29 April 2009

तेरा जूता मेरे सिर

आप अपने फटे-पुराने जूतों को संभालकर रख लीजिए जनाब। हो सकता है कि आने वाले वक्त में मार्केट में इनकी डिमांड बढ़ जाए। आपको नहीं पता, ना जाने कैसे-कैसे जूते आजकल छोटे परदे पर शोभायमान हैं।
आज फिर हमारा सपूत स्कूल से बिना पढ़े लौटा है। हमने पूछा, 'क्या हुआ लल्लू' तो वो बोला, 'पापा, स्कूल वालों को आप इतनी फीस देते हो। फिर भी उन्हें तो बस मेरे जूतों से प्यार है।' फिर रोते-रोते बोला कि स्कूल वाले कहते हैं, 'पहले ढंग के जूते पहनकर आओ। तभी क्लास में घुसने देंगे।' कुछ दिन पहले ही उसे नए जूते दिलाए थे, पर कमबख्त ने बरसात में भीगोकर खराब कर दिए। ये स्कूल वाले किसी की सुनते ही थोड़े ना है। अब मेरे पास तो पैसे हैं नहीं, जो मैं उसे नए दिलाऊं। चलो, इसी बहाने क्यों ना आपको जूता कथा ही बांच दूं। अगर कथा पसंद आए, तो सप्रेम जूते देना और बुरा लगे, तो भी जूते ही देना। मुझे तो काम ही जूतों से हैं। तो भई 21 वीं सदी में जंबूद्वीप के भारतक्षेत्र में एकाएक बात चली, स्वतंत्रता की। लोगों के हुजूम चौक-चौराहों पर इकट्ठा होकर मांग करने लगे- हम आजाद तो कई साल पहले हो गए। पर मजा नहीं आता। लगता ही नहीं कि कुछ कर पाने की हालत में हैं या नहीं। हमें अपनी बात कहने की स्वतंत्रता हासिल ही करनी होगी। नेताओं को उनकी नानी याद दिलानी ही होगी। कोई मंच पर चढ़ बैठा, तो कोई रव्डियो पर लपक लिया। अब रह गए गज्जू भैया। अरे पत्रकार गज्जू भैया। वही जो सारे शहर को उनकी बात कहने के लिए मंच उपलब्ध कराते हैं। अखबार का मंच। दीन-दुखी उन्हें लाख आशीष देते हैं। अब लोगों को कौन बताए कि खाली आशीर्वाद से आज के टाइम में होता क्या है। वो बोलते रह जाते पर उन बेचारे महाशय का दर्द कोई सुनता ही नहीं था। उनका गुस्सा जायज था। क्या करें, कब तक कलम घिसते रहें। आज तक पड़ोसी अखबार का एडीटर तक तो शक्ल से पहचान नहीं पाया। चाहे हजारों प्रेस क्रांफेंसों में शामिल हो गए। पर कोई भाव ही नहीं देता। आज मौका मिला, तो पेश कर दिया जलवा। फैंक मारा जूता। चमक गई किस्मत। अब तो हमारा रोज का जागरण ही उनके नाम से होगा। प्रणाम करेंगे, रोज सुबह जागकर उन्हें। मार्क्सवादियों की समस्या ही हल कर दी भई। अब देखिए जूता भी किसे मारा, अपने चंदू भैया को। घर वाले मंत्री को घर में ही कोई जूता मार गया। हम तो हंस-हंसके लोट-पोट हुए जा रहे हैं। अरे, शान भी तो देखिए, जूता फैंका है और इतनी मस्ती में कुर्सी पर टिके हुए हैं, मानो कह रहे हों, 'आओ अब मेरी आरती भी तो उतारते जाओ।' एक तो अपने रामजी थे। जिनके खड़ाऊं से ही भरत भैया धाप गए थे। अब तो आडवाणी बाबू भी खड़ाऊं का असर देख चुके हैं। हमारे रामूकाका ने तो अपनी पूरी उमरिया ही लिगतरों में ही गुजार दी। फिर जूती, सैंडल ना जाने क्या-क्या चीजों का फैशन ही आ गया। जवानी के दिनों में हम एक गाना बड़े चाव से गाया करते थे- मेरा जूता है जापानी...। जूतों की शान थी उस वक्त। फिर तो जूतों के लेन-देन की भारतीय परंपरा पर भी गीत बन गया जी- 'जूते ले लो, पैसे दे दो...' ये लेन-देन फिल्मों तक तो ठीक था। अब तो असल जिंदगी में भी जूते का जादू चलने लगा है। जैदी ने क्या फार्मूला ईजाद किया पॉपुलर होने का। बुश पर जूता फेंका और छा गए पूरी दुनिया में। तो फिर उनके हिंदुस्तानी भाई कैसे पीछे रहते। वो ही कलमची... वो ही जूते... वो ही प्रेस कॉफे्रंस। बस थोड़े से फेरबदल से जूता कथा का पूरी तरह से भारतीयकरण हो गया। तैयार हो गई नई चाट। तो अब घबराना मत। रोज चटकारे लगाने को तैयार हो जाओ। अब तक तो आप जूतों को यूं ही पैरों में डालने की चीज ही समझते आए हैं। पर तैयार रहना, ये घर में बीवी का हथियार हो सकता है, तो घर के बाहर भी पॉपुलरटी तो दिला ही सकता है। चलते-चलते आपको बता देते हैं कि हरियाणा में भी नवीन जिंदल साहब पर भी जूता चल ही गया। हम कहते ना थे, ये जूता शास्त्र एक न एक दिन जरूर क्रांति लाकर रहेगा और देख लीजिए अब इसकी शुरुआत भी होने लगी है। अब तो हमें लगता है कि हर बड़ी सभा के बाहर एक बोर्ड जरूर टंगा मिलेगा- आपका जूता हमारा सिर सहर्ष स्वीकार कर लेगा, पर थोड़ा-सा पहले बताकर मारिएगा।
-आशीष जैन

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