07 October 2008

हौसलों के पंख सपनों की उड़ान

ग्रामीण महिलाएं ले रही हैं छोटे-छोटे ऋण और संवार रही हैं अपना हुनर।
चारों ओर धूल-मिट्टी के गुबार हैं, पर चेहरे पर हौसलों की मुस्कान साफ नजर आती है। मुश्किलें लाखों हैं, पर मंजिल पाने का यकीन है। हर तरफ आत्मविश्वास और खुशियों की यह बयार आई है महिलाओं को मिलने वाले ऋण से। अब महिलाएं अपने हुनर को आसानी से पेशा बना सकती हैं। चाहे कशीदाकारी हो, मिट्टी के बर्तन बनाना या दूध बेचने के लिए चाहिए भैंस, हर उस चीज के लिए ऋण मिलेगा, जिससे आप हुनर को बढ़ाना चाहती हों। पहले जिस महिला को पति ने छोड़ दिया, उसी महिला ने जब खुद का काम शुरू किया तो पति उससे मिन्नतें कर रहा है कि वह उसके साथ रहना चाहता है। यह है करामात महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता की। इस अभियान में महिलाओं के लिए वरदान साबित हुआ है एसकेएस माइक्रो फाइनेंस। आज ये महिलाएं अपने कौशल को बाजार में बेचने में माहिर हैं और अपने काम को लगातार आगे बढ़ा रही हैं।

खुशहाली है चहुंओर
बात करते हैं ज्ञानादेवी से। कशीदे का काम सीखा, तो लगा कि खुद ही क्यों न कपड़ों पर कशीदाकारी कर बाजार में सप्लाई करव्। एसकेएस से 8 हजार का ऋण लिया और कशीदे की मशीन खरीद ली। अगले 4 हजार रुपयों से कपड़ा खरीदा और फिर बाजार में कशीदा कढ़ा हुआ कपड़ा सप्लाई करने लगी। पति का भी पूरा साथ मिला। आज ज्ञानादेवी के बच्चे अच्छे स्कूल में पढ़ने जाते हैं। पूरा परिवार इस बात से बेहद खुश है कि पति-पत्नी मिलकर कमा रहे हैं और अपने परिवार को खुशहाली की राह पर ले जा रहे हैं। शुरू में उन्हें लगा था कि कैसे मैं खुद का काम करूंगी, पैसा कैसे चुकाऊंगी। पर धीरव्-धीरव् आत्मविश्वास बढ़ा और आज वह अपने काम को और बढ़ाने की सोच रही हैं।

बड़ा अच्छा लगता है
आज से तीन साल पहले विमला देवी ने 8 हजार रुपए का ऋण लिया और उन पैसों से कपड़े खरीदकर गांव-ढाणियों में बेचने लगीं। पहले पति की पान की दुकान थी, पर अब वह बंद हो गई। अब विमला ही पूरे घर की जिम्मेदारियां निभाती है। खुद के बूते काम कर रही हैं, तो सामाजिक प्रतिष्ठा भी बढ़ी है। अब वे अपने जैसी महिलाओं को जागरूक करके आत्मनिर्भर बनने का सबक देती हैं। घर पर पोते-पोतियों के बीच घिरी रहने वाली विमला बाजार में एक समझदार दुकानदार की भूमिका बखूबी निभा रही हैं।

औरों को भी काम
जरदोजी का काम मंजु को उसके पति ने सिखाया। पहले पति यह काम किया करते थे। एक हादसे में उनकी उंगली कट गई। फिर परिवार की जिम्मेदारी मंजु ने संभाल ली और एसकेएस से ऋण लेकर बाजार में सप्लाई शुरू कर दी। अब तो उसने अपने बढ़ते काम को देखकर लोगों से भी काम करवाना शुरू कर दिया है। पहले खुद सक्षम हुईं, अब आस-पास के लोगों को रोजगार मुहैया करा रही हैं।

खुद का पैसा ही भला
मोहिनी देवी ने अपनी सास से गर्मी में हाथ से झलने वाला पंखा बनाना सीखा था। खजूर के पेड़ की पत्तियों से बनने वाले पंखों के लिए पहले साहूकार से पैसा लेना पड़ता था। पैसों को लेकर उस पर दबाव बना रहता था। ऐसे में लगा कि अगर खुद ही कहीं से पैसों का इंतजाम कर लें, तो कितना अच्छा हो। एसकेएस की योजना ठीक लगी। अब खुद पंखा बनाकर सप्लाई करती हूं, तो बचत भी ज्यादा होती है।

बड़ा आकाश- सबका साथ
विक्रम अकूला ने एसकेएस माइक्रो फाइनेंस की स्थापना इसी मकसद से की थी कि दूर-दराज गांवों की वे महिलाएं जो न तो द्गयादा पढ़ी-लिखी हैं और न ही बाहरी दुनिया से परिचित, उन्हें रोजगार के लिए पैसे की कमी आड़े नहीं आए। इसलिए वे सिर्फ महिलाओं को ऋण देते हैं और वह भी बिना किसी कागजी कार्रवाई और गारंटर के। अगर महिला गरीब है, तो अपने आस-पड़ोस की पांच महिलाओं के साथ मिलकर ऋण ले सकती है। एक साल में दो हजार से शुरू कर 16 हजार रुपए तक लिए जा सकते हैं। जिस भी महिला में कमाने की चाह है, अब उसे सिर्फ ऋण लेना है और शुरू कर देना है अपना काम। ऋण लौटाना भी है बहुत आसान। हर हफ्ते होने वाली महिलाओं की मीटिंग में आसान सी रकम देते जाइए और 50 हफ्तों में पूरी रकम अदायगी। आज एसकेएस 17 से ज्यादा राज्यों में काम कर रहा है। राजस्थान में इसकी शुरुआत जुलाई 2006 में हुई और आज 18 जिलों के 1460 गांवों में हजारों महिलाओं का भविष्य संवारने में मदद कर रहा है। महिलाओं को ऋण देने के लिए जो लोग यहां काम कर रहे हैं, उनमें से अधिकतर लोग गांव और इन्हीं महिलाओं के परिवारों से हैं।
-आशीष जैन

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