्राहकों के बही-खाते और उनकी जानकारियां जब जल गईं, तो बैंक के ही एक क्लर्क ने 3000 ग्राहकों के नाम, पते और जमा धनराशि सही-सही बता दी।

- बि्रटिश संग्रहालय के अध्यक्ष रिचर्ड मारग्रेट कुर्सी पर बैठे-बैठे संग्रहालय की लाखों पुस्तकों के नाम, प्रकाशकों के पते और उनकी विषय वस्तु तक याद रखते थे।


-आशीष जैन

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असली परीक्षा तो माता-पिता की है




क्या इन दिनों आपके घर का माहौल बदला हुआ है? बच्चों की परीक्षा ने आपको टेंशन में डाल दिया है। बच्चे क्या पढ़ें, कैसे पढ़ें, क्या खाएं, क्या पिएं, कब सोएं, कब जागें- ढेरों सवाल आपके दिमाग में भी घूमते रहते हैं। घूमने भी चाहिए। अरे भई! आप बच्चों के माता-पिता जो हैं। इन दिनों आपके बच्चे ही इम्तहान नहीं दे रहे, बल्कि आप भी परीक्षा दे रहे हैं जनाब!

मधु, निशा, अनन्या और माधुरी शाम के समय बतिया रही थी। चारों के बच्चों के एग्जाम चल रहे हैं। चारों इन दिनों अपने बच्चों को लेकर काफी पशोपेश में हैं। सब अपना-अपना दुखड़ा एक-दूसरे को सुनाने लगती हैं। मधु कहती है, 'मेरी बेटी ने तो इन दिनों खाना-पीना बिल्कुल छोड़ दिया है।' इस पर माधुरी बोलती है, 'मेरा बेटा रोहित तो हमेशा टेंशन में रहता है कि अच्छे नंबर आएंगे भी या नहीं।' अनन्या की अलग ही परेशानी है। उसका बेटा इन दिनों ठीक से सो ही नहीं पा रहा है। निशा कहती है, 'मेरी बिटिया तो चौबीसों घंटे किताबों के चिपकी रहती है, ना हंसती है, ना बात करती है।' चारों सोचती हैं कि हमें बच्चों को किसी डॉक्टर के पास ले जाना चाहिए। चारों सहेलियां अपने बच्चों की समस्याएं आपस में बांट ही रही थी कि उनकी डॉक्टर सहेली हेमलता आती है और उनकी बातों में शामिल हो जाती है। उनकी बातें सुनकर हेमलता कहती है, 'तुम यूं ही घबराती हो। बच्चों में एग्जाम के दिनों में ये समस्याएं आ सकती हैं। डॉ. के पास जाने के बजाय तुम्हें ही कुछ करना चाहिए। तुम्हें समझना चाहिए कि अब बच्चों की परीक्षा के साथ-साथ तुम्हारी भी परीक्षा है।
जी हां, हेमलता सही कह रही हैं। एग्जाम के दिनों में सभी मांओं की हालत इन चार सहेलियों जैसी हो जाती है। पर परीक्षा की इस घड़ी को सिर्फ अपने बच्चों की परीक्षा ना समझें, यह समय आपके लिए भी किसी परीक्षा से कम नहीं है। बच्चों की एग्जाम की टेंशन को थोड़ी सी समझदारी से सुलझाया जा सकता है।

माता-पिता ही सर्वश्रेष्ठ काउंसलर
एनसीईआरटी से ट्रेनिंग प्राप्त काउंसलर गीतांजलि कुमार का कहना है, 'परीक्षा के दिनों में एक बच्चे के लिए माता-पिता ही सबसे अच्छे काउंसलर साबित हो सकते हैं। मां-पिता बच्चे को नजदीक से जानते हैं और उसकी भावनाओं को अच्छे से समझ सकते हैं। अगर बच्चे को कोई भी परेशानी महसूस हो, तो माता-पिता को खुद आगे होकर बच्चों से बात करनी चाहिए।' माता-पिता को बच्चों के सामने एक दोस्त की भूमिका निभानी होगी, तभी बच्चे एग्जाम के डर के बारे में उनसे बातचीत कर पाएंगे। माता-पिता को बच्चे को यकीन दिलाना चाहिए कि परीक्षाएं जीवन-मरण का प्रश्न नहीं हैं। बच्चों में भरोसा पैदा करने के लिए उन्हें याद दिलाना चाहिए कि उन्होंने पूरी साल पढ़ाई की है और अब एग्जाम भी अच्छे ही होंगे। साइकेट्रिस्ट डॉ. रेशमा अग्रवाल का मानना है, 'परीक्षा के दिनों में अगर पूरा परिवार बच्चे के साथ रहेगा, तो उसे रिलेक्स महसूस होगा और उसमें एंग्जाइटी भी पैदा नहीं होगी।'

नाक का सवाल नहीं
चाइल्ड साइकोलॉजिस्ट डॉ. अंजलि मुखर्जी का कहना है, 'माता-पिता को अपने बच्चे की एग्जाम को नाक का सवाल नहीं बनाना चाहिए।' बच्चे पर कभी प्रेशर ना बनाएं कि फलां से ज्यादा नंबर आने चाहिए या फलां का पेपर तो बहुत अच्छा हुआ है। पेपर देने के बाद अपने बच्चे से यह कभी नहीं पूछें कि कितने नम्बर आएंगे? बच्चा अगर अपने दोस्त के साथ पढ़ाई करने जाता है, तो उस पर शक न करें। करियर, सोसाइटी, नौकरी की बातों को अच्छे नंबर्स के साथ जोडक़र पेश न करें। बच्चों को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से उन्हें बताएं, 'अभी तो बहुत समय है। तुम, कर सकते हो।' बच्चों को अपनी पढ़ाई और एग्जाम के अच्छे अनुभवों के किस्से सुनाएं। इससे बच्चों को लगेगा कि मम्मी-पापा ने भी तो एग्जाम दी है। वे सही ही सलाह दे रहे हैं। एग्जाम के दिनों में बच्चों को कभी पढ़ाई के विषय में अपमानित न करें। बच्चों में असुरक्षा की भावना को पनपने की बजाय उनकी हर बात को ध्यान और धैर्य से सुनें। माता-पिता को बच्चों को एग्जाम के दिनों में गहरी सांस लेने व छोडऩे की सलाह देनी चाहिए। सबसे सही और उपयुक्त बात तो यही है कि बच्चों को आप पर पूरा यकीन हो जाए और वे कहने लगें, 'मुझे कोई टेंशन कैसे हो सकती है, मेरे मम्मी-पापा मेरे साथ जो हैं।' तभी आप भी इस एग्जाम में पास माने जाएंगे।

तैयार रहें आप भी
परीक्षा के दिनों में माता-पिता को बच्चे की दिनचर्या सामान्य बनाए रखने की कोशिश करनी चाहिए। काउंसलर बिंदु प्रसाद कहते हैं, 'एग्जाम के दिनों में अपने बच्चों को समझाएं, कि वे अपनी नियमित दिनचर्या में कतई फेर-बदल न करें। सामान्य दिनों की तरह ही हल्का-फुल्का समय मनोरंजन के लिए भी निकालें।' माता-पिता को चाहिए कि वे बच्चों का स्टडी रूम व्यवस्थित रूप से जमा दें। एग्जाम हॉल में ले जाने वाली जरूरी चीजों को नियत स्थान पर रखें। माता-पिता को चाहिए, एग्जाम के दिनों में बच्चा साफ कपड़े पहने, ताकि उसका तन-मन अच्छा रहे और पढ़ाई ध्यान से कर पाएं। पढ़ाई की जगह हवादार हो और कमरे में में पर्याप्त रोशनी हो। परीक्षाओं के दिनों में मम्मी-पापा को भी टीवी कम ही देखना चाहिए, ताकि उनके बच्चों का ध्यान ना भटके।
डाइट कंसलटेंट आरती शाह का मानना है कि परीक्षा के दिनों में बच्चों को आयरन और प्रोटीन से भरपूर भोजन खिलाना चाहिए। बच्चों को वसा युक्त, तला-भुना और गरिष्ठ भोजन नहीं दें। साथ ही माता-पिता को यह भी ख्याल रखना चाहिए कि बच्चे को लगातार और थोड़ा-बहुत खाने को देते रहें। ज्यूस और ठंडा पानी भी पिलाते रहना चाहिए। द्गयूस में अगर थोड़ा नमक मिलाकर देंगे, तो बच्चों के शरीर में नमक की कमी भी नहीं होगी। सबसे जरूरी बात है कि एग्जाम के दिनों में बच्चों को याददाश्त बढ़ाने वाली दवाइयां कतई न दें। बच्चों को खुद पर विश्वास बनाए रखने की सलाह दें। बच्चों को देर रात तक पढ़ाई की राय देने से भी बचें। हां! सुबह जल्दी जगाकर उन्हें कुछ देर टहलने को कहें और फिर पढ़ाई की बातें करें। उनके कोर्स को और पेपर पैटर्न को आप भी समझने की कोशिश करें। अगर बच्चे के मन में परीक्षाओं से संबंधित कोई सवाल है, तो उसे टालें नहीं, उसका सही जवाब दें।
-आशीष जैन

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