उम्र के 97 पड़ाव पूरे कर चुकीं वरिष्ठ रंगकर्मी, अभिनेत्री और डांसर जोहरा सहगल आज भी गुनगुनाती हैं- अभी तो मैं जवान हूं। उन्हें देखकर लगता है कि जिंदगी का दूसरा नाम जोहरा ही है। जानते हैं उनकी जिंदगी के अनछुए पहलुओं को खुद उनकी जुबानी-
जब 1983 में मैं पाकिस्तान गई थी, तो लोगों ने मुझे कहा था कि आप पाकिस्तानी शायर हफीज जालंधरी की लिखी पंक्तियां- अभी तो मैं जवान हूं- सुनाइए ना। फिर तो मैं भूल गई कि कहां खड़ी हूं और मेरे सामने कौन लोग हैं। मैं नज्म की उन पंक्तियों को गुनगुनाने लगी। चीनी कम और सांवरिया के बाद मैं परदे पर नजर नहीं आई, लोग मुझसे सवाल पूछने लगे। मैं आपको बताना चाहती हूं कि जब तक मैं अपने पात्र और चरित्र के साथ आत्मीय संबंध नहीं बना लेती, तब तक मैं फिल्म मंजूर नहीं करती।
सपनों की सीढिय़ां चढ़ती रही
फिल्मी परदे पर मैं ज्यादातर ऐसी मां या दादी की भूमिकाएं निभाई हैं, जो अपने बच्चों को अंत में जाकर जीने की आजादी देती है। दरअसल ये भूमिकाएं मेरी जिंदगी के सचों से जुड़ी हुई हैं। मैं रोहिल्ला पठान परिवार में पैदा हुई थी। वहां मुझे अपने सपनों के मुताबिक जीने की आजादी नहीं थी। मेरे परिवार में बुर्का जरूरी था। मैं तो नीलगगन में उडऩा चाहती थी। गाना और नाचना चाहती थी। एक दिन यूरोप में रहने वाले मेरे चाचा ने ब्रिटेन के एक कलाकार के बारे में मुझे बताया और कहा कि अगर तुम वहां जाओगी, तो तुम्हारे सपने पूरे हो जाएंगे। तब मैंने ईरान, मिस्र होते हुए यूरोप तक सड़क और पानी के रास्तों से अपना सफर पूरा किया। मेरे घरवाले मुझे सात भाई-बहनों में सबसे अलग मानते थे। वे अक्सर कहते थे कि तुम्हें लड़की नहीं, लड़का होना चाहिए। और इस तरह यूरोप जाना मेरे सपनों तक पहुंचने की सीढ़ी साबित हुआ। जब कोई इंसान अपने मन के मुताबिक चलता है, तो सब उसका विरोध करते हैं, सो मेरा विरोध भी हुआ। लेकिन धीरे-धीरे सब बदल जाता है। यूरोप में पहली बार मैंने उदय शंकर का बैले शिव-पार्वती देखा। वहीं मेरी मुलाकात कामेश्वर सहगल से हुई। प्रेम हुआ और शादी कर ली। मुझे लगता है कि वाकई ऊपरवाला हमारी किस्मत लिखकर भेजता है। जब पंडित जवाहर लाल नेहरु मेरी शादी में आए, तो उन्होंने पूछा कि तुम खुश तो हो ना। यह सुनकर मैं रोमांचित हो उठी थी।
रचनात्मकता पर तकनीक हावी
पिछले सत्तर सालों में मैंने लाहौर से मुंबई और फिर यूरोप से लेकर फिल्म, टीवी और रंगमंच का एक लंबा सफर तय किया। वैसे मैं शुरू में केवल कोरियोग्राफर बनना चाहती थी। मैंने राजकपूर की 'आवाराÓ का ड्रीम्स सीक्वेंस कोरियोग्राफ किया था। तब सब कुछ हमने अपने हाथों से किया था। अब तो रचनात्मकता पर तकनीक हावी हो गई है। शायद इसीलिए ये लोग लोगों के मन के साथ पूरी तरह नहीं जुड़ पाते। बाजी, सीआईडी और आवारा में भूमिकाएं करते-करते तो मैं अभिनय के फील्ड में भी आ गई। विभाजन के बाद मैं बच्चों के साथ मुंबई आ गई और पृथ्वी थिएटर के साथ इप्टा के नाटकों में काम करना शुरू कर दिया। जिंदगी को हम लोग बांध नहीं सकते। साठ के दशक में भारत आई, तो अल्मोड़ा में उदय शंकर के स्कूल में पढ़ाने चली गई। फिर मेरे पति कामेश्वर का निधन हो गया। मैं लंदन लौटकर बच्चों में बिजी हो गई। इस दौरान एक बार्बर शॉप में लोगों के बाल भी काटे थे। फिर मेरी वापसी सही मायने में जेम्स आयवरी के साथ हुई। यह मेरे कॅरियर की दूसरी शुरुआत थी। उस दौरान ज्वेल इन द क्राउन, तंदूरी नाइट्स मेरे लोकप्रिय शो थे।
हंसते-मुस्कराते कट जाएं रस्ते
मेरे लिए भाषा हमेशा एक समस्या रही। अंग्रेजी में कोई दिक्कत नहीं थी, पर हिंदी में काम करने के लिए मुझे संवादों को उर्दू या रोमन में लिखवाना पड़ता था। मैं राजकपूर और चेतन आनंद को कभी भुला नहीं सकती। हां, गोविंदा के साथ फिल्म चलो इश्क लड़ाएं में बड़ा मजा आया। उसमें मुझे हर पांच मिनट में उसे एक जोर का थप्पड़ लगाना था और गोविंदा शॉट के बाद चुपचाप एक तरफ जाकर बैठ जाता था। इस फिल्म में मुझे मोटर साइकिल चलाने का मौका भी मिला। लोग अक्सर पूछते हैं कि आप उम्र का शतक पूरा करने जा रही हैं, ऐसे में जिंदगी को किस नजरिए से देखती हैं, तो मेरा एक ही जवाब रहता है कि जिंदगी तो खुश रहने के लिए ही मिली है। फिर फालतू टेंशन लेकर क्यों इसे बर्बाद किया जाए। उम्र आपके शरीर में नहीं दिमाग में होती है और खुशी दिल में समाई रहती है। इसलिए मैं हमेशा हंसने और मुस्कराने के सामान ढूंढ ही लेती हूं। वैसे मैं एक सख्त नियम वाली इंसान हूं। आज भी मैं अपनी आवाज को बनाए रखने के लिए रियाज करती हूं। अब मैं नाच नहीं पाती, पर अपनी बेटी किरण सहगल के साथ अभिव्यक्ति और प्रभावों के लिए रोज प्रैक्टिस करती हूं।
-प्रस्तुति- आशीष जैन
Mohalla Live
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जाहिलों पर क्या कलम खराब करना!
Posted: 07 Jan 2016 03:37 AM PST
➧ *नदीम एस अख्तर*
मित्रगण कह रहे हैं कि...
8 years ago
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