11 December 2008

छोटी जेब, बड़ा खर्च



'द ग्रेट मिडिल क्लास' अब और बड़ी 'ग्रेटनैस' की तरफ अग्रसर है। एसोचैम के सर्वे के मुताबिक देश के शहरी मध्यम वर्ग के बच्चों के जेबखर्च में भारी बढ़ोतरी हुई है। चारों तरफ छाई आर्थिक मंदी के इस दौर में बच्चों की बढ़ती जेबखर्ची कितनी बढ़ी है, सुनकर चौंक जाएंगे आप। 486 करोड़ रुपए। कार्टून नेटवर्क की ओर से देश के 14 शहरों में सात से चौदह साल की उम्र के 6000 बच्चों पर करवाए गए एक सर्वे के मुताबिक देश में हर साल करीब 486 करोड़ रुपए पॉकेटमनी के नाम पर खर्च कर दिए जाते हैं। एसोचैम के सर्वे के मुताबिक पिछले दस सालों में बच्चों की पॉकेटमनी में छह गुना इजाफा हुआ है।


एक माह का औसतन खर्चा

मोबाइल- 350 रुपए

मिठाई, चॉकलेट, क्रिस्प और कोल्ड ड्रिंक- 200 रूपए

मूवीज- 150 रुपए

घूमने पर - 250 रुपए

गिफ्ट्स- 250 रूपए

मैग्जीन- 50 रुपए

डीवीडी या वीडियो- 100 रुपए

कंप्यूटर गेम्स- 100 रुपए


याद कीजिए प्रेमचंद की कहानी 'ईदगाह' के नन्हे पात्र हामिद मियां को। कैसे वह दोस्तों के साथ ईद के मेले में जाकर अपनी बचत के तीन पैसों से मिठाई और खिलौने नहीं खरीदता बल्कि बूढ़ी दादी अमीना के लिए चिमटा लेकर जाता है। उसे अपनी दादी की जरूरतों का खयाल रहता है। वहीं आज के बच्चे बचत की बजाय खुद की जरूरतों और इच्छाओं को पूरा करने के लिए पैसा पानी की तरह बहा रहे हैं।
पैसा आया फिर खर्च किया

उदारीकरण और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आने से लोगों की आय में गजब का इजाफा हुआ है। पैसा बढ़ेगा, तो तय है कि उसे बेतरतीब ढंग से खर्च भी किया जाएगा। शुरू में लगा कि मध्यमवर्गीय परिवार ही पैसे से मालामाल हुए हैं। पर अब एसोचैम का सर्वे बताता है कि इसका असर बच्चों पर भी पड़ा है। महानगरीय बच्चों को अब पहले की तुलना में छह गुना ज्यादा पॉकेट मनी मिल रही है। एक दशक पहले जहां शहरी बच्चों को औसतन 300 रूपए प्रति माह पॉकेट मनी मिलती थी, वहीं अब मध्यमवर्गीय परिवारों के बच्चों को औसतन 1800 रूपए प्रति माह पॉकेट मनी के रूप में मिलने लगे हैं। महानगरों के 2500 बच्चों पर किए एसोचैम के सर्वे में यह बात सामने आई है कि सबसे ज्यादा पैसा दिल्ली के बच्चों को मिलता है। इसके बाद बंगलौर, चेन्नई, मुंबई और कोलकाता के बच्चों को। सर्वे के अनुसार देश में लगभग 65 फीसदी बच्चों को पॉकेट मनी दी जाती है। साथ ही यह भी कि लड़कों से ज्यादा पैसे लड़कियों को मिल रहे हैं। लड़के जहां वीडियो गेम्स और गिफ्ट पर ज्यादा पैसे खर्च करते हैं, वहीं लड़कियां अपनी पॉकेट मनी का 58 फीसदी हिस्सा कपड़ों पर खर्च कर रही हैं। कार्टून नेटवर्क की ओर से करवाए गए एक सर्वे से भी इस बात की पुष्टि होती है कि देश के 98 फीसदी बच्चे टीवी के आदी हो चुके हैं और टीवी पर देखे गए उत्पादों को मनमाने ढंग से खरीदने लगे हैं। ऐसे में बच्चों के कदम बहकना स्वाभाविक है।

बचत एक सपना

नई पीढ़ी के पास पैसों को खर्च करने के लिए विज्ञापनों का सहारा है। आज के दौर के विज्ञापनों का खास फोकस भी बच्चे ही होते हैं। विज्ञापन की लुभावनी भाषा के पीछे छुपी सच्चाई को बच्चे समझ नहीं पाते हैं और उस उत्पाद पर पैसे खर्च करने से खुद को रोक नहीं पाते। सर्वे में बच्चों ने यह बात भी स्वीकारी है कि हमें पैसे खर्च करने के लिए मिलते हैं, बचाने के लिए नहीं। अब बच्चों के लिए बचत कोई मायने नहीं रखती है। कक्षा 10 में पढऩे वाले शुभम का मानना है कि पढ़ाई के सारे खर्च तो मम्मी-पापा उठा ही लेते हैं। फिर जब पैरंट्स पैसे दे रहे हैं, तो इसे कहीं न कहीं खर्च भी तो करेंगे ही ना। इसमें गलत क्या है? पैसे को तुरंत खर्च करने के पीछे साथियों की देखादेखी और दिखावा अहम वजह है। अपने ग्रुप के बच्चों में वे खुद को बेहतर साबित करने के लिए तरह-तरह की चीजें खरीद लाते हैं। मम्मी-पापा के सामने उनका एक ही जवाब रहता है कि इसे मैंने अपनी पॉकेट मनी से खरीदा है। तब पैरेंट्स भी बच्चों की इन बातों को नजरअंदाज कर देते हैं। सिर्फ पैसे देकर माता-पिता अपनी जिम्मेदारियों को इतिश्री समझ रहे हैं। उनके पास पैसा तो है, पर बच्चों के लिए समय नहीं है। महंगे शौक हैंएक मल्टीनेशनल कंपनी में एग्जीक्यूटिव ऑफिसर महेंद्र सिंह के मुताबिक हम बच्चों को समझा सकते हैं कि पैसे किस चीज पर खर्च करने चाहिए। पर हर समय उनके साथ तो हम भी नहीं रह सकते हैं ना। इस माहौल में मोबाइल फोन के जादू से बच्चे भी नहीं बच पाए हैं। वे महंगे मोबाइल फोन पर अपनी पॉकेट मनी खर्च कर रहे हैं। अधिकतर स्कूलों में मोबाइल फोन लाने पर प्रतिबंध है फिर भी बच्चे चोरी छुपे अपने साथ मोबाइल फोन लाते हैं और अपने अपने दोस्तों के बीच रौब गांठते हैं। वहीं आज ज्यादातर बच्चे इंटरनेट और चैटिंग पर भी काफी खर्च कर रहे हैं। कक्षा 9 में पढ़ने वाले अंकुर जायसवाल घंटों साइबर कैफे में बैठे रहते हैं और दोस्तों से चैटिंग करते हैं। मम्मी-पापा के नौकरी पर जाने के बाद अंकुर घर पर अकेला रह जाता है और अपना समय गुजारने के लिए अक्सर चैटिंग करता है।
हमारा मानना है

कई बच्चे तो स्कूल में टिफिन ले जाने की बजाय कैंटीन से खरीदकर खाना पसंद करते हैं। उन्हें घर के पौष्टिक खाने की बजाय पिज्जा, बर्गर और पेटीज पसंद आते हैं। बच्चों की इस सोच पर स्कूल्स के नियंत्रण की बात भी सामने आती है। जयपुर के केंद्रीय विद्यालय नं. 1 की प्रिंसिपल राज अग्रवाल के मुताबिक हम इस बात पर पूरी निगाह रखते हैं कि हर बच्चा अपना टिफिन लाए और समय पर खाना खा ले। कैंटीन में भी द्गयादा महंगा सामान नहीं रखा जाता है। पर साथ ही माता-पिता को इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिए कि अगर वे बच्चों को जरूरत से ज्यादा पैसे दे रहे हैं तो इसमें हम क्या कर सकते हैं? बच्चा उसे गलत चीजों पर खर्च करेगा ही।समाजशास्त्री ज्योति सिडाना कहती हैं कि आज बाजार संस्कृति के बढ़ावे की वजह से बच्चों की इच्छाएं काफी बढ़ गई हैं। उन्हें हर चीज ब्रांडेड चाहिए। माता-पिता भी बच्चों को यही सिखा रहे हैं, 'जो है, आज है। कल का कोई भरोसा नहीं है। इसलिए पैसे को कल के लिए बचाने की बजाय खर्च करना ही ज्यादा अच्छा है।' यह सोच बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ करने वाली है। इससे बच्चे मेहनत का महत्त्व भूलने लगे हैं। उन्हें बस शौक पूरा करने के लिए ज्यादा से ज्यादा पैसे चाहिए।

समाजशास्त्री रश्मि जैन के मुताबिक बच्चों में निर्णय लेने की क्षमता उम्र के साथ-साथ ही बढ़ती है। उनका बालमन पैसों की अहमियत समझे बिना उन्हें खर्च करने लगता है। माता-पिता को उन्हें समझाना चाहिए कि जेबखर्च आपकी मासिक कमाई है और उसका कुछ हिस्सा हमेशा बचाकर रखना चाहिए। बच्चे किस चीज पर पैसा खर्च कर रहे हैं, यह ब्यौरा भी समय-समय पर उनसे लेते रहना चाहिए। उन्हें पैसे का सदुपयोग सिखाने से कोई समस्या नहीं आएगी।

-आशीष जैन

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