11 December 2008

कहां गया मेरी बगिया का फूल?


मुंबई में हुए आतंकी हमलों ने पूरे देश की रूह को छलनी किया है। आज देश जवाब मांगता है दुश्मनों से। आखिर क्या हासिल हुआ, हमारी बगिया के फूलों को उजाड़कर।


क्या लहू का कोई मजहब हो सकता है? क्या अश्कों में तड़पती आह से राम या रहीम को अलग-अलग दर्द होता है? अगर नहीं, तो फिर क्यों गुलशन को उजाड़ने पर आमादा है आतंक। सपनों की पोटली लिए मुंबई में घूमते सैकड़ों बेगुनाह ही नहीं, पूरी दुनिया की रूह को कंपाने की कोशिश है हाल में मुंबई में हुआ आतंकी हमला। रोज की भागदौड़, हजारों परेशानियां और अब उसमें शामिल है एक डर। आतंक का डर। कब किस ठौर विस्फोट हो और जिंदगी की रोशनी बेनूर होकर हजारों परिवारों के घरों को हमेशा के लिए अंतहीन अंधेरा दे जाए। पर कभी न थमने की हम देशवासियों की शपथ हमेशा रंग लाती है और हम फिर खुशी की बहार को अपने आंगन में बिखरने के लिए बुला लेते हैं।

बाबुल का ये घर बहना...

22 साल की जसमीन की आंखों में भी गजब की चमक थी, तो बातों में कुछ कर गुजरने की तमन्ना। घरवालों के सपनों को परवाज देने के लिए मोहाली से मुंबई के सफर के लिए रवाना हुई पर वापस फिर कभी अपने घर ना लौट सकी। उसका कसूर सिर्फ इतना था कि वह मुंबई में उस काली रात ओबरॉय के रिसेप्शन पर बैठी हुई थी। होटल मैनेजमेंट में ग्रेजुएट जसमीन दो महीने पहले ही मास्टर डिग्री के कोर्स के लिए सपनों की नगरी मुंबई आई थी। पापा डीआईजी भुर्जी अपनी लाडली को तन्नू कहकर पुकारते थे। जब उन्होंने टीवी पर मुंबई पर आतंकी हमले की खबर देखी, तो बेटी को फोन मिलाया। पर फोन उठाने वाले हाथ हमेशा के लिए निस्तेज हो चुके थे। तन्नू की मां दीप कौर और भाई परमीत की जुबान खामोश और आंखों में छलकते दर्द के सिवा कुछ नहीं बचा। परमीत को वो ख्वाब तो अधूरा ही रह गया, जिसमें दिन-रात वो अपनी फूल सी नाजुक बहन की डोली को सजाने की सोचा करता था। मम्मी-पापा ने जिस लाडो का हर नाज इस उम्मीद से उठाया कि एक दिन उसे घर से विदा करना है, वो तो दुनिया से ही रूखसत ले चुकी थी।

सोचा था मुस्कान देंगे

उनकी बातों में गजब का जोश था। अपने काम में माहिर। दिल में बस एक ख्वाहिश कैसे इस देश में अमन कायम रहे। वे शायद अकेले ऐसे पुलिस अफसर जिनके चाहने वालों ने उनके नाम से सोलापुर में करकरव् फैन क्लब तक बना रखा है। महाराष्ट्र के एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे, जिन्हें अपने काम और ईमानदारी के लिए जाना जाता था। अब वे इस दुनिया के लिए मिसाल बन चुके हैं। कामा अस्पताल में जाते वक्त उन पर पीछे से गोलीबारी हुई और वे मोबाइल पर अपनी बात पूरी न सके। पीछे छोड़ गए पत्नी कविता, दो बेटियां और एक बेटा। अभी कुछ दिनों पहले ही तो उन्होंने अपनी बड़ी बेटी के हाथ पील किए थे। लंदन में पढ़ने वाली दूसरी बेटी और मुंबई में पढ़ रहे बेटे को देश के हवाले कर अपने अनजाने सफर पर निकल गए। पूरा देश हेमंत के बलिदान को नहीं भूल पाएगा पर उन बच्चों को क्या दोष है, जो अपने पापा को जहान भर की खुशियां देना चाहते थे। सोचा था कि आने वाले समय में जब उनके पिता बुढ़ापे की दहलीज पर होंगे, तो उन्हें मुस्कान देते रहेंगे। ताउम्र देश की सेवा करने वाले करकरे की आंखों में भी सपना था कि काश वो दिन जल्द से जल्द आए जब इस देश में कोई आंख नम ना हो। हर तरफ बस खुशियों का डेरा हो। करकरे की शहादत को सच्चा सलाम तभी होगा, जब उनका सपना पूरा करने के लिए हम सब एक हो जाएं और दुश्मनों को दिखा दें कि जब देश का एक बेटा शहीद होता है, तो अपनी फर्ज निभाने हजारों सपूत और पैदा हो जाते हैं।

कहीं छुप गया है वो

मेरा इकलौता बेटा था जहीन। उसने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था हैवानों। मेरी उम्मीदों को कफन उठाकर तुम्हें आखिर क्या हासिल हुआ। ये तो बता देते। मां सलमा के दामन में अब आंसुओं के सैलाब के सिवा बचा भी क्या है? भीलवाड़ा से चलकर घर का चिराग मुंबई पहुंचा और हमेशा के लिए बुझ गया। ताज होटल में एक्जीक्यूटिव कुक जहीन अब इस दुनिया में नहीं है। पर दादा मोईनुद्दीन को अब भी लगता है कि घर के किसी कोने में छुपा हुआ नटखट जहीन उन्हें आवाज देगा, 'बाबा, आप मुझे नहीं पकड़ पाओगे। मैं छुप गया हूं। आपको नजर नहीं आऊंगा।' दादी कर रही है, 'मेरा पोता कहीं नहीं गया। वो तो सबसे नाराज है। इसलिए कहीं छुप गया है।' वाकई जहीन कहीं छुप गया। दादा-दादी की आंखें अब उसे कैसे ढूंढ़ेंगी। क्या गुजर रही होगी सलमा पर जब शादी के सेहरे की जगह आज अपने जिगर के टुकड़े के जनाजे को टकटकी लगाए देख रही होगी? किसी की दुनिया को उजाड़ कर आखिर मौत के सौदागरों को क्या मिला? क्या कोई बता पाएगा तन्नू, हेमंत या जहीन के घरवालों को।

-आशीष जैन

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