26 August 2009

लोकतंत्र की दीवानी


पिछले बीस सालों से घर में नजरबंद रहने के बावजूद आंग सान सू की ने हार नहीं मानी है, वे म्यांमार में लोकतंत्र की स्थापना के लिए जी-जान से जुटी हुई हैं।
रंगून में 1945 के जून माह में एक सितारा जमीन पर उतरा। ऊपरवाले ने पहले ही उसकी किस्मत में लिख दिया था कि उसे जीवनभर अपने देश के नागरिकों के हक की लड़ाई लडऩी है और लोकतंत्र का अगुआ बनना है। पति कैंसर की बीमारी से जूझते हुए गुजर गए, पर वे अपने संघर्ष की धार को कम नहीं करना चाहती थीं, इसलिए अपने पति को संभालने भी नहीं गईं। पिछले साल म्यांमार में आए नरगिस तूफान से सू की का घर तबाह हो गया। अब उनके अस्थायी घर में रोशनी नहीं रहती और वे रात को अपना ज्यादातर समय मोमबत्तियों के बीच गुजारती हैं। उन्होंने छोटी-सी उम्र से ही तय कर लिया था कि वे म्यांमार में लोकतंत्र की एक ऐसी लड़ाई लडऩे जा रही हैं, जिसमें घर-परिवार सब कुछ छूट सकता है। उन्होंने इसे चुनौती की तरह लिया और जुटी हुई हैं अपने मिशन पर।

छोटे कदम बड़ा संघर्ष
बचपन में ही उनके सिर से पिता का साया उठ गया। पिता की हत्या कर दी गई। कई मुश्किलों के बीच उनकी मां खिन की ने रंगून में सू की और उसके दो भाइयों आंग सांग लिन और आंग सांग ओ का लालन-पालन किया। थोड़ी बड़ी हुई थीं कि आठ साल की छोटी उम्र में उन्हें अपने प्यारे भाई आंग सांग लिन की मौत का सदमा झेलना पड़ा। बड़ा भाई भी आंग सांग ओ भी उन्हें छोड़कर कैलिफोर्निया में जा बसा। लंदन से पढ़ाई करके लौटने के बाद 1988 में सू की वापस बर्मा लौटीं और लोकतंत्र के लिए संघर्ष करने लगीं। नब्बे के दशक में हुए चुनावों में सू की की पार्टी ने बड़ी जीत दर्ज की, सारी दुनिया को लगा कि सू की का संघर्ष अपनी मंजिल पा गया है। पर उनके समर्थकों को शायद यह पता नहीं था कि असली लड़ाई शुरू ही तब हुई थी। इस जीत के बाद तय था कि अब म्यांमार की प्रधानमंत्री की कुर्सी पर आंग सांग सू की बैठेंगी। पर सैन्य शासकों ने सत्ता छोडऩे से इंकार कर दिया था और सू की को घर में ही नजरबंद कर दिया था। सू की घबराईं नहीं और पूरी दुनिया को संदेश देती रहीं कि वे अपनी आखिरी सांस तक हार नहीं मानेंगी।
पति से मिलीं सिर्फ पांच बार
1995 का क्रिसमस वे शायद ही भुला पाएं, इसी दिन उनकी और पति मिशेल की आखिरी मुलाकात हुई थी। इसके बाद वे कभी नहीं मिले। परेशानियों ने फिर भी सू की का पीछा नहीं छोड़ा। कुछ समय बाद मिशेल को प्रोस्टेट कैंसर हो गया, तब भी बर्मा के तानाशाहों ने उन्हें सू की से मिलने के लिए वीजा जारी नहीं किया। उस समय सू की अस्थायी तौर पर नजरबंदी से मुक्त थीं, वे अपने पति से मिलने लंदन जा सकती थीं, पर उन्होंने सोचा कि अगर वे एक बार देश से बाहर निकल गईं, तो सैन्य शासक उन्हें वापस देश में घुसने की इजाजत कभी नहीं देंगे। 1999 आते-आते उनके पति मिशेल की मौत हो गई। दुखद बात यह रही कि उनका निधन अपने 53वें जन्मदिन पर हुआ। खास बात यह भी है कि 1989 में पहली बार घर में नजरबंदी के बाद 1995 को क्रिसमस की आखिरी मुलाकात तक, वे अपने पति से सिर्फ पांच बार मिल पाईं। उनके दोनों बच्चे भी उनसे दूर ब्रिटेन में रहते हैं।
संघर्ष लहू बनकर दौड़ता है
नाम भी दिलचस्प है आंग सांग सू की का। उनके नाम में 'आंग सान' शब्द उनके पिता, 'सू' उनकी दादी और 'की' उनकी मां के नाम से लिया हुआ है। 64 साल की आंग सांग सू की के पिता ने 'मॉर्डन बर्मा आर्मी' की स्थापना की और 1947 में यूनाइटेड किंगडम से बर्मा को आजादी दिलाने में अपना योगदान दिया, तो मां भी बर्मा की राजनीति में जाना-माना चेहरा रहीं। जी हां, इसी वजह से आंग सांग सू की की रगों में ही संघर्ष लहू बनकर दौड़ता है। 1960 में उनकी मां भारत और नेपाल में बर्मा की राजदूत नियुक्त की गईं। उस दौरान आंग सांग सू की भी भारत में रहीं और उन्होंने नई दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज से 1964 में राजनीति विज्ञान में एक डिग्री के साथ अपना ग्रेजुएशन पूरा किया। इसके बाद भी पढ़ाई का सिलसिला चलता रहा और 1969 में सू की ने ऑक्सफोर्ड से दर्शनशास्त्र, राजनीति और अर्थशास्त्र में बीए और 1985 में लंदन यूनिवर्सिटी से पीएचडी पूरी कर ली। लंदन में रहने के दौरान उनकी मुलाकात डॉ. मिशेल एरिस से हुई और फिर शादी। सू की के दो बेटे हैं- एलेक्जेंडर एरिस और किम। सू की को उनके प्रयासों के लिए कई पुरस्कार मिल चुके हैं। 1991 में उन्हें शांति का नोबल पुरस्कार प्रदान किया गया। 1992 में भारत सरकार ने उनके शांतिपूर्ण संघर्ष के लिए 'जवाहर लाल नेहरू शांति पुरस्कार' दिया।
तानाशाही को पसंद नहीं रिहाई
म्यांमार में पिछले 47 सालों से फौजी हुकूमत है। महात्मा गांधी को अपना आदर्श मानने वाली सू की भी उनकी तरह अहिंसा के रास्ते पर चलकर अपने देश को सैन्य शासन से मुक्ति दिलाना चाहती हैं। बगैर सरकार की इजाजत के किसी को उनसे मिलने की इजाजत नहीं दी जाती। उनकी टेलीफोन लाइन को भी काट दिया गया है। इस साल मई में सू की की नजरबंदी का समय पूरा हो गया था। पर सैन्य सरकार ने सू की पर आरोप लगा दिए कि उन्होंने नजरबंदी के कानून का उल्लंघन किया है। कानून के मुताबिक उनके साथ रहने वाली दो महिलाओं के अलावा कोई तीसरा व्यक्ति उन तक नहीं पहुंच सकता। दरअसल हाल ही एक अमरीकी व्यक्ति ने किसी तरह सू की के घर पर पहुंचने की कोशिश की थी। अब तानाशाह ने इसी बात को मुद्दा बनाकर सू की की नजरबंदी 18 महीने और बढ़ा दी है, ताकि अगले साल होने वाले चुनावों में उनका और उनकी पार्टी 'नेशनल डेमोक्रेसी लीग' का कोई दखल न रह जाए।
-आशीष जैन

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2 comments:

  1. प्रेरक प्रसंग!

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  2. उपरोक्त टिप्पणी सू के व्यक्तित्व को लेकर है!

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