02 September 2009

आज की ताजा खबर- खबर लहरिया


महिलाओं के प्रयासों से निकलने वाले बुंदेली भाषा के अखबार 'खबर लहरिया' को अंतरराष्ट्रीय साक्षरता दिवस पर मिलेगा यूनेस्को की ओर से साक्षरता पुरस्कार।
दलित, आदिवासी महिलाएं पढ़-लिख रही हैं और अब नई खबर है कि वे अखबार भी निकाल रही हैं। सही बात है, ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में नवसाक्षरों और कम पढ़े-लिखे लोगों को उनकी बोली में ही सरल शब्दों वाला अखबार मुहैया हो, तो वे भी आसानी से अक्षरों से दोस्ती करने लगते हैं। अपने अंचल की बातें, अपनी ही जुबानी लिखी हों, तो जुड़ाव महसूस होता है। बुंदेली भाषा में छपने वाले अखबार 'खबर लहरिया' की प्रसिद्धि इसी बात का सबूत है।

सबसे सुखद बात है कि उनकी इस सार्थक पहल को यूनेस्को ने तवज्जो दी है और अंतरराष्ट्रीय साक्षरता दिवस, 8 सितबंर को साक्षरता पुरस्कार दिया जा रहा है। खबर लहरिया सहित चार पाक्षिक समाचार पत्रों को आठ सितंबर को पेरिस में साल 2009 के 'किंग सिजोंग साक्षरता पुरस्कार' से सम्मानित किया जाएगा, जिसमें प्रत्येक पुरस्कार विजेता को बीस हजार डॉलर की राशि दी जाती है।
प्रवाह समाचारों का
उत्तरप्रदेश के चित्रकूट और बांदा जिले से निकलने वाला साप्ताहिक अखबार 'खबर लहरिया'वाकई महिला सशक्तीकरण की मिसाल है। महिलाएं रिपोर्टिंग करती हैं, दूर-दराज के इलाकों से खबरों को इकट्ठा करती हैं, संपादन करती हैं और अखबार छपने पर बांटने का काम भी करती हैं। अखबार की एडिटर इन चीफ मीरा पांच बच्चों की मां हैं और अपना घरेलू काम पूरा करने के बाद कार्यालय पहुंचती हैं। साथ काम करने वाली अधिकांश महिलाएं विवाहित होने के बावजूद घर और बाहर के कामों को बखूबी निभाती हैं। अखबार से जुड़ी महिलाओं का आठवीं पास होना जरूरी है, पर नवसाक्षर पिछड़ी महिलाएं भी इससे जुड़ सकती हैं। क्षेत्र के बड़े अखबार भी खबर लहरिया में छपी खबरों के आधार पर खबरें निकालने लगे हैं। मीरा का कहना है, 'गांव-गांव जाकर लोगों की समस्या सुनने-समझने से काफी जानकारी मिलती है। शुरू में गरीब और नवसाक्षर महिलाओं को इस तरह का काम करता देखकर परिवार और समाज ने काफी विरोध किया था, पर धीरे-धीरे वे भी समझ गए। हमारा जोर इस बात पर रहता है कि खबरें नवसाक्षरों को ध्यान में रखकर लिखी जाएं।'
मासिक से बना साप्ताहिक
यह अखबार चित्रकूट जिले से आठ साल और बांदा जिले से तीन सालों से निकल रहा है। दोनों जिलों के लगभग 400 गांवों में इसे पढ़ा जाता है। इसे दिल्ली और उत्तरप्रदेश की महिला शिक्षा से जुड़ी स्वयंसेवी संस्था 'निरंतर' के सहयोग से 2002 से निकाला जा रहा है। एक मासिक पत्र के रूप में मात्र तीन महिलाओं के प्रयासों से शुरू हुआ यह अखबार पाक्षिक से होते हुए अब साप्ताहिक बन चुका है। खबर लहरिया यानी- समाचारों का अनवरत प्रवाह। अभी इसकी प्रसार संख्या 4500 है। लगभग बीस हजार पाठक संख्या वाले अखबार की कीमत दो रुपए है। अब इस अखबार को बिहार के तीन जिलों से भी शुरू करने की योजना बनाई जा रही है। अभी 15 महिलाएं मिलकर इसे संभाल रही हैं। इसमें राजनीति, अपराध, सामाजिक मुद्दों और मनोरंजन से जुड़ी खबरें प्रकाशित की जाती हैं। प्रतिष्ठित चमेली देवी पुरस्कार भी इस अखबार को मिल चुका है।
मामले की पूरी पड़ताल
संघर्ष के दिनों को याद करते हुए मीरा देवी कहती हैं, 'शुरू में साथी संवाददाताओं को कोई भी सूचना हासिल करने में बड़ी समस्या आती थी। लोग हमें गंभीरता से नहीं लेते थे। सरकारी विभागों के लोग हमें परेशान करते थे। पर हमने हार नहीं मानी और लोगों की समस्याओं को बेबाकी से छापा। मेरे साथ मिथिलेश, दुर्गा, सोनिया, शकीला, मीरा, कविता, शांति और मंजु भी हैं।' आठ पेजों के इस अखबार ने स्थानीय स्तर पर कई समस्याओं को भी सुलझाया है। उदाहरण के तौर पर हन्ना गांव में सड़क का प्रोजेक्ट सिर्फ सरकारी कागजों में पूरा हुआ था। जब संवाददाता मिथिलेश ने पूरे मामले की पड़ताल करके मामले को अखबार में छापा, तो जिला मजिस्ट्रेट ने जांच करवाई। अब हन्ना गांव में सड़क बन चुकी है। खबर लहरिया में छपी खबरों पर ग्रामीण लोगों को काफी भरोसा है। मीरा बताती हैं कि मुख्यमंत्री योजना में गरीब राशनकार्डधारियों को सरकारी अस्पताल में मुफ्त इलाज की हमने अखबार में छापी थी। जब ग्रामीण लोगों से डॉक्टरों ने कहा कि ऐसी कोई योजना नहीं है। हम इलाज नहीं कर सकते, तो ग्रामीणों ने जवाब दिया, 'ऐसा नहीं हो सकता, हमने खबर पढ़ी है, खबर लहरिया में।'
बेबाक शैली में गंभीर बात
अखबार से जुड़ी महिलाएं सूचनाएं इकट्ठा करती हैं। फिर महीने में दो बार होने वाली मीटिंग के दौरान खबरों पर चर्चा की जाती है और खबरों के लिए पृष्ठ निर्धारित किए जाते हैं। हर पेज का एक तय नाम है, जैसे- देश-दुनिया, विकास, महिला मुद्दा, पंचायत, क्षेत्रीय खबरें, इधर-उधर। अखबार को चलाने वाली महिलाओं के पास पत्रकारिता की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं हैं, पर निरंतर ने समय-समय पर इससे संबधित जानकारी के लिए कार्यशालाएं आयोजित की हैं। संपादकीय टिप्पणी में भी अखबार की ओर से बेबाक शैली का इस्तेमाल किया जाता है। जैसे-'आ गा सूचना का अधिकार अब मड़ई सरकारी आफिस, सरकारी अस्पताल, ब्लॉक, पंचायत, पुलिस चौकी अउर दूसर सरकारी विभागन से सूचना लइ सकत हवैं। अब सरकारी अधिकारी सूचना दे मा आनाकानी न करिहैं। काहे से सूचना न दे मा उनका जुर्माना दे का पड़ी।'
-आशीष जैन

इससे जुड़ीं अन्य प्रविष्ठियां भी पढ़ें


No comments:

Post a Comment