04 September 2008

हर रिश्ते को संजोया है मैंने



अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर हमने एक मध्यवर्गीय महिला की डायरी के कुछ पन्ने पलटे। डायरी के इन पन्नों से उसकी पूरी जिंदगी हमसे बात कर रही थी। एक पन्ने पर निगाह पड़ी, तो पता लगा कैसे गुजरते हैं एकढ महिला के रोज के 24 घंटे। आइए जानते हैं-
दिनांक 22-08-2008 समय 11.30 P.M.
रात की खामोशी पसरी हुई है। मैं अपने कमरे में अकेली बैठी हूं। दिन भर की भागदौड़ के बाद खुद को अकेली महसूस कर रही हूं। ना जाने क्यों मुझे लगता है कि जिंदगी हर रोज एक बंधे-बंधाए रास्ते पर दौड़ती जा रही है। पर मैं यह क्यों भूल रही हूं कि इसी के सहारे मेरा परिवार, मेरे रिश्ते हर रोज एक नई जिंदगी पाते हैं। मेरी खुशियां, मेरे सपने, मेरी आस्था, विश्वास, उमंग सब इसी घर, इन्हीं रिश्तों के चौतरफा तो सिमटे हुए हैं। मेरा विश्वास, मेरी ताकत और मेरे अरमानों से ही तो मेरा घर महका करता है।
हर रोज की तरह आज भी सुबह 5.30 पर बिस्तर छोड़ दिया था मैंने। मुन्ना और 'वो` तो सात बजे तक उठेंगे, तब तक क्यों ना, कपड़े ही धोलूं`, यही सोचकर फटाफट कपड़े भिगो दिए। पानी में जब अपनी सूरत देखी, तो खुद से सवाल किया, 'अरे रूपा! तू कितनी बदल गई है?` अपने परिवार के सुख-दुख में खुद को ही भुला दिया।` मैं सोच ही रही थी कि इतने में पड़ोस की रीना ने आवाज दी, 'रूपा! नल आ गए हैं, पानी भर ले। जल्दी कर, वरना नल चले जाएंगे।` पानी के बर्तन लेकर बाहर तक पहुंची, तो याद आया कि मुन्ना स्कूल जाएगा, उसके लिए हलवाई से दूध भी लाना है। पानी घर तक पहुंचाकर फटाफट हलवाई की दुकान तक गई। आधा किलो दूध लिया और घर पहुंचकर भगोनी में गर्म होने के लिए चढ़ा दिया।
इस बीच मुन्ना को जगाया। वो उठने में आनाकानी कर रहा था, मैंने उसे प्यार से समझाया, तो वो मान गया। मैं भी तो अम्मा और बाऊजी को कितना परेशान करती थी। मैंने मुन्ना को नहलाया-धुलाया और दूध पिलाकर चौराहे तक स्कूल-बस तक छोड़ने गई। पति महोदय अभी तक नहीं उठे। साढ़े सात बज गए थे। उन्हें जगाकर मैं खुद नहाने के लिए चल दी। नहाते ही मुझे पूरे घर के लिए नाश्ता तैयार करना था। पिछली शाम को देवरजी कह रहे थे किढ छोले-भटूरे खाऊंगा। इसीलिए रात को ही छोले भिगो दिए थे। अच्छा हुआ, वरना नाराज होते। जेठजी को भी तो छोले की सब्जी अच्छी लगती है। जब तक भाभीजी जीवित थी, वही ख्याल रखती थी। अब तो मुझे ही उनका देखभाल करनी होगी।
मम्मीजी गठिया की मरीज हैं। डॉक्टर ने उनके खान-पान का खास ख्याल करने को कहा था, इसलिए उन्हें खिचड़ी भी बनानी थी। नाश्ता तैयार कर ही रही थी कि पापाजी के कुछ मित्र आ गए। मैंने सोचा आए हैं, तो चाय तो पीकर ही जाएंगे। इसलिए दूसरी गैस पर चाय के लिए पानी चढ़ा दिया। इस सबके बीच मैं भूल गई थी कि पड़ोस में राधा भाभी की लड़की की सगाई है। उसमें भी शामिल होना है। मैंने घड़ी की तरफ देखा। आठ बजने वाले थे। ऐसा लगा कि घड़ी की सुइयों और मेरा कोई मुकाबला चल रहा है। नाश्ते की टेबल पर सभी इकट्ठे हो चुके थे। सबको अपने-अपने काम करने थे नाश्ते के बाद। पर मेरे लिए तो उनके कामों में ही खुशी छुपी हुई थी।
नाश्ते का दौर चला, तो एक घंटे तक रसोई संभालनी ही पड़ी। आज शायद सब्जी में मिर्ची ज्यादा थी, इसीलिए ननद उमा खाना बीच में छोड़ कॉलेज के लिए चल दी। मुझे बुरा तो बहुत लगा, पर हो सकता है, मुझसे ही कोई गलती हो गई शायद। जल्दबाजी में मिर्च जरूरत से ज्यादा डल ही गई। सवा नौ बजे तक किचन का काम निपटाया और कमरे में जाकर पति के ऑफिस की ड्रेस पर प्रेस करने लगी। सवा नौ बजे तक उनका टिफिन भी लगाया। मुझे अक्सर दुख होता है कि पति घर का खाना ले जाने की बजाय ऑफिस में ही खाना खाते हैं। इसीलिए उनका पेट खराब रहता है। मेरी तो सुनते ही नहीं। क्या करूं, आखिर पति परमेश्वर जो ठहरे। अच्छे-बुरे की समझ तो है ही। पर मैं क्या करूं ? मुझे तो टेंशन हो जाती है। पति को स्कूटर की चाबी, रूमाल और उनका पर्स लाकर दिया। वे ऑफिस के लिए निकलने वाले हैं। घड़ी पौने दस बजा रही थी।
पति को दरवाजे तक छोड़ने के बाद सोचती हूं, अब झाडू-पौंछे का काम निपटा लूं। इस काम में रोज एक घंटा लग जाता है। घर को साफ रखने की जिम्मेदारी भी तो आखिर गृहिणी की ही होती है। पवित्र घर में ही लक्ष्मी और सरस्वती का वास होता है। मैं घर के दरवाजे पर जाती हूं, तो देखती हूं कि कुछ महिलाएं राधा भाभी के घर जा रही थीं। मैं भी फटाफट तैयार हुई। सवा ग्यारह बजे तक राधा भाभी के घर पहुंची। सगाई का कार्यक्रम खत्म हो रहा था। चलो, मैं कार्यक्रम में शामिल तो हो गई। एक घंटे देर पहुंचूंगी, तो ऐसा ही होगा। मैं सोच रही थी कि सामाजिक सरोकार भी तो महिलाओं को ही निभाने पड़ते हैं।
वहां मुझे अपने दूर के रिश्ते की एक बुआजी मिली। उन्होंने पूछा, 'अरे! रूपा दो साल पहले तेरी शादी हुई थी। दो साल में ही इतना बदल गई है। पहले तू कितना बोलती थी, हंसती थी। आज तो बिल्कुल धीर-गंभीर हो गई है और तुझे ये जल्दबाजी किस बात की है?` बुआजी की बात का मैं कुछ जवाब नहीं दे पाई।
मैं घर आकर सोचने लगी कि क्या वाकई मैं बदल गई हूं? क्या मैं जिंदगी का मतलब भूल गई हूं? दूसरे ही पल सोचा, 'अरे नहीं। मैं तो और अधिक निखर गई हूं, संवर गई हूं। मेरे पति, सास, देवर, जेठ, ननद सभी तो मेरी तारीफ करते हैं। ये सब रिश्ते ही तो मेरी असल ताकत हैं। मुझे औरों से क्या, मेरे अपनों के लिए तो मैं खुशी की वजह हूं। सोचते-सोचते निगाह घड़ी की तरफ गई। मैंने देखा, 'अरे सवा बारह बज रहे हैं। दो बजे तक मुन्ना स्कूल से आएगा। उसके लिए कुछ फल वगैरह बाजार से ले आती हूं। सब्जी भी तो खत्म होने गई है। इसी बहाने राशन भी ले आऊंगी।` मैंने अपना पर्स खोला। उसमें 200 रुपए ही थे। मैंने सोचा, 'मैंने सुबह ही पति से पैसे क्यों नहीं मांगे?` काम के चक्कर में सब भूल जाती हूं। चलो इतने पैसों से ही काम चलाऊंगी। घर से निकलकर रिक्शा पकड़ा और बाजार पहुंची। दाल, चीनी, बेसन तो खरीद लिया। अब क्या रहा? हां! हल्दी भी ले चलती हूं। पिताजी को रोज दूध में दो चम्मच मिलाकर देती हूं। जल्दी ही खत्म हो जाएगी, अच्छा है याद आ गया।
मैं सोच रही थी, 'महिला को कब आर्थिक स्वतंत्रता मिलेगी। इतने खर्चों के बीच इतने से पैसे, कैसे गुजर होगा?` काश मैं भी छोटा-मोटा काम करती और पैसे कमा पाती? सोचते-सोचते मैं सब्जी मण्डी पहुंची। वहां से कुछ फल खरीदकर घर कढी तरफ चल दी। रास्ते में एक मेडिकल की दुकान दिखाई दी। उसे देखकर मुझे मम्मीजी की गठिया की दवा की याद आ गई। बचे पैसों से दवा खरीद ली। सब्जी के थैले से कमर में दर्द हो रहा था। मैंने सोचा घर जाकर कमर दर्द का बाम लगा लूंगी।
इतने में मुझे चेत हुआ, 'दो बज गए हैं, मुन्ना घर आ गया होगा। मुझे याद कर रहा होगा।` मैं तेज कदमों से घर पहुंची। मुन्ना भूख से रो रहा था। मैंने उसके कपड़े बदले। उसके लिए गर्म खाना बनाया और खाना खिलाकर सुला दिया। मैंने सोचा, 'साढ़े तीन बजे तक साड़ी में फॉल लगा लेती हूं, फिर सबके लिए दोपहर की चाय बना दूंगी।` नई फॉल निकालकर मैं साड़ी में फॉल लगाने लगी।
इतने में याद आया कि पति से कह दूं कि ऑफिस से लौटते वक्त वो प्लंबर को अपने साथ ले आएं। नल बहुत दिनों से टपक रहा था। मैंने पति को फोन करके प्लंबर साथ लाने की बात बता दी। मैं सोच रही थी कि हर काम मुझे ही याद रखना होता है। चाय बनाते-बनाते गैस की लौ कम होने लगी थी। मुझे लगा सिलेण्डर अभी बुक करा देना चाहिए। गैस की भी तो कितनी किल्लत चल रही है। मैंने तुरंत गैस एजेंसी को फोन किया और गैस बुक करवाई। इसके बाद मम्मीजी और पापाजी को चाय पिलाई और मुन्ना को जगाकर कुढछ फल खाने को दे दिया। 5 बजे मैंने मुन्ना से कहा, 'अपना होमवर्क निकोलो, मैं करवा देती हूं। मुन्ना ने कहा, 'मैं खेलने जाऊंगा। मैंने कहा, 'नहीं, पहले अपना होमवर्क करो, फिर खेलने जाना।` मैं मुन्ना को होमवर्क कराने लगी। उसका होमवर्क कराते-कराते मैं अपने बचपन में खो गई। बचपन में रंगों भरी दुनिया कितनी प्यारी होती है। कोई चिंता नहीं। सब तरफ मस्ती... बस। मैंने खिड़की से बाहर झांका... सूरज अस्ताचल को जा रहा था। मैंने पूजा की थाली तैयार की और पास के मंदिर में पूजा के लिए पहुंच गई। पड़ोस की उमा, माधुरी, वर्षा और रमा आंटी भी थी। उनसे घर-गृहस्थी को बात कर ही रही थी कि याद आया पतिदेव घर आ चुके होंगे। वे प्लंबर को भी साथ लाने वाले थे।
मैं तुरंत घर पहुंची। पति आ चुके थे। वे प्लंबर को अपने साथ ले आए थे। उन्होंने कहा, 'कहां चली गई थी तुम? मुझे नहीं पता कि कौनसा नल टपक रहा है?` मैं ऊपर की मंजिल पर प्लंबर को ले गई और प्लंबर से नल सुधरवाया। प्लंबर को विदा करने के बाद पति के लिए चाय बनाई। पति का मूड आज शायद कुछ उखड़ा हुआ था। मैंने उनसे पूछा तो वे टाल गए। शायद ऑफिस में बॉस से किसी बात पर खटपट हो गई हो। इस सबके बीच मेरी कमर का दर्द बढ़ता जा रहा था। बाम लगाने की फुर्सत ही नहीं मिल पाई।
साढ़े आठ बजते ही सब लोग टीवी देखने बैठ गए। मैं किचन में ही थी। रात के खाने का इंतजाम करने लगी। मैं सोच रही थी कि मेरा संसार कितना... छोटा होते हुए भी वाकई बहुत विशाल है। इतने में मेरी ननद आई और कहने लगी, भाभी! जल्दी से फर्स्ट एड बॉक्स लाओ। स्कूटी चलाते हुए मैं गिर पड़ी और मेरी अंगुली कट गई है। खून निकल रहा है।` मैं दौड़कर कमरे में पहुंची और फर्स्ट एड बॉक्स से पट्टी निकालकर लाई। मैंने ननद की अंगुली पर पट्टी बांधी। मैंने कहा, संभलकर गाड़ी चलाया करो, अगर ज्यादा चोट लग जाती तो। वो रोने लगी। मैंने उसे चुप कराया। मै सोचने लगी, 'मैंने उसे यूं ही डांटा। मैं सोच रही थी नारी आज समाज में अपनी जगह बना रही है, नित नई ऊंचाईयों को छू रही है। अगर छोटी-छोटी मुश्किलें आती हैं तो उन्हें संभालने में वह खुद सक्षम है।
सवा नौ बजे मैं दुबारा किचन में गई और खाना बनाने लगी। खाने की मेज से आवाज आने लगी 'अरे रूपा! भूख लग रही है, जल्दी खाना लाओ।` मैं तुरंत खाना तैयार करने में जुट गई। सबने खाना खाया और खाने की खूब तारीफ की। मैं बहुत खुश हुई। इसके बाद मैं कमरे में गई और सोने के लिए बिस्तर लगा आई। पतिदेव और मुन्ना आराम करने लगे। मुझे लगा, 'चलो आज का सब काम निपट गया।` इतने में मुझे ध्यान आया, 'बर्तन साफ करना तो मैं भूल ही गई।` मैं वापिस किचन में गई और बर्तन साफ करने लगी।
सब काम निपटाकर मैं कमरे में आई। पतिदेव और मुन्ना सो चुके थे। लाइट अभी जल रही थी। मुझे खुशी थी कि परिवार के लिए एक दिन और गुजारा। खट्टे-मीठे पलों को जिया। पूरे परिवार को खुशियां बांटी। जिंदगी के सब ख्वाब पूरे लग रहे थे। मैंने डायरी निकाली और लिखना शुरू कर दिया। सब काम पूरे हो चुके थे... बस एक चीज अधूरी थी.... मेरा कमर दर्द।

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