12 June 2009

परिसाईजी का पुनर्जन्म

मेरा मुल्क बड़ा महान है और उसमें भी मेरा शहर जयपुर शहरों में जानदार शहर है। आप हमें अपने मुंह मियां मिट्ठू मत समझना, पर अब बात चली है, तो बता ही दें कि हमारा मोहल्ला और उसमें भी हमारी गली का तो कहना ही क्या। एक से एक फनकार बसे हैं, हमारी पतली-सी गली में। यूं ही मत समझना इस गली को। इस गली में तो एक बार चचा गालिब भी आए थे। आप कहेंगे, गालिब और जयपुर! मैं मजाक नहीं कर रहा जनाब। हुआ यूं कि एक बार चचा के पायजामे का नाड़ा एक चोर चुराकर भाग लिया और भागते-भागते हमारी गली में छुप गया। चचा भी उसे खोजते-खोजते यहीं तक आ पहुंचे थे। कुछ-कुछ ऐसे ही वाकये हरिशंकर परसाई, हरिवंशराय बच्चन और रामधारी सिंह दिनकर के साथ हुए थे। अरे! ये हम नहीं कहते, हमारी गली के बड़े-बुजुर्ग कहते हैं।

तो जब शुरू से इतने बड़े-बड़े लेखक हमारी गली में आ चुके थे, तो उनके गुण भी हमारी गली में आने ही थे। कसम से एक से बढ़कर एक लेखक पैदा होते गए। वो तो जमाने की नजर ही नहीं पड़ी, वरना एक से एक नायाब हीरे थे हमारे यहां, हीरे भी क्या थे, कोहिनूर थे, कोहिनूर। अब हम उसी परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। लेखक बन गए हैं। लेखक भी ऐसे-वैसे नहीं, व्यंग्य लिखते हैं। क्या करें, जब भी किसी से दिल की बात बयान करने जाते हैं, पिट कर आते हैं। ये दुनिया के लोग कभी अपनी बुराई सुन ही नहीं सकते, तो हमने तो ठान ही लिया कि व्यंग्य लिखेंगे। इस बहाने दिल की भड़ास निकालते रहेंगे। आज इतनी प्रॉब्लम हैं। आपको तो पता ही है, नल में पानी गायब है, घर में बिजली नदारद है और महंगाई सिर पर बैले डांस करती है, तो ये सारी बातें भी तो किसी से कहनी ही पड़ेंगी ना। अब अपनी बीवी से कहें, तो कहती है कि जब भी बोलते हो, बुरा ही बोलते हो। दोस्त लोगों को अपनी जिंदगानी से ही टाइम नहीं बचता, तो लगा कि क्यों ना कलम-कागज लेकर बैठ जाएं और दिल का दर्द कागज पर उतारते रहें। बेरोजगारी में इससे बढिय़ा टाइम पास और क्या हो सकता है। अब कैरेक्टर खोजने के लिए कहीं जाना भी तो नहीं पड़ता। घर में बीवी, बाहर पड़ोसी, देश में मंत्री, विदेश में अमरीका। कुछ भी उठा लो और लग जाओ कलम घिसने में। कसम से बड़ा मजा आता है, अंदर की बात बाहर लाने में। ये सब यूं ही चलता रहता, पर एक दिन तो गजब होना ही था। हम व्यंग्य लिखते हैं, ये बात हमारी बीवी से पड़ोस की सहेली से कह दी। उसने अपने पति से बोला और पति ने गली में सबसे। सब अगले ही दिन घर के बाहर हुजूम लगाकर इकट्ठा हो गए। एक बाबा टाइप का आदमी लकड़ी टेकता हुआ आया और बोला, 'बेटा, हमने सुना है कि तुम व्यंग्य लिखते हो। कहां हैं तुम्हारे व्यंग्य। मैं पढऩा चाहता हूं।Ó मैंने उनसे पूछा कि मैं तो सीधा सा आदमी हूं, ये सब अफवाह है। वो बोला कि मुझे तुम्हारी शक्ल और अक्ल परसाईजी जैसी लगती है। परसाईजी सालों पहले जब अपनी गली में आए थे, तो इस गली को देखकर उन्होंने कहा था कि काश! मेरा अगला जन्म इसी गली में हो। और देखो उनकी बात सच हो गई। हो ना हो, तुम परसाईजी के पुनर्जन्म रूप हो। अब तो मैं घबरा चुका था। मैंने उनके पैर पकड़ लिए और गिड़गिड़कर बोला कि आप मुझे चैन से जी लेने दें। क्यों पूरे शहर में मुझे बातचीत मुद्दा बनाना चाहते हो। वो बोला कि बेटा बताओ, तो सही कि तुम लिखते कैसा हो। मैं किसी से कुछ नहीं कहूंगा। मैं मन ही मन सोच रहा था कि मैं लिखता तो इन गली वालों के ऊपर ही हूं। मेरे व्यंग्य में सारे पड़ोसियों को कोसने के सिवा और होता ही क्या है। मैंने तय कर लिया कि किसी भी कीमत पर अपनी पोल नहीं खुलने दूंगा। पर वो तो अपनी बात पर अड़ा ही रहा। उसके साथ-साथ पूरी भीड़ भी मेरे जयकारे लगाने लगी और कहने लगी कि हमें भी लगता है कि परसाईजी ने आपके रूप में दुबारा जन्म लिया है। हम सब आपके व्यंग्य पढऩा चाहते हैं। मैंने डरते-डरते अपने लिखे सारे व्यंग्य उनके सामने कर दिए और खुद घर में जाकर दुबक गया। पर वो टस से मस नहीं हुए और अंदर घुसकर मुझे घेर लिया। एक व्यंग्य में पड़ोसी पपीताराम और उसकी पत्नी इमलीबाई के खट्टे रिश्तों पर मजाक था, तो एक व्यंग्य इमरती लाल के बेटे लड्डू सिंह और कचौरीकुमार की बेटी जलेबी कुमारी के प्यार के किस्से। मुझे लग रहा था कि पपीताराम, इमरती लाल और कचौरीकुमार ये सब पढ़कर मेरा कचूमर निकाल देंगे। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। उन्होंने तो मुझे लगे लगा लिया और कहा कि तुम्हारे हमारे घर-परिवार, बाल-बच्चों की सच्चाई को जिस निर्भकता और कटाक्ष के साथ कागज पर लिखा है, उससे हम बहुत खुश हैं। सबने शहर में फोन घुमाना शुरू कर दिया। पूरे शहर ने मुझे परसाईजी का पुनर्जन्म समझकर मुझ पर फूल मालाएं लादना शुरू कर दिया। सारे अखबारों के एडिटर मेरे चरण कमलों में विराजने लगे। मेरी हर बात में वे व्यंग्य खोजने लगे और वो दिन था और आज का दिन। ससुरों ने व्यंग्य लिखवा-लिखवाकर मेरी उंगलियों का कचूमर निकाल दिया है। अब मैं दिन-रात उनके लिए व्यंग्य लिखने की कोशिश करता रहता हूं और वे मुझे परसाईजी समझकर छापते रहते हैं। धन्य हो परसाईजी और उनके व्यंग्य।
-आशीष जैन

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