विश्व महिला मुक्केबाजी चैंपियनशिप में लगातार चौथी बार स्वर्ण पदक जीतकर मैरी कोम ने किया देश का सिर गर्व से ऊंचा।
रिंग में एक के बाद एक बरसते फौलादी पंच। बॉक्सिंग ग्लव्स और दो खिलाडिय़ों के हौसलों की भिडंत। बचाव के लिए हैं सिर्फ दो हाथ। अगर जरा सी चूक हुई, तो नाक या मुंह पर जबरदस्त चोट। यह रोमांच है बॉक्सिंग खेल का। इसी के सहारव् खुद का नाम मणिपुर की वादियों से पूरी दुनिया में फैलाने वाली महिला बॉक्सर हैं- एम.सी. मैरी कोम। उनके नाम में एम.सी. का मतलब है- मांगते चुन्गनेईजंग। हाल ही चीन में संपन्न हुई विश्व महिला मुक्केबाजी चैंपियनशिप में 46 कि.ग्रा. वर्ग में लगातार चौथी बार गोल्ड मैडल जीतकर उन्होंने देश का सिर गर्व से ऊंचा कर दिया है।
पेट भरने के लिए खेल
मणिपुर के ग्रामीण इलाके के मोइरंग लमखाई के कांगाथेई गांव में 1 मार्च 1983 को मांगते टोन्गपा कोम और मांगते सानेईखोम कोम के घर मैरी कोम का जन्म हुआ। 5 फुट 2 इंच लंबी मैरी अपनी गजब की फुर्ती से सामने वाले बॉक्सर को इस कदर परेशान कर देती है कि उसे आखिरकार घुटने टेकने ही पड़ते हैं। मैरी कहती हैं, '2000 में ही देश में आधिकारिक रूप से महिला मुक्केबाजी की शुरुआत हुई। तब लोग महिलाओं को इसके काबिल नहीं समझते थे। मैं एक किसान की बेटी हूं। अपने परिवार का पेट भरने के लिए इस खेल में आई। मैं चाहती थी कि अपने परिवारवालों को एक घर दिला सकूं और मैं तो बारहवीं तक ही पढ़ सकी पर अपने तीन बहनों और एक भाई की पढ़ाई अच्छी से अच्छी हो सके।' स्कूल के दिनों में मैरी को सारे खेल ही लुभाते थे। फुटबॉल और एथलेटिक्स उसे बहुत पसंद थे। उन दिनों उसने मोहम्मद अली के बारे में सुन रखा था और उनकी बॉक्सर बेटी लैला अली को एक बार उन्होंने टीवी पर देखा, तो बॉक्सिंग के बारे में सोचने लगी। उन्हीं दिनों 1998 में मणिपुर के डिंकू सिंह बैंकाक एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतकर लौटे, तो मैरी ने ठान लिया कि अब तो वे भी मुक्केबाजी में मैडल हासिल करके रहेंगी। एक दिन वह बिना किसी से कहे स्थानीय इंडिया सेंटर खेल अथोरिटी में बॉक्सिंग कोच से मिलने पहुंच गईं और मुक्केबाजी की अपनी इच्छा के बारे में उन्हें बताया। इस तरह सन 2000 में उन्होंने मुक्केबाजी शुरू की। इससे पहले वे जैवेलियन थ्रो जैसे खेलों में भी हिस्सा ले चुकी थीं। खेल में जल्द ही महारत हासिल करके वे जिला और राज्य स्तरीय बॉक्सिंग प्रतियोगिताओं में भाग लेने लगी। शुरू में माता-पिता को मैरी की बॉक्सिंग के बारे में पता नहीं था। एक बार राज्य चैंपियनशिप जीतने के बाद उनका फोटो अखबारों में छपा, तो घरवालों को जानकारी हुई। पिताजी नाराज भी हुए पर मैरी ने कह दिया कि बॉक्सिंग के बिना उनकी जिंदगी अधूरी है। जब मैरी को पूरे देश में प्रतियोगिताओं के सिलसिले में जाना पड़ता, तो उन्हें भाषा और भोजन की भी दिक्कतें आतीं। पर उन्होंने एक ही चीज ठान रखी थी कि हर कीमत में बॉक्सिंग में महारत हासिल करनी ही है। बैंकाक में पहली एशियाई महिला बॉक्सिंग चैंपियनशिप के सलैक्शन कैंप में भाग लेने जाते वक्त उनका सारा सामान और पासपोर्ट तक चोरी हो गया था। माता-पिता ने कहा, 'घर वापस लौट आओ।' पर मैरी ने हार नहीं मानी। वहां से खाली हाथ लौटने पर वे फिर अपने खेल में निखार लाने में जुट गईं। मैरी को सबसे ज्यादा दुख इस बात का होता है कि महिला बॉक्सिंग ओलंपिक खेलों में शामिल नहीं है। जीत का सिलसिला 2001 में अमरीका में पहली विश्व महिला मुक्केबाजी चैंपियनशिप में उन्हें रजत पदक से संतोष करना पड़ा। अगले साल तुर्की में हुई महिला बॉक्सिंग में तो उन्होंने गोल्ड मैडल लेकर ही दम लिया। फिर तो लगातार स्वर्ण पदक जीतने का सिलसिला चल ही पड़ा और अब नवंबर में चीन में लगातार चौथा स्वर्ण पदक हासिल कर पूरे देश को खुशी का मौका दिया। नई दिल्ली में हुई विश्व महिला मुक्केबाजी चैंपियनशिप जीतने के बाद उन्होंने अपने जुड़वां बच्चों की देखरेख के लिए दो साल के लिए खेल से अपना ध्यान हटा लिया। पर सिर्फ चार महीने के प्रशिक्षण के बाद वापसी इतना शानदार होगी यह किसी को भरोसा नहीं था।
मैरी बताती हैं, 'इस वापसी में मेरे पति के. ओनखोलेर कोम का बहुत बड़ा हाथ रहा। मेरे खेल को चमकाने में मेरे कोच इबोमचा, नरजीत, किशेन और खोइबी सलाम का भी सहयोग रहा।' मैरी कोम को उनके बेहतरीन खेल के लिए साल 2003 में अर्जुन अवार्ड से सम्मानित किया गया। यह पुरस्कार पाने वाली वह पहली महिला मुक्केबाज बनीं। इसके बाद 2006 में उन्हें प्रतिष्ठित पद्मश्री पुरस्कार दिया गया। पिछले साल उन्हें राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार के नामांकित भी किया गया था। मणिपुर सरकार ने मैरी कोम के बेहतरीन खेल प्रदर्शन को देखते हुए खेल गांव की एक सड़क का नाम मैरी कोम रोड रखा। यह वाकई उनके लिए बड़ी उपलब्धि है।
-आशीष जैन
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