19 September 2008

कितने रीयल रियलिटी शो

टेलीविजन का एक रियलिटी शो..... डिजाइनर परिधान में लकदक, स्टाइलिश ढंग से नाचते-गाते, अपने हुनर को पेश करते बच्चे। लगता है वाकई क्या खूब हैं ये नौनिहाल। पर चकाचौंध में डूबे इस बचपन की असलियत कुछ और ही है। बच्चों की मासूमियत और भोलेपन के पीछे कौन-सा दर्द छुपा है, आइए, जानने की कोशिश करते हैं।

पहला वाकया- एक बांग्ला टीवी चैनल के रियलिटी शो के दौरान जजों ने 16 साल की शिंजिनी सेनगुप्ता की इतनी आलोचना की कि वह सदमे से लकवे का शिकार हो गई।

दूसरा वाकया- झारखंड के 12 साल के दीपक तिर्की ने दर्द की गोलियां खा-खाकर अपनी प्रस्तुति दी।

तीसरा वाकया- सारेगामापा लिटिल चैंप्स की विजेता 12 वर्षीय अनामिका चौधरी की तबियत कार्यक्रम के दौरान बिगड़ गई। क्योंकि उसके साथ कार्यक्रम में भाग ले रही दूसरी लड़की स्मिता नंदी के पिता को बेटी के शो से बाहर होने पर दिल का दौरा पड़ गया था।

इन दिनों छोटे परदे पर बच्चे छाए हुए हैं। कोई नाचता है, तो कोई आवाज से सबको झुमाता है। उनकी हर अदा से दर्शक खुश हैं। प्रोडक्शन हाउस और टीवी चैनल वालों के लिए बच्चे एक नए प्रॉडक्ट की तरह साबित हुए हैं। वे बड़ों की तरह हर लटके-झटके से लैस हैं। वे डिजाइनर मुस्कान देते हैं, शेर सुनाते हैं। इन बच्चों को देखकर एक बार भी नहीं लगता कि ये वाकई 'बच्चे' हैं। माता-पिता की आकांक्षाओं को पूरा करने के चलते बच्चे अब बचपन, अपनी मासूमियत को भुलाकर गलाकाट प्रतिस्पर्धा का अंग बन गए हैं। मेकअप, चमकदार कपड़े और बड़ों जैसे लटके-झटके के बीच बच्चे बार-बार यही कह रहे हैं कि हमें लगातार काम करना है और थकना नहीं है। मानो थक गए, तो हार गए। इस तरह की सोच से वे खुद को ही नुकसान पहुंचा रहे हैं। देर रात तक चलने वाले शूटिंग शिड्यूल्स के बीच इन बच्चों के अति उत्साह को संभालने वाला कोई व्यक्ति नहीं होता। इससे स्वास्थ्य और मनोदशा पर विपरीत असर होता है। माता-पिता और दर्शक समझते हैं कि बड़ा समझदार बच्चा है। कोई मासूम ब्रिटनी स्पीयर्स बनना चाहती है, तो कोई सोनू निगम। ऐसा नहीं कि इसके लिए वे मेहनत नहीं कर रहे हैं या उनमें प्रतिभा की कमी है। पर कहीं न कहीं लगता है कि इन सबके बीच बचपन कहीं खोता जा रहा है।

नहीं चलेगी मनमानी
ऐसे ही एक रियलिटी शो 'छोटे उस्ताद' के दौरान एक दर्शक द्वारा खास मेहमान इमरान हाशमी को चूमने से खफा होकर एक संगीत निर्देशक कार्यक्रम से वॉकआउट कर गए। उनके मुताबिक बच्चों के कार्यक्रम में इस तरह की हरकत गलत है। टीवी चैनलों और रियलिटी शोज को मशहूर बनाने के लिए बच्चों पर जिस तरह मनमानी की जाती है, उसकी तरफ सरकार का कोई ध्यान नहीं है। शिंजनी की घटना के बाद थोड़ी सी हलचल जरूर हुई है। केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्री रेणुका चौधरी कहती हैं, 'देश में जानवरों तक के लिए कानून है। सरकार इस तरह के बालश्रम को नजरअंदाज नहीं करेगी और टीवी पर नाच-गानों के ऐसे कार्यक्रमों में बच्चों के काम के तौर-तरीके तय करेगी। सरकार ने इसकी जिम्मेदारी राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग को सौंपी है और शोज में बच्चों के काम के तौर-तरीकों की जांच के लिए 10 सदस्यीय कमेटी बना दी है।' आयोग की सदस्या संध्या बजाज का कहना है, 'हम इन शोज में जजों के लिए सीमाएं निर्धारित करेंगे और यह पता करेंगे कि इनसे बच्चों की पढ़ाई पर कितना असर हो रहा है। अगर बच्चों पर दबाव में माता-पिता की भूमिका भी पाई गई, तो उनसे भी सवाल किए जाएंगे।' इस पूरी कवायद पर बचपन बचाओ आंदोलन के राष्ट्रीय संयोजक कैलाश सत्यार्थी का कहना है, ' सरकार चाहे, तो बालश्रम कानून के तहत रियलिटी शोज के लिए अध्यादेश भी लाया जा सकता है। बालश्रम अधिनियम 1986 में 10 अक्टूबर 2006 को संशोधन किया गया। इसके अनुसार घरेलू बाल मजदूरी, ढाबों के साथ-साथ मनोरंजन क्षेत्र में भी बच्चों से काम नहीं लिया जा सकता और ये शोज भी बच्चों को मनोरंजन का एक जरिया ही बनाते हैं, तो फिर इन पर तुरंत रोक क्यों नहीं लगाई जा रही है?'

हर चीज है बिकाऊ
कैलाश सत्यार्थी का कहना है कि आज बाजार में हर चीज बिकाऊ है। प्रोडक्शन हाउस और चैनल वाले बचपन का बाजारीकरण करने पर तुले हैं। उन्हें घंटों कोल्हू के बैल की तरह जोता जा रहा है। रियलिटी शो वाले बच्चों और माता-पिता को रातों-रात सुपर स्टार बनने के सपने दिखा रहे हैं। इससे बच्चे भी अपनी सुध-बुध खोकर घंटों खुद को परव्शान करके भी शूटिंग और रियाज कर रहे हैं। उन्हें शूटिंग के दौरान घंटों काम करना पड़ता है, जिससे वे न समय पर खा पाते हैं और न सो पाते हैं। हकीकत यह है कि 100 में से एक बच्चा जीतता है, बाकी 99 बच्चे हार जाते हैं। कुछ बच्चे डिप्रेशन का शिकार हो जाते हैं, जिसका गहरा असर भी हो सकता है। दो बच्चों में तुलना भी नुकसान पहुंचाती है। मसलन 'देखो, ये कितना होशियार बच्चा है। तुम भी ऐसा ही किया करो।' आम बच्चों पर कुछ खास करने का दबाव बढ़ता जाता है।

हमारे साथ ऐसा नहीं
चैनल नाइन एक्स पर चल रहे शो 'चक दे बच्चे' में भाग ले रही उदयपुर की निष्ठा के पिता ए. के. नाग चौधरी कहते हैं,' हमने अपनी बच्ची को खेल भावना से कार्यक्रम में भाग लेने की सलाह दी है। हमने उसमें कभी भी कंपीटिशन की भावना पनपने नहीं दी। उसकी मम्मी मुंबई में चौबीसों घंटे उसके साथ रहती है और उसे संबल देती है। उसके लिए तो यह एक सीखने का मंच साबित हो रहा है। हां, अगर कुछ शोज में गलत हो रहा है, तो यह वाकई दुर्भाग्यपूर्ण है।' उनकी कही इन सारी बातों में कितनी सच्चाई है, यह तो वही जानते हैं। अब तो निष्ठा चक दे बच्चे की विजेता भी बन चुकी हैं।

बुरा असर सेहत पर
वरिष्ठ मनोचिकित्सक आर. के. सोलंकी बताते हैं कि अठारह घंटे काम करने वाले बच्चों पर दिन-रात अच्छे प्रदर्शन का बोझ रहता है। यह बात वे किसी से नहीं कह पाते और मन ही मन परेशान रहते हैं। शोज में होने वाली प्रतियोगिताओं को जीवन-मरण का प्रश्न बनाने की बजाय प्रतिभा निखार के मौके के रूप में देखना चाहिए। अगर बच्चे लगातार ऐसे तनाव भरे माहौल में रहते हैं, तो उन्हें हिस्टीरिया के दौरे तक पड़ सकते हैं। बच्चों को चाहिए कि वे बिना किसी दबाव के रिलेक्स होकर अपनी स्वाभाविक कला का प्रदर्शन करें और झूठे दिखावे से बचें।

आजाद छोड़ दो
समाजशास्त्री ज्योति सिडाना कहती हैं कि माता-पिता बच्चों को बिना किसी मेहनत के रातों-रात लखपति-करोड़पति बनाने के सपने दिखा रहे हैं। यह पूरी तरह गलत है। माता-पिता को इन कार्यक्रमों में बच्चों को भेजने से पहले उनकी प्रतिभा का सही आकलन करना चाहिए। इसी के साथ दूसरा पहलू यह भी है कि आजकल बच्चे जल्दी ही किसी भी बात को दिल से लगा लेते हैं । ऐसे में अगर उन्हें धैर्य का गुण सिखाया जाए, तो जिंदगी में कभी कोई मुश्किल नहीं आएगी। बच्चे पर किसी खास काम के लिए दबाव डालने की बजाय उनकी प्रतिभा को नैसर्गिक रूप से बढ़ने का मौका देना चाहिए। बच्चों में नैतिक मूल्य सिखाने पर ही वे स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के काबिल बन पाएंगे और किसी भी तरह के तनाव से दूर रहेंगे।

'सरकार इस तरीके के बालश्रम को नजरअंदाज नहीं करेगी और टीवी पर नाच-गानों के ऐसे कार्यक्रमों में बच्चों के काम के तौर-तरीके तय करेगी। हमने इसकी जिम्मेदारी राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग को सौंपी है। आयोग ने रियलिटी शोज में बच्चों के काम के तौर-तरीकों की जांच के लिए एक कमेटी बनाई है।' - रेणुका चौधरी, केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्री

'सरकार चाहे, तो बालश्रम कानून के तहत रियलिटी शोज के लिए अध्यादेश भी लाया जा सकता है। बालश्रम अधिनियम 1986 में 10 अक्टूबर 2006 को संशोधन किया गया। इसके अनुसार घरेलू बाल मजदूरी, ढाबों के साथ-साथ मनोरंजन क्षेत्र में भी बच्चों से काम नहीं लिया जा सकता और ये शोज भी बच्चों को मनोरंजन का एक जरिया ही बनाते हैं, तो फिर इन पर तुरंत रोक क्यों नहीं लगाई जा रही है?' - कैलाश सत्यार्थी, राष्ट्रीय संयोजक, बचपन बचाओ आंदोलन
-आशीष जैन

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