01 July 2009

मस्ती की रेल पढ़ाई की पटरी पर

बच्चों के छोटे हाथों को चांद-सितारे छूने दो/ चार किताबें पढ़कर ये भी हम जैसे हो जाएंगे.......बचपन की उम्र ही ऐसी होती है, जब दुनिया बड़ी हसीन और रंगीन नजर आती है। और माहौल जब छुट्टियों का हो, तो मस्ती का कोई ओर-छोर नहीं होता। लेकिन जनाब अब खत्म हो चली हैं छुट्टियां और फिर से शुरू हो गए हैं स्कूल। मिट्टी के घरौंदे बनाने वाले नन्हे, नाजुक हाथ अब किताबों का बोझ उठाते नजर आएंगे और जिन मासूम आंखों में अब तक थे फूल, तितली, झूले और चांद-सितारों के सतरंगी सपने, उनमें होगी एक जद्दोजहद.....जिंदगी की दौड़ में आगे, और आगे निकलने की। यहीं उठता है यह अहम सवाल कि बच्चों की कोमल भावनाओं को किताबों और हमारी उम्मीदों के बोझ तले दबाकर कहीं हम कोई गंभीर अपराध तो नहीं कर रहे?

याद रखें कि पढ़ाई जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए है। अगर हम अपने बच्चों को ऐसी बेहतरी नहीं दे पाते, तो यकीनी तौर पर हम एक ऐसा अपराध कर रहे हैं, जिसका असर आने वाले कई सालों तक हमें नजर आएगा। माता-पिता के पास अगर बच्चे के मन में झांकने की फुरसत होगी, तो वे जान पाएंगे कि किताबी दुनिया से ही समझ विकसित नहीं होती। न्यूटन से लेकर एडीसन तक कई बड़े वैज्ञानिक पढ़ाई में कमजोर थे, पर उनकी सोच और चीजों को देखने का नजरिया बिल्कुल जुदा था। क्यों ना हम भी अपने बच्चों को एक ऐसा माहौल दें, जहां वे खुलकर सोच सकें और चीजों को अपने नजरिए से पेश कर सकें। बच्चे तो आज भी सपनीले संसार में रहकर ही सीखना-पढऩा और आगे बढऩा चाहते हैं। उनके सपने बड़े नहीं हैं, सुंदर हैं। वे चाहते हैं कि बैट-बॉल और बस्ते के बीच की दीवार ढहा दी जाए, प्ले ग्राउंड और प्रेयर हॉल को मिला दिया जाए। वे माहौल को समझ सकें, ढल सकें और अपनी पूरी एनर्जी से एक बार फिर पढ़ाई में जुट जाएं।
स्कूल बने दूसरा घर
फिल्म तारे जमीं पर और उसका लीड कैरेक्टर ईशान अवस्थी तो आपको याद होगा। दिनभर शरारत और मस्ती के बाद पढ़ाई का नंबर सबसे आखिर में। फिर जब निकुंभ सर क्लास में आते हैं, तो बच्चों को पढ़ाई में भी मजा आने लगता है। क्या तारे जमीं पर की तरह कोई ऐसा तरीका नहीं हो सकता कि बच्चों को स्कूल में भी मजा आए, स्कूल ही उनके लिए दूसरा घर बन जाए। छुट्टियां होने पर भी वे स्कूल की तरफ भागें। यह सब हो सकता है, बस हम सबको मिलकर थोड़ा सा प्रयास करने की जरूरत है।
नन्हे की बातें सुनें
समाजशास्त्री ज्योति सिडाना का कहना है, 'आजकल बच्चों को छुट्टियां नाममात्र की मिलती हैं और इन छुट्टियों में भी उन पर हॉबी क्लासेज ज्वाइन करने का प्रेशर डाल दिया जाता है। ऐसे में ना तो वे आउटडोर गेम्स का मजा उठा सकते हैं और ना ही दोस्तों के साथ मस्ती कर सकते हैं। छुट्टियों में भी माता-पिता एक पूरे दिन का शैड्यूल उन्हें थमा देते हैं। इससे बच्चे को लगता है कि क्या सिर्फ लगातार पढ़ाई ही उनकी जिंदगी का मकसद रह गया है? हम सबकी जिम्मेदारी है कि बच्चों को एहसास कराएं कि पढ़ाई जिंदगी के लिए है, जिंदगी पढ़ाई के लिए नहीं है।Ó पांंच साल के रोहित के पिता अमन शर्मा रात में उसके साथ बैठते हैं और स्कूल में होने वाली हर एक्टिविटी को बड़े ध्यान से सुनते हैं। इससे बच्चे को लगता है कि उसकी पढ़ाई में मम्मी-पापा की भी रुचि है और उसे कोई परेशानी आएगी, तो वह मम्मी-पापा के साथ आसानी से शेयर कर सकता है।
शर्म की बात होगी
हाल ही मानव विकास संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल ने भी माना है कि बच्चों पर पढ़ाई का बड़ा दबाव है और हमें एजुकेशन सिस्टम में बदलाव की जरूरत है। वे नवीं और दसवीं क्लास की बोर्ड परीक्षाएं खत्म करके ग्रेडिंग सिस्टम शुरू करने के लिए जरूरी कदम उठाने की वकालत कर रहे हैं। शिक्षाविदों और समाजशास्त्रियों के कई अध्ययन इस बात का खुलासा करते हैं कि बच्चे पढ़ाई के तनाव में घुलकर अपना जीवन तबाह कर रहे हैं। इन आंकड़ों पर जरा गौर कीजिए- पिछले तीन सालों के अंदर लगभग 16 हजार बच्चे परीक्षा परिणाम के दिनों में खुदकुशी कर चुके हैं। हालांकि इन सारे बच्चों ने सिर्फ परीक्षा के नतीजों की वजह से जिंदगी को अलविदा नहीं कहा, लेकिन कहीं ना कहीं पढ़ाई का तनाव उनके अवचेतन में जरूर रहा होगा। अगर पढ़ाई के नाम पर इसी तरह हमारे नौनिहाल आत्महत्या के रास्ते पर चलते रहें, तो यह वाकई हमारे लिए शर्म की बात है।
जिंदगी की पाठशाला
माता-पिता को उन्हें बताना चाहिए कि स्कूल कोई हौवा नहीं है, बल्कि जिंदगी की पाठशाला है। यहां सिर्फ किताबों को चाटने से कुछ नहीं होगा। यहीं से बच्चों को सामाजिकता और व्यावहारिकता के वे गुर मिलेंगे, जो ताउम्र उनके काम आएंगे। इस सबके बीच में शिक्षक का भी अहम रोल है। पहले दिन ही कोर्स की बात करने की बजाय उनसे दोस्ती करनी चाहिए। हर बच्चे से उसका शौक पूछना चाहिए। इससे बच्चे के मन को भी शिक्षक आसानी से समझ पाएगा। तभी तो हम अक्सर अपने बच्चों के मुंह से सुनते हैं कि उन्हें फलां मैम बहुत पसंद हैं... क्योंकि वह टीचर भी बालमन के कौतुक को समझकर उनके धैर्य से उनके हर सवाल का जवाब देती है।

मुश्किल नहीं है कोई

आज के बच्चों का दिमाग कंप्यूटराइज्ड हो गया है। वे कॅरियर ओरिएंटेड हैं और जानते हैं कि स्कूल खुलते ही उन्हें पढ़ाई में लगना है। ऐसे में उन्हें कोई दिक्कत नहीं आती। हमारे यहां बच्चे जल्द से जल्द स्कूल आना चाहते हैं। उन्हें टीचर्स से डर नहीं लगता, वे स्कूल में भी घर की तरह ही मस्ती करते हैं।
- राज अग्रवाल, प्रिंसिपल, केंद्रीय विद्यालय नंबर 1, जयपुर
आलेख- आशीष जैन

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